________________
वर्धमानचम्पू:
189
-
समवशरणव्यवस्थापन सौधर्मदेवलोकाधिपतिना शक्करण स्थावधिना प्रभोदीर्घकालीनस्य मौनावलम्बनस्य किमस्ति निदान मिति यदा गम्भीरतापूर्वकं विर्धारितं तदा तेन विज्ञातं यदधुनापर्यन्तमपि समवशरणे प्रतिभाशालीदा विचक्षणो जनः कोऽपि नोपस्थितो यस्तीर्थकरस्यास्य गूउगंभीरार्थोपेतं दिव्योपवेशं निशम्य तं च हृद्यवधार्य प्रकरणबद्धं विधाय श्रोतृणां जिज्ञासाया यथार्थ समाधानं कुर्यात् । अवबोधयेच्च सर्वेभ्य स्तस्योपदेशमिति । इदानीमपि एवं विधं गणधरपदं समलंकर्तुं फश्चिपि मुनिवरोऽत्र नास्ति । अतस्तीर्थकरस्थ वाणी मुखरिता न जायते ।
तदनन्तरं तेनावधिज्ञानेनेदमपि प्रबुद्धे यत्साम्प्रतं तीर्थंकरस्य गरराघरपदं वोढुं "इन्द्रभूतिगौतमः" विद्वरेण्यः सक्षमोऽस्ति । परन्तु स
तब समवशरण की व्यवस्था करने वाले इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा 'प्रभु के दीर्घकालीन मौन का क्या कारण है ? " ऐसा विचार किया। गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर उसने यह जाना कि अभी तक भी समबशरण में ऐसा कोई प्रतिभाशाली विद्वान् (गणधर) उपस्थित नहीं हुआ है जो इन तीर्थकर के गूढ गम्भीर अर्थवाले उपदेश को सुनकर उसे अपने हृदय में अवधारण कर सके एवं उसे प्रकरणबद्ध कर श्रोताओं की जिज्ञासा का समुचित समाधान कर सके तथा उन सबको प्रभु के उपदेश को अच्छी तरह समझा सके । इस समय तक भी ऐसे उत्तरदायी गणघर पद को अलंकृत करने के लिए यहां ऐसा कोई मुनिवर भी नहीं है, इसीलिए तीर्थकर की वाणी प्रकट नहीं हो रही है।
इसके बाद उसने अपने अवधिज्ञान से यह भी जाना कि इस समय विद्वधुरीण इन्द्रभूति गौतम गणधर पद को वह्न करने में सक्षम है परन्तु