Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004643/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र जिनागमसंग्रहे भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत श्रीमद्भगवती सूत्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) मूळ अने अनुवादसहित चतुर्थखंड शतक १६-४१ प्रेरक-श्रीयुत पुंजाभाई हीराचंद अनुवादक अने संश बँक पंडित भगवानदास हरखचंद दोशी - अमदावाद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स भगवासुधर्मस्वामिप्रणीतं श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (व्याख्याप्रज्ञप्ति:) पञ्चमानश चतुर्थखण्डम् श्रीमद् अभयदेवसूरिविरचितविवरणेन श्रीजीवराज तनुज-पण्डितबेचरदासकृत-अनुवादेन च सहितम्। पुन: प्रकाशने शुभाशीर्वादः सिद्धान्तमहोदधि स्व. आ. श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. सा. वर्धमानतपोनिधि पू. आ. श्रीमट्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. श्रीसूरिमन्त्राराधक स्व.आ.श्रीमद्विजय धर्मजितसूरीश्वरजी म.सा. -: पुन: प्रकाशने प्रेरका: :श्रीसूरिमलापंचप्रस्थानानां चतुःकृत्व: आराधका: पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद्विजय जयशेखरसूरीश्वराः -: पुन: प्रकाशक: :श्री दादर आराधना भवन जैन पौषधशाळा ट्रस्ट २८९, एस. के. बोलेरोड, दादर (वे.), मुंबई - ४०० ०२८. . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુન: પ્રકાશન પ્રસંગે કાશકીય સિદ્ધાન્તમહોદધિ કર્મસાહિત્યનિષ્ણાત સુવિશુદ્ધબ્રહ્મચારી સ્વ. આ. શ્રીમદ્વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મ. સા., વર્ધમાન તપોનિધિ ગચ્છાધિપતિ પૂ. આ. શ્રીમદ્વિજય ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા., સમતાસાગર સ્વ. પૂ. પંન્યાસ શ્રી પદ્મવિજયગણિવરજીની પ્રેરણાના પીયુષપાનથી ધબકતો થયેલો દાદરનો આરાધનાભવન જૈન પૌષધશાળા સંઘ, જ્ઞાનરુચિની સાથે ક્રિયાચુસ્તતાનો સુભગ સુમેળ જાળવી રાખનારા સંઘોમાંનો એક અગ્રણી સંઘ છે. ગુજરાત કચ્છ વાગડ રાજસ્થાન વગેરે પ્રદેશોમાંથી, વ્યવસાયાર્થે મુંબઈ મહાનગરના દાદર ઉપનગરમાં આવીને સ્થિર થયેલા શ્રાવકોનો આ નાનો સંધ, પ્રતિવર્ષ સુવિહિત ગુરુભગવંતોના ચાતુર્માસ તથા શેષકાળના અવસ્થાન દરમ્યાન ઉપદેશવચનામૃતોને ઝીલીને દાન-શીલ-તપ અને ભાવની નોંધ પાત્ર આરાધના કરી રહ્યો છે. વિ. સં. ૨૦૪૮ ના ચાતુર્માસાર્થે સહજાનંદી સ્વ.પૂ.આ.શ્રીમદ્વિજય ધર્મજિતસૂરીશ્વરજી મ.સા.નાં વિદ્વાન શિષ્યરત્ન શ્રી સૂરિમંત્રની ચાર વાર આરાધના કરી ચુકેલા પૂ.આ.શ્રીમદ્વિજય જયશેખર સૂ.મ.સા. પધાર્યાં. તેઓ શ્રીમદ્ની પાવનનિશ્રામાં થયેલી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી, તેઓ શ્રીમદ્ની પાવનપ્રેરણા પામીને, અમે પંચમાંગ શ્રીમદ્ ભગવતીસૂત્ર (વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ) નો ચોથો ભાગ પુન: પ્રકાશિત કરતાં અનેરી ધન્યતા અનુભવીએ છીએ. આ પુસ્તક શ્રીજિનાગમપ્રકાશક સભા મુંબઇ દ્વારા વિ.સં.૧૯૭૪ માં પ્રકાશિત હતું જે હાલ અત્યંત જીર્ણ અવસ્થાને પામ્યું છે તેમજ દુષ્પ્રાપ્ય છે. તેથી ઝેરૉક્ષ ઑક્સેટ મુદ્રણ દ્વારા એ ગ્રન્થનું આ પુન: પ્રકાશન થઇ રહ્યું છે. અભ્યાસુઓને આ ગ્રન્થ સુલભ થાય તેમજ અધ્યયન માટે ઉપયોગી બને એ માટે મુદ્રિત કરાવેલી આ ૨૫૦ નકલો વેચાણ-વ્યવસાયનો ઉદ્દેશ ધરાવતી નથી. - પૂર્વપ્રકાશનકાળે સંપાદન, ભાષાંતર, પ્રેરણા, આર્થિક સહયોગ વગેરે આપનાર દરકેનો આ પ્રસંગે આભાર માનીએ છીએ. વિશેષ કરીને, શ્રીયુત પુંજાભાઇ હીરાચંદ દ્વારા સંસ્થાપિત શ્રી જિનાગમપ્રકાશક સભાના માનદ કાર્યકર શ્રી મનસુખલાલ રવજીભાઈ મહેતા તથા તેમની પ્રેરણાથી આ ગ્રન્થનું સંપાદન અને અનુવાદ કરનારા ન્યાય-વ્યાકરણતીર્થ પંડિત શ્રી બેચરદાસ જીવરાજનો તથા શ્રી શ્રીપાલ નગર જૈન જ્ઞાન ભંડારનો, આ પુન:પ્રકાશન પ્રસંગે આભાર માનીએ છીએ. આ પુન:પ્રકાશનનાં સહારે અધિકારીવર્ગ વાચના-પૃચ્છના વગેરે પંચવિધ સ્વાધ્યાય કરીને સ્વ-પર આત્મહિત સાધો એવી શુભેચ્છા સહ. લિ. શ્રી. દાદર આરાધના ભવન જૈન પૌષધશાળા ટ્રસ્ટ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन आ चोथो भाग १६ मा शतकथी आरंभी ४१ मा शतक सुधीमां पूरो प्रकाशित थाय छे. आ चोथा भागना अन्ते नीचेना मुदाओ संबंध कहेवानुं छे. १ संशोधन अने प्रतिओनो उपयोग २ अनुवाद ३ परिशिष्टो. १ संशोधन अने प्रतिओनो उपयोग आ सूत्रना संशोधनमां क, ख, ग, घ अनेक ए पांच प्रतिश्रोनो उपयोग करवामां आव्यो छे. अने ते सिवाय एक ताडपत्रनी प्रतिनो पण उपयोग करेलो छे से बची प्रतिभोना पाठान्तर न लेतां रोमां जे पाठ शुद्ध जणायो से मुकवामां आग्यो छे. आगमोनां पाठान्तर सहित शुद्ध संस्करणनी अनिवार्य आवश्यकता छे. परन्तु ते कार्यमां प्राचीन हस्तलिखित पुष्कळ प्रतिओनी तथा समय वगेरे साधनोनी जरुर होवाथी अने हाल ते बधी सामग्रीनो अभाव होवाथी पाठान्तरो आप्या सिवाय शुद्ध पाठ आपी संतोष मानवो पच्यो छे. प्रतिओनो सामान्य परिचय श्रीजा भागना निवेदनमां आप्पो छे तेथी अहीं आपयामां आव्यो नधी. २ अनुवाद. भगवतीसूत्रनो अनुवाद मूळ पाठने अनुसरीने करवामां आल्यो छे अने विषयने स्पष्ट करवा माटे बधारानां शब्दो [ ] आवा कोष्टकम आप्या छे. ते सिवाय कठण विषय समजानचा आवश्यक टिप्पणो आपवामां आग्या छे. वाचकनी सुगमता खातर दरेक उदेशके प्रश्नवार सूत्रमो विभाग करी अने अनुक्रमे आंकडा मूकी तेनी नीचे तेज सूत्रना आकडामा अनुवाद आपनाम आव्यो छे. अवान्तर प्रश्नने जुदा सूत्र तरीके न गणतां मूळ प्रश्नना सूत्रमांज तेनी गणना करी छे. ते सिवाय ज्यां प्रश्न नथी परन्तु चरित्र के वर्णनात्मक भाग छेयां पण जुदी हुदी कंडिका प्रमाणे खुर्दा कुर्दा सूत्र गणवामां आव्यां हे पृष्ठना प्रान्ते विषय सूचन पण करे छे. ३ परिशिष्ट, अहीं वाचकोने उपयोगी थाप ते माटे ख़ुदा जुदा सात परिशिष्टो आपवामां आव्यां छे. (१) पहेला परिशिष्टम भंगवतीसूत्रमां आवेला पारिभाषिक शब्दोनो कोश आपवामां आव्यो छे अने जे स्थळे ते शब्द वापरवामां आव्यो छे तेनो पृष्टांक आपेल छे. (२) बीजा परिशिष्टमां देश, नगरी अने पर्वतादिनां नामो छे. (३) जीजा परिशिष्टमां चैा अने उद्याननां नामो छे. (४) चोथा परिशिष्टम अन्यतीर्थिक अने तापसोनां नामो छे. (५) पांचमा परिशिष्टमां साधु साध्वीनां नामो, (६) छट्टा परिशिष्टमां श्रावक-श्राविकानां नाम (७) अने सातमा परिशिष्टमां साक्षीरूपे जे जे ग्रन्थोनो निर्देश कर्या छे ते ते ग्रन्थोनों नामो आध्या छे. आ अनुवाद करवामां भाइश्री बेचरदासे करेला भगवतीसूत्रनी अनुवादनी कोपीनो पण उपयोग करवामां आव्यो छे माटे तेनी कृतज्ञतापूर्वक नोंध लउं छं. आ अनुवाद करवामां अने तेना प्रकाशनमां काळजी राखवा छतां रही गयेला दोषोने माटे वाचको दरगुजर करशे अने सूचन करशे वी आशा राखी विरमुं हुं. भगवानदास दोशी / Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक शोध जीवनतंत्रना रहस्यनी जिज्ञासामांथी आध्यात्मिक शोधनुं झरण फूटे छे. ए जिज्ञासा ज आध्यात्मिक शोधनो मूळ पायो छे. आपणा देशमा जे जे महान आत्मशोधको थया छे, जेने आपणे संतो कहीये छीए तेओ ए जिज्ञासाथी ज प्रेराइने जीवन अने जगतनी गूंच उकेलवा पोते करेली प्रवृत्तिनो जुदो जुदो वृत्तांत पोतपोतानी शैलीथी मूकी गया छे. जेमनां बुद्धि अने मन ठीक ठीक विकास पाम्यां छे एवा संस्कारसंपन्न, आरोग्यसंपन्न, तेजखी, आत्मशोधक मुमुक्षु लोकोने पूर्वोक्त जिज्ञासाथी आ नीचेना केटलाक प्रश्नो थाय ते तदन स्वाभाविक छे. आ जगत ए शुंछे ! आ बधी मोहमाया ए शुं छे ? जगतमां दुःख अने असंतोषनां कारणो कयां छे! ते टळी शके के नहि ! टळे तो केवी रीते ! हुँशु छ ? हुं क्याथी, शामाटे, क्यारे अने केवी रीते आ जगतमा आव्यो छु ! जो हूं कोई जुदो छु तो सदाने माटे आ विश्वथी मारो छुटकारो थशे के नहि ? आ जगतनी उत्पत्ति क्यारे, केवी रीते, शामाटे अने. कोने माटे कोणे करी! शु आ विश्व कोई वार नाश पामशे के नहि ? जो नाश पामशे तो आ बधा पदार्थो-नदी, समुद्र, पहाड, जंगलो, प्राणीओ ए बधुं क्यां जशे ! हुं पोते क्या जईश! शुं विश्वना प्रलय पछी हुँ रहेवानो छु ! जो रहीश तो कया आकारमा अने कोने आधारे? जो नहि रहुं तो तेनुं शुं कारण ! शुं एवी कोई विशेष शक्ति के के जे आ विश्वने फरीथी सर्जी शके ! आ बधा प्रश्नो काई भाजकालना नवा नथी पण वेदकालनी शरूआतथी एटले के ज्यारे आर्यगण संस्कारसंपन्न अने बुद्धिसंपन्न हतो त्यारथी ज चर्चाता आल्या छे. आ प्रश्नो साथे आध्यात्मिक शोधने गाढ संबंध छे. टो. उपनिषदो. ब्राह्मणो. आरण्यको वगेरेमां आध्यात्मिक शोध करनारा ते ते दिव्यपरुषोए ए प्रश्नो अने एवा बीजा अनेक प्रश्नो ऊपजावी तेनी चर्चा करेली छे. अने जेम जेम बुद्धिबळ अने आत्मशोध उंडां जतां गया तेम तेम बीजा पण अनेक शोधकोए ए प्रश्नो विषे जुदी जुदी दृष्टिथी पोतपोताना जुदा जुदा विचारो दर्शाव्या छे. वधुमां सांख्याचार्य कपिल, न्यायप्रवर्तक अक्षपाद, विशेषवादी महर्षि कणाद वगेरे अनेक पुरुषोए ए प्रश्नो उपर वधारे प्रकाश आणवा प्रयास कर्यो छे. भगवान महावीरे अने भगवान बुद्धे पण जीवननी गूंच उकेलवाने जे आध्यात्मिक प्रयासो कर्या तेमां पण ए बधा प्रश्नो उपर अवश्य पोतपोतानी दृष्टिए योग्य प्रकाश नाखेलो छे. भगवान बुद्ध विषे कहेवामां आवे छे के ते पोते बालपणथी चिंतनशील प्रकृतिना हता अने तेमनुं मन विश्वनी आ बाह्य प्रवृत्तिमा चोंटतुं न हतुं. माटे ज राजा शुद्धोदने तेमने राखवानी एवी व्यवस्था करेली के ज्यां सदा गानतान, रागरंग, विषयविलास अने अखंड स्वर्गीय सुख तेमने मळे के जेथी तेमनुं मन आ संसारमां चोंटी जाय. पण छेवटे राजा शुद्धोदनना आ बधा प्रयासो निष्फळ गया अने सिद्धार्थ पोतानी स्त्री अने पुत्रने छोडीने मधराते, पोताना चित्तमा रहेली उंडी उंडी उदासीनता अने असंतोषनां कारणो शोधवा नीकळी पड्या. तेमने एवी राजशाहीमा राखेला हता के मंदवाड शें, घडपण शुं अने मरण शुं तेनी सुद्धा तेमने खबर नहिं पडेली. ज्यारे तेमणे मंदवाड, घडपण अने मरण जोयां त्यारे तेओ वधारे विह्वल बन्या अने ए दुःखोना अंतमाटे तेमणे प्रयास करवानुं पण नक्की कयु. भगवान महावीर पण जेमनुं नानपणचें नाम वर्धमान हतुं, जेमना माता अने पितानुं नाम अनुक्रमे त्रिशला अने सिद्धार्थ हता, बचपणथी चिंतनशील अने संस्कारसंपन्न हता. तेमने लगती जैन साहित्यमा जे दंतकथाओ अने परंपराओ मळे छे ते उपरथी एटलं तो तारवी शकाय एम छे के तेमनुं मन आत्मशोध तरफ बचपणथी ज वळेलं हतुं. साथे तेमनामां मातपिता तरफ घणो सद्भाव हतो जेथी तेमणे तेमना आग्रहथी ज गृहस्थाश्रम स्वीकारेलो अने एक पुत्रीना पिता पण थया. तेमणे मातपिताना निर्वाण बाद पोताने बचपणथी ज प्रिय एवी आध्यात्मिक शोधने सबल प्रयत्नपूर्वक चालु करवानुं धारेलु छतां तेओ पोताना वडील बंधुना प्रेमभर्या आग्रहथी एक वर्ष जेटलो वखत वळी राजधानीमा ज रह्या पण ते दरम्यान तेमणे आध्यात्मिक शोधना साधन तरीके परापूर्वथी ज चाल्यो आवेलो संयममार्ग पोताना जीवनव्यवहारमा अमलमा मूक्यो. तेमनी पहेलां श्रमणोनी परंपरामा पार्श्वनाथ नामे एक प्रख्यात युगप्रवर्तक थयेला तेमज वैदिक परंपरामा अनेक प्रकारनां कर्मकांडो अने देहदंडनोनो रिवाज आत्मशोध करवामाटे चालु हतो ज. Jain Education international Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे साहित्य भगवान महावीरना अनुयायीओए गूंथेलं छे ए जोतां एमनी सामेनी ए बधी श्रमणब्राह्मणपरंपराओनी माहिती आपणने मळी शके एम छे. ए परंपराओमाथी प्रेरणा मेळवीने तेमणे हवे पोताना जीवननी गूंच उकेलवा अने विश्वमा रहेवा छतां तेनाथी थता त्रासोथी मुक्त रहेवानो मार्ग शोधवा अखंड अने उग्र प्रयत्न चालु कर्यो. तेओ पोतानी त्रीश वर्षनी उम्मरे एटले के भरजुवानीमां साधना करवा नीकळी पड्या, एथी ज एम जणाय छे के तेमने एमाटे केटली तालावेली हती. तेओ राजपाट, समृद्धि अने भोगविलासनो त्याग करीने कडकडता शियाळामां घर बहार नीकळी पंड्या. वस्त्रथी देह ढांकवानी पण इच्छा नहि करेली. घरेथी नीकळ्या पछी बराबर बार वर्ष सुधी तेमणे भारे साधना करी, जे साधनामा तेमने शारीरिक भने मानसिक अनेक कष्टो सहवां पड्यां, जेनो सविस्तर निर्देश जैनागमोमां अकृत्रिम भाषामां आपणी सामे मोजुद छे. मैज्झिमनिकायना सिंहनादसुत्तमा जे जातनी रोमांचकारी साधना बुद्ध भगवाने पोते वर्णवेली छे तेवी ज साधना आ भगवान वर्धमान-महावीरनी हती. ए साधनाना परिणामे तेओए हवे सर्वप्रकारनी स्थिरता साधी मानसिक, वाचिक अने कायिक प्रवृत्तिओ पर तेओ निरंतर अंकुश राखी शके तेवा समर्थ थया. अने सर्व प्रकारनी आसक्ति, तृष्णा तेमणे ते साधनाद्वारा उच्छेदी नाखी. ए प्रमाणे स्थितप्रज्ञपणुं अने वीतरागभाव प्राप्त कर्या पछी अने विश्वने लगतुं घणुं गंभीर मनन कर्या पछी पोताना जमानाना लोको के जेओ आर्योए स्थिर करेला आदर्शथी घणा च्युत थयेला हता अने जेओनी एवी भ्रमणा हती के कर्मकांड के देहदंडमां ज सर्व सिद्धि समायेली छे, कर्मकांडमा हरेक प्रकारनी हिंसाने, असत्यने धार्मिक स्थान छे-ते पण वेदने नामे, ईश्वरने नामे, ते लोकोनी ते भ्रमणा टाळवा अने फरी वार आर्योए शोधेला अहिंसा, सत्य, सर्वत्र बंधुभाव अने गुणनी प्रधानताना सिद्धांतोने प्रचारमा मूकवा देश, काल अने प्रजाशक्तिने अनुसारे तेओ पोतानां प्रवचनो मगध देशमा फरी फरीने करवा लाग्या. आ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रमा तेमनां केटलांक ते प्रवचनोनी नोंधोनो संग्रह तेमना समसमयी के परवर्ती अनुयायीओए करेलो छे. आ ग्रंथमा जीवनशुद्धिनी मीमांसा अने विश्वविचार ए बन्ने मुद्दाओ परत्वे जे कांई कहेवामां आव्यु छे ते आजथी अढी हजार वर्ष पहेलांना सत्यना अने जीवनशुद्धिना उपासकोनी अगाध बुद्धि अने शुद्धिनुं उंडाण बताववाने पूरतुं छे. जो के ग्रंथमा चर्चा बन्ने मुद्दानी छे पण मुख्य मुद्दो तो जीवनशुद्धिनी मीमांसानो ज छे. विश्वविचारनो जे मुद्दो साथे चर्चेलो छे तेने जीवनशुद्धिमा सहायक समजीने चर्चवामां आवेलो छे. जीवनशुद्धि विनाना मात्र ते मुद्दाना नर्या ज्ञानथी ज श्रेयप्राप्ति नथी एम भगवान महावीरे पदे पदे कहेलं छे. जीवनशुद्धिना मुद्दाने चर्चता पण केटलीक एवी चर्चा करवामां आवी छे जे चर्चा ते समयनी रूढिने तोडी जीवनशुद्धिनो नवो मार्ग बतावनारी छे. जीवनशुद्धि आ ग्रंथमा भगवाने कयुं छे के संवर दुःख मात्रनो नाश करे छे, संवर एटले के इन्द्रियो उपरनो जय, मन उपरनो जय, वासना उपरनो जय ढूंकामा आत्मभानमां अंतरायभूत बधी वृत्तिओनो निरोध. भगवाने कर्तुं छे के कोई व्यक्ति अणगार-त्यागी-थाय एटले के.तेने लोको श्रमण तरीके ओळखे एवो वेश पहेरे, एवी वेशधारी व्यक्ति जो संवरविनानी होय तो तेनो संसार घटवाने बदले वध्या ज करे छे अने ते भारेकर्मी थई आ अनादि अनंत संसारमा लांबा काळ सुधी रखड्या ज करे छे. (भा० १ पा० ८१) भगवानना आ कथन- तात्पर्य ए छे के मात्र वेशथी जीवनशुद्धि थती नथी, घई नयी अने थशे पण नहि. जीवनशुद्धिमा मुख्य कारण संवर छे ए भूल न जोइए. एज प्रमाणे जे प्राणी असंयत छे जेमां त्यागवृत्ति जरा पण जागेली नथी तेवा प्राणीओनो निस्तार नथी. एवी कोटिना प्राणीओमां जेओ परतंत्रपणे पण इंद्रियो उपर अंकुश राखे छे, शरीर उपर अंकुश राखे छे अने भाषा उपर अंकुश राखे छे तेओ ए परतंत्रपणे केळवायेली सहनशक्तिने लीघे भविष्यमा सारी स्थिति मेळवे छे. (भा०१ पा०८४) आमां भगवानना कथननु तात्पर्य ए छे के परतंत्रपणे पण केळवायेलो संयम जीवनविकासमां थोडी घणी मदद करी शके छे, तो जे मनुष्यो ए संयमने खेच्छाए केळवे तेओनो विकास सरल रीते थाय तेमां तो कहे ज शु! १ “णो चेव-इमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते। "ते पारगामी (भगवान महावीरे) एवो संकल्प कयों के जीवनपर्यंत से पारए भावकहाए एवं खु आणुधम्मियं तस्स" ॥ हुआ वनथी (देहने ) ढांकीश नही, तेमनो ए (संकल्प) योग्य ज कहेवाय" [आचारांग सूत्र उपधान भुत अ. ९ गाथा २] २ जूओ आचारांग-उपधानथुत अध्ययन ९। ३ जूओ भगवान युद्धना पचास धर्म संवादो । ४ "दुःखेष्वनुदिनमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयकोधः स्थितधीर्मुनिरुध्यते ॥"-गीता। . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक स्थळे भगवाने जीवनशुद्धिने लक्षमा राखीने मननी स्थितिओ वर्णवी छे. ते स्थितिना तेमणे छ नाम आपेलां छे. जे जैन संप्रदायमा लेश्याने नामे प्रसिद्ध छे. मनुष्यनी अत्यंत क्रूरमां क्रूर वृत्तिने कृष्णलेश्या कहेवामां आवी छे. जेम जेम ए करता ओछी यती जाय अने तेमां सात्त्विक वृत्तिनो भाव मेळातो जाय तेम तेम मानवजीवननो विकास वधतो जाय छे. ते विकासप्रमाणे ते चित्तवृत्तिमोनां नाम पण जुदा जुदा बतावेलां छे. कृष्णलेश्या करता जेमां थोडो वधारे विकास छे ते वृत्तिने नीललेश्या कहेवामां आवे छे. ते पछी जेम जेम वधारे विकास थतो जाय छे तेम तेम अनुक्रमे ते ते चित्तवृत्तिओने कापोत, तेज, पम अने शुमलेश्याना नामयी ओळखवामां आवे छे. आ नीचेना उदाहरणथी आ वृत्तिओनो मर्म सहजमां समजी शकाशे. जेम कोई एक व्यक्ति पोतानी ज सुखसगवड माटे हजारो प्राणीओने लाचारीमा राखे एटले के जे प्राणीओद्वारा पोतानी अंगत सखसगवड मेळवे छे ते प्राणीओना मुखनी तेने जरा पण दरकार नथी, ते प्राणीओ जीवे के मरे पण पेला सुखभोगीनी सगवडो तो सचवावी ज जोईए. आवा मनुष्यनी वृत्तिने कृष्णलेश्यानुं नाम आपी शकाय. जे मनुष्य पोतानी सुखसगवडमां जरा पण ऊणप आववा देतो नथी पण ते सगवड जे प्राणीओद्वारा मळे छे तेमनी पण अजपोषणन्याये जरातरा संभाळ ले छे. आ जातनी वृत्तिने नीललेश्या कहे छे. मुखसगवड आपनार प्राणीओनी पण जे पूर्वोक्त न्याये थोडी वधारे संभाळ ले ते सुखभोगीनी वृत्तिने कापोतलेश्या कही शकाय. आ त्रण लेश्याओमा वर्तनार माणसने पोते शुं छे तेनुं जरा पण भान होतुं नथी अने तेथी ज तेनामा बीजा प्रत्ये अकारण मैत्रीवृत्ति राखवानो विचार पण आवतो नथी. जे माणस पोतानी अंगत सुखसगवडने ओछी करे अने सुखसगवड आपनारा सहायकोनी ठीक ठीक संभाळ ले तेने तेजोलेश्यावाळो कही शकाय. जे माणस पोतानी सुखसगवड जरा वधारे ओछी करी, पोताना आश्रितोनी तेमज संबंधमां आवता दरेक प्राणीओनी, खेद मोए अने भय सिवाय सारी रीते संभाळ ले तेनी वृत्तिने पालेश्या कही शंकाय. . जे सुखसगवडने तदन ओछी करी नाखे अने पोतानी शरीरनिर्वाह पूरती हाजतोने माटे पण कोई प्राणीओने लेश पण त्रास न आपे, तेमज कोई पदार्थ उपर लोलुपता न राखे, सतत समभाव जळवाय एवो व्यवहार राखे अने मात्र आत्मभानथी ज तुष्ट रहे तेनी वृत्तिने शुक्ललेश्या कही शकाय. जीवनशुद्धिनी हिमायत करनारा माटे आमांनी पहेली त्रण वृत्ति त्याज्य छे अने पाछली त्रण वृत्ति ग्राह्य छे, तेमां पण छेक छेली वृत्ति केळव्या सिवाय पूर्ण विकास सर्वथा असंभव छे एम भगवान महावीरे पोतानी वाणीमा ठेकठेकाणे कां छे. भगवाने कयुं छे के उत्थान छे, कर्म छे, बळ छे, वीर्य छे, पराक्रम छे, आ शरीर जीवने लईने हाले चाले छे, शरीरनी शक्ति शरीरनी पुष्टिने लीधे छे, पुष्ट शरीर अनेक प्रकारनी प्रवृत्तिओ करे छे अने एमांथी प्रमाद जन्मे छे, ए प्रमादने लीधे जीव अनेक प्रकारनी मोहजाळमा फसाय छे अने अज्ञान अंधकारमा सबड्या ज करे छे, माटे प्रमादना मूळ कारण शरीरने जो संयममा राखवामा आवे तो आ मोहजाळमाथी जीव सहेजे छूटी शके. (भा० १ पा० १२०) एक स्थळे भगवान कहे छे के मात्र संयम, मात्र संवर, मात्र ब्रह्मचर्य अने मात्र प्रवचनमाताना पालनथी कोई प्राणीनो निस्तार यतो नथी. ज्यारे प्राणी रागद्वेष उपर पूर्ण जय मेळवे छे त्यारे ज ते सिद्ध, बुद्ध अने मुक्त थाय छे अने निर्वाणपदने मेळवे छे. (भा० १ पा० १३७ ) आमां भगवाने जे कयुं छे के केवळ संयम, केवळ संवर अने केवळ ब्रह्मचर्यथी जीवनो निस्तार नथी. एनो मर्म ए छे के जे संयम, संवर अने ब्रह्मचर्य नाममात्र होय-खरेखरां न होय एटले के संयम, संवर अने ब्रह्मचर्य मात्र डोळ होय पण वासनानो जय, इन्द्रियोनो निरोध, विषयवृत्तिनो त्याग अने मानसिक, वाचिक अने शारीरिक प्रवृत्तिनी एकवाक्यता ए बधुं न होय एवां केवळ संयम, संवर अने ब्रह्मचर्य प्राणीना जीवननो विकास करी शकवाने समर्थ नथी. भगवान मनुष्यना त्रण विभाग करे छे. केटलाकने एकांत बाळनी कोटिमा मूके छे, केटलाकने एकांत पंडितनी कोटिमा मूके छे अने केटलाकने बाळपंडितनी कोटिनां जणावे छे. आत्मभान विनाना एकांत बाळको छे, आत्मभानवाळा एकांत पंडित छे अने मध्यम वृत्तिना बाळपंडितकोटिना छे. (भा० १ पा० १८९) १ कृष्ण भने नीललेश्या एटले तामसी वृत्ति, कापोत अने तेजोलेश्या एटले राजसी वृत्ति अने पद्म भने शुक्ललेश्या एटले सात्त्विकवृत्ति एम सांख्यपरिभाषा प्रमाणे कही शकाय. . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 बुद्ध भगवान जैने पूजन कहे छे ते आ एकांत बाळकोटिना छे अने जेने आर्यजन कहे छे ते एकांत पंडितकोटिना छे. लोकोमां कहेवाती ऊंची जातिनो, ऊंची प्रतिष्ठा के एवा बीजा कोई ऐश्वर्यवाळो, आत्मभान विनानो होय तो भगवानने मन ते एकांत बाल छे अने जातिथी हलको गणातो पण जो आत्मभानवाळो होय तो भगवानने मन एकांत पंडित छे. भगवान कहे छे के हिंसा, असम, चीर्य, मैथुन, परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया, सोम, राग, द्वेष, कलह, अम्याख्यान, पैशुन, निंदा, कपटपूर्वक व्यवहार अने अज्ञान ए बधा दोषोयी जीवो संसारमां फर्या ज करे छे. जे प्राणिओ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, सरलता, संतोष, अरवृत्ति, स्वभावनी स्मृति वगेरे गुणोने केळवे छे तेओ संसार ओछो करे के अने निर्वाणने पामे छे. ( भा० १ पा० १९९ ) भगवान कहे छे के गृहवास छोडीने श्रमण निर्मंथ थया पछी पण मनुष्यो विवेकनी खामीने लीघे नकामा नकामा कलहो करी मिथ्या मोहना पाशमां फसाय छे. परस्परना जुदा मेशने ठीचे, जुदा जुदा नियमोने सीधे, हुदा हुदा मार्गेने सीधे, शुदा जुदा बाद्याचार ने लीघे, पोतपोताना आचार्योंना जुदा जुदा मतने लीघे, शास्त्रना जुदा जुदा पाठने लीघे एम अनेक प्रकारनां बाह्यकारणोने लीघे लडता शघडता श्रमण निम्रयो पोताना संयमने दूषित करे छे. ( भा० १ पा० १२५ ) भगवाने कहेली आ हफीकत तेमना पोताना जमानामां पण हती अने आ जमानामा पण ते आपणने प्रत्यक्ष ज छे. आ जातना खोटा कलहो मिथ्यामोह ने वधारनार छे एवं भगवान वारंवार कहे छे. एक स्थळे भगवानने तेमना मुख्य शिष्य इन्द्रभूति गौतमे पूच्यं के, गुणवंत श्रमण या माझणनी सेबाची झुं लाभ थाय छे ! भगवाने जणान्युं के हे गौतम! तेमनी सेवा करवाथी आर्य पुरुषोए कहेलां वचनो सांभळवानो लाभ थाय छे अने तेथी ने - सांभळनार ने पोतानी स्थितिनुं भान थाय छे, भान थवाथी विवेक प्राप्त थाय छे, विवेकी थवाथी स्वार्थीपणुं ओछु थई त्यागभावना केळवाय के अने ते द्धारा संयम खीले छे अने संयमनी खीलवणीथी आत्मा दिवसे दिवसे शुद्ध तथा तपश्चर्यापरायण थतो जाय छे, तपश्चर्याथी मोहमळ या छे अने मोहमळ दूर थवाथी अजन्मा दशाने पामे छे. दूर भगवानना उपर्युक्त कपनमां गुणवंत भ्रमण अने ब्राह्मण तरफनी तेमनी दृष्टिनो मर्म समजा आपणे प्रयत्नशील प जोइए, एक स्थले मंडितपुत्रना प्रथना उत्तरमां भगवान को के के अनात्मभावमां वर्ततो आत्मा हंमेशा कंप्या करे छे, फडफडपा करे छे, क्षोभ पाम्या करे के अने तेम करतो ते हिंसा वगेरे अनेक जालना आरंभमां पढे छे, तेना ते आरंभो जीवमात्रने त्रास ऊपनाबनारा पाय छे. माटे हे मंडितपुत्र ! आत्माए आत्मभावमा स्थिर रहेवुं जोईए अने अनात्मभाव तरफ कदी पण न जनुं जोईए ( भा० २ पा० ७६ ) सातमा शतक ना बीजा उदेशकमा भगवान, इंद्रभूति गौतमने कहे छे के जे प्राणी सबै प्राण, भूत, जीव अने सयोनी हिंसानो क्ष्याग करवानी बात करे छे छतां ते, प्राण भूत जीव अने सत्त्वने ओळखवा प्रयत्न करतो नथी-ते ते प्राणभूतोनी परिस्थिति समजी मनी साधे मित्रवत् वर्तवानो प्रयास करतो नथी तेथी तेनो, ते ते प्राणीनी हिंसानो त्याग ए अहिंसा नयी पण हिंसा छे, असत्य के अने आस्रवरूप छे. अने जे, जेवो पोते प्राणी छे एवा ज आ बीजा प्राणीओ छे, जेवी लागणी पोताने छे एवी ज लागणी बीजाने पण छेएम समजीने हिंसानो त्याग करे छे ते ज खरो अहिंसक छे, सत्यवादी छे अने आस्रवरहित छे. ( भा० ३ पा० ७ ) आज प्रमाणे आठमा शतकमा दशमा उदेशकमां भगवान कहे छे के कोई मनुष्य, मात्र श्रुतसंपन्न होय पण शीलसंपन न होप ते देशी अंशधी विराधक छे. जे मात्र शीखसंपन्न होय पण श्रुतसंपन्न न होय ते देशची आराधक छे, जे श्रुत अने शील बजेपी संपन होय ते सर्वधी आराधक छे भने जे बजे विनानो छे ते सर्वधा विराधक छे. ( मा० ३ पा० ११८) " आ बजे कपनमा प्रज्ञा अने आचार बजे जीवनशुद्धिमा एक सरला उपयोगी छे एम भगवान बतावे छे. प्रज्ञा बिनानो आचार बंधनरूप पाय के अने आचार विनानी प्रज्ञा उछृंखलता पोवे छे. आज कारणथी बुद्ध भगवाने पण बुद्धपद पामता पहेला प्रज्ञापारमिता, सत्पपारमिता अने शीलपारमिता हती. कहेवानुं ए छे के भगवान महावीर अने भगवान बुद्ध ए बन्नेए पोतानां प्रवचनोमां ज्ञान अने क्रियाने एक सरखुं स्थान आपेलुं छे. .