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धेनुस्तनेभ्यः पयसां प्रवाहो, विनिर्गतस्तज्जनि हर्षभावात् । शशाम तस्मिन् समये विरोधो,
विरोधिनां गोप्तरि जायमाने ॥ ३.११ संसार की असारता एवं सम्बन्धों की नश्वरता का प्रतिपादन करते हए कविवर शास्त्रीजी ने तीर्थकर वर्धमान के मुख से समस्त सम्बन्धों की असारता का दिग्दर्शन कराया है। वे कहते हैं कि संसार में न कोई किसी की माता है और न कोई किसी का पिता । यथार्थ दृष्टि से विचार किया जाय तो यह आत्मा स्वयं अकेला है--
न कोऽपि कस्यास्ति सुतो न माता, भ्राता पिता मोहनृपस्य लीला । सम्बन्धबन्धा निखिला इमेऽत्र,
भूतार्थरष्ट्या स्वयमेक एव ।। ५.३३ सप्तम स्तवक में वर्धमान महावीर द्वारा कैबल्य प्राप्ति का सुन्दर वर्णन किया गया है । जैसे-जैसे तपस्या प्रकर्षवती होती है वैसे-वैसे संचित कम विक होते जाते हैं और कैनन की प्राप्ति हो जाती है
यथा समिमिन्धनं प्रदह्यतेऽग्निना स्वयम्, तथैव कर्म संचितं प्रदह्यते तपस्यया । मुमुक्षुभिः प्रकर्षतः शुभाशयेन सर्वदा,
यथा यथा प्रसेव्यते प्रदह्यतेजिता बिधिः ।। ७.१ जिस प्रकार मलविहीन पदार्थ में विशुद्धता अथबा निर्मलता आ जातो है उसी प्रकार कर्मविहीन आत्मा में भी विशुद्धता, निर्मलता एवं विशदता आ जाती है।
कैवल्य प्राप्ति के अनन्तर भगवान् वर्धमान महावीर के प्रभाव एवं प्रताप का चित्र प्रस्तुत करते हए कविवर शास्त्रीजी ने उनकी स्तुति करते हए अपनी भावांजलि को समर्पित किया है। कवि की यह मान्यता है कि भगवान महावीर के प्रभाव से अपने जन्मजात वर भाव का परित्याग कर एक ही प्रकोष्ठ में सिंह और गाय, बिल्लो और चूहा. कुत्ता और हरिण शान्तिपूर्वक बैठे हुए हैं, उनमें परस्पर अपरिमित प्रीति है
स्वामस्तेऽस्ति प्रबलमहिमा ह्यन्यथा सिगात्री, माजीराजू शुनकहरिणाबेक कोठ कथं वा ।