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वर्धमानचम्पू
जगति शान्तितरङ्गमाला प्रासरत् । अधोलोकीकसा नारकारणामपि निरन्तरमसझदुःवायाग्निपतितानां भणमेकं यावन् नारकीययन्त्रणा विनिर्मक्तत्वाच्छान्तिर्जाता । आनन्दमेरोणां निनावेन तदा समस्तमपि तत्कुण्डलपुरमेकालयमिव प्रपूरितमभवत् । सर्वत्र तत्र महान्तोऽन्तःकरणविमोहिनः प्रमोदोत्सवाः प्रचुरमात्रयाऽभवन् । प्रकर्षहर्षभराकान्तं तनगरं समुद्वेलितसमुद्र यत् क्षुधं बभूव । पुत्रजन्मोत्सवं लक्ष्यीकृत्य राजा सिद्धार्थेन सिद्धार्थन सिंहासनमुझे च चामरे विमुच्य प्रभूतमात्रायां वानं याचकेभ्यो वितीर्णम्, महतोत्साहन च राज्योत्सवो विहितः ।
प्रभोर्जन्मप्रभावात् सौधर्मेन्द्रस्य हर्यासनं स्वयं यदा प्रकम्पितं तवा तत्प्रकम्पनतस्तेन कुण्डलपुरेऽवधिशानिना तीर्थंकरस्थान्त्यस्यजनितिति विज्ञातम् । सद्यः स समस्तनिलिम्पपरिवारेण परितः परिवृतः सामोवो विविधां लास्यक्रियां विवधानः कुण्डलपुरं समागच्छत् ।
के प्रकाश की तरह शान्तिरूप तरङ्गों की माला सर्वत्र फैल गई। अधोलोक में निवास करनेवाले नारकियों तक को भी जो कि निरन्तर असह्य दुःखरूपी दावाग्नि में जलते रहते हैं एक क्षण के लिए शान्ति मिल गई । अर्थात्--- उनकी नारकीय यन्त्रणा एक क्षण भर को शान्त हो गयी । उस समय आनन्दभेरी की गड़गड़ाहट से समस्त कुण्डलपुर एक घर के जैसा भर पया । नगर में सर्वत्र मन को मोहित करनेवाले प्रानन्दोत्सबों का प्रवाह उमड़ पड़ा। प्रकर्ष हर्ष के भार से विभोर हा वह नगर समुद्वेलित समुद्र की तरह क्षुब्ध हो उठा । राजा सिद्धार्थ ने पुत्रजन्म के उपलक्ष्य में सिंहासन और दो चामरों के सिवाय याचकजनों को प्रभूतमात्रा में दान दिया । बड़ी धूमधाम के साथ राज्य की ओर से उत्सव मनाया गया ।
प्रभु के जन्म के प्रभाव से सौधर्मेन्द्र का आसन स्वयं कम्पित हुआ। उसके प्रकम्पन से उसने अपने अवधिज्ञान से यह ज्ञात कर लिया कि कुण्डलपुर में अंतिम तीर्थकर का जन्म हया है। वह समस्त देवपरिवार से चारों ओर से घिरकर बड़े आमोद-प्रमोद के साथ विविध प्रकार के नर्तन करता हुमा कुण्डलपुर में पाया।