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रचनाकार का जीवन परिचय
प्रस्तुत कृति के रचनाकार पं० मूलचन्दजी का जन्म अगहन वदी अष्टमी सं० १९६० के शुभ दिन मध्यप्रदेश के सागर मण्डलान्तर्गत मालथीन नामक ग्राम में हना था । आपके पिता का नाम श्री सटोले लाल एवं माता का नाम श्रीमती मलखोदेवी था। आप परवार जाति के भूषण
नाप अपने पिता की एकमात्र सन्तान थे। दुर्भाग्य से हाई वर्ष की अल्पायु में ही आपके पिता का स्वर्गवास हो गया। इनका पालन-पोषण इनके पिता के भाई, भावज एवं माता के द्वारा हुना। बचपन में ये बड़े नटखट थे। जब ये सात वर्ष के थे तब एक दिन 'अण्डा द्धाबरी' प्रामलकी कीड़ा) नामक खेल खेलते हुए इनका बांया हाथ टूट गया जो जीवनपर्यन्त ठीक नहीं हग्रा ।
इनके परिवार की एवं इनकी स्वयं की विपन्नावस्था पर दृष्टिपात कर पं० बजलालजी जो किसी कार्य में मालश्रीन पाये थे, इन्हें अपने साथ चौरासी मथुरा ले गये पीर जहां आश्रम में अध्ययनार्थ इनकी व्यवस्था कर दी। कई कारणों से वहां इनका अध्ययन भले प्रकार चल नहीं सका । चौरासी में ये तीन वर्ष रहे एवं वहां धर्म प्रवेशिका की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात इनको १५ वर्ष की प्राय में अागे शिक्षा प्राप्त करने हेतु बाराणसी भेज दिया गया। वहां स्व० गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा संस्थापित स्याद्वान महाविद्यालय में प्रापने छह वर्षों तक प्रसिद्ध विद्वान् श्री अम्बादासजी से न्याय, व्याकरण, साहित्य एवं दर्शन विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन किया तथा धर्म और साहित्य में शास्त्री तथा न्यायतीर्थ परीक्षाएं उत्तीर्ण की।
वाराणसी में अपना अध्ययन समाप्त कर ये अहमदाबाद चले गये । बहां प्रज्ञाचक्ष पं० मुखलालजी ने इनकी योग्यता का प्राकलन कर इनको गांधी विद्यापीठाधित पुरातत्त्व विभाग में नियुक्त कर लिया। वहां उस समय सम्मतितर्क नामक ग्रंथ का प्रकाशन कार्य चल रहा था जिसके पाठान्तर संकलन का कर्तव्य इन्होंने सूचाम रूप से किया। यहां कार्य करते समय ही इनका सम्पर्क प्रसिद्ध पूंजीपति श्री पन्नालाल उमाभाई एवं कई विद्वान् श्वेताम्बर साधूत्रों से हुआ। ये १६ वर्ग तक श्वेताम्बर साधुनों एवं समाज के सम्पर्क में रहे । यहां रहते हुए इन्होंने कई श्वेताम्बर साधुनों को शिक्षा प्रदान की तथा कई महत्त्वपूर्ण श्वेताम्बर प्रागमों और ग्रंथों की टीका, अनुवाद यादि किये । कूछ स्वतंत्र ग्रंथों की भी रचना की ।