१ पुधुज्जनो (मूळ पाली) २ "तहारुवं णं भंते । समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा" - प्रस्तुत ग्रंथ भाग १ पृ० २८३ । / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान गौतमने कहे छे के हे गौतम ! हाथी अने कुंथबो ए बनेनो आत्मा एक सरखो छे. (भा० २ पा०२७) एमना ए कथनमा नाना मोटा दरेक प्राणीओ प्रत्ये सरखो भाव राखवानो आपणने संदेशो मळे छे. जे जे कारणोथी आत्मा अनात्मभावमा फसाय छे, ते समजावतां भगवान कहे छे के आ जगतमा अनात्मभावने पोषनारी दश संज्ञाओ छे. पहेली आहार, पछी भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक अने ओघ. ( भा० ३ पा० २७) भगवाने कहेली आ संज्ञाओ केटली दुःखकर छे ते तो सौ कोई पोताना अनुभव उपरथी जाणे छे. आ संज्ञाओमां भगवाने अनात्मभाव पोषनारी लोकसंज्ञा अने ओघसंज्ञाने जणावीने तेनाथी दूर रहेवान आपणने जणाव्युं छे. आहारथी मांडीने लोभसुधीनी संज्ञाओ दुःखकर छे एमां कोइने शक नथी पण लोकसंज्ञा अने ओघसंज्ञानु दुःखदायीपणुं प्राकृत मनुष्यना ख्यालमा जलदी आवी शके तेवू नथी. लोकसंज्ञा एटले वगर समज्ये प्राकृत लोक प्रवाहने अनुसरवानी वृत्ति अने ओघसंज्ञा एटले कुल परंपराप्रमाणे के चालता आवेला प्रवाहप्रमाणे वगर विचार्ये चाल्या करवानी वृत्ति. आ बन्ने वृत्तिथी दोरवातो मनुष्य सत्यने शोघी शकतो नयी, निर्भय रीते सत्यने बतावी शकतो नथी. तेथी ज आ बे वृत्तिओ जीवनशुद्धिनो घात करनारी छे. आम होवायी ज भगवाने तेमने हेयकोटिमां मूकी छे. अत्यारे आपणा राष्ट्र, समाज के जीवननो विकास आपणामां आ बे वृत्तिनुं प्राधान्य होवाथी ज अटकेलो छे. ए बे वृत्तिओ आपणामा एटली बधी जड घालीने पेसी गई छे के जेने काढवा अनेक महारथीओए प्रयत्नो कर्या. कृष्णे गीतामा अने भगवान महावीरे तथा बुद्ध पोतपोतानां प्रवचनोमा जुदीजुदी रीते आ बे वृत्तिओमा रहेली जीवननी घातकता आपणने प्रत्यक्ष थाय तेवी रीते वर्णवेली छे. वर्तमानमां आपणा आ युगना राष्ट्रीय सूत्रधारो पण आपणामा रहेली ए संज्ञाओने काढवा घणो प्रयत्न करी रह्या छे. आ रीते भगवाने आ सूत्रमा अनेक स्थळे अनेक प्रकारे जीवनशुद्धिनी पद्धतिनी समजण आपेली छे. भगवाननुं आखं जीवन ज जीवनशुद्धिनो ज्वलंत दाखलो छे एटले तेमनां प्रवचनोमा ठेकठेकाणे ए विषे एमना मुखमाथी उद्गारो नीकळे एतद्दन स्वाभाविक छे. एमना केटलाये उद्गारो आधुनिक वाचनारने पुनरुक्ति जेवाये लागे छतां जीवनशुद्धिना एक ज ध्येयने वळगी रहेनाराना मुखमाथी पोताना ध्येयने अनुसरता उद्गारो वारंवार नीकळे ए तद्दन खाभाविक छे. केटलीये वार ए उद्गारोनी पुनरुक्ति ज साधकने पोतानी वृत्तिमा दृढ करे छे तेथी ए पुनरुक्ति पण अत्यंत उपयोगी छे. विश्वविचार भगवान महावीरे ध्येयरूप जीवनशुद्धिने ध्यानमा राखीने ज आ सूत्रमा सृष्टिविज्ञाननी चर्चाओ अनेकरीते करेली छे. ए बधी चर्चाओ पण परंपराए जीवनशुद्धिनी पोषक छे एमां शक नथी, जो समजनार भगवानना मर्मने समजी शके तो. भगवाने आ सूत्रमा अनेक जग्याए जणाव्यु छे के, पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पति ए बधामा मानव जेवू चैतन्य छे. ते बधां आहार करे छे, श्वासोच्छास ले छे अने ते बधांने आपणी पेठे आयुष्यमर्यादा पण होय छे. ए बधां एकइन्द्रियवाळा जीवो छे, एटले तेओ मात्र एक स्पर्शइंद्रियथी ज पोतानो बधो व्यवहार निभावे छे. जे पृथ्वी-माटी पत्थर धातु वगेरे, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पति कोई रीते उपघात पाम्या नथी ते चैतन्यवाळां छे. तेमांनां पहेला चारनां शरीरर्नु कद वधारेमा वधारे अने ओछामां ओढ़ आंगळना असंख्यातमा भाग जेटलुं छे, अने वनस्पतिना शरीरनुं कद ओछामा ओळु तो तेटलं ज छे, पण वधारेमा वधारे एक हजार योजन करतां काईक वधारे छे. ते बधानां शरीरनो आकार एक सरखो व्यवस्थित नथी होतो. माटी तथा पत्थर वगेरे पृथ्वीना शरीरनो आकार मसूरनी दाळ जेवो के चंद्र जेवो होय छे. पाणीना शरीरनो आकार परपोटा जेवो, अग्निना शरीरनो आकार सोयना भारा जेवो, वायुना शरीरनो आकार धजा जेवो अने वनस्पतिना शरीरनो आकार अनेक प्रकारनो होय छे. ते बधामा आहार, निद्रा, भय, मैथुन अने परिग्रहसंज्ञा छे. क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चारे कषायो छे. ते बधा स्पर्शेन्द्रियद्वारा खोराक मेळवे छे. चैतन्यवाळा पृथ्वीना एक जीवन आयुष्य ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त अने वधारेमां वधारे २२००० वर्षतुं छे. पाणी वगेरेनुं ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त अने वधारेमां वधारे पाणी- ७००० वर्ष, अग्निनुं त्रण रातदिवस, वायुनु ३००० वर्ष अने वनस्पतिर्नु १०००० वर्ष छे. ते बधां ज्यारे मरण पामे छे, त्यारे पोतानी ए पांच योनिमांनी कोई एक योनिमा आववानी योग्यता धरावे छे के शंख कोडा वगेरे बे इन्द्रियवाळा जीवोनी, जू मांकड 'पृथिवी देवता''आपो देवता' इत्यादि मन्त्रो वैदिक परंपरामा प्रसिद्ध छे. यज्ञ वगेरेमा ज्यारे पृथिवी, पाणी, वनस्पति के अग्नि वगेरेनो उपयोग करवानो होय छे त्यारे प्रारम्भमा उक्तमन्त्री बोलवामा भावे छै. मन्त्री बोलनाराना के यज्ञ करनाराना ख्यालमा एवं भाग्ये ज आवतुं होय छे के तेओ पृथ्वी, पाणी, अग्नि के वनस्पति वगेरेनो जे उपयोग करेछे ते हिंसाजनक प्रवृत्ति छ, कारण के तेओमा एटळे पृथ्वी वगेरेमी पण भापणी जेवू ज चैतन्य छे. धर्म समजीने एवी हिंसक प्रवृत्ति करनारा ते कर्मकांडी लोकोना ख्यालमा आ वस्तु आवे ते सार भगवाने ए प्रसिद्ध वातने पण सूत्रोमा स्थळे स्थळे जणाची छे. . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोडा वगेरे त्रण इन्द्रियवाळा जीवोनी, पतंगिया भमरा वींछी वगेरे चार इन्द्रियवाळा जीवोनी, पशुपक्षी वगेरे पांच इन्द्रियवाळा तिर्यच जीयोनी के मनुष्यनी योनिमा आववानी योग्यता धरावे छे. मात्र अग्नि अने वायु, मनुष्यनी योनिमां आववानी योग्यता धरावता नथी. ए बधांने चार प्राण छे एटले के स्पर्शइंद्रिय, शरीरबळ, श्वासोच्छास अने आयुष्य. जेवी रीते पृथ्वी वगेरेनां चैतन्य वगेरेनो विचार करवामां आव्यो छे तेवी ज रीते बेइन्द्रिय-स्पर्श अने जिह्वावाळा, त्रणइन्द्रिय-स्पर्श, जिला अने प्राणवाळा, चारइंद्रिय-स्पर्श, जिहा, घाण अने चक्षुवाळा अने पांचइन्द्रिय-पर्श, जिह्वा, घ्राण, चक्षु, अने कानवाळा जीवोनो पण विचार करवामां आव्यो छे. पांच इंद्रियवाळा जीवोना चार विभाग करवामां आव्या छे. पशुपक्षी, मनुष्य, देव अने नारकः देवोना पण मुख्य चार मेद बताबवामां आव्या छे. वैमानिक-विमानमा रहेनारा, भवनपति-भवनमा रहेनारा, वानव्यंतर-पहाड, गुफा अने वनना आंतराओमा रहेनारा भने ज्योतिषी-ज्योतिर्लोकमा रहेनारा सूर्य चंद्र वगेरे. तेमना आहार, रहेणीकरणी, आयुष्य, वैभवविलास, उत्तरोत्तर संतोष, शास्त्राध्ययन, देवपूजन वगेरे पण घणा विस्तारसाथे आ सूत्रमा वर्णवेला छे. दाखला तरीके पहेला स्वर्गना देवो ओछामा ओछु बेथी नव दिवस पछी आहार करे छे एटले के मनुष्य के पशुपक्षीने रोजनेरोज आहारनी अपेक्षा रहे छे तेम देवोने ए नथी होती. पण कोई देवो बे दिवसे आहार ले छे, कोई देवो त्रण दिवसे, कोई चार दिवसे अने ए रीते कोई नव नव दिवसे आहार ले छे अने वधारेमां वधारे तेओ २००० वर्ष सुधी आहार विना चलावी ले छे. अने छल्ला वर्गना देवो ३३००० वर्ष सुधी आहार विना चलाबी शके छे. आ ज रीते नरकमा रहेला जीवोनी स्थितिने लगतुं वर्णन पण आपवामां आव्युं छे. आ आखा सूत्रनो मोटो भाग देव अने नरकना वर्णनमा ज रोकाएलो छे. उपर्युक्त रीत सिवाय बीजी रीते पण जीवजंतुनो विभाग करवामां आव्यो छे, जेमके:-जरायुज, अंडज, पोतज, खेदज, उद्भिज अने उपपादुक. आ विभाग शास्त्रोनी बधी परंपराओमां प्रसिद्ध छे. बधा जीवो जीवत्वनी दृष्टिए एक सरखा छे. ए हकीकत भगवाने 'एगे आया' ए सूत्रमा समजावेली छे. एमां एमनो हेतु लोकोमा समभावने जगाडवानो छे. अने जीवो एक सरखा छतां तेमनी उपर बतावेली जे जुदीजुदी दशाओ थाय छे ते तेमना शुभ के अशुभ संस्कारने आभारी छे. एटले मनुष्योए संस्कारशुद्धिना प्रयत्न तरफ वळवू जोईए एम भगवाननुं आ उपरथी सूचन छे. जो आपणे ए बर्षा वर्णनो उपरथी मैत्रीवृत्ति केळववा तरफ अने संस्कार शुद्धिना प्रयत्न तरफ न वळीए अने मात्र ए वर्णनो ज बांच्या करीए अने गोख्या करीए तो आपणे भगवान महावीरना संदेशाने समजवा योग्य नथी एम कहे, जोईए. भगवान महावीरे आ जे बधुं कहेलं छे तेमा तेमनी आध्यात्मिक शुद्धि अने परापूर्वथी चाली आवेली आर्योनी परंपरा ए चे मुख्य कारणो के. एटले आ सत्रमा के बीजा सूत्रमा ज्या ज्या आवां जीवने लगतां वर्णनो आवे छे तेनो खरो साक्षात्कार आपणे करवो होय तो आपणा माटे केवल चर्चा के शास्त्रश्रद्धा बस नथी पण आपणी पोतानी जातनी आत्मशुद्धि अने प्रज्ञाशुद्धिने वधारेमा बधारे केळववी जोईए. प्रज्ञाशुद्धि एटले ज्यां ए वर्णनो आवे छे ते बधां शास्त्रोनो तटस्थ दृष्टिए अभ्यास तथा अत्यारना विज्ञानशास्त्रनो पण ए ज रीते सूक्ष्म अभ्यास. आटलं कर्या पछी पण जो शास्त्रवचन अने तटस्थ अनुभवमा मेद मालुम पडे तो मुंझावापणुं नथी. कारण के शास्त्रे वर्णवेली स्थिति देशकाळनी मर्यादाने ओळंगी शकती नथी एटले देशकाळनो फेर बदलो थतां जे स्थिति २५०० वर्ष पहेलां भगवान महावीरे जेवी बतावी होय तेवी अत्यारे न होय तेमां कशी असंगति नथी. वळी आवी चर्चाओ मात्र मेद वधारवा के शास्त्रार्थना झगडा करवामाटे खपनी नथी. तेनो खप तो आगळ कह्या प्रमाणे मात्र मैत्रीवृत्ति अने संस्कारशुद्धि माटे छे. ___ आथी कोई संप्रदाय बार खर्गो करतां वधारे के ओछा खर्गो कहे अथवा नारकोनी हकीकत विषे एवी भिन्नतावाळी हकीकत कहे तेनाथी कशो क्षोभ पामवानो नथी. आपणे जाणीए छीए के आ जातना विचारो भगवान महावीरना जमानामां काई नवा न हता, कारण के आ संबंधमां वैदिक परंपरामा, बुद्धना पिटकोमा अने अवेस्ताग्रंथोमां केटलीए हकीकतो आजे उपलब्ध छे. जो के ते हकीकतो आपणे त्यां लखाएली छे तेवी सूक्ष्म नथी पण आत्मवत सर्वभूतेषुना सिद्धांतने समजवा पूरती ए हकीकतो आपणा सिवायनी बीजी बधी परंपराओमा नोंधायेली छे अने तेनो खरो उपयोग पण ते ज छे. वनस्पतिविद्याविषे चरक अने सुश्रुतमा आपणे त्यां वर्णवेली छे तेटली ज सूक्ष्म पण बीजा प्रकारनी अनेक हकीकतो नोंधायेली छे, जे आजे पण उपलब्ध छे अने व्यवहारमा पण खरी निवडेली छे. १ जूओ स्थानांगसूत्रना मूळनो प्रारंभ पृ. १० । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेने आपणे एकेन्द्रिय कहीए छीए ए जंतुओनी स्थिति विषे अत्यारना विज्ञाने घणी उंडी शोध करेली छे. ते ज प्रमाणे बाकीना अने 'स्थूल जीवजंतुओनी स्थितिविषे पण अत्यारे घणी नवी शोधो थयेली छे. सूक्ष्म भमरीने आपणे असंज्ञी कहीए छीए ते भमरीनी कुशलता मिथेना प्रवक्ष प्रयोगो आपणे जोई शकीए छीए जेने आपने बे, त्रण, अने चार इन्द्रियोवाळा कहीए छीए ते बधांने कोई अपेक्षाए पांच इन्द्रियो छे ए आपणे सूक्ष्मदर्शक यंत्रद्वारा जोई शकीए छीए. तदुपरांत बध प्राणीओनां स्वभाव, प्रवृत्ति, हाजतो वगेरे अनेक जातनी हकीकतोविषे आजे घणुं नवुं ज्ञान आपणने मळी शके छे. ते बधा तरफ आपणे उपेक्षा राखीए अने मात्र शास्त्रवाक्य ज गोख्या करीए तो आपणी प्रज्ञाशुद्धि थई शकवानी नथी. कदाच कोईने एम छागे के विज्ञानना अभ्यासभी शाखश्रद्धा मंद पतां नास्तिकतानो प्रचार पशे. पण ए कल्पना के भय वराबर नयी. विज्ञानयी तो शास्त्रश्रद्धा बचारे दृढ धवानो अनुभव छे अने एम कहेवानुं आपणने अभिमान रहे छे के प्राचीन छोकोए पण पोताना जमानामा केटला बधा वैज्ञानिक विचारो करेला हता. कदाच शास्त्रवचनो साथै विज्ञाननो मेद मालम पडे तो तेना समन्वयनी चावी आपणी पासे छे. ते एक तो देशकाळ अने बीजी कहेवानी शैली, देशकाळ एटले के भगवान महावीरना जमानानी के पूर्वपरंपराधी जे हकीकतो चाली आवती इती ते अत्रे नोंचेडी के एटले ए जमाना अने आ जमाना वच्चेना घणा लांबा गाळामां विश्वनुं एटले के मानवस्वभावनुं, मानवी रहेणीकरणीनुं अने मानवनी आसपासनी परिस्थितिओनुं तथा वनस्पति अने जंतु जगतनुं जे परिवर्तन आजसुधी थतुं आव्युं छे ते परिवर्तन ज भेदना समाधान माटे बस छे. कवानी शैलीनो दाखलो आ प्रमाणे घटावी शकायः आपणे त्यां आ वात प्रसिद्ध छे के ईयळमांची भमरी थाय छे. जैनपरिभाषा प्रमाणे ईयळ करतां भगरी वधारे इंदिया प्राणी के एटले के चार इन्द्रियातुं छे. तो एक ज जन्ममां वे जन्म वाय शी रीते पण जे लोको एम कह्युं छे के ईयळमांची भमरी थाय छे, ते लोकोए एम जोयेल्लुं छे के भमरी ईयळने लावीने पोताना दरमां राखे छे अने तेमांथी काळांतरे भमरी नीकळे छे. मात्र आटलं ज जोनारो ईयमांची भमरी निकछे छे एम जरूर कहे पण ईपळमांथी भ्रमरी क्यांची आवी तेनो खुलासो नथी करी शकतो एटले तेनुं ते कथन स्थूलदृष्टिए छे एम समजीने खरा तरीके समजी शकाय खरं. पण ज्यारे जंतुशास्त्री मददधी आ विषे विचार करीए तो तद्दन जुदुं ज मालम पडे छे. ते शास्त्र कहे छे के ईयळमांथी भमरी थती नथी पण भमरी जे ईयळने दरमां लावे छे ते ईयळमां डंख मारीने इंडां मूके छे. अने ते इंडां काळांतरे ईयळद्वारा पोषाईने ईयळमांथी बहार आवे छे. ईयळ तो मात्र ते इंडानुं पोषण ज छे. आ रीते बारीकाईथी जोतां भमरीना इंडामांथी ज भमरी थाय छे पण ईयळमांथी भमरी नथी थती, छतां ईयळमांथी भमरी थवानी हकीकत खोटी छे एम स्थूल दृष्टिए न कही शकाय. जैन परिभाषामां कहीए तो ईयळमांथी भमरी थवानी हकीकत उपचार प्रधान व्यवहारनयथी ठीक कही शकाय जंतुशास्त्रथी सिद्ध चमेली हकीकत निश्चयनयथी ठीक कही शकाप. आ प्रमाणे शास्त्रोमां जे जे हकीकतो लखायेली मळे छे तेनो निवेडो नयवादनी दृष्टिथी जरूर लावी शकाय अने तेथी विज्ञान अने शास्त्रीय विचारणाम अपडामण वयानो संभव नही रहे. देव अने नरकनी हयाती विषे तो बधी प्राचीन परंपराओ एकसरखो ज मत धरावे छे. पण ते विषे ज्यांसुधी वनस्पतिविद्यानी पेठे उंडी शोध थई निर्णय न थाय त्यांसुधी आपणे ए विषेनी कोईपण जूनी परंपराने खोटी कहेवा हिम्मत न करी शकीए. दरेक परंपराना मूळ पुरुषे ए लिये विचारो दर्शाया छे. ते विचारो विषे ते ते पंरपराना अनुयायी ओर कशी नवी शोधखोळ करी नमी पण शाझे भागे तेना ते विचारोनुं पिष्टपेषण कर्या कयुं छे. पण हवे ए विषे शोध करवानो युग आवी गयो छे. जो के यास्क जेवा महर्षि एटले देव, इंद्र, सुर, असुर वगेरे विषे कांईक नवो प्रकाश पाडचा प्रयत्न कर्यो छे खरो पण आ लोकप्रवाद सामे ए ठीकठीक पहोंची शक्यो नथी अने मात्र पौराणिक परंपरामां वर्णवायेलां रूपको ज बधी परंपरावाळाओए स्वीकार्यां छे एम ए यास्कनी दृष्टिए कही शकाय . ए वैदिक आर्योंनी देव वगेरे विषे झुं मान्यता हती से सिषे वास्कले यांचयायी थोडीचणी माहिती आजे पण आपणने मळी शके छे. आ सूत्रमा अने वीजां सूत्रोमां भगवान महावीरे विश्वविज्ञानने उगती जे जे माहिती आपी छे तेनो उद्देश विश्ववैचित्र्य जाणवा उपरांत ते द्वारा विश्व साचे समभाग सानो छे. छतां केटलीक एवी बावतो पण तेमां बताववामां आवी छे जेनां मात्र ज्ञेयनी दृष्टि मुख्य छे. तेमनो जीवनशुद्धिमां सीधो उपयोग होय एवं जणांतुं नथी. जेमके लोकनी स्थितिने समजावतां भगवान महावीरे गौतमने जंणावेलुं छे के, आकाश उपर वायु रहेलो छे. वायुनी उपर उदधि छे. उदधि उपर आ पृथ्वी रहेली छे अने ए पृथ्वी उपर आ आलुं विश्व रहेलुं छे. आ हकीकत समजावया भगवान एक सरस दाखटो १ श्रीयास्कना उल्लेख माटे जूओ प्रस्तुत ग्रंथ भा० २०४२ ४८-४९, १२२, १३० ॥ / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपे छे. तेओ कहे छे के जेम कोई पुरुष मशकने फुलावीने तेनुं मोढुं बंध करे, पछी मशकने वचले भागे गांठ मारी दे, गांठ मार्या पछी मशकनुं मोढुं खुल्लुं करी तेनो पवन काढी तेमां पाणी भरी दे, पछी गांठ छोडी नाख्ने तो जेम ते पवनने आधारे उपरनुं पाणी नीचे न आवतां उपर ज रहे छे तेम आ पृथ्वी पवनने आधारे रहेला समुद्र उपर टकी रही छे. ( भा० १ पा० १७ ) एक स्थळे पोताना शिष्य रोहक अणगारने समजावतां भगवान कहे छे के जेम कूकडी अने इंडुं ए बे बच्चे कयुं कार्य अने कयुं कारण एवो क्रमवाळो विभाग थई शकतो नथी पण बन्नेने शाश्वत मानवा पडे छे, तेम लोक, अलोक, जीव, अजीव वगेरे भावोने पण शाश्वत मानवाना छे. ए बे वच्चे कशो कार्यकारणनो क्रम नथी. ( भा० १ पा० १६७ ) एकस्थळे गर्भस्थ जीवनी स्थितिनी चर्चा करतां गर्भमा रहेलो जीव शुं खाय छे, तेने शौच, मूत्र, श्लेष वगेरे होय छे के नही, गर्भस्थ जीवे करेला आहारना कया कया परिणामो थाय छे, ते जीव मुखथी खाई शके छे के नहि, ते कई रीते आहार ले छें, ते जीवमां केटलो मातानो अने केटलो पितानो अंश होय छे, तेनुं निस्सरण माथाथी थाय छे के पगथी वगेरे हकीकतो जेम महर्षि चरक समजावे छे, तेज रीते, पण संक्षेपमां समजाववामां आवी छे. ( भा० १ पा० १८१ ) एक बींजी जग्याए पाणीना गर्भ विषे विचार चालेलो छे. तेमां कहेलुं छे के पाणीनो बंधाएलो गर्भ वधारेमां वधारे छ महिना सुघी टकी शके छे, पछी तो ते गळे ज. ( भा० १ पा० २७३ ) आ विषे थोडी वधारे चर्चा ठाणांग सूत्रमां पण आवे छे. एनी सविस्तर चर्चा जोवी होय तो वाराहीसंहितामां उदकगर्भने लगतुं आखुं प्रकरण जोई लेवं जोईए. गर्भ क्यारे बंधाय छे, कया महिनामां एनी केवी स्थिति होय छे, क्यारे गळे छे, ते बधुं एमां सविस्तर वर्णवायेलुं छे. वाराहीसंहिता ए वैदिक परंपरानो विश्वकोष जेवो एक मोटो ग्रंथ छे ते न भुलाय . भाषा-शब्दना खरूपनी चर्चा करतां शब्दोनी उत्पत्ति, शब्दोनो आकार, बोलायेल शब्द ज्यां पर्यवसान पामे छे ते अने शब्दना परमाणुओ वगेरे विषे विस्तारथी जणावेलुं छे. ( भा० १ पा० २९१ ) पनवणासूत्रमां भाषाना खरूपने लगतुं भाषापद नामनुं एक ११ मुं प्रकरण ज छे. तो विशेषार्थीए ए बधुं त्यांथी जोई लेबुं. समुद्रमां भरती अने ओट थाय छे ते सौ कोईनी जाणमां छे. ते भरतीओट थवानां कारणोनी चर्चा करतां समुद्रनी चारे दिशामां चार मोटा पातालकलशो होवानुं अने ते उपरांत बीजा अनेक क्षुद्र कलशो होवानुं जणाव्युं छे. ते पातालकलशोमां नीचेना भागमा बायु रहे छे, वचला भागमां वायु अने पाणी साथे रहे छे अने उपला भागमां एकलं पाणी रहे छे. ज्यारे ए वायु कंपे छे, क्षुब्ध थाय छे, ब्यारे समुद्रनुं पाणी ऊछळे छे अने ज्यारे एम नथी यतुं व्यारे समुद्रनुं पाणी ऊछळतुं नथी. आ प्रमाणे भरतीओटना प्रश्नने लग समाधान मूकेलुं छे. (भा० २ पा० ८२ ) ए समाधानमांथी आपणे एटलं तो जरूर तारवी शकीए छीए के कदाच वायुना कारणी समुद्रमां भरती ओट थतां होय. आ उपरांत सूर्यने अने ऋतुने लगती पण केटलीक चर्चा आ सूत्रमां आवेली छे. ए चर्चामा जणावेली हकीकतोनो खुलासो त्यारे ज मेळवी शकीए ज्यारे आपणे खगोळ अने ऋतुना विज्ञानशास्त्रनुं गंभीर रीते परिशीलन कर्यु होय. काने जे शब्दो आवे छे ते शब्दोनुं ग्रहण कर्णेन्द्रिय अने शब्दना स्पर्शथी थाय छे के एमने एम थाय छे ! तेना उत्तरमां कर्णेन्द्रियने शब्दनो स्पर्श थया पछी ज शब्दनुं ग्रहण थाय छे एम स्वीकारवामां आवेल छे. ( भा० २ पा० १७१ ) आ विषे वधारे विस्तारवाळु वर्णन पनवणासूत्रना पंदरमा इन्द्रियमदमां छे. तेमां इन्द्रियोना प्रकारो, आकारो, दरेक इन्द्रियनी जाडाई, पोळाई, कद, इन्द्रियोद्वारा थती पदार्थग्रहणनी रीत, इन्द्रिय केटले वधारे दूर के नजीकथी पदार्थने ग्रहण करी शके छेते अंतरनुं माप ए. बधुं वीगतथी चर्चेल छे. अंधारुं अने अजवाळु केम थाय छे तेनो पण खुलासो भगवाने पोतानी रीते जणाव्यो छे. ( भा० २ पा० २४६ ) वनस्पतिविषे विचार करतां एक जग्याए ते सौथी ओछो आहार क्यारे ले छे अने सौथी वधारे आहार क्यारे ले छे ! ए प्रश्नना उत्तरमां भगवाने जणावेलं छे के प्रावृट्ऋतुमां एटले श्रावण अने भादरवा महिनामां, अने वर्षाऋतुमां एटले आसो अने कार तक मां वनस्पति सौथी वधारेमा वधारे आहार ले छे. अने पछी शरद्, हेमंत अने वसंतऋतुमा ओछो ओछो आहार ले छे. पण सौथी ओछो आहार प्रीष्मऋतुमां ले छे. आ उत्तर सांभळी फरीथी गौतमे पूछयुं के हे भगवान! जो ग्रीष्मऋतुमां वनस्पति सौथी ओछामा ओछो आहार • लेती होय तो ते वखते पांदडावाळी, पुष्पवाळी, फळवाळी, लीलीछम अने अत्यंत शोभावाळी केम देखाय छे ? उत्तरमां भगवाने क एकठा थाय छे, वधारे वृद्धि पामे छे, ते. अने आंखने ठारे एवी शोभावाळी थाय छे. छे के केटलाक उष्णयोनिक जीवो तथा पुद्गलो वनस्पतिकायरूपें तेमां उत्पन्न थाय छे, कारणथी हे गौतम ! ग्रीष्ममां अल्पाहार करती वनस्पति पांदडावाळी, पुष्पवाळी, फळवाळी, १ जूओ प्रस्तुत ग्रन्थ भा० १ पृ० २७३ तथा टिप्पण १ पृ० २७५ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज प्रकरणमा आगळ चालतां वनस्पतिर्नु मूळ, वनस्पतिनो कंद, वनस्पतिनी शाखाओ, वनस्पतिनां बी, वनस्पतिनां फळो, वनस्पतिना पांदडां वगेरेने आहार पहोंचवानी पद्धति पण बतावेली छे. (भा० ३ पा० १२) आ हकीकत विषे शास्त्रोक्त वनस्पतिविद्याने जाणनार कोई पंडित जो वनस्पतिविद्याविशारद जगदीशचंद्र वसु साथे वातचीत करशे तो घणो विशेष प्रकाश पाडी शकशे अने भगवान महावीरे जणावेली हकीकतनी पण कसोटी थशे. आठमा शतकना बीजा उद्देशकमां आशीविषनी माहिती आपेली छे. आशी एटले दाढ. जेनी दाढमां विष छे तेने आशीविष कहेवामां आवे छे. तेना बे प्रकार छे. जन्मथी आशीविष अने कर्मथी आशीविष. जन्मथी आशीविष चार प्रकारना छे. वींछीनी जातिना, देडकानी जातिना, मनुष्यनी जातिना अने सर्पनी जातिना आशीविष. ए चारे प्रकारना झेरी प्राणीओनां झेरनुं सामर्थ्य बतावतां भगवान कहे छे के वींछीनी जातिनां झेरी जंतुओ अर्ध भारत जेवडा शरीरने, देडकानी जातिना झेरी जंतुओ भरतक्षेत्र जेवडा शरीरने, सर्पनी जातिनां झेरी जंतुओ जंबुद्वीप जेवडा मोटा शरीरने अने मनुष्यनी जातिनां झेरी प्राणीओ मनुष्यलोक जेटला विशाळ शरीरने झेरथी व्याप्त करवा समर्थ छे. आटलं कह्या पछी भगवान कहे छे के ए चारे प्रकारना सोना झेरनुं सामर्थ्य जे उपर जणावेलुं छे ते, ते शेरी प्राणीओए कदी बताव्युं नथी, बतावतां नथी अने बताववानां पण नथी. (भा०३ पा० ५६) भगवाने तो मात्र ते ते प्राणीओना विषनी शक्तिनो ख्याल आपवा पूरती ते ते हकीकतो जणावेली छे. आ विषे सर्पशास्त्रना अभ्यासी पासे जिनप्रवचननो भक्त प्रकाश नखावशे तो जरूर भगवानना प्रवचननो महिमा वधशे तेमां शक नथी. स्वार्थी मनुष्य प्राणी केवो झेरी छे, तेना झेरनुं सामर्थ्य केवं प्रबळ छे अने केटलू बधु संहारक छे' ए बधी हकीकत आध्यात्मिक दृष्टिथी तो समजाय तेबी छे. विषकन्या अने जीवती डाकणोनी वातो मनुष्यना सर्पपेठेना झेरीपणानी साबीती माटे कही शकाय एवी छे तो पण अहीं मनुष्यने जे रीते झेरी तरीके वर्णव्यो छे ए वस्तु तो अवश्य शोधने पात्र छे. छठा शतकना सातमा उद्देशकमा भगवानने गौतम पूछे छे के हे भगवान! कोठामां अने डालामां भरेला अने उपरथी छाणथी लीपेलां, माटी वगेरेथी चांदेलां एवा शाल, चोखा, घउं तथा जवनी ऊगवानी शक्ति क्यांसुधी टकी रहे ! उत्तर आपतां भगवान कहे छे के हे गौतम ! ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त अने वधारेमां वधारे त्रण वर्ष सुधी ए बधां अनाजनी ऊगवानी शक्ति कायम रही शके छे. आ ज प्रमाणे कलाय ( वटाणा) मसूर, तल, मग, अडद, वाल, कळथी, एक जातना चोखा, तूवेर अने चणा ए विषे पूर्वोक्त प्रश्नना जवाबमां भगवान कहे छे के कलाय वगेरेनी ऊगवानी शक्ति वधारमा वधारे पांच वर्ष सुधी-रहे छे अने ओछामा ओछी अंतर्मुहुर्त रहे छे. वळी अळसी, कुसुंभ, कोद्रवा, कांग, बंटी, बीजी जातनी कांग, बीजी जातना कोद्रवा, शण, सरसव, मूळानां बी (मलकवीजानि) ए बधांनी ऊगवानी शक्ति वधारेमां वधारे सात वर्ष सुधी कायम रहे छे अने ओछामा ओछी अंतर्मुहूर्त. आ चर्चा पण आपणने अतिरस आपे एवी छे. पण आ विषे कोई वनस्पतिशास्त्रना अभ्यासी द्वारा ऊहापोहपूर्वक प्रकाश नखावी शकाय तो ज ते वधारे रसिक थाय तेवु छे. ___आ ग्रंथमा जेम आत्माने लगती बधी बाजुओनो विचार करवामां आव्यो छे तेम पुद्गल-जड द्रव्य विषे पण तेवो स्फुट विचार अनेक जग्याए बताववामां आव्यो छे. भगवान महावीर मूर्तिमंत जडद्रव्यना-प्रयोगथी परिणाम पामेलां, प्रयोग अने अप्रयोग बन्नेथी परिणाम पामेला अने अप्रयोगथी परिणाम पामेला एवा-त्रण विभाग बतावे छे अने कहे छे के अप्रयोगथी परिणाम पामेला मूर्तिमंत जडद्रव्यो विश्वमां वधारमा वधारे छे. एथी ओछां, प्रयोग अने अप्रयोगथी परिणाम पामेलां अने सौथी ओछां, प्रयोगथी परिणाम पामेला छे. तेमनी आ गणना आखा विश्वने लक्षीने छे. अहिं प्रयोगनो अर्थ जीवनो व्यापार अने अप्रयोगनो अर्थ स्वभाव समजवानो छे. एक स्थळे पदार्थोना परस्परना बंध विषे कहेतां भगवान महावीरे गौतमने का छे के बंध बे प्रकारना छे. जे बंध जीवना प्रयत्नथी थतो देखाय छे ते प्रयोगबंध कहेवाय छे. जे बंध जीवना प्रयत्न वगर एमने एम थतो देखाय ते वीससाबंध कहेवाय छे. पाछलो वीससाबंध अनादि पण होय छे. आकाशद्रव्यना प्रदेशोनो जे परस्पर संबंध ते अनादि वीससाबंध छे. परमाणुपरमाणुओनो, द्रव्यद्रव्यनो अने वादळां वगेरेनो जे परस्पर संबंध छे ते सादि वीससाबंध कहेवाय छे. आ बंध त्रण प्रकारनो कहेवामा आव्यो छे. परमाणुपरमाणुना एटले रूक्ष अने स्निग्ध परमाणुना बंधने बंधननिमित्तक कहेवामां आवे छे, ते ओछामा ओछो एक समय सुधी अने वधारेमा वधारे असंख्य काल सुधी टके छे. द्रव्यद्रव्यना एटले गोळ, चोखा, दारु वगेरे ए बधां जे भाजनमा भरवामां आवे तेनी साथे बहु समय जतां चोंटी जाय छे ते तेमना परस्परना संबंधने भाजननिमित्तकबंध कहवामां आवे छे, ते ओछामा ओछो अंतमुहूर्त अने वधारेमां वधारे संख्येय काल सुधी रहे छे अने वादळां वगेरेना परस्परना बंधने परिणामनिमित्तकबंध कहेलो छे अने ते ओछामा ओछो एक समय अने वधारमा वधारे छ महिना सुधी टके छे.. भ.सू.2 . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे बंध जीवना प्रयत्नथी थाय छे तेना मुख्य त्रण प्रकार काळनी अपेक्षाए बतावेला छे; अनादिअनंत, सादिअनंत अने सादिसांत. आमांनो छेल्लो सादिसांतवाळो प्रकार व्यवहारमा खूब प्रचलित छे. तेना पण मुख्य चार प्रकार बताववामां आव्या छे. आलावणबंध, अल्लिआवणबंध, शरीरबंध अने शरीरप्रयोगबंध. (भा० ३ पा० १०१) __आ विषे वीगतवार उदाहरण साथेनी हकीकत उपर्युक्तपाने बंधना प्रकरणमां कहेवामां आवी छे जे वांचनारने अत्यंत रसदायक नीवडे तेवी छे. - वळी, बीजे स्थळे परमाणुर्नु कंपन, परमाणुनां परिणाम, परमाणुनी अच्छेद्यता, परमाणुने मध्य होय छे के नहि ! परमाणुनो परस्पर स्पर्श, परमाणुनी परमाणुदशानी स्थिति, परमाणुना कंपननोसमय, शब्दपरमाणुनी शब्द तरीकेनी स्थितिनो समय वगेरे अनेक सूक्ष्म-सूक्ष्मतम विचारो बताव्या छे (भा०२ पा० २१६) आना जेवी बीजी पण अनेक चर्चाओ जेने आपणे वैज्ञानिक कही शकीए तेवी आ सूत्रमा अने बीजा सूत्रोमां अनेक स्थळे आवेली छे पण विज्ञानशास्त्रनी मदद सिवाय ए चर्चाओ वधारे समजमां आवी शके तेवू नथी तेथी जिनप्रवचनने वधारे समजवामाटे विज्ञाननो अभ्यास अधिक उपयोगी अने आवकारदायक छ ते शक विनानी वात छे. भगवाने जे आ बधी चर्चा करी छे ते बधी तेमनी आत्मशोधमांधी जन्मी छे एम कहेवू जराय खोटुं नथी. जीव अने तेना भेदो अने तेनी अनेक प्रकारनी स्थितिनी चर्चा, जीवमात्रनी समानता अने भिन्नभिन्न संस्कारोथी थयेली तेनी विचित्रता बतावा करेली छे. एकंदरे जोतां ए चर्चा सर्व कोईने मैत्रीभाव अने समभाव तरफ प्रेरे एवी छे अने जडद्रव्यना परिणामो अने स्थिति वगेरेनी चर्चा आपणने विश्वनुं वैविध्य बतावी निर्वेद तरफ लई जवामा साधनरूप बने तेवी छे. आत्मशोधक माणस, एक ज पुद्गलना, संयोगवश भिन्नभिन्न परिणामो जाणी कंया परिणाममा ए राग करे अने कयामां ए घृणा करे ! आ बधु जोतां भगवानना प्रवचनमा जे जे चर्चाओ करवामां आवी छे ते बधी आत्मशोधनमाथी जन्मी छे अने आत्मशोधने पोषनारी छे ए हकीकत वारंवार कहेवी पडे एवी नथी. अने उपर कह्या प्रमाणे केटलीक चर्चाओ मात्र ज्ञाननी दृष्टिए पण करवामां आवी छे ए पण खरी वात छे. रूढिच्छेद व्याख्याप्रज्ञप्तिमा आवेली जीवनशुद्धि अने विश्वविज्ञाननी माहिती उपर प्रमाणे आप्या पछी श्रमण भगवान महावीरे पोताना वखतनी रूढिओने तोडवा जे प्रवचनधारा बहेवरावी छे ते विषे आपणे हवे अहीं कहेवार्नु छे. ए प्रवचनधारा आ सूत्रमा तेम बीजा सूत्रमा पण ठीकठीक प्रमाणमा उपलब्ध छे. श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमा जातिवादथी थती सामाजिक विषमताने तोडवा भगवाने स्पष्ट शब्दोमा कयुं छे के जातिविशेषथी कोई पूजापात्र थई शकतो नथी पण गुणविशेषथी ज थई शके छे. ब्राह्मणकुलमा जन्मेलो के मात्र मुखथी ॐ ॐ नो जाप करनार ब्राह्मण नथी पण ब्रह्मचर्यथी ब्राह्मण बने छे. एवी रीते श्रमणकुलमा रहेनारो के कोई मात्र माथु मुंडावनारो श्रमण थई शकतो नथी पण जेनामा समता होय ते ज श्रमण कहेवाय छे. जंगलमा रहेवा मात्रथी कोई मुनि कहेवातो नथी पण मनन-आत्मचिंतन चंडाळना कुलमा पेदा थएलो अने उत्तम गुणने धारण करनारो एवो हरिकेश नामे जितेन्द्रिय भिक्षु हतो. (१) जेओना चित्तमा क्रोध छे, अहंकार छे, हिंसा छे, असत्य छ, चौर्य छ, अने मूर्छा छ तेवा जाति अने विद्याविहीन ब्राह्मणो पापक्षेत्र छे. (१४) १ "सोवागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी । हरिएसबलो नाम आसि भिक्खू जिइंदिओ ॥१ कोहो य माणो य वहो य जेसिं मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । . ते माहणा जाइविज्जाविहीणा ताई तु खित्ताई सपावयाई ॥१४ सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो न दीसइ जाइविसेस कोइ। सोवागपुत्तं हरिएससाहुं जस्सेरिसा इट्टी महाणुभावा" ॥ ३७ -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-१२ तपनी विशेषता साक्षात देखाय छे पण जातिनी विशेषता कशी देखाती नथी. कारण के हरिकेश साधु, चंडाळनो पुत्र होवा छतां तप अने संयमना कारणथी महाप्रभावयुक्त शक्तिशाली थई शक्यो छे. (३५) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनारो मुनि कहेवाय छे. मात्र कोई झाडनी छाल पहेरवाथी तापस कहेवातो नथी पण आत्माने शोधनारं तप करे ते ज तापस कहेवाय छे.' आ उपरांत आठ गाथामां भगवाने खास करीने ब्राह्मणर्नु स्वरूप बताव्युं छे.' धम्मपद अने सुत्तनिपातमां भगवान बुद्धे पण ब्राह्मण- आ जात, लक्षण केटलीक गाथामां बतावेलुं छे. आ उपरथी आपणे स्पष्ट जाणी शकीए छीए के ते बन्ने महापुरुषोनो शुष्क जातिवाद सामे मोटो विरोध हतो. आने लीघे ज तेमना तीर्थोमां शूद्रो, क्षत्रियो अने स्त्रीओ ए बधांने एक सरखं मानभंयु स्थान मळेलं छे. जातिवादनी पेठे ते चखते जडमूळ घालीने बेठेली केटलीक जडक्रियाओ सामे पण भगवान महावीरे ते वखतना लोकोनी सामे विरोध उठावेलो. ए क्रियाओमां खास करीने यज्ञ, स्नान, अर्थना भान विनानुं वेदगें अध्ययन, भाषानी खोटी पूजा- अमिमान, सूर्यचंद्रना ग्रहणने लगतुं कर्मकाण्ड, दिशाओनी पूजानो प्रघात, युद्धथी स्वर्ग मळवानी मान्यता-ए बधी जडप्रक्रियाओने लीघे समाजनी आत्मशुद्धिनो हास थतो जाणी आ सूत्रमा अने बीजा सूत्रमा भगवाने ते ते क्रियाओगें खरं खरूप बताव्युं छे अने तेना जड स्वरूपनो चोक्खो विरोध कर्यो छे. श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमा यज्ञना स्वरूप विषे कहेवामां आव्युं छे के बधा वेदोमां विहित करेला यज्ञो पशुहिंसामय छे. ते पशुहिंसारूप पापकर्म द्वारा जे यज्ञ करवामां आवे छे ते यज्ञ याजकने पापथी बचावी शकतो नथी तेथी ज ते खरो यज्ञ नथी पण खरो यज्ञ आ प्रमाणे छ:-"जीवरूप अनिकुंडमां मनवचनकायानी शुभ प्रवृत्तिरूप वाढीथी शुभप्रवृत्तिनुं घी रेडीने शरीररूप छाणां अने दुष्कर्मरूप लाकडांने प्रदीप्त करीने शान्तिरूप प्रशस्त होमने ऋषिओ नित्यप्रति करे छे. खरो होम आ जै छे." १ "न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। | १ मात्र माथु मुंडाववाथी श्रमण थइ शकातुं नथी, ॐकारना जापथी न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण न तावसो ॥ २९ ब्राह्मण थइ शकातुं नथी, जंगलमा रहेवाथी मुनि थइ शकातुं नथी समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। अने डाभ पहेरवाथी तापस थइ शकातुं नथी. (२९) नाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ तावसो ॥३० समताथी श्रमण थवाय छै, ब्रह्मचर्यथी ब्राह्मण थषाय छे, चिंतनथी मुनि कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तियो। थवाय छे अने तपथी तापस थवाय छे. (३०) वइस्सो कम्मुणा होइ मुद्दो हवइ कम्मुणा" ॥ ३१ कर्मथी ब्राह्मण थवाय छ, कर्मथी क्षत्रिय थवाय छे, कर्मथी वैश्य थवाय -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-२५ छे अने कर्मथी शूद थवाय छे. (३१) "जो न सज्जइ आगंतुं पव्वयंतो न सोअह । २ "जे आसक्ति न राखे, शोक न करे, अने आर्यना वचन प्रमाणे रहे रमए अजवयणम्मि तं वयं बूम माहणं ॥ २० तेने अमे ब्राह्मण कहीए छीए. (२०) जायरूवं जहामढे निद्धतमलपावर्ग। धमेला भने संस्कारेला सोनानी पेठे जे शुद्ध छे अने राग, द्वेष तथा रागद्दोसभयाईयं तं वयं बूम माहणं ॥२१ भयथी विमुक्त छे तेने अमे ब्राह्मण कहीए छीए. (२१) तसे पाणे वियाणित्ता संगहेण य थावरे। गतिशील अने अगतिशील प्राणीओनी स्थिति जाणीने जे मन, वचन जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं ॥ २२ अने शरीरथी हिंसा नथी करतो तेने अमे ब्राह्मण कहीए छीए. (२२) कोहा वा जह वा हासा लोहा वा जइ वा भया । क्रोध, मश्करी, लोभ के भयथी जे जूढुं बोलतो नथी तेने अमे ब्राह्मण मुसं न वयह जो उ तं वयं बूम माहणं ॥ २३ कहीए छीए. (२३) चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । सजीव के निर्जीव वस्तुनी जे थोडी के बहु चोरी करतो नथी तेने अमे न गिण्हइ अदत्तं जो तं वयं बूम माहणं ॥ २४ ब्राह्मण कहीए छीए. (२४) दिव्वमाणुस्सतेरिच्छं जो न सेवेह मेहुणं । जे मन, वचन ने कायाथी ब्रह्मचर्य पाळे छे तेने अमे ब्राह्मण कहीए मणसा काय-बक्केणं तं वयं बूम माहणं ॥ २५ छीए. (२५) जहा पोम्मं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । जेम कमळ पाणीमाथी थाय छे छतां पाणीथी लेपातुं नथी तेम जे एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं वूम माहणं ॥ २६ कामोथी अलिप्त रहे छे तेने अमे ब्राह्मण कहीए छीए. (२६) अलोलुयं मुहाजीविं अणगारं अकिंचणं । जे लोलुप नथी, स्वार्थने कारणे जीवतो नथी, अकिंचन छ भने गृहअसंसत्तं निहत्थेहिं तं वयं बूम माहणं ॥२७ स्थोमा संसक्त नथी तेने अमे ब्राह्मण कहीए छीए. (२५) एवंगुणसमाउत्ता जे हवंति दिउत्तमा । जे द्विजोत्तमो आवा प्रकारना गुणवाळा होय छे तेओ ज पोतानो अने ते समत्था उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य" ॥ ३३ परनो उद्धार करवाने समर्थ छे. (३३) -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-२५ ३ "किं माणा जोइ समारभंता उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा ।। । ३ हे ब्राह्मणो, अग्निमा आलभन करता तमे पाणीवडे बहारनी शुद्धिने जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं न तं सुदिटुं कुसला वयंति ॥ ३८ शुं शोधो छो ? तमे जे बहारनी शुद्धि शोधो छो ते सारं नथी एम फुशळ माणसो कहे छे. (३८) कुसं च जूवं तणकट्ठमग्गि सायं च पायं उदयं फुसंता। कुश, यूप, घास, लाकडा, अमि अने पाणीनो सांजे अने सवारे स्पर्श पाणाई भूयाई विहेठयंता भुजो वि मंदा पकरेह पावं ॥ ३९ करता तमे मंदो प्राण भूतोनी हिंसा करो छो अने तेथी वारंवार पाप करो छो. (३९) तवो जोइ जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीर कारिसँग । खरो होम तो आ छ:-तप ए अमि छे, जीव ए अमिनुं स्थान छे, कम्म एहा संजमजोग संती होम हुणामि इसीणं पसत्यं" ॥ ४४ प्रवृत्तिओ ए वाढी छ, शरीर ए छाणां छे, पुण्य पाप ए लाकडां छे -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-१२ | भने संयम ए शान्ति छ. ऋषिओए आवा होमने वखाणेलो छे. (४४) Jain Education international Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आ ज जातना यज्ञर्नु खरूप जिनप्रवचनमां ठेकठेकाणे बतावेलुं छे. भगवान महावीरे ते वखतना समाजमां यज्ञविषेनी आ जातनी मान्यतानो प्रचार करीने हिंसात्मक यज्ञनो छडेचोक विरोध करेलो अने तेने अटकावेलो. भगवानना वखतमा अने आजे पण मात्र जळस्नानमा घणा लोको धर्म समजे छे. गंगास्नान, त्रिवेणीस्नान, प्रयागस्नानना माहाम्यने लगता ग्रंथोनी परम्परा आपणा देशमा आज केटलाक वखतथी चाली आवे छे. अने भोळा लोको गंगामां स्नान करीने पोताने पुण्य मळ्यानुं माने छे. आ जातना स्नानना माहात्म्यनी असरथी अत्यारना जैनो पण शेजी नदीना स्नानने धर्म मानवा लाग्या छे. भगवान कहे छे के ए स्नान तो मात्र शरीरना मळने ते पण घडीभरने माटे ज दूर करे छे पण आत्माना मळने जरापण दूर नथी करी शकतुं तेथी ते स्नान खरा पुण्यनुं कारण नथी. पण खरं स्नान करवू होय तो धर्मरूप जलाशयमां आवेला ब्रह्मरूप पवित्र घाटे स्नान करे तो खरेखरो शीत, विमळ अने विशुद्ध थाय छे. तथा आत्ममळनो त्याग करे छे. आ ज स्नानने कुशळ पुरुषोए महास्नान तरीके वर्णवेलुं छे अने ऋषिओने तो ते ज प्रशस्त छे.' भगवाने स्नाननी आ जातनी व्याख्या करीने विवेकपूर्वकना बाह्य स्नाननो निषेध कर्यों छे एम मानवानुं कारण नथी. पण जे लोको मात्र जलस्नानमा ज धर्म मानता अने तेथी ज आत्मशुद्धि समजता तेओने माटे भगवाने जीवनशुद्धि माटे खरा स्नाननं खरूप बतावीने स्नाननो खरो मार्ग खुल्लो कयों छे. तेमना वखतमा लोको पुण्यकर्म समजीने वेदने मात्र कंठस्थ करी राखता अने अर्थनो विचार'भाग्ये ज करता. वेदना अर्थनी परम्परा भगवानना पहेलांना समयथी तूटी गयेली होवानो पुरावो यास्काचार्य पोते ज छे, कारण के ते वैदिक शब्दोना स्पष्ट अर्थ करी शकता नथी पण तेने लगता अनेक मतमतांतरो साथे पोतानो अमुक मत जणावे छे एटले घणा वखतथी वेदना अर्थनो विचार करवो लोकोए मांडी वाळेलो अने वेद जूनो ग्रंथ होई तेने कंठस्थ करवामां अने खरपूर्वक उच्चारण करवामां ज पुण्य मनातुं अने ब्राह्मणो एम मानता के वेदने भणीने, ब्राह्मणोने जमाडीने अने पुत्र उत्पन्न करीने पछी आरण्यक तपस्वी थवाय. पण आ जातर्नु जड कर्मकांड जीवनशुद्धिनुं एकांत घातक छे एम समजीने उत्तराध्ययनसूत्रमा कहेवामां आव्युं छे के वेदोनुं अध्ययन आत्मानुं रक्षण करी शकतुं नथी. जमाडेला ब्राह्मणो आळसु थवाथी जमाडनारने लाभ देवाने बदले ऊलटा नरकमां पाडे छे अने अपुत्रस्य गतिर्नास्ति एवो जे वैदिक प्रवाद छे ते पण बराबर नथी. कारण के उत्पन्न करेला पुत्रो पण पिताना के पोताना आत्मानुं रक्षण करी शकता नथी. आ रीते जिनप्रवचनमा वेदना शुष्क अध्ययननो विरोध करवामां आव्यो छे अने ज्ञान अने आचार उपर एक सरखो भार मूकवामां आव्यो छे. १ "उद्गेण जे सिद्धिमुदाहरति सायं च पायं उदगं फुसंता। । १ सांजे अने सवारे पाणीनो स्पर्श करता जे लोको पाणी वडे सिद्धि उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिझिसु पाणा बहवे दगंसि ॥ १४ | माने छे तेमने मते तो पाणीना स्पर्शवडे पाणीमा रहेनारा जीव मात्रनी सिद्धि थवी जोईए ज. (१४) मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य मग्गू य उद्या दगरक्खसा य। जेवां के, माछला, काचवा, सर्पो, उंटो (आ एक प्रकारचें जळचर प्राणी अट्ठाणमेयं कुसला वयंति उदगेण जे सिद्धिमुदाहरैति" ॥ १५ छे) अने जळराक्षसो-आ बधा प्राणीओ निरंतर जीवनपर्यंत -सूत्रकृतांग प्रथमश्रुतस्कंध अध्ययन-७ पाणीमा रहे छे तो एमर्नु निर्वाण थर्बु जोइए. पण एम थतुं नथी माटे जे लोको मात्र जलनानथी सिद्धि थवानुं कहे छे ते खोटुं छ एम कुशळ पुरुषो कहे छे. (१५) २ "धम्मे हरए बंभे संतितित्थे अणाविले अत्तपसन्नलेसे । | २ खरं स्नान तो आ छैः धर्मरूप पाणीनो धरो. होय, ब्रह्मचर्यरूप घाट जहिं सिणाओ विमलो विसुद्धो सुसीइभूओ पजहामि दोसं ॥ ४६ । होय, जो ए पवित्र, अने निर्मळ घाटे धर्मना धरामा स्नान करवामां एवं सिणाणं कुसलेण दिटुं महासिणाणं इसीणं पसत्थं । आवे तो स्नान करनारो विमळ, विशुद्ध अने शान्त थाय छे अने जहिं सिणाया विमला विसुद्धा महरिसी उत्तमं ठाणं पत्ते"त्ति बेमि ४७ दूषणोने छोडी दे छे. आ मानने ज ऋषिओए महास्नान कहेलुं छे. -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-१२ कारणके ए रीते नहावाथी विशुद्ध थएला महर्पिओ उत्तम स्थानने पामेला छे, (४६-४७) ३ "इमं वयं वेअविओ वयंति ३ वेदना जाणनाराओ आम कहे छे:-वेदोने भणीने, ब्राह्मणोने जमाटीने, अहिज वेए परिविस्स विप्पे पुत्ते परिटुप्प गिहंसि जाया!। छोकराओने वारसो सोंपीने अने संसारना भोगो भोगवीने पछी भुचाण भोए सह इत्थियाहिं आरण्णगा होइ मुणी पसत्था" ॥९| मुनि थर्बु ठीक छे. ९ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-१४ ४ "वेआ अहीमा न भवति ताणं"-उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-१४ । ४ पाठे करेला वेदो रक्षण करी शकता नथी. १४ ५ इमं वयं वेभविओ वयंति-"जहा न होइ असुआण लोगो। । ५ आगळ जे एम कहेवामां आव्युं छे के पुत्ररहित मनुष्योने सद्गति भुत्ता दिना निति तमं तमेण जाया य पुत्ता न हवंति ताणं मळती नधी ते वरावर नथी. कारण के थएला पुत्रो पण रक्षण करी -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन-१४ शकता नथी अने जमाडवामा आवता ब्राह्मणो अंधारामां लई जाय छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ भगवाननां जमानामां वैदिक के डीफिक संस्कृतने ज महल अपातुं ते एटलं बधुं के एज भाषा बोलवामां पुण्य छे बने बीजी भाषा बोलवामां पाप छे. आ हकीकतनो प्रतिध्वनि महाभाष्यनो आरंभमां आजे पण जोवामां आवे छे. तेमां संस्कृत सिवायनी बाकी माषाओने अपभ्रष्ट तरीके गणावी छे अने तेनो प्रयोग करनाराओने दोषी ठराययामां आव्या छे अने आ रीते ते वखतना केटलाक लोको शब्दने ब्रह्म समजी तेनी ज पूजा पाछळ पडेला. आ संबंधमां भगवाने पोतानां सर्व प्रवचनो ते वखतनी लोकभाषामा करीने एख जामेलो भाषानो छोटो महिमा सोडी नांखेलो के अने एक मात्र सदाचार ज आत्मशुद्धिनुं कारण छे पण मात्र भाषायी पी एम बतावी आप्णुं छे. श्रीउत्तराध्ययनमां कहेयामां आव्युं छे के जुदीतुदी भाषाओ आत्मानुं रक्षण करी शकती नैथी. भगवान बुद्धे पण भाषानी खोटी पूजानो प्रवाद भगवान महावीरनी पद्धतिए ज अटकाववानो प्रयास कर्यो छे. सूर्यग्रहण के चंद्रग्रहण किये जे मान्यता असारे चाले छे तेवी ज मान्यता भगवानना जमानामां पण चालती राइ सूर्यने गळी गयो अने ग्रहण पूरुं थाय त्यारे राहुए सूर्य के चंद्रने छोडी दीधो एम राहुने सूर्य अने चंद्र साथै वैरभाव जाणे के न होय ते लोको समजता अने एवं रूपकात्मक वर्णन हजुसुधी वैदिक परम्परामां पौराणिक ग्रंथोमां टकी रह्युं छे. आ ग्रहण वखते धर्म मानीने म लोको स्नान माटे अत्यारे दोडधाम करे छे तेम ते वखते पण करता हशे एम मानतुं खोटं न कहेवाय. कहेबानी मतलब एछे के ग्रहणना प्रसंगने धार्मिक प्रक्रियानुं रूप आपीने लोको जेम अत्यारे धमाधम मचावे छे तेम ते वखते पण मचावता हशे . तेमनी सामे भगंवाने कह्युं छे के राहु चंद्र के सूर्यने गळतो नथी तेम ते बे बच्चे कोई जातनो वैरभाव पण नथी. ए तो गगनमंडळमां राहु एक गतिमान पदार्थ छे तेम चंद्र अने सूर्य पण गतिमान पदार्थ छे. ज्यारे गतिवाळा तेओ एक बीजानी आडे आवी जाय छे त्यारे अंशथी के पूर्णपणे एकबीजाने ढांकी दे छे अने पछी छूटा पण पडी जाय छे एटले कोई एक वीजाथी गळातो नथी. ज्यारे एक बीजाने ढांक छे त्यारे लोको तेने प्रहृण थयुं कहे छे एटले ए ग्रहण कोई धर्ममय उत्सव नथी तेथी ए माटेनी दोडधाम पण धर्ममय नथी, ज ए उघाडुं छे. (भा० ३ पा० २७९ ) आ रीते ग्रहण निमित्ते चाटती जडक्रियानो ग्रहणनुं स्पष्ट स्वरूप आपने भगवाने आ स्थळे स्पष्ट खुटासो कर्यो छे. अने बधारामां शशी अने आदित्यना स्पष्ट अर्थो पण जणाव्या छे. शशी शब्दनो पौराणिक अर्थ शश- ससला-वाळो एवो थाय छे अने आदिक्ष्यनो अर्थ अदितिनो छोकरो एवो थाय छे. भगवाने आ पौराणिक परम्परा सामे जाणे के टकोर करवा खातर ज शशी अने आदित्यना तद्दन जुदा अर्थो बतावेला छे. भगवान शशिनो सश्री - श्री सहित - शोभा सहित एवो अर्थ करे छे अर्थात् जे तेजवाळो, कांतिवाळो अने दीप्तिवाळो छे शशी - सश्री. तेने जिनप्रवचनमां ससी - सश्री कहेवामां आवे छे. अने आदित्य एटले भगवानना कहेवा प्रमाणे जेने मुख्यभूत-आदिभूत करीने काळनी गणतरी चाय ते आदिल, काळनी गणतरीमां सूर्यनुं स्थान सर्वधी प्रथम छे माटे भगवाने कहेडो आ अर्थ व्याजची छे अने व्युत्पत्तिनी दृष्टिए पण बराबर छे. भगवाने आदित्यनो जे उपर्युक्त अर्थ बताव्यो छे ते मैत्स्यपुराणमां पण उपलब्ध छे. तेना नवा अर्को योग्या छे. अने तेम करीने से वे प्रत्येनी लोकोनी आ प्रमाणे शशी अने आदित्यना पौराणिक अर्थों खसेडीने गैरसमज ओछी करया प्रयास करेलो ले. १ २ ३. “भूयांसोऽपशब्दा अल्पीयांसः शब्दाः । एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः तद्यथा - गौरित्यस्य शब्दस्य गावी -गोणीमोठा गोपोनिका इत्येवमादयोऽपभ्रंशाः । यस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले । सोऽनन्तमाप्रोति जर्म पर शम्योगविद् दुष्यति अपशब्दः ॥ (महाभाष्या प्रथम सूत्र प्रारंभ ) "न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं ? | विसण्णा पावकम्मेहिं बाला पंडिअमाणिणो ॥ " उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन- ६ "आदिवाविभूतत्वाद"मरस्यपुराण अ० २ को० ३१. १ २ अपशब्दो घणा छे अने शब्दो ओछा छे. एक शब्दनां भ्रष्टरूपो घणां थाम के एक गो शब्दमा जनानी, गोणी येता, नोपोतलिका वगेरे घणां भ्रष्टरूपो थाय छे. " जे कुशळ माणस वहेवारने वखते यथावत शब्दोनो प्रयोग करे हे ते वायोगविद अनंत जयने पाने के भने अ नारो दोषवाळो थाय छे ( भाष्यकार पतंजलिना वखतम सामान्य लोको जे शब्दो बोलता तेने अहीं अपशब्दो कहेवामा आग्या छे अने आम कहीने तेमनो आशय ते वखतनी प्रचलित कभाषानी अवज्ञा करवानो अनेकवादी स्थान आपवानो नथी ? ) चित्रविचित्र भाषा कोइनुं रक्षण करी शकती नथी तेम शुष्क शास्त्राभ्यास पण पोताने पंडित मानता अज्ञानीओ पाप करवामां खुंची रहे छे. / Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ "हतो वा प्राप्स्यसि खर्गम्" ( गीता अ० २ सो० ३७) ए गीताना वाक्यमा एम कहेवामां आव्युं छे के शत्रुने हणीने तुं स्वर्गे जईश, एथी गीताना जमानाथी के गीताना समय पहेलेयी लोकोमां एवी मान्यता प्रसरी गयेली के लडनारा लोको स्वर्गे जाय छे. आ मान्यताने ली मोटी मोटी लडाईओमां लडनारा घणा मळी आवता अने आ रीते मनुष्यजातनो कच्चर घाण नीकळतो. ए अटकाववा भगवाने ए मान्यता उपर स्पष्ट प्रकाश नास्यो छे अनेक छे के लोको युद्धयी सर्ग मळयानी बात कहे छे ते खोटी छे. पण खरी बात तो एछे के लडनारा खर्गे ज जाय छे एम नथी पण ते पोतपोतानां शुद्धाशुद्ध कर्म प्रमाणे भिन्न भिन्न योनिओमां जन्म धारण करे छे. ( भा० ३ पा० ३२ ) आ हकीकत कहीने भगवाने युद्ध खर्गनुं साधन छे एवी जातनी सोकोमा फैलायेली धारणा खोटी पाडी अने लोकोने युद्धना हिंसामय मार्गथी दूर रहेवानी खास भलामण करी. बळी, ते वसतनी दिशापूजनमी प्रधाने छोकोगांची दूर करवा अने तेनुं खरं स्वरूप बतायया भगवाने आ सूत्रमां दिशानी पण चर्चा करी छे. दशमा शतकना पहेला उदेशकनी शुरूआत दिशाना विवेचनची करवामां आवी छे. भगवाने गौतमने क ले के दिशाओ दश कहेवामां आयी छे जेना समधी नाम ऐन्द्री (इन्द्रना सावळी), आग्नेयी (अग्निना खामिवाळी), याम्या यमनाखामिवबाळी), निश्रुति (निर्ऋति नामना देवना खामिवाळी), वारुणी ( वरुण देवना खामिवाळी) वायव्य (वायुना खामित्यवाली) सौम्या ( सोमना स्वामित्ववाळी ) ऐशानी ( ईशानना स्वामित्ववाळी), विमला अने तमा. आ दश दिशाओने माटे पुराणप्रसिद्ध उपर्युक्त नामो जणावा उपरांत नीचेना प्रसिद्ध शब्दो पण मूकवामां आवे छे. पूर्व, पूर्वदक्षिण, दक्षिण, दक्षिणपश्चिम, पश्चिम, पश्चिमोत्तर, उत्तर, उत्तरपूर्व, ऊर्ध्व ( उपरनी), अधो ( नीचेनी) आ बधी दिशाओ जीवाजीवना आधाररूप छे तेथी उपचारथी ए दिशाओने जीव अजीवरूप कामां आयी छे. दिशाने एक द्रव्य तरीके गणायपानी पद्धति वैदिक परंपरानी वैशेषिकं शालामा प्रसिद्ध छे. वैदिककाळमां दिशाओनी पूजा करवानो प्रघात हतो ए हकीकत से साहित्य उपरथी जानी शकाय छे अने दिशाओनुं प्रोषण करीने जमानी पद्धति एक जत तरीके अगुक परंपरामा चालु हती अने ते परंपराने मानता लोको दिसापोक्खिनो कहेयाला ए हकीकत जैन आगमोमां पण मळे छे. आ रीते वेदनी जूनी परंपरामां दिशाओनुं महत्त्व विशेष प्रसिद्धि पामेलुं हतुं अने दिशाओनी पूजानो प्रचार पण लोकोमां ठीकठीक हतो. आ जड प्रचारने रोकवा माटे ज भगवाने दिशाना माहात्म्यनी निष्प्रयोजनता बताववा तेने आ सूत्रमां जीवाजीवात्मक कहीने वर्णली. दिशाओ मात्र आकाशरूप होई जीवाजीवरूप समस्त पदार्थना आधाररूप छे ए बात खरी के पण एटा मात्रची तेगी जयपूजा करना मंडी पटवुं ते आध्यात्मिक शुद्धि के जीवनशुद्धि माटे जराय उपयोगी नभी. भगवान बुद्धे पण दिशाओनी जडपूजाने अटकाववा पोताना प्रवचनमां वीजी ज रीते टकोर करी छे. दीधनिकोयना त्रीजा वर्गना सिगालोमादत्तमां उसे छे के एक वखत बुद्ध भगवान राजगृहना वेणुवनमा रहेता हता ते बसते सिगाल नामनो एक युवक शहेरमांथी रोज सवारे बहार आवी स्नान करी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उपर अने नीचे ए छए दिशाने नमस्कार करतो हतो. राजगृहमां मिक्षा गाटे जता बुद्ध तेने जोईने बोल्या "गृहपतिपुत्र । तें आ शुं मांड छे" सिगाल बोल्यो- "हे भदंत गारा पिताए मरती वखते छ दिशानी पूजा करता रहेवानुं मने कह्युं होवाथी हुं आ दिशाओने नमस्कार करुं हुं" भ० बुद्ध बोल्या - "हे सिगाल ! तारो आ नमस्कारविधि आर्योनी पद्धति प्रमाणे नथी." त्यारे सिगाले आर्योंनी रीति प्रमाणे छ दिशाओनो नमस्कारविधि बताववा बुद्धने विनंती करी. म० बुद्ध बोल्या "जे आर्यश्रावकने छ दिशानी पूजा करवानी होय तेणे चार कर्मप्रेशणी मुक्त यतुं जोइए. चार कारणोने ने पापकर्म करवां न घटे अने संपत्तिनाशनां छद्वारोनो रोगे अंगीकार करवो न घटे आ चौद वातो सांभळे तो छ दिशानी पूजा करवाने ते योग्य बने छे”. आ उपरांत बुद्धे तेने एम कह्युं के भाई ! माबाप ए पूर्वदिशा छे, गुरुने दक्षिण दिशा समजवी, पत्नीपुत्र पश्चिमदिशा, सगांबहालां उत्तरदिशा, दास अने मजूर नीचेनी दिशा तथा श्रमणत्राह्मण उपरनी दिशा समजवी. आटलं कथा पछी तेने ए दिशाभनी पूजानी पद्धति बुद्ध भगवाने विस्तारथी समजावी छे. आ उपरथी एम मालम पडे छे के भगवान बुद्धना वखतमां दिशाओनी जडपूजानो प्रचार खूब थयेलो होवो जोईए, जेने अटकाववा श्रीबुद्धे नया प्रकारे दिशानी पूजानी पद्धति लोकोने समजावी अने भगवान महावीरे पूर्वोक्त प्रमाणे दिशा ओने जीवाजीवात्मक १ २ ३ "पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिग् आत्मा मन इति द्रव्याणि ' (वैशेषिकदर्शन प्रथम अध्याय ) "उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फल - पुष्पादि समुच्चिन्वन्ति” औपपातिक सूत्र पृ० ९० जूओ दीघनिकाय-उपर्युक्तसूत्र. १ पृथ्वी, पाणी, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा अने मन एटलां द्रव्यो छे. २ जे लोको पाणीधी दिशाओने अर्ध्य आपीने फळ, फुलने ग्रहण करे तेषी दिशाशी काय. / Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ कहीने ते जडपूजामांथी लोकोने बचावी लेवा प्रयत्न कर्यो, ए एकसरखी हकीकत आ सूत्रमां आवेला दिशाना प्रकरण उपरथी स्पष्ट रीते समजी शकाय एवी छे. दिशा विषे भगवाननुं प्रवचन ते वखतनी दिकूपूजननी रूहिने नाबूद करनाएं छे. आ प्रकारे भगवाने पोताना समयनी कुरूढिओने नाबूद करवा अने तेने स्थाने सुमार्ग प्रवर्ताववा पोताना प्रवचनमां घणो प्रयास करेलो छे. आ जातनां उदाहरणो घणां आपी शकाय पण उपरनो उदाहरणो नमुनारूपे मात्र टांकलां छे. भगवान महावीरे अने भगवान बुद्धे कुरूढिने दूर करीने लोकोने सुरूढि पर लाववा पोताना प्रवचनोमां पूर्वोक्त केटलीक हकीकतो बतावेली छे. आधी ज आ बने महापुरुषो ते बखतना प्रबळ सुधारको हता एम जे अमारना शोधको माने छे से सरेस छे. आर्योंए बतावेळा अहिंसा अने सत्यमय मार्गमां जे केटलोक कचरो भराई गयेलो तेने दूर करवा आ बन्ने महापुरुषोए घणो प्रयत्न. सेव्यो छे एमां शक नयी. केटलीये एवी वैदिक मान्यताओ हती जेनाथी लोकोमां हिंसा, असत्य, जडता वगेरे दुर्गुणोनो वधारो थतो अने एथी ते वखतनी प्रजा श्रासी पण गयेली, ए प्रजाने सन्मार्ग बताया भगवान बुद्ध अने भगवान महावीर कल्याणमित्ररूपे न आल्या होत तो अत्यारे आपणी केवी दुर्दशा होत ते कोण कही शके जैनशास्त्री उपर वैदिक परंपरानी असर वैदिक परंपराओमा केटा सुधारा करनारा जिनप्रवचनमां पण केलीये एवी मान्यताओ मछे छे जे वैदिक परंपरानी असरने आभारी होय. आ हकीकत समजवा माटे आ सूत्रमांथी ज आपणे केलांक उदाहरणो नीचे प्रमाणे जोई शकीशु. देवदानवनुं युद्ध वेदनी परंपरामां प्रसिद्ध छे. ते युद्धने निरुक्तमां विजळीना कडाका तथा मेघनी गाजवीजना रूपक तरीके वर्णबेल छे. आ सूत्रमां इंद्रभूति गौतम भगवान महावीरने छे छे के देव अने असुरनो संग्राम के आनो उत्तर भगवान हकारमां आपे छे. आ पछीना सूत्रोमा देवनां शत्रो भने असुरनां शस्त्रोनी हकीकत भगवाने इंद्रभूतिने समजावेली छे. (भा० ४ पा० ६८) देवअसुरना संग्रामने लगता बधा प्रश्नो वैदिक परंपरामां प्रसिद्ध एवी देवदानवनी प्रख्यात उदाईने सक्षम राखीने करवामां आम्या दोष एम मालुम पढे के एट ज नहीं पण देवदानवना युद्धनी ए पौराणिक कथामा वधारे मेाळी हकीकत आवे ते माठे तेमना युद्धनां कारणो सायेनी एक कथा पण आ सूत्रमां मूकवामां आवेली छे. श्रीजा शतफना भीजा उदेशफम आ संबंधमां एम कद्देवानां आयुं छे के देवो अने असुरोने जम्मधी ज बैरनो स्वभाव छे. अने ते बे बच्चे संपत्ति अने स्त्रीओ माटे युद्ध थाय छे. वैदिक कथानी हकीकत करतां देवासुरना युद्धने लगती आ हकीकत 'देवो अने असुरो पण लोभी अने विषयी होई परस्पर लडे छे' ए वस्तु समजावे छे अने लोकोने लोभ अने विषयना निर्वेद तरफ लई जई स्वर्ग पण वांछनीय नथी ए वात सूचवे छे अने आ जैनकथामां ए ज मुद्दो मेळवाळो छे. अहीं एक वस्तु ख्यालमा राखवानी छे के ज्यारे वैदिक परंपरामां देव अने दानवना स्पष्ट विभाग छे त्यारे जैनपरंपरामा असुरोने पण देव तरीके गणावेला छे. भगवान महावीरे श्रीजा शतकना आ ज उद्देशामां पोतानी हयातीमां देवेंद्र देवराज शक अने असुरेंद्र असुरराज चमरनुं युद्ध एम इन्द्रभूति गौतमने विस्तार सहित जगावे छे अने ते लडाईमां भगवानना ज आशराथी असुरेंद्र चमरनुं रक्षण पधुं धतुं एम पण सूचवे छे. आ उढाई जंबूद्दीपना भारतवर्षना सुंधुमार नगरमा ज्यारे भगवान दीक्षा सीधा पछी अगियारमे वर्षे तप सपता हता ते वसते पई इसी असुरेंद्र अने देवेन्द्र बनेने भगवानमा भक्त तरीके आ कथामा जणावेला छे. आ सूत्रमां आवेली आ कथानो उल्लेख सिद्धसेन दिवाकर पोतानी बत्रीशीओमांनी महावीरस्तुतिना त्रीजा श्लोकमां कवित्वने छाजे एवी सरस रीते करे छे. जेम राम अने पांडवोनी कथा जैनपरंपरामां जैनदृष्टिए सारो घाट आपीने वर्णवायेली छे तेम देवअसुरनी आ कथा सारो घाट आपीने वर्णवाई होय अने ते द्वारा विषयनिर्वेद फेलाववानो आध्यात्मिक हेतु जैनाचार्योंए साध्यो होय तो ते तेमना ध्येयने बराबर अनुकूळ थयुं होय एवं लागे छे. आव ज बीजी हकीकत लोकपाळोने लगती छे. त्रीजा शतकना सातमा उद्देशकमां कहेवामां आव्युं छे के देवेन्द्र देवराज शक्रना चार लोकपाळ छे. सोम, यम, वरुण अने वैभ्रमण आ चारे ढोकपाव्ये शत्रुनी आज्ञामां रहे छे. १ निरुकना उल्लेख माटे जूओ प्रस्तुतग्रंथ भाग २ पृ० ४८-४९ टिप्पण २. २ देवाथ जैन समभवति व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकमेदातु भवन्ति ॥३॥ २ ३ अभिधानचिन्तामणि देवकाण्ड श्लोक ३ भोक माटे जुओ प्रस्तुत ग्रंथ भाग २ पृ. ६१ टिप्पण १ जैन सिद्धान्तमां देवोना चार प्रकार छे जेमके:-भवनपति, व्यन्तर, वै. / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जगतमा उल्कापात, दिग्दाह, धूळनो वरसाद, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, इन्द्रधनुष्य, मोटा मोटा दाहो, ग्रामदाह, नगरदाह, प्राणीक्षय, जनक्षय, धनक्षय, कुलक्षय, संध्या, गांधर्वनगर आ अने आवा बीजा बधा उत्पातो सोमनी देखरेख नीचे जगतमा आवे छे. सोमने आधीन विद्युत्कुमार, विद्युत्कुमारी; अग्निकुमार, अग्निकुमारी; वायुकुमार, वायुकुमारी; चंद्र, सूर्य, प्रह, नक्षत्र अने तारा ए बधां छे. शक्रने बीजो लोकपाळ यम छे. जगतमा कलह, महासंग्राम, मारफाड, रोगचाळा, शारीरिक दुःखो, पळगाड, एकांतरीयो, बेआंतरीयो, त्रणांतरीयो, चोथीयो, खांसी, श्वास, पांडुरोग, हरस, शूळ, मरकी आ बधा उपद्रवो यमनी सत्ता नीचे थाय छे. अंब, अंबरीष, महाकाळ, असिपत्र, कुंभ, वाल, वैतरणी ए बा यमना आश्रितो छे. वरुण त्रीजो लोकपाळ छे. अतिवृष्टि, मंदवृष्टि, सुवृष्टि, दुर्दृष्टि पाणीना उपद्रवो, जलप्रलय अने पाणीनी रेलो ए बधुं आ वरुणनी सत्तामा छे. लोढानी, कलाईनी, तांबानी, सीसानी, सोनानी, रुपानी, रत्ननी अने हीराओनी खाणो तथा रन, सुवर्ण वगेरेनी वृष्टिओ, सुकाळ, दुष्काळ, सोंघाई, मोंघाई आ बधुं शक्रना चोथा लोकपाळ वैश्रमणनी सत्तामां छे. ___ सुवर्णकुमारो, सुवर्णकुमारीओ, द्विपकुमारो, द्विपकुमारीओ, दिक्कुमारो, दिक्कुमारीओ, वानव्यंतरो, वानव्यंतरीओ ए बर्धा वैश्रमणना आशरामा रहे छे. __ आ बधु जोतां एम मालुम पडे छे के जाणे के जगतमां चालतुं आ बधुं तंत्र आ लोकपालोने आभारी न होय ? पण आत्मबळने प्रधान माननारा अने ते उपर ज प्रवर्तनारा तीर्थकरना शासनमा आ लोकपालोनी सत्ताथी थती ए व्यवस्था घटाववी शी रीते ! जे कोई दृश्य अने अदृश्य बनावो बने छे ते बघा आत्माए संचित करेला कर्मना परिणामरूप छे एम जिनदेव कहे छे तो आपणे रोगचाळा के दुष्काळनां कारणो आपणां कर्ममा शोधवां के लोकपालमा ! कदाच लोकपालोने निमित्त कारण कल्पीने उपर्युक्त व्यवस्था घटाववानो विचार यई आवे पण हरस, खांसी, शूळ वगेरेना अधिष्ठायक निमित्तो शरीरनी रक्षानुं अज्ञान अने कुपथ्यादिकने कल्पवां के लोकपालोने ! ___वळी, कार्यमात्रने थवानां पांच कारणो जैन परंपरा बतावे छे. जेमके:-काळ, खभाव, नियति, पूर्वकृत अने पुरुष. जगतनी बधी व्यवस्था आ कारणोनी व्यवस्थाने आधीन छे. एमां रोगो फेलावनारा, सुकाळ करनारा लोकपालोनुं स्थान क्या छे ते समजबुं मुश्केली भयु छे. जैनपरंपरामां संतसमागम अने तेनी अवेजीमां वीतरागर्नु ध्यान, स्मरण वा पूजन आदर्शने पहोंचवा सारु साधको माटे उचित मनायां छे पण रोगादिक टालवा वा धनलाभादिकं सुख मेळववा सोम, यम, वरुण के वैश्रमण वा इंद्रादिकनुं ध्यान, स्मरण, पूजन के प्रार्थना सम्यग्दृष्टि साधकने सारु तो सर्वथा निषिद्ध छे. ए तो दुःखना के सुखना जे जे प्रसंगो आवे तेने पोताना ज संस्कारोनुं परिणाम जाणी समपणे अनुभवे छे त्यारे वैदिक परंपरामां तो सोम, यम, वरुण, वैश्रमण के इंद्र वगेरेने लाभ वा हानिकर्ता ठराववामां आव्या छे अने लाभ मेळववा वा हानि टाळवा ते ते सोमादिकनी पूजा प्रार्थनानां पुरातन विधानो करवामां आव्यां छे जे आज पण प्रचलित छे तेथी आ सूत्रमा चर्चायेली आ लोकपालनी हकीकत पौराणिक पद्धतिने आभारी छे एम मानवामा करुं अनुचित नथी. वरसाद माटे इन्द्रनी पूजा घणा जूना काळथी वेदोमां प्रसिद्ध छे एटले के वैदिक जमानामां लोको एम मानता के वरसाद मोकलवो ए इन्द्रनी सत्तानी वात छे, तेथी ज तेओ वरसादने माटे इन्द्रने तुष्ट करवा यज्ञ करता. आ वहेम श्रीकृष्णे गोवर्धनपूजानी प्रथा पाडीने दूर करवा प्रयत्न करेलो ए जाणीतुं ज छे अने जैन परंपरामा वरसाद वगेरे कारणो माटे इन्द्रादिकने तुष्ट करवाना प्रयत्नो कदी करवामां आव्या नथी, कारण के भगवान महावीर खुद इन्द्रयज्ञ वगेरे यज्ञोना विरोधी हता एमां कशो शक नथी. ए परावलंबन टाळवा ज एमणे पुरुषार्थवाद अने कर्मवादनो सिद्धांत ते वखतना समाज समक्ष मूकेलो, आम छतांय वरसाद मोकलनार इन्द्रने लगती ए जूनी परंपरा आ सूत्रमा सचवायेली छे. चौदमा शतकना बीजा उद्देशकमा इन्द्रभूति गौतम भगवानने पूछे छे के देवेन्द्र देवराज शक ज्यारे वृष्टि करवानी इच्छावाळो होय छे त्यारे ते केवी रीते वृष्टि करे छे ? तेना उत्तरमा भगवान गौतमने कहे छे के ज्यारे तेने वरसाद वरसाववानी इच्छा थाय छे त्यारे ते पोतानी आंतरसभाना देवोने बोलावे छे, आंतरसभाना देवो मध्यसभाना देवोने बोला छे, मध्यसभाना देवो बहारनी सभाना देवोने १ वर्तमानमां जैनमंदिरोनी प्रतिष्ठा करवानी विधिमां के शांतिनावमां शांतिकर्म माटे देवोने आमंत्रवामां आवे छे अने तेओने संतुष्ट करव विविध प्रकारना नैवेद्यो पण धरवामां आवे छे. Jain Education international Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છ बोलावे छे अने ते बहारनी सभाना देवो इन्द्रना कहेवाथी वरसाद वरसावे छे. आ प्रकारनी वृष्टि साथै इन्द्रना संबंधनी हकीकत जे जैन प्रवचनमां आवेली छे ते वेदनी पुराणी इन्द्रकानी प्रसिद्धिनुं ज परिणाम छे हवे ए वस्तु सिद्ध पई गई छे के वरसाद केम आवे छे अने सेना कया कयां कारणो से तथा तेनी साधे इन्द्रनो केटलो संबंध के अने ए इन्द्र कोण छे ! ९ मा शतकमा ३ जा उदेशकमा एकोरुक- एक सामान्य एकटंगिया मनुष्योना द्वीपनी हकीकत आवे छे. ए द्वीप जंबूद्रीपम आवेला मंदर पर्यंतनी दक्षिणे चुछहिमवंत पचतना पूर्व छेडाची ईशान कोणमां त्रणसो योजन उपण समुद्रमां गया पछी आवे छे. से द्वीपनी संबाई पहोलाई ३०० योजन छे अने घेरावो ९४९ योजन करतां कांईक न्यून छे. आ प्रमाणे बीजा अनेक द्वीपो विषे पण तेमां जणावेलुं छे. ए शतकना पहेला उद्देशकमां लखेलुं छे के जंबूद्वीपमां पूर्व पश्चिम बची मळीने १४५६००० नदीओ छे. द्वीपो अने समुद्रो आ विश्वमां असंख्य छे एम भगवाने कयुं छे. ज्यारे इन्द्रभूतिए द्वीपो अने समुद्रोनां नाम विषे भगवानने पूछयुं ब्यारे तेमणे जणान्युं के लोकमां जेटलां सारां रूपो, सारा रसो, सारा गंधो अने सारा स्पर्शो छे ए बधां द्वीपनां अने समुदनां नाम समजवां, जेमके क्षीरसमुद्र, इक्षुसमुद्र, घृतसमुद्र वगेरे. ( भा० २ पा० ३३४ ) - आ उपरांत चंद्र, सूर्य अने साराओनी संख्या अने तेनां रहेनाराओनी रहेणीकरणी ए विये पण ९ मा शतकना बीजा उद्देशकम हकीकत आवे छे. ताराओ कि खतां तेमणे कां छे के एक लाख तेत्रीस हजार नवसो पचास कोटाकोटी तारानो समूह विश्वने शोभावी रह्यो छे. आ सूत्रमां आवेली आ वधी हकीकतो भूगोल-सगोळने लगती प्राचीन आर्य परंपरानी असरने आभारी होय एवं लागे छे. कारण के भूगोल ने गोल विषे आने मळती मान्यता, वैदिक-महाभारत, पुराण वगेरे के अवैदिक वधी परंपराओमां फैलायेली हती. अत्यारनुं भूगोळ ने खगोळनुं विज्ञान ए संबंधमां जे प्रकाश पाडे छे ते खास ध्यानमां लेवा जेवो छे. ईश्वरने सृष्टिकर्तीने स्थाने समजनारी बधी परंपराओमां जगतनी उत्पत्तिनी पेठे जगतना प्रपनी पण सास कल्पना चाली आवे छे. प्रलयकाळने माननारी परंपराओ एम जणावे छे के ते वखते बधा परमाणु अने जीवो सिवाय कशुं रहेवानुं नथी. ज्यारे सृष्टिनी नवी शरुआत थाय छे त्यारे ए बची रहेलां परमाणुओ अने जीवोनो उपयोग करी ईश्वर नवी सृष्टि बनावे छे. जैन परंपरामां आ संबंधे एवं मानवामां आवे छे के प्रलयकाळ जेवा आरामो प्रख्यना भयंकर वायु वाशे, दिशाओ धूममप पशे, सूर्य उम्रपणे तपशे, चंद्र अतिशय असह्य शीतता आपशे, खराब रसवाळां, अग्निनी पेठे दाहक पाणीवाळा, झेरी पाणीवाळा, रोगजनक पाणीवाळा, मुशळधार वरसाद वरसशे एधी कंरीने भारतवर्षमा ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्यट, मडंब, द्रोणमुख, पहन अने आश्रममा रहेला मनुष्यो, चोपगा प्राणीओगायो, पेट वगेरे, आवाशर्मा उडतां पक्षीओ तेमज गाम अने अरण्यमां चालता त्रस जीयो तथा अनेक प्रकारनां वृक्षो, गुच्छाओ, उताओ, वेलाओ, घास, शेरडीओ, घरो, अनाजमात्र, अंकुरो तथा तृणवनस्पतिओनो नाश पसे वैतान्य सिवायना पर्वतो, गिरिओ, डुंगराओ, धूळना उंचा देकराओ वगेरेनो नाश थशे. गंगा अने सिन्धु सिवायनी नदीओनो पण अंत आवशे. अग्निना वरसादोने लीधे तपेला कडाया जेवी अने धगधगता अंगारा जेवी जमीन थशे. बहु कीचडवाली बहु कादवाळी जमीन थशे. जेवी एना उपर बचेका प्राणीओ पण चाली नहीं शके. ७२ निगोदो भाविसृष्टिना बीजरूप बीजमात्र बचशे अने ते वैताढ्य पर्वतनो आश्रय करीने त्यां बीलोमां रहेशे . ( भा० ३ पा० २१ - २३ ) बालम पण काळे जे जीवो बची रहेनारा छे तेनी संख्यानी हकीकत एक कयाना रूपगां आवे छे. तेनो सार आ प्रमाणे छे:-"विश्वमां भयंकर जलप्रलय भवानी आगाही नुहने प्रभु खमाद्वारा आपी, अने आज्ञा करी के तारे एक महान वहाण तैयार कर, जेथी तारा कुटुंबने अने पृथ्वी उपरना हरेक जातना पशु पक्षीओमांधी बच्चे-नर अने मादाने बचावी लेयां, मुद्दे आज्ञानुसार महान तैयार कहुँ अने तेमां पोताना कुंटुंबने अने बीजा हरेक जातना पशुपक्षीमांची बम्बेने पकड़ी पकडीने पूरी दीघां. जे पशुओ पकडायां हतां तेमां एक सिंह अने एक सिंहण, एक वाघ अने एक वाघण, एक हरण अने एक हरणी, एक भैंस अने एक पाडो, एक गाय अने एक आखलो, एक बकरो अने एक बकरी, एक घेटो अने एक घेटी हतां. पक्षीओमां एक पोपट, एक मेना, एक चकलो अने एक चकली, एक मोर अने एक टेउ हतां जलप्रलय थयो आखा विश्वमांची फक्त एबहानमा रहेां व बची शक्यां." वैदिक परंपरा अने अवेस्तानी परंपरामां पण आने मळती हकीकत नौधाएली के ए ऐतिहासिकोने सुविदित ज छे. आ प्रकारे आजची २५०० वर्ष पहेठांनी परंपरा उपर संकलित भयेा आ ग्रंथम समसमपनी के पूर्वसमपनी बीजी केटलीये परंपराओ एक के बीजे रूपे सचधाई रहे ए तदन साभाविक छे. आ उपरथी आपणे एटलं ज अनुमान काढी शकीए के व्यवस्थित के १ ग्राम बगेरेना परिचय माटे जूओ प्रस्तुत ग्रंथ भाग २ पृ० १०६ टिप्पण १ भ० सू० 3 / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अव्यवस्थित पण लोकमा प्रचार पामेली परंपरा दरेक प्रकारना प्राचीन साहित्यमा सरखी रीते सचवाई रहे छे. केटलीकवार तेने भेज ते साहित्य लोकमान्य अने लोकप्रिय पण थई पडे छे. आ सूत्रनुं अवलोकन करतां जीवनशुद्धिनी मीमांसा, भगवाने बतावेला विश्वने लगता विचारो, रूढिच्छेद अने बीजी बीजी परंपराओनी असरथी नवी उपजेली केटलीक जैन परंपराओ, आ मुद्दाओ विषे विचार थई गयो. हवे भगवाननी अनेकांत दृष्टि विषे थोडो विचार करी पछी मात्र प्रस्तुत ग्रंथना ऐतिहासिक अन्वेषण विषे नीचेना मुद्दा विचारवाना छे. (१) आगमनी परंपरा अने ग्रंथर्नु नाम (२) बीजा आगमोमा प्रस्तुत ग्रंथनो परिचय, वर्तमान रचना शैली तथा ग्रंथर्नु पूर (३) दिगंबर संप्रदायमा प्रस्तुत ग्रंथनो परिचय अने तेनी साक्षीनो उल्लेख (४) व्याख्याप्रज्ञप्तिमां आवेलां केटलांक मतांतरो (५) व्याख्याप्रज्ञप्तिमा आवेला केटलांक विवादास्पद स्थानो (६) व्याख्याप्रज्ञप्तिनी टीका (७) व्याख्याप्रज्ञप्तिना टीकाकार अनेकांतदृष्टि भगवाने ज्या ज्या आचार के तत्त्वनुं प्रतिपादन करेलुं छे त्यां तेनी बधी अपेक्षाओ साथे विचार करेलो छे एटले के कोई एक पदार्थ तेना मूळ द्रव्यनी दृष्टिए अमुक जातनो होय छे, तेना परिणामनी दृष्टिए कोई जुदी जातनो होय छे, ते ज प्रमाणे क्षेत्र, काल, भाव वगेरे बाजुओ लक्षमा राखीने पण विचार करवामां आवेलो छे. ( भा० २ पा० २३२) स्कंदकना प्रश्नना उत्तरमा भगवाने तेने कर्तुं छे के, लोक सांत पण छे. लोक अनंत पण छे. काळ अने भावथी लोक अनंत छे अने द्रव्य अने क्षेत्रथी लोक सांत छे. जीव पण द्रव्य अने क्षेत्रथी सात छे अने भाव अने काळथी अनंत छे. (भा० १ पा० २३५) परमाणुने लगतो विचार करतां द्रव्य दृष्टिनो (दव्वट्ठयाए) अने प्रदेशदृष्टिनो (पएसट्टयाए) उपयोग करेलो छे. (भा० ४ पा० २३४) आचारनी बाबतमा समन्वयनी दृष्टि केशी अने गौतमना संवादमां सुप्रसिद्ध ज छे. एक स्थळे सोमिल नामना ब्राह्मणे भगवानने पूछ्युं छे के, तमे एक छो ? बे छो ? अक्षत छो ? अव्यय छो ! अने वर्तमान, भूत अने भविष्यरूप छो ! आना उत्तरमां भगवाने कयुं छे के, द्रव्यदृष्टिए हुं एक छु, ज्ञान अने दर्शननी दृष्टिए हुँ बेछु, प्रदेशनी दृष्टिए हुँ अक्षर छु, अव्यय छु अने उपयोगनी दृष्टिए हुं वर्तमान भूत अने भविष्यना परिणामवाळो छं. आ रीतनी समन्वय दृष्टि जेम भगवान महावीरे बतावेली छे तेम भगवान बुद्धे पण बतावेली छे. सिंह सेनापतिने बुद्धे कयु:-मने कोई अक्रियावादी कहे के क्रियावादी कहे के उच्छेदवादी कहे तो हुं ते बधी जातनो छं. पुण्यप्रद विचारोनी किया करवी, कुशळ वृत्ति वधार्ये जवी, सदिच्छाने अनुसरवी एवो हुँ उपदेश करूं छं तेटला माटे क्रियावादी पापक्रियानो विचार न करवो, पापना विचारो मनमां न आववा देवा अने पापविचारोनो नाश करवो ए बधानो हुं उपदेश आपुं छं माटे हुँ अक्रियावादी छु अने अकुशळ मनोवृत्तिनो उच्छेद करवानुं हुं कहुं छू माटे उच्छेदवादी छु. आ प्रकारनी व्यक्तिगत के विश्वगत समन्वयनी दृष्टि जैन परंपराना अने बौद्ध परंपराना शास्त्रोना अत्यारे पण जळवाई रही छे. आना स्याद्वाद, अनेकान्तबाद, विभज्यवाद, ए नामो जैन परंपरामां प्रसिद्ध छे अने बौद्ध परंपरामां पण मध्यमप्रतिपदा अने विभज्यवाद जाणीतां छे. वर्तमानमा जो आपणा आचारो आ दृष्टिथी विचाराय तो लगभग बधा साम्प्रदायिक कलहोनो अंत आवे अने आपणां बुद्धि अने जीवननो सद्व्यय थई ठीक प्रमाणमा विकास थई शके. (१) आगमनी परंपरा अने ग्रंथतुं नाम आ सूत्रना मूळ कर्ता विषे विचार करवो सौथी प्रथम प्राप्त हतो पण ते विषे जैन परंपराए खुलासो करी दीधो छे के मूळ आगम मात्र तीर्थकरना अनुयायीओ गुंथे छे एटले के आगमनी शब्दरचना खुद तीर्थकरनी नथी होती पण तेमना समसमयी के परवर्ती अनुया . