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धमानचम्पू: इत्थं संभूय शक्रा:रनिर्वाणसूत्सवः ।
विहितः पर्वराजोऽसौ दीपावल्यभिषोऽभवत् ॥ ५३ ॥ तीर्थंकरो महावीरो यदा मुक्तिकान्तायाः कमनीयसद्मनि सहोषिसुंगयाँस्तदा चतुर्थकालसमाप्तौ सार्धाष्टमासोपेतानि त्रिवर्षाण्यवशिष्टा. न्यासन् । चतुणिकायादेवास्तत्काल समागत्य तत्प्रभोः सपर्या चकः प्रदीपश्चि प्रज्वालयामासुः। प्रज्वलितैश्च सेः प्रवीपैः सा पावानगरी प्रदीपिताकाशतमाऽभवत् । तत्समयादेव भक्तजना जिनेश्वरस्याची कतु भारतवर्षे प्रतिसंवत्सरं तत्परिनिर्वाण दिवसोपलक्षे दीपावल्यभिधानं पर्व महोत्साहेन भजन्ते । वीरप्रनिर्वाणस्य स्मारकरूपेण वोरनिर्वाणसंवत्सरोऽपि प्रचलितो जातो यः प्रचलितेषु संवत्सरेषु प्राचीनो वर्तते ।
इस प्रकार देवेन्द्र आदिकों ने एकत्रित होकर वीरनिर्वाण का महोत्सव मनाया । उन्हीं प्रभु की स्मृति में यह पर्वराज "दीपावली" इस 'रूप से प्रसिद्ध हुा ।। ५३ ।।
तीर्थंकर महावीर जिस दिन मुक्तिरूपी कान्ता के सुन्दर मन्दिर में प्रविष्ट हुए, उस समय चतुर्थकाल की समाप्ति होने में ३ वर्ष ८ माह १५ दिन बाकी थे । चारों निकायों के देव तत्काल वहां आये । वहां पाकर उन्होंने प्रभु की पूजा की। दीपों को जलाया । जलते हुए उन दीपों की भास्वर प्रभा से पावा नगरी का समस्त प्राकाश-मण्डल प्रदीप्त हो उठा । उसी समय से भक्तजन जिनेन्द्र की अर्चा-पूजा-करने के निमित्त प्रतिवर्ष भारत में उनके निर्वाण-प्राप्ति:दिवस के उपलक्ष में दीपावली नाम का पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं । बीर प्रभु के निर्वाण की यादगारी के रूप में वीर-निर्वाण-संवत्सर चालू हुआ जो प्रचलित संवत्सरों में
प्राचीन है।