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वर्धमान चम्पुः
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सेवाधर्मः परमगहमः सत्यमेतसथापि,
वेग्यश्चकुर्मुदितमनसा तीर्थकृत्पुण्ययोगात् । मातुः सेवामतिसुखकरी वृत्तिरिक्तां स्वयोग्याम्,
धन्यस्तेषां भवति स भयो वेवसेव्यो भवेद् यः ॥ ३२ ॥
सा शारदीयाम्बरसुल्यकान्तिः,
वपुःप्रभान्यक्कृसराजहंसी। चकास राकेव च चन्द्रपूर्णा,
स्वमंदिरेऽलतकशोभिपादा ॥३३॥ बेहप्रभामण्डलमण्डनः सा,
विराजमाना विशला रराज । तपाल्पनिरशोकरा
संसिध्यमानाभिनषा धरित्री ॥ ३४ ॥
यह बात सत्य है कि. सेवाधर्म परम गहन है । फिर भी तीर्थकर पुण्य प्रकृति के प्रभाव से उन की माता की सेवा प्रसन्नचित्त होकर देवियों ने की। माता को उनकी सेवा से बहत सुख मिलता था । यह सेवा बिना वेतन की थी। वह जन्म धन्य है कि जो देवसेव्य होता है ॥ ३२ ॥
शरदकालीन मेघ के समान जिसके शरीर की प्रभा है और इस प्रभा के आगे राजहंसी भी तिरस्कृत हो जाती है ऐसी वह त्रिशला जिसके दोनों घरण अलक्तक-महावर–से सुशोभित होते रहते हैं अपने राजमन्दिर में पूर्णचन्द्रमण्डल वाली पूर्णिमा के जैसी शोभित होती थी ।। ३३ ।।
ग्रीष्मकाल के ध्यतीत होजाने पर निर्भरों के शीकरों से सिञ्चित हुई नवीन भूमि जिस प्रकार शोभित होती है, उसी प्रकार देह की प्रभारूप भण्डनों से विभूषित हुई वह कमलनयनी त्रिशला सुशोभित हुई ॥ ३४ ॥