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वर्धमानचम्पू:
___ इत्थंभूतः पद्यालापर्मातुः स्तुति विधाय सौधर्माधिपतिना तेन संक्रन्दनेन सिद्धार्थोऽपि संस्तुतः सत्कृतश्च । कथितं चायमभकः
बीमाणाष् िहर्षाधिई बुमुद्वेलितो भवति । यस्याङ्क कोडिष्यति का वार्ता तस्य पुण्यस्य ॥ ६ ॥
रूपातिशयं पिबतो मेंऽगानि खलु.पुलकितानि जातानि । सोऽतिसौभाग्यशाली स्प्रक्ष्यति विद्यानिशं चास्य ॥७॥
कोडे धृत्वा स्वाङ्ग रतिसुकमाराणि मनि रम्यारिण। संपेशलानि, देवरस्माभिर्वापि न लभ्यानि ॥८॥
(युग्मम्)
इस प्रकार के पद्यालापों द्वारा माता की स्तुति करने के बाद उस सौधर्माधिपति इन्द्र ने सिद्धार्थ नरेश की स्तुति की और सत्कार किया । बाद में फिर उसने कहा- यह बालक जिसे देख कर मेरा हर्षरूपी समुद्र मर्यादातिक्रान्त हो रहा है, हे नरेश ! जिस भाग्यशाली की गोद में खेलेगा, उस पुण्यात्मा के पुण्य की महिमा क्या कही जाय ? ।। ६ ।।
इस बालक के रूपातिशय को देखकर जब मेरा अंग-अंग पुलकित हो रहा है तब वह तो बड़ा ही भाग्यशाली होगा जो हम इन्द्रों को एवं देवों को भी अलभ्य ऐसे इसके सुकुमार, मृदु और सुरम्य अंगों को अपनी गोद में रखकर रात-दिन अपने अंगों से लड़ायगा॥ ७-८ ॥