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भाषा प्रवाहमयी है । कबि का मुख्य लक्ष्य प्राचीन कथों को सरस, सहज एवं माहित्यिक भाषा में वर्णन करना है, जिसकी इस काव्य में पर्याप्त पुति हई है। लक-प्रबण एवं धर्म-ग्रन्थ होने पर भी प्रकृत काव्य में साहित्यिक सौन्दर्य श्री प्रचुरता है । कविवर वी प्रकृत रचना उनकी चरमावस्था की चरम परिणति है । समाज में यह धारणां दृढमूल होती है कि बाधक्य काल में कविगण मतिभ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं किन्तु कवि की बुद्धि-विलक्षणता एवं विचक्षणती उसका सुखंद अपवाद है । इस सन्दर्भ में कविवर के विचार द्रष्टव्य हैं
मतिम्रमों जायत एवं पुंसां वार्धक्यकाले जनवाद एषः। मिथ्या यतोऽहं न तथा बभूव बभूव में प्रत्युत शेमुषोद्धा ।।
__ -परिशिष्ट १ कवि की शमुषी का तो परिवहणं ही हुअा और उन्होंने इस अमूल्य ग्रन्थ-रत्न का प्रणयन किया ।
कम्य की विनयशीलता उन्हें और भी उच्च पद पर प्रतिष्ठापित करती है : क व अपनी भावानुभूति को व्यक्त करते हुए स्पष्ट करता है कि यदि बाही काव्य-रचना में स्खलन हो गया हो तो विद्वज्जने से क्षेमी कर दें ..
अम्यं काव्यस्य निर्माणे उपयोगः सुरक्षितः । नथापि यदि जाता स्यात्वृटिः क्षम्या गृणाग्रहै: ।। ..
-परिशिष्ट २ आगे वा बिवर हाथ जोड़कर अपनी त्रुटियों के प्रति ध्यान न देने । इन्हें कधि को बुद्धि का दोष मान कर क्षमा करने की याचना
विवरेण्यै गुणिरागवभिः, बायकोलोद्भव काव्य मैतत् । विचिन्त्य गाब्दीह यदि त्रुटिः, स्यात् क्षम्येति सयोज्य करीबवामि ।।
–परिशिष्ट कालय के अन्त में कविवर शास्त्री जी ने अपने बाव्य के पठन-पाठन की शाश्वतिक मनीषा की कामना की है और कहा है कि जब तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार रहेगा, जव तक मन्दाकिनी का जल प्रवाहित होता