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प्रस्तावना
पं. मूलचन्द्र शास्त्री की प्रखर प्रतिभा उन्हें संस्कृत साहित्य में असाधारण स्थान पर प्रतिष्ठित करती है। वर्तमान युग में एक ओर जहां संस्कृत साहित्य के विकास की परम्परा अपर सो हो भी है, नहीं . मुलचन्द्र शास्त्री जैसे मनीषी संस्कृत साहित्य को अपनी अमर कृतियों के द्वारा नव-नवोन्मेष प्रदान करते हए दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी कृतियों में संस्कृत-काव्य-गली का रम्य रूप प्रस्फुटित हुआ है। उनकी कविता के जिन गुणों ने संस्कृत-जगत को मनोमुग्ध कर दिया है वह उनकी निरन्तर सारस्वत साधना है । अपने विषय को प्राचीन आख्यानों से ग्रहण कर वे उसे अपने सृष्टि-नैपुण्य से विलक्षण बना देते हैं। वे उसे अति रुचिकर और मनोमुग्धकारी स्वरूप प्रदान करने में अपूर्व दक्षता का परिचय देते हैं । मौलिकता, नई सृष्टि रचने में उतनी प्रशस्य नहीं होती, जितनी प्राचीन सृष्टि को नुतन चमत्कार प्रदान करने में होती है । उनकी लोकप्रियता का प्रधान कारण है उनकी प्रभावपूर्ण लालित्म-युक्त परिष्कृत गली।
साहित्य समाज का दर्पण होता है । साहित्य जिस प्रकार का होगा समाज उसमें उसी प्रकार का प्रतिबिम्बित होता रहेगा । समाज के रूपरंग, उत्थान-पतन, सम्पन्नता विपन्नता के निश्चित ज्ञान का साधन तत्कालीन साहित्य होता है। इसी प्रकार साहित्य संस्कृति का प्रमुख वाहन होता है । संस्कृति की प्रात्मा साहित्य के अन्तस्तल से अपनी मधुर झांकी प्रदर्शित करती रहती हैं। संस्कृति में जब प्राध्यात्मिकता की भव्य भावनाएं उच्छ्व सित होती हुई दृष्टिगत होती हैं ता उस देश अथवा जाति का साहित्य भी आध्यात्मिकता से अनुप्राणित हुए बिना नहीं रह सकता । साहित्य सामाजिक भावना तथा सामाजिक विचारों को विशुद्ध अभिव्यक्ति होने के फलस्वरूप यदि समाज का मुकूट है तो सांस्कृतिक प्राचार तथा विचार के विपुल प्रवाहक तथा प्रसारक होने के कारण संस्कृति के सन्देश को जनता के हृदय तक पहुंचाने का माध्यम होने से संस्कृति का वाहन होता है।