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वर्धमानचम्पूः
अभयंकरं विधाय तर्जयन् भर्त्सयति स्म । पंचानन गर्जनामिव तद्गर्जना निशम्य मावलिप्तकपोलपालिः सः करेणुराजो बिलज्जितः संस्तत्रय भयाच्छुल्कमदो बभूव । विनीतान्तेवासिनमिव तस्थिवांसं सं संवीक्ष्य स कुमारी मार इव रम्याकारः शालमिव विशालं तत्स्कन्धं समारा वनमुष्टिप्रहारस्तं संताडयन् सर्वथा बिगसमदंविधाय स्ववशं निनाय ।
एतद्दन्तं समधिगम्य लुण्डलपुर निवासिनो निखिला जना महत्या श्रिया वर्धमानस्य तस्य वर्धमानकुमारस्य निभंयत्वं शौर्यत्वं च सुरम्यः प्रशंसायाधि संबोधनरलंकृत्य शंसन्ति स्म ।
एकदा संगमास्यः कश्चिद्देवस्तदीयां धैर्यसमज्ञां सौधर्मेन्द्रणामराणां परिषदि प्रगीतां निशम्य स्थविकियाबलेनदप्तो धूतसर्पराज स्वरूपो महावीरकुमारस्य निर्भयस्वं शौयं च परीक्षितुं तत्रागाद् यत्रासौ वृक्षस्मैक
गजराज को अभयंकर बना दिया । शेर की गर्जना की जैसी वर्धमानकुमार की बलिष्ठ गर्जना को सुनकर वह मदोन्मत्त गजराज लज्जित होता हया शुष्क मदवाला हो गया है । विनीत शिष्य के समान अपने समक्ष उसे खड़ा हमा देखकर कामदेव जैसे सुन्दर वे वर्धमानकुमार शाल-कोट-के जैसे विशाल उसके स्कन्ध पर सवार हो गये । सवार होकर उन्होंने वन के जैसे मष्टि प्रहारों से उसे ताड़ित किया । इस तरह निर्मद करके उसे बधेय-बेवकूफ के समान अपने वश में कर लिया । इस वृत्तान्त को मुनकर समस्त कुण्डलपुर की जनता ने बड़ी भारी विभूति के साथ उस वर्धमानकुमार की निर्भयता एवं शूरवीरता को प्रशंसावाचक संबोधनोंसे अभिनंदना--प्रशंसा की।
एक समय ऐसी एक घटना और घटी कि सौधर्मेन्द्र देवों की सभा में बैठकर वीर के शौर्य की कीर्ति का बखान कर रहा था, उसमें संगम नाम के देव को इन्द्र के कथन पर विश्वास नहीं हुआ, अतः उस अभिमानी ने उसी समय विक्रिया ऋद्धि के द्वारा सर्पराज का रूप बनाया और प्रभु की शूरवीरता एवं निर्भयता की परीक्षा लेने के लिए वह वहां लाया जहां कि वर्धमानकुमार अन्य समवयस्क बालकों के साथ क्रीडा करने में रत थे। उनकी यह क्रीडा वृक्ष के प्रधो भाग में हो रही थी। इस क्रीडा का नाम