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यीओनी होय छे. कंठस्थ रहेला जैन आगमोमां दुकाळ आदिना कारणे केटलांय परिवर्तनो थई गयां छे एवं ख़ुद जैन परंपरा खीकारे छे अने ए एम पण माने छे के अत्यारना उपलब्ध आगमो देवर्धिगणीनी संकलनारूप छे. ए संकलना वलभी (वळा)मां भगवान महावीरना निर्वाण पछी लगभग हजार वर्षे थयेली एम जैन इतिहास कहे छे. एथी प्रस्तुत ग्रंथना कर्ता विषेनो निवेडो लगभग आवी जाय छे. प्रस्तुत ग्रंथy नाम भगवतीसूत्र जैनसंप्रदायमा सुप्रसिद्ध छे पण नीचेना उल्लेखो उपरथी ते तेनुं मूळ नाम नथी पण तेनी महत्ता दर्शावनारुं विशेषण मात्र छे अने टीकाकार अभयदेव पण एने एम ज माने छे. समवायांगसूत्र अने नंदीसूत्रमा वर्तमानमा उपलब्ध अंगसूत्रोनां नाम अने विषयो जणाव्या छे तेमां आ सूत्र माटे 'वियाह' शब्द वपरायेलो छे अने ते शब्दनुं मूळ 'वियाह' धातुमां बताववामां आव्युं छे. 'वि' अने 'आ' उपसर्ग साथेना 'ख्या' धातुथी थयेला 'व्याख्या' शब्दमाथी पूर्वोक्त 'वियाह' शब्द नीपजेलो छे एटले 'वियाह' नो अर्थ अनेक प्रकारनी व्याख्याओ-विवेचनो-धाय छे. टीकाकार पण ए 'वियाह' नी समजुती उपर प्रमाणे आपे छे. केटलेक स्थळे 'जहा पन्नत्तिए' एम जणावीने आ ग्रंथना टुंका नामनो निर्देश करेलो छे. ए उपरथी अने आ ग्रंथना टीकाकार अभयदेवना उल्लेख उपरथी एम पण मालुम पडे छे के आ ग्रंथर्नु आखं नाम 'वियाहपण्णत्ति' होवू जोईए, आगळ जे 'वियाह' जणाव्यु छे ते आनुं टुंकुं नाम छे. वियाहपण्णत्ति' शब्दने बराबर मळतो संस्कृत शब्द 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' छे अने तेनो अर्थ-जेमा असंकीर्णपणे अनेक प्रकारनी व्याख्याओ प्ररूपाती होय ते छे. आ अर्थ जोता आ नाम आ ग्रंथने बराबर बंध बेसतुं छे एथी ते अन्वर्थ छे. वियाहपण्णत्ति' ने बदले केटलेक स्थळे 'विवाहपण्णत्ति' शब्द पण मळे छे. पण विचार करतां जणाय छे के खरो शब्द तो 'वियाहपण्णत्ति' छे अने 'विवाहपण्णत्ति' तो तेनुं भळतुं पाठान्तर छे जे 'य' नो 'ब' बोलावाथी नीपज्यु लागे छे. व्युत्पत्ति अने व्याकरणशास्त्रनी दृष्टिए 'वि' अने 'आ' साथेना 'ख्या' धातुमांथी 'बियाह' शब्द नीपजी शके छे एटले तेनुं वकारवाळू 'विवाह' रूप पाठान्तर मानीए तो ज चाली शके... टीकाकारे तो 'वियाहपण्णत्ति' अने 'विवाहपण्णत्ति' ए बन्ने शब्दोने स्वीकारेला छे. पहेला शब्दनो अर्थ ते उपर प्रमाणे करे छे अने बीजा शब्दनो अर्थ करता ते तेने बराबर मळता संस्कृत शब्दो 'विवाहप्रज्ञप्ति' अने 'विबाधप्रज्ञप्ति' मूके छे पण प्राचीन परंपरा जोतां वियाहपण्णत्ति' नाम खलं जणाय छे. 'पण्णत्ति' शब्दने बराबर मळतो संस्कृत शब्द 'प्रज्ञप्ति' छे. तेनो स्पष्ट अर्थ 'प्रज्ञापन' थाय छे तेम छतां टीकाकारे ते शब्दने मळता आ शब्दो-'प्रज्ञाप्ति' (प्रज्ञ+आप्ति ) अने 'प्रज्ञात्ति' (प्रज्ञ आत्ति ) मूकेला छे. अने तेम करीने तेमणे 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' उपरांत व्याख्याप्रज्ञाप्ति' व्याख्याप्रज्ञात्ति' विवाहप्रज्ञाप्ति' 'विवाहप्रज्ञात्ति' 'विबाधप्रज्ञाप्ति' विबाधप्रज्ञात्ति' 'विवाहप्रज्ञप्ति' अने 'विबाधप्रज्ञप्ति' वगेरे संस्कृत शब्दो 'वियाहपण्णत्ति' अने 'विवाहपण्णत्ति' ने बदले जणाव्या छे. एथी कोईए एम न समजवू जोइए के आ सूत्रना आटलां बधां नामो छे. ___नाम तो 'वियाहपण्णत्ति' एक ज छे पण टीकाकारे जे एने माटे पूर्वोक्त अनेक संस्कृत शब्दो मूकेला छे तेनुं कारण तेमनो आगमो प्रत्येनो अधिकाधिक सद्भाव अने शब्दकुशळता मात्र छे. ज्या ज्यां आ सूत्रना नाम माटे संस्कृत शब्द जोवामां आवे छे त्या त्यां बधे व्याख्याप्रज्ञप्ति' नाम जणाय छे तेथी टीकाकारे मुकेला उपला शब्दो आ ग्रंथनां नाम तरीके न समजवा, भगवती शब्द तो आ सूत्रनी पूज्यता बतावनारुं विशेषण मात्र छे पण खास नाम नथी ते न भुलाय. (२) बीजा आगमोमां प्रस्तुत ग्रंथनो परिचय, वर्तमान रचनाशैली तथा ग्रंथर्नु पूर 'समवाय नामना चोथा अंगमा अने नैन्दीसूत्रमा आ सूत्रनो परिचय आपवामां आवेलो छे. "वियाह सूत्रमा जीवो विषे व्याख्यान छे. अजीवो विषे व्याख्यान (विवेचनो) छे. जीवाजीव विषे व्याख्यान छे, खसमय, परसमय अने स्वपरसमय तथा लोक, अलोक अने लोकालोक ए विष व्याख्यान छे. तथा छत्रीश हजार व्याकरणो-पुछायेला प्रश्नोनो निर्णय आपनारा उत्तरो-शिष्यना हित माटे जणावेलां छे, जे १ प्रस्तुत सूत्रनुं नाम तो 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' छे पण संप्रदायमा 'भगवती' नाम वधारे जाणितुं छे माटे ज आ ग्रंथना मुख पृष्ठ उपर ए नाम मोटा अक्षरे मुकेलं छे अने तेना कर्ताना नामनो उल्लेख पण संप्रदायप्रसिद्धि प्रमाणे सूचवेलो छे. २ समवायांग सूत्र पृ० ११४ ३ नंदीसूत्र पृ० २२९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० व्याकरणो अनेक प्रकारना देवो, राजाओ अने राजर्षीओ तथा अनेक प्रकारना संशयवाळा जिज्ञासुओए श्रीजिनने पूछेला छे. जेना जवाबी श्रीजिने द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश, परिणाम, यथास्तिभाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण अने अनेक प्रकारना सुंदर उपक्रमो पूर्वक आमां आपेला छे." आ रीते समवाय नामना चोथा अंगमां प्रस्तुत 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' सूत्रना अभिधेय विषयनो परिचय आपेलो छे. त्यारे नन्दीसूत्रमा समवाय करतां थोडुं जुईं जणावेलुं छे एटले के नन्दीसूत्रमा समवाय अंगमां कहेली व्याकरणो संबंधी कशी हकीकत मळती नथी. पण मात्र तेमां "जीव, अजीव, जीवाजीव, खसमय, परसमय, खपरसमय, लोक, अलोक, अने लोकालोक संबंधी व्याख्यानो व्याख्याप्रज्ञप्तिमा छे" एटलं ज जणावेलं छे. उपर जणाव्या प्रमाणे ते बन्ने सूत्रमा आ सूत्रना अभिधेयनी बाबतमा जेम फरक जणाय छे तेम तेना परिमाण विषे पण मेद मालुम पडे छे. ते भेद आ प्रमाणे छः व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रना पदोनी संख्या समवायांगमा ८४००० जणावेली छे अने नन्दीसूत्रमा तेनी संख्या २८८००० जणावेली छे. परिमाण विषेनी बीजी हकीकतो बन्नेमा सरखी छे. ते जेमके अंगनी अपेक्षाए व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र पांच, अंग छे, तेमां एक श्रुतस्कंध छे, एकसो करतां वधारे अध्ययनो छे, दश हजार उद्देशको अने दश हजार समुद्देशको छे. आ सूत्रमा वर्णवायेला विषयनी अने परिमाणनी जे हकीकत उपर आपी छे तेनी सरखामणी आपणी सामेना आ सूत्रना विषय अने परिमाण साथे करतां खास फेर जणातो नथी. उद्देशको अने पदोनी संख्यामां फेर छे ते फेर तो प्राचीन परंपराए पण मानेलो छे. रचनाशैलीनी बाबतमा आ सूत्रमा प्रश्नोत्तरनी पद्धति छे ए हकीकत समवायांगा तो जणावेली छे अने आ वर्तमान सूत्रमा पण ते ज शैली आपणी सामे छे. जेम आ सूत्रमा भगवान महावीर अने इन्द्रभूति गौतम वञ्चेनी प्रश्नोत्तरनी शैली छे तेम आर्य श्यामाचार्ये रचेला पन्नवणा-प्रज्ञापना-सूत्रमा पण छे. पन्नवणा सूत्र श्यामाचार्ये रचेलं छे ए सिद्ध वात छे. तेथी तेमांनी भगवान महावीर अने इन्द्रभूति गौतम बच्चेनी प्रश्नोत्तरशैली श्यामाचार्ये गोठवेली छे तेम आ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रनी पूर्वोक्त प्रश्नोत्तर शैली प्रस्तुत सूत्रना संकलन करनारे उपजावी काढी छे के मूळ ज एम छे ए विषे काई कही शकातुं नथी. कारण के घणा अर्वाचीन ग्रंथोमां पण ते ते ग्रंथकारोए एवी शैली राखेली जणायाथी संदेह यवो स्वाभाविक छे. वर्तमानमा आ सूत्रमा आवेला अनुष्टुप श्लोकोनी संख्या लगभग १५८०० छे जे आगळ जणावेली पद (विभक्त्यंत पद)नी संख्याने मळती थई शके एवी कही शकाय, शतक १३८ छे अने उद्देशको १९२५ छे. ज्यारे प्राचीन परंपरा आमा दश हजार उद्देशको अने दश हजार समुदेशको होवार्नु जणावे छे. १९२५ उद्देशकोनी संख्या तो आ सूत्रना प्रान्त भागमा ज जणावेली छे अने टीकाकारे पण तेने मान्य राखी छे. पदोनी संख्या प्रान्त भागनी गाथामा ८४००००० लखेली छे जे समवाय अने नन्दीसूत्र बन्नेथी जुदी पडे छे. पण अन्तनी गाथामां 'चुलसीय सयसहस्सा पदाण' ने बदले 'चुलसीई य सहस्सा पदाण' आq वांचवाथी समवायांग सूत्रमा जणावेली पदसंख्या साथे कशो विरोध नहिं आवे अने एवं वांचवें कई अयुक्त छे एम नथी. पण खूबी तो ए छे के अन्तनी जे गाथामा ८४००००० पदनी संख्या लखेली छे तेनी टीका करतां आचार्य अभयदेव "चतुरशीतिः शतसहस्राणि पदानामनाङ्गे इति सम्बन्धः" एम लखीने व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रमा ८४००००० पदो होवानुं माने छे अने समवायांग सूत्रमा जे स्थळे आ सूत्रनी पदसंख्या बतावी छे त्यां मूळमां "चतुरासीई पयसहस्साई पयग्गेणं" आ पाठनी टीका करता ए ज अभयदेव "चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाणेति" आम लखीने व्याख्याप्रज्ञप्तिमा ८४००० पदो होवानुं लखे छे. ए रीते तेमनी पोतानी ज समवाय अने व्याख्याप्रज्ञप्तिनी टीकामां जे स्पष्ट विरोध आवे छे ते तरफ तेमनुं ध्यान केम नहीं गयुं होय ! आ विरोधना परिहारनी रीत उपर बतावी छे. ए, पाठान्तरपरीक्षणनी दृष्टिए ठीक लागे एवी छे. आ उपरांत आ सूत्रमा जे जातनी शैलीथी विषयो चर्चेला छे ए संबंधनुं निरीक्षण शरुआतमा 'आध्यात्मिक शोध'ना मथाळा नीचे करेलु छे जे आधुनिक वाचनार माटे पूरतुं कही शकाय.. (३) दिगंबर संप्रदायमा प्रस्तुत ग्रंथनो परिचय अने तेनी साक्षीनो उल्लेख विक्रमना नवमा सैकामां थयेला प्रसिद्ध दिगंबराचार्य श्रीमान भट्टाकलंकदेव मुनि तत्त्वार्थसूत्र उपरना पोताना तत्त्वार्थराजवार्तिकमां द्वादशांगनो परिचय आपतां व्याख्याप्रज्ञप्तिनो पण परिचय आपे छे. तेमां तेओ नाम तो व्याख्याप्रज्ञप्ति ज जणात्रे छे अने तेमां "शुं जीव छे ! शुं जीव नथी? ए प्रकारनां ६०००० व्याकरणो छे' एम कही व्याख्याप्रज्ञप्तिना प्रतिपाद्य विषयनो पण उल्लेख करे छे. गोमट्टसारनी ३५५ मी गाथामा प्रस्तुत सूत्रनुं 'विक्खापण्णत्ति' नाम सूचवेलुं छे अने नन्दीसूत्रमा कह्या प्रमाणे तेमा २८८००० पदो छे एम पण नोंधेलु छे. आगळ जणाव्या प्रमाणे श्वेतांबरसंप्रदायना ग्रंथोमां तो व्याख्याप्रज्ञप्तिनी साक्षी अनेक स्थळे आवे छे. एज प्रमाणे दिगंबरसंप्र Jain Education international Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायना तत्त्वार्थराजवार्तिकमां पण व्याख्याप्रज्ञप्तिनी साक्षी आपेली छे. तत्त्वार्थसूत्रगत "विजयादिषु द्विचरमाः" सूत्रना वार्तिकमा ए साक्षीवाळो उल्लेख नीचे प्रमाणे छे:-"एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेयूक्तम्-विजयादिषु देवा मनुष्यभवमास्कन्दन्तः कियतीर्गत्यागतीः विजयादिपु कुर्वन्ति ? इति गौतमप्रश्ने भगवतोक्तम् जघन्येनैको भवः आगत्या उत्कर्षेण गत्यागतिभ्यां द्वौ भवौ." [अनुवादः-कारण के व्याख्याप्रज्ञप्तिना दंडकोमा एम कहेलं छे के मनुष्यभवने पामता विजयादि विमानमा रहेनारा देवो विजयादि विमानोमा केटली गति भने आगति करे छे? ए प्रकारना गीतमना प्रश्नना उत्तरमां भगवान कहे छ के आगतिनी अपेक्षाए ओछामा ओछो एक भव अने गतिभागतिनी अपेक्षाए वधारेमा वधारे बे भव."] श्वेतांबर संप्रदायमां गौतमना प्रश्न अने भगवानना उत्तरवाळु आ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ज प्रसिद्ध छे. दिगंबर संप्रदायमां ए जातर्नु व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होय एq जाण्यु नथी. एथी उपयुक्त वार्तिकमां गौतमना प्रश्न अने भगवानना उत्तरवाळा जे व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रनी साक्षी आपेली छे ते श्वेतांबरसंप्रदायप्रसिद्ध प्रस्तुत व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होय एम न कही शकाय? ज्या सुधी गौतमना प्रश्न अने भगवानना उत्तरवाळू व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दिगंबर संप्रदायमां जाणीतुं छे एवो निर्णय न थई शके त्यां सुधी तो राजवार्तिकमा साक्षी तरीके आपेलं ए व्याख्याप्रज्ञप्ति, आ वर्तमानसूत्र समजी शकाय एम कहेबाने कशी हरकत नथी. खरेखर आम होय तो आ उपरथी एक बीजी वात ए पण नीकळे छे के श्वेतांबरसंप्रदायसंमत सूत्रो दिगंबर संप्रदायने पण संमत हतां एटले बन्ने संप्रदायमां शास्त्रीय एकता हती. (४) व्याख्याप्रज्ञप्तिमां (भगवतीमां) आवेलां केटलांक मतांतरो आ ग्रंथमा जे जे मतांतरो आवेलां छे तेनां कोई विशेष खास नामो मूळ ग्रंथमा आपेलां नथी. तेम ए विषे टीकाकारे पण काई खुलासो कर्यो नथी. छतां बौद्ध त्रिपिटक अने वैदिक साहित्यनुं विशेष अन्वेषण करवाथी ए बधा मतो विषे जरुरी माहिती मळवी कठण नथी. आ सूत्रना पन्नरमा शतकमां मंखलीपुत्र गोशालकने लगती सविस्तर माहिती आपेली छे. ए माहिती अक्षरशः ऐतिहासिक छे एम कहे कठण छे. पण ते उपरथी गोशालकना संप्रदायनी थोडी घणी माहिती आपणे जाणी शकीए एम छीए. एमां गोशालकने स्वभाववादी के नियतिवादी तरीके बतावेलो छे. गोशालकनुं कथन तेमां एम जणाव्युं छे के ते, जीवोना सुखदुःख स्वाभाविक-नियत माने छे. आ सूत्रो उपरांत बीजा सूत्रोमां पण गोशालकनो मत बतावेलो छे. सूयगडांग सूत्रना पहेला श्रुतस्कंधना प्रथम अध्ययनना बीजा उद्देशकमां बीजी त्रीजी गाथामां अन्य मत बतावतां एम कहेलं छे के "केटलाके एम कहे छे के जीवोने सुखदुःख थाय छे ते स्वयंकृत नथी, अन्यकृत नथी पण ए बधु सिद्ध ज छे-खाभाविक छे." __ आवो ज मत उपासक दशांगना सातमा अध्ययनमां आजीवकना उपासक सद्दालपुत्रे स्वीकारेलो छे. सद्दालपुत्र कहे छे के "उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम नथी. बधा भावो नियत छे” ए सद्दालपुत्र आजीवकोपासक पोताना धर्मगुरु तरीके गोशालकने स्वीकारे छे. आ रीते व्याख्याप्रज्ञप्ति, सूयगडांग अने उपासकदशांगमां गोशालकना मतविषे को फरक जणातो नथी. ए उपरथी गोशालक स्वभाववादी-नियतिवादी-हतो एम चोक्खं मालूम पडे छे. बुद्ध पिटकोमां पण मंखली गोशालकने लगती हकीकत आवे छे तेमां कहेला तेना प्रतिपादनने वांचवाथी मालूम पडे छे के ते अहेतुवादी हतो. दीघनिकायना सामञ्ञफल सूत्रमा लखेलं छे के "प्राण भूत, जीव अने सत्त्वना सुखदुःख अहेतुक छे, बल नथी, वीर्य नथी, पुरुषकारपराक्रम नथी ए गोशालकनो मत छे." आ रीते बुद्धपिटक अने जैन सूत्रोमां गोशालकना मत तरीके उपर्युक्त हकीकतनो एक सरखो उल्लेख आवे छे अने टीकाकारे पण तेने ते ज रीते बतावेलो छे. १'मोक्षमार्गप्रकाश'मा अर्वाचीन पंडित टोडरमालजी लखे छे के "सूत्रोमां गौतमना प्रश्न अने भगवान महावीरना उत्तरो एवी शैली घटमान नथी एथी एवी शैलीवाळी सूत्रो दिगंबर संप्रदाय संमत नथी" आ तेमनो उल्लेख दिगंबरं संप्रदायना धुरंधर आचार्य भट्टाकलंकना उपर्युक निर्देश सामे केटलो प्रामाणिक मानी शकाय? "न तं वयंकडं दुक्खं कओ अन्नकडं च णं । सुहं वा जइ वा दुक्खं सेहियं वा असेहियं ॥ सयंकडं न अण्णेहिं वेदयंति पुढो जिया। संगइअं तं तहा तेसिं इहमेगेसि आहिय" ॥ ३ जूओ भगवान महावीरना दश उपासको-७ मो सद्दालपुत्र तथा ते परतुं टिप्पण. ४ जूओ दीघनिकाय (मराठी) पृ० ५८. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ सूत्रमा गोशालके वर्णवेली निर्वाणप्राप्तिनी पद्धति बताववामां आवेली छे, जेमांनी घणी खरी दीघनिकायना उल्लेख साथे अक्षरशः मळती आवे छे. आ प्रमाणे सूत्रमा नामनिर्देशपूर्वक मात्र एक गोशालकनो ज निर्देश आवे छे. आ उपरांत एक समये बे क्रिया थवानुं माननार, एक समये बे आयुष्य करवानुं तथा भोगववानुं माननार वगेरे बीजा अनेक मतोने अन्यतीर्थिकना नाम नीचे जणाववामां आव्या छे (भा० १ पा० २१९ ) ( भा० १ पा० २०४) ते कोना छे ते तुरतमां कहेQ घणुं विकट छे. वळी आ सूत्रमा अने वीजा सूत्रमा घणे ठेकाणे चार समवसरणोनो निर्देश करेलो छे. ए चारमांनुं एक क्रियावादीनुं, बीजु अक्रियावादीनु, त्रीजुं अज्ञानवादीनुं अने चो) विनयवादीनुं छे एम कहेवाय छे. टीकाकारो घणे स्थळे एम लखे छे के प्राचीन समयमां त्रणसोने त्रेसठ पाखंडो-परमतो हता. ते त्रणसो त्रेसठनी समजण आपतां ते टीकाकारो आ चार समवसरणाने मूळ भूत गणावे छे. त्रणसोने सठनी संख्या मेळवबाने जे पद्धति टीकाकार स्वीकारे छे ते पद्धति बराबर समजी शकाती नथी. खरी रीते तो आ त्रणसोने त्रेसठ पाखंडोनो इतिहास कळी शकाय एवं एके साधन उपलब्ध नथी पण ते संख्याने बदले बौद्ध ग्रंथोमां साठ पाखंडोनो उल्लेख मळे छे. ते विषे केटलीक माहिती पण तेमां नोंघेली छे. ए बधुं वांचकोए बौद्ध साहित्यमांथी जोई लेवू घटे. आ सिवाय महावीरना तुरतना पुरोवर्ती जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथना केटलाक शिष्योए भगवान महावीर साथे अथवा तेमना केटलाक शिष्यो साथे चर्चा करेली छे जेनी नोंध आ सूत्रमा अनेक स्थळे छे. आ चर्चाओने बारीकाईथी वाचतां अने भगवान महावीर साथेनु पार्श्वनाथना ए शिष्योनुं वर्तन जोतां इतिहास- पृथक्करणपूर्वक गवेषण करनार कोई पण विवेकीने एम स्पष्ट मालुम पडशे के ते वखतमां पार्श्वनाथना अने भगवान महावीरना शिष्योना रीतरिवाजोमा एटलो बधो फेर हतो के तेओ बन्ने एक ज परंपराने स्वीकारवा छतां एक बीजाने ओळखी शकता पण नहि. आम छतां ते बन्नेना शिष्यपरिवारमा भेदसहिष्णुता अने समन्वयनी शक्ति होवाने लीधे भाग्ये ज अथडामण थएली. आ संबंधे वधारे जोवानी इच्छावाळाए उत्तराध्ययन सूत्रनुं केशीगौतमीय अध्ययन बराबर ध्यान दईने वांची जq. (५) व्याख्याप्रज्ञप्तिमां आवेलां केटलांक विवादास्पद स्थानो (१) सातमा शतकना नवमा उद्देशकमां वज्जी विदेहपुत्र कोणिक साथे काशी अने कोशलना नव मलकि नव लेच्छकि अढार गणराजाओना संग्रामनी हकीकत आवे छे तेमां 'वजी' ए विदेहपुत्र कोणिकनुं विशेषण छे अने ते तेना वंशनुं सूचक छे. वज्जी लोकोनी साथे मल्लवंशना अने लिच्छवीवंशना राजाओनी लडाईनी हकीकत बौद्ध ग्रंथमां पण आवे छे. आ प्रमाणे वजी शब्द एक राजवंशनो सूचक छे एमां शक नथी तेम छता टीकाकार ए 'वजी' शब्दनो अर्थ वज्जी-एटले वज्री-वज्रवाळो-इन्द्र एम करे छे. जे अहिं तद्दन असंगत छे. ज्यां आ हकीकत छे ते ठेकाणे मूळमां लखेलं छे के "गोयमा ! वज्जी विदेहपुत्ते जइत्था; नव मलई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो पराजइत्या" (भा० ३ पा० ३०) आ वाक्यमां वज्जीनो अर्थ कोई पण रीते इंद्र घटी शकतो ज नथी पण ए वजी शब्द विदेहपुत्रना विशेषणरूप छे ए हकीकत सूत्रनी ए वाक्यरचना ज बतावी आपे छे. (२) भा०१ पा० २८० में पाने देवलोकमां देवोने पेदा थवानां कारणोनी हकीकत मूकेली छे. तेमा एम जणाव्युं छे के "पूर्वना संयमने लीधे देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे पण आत्मभाववक्तव्यतानी अपेक्षाए ए देवो देवलोकमां उत्पन्न थता नथी" अहीं टीकाकार आत्मभाववक्तव्यतानो अर्थ 'अहंमानिता' करे छे अने तेम बतावीने आखा सूत्रनो अर्थ ते एम संगत करे छे के "आ हकीकत 'अहंमानिता ने लीधे कहेता नथी' पण विचार करतां टीकाकारनी संगति करवानी आ पद्धति बराबर जणाती नथी. कारण के २८२ में पाने आ वाक्य भगवान महावीरना मुखमां मूकवामां आपेलं छे त्यां तेनो टीकाकारे कहेलो अर्थ जरापण संगत थई शके एम नथी. विचार करता एम जणाय छे के आत्मभाववक्तव्यतानो अर्थ आत्मभावनी दृष्टि एटले खखरूपप्राप्तिनी दृष्टि एम करीए तो कशी असंगति आवे एवं लागतुं नथी. एवो अर्थ करीए तो तात्पर्य ए आवे के देवलोकनी प्राप्तिनुं कारण आत्मभाव नथी. आत्मभाव एटले के खस्वरूपनी प्राप्ति. ए तो सीधुं ज निर्वाण- कारण छे. एथी आत्मभाववक्तव्यतानी अपेक्षाए देवो देवलोकमां उत्पन्न थता नथी एम सूत्रनो अर्थ थयो. माटे भगवान महावीरना मुखमां शोमे एवो आबो सीधो अने सादो अर्थ थई शके एम होवा छतां आत्मभाववक्तव्यतानो टीकाकारे अहंमानिता अर्थ कयों के तेनुं कारण समजी शकातुं नथी. १ जूओ दीघनिकाय ( मराठी ) पृ० ५९. Jain Education international Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ आत्मभाववक्तव्यतानो जे जुदो अर्थ अहीं बताव्यो छे ते करतां पण बीजो सारो अर्थ अहीं बंध बेसे एवो कोई बतावशे तो जरूर तेनुं ग्रहण थशे. 