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वर्धमान चम्पूः
अपूर्वमहिमाढध ! जगत्प्रसिद्ध | मुहुर्मुहस्त्वां शिरसा नमामि । पृच्छामि पाठं गुरुणा प्रदत्तं स विस्मृतो हा ! मयकाऽल्पबोधात् ॥ ४१ ॥
विपश्चितां संसदि गीयमानं तवाभिधानं महताऽऽवरेण । निशम्य श्रीमत्सुधुरीण ! पार्श्वे ज्ञातुं च पाठार्थमितोऽस्मितेऽहम् ॥ ४२ ॥ -
कृपां विधायाशु च बोधय त्वं,
मह्यं तदर्थं गुरुणोपदिष्टम् ।
अयं स पाठोsस्स्यवलोकनम्,
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प्रोच्येति तं वर्शयति स्म मोवात् ॥ ४३ ॥
हे अपूर्व महिमाशालिन् जगत्प्रसिद्ध गुरुदेव ! मैं पुनः आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं । आपश्री के पास मैं इसलिए लाया हूं कि मेरे गुरुदेव ने मुझे जो पाठ पढ़ाया है उसमें प्रल्पज्ञानी होने के कारण भूल गया हूं ।। ४१ ।।
विद्वानों की सभा में प्रति आदर के साथ प्रशंसित श्रापके नाम को सुनकर हे धीमधुरीण ! उस पाठ के अर्थ को समझने के लिए मैं आपके पास आया हूं ।। ४२ ।।
आप मुझ पर दया करके शीघ्र ही गुरु के द्वारा उपदिष्ट उसके अर्थ को मुझे समझा देवें । वह पाठ इस प्रकार है-प्राप देखें- ऐसा कहकर उसने उन्हें वह पाठ दिखा दिया ।। ४३ ।।