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वर्धमा चम्पूः
यवाऽसौ तीर्थकरस्तस्मादप्यन्यत्र विहृत्य गच्छति स्म तदा कुबेरोऽपि तद्भव्य दिव्यं समवशरणं विघटयति स्म । स्वल्पकालेनैव पूर्ववज्जायते स्म तत्र समतलोभूमिभागः। यत्र यत्रासौ तीर्थंकरो विहृत्यागात्तत्र तत्र कुबेरोऽपि सभामंडपं सशोभमरचयत् । तत्रापि तस्मिन्नसंख्याताः श्रोतारो धर्मोपदेशशुश्रूषयाऽऽगच्छंति स्म । परन्त्वनेकेषु वासरेषु गतेषु रजनीषु निर्गतास अपि प्रभोधर्मोपवेशो यदा नाभवत्तवा जनतापि विस्मयापनाऽभवत् । परं मौनस्य कारणं केनापि न विज्ञात, सर्वषो धारणा व इयमेवासीत् यदसौ महावीरस्तीर्थकरोऽस्ति नो मूकवली, प्रतोऽस्योपदेशेन नियमेन भाव्यम् । परन्तु कदाऽसौ भविष्यतीति न विज्ञायते ।
ततोऽपि विहारं विधाय राजमहीनगरनिकटस्थं विपुलाद्रि समायातः । समवशरणरचनाऽपि तत्र जाता । जनताऽपि अपरिमिताऽऽगता । परन्तु तत्रापि प्रभोरुपदेशो नाभवत् ।
जब वर्धमान तीर्थंकर केवली एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते-करते पहुँच जाते तो कुबेर पहिले स्थान पर रचे गये सभामण्डप को विघटित कर देता एवं वहां का भूमि भाग पहिले की तरह समतल हो जाता एवं उनके वहां पहुंचते ही दूसरा सभामण्डप रचकर तैयार कर देता । वहां पर भी असंख्यात जन धर्मोपदेश सुनने की कामना से पाकर उपस्थित हो जाते । इस प्रकार होते होते जब अनेक दिवस निकल गये, रात्रियो भी समाप्त हो गई और प्रभु के मौन का क्या कारण है ? यह वह नहीं जान सकी । सबकी धारणा तो यही थी कि ये महावीर तीर्थकर हैं, मूक केवली नहीं हैं, अतः इनका धर्मोपदेश तो अवश्य ही होना चाहिए परन्तु कब बह होगा कोई पता ही नहीं पड़ता।
प्रभु ने वहां से भी विहार कर दिया और विहार करते-करते थे राजगृही के निकटस्थ विपुलाचल पर आ गये । वहां पर भी कुबेर ने समवशरण की रचना की, उसमें भी अपार जनता एकत्रित हुई परन्तु यहां पर भी प्रभु को दिव्यदेशना नहीं हुई।