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रहेगा, जब तक सूर्य और चन्द्रमा क्षितितल को प्रकाशित करते रहेंगे तब तक विद्वत्सभा में प्रकृत वर्धमान चम्पू-काव्य को सहृदय रसिकगण निरन्तर पढ़ते-पढ़ाते रहेंगे
यावद्राजति शासनं जिनपर्यावच्च गंगाजलम्, यावच्चन्द्रदिवाकरी वितनुतः स्वीयां गति चाम्बरे । तावद्राजतु काव्यमत्र भुवि मे विद्वत्सभायां जनेः
हृद्यं सद्धृदयैरहनि शमिदं पापठ्यमानं मुदा ।। कविवरेण्य शास्त्रीजी आज नहीं हैं परन्तु उनकी आत्मा काव्य के कण-कण में व्याप्त है । काव्य की रामणीयकता नि:सन्दिग्ध है।
प्राशा है सुज्ञ बिद्वज्जन प्रस्तुत काव्य का रसास्वादन करेंगे ।
जयपुर २७ जुलाई, १९८७
गंगाधर भट्ट
निदेशक रायबहादुर चम्पालाल प्राच्यशोध संस्थान,
जयपुर