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वर्धमानचम्पू:
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योग्यानामात्मपरिणामानां प्रतिक्षणमसंख्यातगुणोन्नतिरेव क्षपक श्रेणी । इयं च श्रेणी अष्टम, नवम, दशम, द्वादश गुणस्थानेषु भवति । विष्वाधेषु गुणस्थानेषु चारित्रमोहनीयकर्मणोऽवशिष्टानामेकविंशतिप्रकृतीनां शक्तेः क्रमशो हासो भवति । प्रासां पूर्णक्षयस्तु क्षीणमोहाख्ये गुणस्थान एवं जायते।
चारित्रमोहे विगलिते सति निखिलाः क्रोधमानमायालोभकामहेषादयः कषाया (विकृता भावाः) सर्वथरपुनर्भावेन विनष्टा भवन्ति । तवात्मापूर्णशुद्धवीतरागदशासंपन्नः समोहाविहीनः संजायते । तबनन्तरं द्वितीयं शुक्लथ्यानभेकत्ववितात्यं समुद्भूतं भवति । अस्मिन् जाते
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उपयुक्त होती है। कर्मक्षय के योग्य प्रात्मपरिणामों को जो प्रतिक्षण असंख्यात गुणी उन्नति है यही क्षपकश्रेणी है । यह आपकश्रेणी पाठवें, नवमें, दश और १२ गुणस्थानों में होती है। आदि के तीन गुणस्थानों में चारित्र मोहनीय कर्म की अवशिष्ट २१ प्रकृतियों की शक्ति का क्रमशः ह्रास होता जाता है । इनका पूर्णक्षय तो १२३ गुणस्थान में होता है । बारहवें गुणस्थान का नाम क्षीणमोह है ।
इस तरह जब चारित्र मोह विनष्ट हो जाता है तब क्रोध, मान, माया, लोभ, काम एवं द्वेष प्रादिरूप जो विकृत भाव हैं वे सब अपुनर्भाव से नष्ट हो जाते हैं । तब अात्मा पूर्ण शुद्ध वीतराग दशा से युक्त एवं समोहा-इच्छा से विहीन हो जाता है । इसके बाद शुक्ल ध्यान का द्वितीय पाया जो एकत्व-वितर्क है वह उत्पन्न होता है । इसके उत्पन्न होते ही