'अहंमानिता' नो जे अर्थ बताव्यो छे ते अहीं भगवान महावीरना मुखमां शोभतो नयी माटे ज ए शब्दनो बीजो कोई भाव शोधको जरूर शोधवो जोईए. भगवान महावीरना मुखमां वाक्य छे ते आ प्रमाणे छेः "अहं पिणं गोयमा ! एवमाइक्खामि, भासामि, पनवेमि, परूवेमि- पुव्वतवेणं देवा देवलोएस उववजन्ति, पुव्वसंजमेणं देवा देवलोपसु उववअंति, कम्मियाए देवा देवलोएसु उववअंति, संगियाए देवा देवलोएसु उववज्रंति, पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चे णं एसमट्ठे, णो चैव णं आयभाववत्तव्ययाए." [ अनुवादः - ( भगवान महावीर कहे छे के ) हे गौतम! हुं पण एम कहुं हुं, भाखुं खुं, जणायुं हुं, अने प्ररूपुं हुं के पूर्वना तपथी देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. पूर्वना संयमथी देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. कर्मीपणाने लीघे देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे अने संगीपणाने लीघे देवो देवलोकम उत्पन्न थाय छे. [ अर्थात् ] हे आर्य । पूर्वं तप, पूर्व संयम, कमपणुं अने संगीपणुं ए कारणोथी देवो देवलोकमा उत्पन्न थाय छे ए हकीकत साची छे. आत्मभाववतव्यतानी अपेक्षाए एम थतुं नथी. " ] (३) गोशालकना १५ मा शतकमां भगवान महावीर माटे सिंहअनगारने जे आहार लाववानुं कहेवामां आल्युं छे ते प्रसंगना बेण शब्दो घणा विवादास्पद छे, कवोयसरीरा - कपोतशरीर मज्जारकडये - मार्जारकृतक कुक्कुडमंसर - कुक्कुटमांसक - आ त्रण शब्दना अर्थमा विशेष गोटाळो मालूम पडे छे. कोइ टीकाकारो अहिं कपोतनो अर्थ 'कपोत पक्षी' मार्जारनो अर्थ प्रसिद्ध 'मार्जार' अने कुक्कुटनो अर्थ प्रसिद्ध ‘कूकडो' कहे छे. अने बीजा टीकाकार ए शब्दनो लाक्षणिक अर्थ करे छे. आमां कयो अर्थ बराबर छे ते कही शकातुं नथी. शोधकोए ए विषे अवश्य विचार करवो घटे. (४) बीशमां शतकना बीजा उद्देशमां धर्मास्तिकायनां अभिवचनो-पर्याय शब्दो - केटलां छे ? एना उत्तरमां भगवाने प्राणातिपातविरमण-अहिंसा, मृषावादविरमण - सत्य वगेरे सद्गुणवाचक शब्दोने जणावेला छे अने ए ज प्रमाणे अधर्मास्तिकायनां अभिवचनो जणावतां प्राणातिपात-हिंसा, मृषावाद-असत्य वगेरे दुर्गुण वाचक शब्दोने सूचवेला छे. मूळमां आवेली आ हकीकत जे रीते धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायनुं स्वरूप मानवामां आवे छे तेनी साथे जरापण बंध बेसती नथी आवती. टीकाकारे पण आ हकीकतने स्पष्ट करवा कशुं लख् नथी एटले आ मूळनी संगति धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना स्वरूपनी मान्यता साथे केवी रीते करवी ए प्रश्न उभो ज रहे छे. आ उपरांत आ सूत्रमां एवां केटलांए विवादास्पद स्थळो छे जे बधां अहीं लखी न शकाय. अहीं तो मात्र ए बाबतनां थोडा उदा हरणो ज आपलां छे. (६) व्याख्याप्रज्ञप्तिनी टीका आ सूत्रना मूळ श्लोकोनी संख्या लगभग १५८०० जेटली छे अने तेनी आ टीकाना लोकोनी संख्या १८६१६ छे एटले खरी ते आ टीका एक प्रकारना टिप्पणरूप छे. टीकाकार पोते मात्र शब्दनो अर्थ करीने चालता थाय छे. जे स्थळे खूब ऊहापोह करीने समजाववानुं होय छे त्यां पण तेओ भाग्येज कई पण रखे छे. आनुं कारण मात्र एक ज जणाय छे के टीकाकारना जमानामा आगमना स्वाध्यायनी परंपरा लगभग नष्ट थई गया जेवी हती. वळी टीकाकारनी पूर्वे थई गएला टीकाचूर्णी वगेरे आ सूत्रने समजवानां जे साधनो हतां तेमां पण जोइए तेवो अने तेटलो प्रकाश न हतो एम आ टीकाकार पोते जं जणावे छे. आ टीकाकार पोते अनेक ठेकाणे लखे छे के आगमनी परंपरा नष्ट थवाने लीधे अने आगमना एवा सारा जाणकारना अभावने ली आ टीका संशयग्रस्त मनथी करेली छे. वळी वाचनामा केटलाए पाठभेदो होवाने लीधे अर्थ करवामां घणी मुंझवण उभी थाय छे. आ सूत्रमां दरेक शतकने अन्ते आपेला टीकाना लोकोमां टीकाकारे आ प्रकारनी पोतानी मुशीबतो बतावेली छे. छतां तेमणे आ सूत्र उपर करेला प्रयत्नथी आपणे कांईक समजी शकीए छीए अने सूत्रनो मूळ पाठ ठीक सचवाई रहेलो छे तेथी टीकाकारना आपणे घणा ऋणी छीए ए भुलवुन जोइए. १ स्थानांगसूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, अने प्रस्तुत सूत्रनी टीकाना अंतना श्लोको. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त विवादास्पद स्थळो बताववामा टीकाकारनी अवगणना करवानो जराय उद्देश नथी. पण कोई पण टीकाकार टीका करता सांप्रदायिक वृत्ति राखे छे अने मात्र शब्दस्पर्शी रहे छे त्यारे ते केटलीक बार मूळना खरा भावने बतावी शकतो नथी ए सूचबवा माटे छे. अत्यारे जे सूत्रो विद्यमान छे, तेमनी टीकाओ जोतां ते दरेक सूत्र उपर हवे नवी टीकाओ करवानो समय आवी पहोंच्यो छे. पण ते थनारी बधी टीकाओ पृथक्करणनी, तुलनानी अने विशाळतानी दृष्टि मुख्य राखीने ज थवी जोइए ए न भुलाय. सिद्धसेन दिवाकर कहे छे तेम मात्र सूत्रो गोखवाथी अर्थनुं ज्ञान थई शकतुं नथी. अर्थ- ज्ञान नयवाद उपर अवलंबे छे, ए नयवाद गहन छे माटे नयवादनी समज साथे सूत्रार्थना अभ्यासी पेदा करवा खूब प्रयत्न थवो जोइए. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग अने भेद ए बधुं ध्यानमा राखीने आचार अने तत्त्वनी विचारणा करवी जोइए. सूत्रोना मर्म समजवाना इच्छुके कदी एकांत तरफ न ढळq घटे. एकांत तरफ ढळतां तो अर्थनो अनर्थ थई जाय छे अने ए अनर्थने लईने ज आ बधा धार्मिक कलहो उभा थाय छे. (७) व्याख्याप्रज्ञप्तिना टीकाकार टीकाकार अभयदेव विक्रमना ११ मा सैकाथी ते बारमा सैका सुधीमा हयात हता. तेमने लगती वीगतवार हकीकत प्रभावकचरित्रमा अभयदेवसूरिना प्रबंधा आपेली छे. ते मूळ धारानगरीना हता, तेमना पितानुं नाम महिधर अने मातानुं नाम धनदेवी हतुं. अने आ आचार्य- मूळनाम अभयकुमार हतुं. वर्धमानसूरिना शिष्य बुद्धिसागरसूरि अने जिनेश्वरसूरि हता. आ अभयदेवसूरि ए जिनेश्वरसूरिना शिष्य हता. जे जमानामां आ आचार्य हता ते जमानामा साधुसंस्था बहु शिथिल दशामा हती. चैत्यवासीओनुं प्रबळ खूब हतुं. चैत्यवासीओ आचारमा एटला बधा शिथिल थई गया हता के तेओ पगारथी नोकरी करवानी हद सुधी पहोंची गया हता. आ आचार्य भने एमना गुरुओ ए शिथिलताने दूर करवानो प्रयत्न करता हता. नवअंग सूत्रो उपर आमनी टीकाओ विद्यमान छे. उपरांत एमणे पंचाशक वगेरे अनेक प्रकरणो उपर विवरणो लखेलां छे अने वीजा केटलाए नवां प्रकरणो पण बनावेलां छे. सूत्रो उपरनी घणी खरी टीकाओ तेमणे पाटणमा करी छे तेम तेओ जणावे छे. प्रस्तुत सूत्रनी टीका एमणे ११२८ मां पाटणमां करीछे एम तेओ टीकाने प्रान्ते जणावे छे. टीकाने छेडे आपेली प्रशस्ति उपरथी एम मालुम पडे छे के तेओ चांद्रकुलना हता. तेमना गुरुना गुरुर्नु नाम वर्धमानसूरि हतुं. एमना दीक्षा गुरु तरीके जिनेश्वरसूरिने प्रबंधमा जणावेला छे पण आ प्रशस्तिमा 'तयोविनेयेन' आम लखीने तेओ जिनेश्वर अने बुद्धिसागर बन्नेने पोताना वडील तरीके खीकारे छे. आ टीका तेमणे निवृतिकुलना द्रोणाचार्य पासे शुद्ध करावी हती एम तेओ लखे छे. आ टीकाकार नवांगीवृत्तिकार तरीके संप्रदायमा प्रसिद्ध छे. आथी वधारे जाणवा माटे प्रभावकचरित्र भाषान्तरनी प्रस्तावनामां आवेलु अभयदेवसूरिनुं वृत्तांत जोई लेवु. १ प्रबंधमा पिता नाम 'महिभर' छे छतां प्रभावकचरित्र (भावनगर-आत्मानंदसभा) नी प्रस्तावनामा (पृ. ८५) धनदेव लखेलुं छे. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार सदगत शेठ पुंजाभाईनी उदारताने लीधे आजथी वीश वर्ष पहेलां एटले १९६९ नी सालमा जिनागम प्रगट करवा माटेनी एक योजना बहार पडी हती. ज्यारे योजना बहार पडी त्यारे हुं काशीमा विद्याभ्यासने अंगे रहेतो हतो. जैन आगमोने श्रद्धा अने रसपूर्वक जोवानो समय मळेलो तेथी आगमसाहित्यने लगता कामकाजनी प्रवृत्तिमां पडवू ए ध्येय लगभग निर्णीत करेलं हतुं. एटलामां आगमप्रकाशननी योजना मारा हाथमा आवी के तुरत ज ते योजनाना मंत्री साथे पत्रव्यवहार करी काशीथी ए प्रवृत्ति माटे रवाना थयो. आ वखते काशीनी यशोविजयजैनपाठशाळाना संस्थापक सद्गत आचार्य विजयधर्मसूरिजीनी योजनाथी जोधपुरमा जैन साहित्य संमेलन थवानुं हतुं ते प्रसंगे त्यां जई आगमोना भाषान्तरनी प्रवृत्ति माटे जवानो मारो विचार तेमने जणावी तेमनी अनुमति मागी. खरी रीते अनुमति आपवानी तेमनी इच्छा न हती' छतां मारी उत्कट इच्छाने लीधे तेओ मने रोकी न शक्या. अमदावाद आवीने मात्र बे ज महीना रही शक्यो. एटला समयमां पण जैन संप्रदायनां छापांओए अने साधुमहाराजाओए आगमना- भाषान्तरनी प्रवृत्तिनो विरोध करवा खूब बुमराण करी मुक्यु. अंगत आक्षेपोए पण मर्यादा मूकी. मने ए प्रवृत्तिमाथी खसेडवा केटलाए विचित्र उपायो करवामां आवेला पण मारे मन आगमोना भाषान्तरनी प्रवृत्ति अत्यंत पवित्र हती तेथी ते माराथी छोडी शकाय एम न हतुं, पण अमदावादनु ए वखतनुं वातावरण एटलं बधुं गरम हतुं के त्यां रहीने काम करवू घणुं कठण हतुं. एथी वच्चे एकाद वरस एक मुनि जे अत्यारे पं०न्यास छे तेमने भगवतीसूत्र शीखववा माटे मारवाड-पालीमा रह्यो. त्यार पछी तुरत ज मुंबईमां आवीने घणु करीने १९७१ मां फरीथी नवेसरथी कामनी शरुआत में एकले एकला हाथे करी अने लगभग त्रण चार वरस पछी मूळपाठ, मूळनी संस्कृत छाया, मूळनुं गुजराती भाषान्तर, संस्कृत टीका, टीकार्नु भाषान्तर, उपयोगी टिप्पणो अने शब्दकोष साथे भगवतीसूत्रनो प्रथम भाग प्रकाशित थयो. त्यार पछी बळी प्रकाशनसंस्थाना मंत्रीनी साथेना मतभेदने कारणे ए फरीथी छोडी देवु पड्युं पण पाछु छेवटे मंत्रीए पोतानी हठने छोडी. आचार्यश्री जिनविजयजीने वच्चे राखीने हुं फरीवार ए काम पर चड्यो अने राजकोटमां १९७९ नी सालमां बीजो भाग तैयार करीने प्रकाशित कर्यो. पहेला भागनी पद्धतिए ज बीजो भाग तैयार थयो छे पण तेमा केटलांक खास टिप्पणो वधारवामां आव्या छे अने शब्दकोष पुस्तक पूरुं थये छेवटे आपवानी धारणाथी जतो कर्यो छे. आ दरम्यान मारे हाथे आ सूत्रनुं अने तेनी टीकार्नु संपूर्ण भाषान्तर तैयार थई गएलं पण ते बधुं काचा खरडा जे हतुं अने तेमां क्याय टिप्पणो नहिं थएलां एटले ए लखाण प्रेसमां आपी शकाय तेवू न हतुं. पण पाछळथी प्रस्तुत कार्य माटे ए बधुं लखाण पं० भगवानदासने सोंपवामां आव्यु. आ वखते गूजरात विद्यापीठना पुरातत्व मंदिरमां मारी योजना थई अने आगमसंस्थाना मंत्रीनी संमतिथी तेमां हुँ जोडायो..पुरातत्त्वमंदिरने उभुं करवामां पण सद्गत पुंजाभाईए घणी उदारता बतावी हती एथी ज ए संस्थामा जोडावाने मंत्रीए मने खुशीथी संमति आपेली. त्यां जोडाया पछी त्यांना सन्मतितर्कना संपादनना खुब बोजावाळा कामथी मने जराय अवकाश नहिं मळतो तेथी ज आ सूत्रना बाकीना भागोनुं काम हुँ नही करी शक्यो. काम तो करवानुं ज हतुं एटले श्रीपुंजाभाईए उक्त आचार्यश्री द्वारा ते काम पंडित भगवानदासने सोंप्यु. १९८५ मां आ सूत्रनो त्रीजो भाग प्रकाशित थयो. काम सत्वर करवानुं होवाथी तेमा अने प्रस्तुत चोथा भागमा टीकाना अनुवादने जतो कर्यो पण टीकाना अगत्यना अंशने नीचे टिप्पणमा आप्यो छे. पूरो शब्दकोष आपवानी धारणा अतिविलंबने कारणे छोडी देवामां आवी छे अने आ वर्षमां चोथो भाग प्रकाशित थाय छे. आ चोथो भाग पण १९८८ मा ज मुद्रित थई गएलो पण प्रस्तावनाने कारणे तेने एक वर्ष मोडो बहार पडवामां आव्यो छे. आचार्य काका कालेलकरश्रीनो आग्रह हतो के प्रस्तावना मारे ज लखवी. प्रस्तावना लखवानो समय आवतां मारे राष्ट्रीय लडतने कारणे विसापुरनी यात्रा करवी पडी तेथी त्यांधी आव्या बाद प्रस्तावना लखी शकाई, एथी तैयार थएला आ भागने प्रकाशित करतां वळी एक वरस विलंब थयो.. भ. सू.4 Jain Education international Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ हवे तो जैन संप्रदायर्नु वातावरण घणुं बदलाई गएलुं छे. आगमना भाषांतर माटे ज्यारे शरुआत करेली त्यारे जैन संप्रदायना आगेवानोए मारी सामे सखत विरोध करेलो पण हवे तो रूढ जैन संस्थाओ पण आगमनां भाषान्तरो बहार पाडे छे. मारी अने एमनी ढबमां फेर छे. पण आगमोना भाषान्तर करवानी प्रवृत्ति सामे हवे विरोध तद्दन शमी गयो छे ए अत्यंत आनंदनी वात छे. आ कामने अंगे आचार्यश्री जिनविजयजी, सद्गत शेठ पुंजाभाई तथा सद्गत मंत्री रा. मनसुखलालभाई (श्रीमद् राजचंदना भाई) नो मारा तरफनो सद्भाव हुँ भूली शकुं तेम नथी. १९७०-७१ मां सूत्रना भाषान्तरनी शरुआत थएली अने १९८९ मा आ सूत्रना भाषान्तरनुं काम पूरं थयु, एटला लांबा गाळामां ग्राहकोए जे धैर्य राख्यु छे तेने माटे धन्यवाद घटे छे. प्रस्तुत पुस्तकना चारे भागमा आवेलां टिप्पणोनुं हार्द समजाय ए माटे टिप्पणोमां वपराएला ग्रंथोनी अने टिप्पणीय शब्दोनी थादीनुं एक मोटुं परिशिष्ट आ भाग साथे जोड्युं छे. सद्गत श्रीपुंजाभाईनी योजनानुसार पुंजाभाई जैन ग्रंथमाळा सर्वधर्मसमभावने प्रचारवा जैन आगमोने प्रकाशित करे अने दीर्घजीवी थाय ए ज अंतिम इच्छा. कार्तिक शु. १५,९. । अमरेली (काठीयावाड) बेचरदास Jain Education international Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनाने नवमे पाने वीजोनी उगवानी शक्ति विषे जे चर्चा लखेली छे तेनुं आधुनिक दृष्टिए स्पष्टीकरण नीचे प्रमाणे छः बीजोनी उगवानी शक्तिनो टकाव . छाणथी के माटीथी चांदेला कोठामा, डालामां के माटीना बीजा कोई ठाममा साचवी राखेलां बीजोने हवा, भेज वगेरे लागवानो संभव छ वा अन्य कोई विघातक शक्ति ते बीजोने निर्जीव-उगवानी शक्ति रहित-करी शके छे तेथी ए बीजो बगडे छे, सडे छे अने, नष्ट थाय छे अने जे साबीत रहे छे तेमनी पण उगवानी शक्ति वधारे वखत टकी शकती नथी. बीजोनी उगवानी शक्तिना संबंधमां भगवाने जे उपर्युक्त हकीकत जणावेली छे ते तेमना समयनी बीजोनी रक्षा करवानी व्यवस्थाने आश्रीने समजवानी छे. प्रयोगात्मक विज्ञानना आ युगमा गमे ते ऋतुमा वायु, भेज वगेरे विघातक शक्तिओ बीजोने लेश पण हानि न पहोंचाडे एवी रीते बीजोने साचबवानी सगवडो थई छे तेथी ते जलदी बगडतां नथी तेम तेमनी उगवानी शक्ति पण वधारे वखत सुधी टकी रहे छे. उपर्युक्त केटलांक बीजोनी उगवानी शक्तिनो टकाव अने तेना समयनी बाबत अत्यारनुं खेतीवाडी विज्ञान नीचेनी माहिती आपे छः बीजोनी जात उगवानी शक्ति ७५ टकाथी वधारे | उगवानी शक्ति १० टकाथी ओछी केटलां वर्ष सुधी केटलां वर्ष पछी चोखा ਬਰ on or ur 2 तल मग अडद कळथी तुवेर चणा अळसी 9 , बेचरदा. १ खेतवाडी महाविद्यालय (पूना)ना अध्यापको पासेथी उपर्युक्त माहिती श्रीमान् काकासाहेबे मोकली भापी छे. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४३. १. स्पष्टीकरण माटे, विवेचन माटे, अवतरणनां स्थळ माटे, तुलना माटे, मतान्तर बताववा माटे अने अध्याहृत भाववाळा पाठनी पूर्ति माटे उपयोगमा लीधेला ग्रंथो अने ग्रंथकारोनां नाम. पुस्तकोनां नाम पृष्ठ पुस्तकोनां नाम अनुयोगद्वार १४. *२ १८३, ४ ३२. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ४,३६,३७,८०,१३९,२१९. २१५, अभयदेव ३७,७९,१४१,३२९.३३६०.४२७. अमरकोष २४१,४२. तीर्थकल्प २१४३. अवचूर्णि १७८, २०५, २१९. २५४, १६२. | तंदुलवैचारिक १८५. आचारांग २१७५. ३३६९.४१, ३०२.! देशीनाममाला ८२. आवश्यकनियुक्ति ४,५,६,१५,१६,४८. धर्मसागरपट्टावली २१३८. भावश्यकनियुक्तिअवचूर्णि १३,१४. २ ७३,१९६. नमस्कारमंत्र आवश्यकसूत्र २११,३७.३ १७२. नाट्यशास्त्र(भरत) उत्तराध्ययन २९२,९९. ३३. निरुक्त(यास्क) २४२,४८,४९,१२२,१३०,१७१. उपासकदशांग ३३.२ १०४ ३९. निशीथचूर्णि २१८२. ऋग्वेदभाष्य २४७. नेमिचंद्रसूरि २६१. औपपातिकसूत्र अथवा नंदीसूत्र २३६,३७.३५९,७३.४११७,२१४. उववाइयसूत्र ४,१९,२३,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१. पातंजलयोगदर्शन २३१३,३३०. २२.३३०,१६६,१६७,१७३,१७६, पालीव्याकरण (कच्चायन) २१५३. १७७, १७८,१७९,२२२, २२३, २२६, पंचप्रतिक्रमणसूत्र २२७, २३९,२४५,२४६,२५७, ३२७, |पंचसंग्रह २२७८,२८६. ३६०,४०१,४०२. ४२७७. पंचाशक ६२,२५५,२५६,२५७. कर्मग्रंथ ३४,५१,६४,६५,७९,८२,९४.२१९. | पिंडनियुक्ति ३६. कर्मप्रकृति २२७६. प्रवचनसारोद्धार ३५,३७,४०,२५८.३१७२. कल्पसूत्र ६,१५,२०.२ ४०,१७५, प्रश्नव्याकरण २५३. खरतरगच्छपट्टावली २१३९. प्रज्ञापना अथवा पनवणासूत्र ४,५३, १३१, १३३,२२६,२६२, गच्छाचारपयन्ना २१००, २६८,२९१,२९२,२९६. २४,९, चूर्णि १७८,३१२. २८१. ३ ३४८,३८१, १०,१३,१५,१९,२०,२२,२३, २४, ४१५२,२११,२५६. ४०,४९,५२,५३,५४,७३,९०,९२, जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति २३६,१४५.३ १२५. ९९,१०४,१०६,१०७,१३३,१५८, जीवविचार २४२. १९१, २६१, २८६, ३१४, ३३८. जीवाभिगमसूत्र ४८,२६६,२९६,२९५,३०३. २१५, ३१,१०,४८,५१,५२,५७,७१,७४, ३७, ४०,४५,४६, ८३, १६३, २०८, ७५,७७,७८,७९,९२, १०५,१०८, २८६,३१४,३२६,३३५. ३१६, १७, १११, ११२, १९०, १९१, १९२, ७४,१००,१२६, १२७, २०३, २०६, १९५, २०८, २१३, २३६, २८९, २२५,२६१,२९३,३०७,३१३,३४६. २९०, २९१, ३०४, ३०५, ३११, ४८९,२३९. ३२४, ३३५, ३३८, ३८२, ३८८, ज्ञाताधर्मकथा २५,१२,१०४,१४५. ४००.४ ७,२१,२७,३९,५५,५९, *आगलनो मोटो भांकडो भागनो सूचक छे भने ज्यां ते न होय त्यां पहेलो भाग समजवानो छे. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकोनां नाम पृष्ठ । पुस्तकोनां नाम ७९,८०,८१,८२,८९,९०,९६,९९, ललितविस्तर २३९. १२७, १२९, १३०, १३१, १३२, वाराहीसंहिता २४०,११०. १३३, १३४, १३६, १३७, १३८, विशेषावश्यक ३,४,५,६,८,३९,४०,४२,४३,५१,५२,६२, १६३, १७८, १८६, १९८, २०१, २०९,२१९,२२०,२२९. २ ३,११,२४. २०३, २१४, २१५, २२०, २३५, वेदान्तसिद्धान्तादर्श २४२. ३११, ३१२, ३१३, ३१६, ३३१, शतपथब्राह्मण २४१. ३३२, ३३३, ३४७, ३६०,३६३. सन्मतितर्क ५२. प्राकृतसर्वख (मार्कडेय) २ १८२. समवायांगसूत्र ९.२ ३,१०,११,३७,१९५.. बृहत्कल्पवृत्ति. २१००. समेतशिखररास २४४,२७६. बौद्धपर्व २५६. सरस्वती भगवतीशतक ४८. सिद्धसेनदिवाकर २६१. मज्झिमनिकाय २५५,१०५,१२१,१२२,१२९,२७२, सूयगडांग अथवा सूत्रकृतांगसूत्र २५३,३२९.४ ३०२. सूर्यप्रज्ञप्ति २१४५. मनुस्मृति २३१३. संथारापौरुषी ३. मेघमाळा २७६. स्थानांगसूत्र अथवा ठाणांगसूत्र २६८,२७५.२ १,११,१२,१३, रत्नाकरावतारिका १४०. १०४. रायपसेणी अथवा राजप्रश्नीय २१०,४३,१०६,११०.३ ५९, स्याद्वादरत्नाकर ४०. १७३, १७४, १७५,२००,२०५, हेमचंद्रसूरि २६१,१४४,१७५,१८१. २२१,२४३,२४५,२४६,३२२, हैमकोष १९,२०, ३५. २२,३७,१०५,१०६, ३२५,३६०.४१२,१३,५१,७८. १२२. बेचरदास Jain Education international Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भाग-१) व्याख्याप्रज्ञ तिनुं पृष्ठ ६ ३२ ५१ ३९ ४० १३९ १९ २७ ५ ४७ ८६ ९४ २२६ २७५ ५ ३४ ३७ ८६ १ २७८ ३० १५ ४१ २६६ जे शब्द उपर टिप्पण छे ते शब्द अढार लिपि अन्तः पुरनिर्गम अनुभागबंध अवग्रह - ईहा वगेरे ३ जे खास शब्दो उपर टिप्पण छे तेनां स्थळ अने साक्षीभूत ग्रंथ, ग्रंथकारनां नाम अवग्रह अवधिज्ञान | अवसर्पिणी असुरोनो वर्णक आचार्य आवीचिकमरण ८६ खाण ८६ खेट १६ १८५ २१९ २५८ आश्रम आहार आहारपद | उदकगर्भ उपाध्याय ऋषभ औपग्राहिक कर्बट कालादि अष्टप्रकार | कुत्रिकापण गणधर गर्भ ८६ ग्राम १४ | गंगआचार्य गुणरत्नसंवत्सर | चिल्लणा जननिर्गम जंबू खामी | जमालि | जीवाजीवाभिगम टिप्पण माटे साक्षीभूत ग्रंथ वगेरे कल्पसूत्र, विशेषावश्यक, आव'श्यक निर्युक्ति. औपपातिकसूत्र कर्मग्रंथ विशेषावश्यक, रत्नाकरावतारिका, स्याद्वादरत्नाकर. प्रवचनसारोद्धार | तत्त्वार्थसूत्र हैमकोष अभिधानचिन्तामणि औपपातिकसूत्र | विशेषावश्यक, आवश्यकनिर्युक्ति | भगवती सूत्र अभयदेवटीका कर्मग्रंथ प्रज्ञापनासूत्र स्थानांगसूत्र विशेषावश्यक कर्मग्रंथ प्रवचनसारोद्वार अभयदेवटीका २ १०६ व्याख्याप्रज्ञ जे शब्द उपर टिप्पण तिनुं पृष्ठ शब्द अनुवादक अभयदेवटीका अभयदेव टीका आवश्यक नियुक्ति तंदुल वैचारिक विशेषावश्यक प्रवचनसारोद्धार अभयदेव टीका २१०६ सुलसाचरित्र गुजराती औपपातिकसूत्र कल्पसूत्र विशेषावश्यक | जीवाभिगमसूत्र २७ ៖ គឺ គឺ “ · F S S S = = " X & F ន; ३६ २७६ ८६ ९ २५५ ३७ धर्मध्यान धूमांगार ८६ ८६ नगर ८६ | निगम ३५ ५१ ४३ २७ प्रदेशबंध १३ प्रसेनजितनो पुत्र भंते २९२ २५६ पंचप्रतिक्रमणसूत्र, रत्नाकरावता - २९० रिका. १३, १७ १९ ८६ ३१ २४४ २७ २७ २५ ८६ २० ज्योतिष्कोनो वर्णक औपपातिकसूत्र | तत्त्वार्थसूत्र समेतशिखररास, अभयदेवटीका २ १०६ ज्ञान तुंगियानगरी, द्रोणमुख द्वादशांगी २४७ ४५ २५२ ५ नैपातिकपद पत्तन पूर्व भाषा भिक्षुप्रतिमा मडब महावीर महातपस्तीर राजगृह राजगृहनो वर्णक राजधानी राजनिर्गम विपुलपर्वत वैमानिकोनो वर्णक व्यंतरोनो वर्णक शरीरनो वर्णक शिक्षा ३७ शुक्लध्यान ५१ शैलेशी समय टिप्पण माटे साक्षीभूत ग्रंथ वगेरे समुदूधात साधु समवायांगसूत्र | तत्त्वार्थसूत्र पंचाशक भवनवासीनो वर्णक औपपातिकसूत्र | अभयदेवटीका २१०६ अभयदेवटीका २ १०६ विशेषावश्यक सूत्र | अभयदेवटीका २ १०६ अभिधानचिन्तामणी कोष कर्मग्रंथ आवश्यकनिर्युक्ति अवचूर्णि विशेषावश्यक प्रज्ञापनासूत्र पंचाशक | अभयदेवटीका २ १०६ कल्पसूत्र | विशेषावश्यकं सूत्र | आवश्यक नियुक्ति अवचूर्णि औपपातिकसूत्र अभयदेवटीका औपपातिकसूत्र समेतशिखररास औपपातिकसूत्र " 35 ऋग्वेदभाष्य तत्त्वार्थसूत्र विशेषावश्यकसूत्र अनुयोगद्वारसूत्र | प्रज्ञापनासूत्र | आवश्यक निर्युक्ति Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञ- जे शब्द उपर टिप्पण प्तिनुं पृष्ठ | छे ते शब्द टिप्पण माटे साक्षीभूत ग्रंथ वगेरे व्याख्याप्रज्ञ- जे शब्द उपर टिप्पण प्तिनुं पृष्ठ छे ते शब्द टिप्पण माटे साक्षीभूत ग्रंथ वगेरे २६ / देव ११२ ४८ १०६ १११ २५ पूरण १९१ १५३ साधुओनो वर्णक औपपातिकसूत्र | दिग्दाह वाराहीसंहिता सिद्ध प्रज्ञापना दुन्दुमि यास्कनुं निरुक्त सुधर्मखामी कल्पसूत्र मज्झिमनिकाय, अभिधानचिन्तासंनिवेश अभयदेवटीका ___मणिटीका. संवर . तत्त्वार्थसूत्र १२९ देवेन्द्र मज्झिमनिकाय, यास्कनुं निरुक्त. संस्थान कर्मग्रंथ कल्पसूत्र |संहनन कर्मग्रंथ धरणेन्द्र प्रज्ञापनासूत्र स्थितिबंध कर्मग्रंथ नरकपृथ्वीओ सूत्रकृतांगसूत्र, तत्त्वार्यसूत्र, पा। (भाग-२) अग्निभूति विशेषावश्यक तंजलयोगदर्शन. ·४३ नाटक(बत्रीश प्रकारनु) राजप्रश्नीय, भरतर्नु माट्यशास्त्र, २७२ अभिज्झिय मज्झिमनिकाय जीवाभिगम. १११ अभ्रवृक्ष वाराहीसंहीता ४२ | निवर्तनिक अनुवादक अमोघ | निषेक २७६ कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह. अर्धमागधी १८२ प्राकृतसर्वख, निशीथचूर्णि. १०८ नैरयिक जीवाभिगमसूत्र असुर यास्कनुं निरुक्त पत्तन ४९ असुरकुमार प्रज्ञापना अभिधानचिन्तामणि २६१ | आहारउद्देशक परिवेष प्रज्ञापनासूत्र | वाराहीसंहिता ३९ ललितविस्तर पर्याप्ति कर्मग्रंथ २० ईशान प्रज्ञापनासूत्र | मज्झिमनिकाय, बौद्धपर्व | उत्करिकामेद प्रज्ञापनासूत्र पूर्व (संख्या वाचक) पालीव्याकरण (कच्चायन) ११२ उदकमत्स्य वाराहीसंहिता १८१ पैशाची भाषा प्राकृतव्याकरण १११ उल्कापात १३५ प्रज्ञापना अने लेनो प्रज्ञापनासूत्र धर्मसागरनी पट्टा७३ क्रिया प्रज्ञापनासूत्र ___ कर्ता वली, खरतरगच्छनी पट्टावली. १९५ कुलकर समवायांगसूत्र, आवश्यकनियुक्ति. प्रतिसूर्य वाराहीसंहिता ३०६ केवलकप्प मज्झिमनिकाय १८३ प्रमाण अनुयोगद्वारसूत्र गर्भापहार परिशिष्टपर्व प्राणामा सरखती (मासिक) ग्रहयुद्ध वाराहीसंहिता ३१३ ब्रह्मलोक पातंजलयोगदर्शन, मनुस्मृति. ग्रहशंगाटक २७२ मनाम (मणाम) मज्झिमनिकाय | ग्रहापसव्य ७३ मंडितपुत्र गान्धर्वनगर आवश्यकनियुक्ति मन्त्र चमर उत्तराध्ययन, प्रज्ञापनासूत्र प्रज्ञापनासूत्र चमरनो उत्पात मागधीभाषा सिद्धसेननी बत्रीशी प्राकृतव्याकरण औपपातिकसूत्र, अभिधान मौर्यपुत्र तामलि विशेषावश्यकसूत्र चिन्तामणि,अमरकोष, शब्द १२२ निरुक्त ( यास्क) स्तोममहानिधि, शब्द वाराहीसंहिता, जीवाभिगम. चिन्तामणि. राजप्रश्नीय उपांग! नन्दीसूत्र १४५ । चैत्यनी व्युत्पत्ति | अनुवादक शतपथब्राह्मण, वेदान्तसिद्धा१४३ चंपानगरी तीर्थकल्प, परिशिष्ट पर्व, ____न्तादर्श. महावीरचरित्र. लवण समुद्र जीवाभिगमसूत्र २७२ जल्ल मज्झिमनिकाय | लेश्या प्रज्ञापनासूत्र २४ | ताम्रलिप्ती प्रज्ञापनासूय वरुण निरुक्त ( यास्कनुं) दानामा-प्राणामानो महावीरचरिय (नेमिचंद्र ११ वायुभूति आवश्यकसूत्र, समवायोगसूत्र. विपर्यास | महावीरचरित्र (हेमचंद्र) | ८७ वायुनुं वहन । अनुवादक भ. सू. 5 १७६ गमापा 24...