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वर्धमानचम्पू:
सत्येव ज्ञानदर्शनावरणयोः कर्मणो शानदर्शनावारकयोस्तया वीर्यनिरोधकस्यान्तरायकर्मणश्च भयो जायते । एतेषु विनष्टेषु सत्सु पूर्णज्ञानस्य पूर्ण दर्शनस्य पूर्णबलस्य चात्मनि प्रादुर्भावो विकासो वा संजायते । एतेषां जातोऽयं पूर्णविकास एवैभिरनन्तज्ञानान्तदर्शनानन्तसुखानन्तबलाभिधानर्व्यवहृतो जायते । एतेषु सम्पूर्णगुणेषु पूर्णरूपेण विकसितेषु सत्स्वेवात्मा समस्तभावेन ज्ञाता द्रष्टा भवति ।
प्रात्मनि पूर्णज्ञातृत्वं पूर्णद्रष्टत्यं च त्रयोदशे गुणस्थाने चैव सम्पद्यते । अतः प्रात्मन ईदृशी शुद्धदर्शव त्रयोदशामिधं गुणस्थानं निगराते।
ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्त राय जो कि ज्ञान, दर्शन और वीर्य विशेष के निरोधक होते हैं, का क्षय होता है। इनके क्षय होते ही प्रात्मा में पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन एवं पूर्ण बल का विकास हो जाता है । यह इनका पूर्ण विकास ही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल इन शब्दों द्वारा कहा जाता है । इन सम्पूर्ण गुणों के विकास हो जाने पर ही आत्मा समस्त भाव से ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव में जो कि इसका मौलिक स्वरूप है, स्थापित हो जाता है।
श्रात्मा में पूर्णरूप से ज्ञातृपना और दृष्टपना १३वे गुणस्थान में पहुँचने पर ही होता है । इनकी प्राप्ति होना ही अर्थात् ऐसी शुद्धदशा होना ही-१३वां गुणस्थान कहा जाता है ।