________________
वर्धमानपू
तीर्थंकरं प्रति श्रद्धासम्पन्नो नोऽस्ति । सत्वधुनाऽतत्त्वश्रद्धाकलित शेमुषीको वर्तते । या यदि स केनाप्युपायेनासौ तीर्थकरसम्पर्कमासादयेत्तदा तच्छुद्धाभक्तिसंपनो भूत्वा तद्गरधरपदमारोहेत् । मनस्येवं संप्रधार्य शक्रेण स्थविरविप्रवेषं विधाय वेदवेदाङ्गानां विशिष्टज्ञातुरप्रतिमप्रतिभाशालिनो विद्वदप्रेसरस्य पंचशतविनेयानां शास्तुरिन्द्रभूतिगोतमस्य सनिधी गतम् । गत्वा चोक्तम् —
190
त्या पवित्रं तव नामधेयं तूर्णं मुदाऽभ्यर्णमिहागतोऽस्मि । aaraar ! सुकीर्ते नमोऽस्तु तुभ्यं विदुषां वरेण्य ।। ४० ।।
वह तीर्थंकर के प्रति श्रद्धासम्पन्न नहीं है क्योंकि इस समय वह प्रतत्त्व श्रद्धानी है । यदि वह किसी भी उपाय से महावीर तीथंकर के सम्पर्क में आ जाता है तो उनकी श्रद्धा भक्ति से सम्पन्न होकर उनका गणधर बन सकता है । ऐसा हृदय में निश्चित करके इन्द्र ने बृद्ध ब्राह्मण का वेष बनाया और वह वेदवेदाङ्ग के विशिष्ट ज्ञाता एवं असाधारण प्रतिभाशाली इन्द्रभूति गौतम के पास पहुँचा । इन्द्रभूति गौतम उस समय ५०० शिष्यों के शास्ता थे एवं विद्वानों के बीच में एक अग्रगण्य विद्वान् थे । वहां पहुँच कर उसने कहा
" हे वेदवेदाङ्ग के विशिष्ट ज्ञाता ! आपने अपने पाण्डित्य के बल पर बहुत बड़ी कीर्ति प्रजित की है। आपका पवित्र नाम सुनकर ही मैं बड़े हर्ष के साथ आपके निकट आया हूं । हे विद्वद्वरेण्य ! मैं आपको प्रणाम करता हूं ॥ ४० ॥