* ९९ १८१ चैत्य २४ यम ४७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ व्याख्याप्रज्ञ- जे शब्द उपर टिप्पण टिप्पण माटे साक्षीभूत प्तिनुं पृष्ठ | छे ते शब्द ग्रंथ वगेरे व्याख्याप्रज्ञ- जे शब्द उपर टिप्पण प्तिनुं पृष्ठ छे ते शब्द टिप्पण माटे साक्षीभूत ग्रंथ वगेरे ब्राह्मण- स्वरूप बेंतालीश दोष महाशिलाकंटक मित्रपरिणत उत्तराध्ययनसूत्र प्रवचनसारोद्धार टीकाकार ३० लब्धि |शिव सोम १०४,५ वाराणसी स्थानांगसूत्र, ज्ञातासूत्र, उपासक- ३ दशांगसूत्र, पन्नवणासूत्र, अ- १७२ भिधानचिन्तामणि, समेत शिखररास, मज्झिमनिकाय. वैक्रिय समुद्घात समवायांगसूत्र वैरोचनेन्द्र प्रज्ञापनासूत्र शक्रेन्द्र जीवाभिगमसूत्र ३३३ ५२ शबर सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, प्रज्ञा- ८ पना. ४२ निरुक्त (यास्कनु) १८१ शौरसेनी भाषा प्राकृतव्याकरण ३८० सक्किया अनुवादक सुसुमारगिरि | मज्झिमनिकाय १२२ निरुक्त (यास्कनु) १११ संध्या वाराहीसंहिता १०६ संबाध पन्नवणासूत्र २५७ स्कंद अमरकोष २७५ | (भाग-३) अपश्चिम मारणांतिक- भगवतीटीका | संलेखना आधाकर्म वगेरे दोष | पिंडनियुक्ति १९५ आमन्त्रणी प्रज्ञापनासूत्र २४० आशीविष टीकाकार उन्माद २७४ ७३ ऋजुमति नन्दीसूत्र ३५६ औदयिकभाव टीकाकार ३९३ . कपोतपक्षी टीकाकार कायिकी प्रज्ञापनासूत्र २४० ३८१ गोशालकनो सिद्धांत चूर्णिकार ३६७ | दिशाचर टीकाकार २४३ धात्री राजप्रश्नीय ३६७ |निमित्त अनुवादक २१३ ९२ प्रयोग पनवणासूत्र ३०१ १९७ पासत्था टीकाकार व्यंजनावग्रह नन्दीसूत्र वलयमरण अनुवादक सर्वोत्तरगुण प्रत्याख्यान टीकाकार साकारबोध सामायिक चारित्र | स्थविर अनुवादक |संस्थान टीकाकार (भाग-४) अधिकरण टीकाकार अवग्रहना पांच प्रकार , आकर्ष . अनुवादक आलोचन इच्छाकार एजना करण टीकाकार कालिकश्रुत नन्दीसूत्र अनुवादक | चारण टीकाकार दश गुण ( आलेचना अनुवादक | योग्य साधुना) | निदा प्रज्ञापना | निम्रन्थ अनुवादक ९३ १७ कुशील ११८ द ७९ " पुलाक बकुश ३६ मद्रुक श्रेणि समवसरण खम सूत्रकृतांगसूत्र, आचारांगसूत्र. अनुवादक बेचरदास Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकामां के टिप्पणमा समजुती माटे मूकेला यंत्रो-कोठाओ अने आकतिओ भा० १ व्याख्याप्रज्ञप्तिनुं पृष्ठ २६९ وام अवग्रह यंत्र ... इन्द्रिय यंत्र ... गणधर यंत्र ... दिशानुं यंत्र .... प्रतिमा यंत्र ... भाषाना मेदोनुं वृक्ष भाषाविचार कोष्टक २५६ २९४ भा०२ २३६ २१८ २७८ अप्रदेश सप्रदेशनी स्थापना आहारनो कोठो इंद्रनी गतिनो कोठो ... कर्मनो कोठो कृष्णराजिनी आकृति देवना आहारनो कोठो ... वायुनी आकृति लेश्यानु यंत्र लोकपालतुं यंत्र ३ बेचरदास Jain Education international Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम. शतक १६ उद्देशक १ पृ. १-४. हथोडावती एरण उपर घा करता वायुकाय उत्पन्न थाय अने तेनुं बीजा पदार्थना स्पर्शथी मरण थाय? हा थाय. पृ.१-वायुकायर्नु शरीरसहित के शरीररहित भवान्तर गमन थाय!-सगढीमा अनिकाय केटला काळ सुधी रहे !-सांडसावती लोढुं उंचुं नीचुं करनार पुरुषने क्रियाओ.लोढाने तपावी एरण पर मूकनारने क्रियाओ.-अधिकरणी अने अधिकरण.-जीवने अधिकरणी अने अधिकरण कहेवाचं कारण, पृ.२ रयिकादि दंडकने आश्रयी अधिकरणी अने भधिकरण,-जीव साधिकरणी के निरधिकरणी?-आत्माधिकरणी, पराधिकरणी के उभयाधिकरणी? जीवोने अधिकरण आत्मप्रयोग निर्वर्तित, परप्रयोग निर्वर्तित के तदुभयप्रयोग निर्वर्तित होय ?- अविरतिने आश्रयी अधिकरण.-शरीरना प्रकार.-इन्द्रियोना प्रकार.योगना प्रकार. पृ०३-ओदारिक शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी के अधिकरण होय?-आहारक शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी के अधिकरण होय?-इन्द्रिय तथा मनोयोगने बांधतो जीव अधिकरणी के अधिकरण होय? पृ. ४. शतक १६ उद्देशक २ पृ. ५-७. जरा अने शोक.-पृथिकायिकने जरा होय के शोक होय ?-शोक नहि होवानुं कारण.-शक्रनुं वर्णन अने तेनुं भगवंत पासे आवयु.-अवप्रहसंवन्धे प्रश्न अने शझर्नु खस्थानगमन. पृ. ५-शकेन्द्र सत्यवादी के मिथ्यावादी ?-शक सावध भाषा बोले के निरवद्य भाषा बोले। तेनु कारण!-शक भवसिद्धिक के अभवसिद्धिक होय वगेरे प्रश्न.-कर्मों चैतन्यकृत छे के अचैतन्यकृत ? पृ. -तेना कारणो. शतक १६ उद्देशक ३ पृ. ७-९. फर्मप्रकृति.-ज्ञानावरणने वेदतो जीव केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ! पृ. ७-उल्लकवीर नगर.-काउस्सग्गमा रहेला मुनिना अर्श कापनार वैष भने मुनिने क्रिया. शतक १६ उद्देशक ४ पृ०.९-१०. नित्यभोजी श्रमण जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिको सो वरसे खपावे ! ना. पृ. ९. चतुर्थ भक्कादि करनार मुनि जेटलं कर्म खपावे तेटलं फर्म हजार के लाख वरसे नैरयिक खपावे ? ना.-श्रमणने अधिक कर्म क्षय थवा- कारण, पृ. १०. शतक १६ उद्देशक ५ पृ० ११-१५. उल्लुकतीर नगर.-एक जंबूक चैत्य.-देव बाय पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय अहीं आववा समर्थ छ ?-बाय पुद्गलोने प्रहण करीने भहीं आववा समर्थ छे ?–बाह्य पुद्गलोने प्रहण करीने बोलवा बगेरे क्रिया करवा समर्थ छ ? पृ० ११.-शकर्नु उत्सुकतापूर्वक वादीने जवानुं कारण.-सम्यग्दृष्टि गंगदत्त देवनी उत्पत्ति भने तेनो मिथ्यादृष्टि देवनी साथे संवाद.-परिणाम पामता पुद्गलो परिणत कहेवाय-गंगदत्त देव- भगवंत पासे आगमन. पृ० १२-गंगदत्तनो भगवंतने प्रश्न.-गंगदत्त देव भवसिद्धिक छे के अभवसिद्धिक छे इत्यादि प्रश्न.-गंगदत्तनी दिव्य देवर्द्धि क्यों गई ? पृ०१३हस्तिनापुर.-सहस्रामवण.-गंगदत्त गृहपति.-मुनिसुव्रत खामीनुं आगमन.-मुनिसुव्रत खामीनी देशना अने गंगदतने प्रतिबोध थवो.-गंगदत्ते दीक्षा लेवी. पृ. १४-गंगदत्तनी महाशुक्र कल्पमा देवतरीके उत्पत्ति.-गंगदत्तनी आयुषस्थिति.-गंगदत्त देवलोकथी च्यवी क्या जशे ! पृ० १५. शतक १६ उद्देशक ६ पृ. १५-२०. स्वप्नदर्शन.-स्वप्न क्यारे जुए! पृ० १५-जीवो सूता, जागता के सूता-जागता होय छे ?-पंचेन्द्रिय तिर्यचो सूता छे इत्यादि प्रश्न.-संवृत जीव केयूँ खप्न जुए ? जीवो संवृत छे इत्यादि प्रश्न.-खामना प्रकार.-महास्वपना प्रकार.-सर्प खमना प्रकार.-तीर्थकरनी माता केटला खमो जुए। पृ०१६-चक्रवतींनी माता केटलां खाम जुए ?-वासुदेवनी माता केटलां खन जुए?-छमावस्थामा भगवंत महावीरे दश वमोने जोवां पृ० १५.दश महाखमोर्नु फल, पृ०१८.-सामान्य खमनुं फळ. पृ० १९.-कोष्टपुट बगेरे वाय छे! पृ.२०. शतक १६ उद्देशक ७ पृ० २१. उपयोग केटला प्रकारनो कह्यो छे ? पृ० २१. शतक १६ उद्देशक ८ पृ. २१-२५. लोकनो पूर्णचरमांत. पृ. २१-दक्षिणादि चरमांत.-उपरनो चरमांत पृ. २२.-लोकनी हेठेनो चरमात.-रमप्रभाना पूर्वादि यरमास पृ. २३.-परमाणुनी गति-कायिकी आदि क्रिया.-देव अलोकमा हस्तादिने पसारखा समर्थ छे ! पृ० २५. Jain Education international Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक ९ पृ. २६. बलीन्द्रनी सुधर्मा सभा क्या कहेली छे ! पृ० २६. शतक १६ उद्देशक १० पृ. २७. अवधिज्ञानना प्रकार पृ० २५. शतक १६ उद्देशक ११ पृ. २७. द्वीपकुमारो समान आहारवाळा छे इत्यादि प्रश्न.-द्वीपकुमारोने लेश्याओ. पृ. २७. शतक १६ उद्देशक १२-१४ पृ. २८-२९. उदधिकुमारो बधा समान आहारवाळा छे इत्यादि प्रश्न. पृ० २८. शतक १७ उद्देशक १ पृ. २९-३२. उदायी हस्ती कई गतिमाथी आवी उत्पन्न थयो छे?- उदायी मरीने क्या जशे! त्याथी मरण पामी क्या जशे !-भूतानंद हस्ती क्याथी आव्यो छे अने मरीने क्यां जशे ? पृ. २९.-कायिकी आदि क्रियाओ.-वृक्षचं मूळ चलावनारने क्रिया.- वृक्षना मूळने क्रिया. पृ. ३०.-वृक्षना कन्द चलावनारने क्रिया.-कन्दने क्रिया.-शरीरो.-इन्द्रियो-योग-औदारिकादि शरीरने बांधतो जीव केटली क्रिया करे !-जीवो केटली क्रियाओ करे। पृ. ३१.-औदयिकादि भावो. पृ. ३२. शतक १७ उद्देशक २ पृ. ३२-३५. संयतादि धर्म, अधर्म के धर्माधर्ममां स्थित होय ?-कोई जीव धर्म, अधर्म के धर्माधर्ममा बेसी शके ?-धर्म, अधर्म के धर्माधर्ममां स्थित होय एटले शु! पृ. ३२.-दंडकना क्रमथी नैरयिकादि सबन्धे पूर्वोक्त प्रश्न.- अन्य तीथिको.-बालपंडित अने बालसंबन्धे अन्यतीर्थिकोर्नु मन्तव्य.-पंडित, बालपंडित अने बाल. ते संबंधे नैरयिकादि दंडकना क्रमथी प्रश्न. पृ. ३३-'जीव अने जीवात्मा भिन्न छे' एवो अन्यतीर्थिकनो मत.-सशरीरी देवमा अरूपी रूप विकुर्ववाना सामर्थ्यनो अभाव अने तेनो हेतु. पृ० ३४-शरीररहित जीवमा रूपी आकार विकुर्ववाना सामर्थ्यनो अभाव भने तेनुं कारण. पृ. ३५. शतक १७ उद्देशक ३ पृ. ३५-३७. शैलेशी अवस्थाने प्राप्त. अनगार एजनादि क्रियानो अनुभव करे ?-एजनाना प्रकार.-द्रव्य एजनाना प्रकार. पृ. ३५.-नैरयिक द्रव्यएजना कहेयानुं कारण.-तिर्यंचादि द्रव्य एजना कहेवार्नु कारण.-क्षेत्र एजनाना प्रकार.-नैरयिकादि क्षेत्र एजना कहेवानुं कारण.-चलनाना प्रकार.-शरीरचलनाना प्रकार.-इन्द्रियचलनाना प्रकार.-योगचलनाना प्रकार-औदारिक शरीर चलना कहेवार्नु कारण, पृ. ३६-वैक्रियचलना कहेवार्नु कारण.-श्रोत्रंदियादिचलना कहेवाचं कारण.-मनोयोगचलना कहेवानुं कारण.-संवेगादिनुं फळ. पृ. ३७. शतक १७ उद्देशक ४ पृ. ३८-३९. प्राणातिपात वगेरे द्वारा थती क्रिया.-स्पृष्ट के अस्पृष्ट कर्म कराय ? मृषावादद्वारा थती क्रिया. क्षेत्रने आश्रयी कर्म.-प्रदेशने आश्रयी किया पृ. ३८.-दुःख आत्मकृत, परकृत के उभयकृत छ ?-वेदना आत्मकृत, परकृत के उभयकृत छे !-वेदनाना वेदनसंबन्धे प्रश्न. पृ० ३९. शतक १७ उद्देशक ५ पृ. ३९. ईशानेन्द्रनी सुधर्मा सभा इत्यादि संबन्धे प्रश्न. पृ० ३९.. शतक १७ उद्देशक ६ पृ. ४०. पृथिवीकायिक जीवो प्रथम उत्पन्न थायं अने पछी आहार करे के प्रथम आहार करे ने पछी उत्पन्न थाय इत्यादि प्रश्न. पृ. ४.. शतक १७ उद्देशक ७ पृ. ४१. जे पृथिवीकायिक सौधर्मकल्पमा मरण पामी पृथिवीकायपणे उत्पन्न थवानो छे ते प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे इत्यादि प्रश्न. पृ.४१. शतक १७ उद्देशक ८ पृ. ४१. 'जे अप्कायिक सौधर्मकल्पमा उत्पन्न थवाने योग्य छे' इत्यादि संबन्धे प्रश्न. पृ० ४१. शतक १७ उद्देशक ९ पृ. ४१. 'जे अप्कायिक धनोदधिवलयोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे' इत्यादि संबंधे प्रश्न. पृ. ४१. शतक १७ उद्देशक १० पृ. ४२. 'जे वायुकायिक सौधर्मकल्पमा उत्पन्न थवाने योग्य छे' इत्यादि संबंधे प्रश्न. पृ० ४२.. शतक १७ उद्देशक ११ पृ. ४२. 'जे वायुकायिक धनवातवलयो के तनुवातवलयोने विषे उत्पन्न थवाने योग्य छे' इत्यादि संबंधे प्रश्न. पृ. ४२. . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक १२ पृ. ४२. एकेन्द्रिय जीवो समान आहारवाळा छे इत्यादि प्रश्न.-एकेन्द्रियोने लेश्या. पृ. ४२.-लेश्यावाळा एकेन्द्रियो- अल्पबहुत्व-हेश्यावाळा एकेन्द्रियोगी ऋदिनु भरुपबहुत्व पृ. ४३. शतक १७ उद्देशक १३ पृ. ४३. बधा नागकुमारो समान आहारबाळा छे इत्यादि प्रश्न पृ० ४३. शतक १७ उद्देशक १४ पृ. ४३. सुवर्णकुमारो समान आहारवाळा छे इत्यादि प्रश्न पृ. ४३. शतक १७ उद्देशक १५ पृ. ४३. विद्युत्कुमार संबन्धे प्रश्न. पृ. ४३. शतक १७ उद्देशक १६ पृ. ४४. बधा वायुकुमारो समान साहारवाळा छे इत्यादि प्रश्न. पृ. ४४. शतक १७ उद्देशक १७ पृ. ४४. बधा भग्निकुमारो समान आहारघाळा छे इत्यादि प्रश्न. पृ. ४४. शतक १८ उद्देशक १ पृ. ४५. १जीवद्वार-जीव जीवभाव बडे प्रथम छ के अप्रथम ! पृ० ४५-२ आहारकद्वार-आहारक आहारभाव वडे प्रयम छे के अप्रथम !-एम अनाहारक संबंधे प्रश्न.-ए रीते ३ भवसिद्धिकद्वार-४ संज्ञीद्वार पृ. ४६.-५ लेश्याद्वार-६ दृष्टिद्वार-७ संयतद्वार-८ कषायद्वार-९ज्ञानद्वार १.योगद्वार-११ उपयोगद्वार-१२ वेदद्वार-१३ शरीरद्वार-अने १४ पर्याप्तद्वार.-चरम अने अचरम-१जीवद्वार-जीव जीवभाव वडे चरम के के अचरम ! पृ. ४८-ए रीते २ आहारकद्वार,-३ भवसिद्धिकद्वार,-४ संज्ञीद्वार,-५ लेश्याद्वार-६ दृष्टिद्वार पृ०४९-७ संयतद्वार-८ कषायद्वार-शानद्वार-१० योगद्वार-११ उपयोगद्वार-१२ वेदद्वार-१३ शरीरद्वार पृ०-५० अने १४ पर्याप्तद्वार. __ शतक १८ उद्देशक २ पृ. ५१-५३. कार्तिकशेठनो वृत्तान्त अने तेनो शक्रपणे उत्पाद पृ० ५१. शतक १८ उद्देशक ३ पृ ५३-५८. मार्कदिकपुत्र अनगारना प्रश्नो.-पृथिवी कायिक मनुष्य शरीर पामी तुरत सिद्ध थाय ? - एम अप्कायिक अने वनस्पतिकायिक संबंधे प्रश्न. पृ. ५४-निर्जरा पुद्गलो सर्वलोकव्यापी छे ?-छमस्थ निर्जरा पुद्गलोर्नु परस्पर भिन्नपणुं जुए? पृ० ५५ बन्धना ये प्रकार.-द्रव्यबन्धना बे प्रकार पृ. ५६-विनसाबन्ध अने प्रयोगबन्ध.-भावबन्धना बे प्रकार-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध,-पूर्व बांधला भने हवे पछी बंधावाना कर्मनी भिनता.-नैरयिकादिना कर्मबन्धनी भिन्नता.-आहाररूपे ग्रहण करेला पुदलोनो केटलो भाग प्रण थाय अने केटलो भाग छोडाय !-निर्जराना पुद्गलो उपर बेसवाने, यावत् सुवाने कोई समर्थ छे ? शतक १८ उद्देशक ४ पृ. ५८-६०. प्राणातिपातादि जीवना परिभोगमा आवे छे के नहि ? पृ० ५८.-कषायना चार प्रकार, कृतयुग्मादि चार राशिओ.-नैरयिकादि दंडकने भाश्रयी कृतयुग्मादि राविशनु अवतरण पृ. ५९. शतक १८ उद्देशक ५ पृ. ६०. बे असुरकुमार देवा एक दर्शनीय अने एक अदर्शनीय होवार्नु कारण, पृ० ६०- ए रीते नागकुमारादि संबन्धे प्रश्न.- नैरयिकोमा एक अप. कर्मवाळो अने एक महाकर्मवाळो उत्पन्न थवानो हेतु.-नरयिकने मरणसमये भा भवना के परभवना आयुषनो अनुभव होय ? पृ.६१देवोनी इष्ट अने अनिष्ट विकुर्वणा. शतक १८ उद्देशक ६ पृ. ६२-६३. गोळ वगेरे बादरस्कन्धना वर्णादि. पृ. ६२-भ्रमरना वर्णादि-पोपटनी पाखना वर्णादि.-परमाणुना वर्णादि.-द्विप्रदेशिक स्कन्ध.-त्रिप्रदेशिकादि स्कन्धो.-अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध. पृ. ६३. शतक १८ उद्देशक ७ पृ. ६४-७०. यक्षाविष्ट केवली सत्य के असत्य बोले ते संबन्धे अन्यतीथिंकनुं मन्तव्य.-उपधिना 'कर्म शरीर अने बायोपकरण' एत्रण प्रकार.-'सचित्त अचित्त अने मिश्र' ए उपधिना बीजा त्रण प्रकार. पृ. ६४-परिग्रहना प्रकार.-प्रणिधानना प्रकार.-दुष्प्रणिधानना प्रकार.-सुप्रणिधान. पृ. ६५-अन्यती थिंको अने मलुक श्रमणोपासक.-अन्यतीर्थिकोनो अस्तिकाय संबन्धे मट्ठक श्रावकने प्रश्न. पृ. ६६-महकनो प्रतिप्रश्नद्वारा उत्तर. पृ०६७–देवोर्नु वैकिय रूप करवानुं सामर्थ्य.-वैक्रिय शरीरनो जीव साथे संबन्ध.-तेना परस्पर अंतरनो जीवसाथे संबन्ध.-तेना परस्पर अंतरनो शनादिथी छेद थाय के नही?-देवासुरसंप्राम. पृ०६८-देवोनुं गमनसामर्थ्य-देवोना पुण्यकर्मना क्षयर्नु तारतम्य. पृ. ६९. . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८ उद्देशक ८ पृ. ७०-७२. ऐयोपथिक फर्मबन्ध-अन्यतीर्थिको अने भगवंत गौतमनो संवाद. पृ. ७०-छद्मस्थना ज्ञाननो विषय.-परमाणु, पृ० १-विप्रदेशिक स्कन्ध.-अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध,-अवधिज्ञाननो विषय.-ज्ञान भने दर्शनना समयनी भिन्नता पृ. ७२. शतक १८ उद्देशक ९ पृ. ७२-७३. भष्यद्रव्य नैरयिक छ ! अने ते शाथी कहेवाय छे?-पृ० ७२.-ए रीते भव्य द्रव्य पृथिवीकायिकादि संबंधे प्रश्न.-भव्यद्रव्य नैरयिकादिनी भायुष स्थिति. पृ. ७३. शतक १८ उद्देशक १० पृ. ७४-७७. अनगार वैक्रियलब्धिना सामर्थ्यथी तलवार के अस्त्रानी धार उपर रहे !-परमाणु वायुकायथी स्पृष्ट होय के वायुकाय परमाणुथी स्पृष्ट होय !एम द्विप्रदेशिकस्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध संबन्धे प्रश्न.-बस्ति वायुकायिकथी स्पृष्ट होय के वायुकाय बस्तिथी स्पृष्ट होय!-रमप्रभादि पृथिवी तथा सौधर्मादि देवलोकनी नीचेना द्रव्यो पृ. ७४.-सोमिलना प्रश्नो.-यात्रा, यापनीय, अव्याबाध अने प्रासुक विहार छे एवो भगवंतने प्रश्न.-यात्रा केवी रीते छ?-यापनीय केवी रीते छे ? पृ० ७५-यापनीयना बे प्रकार.-इन्द्रिययापनीय भने नोइन्द्रिययापनीयमो अर्थ.-अम्यावाध केवी रीते छे-प्रासुक बिहार केवी रीते छे-परिसव भक्ष्य के अभक्ष्य ? -माष भक्ष्य के अभक्ष्य !-कुलत्था भक्ष्य के अभक्ष्य ! एक छो के अनेक ! इत्यादि प्रक्ष पृ. ७७. शतक १९ उद्देशक १ पृ. ७९. पयाना प्रकार अने प्रज्ञापनानो लेश्या उद्देशक पृ. ७९. शतक १९ उद्देशक २ पृ. ८०. लेझ्याना प्रकार अने प्रज्ञापनानो गर्भउद्देशक पृ० ८०. शतक १९ उद्देशक ३ पृ. ८०-८६. १ स्याद्वार-कदाच बे अथवा अनेक पृथीवीकायिको एकठा मळी साधारण शरीर बांधे ? पछी आहार करे अने परिणमाये!-२ लेण्याद्वार, पृथिवीकायिकोने लेश्याओ.-ए रीते ३ दृष्टिद्वार पृ० ८०–४ ज्ञानद्वार, ५ योगद्वार, ६ उपयोगद्वार, ७ किमाहार, ८ प्राणातिपातादिमा स्थिति पृ० ८१९ उत्पातद्वार, १० स्थितिद्वार, ११ समुद्घातद्वार, १२ उद्वर्तनाद्वार कहेवा.-एम कदाच बे के अनेक अकायिक, अनिकायिक अने वनस्पतिकारिक संबंधे पण बार द्वार कहेवा.-पृथिवीकायिकादिनी अवगाहनानुं अल्पबहुत्व पृ. ८३-पृथिवीकायिकादिनी परस्पर सूक्ष्मता.-पृथिवीकायिकादिनुं परस्पर बादरपणुं. पृ. ८४-पृथिवीकायिकना शरीर- प्रमाण.-पृथिवीकायिकना शरीरनी अवगाहना-पृथिवीकायिकने केवी पीडा थाय ! पृ० ८५-अप्कायिकने केवी पीडा थाय ? ८६. शतक १९ उद्देशक ४ पृ. ८६. कदाच नैरयिको महास्रववाळा, महाक्रियावाळा, महावेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा होय ते संबंधी भंगो पृ० ८६. शतक १९ उद्देशक ५ पृ. ८८-८९. नैरयिको चरम-अल्पआयुषवाळा अने परम-अधिक आयुषवाळा होय ! पृ०८८-'चरम नैरयिको करतो परम नैरयिको महानववाळा, महाकिथाचाळा, महावेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा होय' इत्यादि प्रश्न.-ए रीते असुरकुमार संबन्धे प्रश्न.-वेदनाना 'निदा अने अनिदा'-ए थे प्रकार-नैरयिकोने कया प्रकारनी वेदना होय ? पृ० ८८. शतक १९ उद्देशक ६ पृ. ८९. द्वीप अने समुद्रो क्या, केटला अने केवा आकारवाळा छे ! पृ० ८९. शतक १९ उद्देशक ७ पृ० ८९. असुरकुमारना भवनावासो केटला अने केवा छे ?-ए रीते वानव्यंतरना नगरो केटला अने केवा छे ! -ज्योतिषिक अने कल्पना विमानावासो केटला भने केवा छे ! पृ. ८९. शतक १९ उद्देशक ८ पृ. ९०. जीवनिर्वृत्तिना प्रकार पृ. ९.-कर्मनिवृत्तिना प्रकार.-शरीरनित्तिना प्रकार.-सर्वेन्द्रियनिर्धत्तिना प्रकार.-पृथिवीकायिकने केटली इन्द्रियनिर्वृत्ति होय !-भाषानिर्वृत्तिना प्रकार.-मनोनिवृत्तिना प्रकार-कषायनिर्वृत्तिना प्रकार पृ. ९१.-वर्णनिर्वृत्ति-संस्थाननिर्वृत्ति-संज्ञानिवृत्ति-श्यानिवृत्तिरष्टिनिर्धति-ज्ञाननिर्वृत्ति-अज्ञाननिर्वृत्ति पृ. ९२. योगनिवृत्ति-उपयोगनिर्वृत्ति पृ. ९३. शतक १९ उद्देशक ९ पृ० ९३-९४. शारीरकरण.-इन्द्रियकरण पृ० १३-प्राणातिपातकरण.-पुद्गलकरण.--वर्णकरण.-संस्थानकरण पृ. ९४. शतक १९ उद्देशक १० पृ. ९४. 'बधा वानष्यन्तरो समान आहारवाळा होय छे'-इत्यादि प्रश्न. पृ. ९४. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक १ पृ० ९५-९७. बेइन्द्रियादि जीवोना शरीरवन्धनो क्रम-बेइन्द्रिय साधारण शरीर बांधे के प्रत्येक शरीर बांधे-तेओने लेश्या पृ. ९५.-ओमा 'भमे इए के अनिष्ट रसादिनो अनुभव करीए छीए' एवी संज्ञा अने प्रज्ञादिनो अभाव.-पंचेन्द्रिय साधारण के प्रत्येक शरीर बांध! पृ. १६-इन्द्रियाचिर्नु अल्पबहुत्व पृ० ९५. शतक २० उद्देशक २ पृ. ९७-९९. भाकाशना प्रकार.-'भोकाकाश जीवरूप छे, जीवदेशरूप छे' इत्यादि प्रश्न पृ० ९५.-अधोलोक धर्मास्तिकायना केटला भागने अवगाहीने रहेको ?-धर्मास्तिकायना केटलो अभिवचनो छ ?-अधर्मास्तिकायना अभिवचनो.-आकाशास्तिकायनां अभिवचनो.-जीवास्तिकायनो अभिवचनो. पृ. ९८. --पुद्गलास्तिकायना अभिवचनामचनो छ ?--अधर्मास्तिकायना अभिवादन ४० १५.- अधोलोक धर्मास्तिकायना .--आठ प्रदेशिका १४ भांगा.-सातप्रदेशमक स्कन्धमा वर्णादिने आया शतक २० उद्देशक ३ पृ. ९९. प्राणातिपातादि आत्मा सिवाय बीजे परिणमता नथी पृ. ९९. शतक २० उद्देशक ४ पृ. ९९. इन्द्रियोपचयना प्रकार पृ. ९९. शतक २० उद्देशक ५ पृ० १००-११२. परमाणुमा केटला वर्णादि होय छै!-द्विप्रदेशिक स्कन्धा परमाणुमा का पास..MARA केटला वर्णादि होय !-द्विप्रदेशिक स्कन्धना ४२ भांगायो पृ० १.१.-त्रिप्रदेशिक TRAINS स्कन्धमा केटला वर्णादि होय ! पृ० १.१-चतुःप्रदेशिक स्कन्धना भांगाओ पृ. १०२.-वर्णने आश्रयी ९० भागाओ.-रसने आश्रयी ९. भांगाओ TIR पृ.१०३.-चतुष्प्रदेशिक स्कन्धना २२२ भागाओ.-पांच प्रदेशिक स्कन्ध पृ० १०४-पंचप्रदेशिक स्कन्धमा वर्णादिने आश्रयी ३२४ भौगाओ.-. प्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिना भोगायो पृ० १०५.-छ प्रदेशिक स्कन्धना ४१४ भांगा.-सातप्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिना भांगाओ पृ० १०६.-सात प्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिने आश्रयी ४७४ भांगा.-आठ प्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिना भांगा-अष्ट प्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिने आश्रयी ६०४ भागा पृ. १०७.-नव प्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिना भंगो.-नव प्रदेशिक स्कन्धमा वर्णादिने आश्रयी ५१४ भंगो.-दश प्रदेशिक स्कन्धना वर्णादिना भंगो.-दश प्रदेशिक स्कन्धना ५१६ भंगो.-अनंत प्रदेशिक स्थूल परिणामवाळा स्कन्धना वर्णादिना भंगो पृ.१०८.-पांच स्पर्शना भंग-छ स्पर्शना भंगो पृ. १०९.- सात स्पर्शना भंगो पृ० ११०.-आठ स्पर्शना भंगो.-बादर स्कन्धना स्पर्शने आश्रयी १२९६ भंगो.-परमाणुना चार प्रकार.-व्यपरमाणुना प्रकार.-क्षेत्रपरमाणुना प्रकार पृ० १११.-काळपरमाणुना प्रकार.-भावपरमाणुना प्रकार पृ० ११२. शतक २० उद्देशक ६ पृ० ११२-११४. 'जे पृथिवीकायिक जीव रमप्रभा भने शर्कराप्रभानी घचे मरणसमुद्धात करीने सौधर्मदेवलोकमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न यवाने योग्य छे ते पूर्व उत्पन थाथ अने पछी आहार करे' इत्यादि प्रश्न पृ० ११२-ए रीते अप्कायिक भने घायुकादिक संवन्ने प्रश्न जाणवो पृ. ११४. शतक २० उद्देशक ७ पृ. ११४-११६. कर्मवन्ध पृ.११४.-शानावरणीय कर्मनो बन्ध.-शानावरणीयोदय कर्मनो बन्ध.-स्त्रीवेदनो बन्ध.-दर्शननोहनीय कर्मनो बन्ध. शतक २० उद्देशक ८ पृ. ११६-११८. कर्मभूमिना प्रकार.-अकर्मभूमिना प्रकार.-अकर्मभूमिमां उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीरूप काळ होय!-भरत अने ऐवतमा उत्सर्पिणी अने अबसपिणीरूप काळ होय!-काळ.-अरहंतो महाविदेहमा पाँच महाप्रतरूप धर्मनो उपदेश करे!-भारतवर्षमा केटला तीर्थकरो.होय ! पृ.११६-चोवीश जिना अंतरो.-कालिक धुतनो विच्छेद अने अविच्छेद.-पूर्वगत श्रुतमी स्थिति.-तीर्थनी स्थिति.-भावी छल्ला तीर्थकरना तीर्थनी स्थिति.-तीर्थ भने तीर्थकर-पृ.११-प्रवचन भने प्रवचनी-उप्र वगेरे क्षत्रियोनो धर्ममा प्रवेश.-देवलोकना प्रकार पृ. ११८. शतक २० उद्देशक ९ पृ० ११८-१२०. चारण मुनिना प्रकार भने तेनु सामर्थ्य -विद्याचारण कहेवानुं कारण.-विद्याचारणनी शीघ्र गति. पृ. ११८-विद्या चारणनी तिर्यग्गतिनो विषय.-विद्या चारणनी ऊभ्यंगतिनो विषय.-जंघाचारण शाथी कहेवाय छ ? -जंघाचारणनी गति-संचाचारणनो तिर्यगूगतिविषय पृ. ११९.-जंघाचारणनो ऊर्चगतिविषय पृ. १२०. शतक २० उद्देशक १० पृ० १२०. सोपक्रम अने निरुपक्रम भायुष.-नैरयिकोनो उत्पाद आत्मोपक्रम, परोपक्रम अने निरुपक्रमथी थाय छे! पृ० १२०–नेरयिकोनी उद्वर्तना आत्मोपक्रमथी परोपक्रमथी के निरुपक्रमथी थाय छे ?-नैरयिकोनो उत्पाद आत्मशक्तिथी के परनी शक्तिथी!-नरयिकोनी उत्पत्ति खकर्मथी के अन्यना कर्मथी ! नैरयिकोनी उत्पत्ति आत्मप्रयोगथी के परप्रयोगथी?-नैरयिको कतिसंचित, अकतिसंचित के अवक्तव्यसंचित होय छे!-नैरयिको कतिसंचितादि होय तेनुं कारण पृ. १२१-पृथिवीकायिकादि अने सिद्धो कतिसंचित छ ?-नैरयिकोने आश्रयी कतिसंचितादि अल्पबहुत्व.-सिद्धोने आश्रयी कतिसंचितादिनुं भक्पबहुत्व.-नैरयिकोने आश्रयी षट्कसमर्जितादि पृ० १२२-पृथिवीकायिकादिने आश्रयी षट्कसमर्जितादि.-नैरयिकादिने आश्रयी षट्कसमर्जितादिनु अल्पबहुत्व.-पृथिवीकायिकादिने आश्रयी अल्पबहुत्व पृ० १२३-सिद्धोने आश्रयी अपबहुत्व-नैरयिका दिने आश्रयी द्वादशसमर्जितादि.-पृथिवीकायिकोने माश्रयी द्वादशसमर्जितादि पृ० १२४.-नैरयिकादिने भाषयी द्वादशसमर्जितादिनु अल्पबहुत्व-नैरयिकादिने आश्रयी चोराशीसमर्जित.-सिद्धने माश्रयी चोराशीसमर्जितादि पृ० १२५-चोरासी समर्जितादिनुं अल्पबहुत्व.-पृ. १२६. . