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मधमानपम्पू:
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व्ययं न समन्तभद्रः, विनायकोऽप्ययं नाविनायनां नायकः सविग्रहोऽप्ययं नो सविग्रहः।
नृपतिमौलिमालाचुम्बितपायपीटस्यास्य नृपतिशेखरशिरोमणेरासन सप्राप्तात्मजास्त्रैलोक्यसौन्दना शिस्वरूपा मनामनाङ्गनेव सा मूतिमत्यः । प्रास्त्रेका प्रणयप्रणोतिर्गतौ करिणीव प्रियकारिणी त्रिशलाऽपरनामधेया प्रोणितपोष्यवर्गा बुर्गुणानां विवारिका वारिका । सा कुण्डलपुराधिपतिना ज्ञातृवंशावतंसेन नृपतिना सिद्धार्थनोवाहिता शुभे रूग्ने प्रशस्तायो तिथौ महतोत्सवेन । पतिप्राणा सा स्वस्वामिनेऽनमिने प्राणेभ्योऽपि
कारक साधनसामग्री प्राप्त होती रहती थी फिर भी ये समन्तभद्र नहीं थे तो इस विरोध का परिहार ऐसा जानना चाहिए कि किसी भी साधन सामग्री का जो कि कल्याणकारक होती थी एक क्षण भर के लिए भी अन्त–अभाब नहीं रहता था । हर प्रकार से उस साधन सामग्री से ये भरपूर बने रहते थे। ये कुशल नायक थे—फिर भी अविनीतों के नायक-- नेता नहीं थे। ये विग्रहसहित थे—सौन्दयोपेतशरीरवाले थे-फिर भी विग्रहवाले नहीं थे तो इस विरोध का परिहार ऐसा है कि ये सदा युद्ध से परे रहते थे।
जिसके पादपीठ को राजाओं के मुकुट प्रतिदिन चुम्बित किया करते थे ऐसे इस नृपतिशिरोमणिरूप चेटक नरेश की सात कन्याएँ थीं । ये सौन्दर्य की राशि स्वरूप थीं, देखने में ये ऐसी प्रतीत होती थीं मानो रति की साक्षात् अवसरस्वरूप ही हैं। इनमें प्रथम पुत्री का नाम त्रिशला था । इसी का दूसरा नाम प्रियकारिणी भी था । इसकी चाल हथिनी की चाल जैसी सुहावनी थी । दुर्गुणों से यह सदा दूर रहती थी। अपने प्राश्रित परिचारकों को यह सदा प्रसन्न रखती थी । चेटक ने इसका विवाह मातृवंश के मुकुटस्वरूप राजा सिद्धार्थ के साथ, जो कि कुण्डलपुर के शासक थे शुभ लग्न और प्रशस्त तिथि में बड़े उत्सव के साथ कर दिया । पतिप्राणा त्रिशला अपने प्राणनाथ सिद्धार्थ को अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी हो