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वर्धमानचम्पूः
तयेत्थं प्रोक्तम्
दृष्टा षोडश स्वप्नाः सुत्रामविभवार्यपुत्र ! खलु तम्पाः। पश्चिमयामे, तेषां फलं किमस्तीति वक्तव्यम् ॥ ३१ ॥
इत्थं तदीयचेतसि स्वप्नानां फलं विज्ञातुं जायमानां बलवतीमत्कंठा विज्ञाय प्रमुषित मनसासिन सादरं भणितम्-के से स्वप्ना देवि ! निशीथिन्याः पश्धिमे प्रहरे त्वया दृष्टाः । बहि-इत्थं पृष्टा सा वामपार्श्वभागे विनिविष्टा स्थमधुरवाचाऽवदत्-स्वामिन् ! से मै । इस्थं सया स्वमर्तुः सविधे सपि स्वप्नाः प्रकाशिता गजपतिषभादयः ।
उसने ऐसा कहां
हे नाथ ! मैंने पाज रात्रि के पश्चिम प्रहर में १६ स्वप्न देखें हैं, सो हे इन्द्र के तुल्य वैभवशालिन् पार्यपुत्र ! इनका फल क्या है ? इसे आप स्पष्ट कीजिये ।। ३१ ।।
इस प्रकार त्रिशला महारानी के चित्त में दृष्ट स्वप्नों का फल जानने की बलवती उत्कंठा जगी। इसके बाद बड़े ही पादर के साथ प्रमुदित मन होकर सिद्धार्थ ने कहा-देवि ! कहो वे स्वप्न क्या हैं ? जिन्हें आपने रात्रि के पिछले प्रहर में देखा है । इस प्रकार नरेश के द्वारा पूछे जाने पर वामभाग की ओर बैठी हुई त्रिशला ने मधुर वाणी से कहा--स्वामिन् ! वे देखे गये स्वप्न ये हैं । इस प्रकार त्रिशला ने अपने पतिदेव के निकट देखे गये वे गजराज, वृषभ आदि के समस्त स्वप्न प्रकाशित कर दिये ।