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वर्धमानघम्पू:
प्रभामहत्या शिखयेव दीपः,
रत्नत्रयेणाथ च भुक्तिमार्गः । अनभ्यहारावलिमिश्च कंठो,
गर्भेण सा स्वस्तिमती रराज ।। ३५ ॥
लावण्यमंगे स्फुरितं तदीये,
__ मणिप्रभाभं द्विगुणं रराज । सार्धं विभूत्या महतां प्रभावो,
वाया न बाच्यः खलु कोप्यपूर्वः ।। ३६ ॥
सा संस्थिता यौवनमंदिरेन्सः,
सौभाग्यभूतेः परिवद्धनार्थम् । धर्मोक्तविद्यां सततं बयस्या
मिवाङ्गसंगोमुररीचकार ॥३७॥
वह स्वस्तिमती त्रिशला जिस प्रकार प्रकृष्ट प्रभावाली शिखा से दीपक शोभित होता है, रत्नत्रय से मुक्तिमार्ग शोभित होता है एवं अनर्थ्य हारावलि से कण्ठशोभित होता है उसी प्रकार गर्भ से शोभित हुई ॥ ३५ ॥
त्रिशला की रगरग में लावण्य मणि में प्रभा के जैसा द्विगुणित होकर चमक रहा था । गर्भ के प्रभाव से विभूति भी उसकी असाधारण हो चली । सच तो यह है कि महापुरुषों का प्रभाव कोई अपूर्व ही होता है । वह शब्दों द्वारा प्रकट करने में नहीं आता ।। ३६ ।।
यौवनरूप मन्दिर के अन्दर स्थित हुई त्रिशला ने अपने सौभाग्यरूप वैभव के परिवर्द्धन निमित्त सखी के समान धार्मिक ज्ञान को अपना साथी बनाया ।। ३७ ।।