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शतक २१ पृ० १२७-१३१. प्रथमवर्ग — शाल्यादि धान्यना मूळ तरीके जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ?- उत्पाद - एक समये केटला जीवो उपजे ? पृ० १२७ - अवगाहना - कर्मना बन्धक. - लेश्या - शाल्यादिना मूळपणे जीवनी स्थिति - शास्यादि अने पृथिवीकायिकनो संवेध. - शाल्यादिना मूळपणे सर्व जीवोनो उत्पाद पृ० १२८ - द्वितीय वर्ग - कलाय वगेरे धान्यना कन्दरूपे जीवो क्यांथी आवीने उपजे छ ? तृतीय वर्ग-अळसी वगेरेना मूळपणे जीवो क्यांथी आवी उपजे १९ वर्ग यांस बोरे वनस्पतिना मूळपणे जीनो यांची आगी उपजे - पांचो वर्गोरे पान क्याची भावी उपने वर्ग हेडिय मंतिय वगेरे पतिना जीयो क्यांची आतीने उपजे १३० सातमो वर्गादिना मूळपणे जीयो क्यांची आवीने उत्पन थाय छे ? - अष्टम वर्ग-तुलसी वगेरे हरित वर्गना मूळपणे जीवो क्यांथी आदीने उपजे छे ? पृ० १३१. शतक २२ पृ० १३३-१३५. प्रथमवर्ग — ताड वगेरे वलयवर्गना मूळपणे जीवो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ? पृ० १३२. – द्वितीय वर्ग - लीमडा वगेरे एकास्थिक वर्गना मूळपणे घोक्यांथी आवीने उपजे छे ? - तृतीय वर्ग - अगस्तिक वगेरे बहुबीज वर्गना मूळपणे जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ? पृ० १३३. - चतुर्थं वर्गगण वगेरे गुच्छवर्गना मूळपणे जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ?--पंचम वर्ग - सिरियक वगेरे गुल्मवर्गना मूळपणे जीवो यांथी आवीने उपजे छे ?— वर्गफली बगेरे वर्गाची आवीने उपजे २०१३५. प्रथमवर्ग – आलु वगेरे साधारण वनस्पतिना मूळपणे पतिनाची आमीने उत्पन्न वा छे ! वर्गना मूळपणे जीवा क्यांथी आवीने उपजे छे ? पृ० १३७. शतक २४ उद्देशक १ पृ० १३९ - १५६. -- नैको क्याथी आवीने उपजे !-तिर्यंचोनो नैरयिकोमां उपपात पृ० १३९ - पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनो नारकोमां उपपात. असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोनो नारकोमा उपपात - पयाप्ता असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो नारकोमा उपपात – असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो केटली नरकपृथिवी सुधी उत्पन्न थाय ? ---केटला आयुषवाळा नारकमा असशी तियंचो आवीने उपजे ? - २ परिमाण - असंज्ञी पं० तिर्यंचो रत्नप्रभामां एक समये केटला उपजे ? - ३ तेओना संघयण. - १४ शरीरनी अवगाहना.-५ संस्थान पृ० १४०६ लेश्या. - ७ दृष्टि2-८ ज्ञान अने अज्ञान. ९ योग- १० उपयोग. ११ संज्ञा १२ कषाय. - १३ इन्द्रिय- १४ समुद्रात - १५ वेदना पृ० १४१ – १६ वेद – १७ आयुष - १८ अध्यवसाय. १९ अनुबंध. २० काय संवेध.-- २ असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो जघन्य आयुषवाळा रत्नप्रभा नारकमां उपपात - तेओना परिमाणादिद्वारो पृ० १४२ - ३ कायसंवेध - असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो उत्कृष्टस्थिति रत्नप्रभानारकमां उपपात परिमाणादि. काय संबंध.-४ जघन्य स्थितिवाळा अशी तियंचनो रत्नप्रभामां उपपात - परिमाणादि पृ० १४३. काय संवेध. – ५ जघन्य असंज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यचनो जघन्य रत्नप्रभा नैरयिकमां उपपात — परिमाणादि कायसंवेध - ६ जघन्य असंज्ञी वियंचनी उत्कृष्ट रत्नप्रभा नैरयिकमां उत्पत्ति - परिमाणादि. - काय संवेध पृ० १४४. ७ उत्कृष्ट० असंज्ञी तिर्यचनी रत्नप्रभा नारकमां उत्पत्ति — परिमानादि --- काय संवेध.-८ उत्कृष्ट असंज्ञी तियंचनी जघन्य रत्नप्रभानारकमा उत्पत्ति परिमाणादि. फायसंवेध. ९ उत्कृष्ट असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी उत्कृष्ट • रत्नप्रभानारकमा उत्पत्ति पृ० १४५. परिमाणादि कायसंवेध. – संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो नारकमां उपपात - संख्याता • संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनो नाकमां उपपात. – पर्याप्त संख्याता • संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो नारकमां उपपात. - संख्याता संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनो रत्नप्रभा नारकमां उपगत परिमाण. संघयण संस्थान - लेश्या दृष्टि ज्ञान अने अज्ञान काय संवेध. संख्याता० संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचनी जघन्य रत्नप्रभानारकमां उत्पत्ति. - परिमाण पृ० १४७ - जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी रत्नप्रभानारकमा उत्पत्ति – परिमाण - जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचनी जघन्य रत्नप्रभा नारकर्मा उत्पत्ति - परिमाण. - जघन्य० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी उत्कृष्ट रत्नप्रभा नारकमा उत्पत्ति - उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचनी उत्कृष्ट रत्नप्रभानारकमां उत्पत्ति पृ० १४८. - उत्कृष्ट संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी जघन्य रत्नप्रभानारकमां उत्पत्तिरिमाण. - उत्कृष्ट • संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यं बनी उत्कृष्ट० रत्नप्रभानारकमां उत्पत्ति. - परिमाणादि. - संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी शर्कराप्रभामां उत्पति - परिमाणादि पृ० १४९. सख्याता संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो सप्तम नरकमां उपपात -संज्ञी तिर्यचनी जघन्य० सप्तम नरकपृथिवीना नारकमां उत्पत्ति. - संज्ञी पंचेन्द्रिय विर्यचना उत्कृष्ट सप्तम नरकम उपपात पृ० १५० - जघन्य० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी सप्तम नरकमां उत्पत्ति - जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यं वनो अघन्य सप्तम नरकमां उपपात जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो उत्कृष्ट • सप्तम नरकमां उपपात. उत्कृष्ट० संज्ञी० पंचेन्द्रिय तिर्यचनी सप्तम नरकमां उत्पत्ति. - परिमाण. - उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी जघन्य सप्तम नरकम उत्पत्ति - उत्कृष्ट० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी उत्कृष्ट सप्तम नरकम उत्पति पृ० १५१. - संज्ञी मनुष्योनो नरकमां उपपात - संख्याता० संज्ञी मनुष्योनी नारकपणे उत्पत्ति - पर्याप्ता मनुष्योनी नारकपणे उत्पत्ति. - संख्याता• सं० पं० मनुष्य केटली नरक पृथिवीमां उत्पन्न धाय ? - संख्याता मनुष्यनो रत्नप्रभानारकपणे उपपात परिमाण एक समये केटला उत्पन्न थाय ? पृ० १५२ -२ संज्ञी मनुष्यनी जघन्य रत्नप्रभानारकमां उत्पति ३ संज्ञी मनुष्यनी उत्कृष्ट० रत्नप्रभानैरयिकमां उत्पत्ति - - ४ जघन्य संज्ञी मनुष्यनी रत्नप्रभामा उत्पत्ति - ५ जघन्य मनुष्यनी जघन्य ० रत्नप्रभामां उत्पत्ति - ६ जघन्य मनुष्यनी उत्कृष्ट रत्नप्रभामां उत्पत्ति पृ० १५३.७ उत्कृष्ट ० मनुष्यनी रत्नप्रभामां उत्पत्ति - उत्कृष्ट मनुष्यनी जघन्य० रत्नप्रभामां उत्पत्ति - मनुष्यनी उत्कृष्ट० रत्नप्रभामां उत्पत्ति - मनुष्यनी शर्कर प्रभामां उत्पत्ति - परिमाण. - एक समये केटला उत्पन्न थाय ? - २ जघन्य मनुष्यनी शर्कराप्रभामां उत्पत्ति पृ० १५४.३ उत्कृष्ट० मनुष्यनी शर्कराप्रभामां उत्पत्ति - ए प्रमाणे छट्ठी नरकपृथिवी सुधी जाणवु. १ संख्याता० संज्ञी मनुष्यनी सप्तम नरकमां उत्पत्ति परिमाण. - २ मनुष्यनी जघन्य सप्तम नरकमां उत्पत्ति. - ३ मनुष्यनी उत्कृष्ट० सप्तम नरकमां उत्पत्तिः- जघन्य मनुष्यनी सप्तम नरकमां उत्पत्ति - उत्कृष्ट मनुष्यनी सप्तम नरकमां उत्पत्ति - पृ० १५६. ० 0 ० O शतक २३ पृ० १३६-१३८. जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ? पृ० १३६ – द्वितीय वर्ग-लोही वगैरे अनन्तकायिक बन वृतीय वर्ग आयकावादि वर्तनामुपणे जीवोक्यांची आमीने उपजे वर्ग-पास माषपण आदि बल्लिवर्गना मूळपणे जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ? पृ० १३८. ० -- ० - - - ० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक २ पृ. १५६-१६० असुरकुमारमा उपपात. असंशी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति.-परिमाण.-एक समये केटला उत्पन्न थाय ! पृ. १५६.-संझी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति-असंख्याता० संझी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति.-परिमाण.-२ असंख्या. सं. पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य असुरकुमारमा उत्पत्ति. ३ असंख्या० सं०पं० तिर्यंचनी उत्कृष्ट असुरकुमारमा उत्पत्ति पृ. १५७.-जघन्य. असंख्याता. संधी पं. तिर्यचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति-परिमाणादि.-असंख्यात. सं. पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य असुरकुमारमा उत्पत्ति.-असंख्यात० सं०पंचेन्द्रिय तिर्यचनी उत्कृष्ट० असुरकुमारमा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट. असंख्यात. सं. पं० तिर्यचनी असुरमारमा उत्पत्ति-उत्कृष्ट. असंख्यात. सं. पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य. असुरकुमारमा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट० असंख्यात. सं. पं० तिर्यंचनी उत्कृष्ट. असुरकुमारमा उत्पत्ति.-संख्यात. संशी पं. तिर्यचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति पृ० १५८.-परिमाण.-मनुष्योनी असुरकुमारोमा उत्पत्ति.-संज्ञी मनुष्योनो असुरकुमारमा उपपात.-असंख्यात० सं० मनुष्यनी असुरकुमारोमा उत्पत्ति.-जघन्य संशी पं० मनुष्यनी असुरकुमारमा उत्पत्ति पृ. १५९.-उत्कृष्ट संझी मनुष्यनी असुरकुमारमा उत्पत्ति.-संख्यात. संज्ञी मनुष्यनी असुरकुमारमा उत्पत्ति.-परिमाणादि. पृ. १६०. शतक २४ उद्देशक ३-११ पृ० १६०-१६२. नागकुमारमा उपपात.-संज्ञी पं० तिर्यचनी नागकुमारमा उत्पत्ति-असंख्यात० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य नागकुमारमा उत्पत्ति.-असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी उत्कृष्ट नागकुमारमा उत्पत्ति.-जघन्य. असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी नागकुमारमा उत्पत्ति-उत्कृष्ट. असं. ख्यात. सं० पंचेन्द्रिय तिर्यचनी नागकुमारमा उत्पत्ति.-पर्याप्त संख्यात. संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यचनी नागकुमारमा उत्पत्ति पृ० १६१.-संज्ञी पं० मनुप्यनी नागकुमारमा उत्पत्ति.-असंख्यवर्षीय संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यनी नागकुमारमा उत्पत्ति -जघन्य असंख्यात. संज्ञी पं० मनुष्यनी नागकुमारा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट• असंख्यात. सं. पं मनुष्यनी नागकुमारमा उत्पत्ति.-संख्यातवर्षीय संज्ञी पं० मनुष्योनी नागकुमारमा उत्पत्ति पृ० १६२. शतक २४ उद्देशक ४-११ पृ० १६३. सुवर्णकुमारथी मांडी स्तनितकुमार सुधीना आठे उद्देशको नागकुमारोनी पेठे कहेवा... शतक २४ उद्देशक १२ पृ. १६३-१७३. पृथिवीकायिकोनो उपपात.-तिर्यचोनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ० १६३.-परिमाणादि-कायसंवेध.-पृथिवीकायिकनी जघन्य. पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-पृथिवीकायिकनी उत्कृष्ट० पृथिवीकायिका उत्पत्ति पृ० १६४-जघन्य. पृथिवीकायिकनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-जघन्य. पृथिवी कायिकनी जघन्य पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-जघन्य. पृथिवी कायिकनी उत्कृष्ट० पृथिवी कायिका उत्पत्ति.-उस्कृष्ट पृथिवीकायिकनी पृथिबीकायिकमा उत्पत्ति,-उत्कृष्ट पृथिवीकायिकनी जघन्य पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट• पृथिवीकायिकनी उत्कृष्ट• पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.अप्कायिकमा पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ. १६५.-तेजःकायिकनी पृथिवी कायिकमा उत्पत्ति-वायुकायिकनी पृथिवीकायिकर्मा उत्पत्ति.-वनस्पति कायिकोनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ० १६६-बेइन्द्रियनी पृथिवी कायिकमा उत्पत्ति.-परिमाणादि.-बेइन्द्रियनी जघन्य पृथिवीकायिका उत्पत्ति.बेइन्द्रियनी उत्कृष्ट० पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ० १६७.-जघन्य. बेइन्द्रियनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट० बेइन्द्रियनी पृथिवीकायिका उत्पत्ति.-तेइन्द्रियनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-चउरिन्द्रयनी पृथिवीकायिका उत्पत्ति पृ० १६८.-पंचेन्द्रिय तिर्यचनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.भसंज्ञी तिर्यंचनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-परिमाणपादि.-संज्ञी पं० तिर्यचनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ. १६९-मनुष्योनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.--असंज्ञी मनुष्योनी पृथिवीकायिकोमा उत्पत्ति.- संज्ञी पं० मनुष्योनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ. १७०-परिमाणादि.-देवोनी पृथिवीकायिकोमा उत्पत्ति.-भवनपति देवोनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति.-असुरकुमारनी पृथिवीक यिका उत्पत्ति.-परिमाण.-संघयण पृ० १७१-शरीरनी उंचाई.-संस्थान.-नागकुमारनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ० १७२.-वानव्यंतरोनी पृथिवीकायिका उत्पत्ति.-ज्योतिष्क देवनी पृथिवीकायिकर्मा उत्पत्ति.-वैमानिक देवोनी पृथिवीकायिकमा उत्पत्ति पृ. १५३. शतक २४ उद्देशक १३-१९ पृ. १७३-१७६. अप्कायिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय! पृ. १७४.-उद्देशक १४-तेजस्कायिको क्याथी आवी उत्पन्नधाय ! पृ. १७४-उद्देशक १५ वायुकायिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय ? पृ० १५५.-उद्देशक १६-वनसतिकायिक संबन्धे प्रश्न पृ० १७५.-उद्देशक १५-बेइन्द्रिय जीवो क्याथी आवी सत्पन्न पाय छे ? पृ.१७५.-उद्देशक १८-तेइन्द्रियनी उत्पत्ति संबन्धे प्रश्न पृ. १७६.--उद्देशक १९-चउरिन्द्रियनी उत्पत्ति संपन्धे प्रश्न पृ०.१७६. शतक २४ उद्देशक २० पृ. १७७-१८५. पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकनी उत्पत्ति.-नैरयिकोनी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-रत्नप्रभानरयिकोनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.-परिमाण.शरीर.-रत्नप्रभानैरयिकनी जघन्य. पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति पृ. १७७.-शर्कराप्रभानारकनी पचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.-सप्तम नरकपृथिवीन नैरयिकनी पंचेन्द्रिय तियेचमा उत्पत्ति पृ० १७८.-पृथिवीकायिकनी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.–परिमाण.-अप्कायिकोनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमा उत्पत्ति.पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनी पंचेन्द्रिय तिर्यचोमा उत्पत्ति.- असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी संज्ञी पंचेन्द्रिय पं० तिर्यचमा उत्पत्ति.-उत्पातपरिमाण पृ. १७९.भसंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्यचां उत्पत्ति.-जघन्य असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियेचनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-असंज्ञी पंचे. न्द्रिय तिर्यचनी जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति. असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंचनी उत्कृष्ट • संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचमा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तियेचा उत्पत्ति.- उत्कृष्ट असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति पृ० १८०.-उत्कृष्ट. असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-१ संज्ञी पचेन्द्रिय तिचंचनी संज्ञो पचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.–परिमाणादि.-२ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-३ संज्ञी पचे न्दय तिर्यचनी उत्कृष्ट• संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति पृ. १८१.-४ जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्थचा उत्पत्ति.-७ उत्कृष्ट• संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.-८ उत्कृष्ट० संज्ञी . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचेन्द्रिय तिर्यचनी जघन्य संशी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-उत्कृष्ट• संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तियचा उत्पत्ति.-मनुष्योनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति. असंज्ञी मनुष्योनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति १८२.-१ संज्ञी मनुष्योनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.परिमाणादि.-२ संज्ञी मनुष्यनी जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-३ संज्ञी मनुष्यनी उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमी उत्पत्ति. पृ. १८३.-1 जपन्य सही मनुष्यनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-७ जघन्य. सं. मनुष्यनी ज० सं० पं० तिर्यंचा उत्पत्ति.-८ उत्कृष्ट संशी मनुष्यनी सही पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.-९ उत्कृष्ट संशी मनुष्यनी उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तियचा उत्पत्ति.-देवोनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोमा उत्पत्ति.-असुरकुमार भवनवासी देवोनो संज्ञी पंचेन्द्रिय विर्यचोमा उपपात. पृ०-१८४.-नागकुमारनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति-वानन्यंतरोनी संशी पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पत्ति.-ज्योतिषिकोनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति.-वैमानिक देवोनी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचर्मा उत्पत्ति.-सौधर्मथी सहनारपर्यंत देवोनी संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंचा उत्पत्ति पृ० १८५. शतक २४ उद्देशक २१ पृ. १८६-१९०. मनुष्यमा उपपात.-रमप्रभा नेरयिकनो मनुष्यमा उपपात.-तिर्यंचयोनिकनो मनुष्यमा उपपात पृ. १८६.-पृथिवीकायिकोनो मनुष्यमा उपपात.-अप्कायिकनो मनुष्यमा उपपात.-देवोनो मनुष्यमा उपपात.-भवनवासी देवोनो मनुष्यमा उपपात.-असुरकुमारादि देवोनो मनुष्यमा उपपात पृ. १८७.-यावत् सहस्रार देवोनो मनुष्यमा उपपात.-भानत देवोनो मनुष्यमा उपपात.-परिमाणादि.-कल्पातीत देवोनो मनुष्यमा उपपात.-प्रैवेयक देवोनो मनुष्यमा उपपात पृ. १८८.-अनुत्तरौपपातिक देवोनो मनुष्यमा उपपात.-सर्वार्थसिद्ध देवोनो मनुष्यमा उपपात पृ० १८९.-सर्वार्थसिद्ध देवनो जघन्य० मनुष्यमा उपपात.-सर्वार्थसिद्ध देवनो उत्कृष्ट मनुष्यमा उपपात पृ० १९०. शतक २४ उद्देशक २२ पृ० १९०-१९१. व्यंतर देवोमा उपपात.-असंख्याता. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो वानन्यन्तरमा उपपात.-असंख्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तियेचनी जघन्य. बामव्यन्तरमा उत्पत्ति पृ० १९..-असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी उत्कृष्ट वानव्यंतरमा उत्पत्ति.-असंख्याता• मनुष्योनो वानव्यंतरमा उपपात पृ. १९१. शतक २४ उद्देशक २३ पृ. १९१-१९३. ज्योतिषिकमा उपपाप्त.-संज्ञी पंचेन्द्रिय तियं चनो ज्योतिषिका उपपात.-असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनो ज्योतिषिका उपपात पृ० १९१. -असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो ज्योतिषिकमा उपपात.-जघन्य• असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोनो ज्योतिषिकमा उपपात. असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनी उपपातसंख्या.-असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो ज्योतिषिकमा उपपात.-संख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोनो ज्योतिषिकमा उपपात पृ० १९९.-मनुष्योनो ज्योतिषिकमा उपपात.-संख्याता संशी मनुष्योनो ज्योतिषिकमा उपपात पृ० १९३. शतक २४ उद्देशक २४ पृ० १९३-१९७. वैमानिकोमा उपपात.-असंख्यात. संशी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो सौधर्म देवलोकमा उपपात.-परिमाणादि पृ० १९३.-असंख्यात. संक्षी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकनो जघन्य सौधर्म देवलोकमा उपपात.-असंख्यात. संशी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी उत्कृष्ट सौधर्म देवलोकमा उत्पत्ति-जघन्य. असंख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो सौधर्म देवलोकमा उपपात.-उत्कृष्ट असंख्यात. संशी पंचेन्द्रिय तिर्यचनो सौधर्म देवलोकमा उपपात.-संख्यात संज्ञी पंचे. न्द्रिय तिर्यचनो सौधर्म देवलोका उपपात.-मनुष्योनो सौधर्म देवलोकमा उपपात पृ० १९४.--संख्यात. संज्ञी मनुष्योनो सोधर्म देवलोकमा उपपात.ईशान देवोनो उपपात.-संख्यात० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचो अने मनुष्योनो ईशान देवलोकमा उपपात.-सनत्कुमार देवोनो उपपात.-संख्यात. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्थचनो सनत्कुमारमा उपपात पृ० १९५.-मनुष्योनो सनत्कुमारमा उपपात.-माहेन्द्र देवोनो उपपात.-आनत देवोनो उपपात.-अवेयकोनो उपपात.-विजयादिनो उपपात पृ० १९६.-सर्वार्थसिद्ध देवोमा उपपात.-जघन्य. संज्ञी मनुष्यनो सर्वार्थसिद्ध देवोर्मा उपपात.-उत्कृष्ट संज्ञी मनुष्यनो सर्वार्थसिद्धमा उपपात पृ० १९७. शतक २५ उद्देशक १ पृ० १९८-२०१. लेझ्या.-संसारी जीवना चौद मेद पृ० १९८.-योग- अल्पबहुत्व पृ० १९९.-प्रथम समयमा उत्पन्न थयेला बे नैरयिकने आश्रयी योग.योगमा प्रकार.-योगर्नु अरुपबहुत्व पृ० २०१. __ शतक २५ उद्देशक २ पृ. २०१-२०३. द्रव्यना प्रकार.-अजीव द्रव्योना प्रकार.-जीवद्रव्यनी संख्या.-जीवद्रव्यो अनंत होवार्नु कारण !-अजीव द्रव्योनो परिभोग पृ. २०१.-नैरयिकोने अजीव द्रव्योनो परिभोग.-असंख्य लोकाकाशमा अनंत द्रव्योनी स्थिति.-एक आकाश प्रदेशमा पुद्गलोनो चयापचय.-औदारिकादि शरीररूपे स्थित के अस्थित द्रव्यो ग्रहण कराय!-द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी द्रव्यग्रहण पृ० २०३. शतक २५ उद्देशक ३ पृ. २०४-२१५. संस्थान.-परिमंडलनी संख्या.-वृत्तादिनी संख्या.-अल्पवहुत्व.--द्रव्यार्थरूपे संस्थान पृ० २०४.-परिमंडलनी संख्या.-वृत्तनी संख्या.-रनप्रभामा परिमंडल संस्थानो.-वृत्त संस्थान.-शर्कराप्रभामा परिमंडल संस्थान.-अवेयक विमानमा परिमंडल संस्थान.-यवमध्यक्षेत्रमा बीजा परिमंडल संस्थानो.-वृत्त संस्थानो पृ. २०५.-वृत्त संस्थान साथे परिमंडलादिनो संबन्ध.-रत्नप्रभामा परिमंडलादि संस्थानो.-वृत्त संस्थान केटला प्रदेशवाळु अने केटला प्रदेशमा अवगाढ होय ? पृ० २०६.-त्र्यससंस्थान केटला प्रदेशवालुं भने केटला आकाश प्रदेशमा अवगाढ होय ?–चतुरस्र संस्थान केटला प्रदेशवाळू अने केटला प्रदेशमा अवगाढ होय?-आयत संस्थान केटला प्रदेशवाळु अने केटला आकाश प्रदेशमा अवगाढ होय ? पृ. २०७.-परिमंडल संस्थान केटला प्रदेशयालु अने केटला आकाश प्रदेशमा अवगाढ होय?-परिमंडलादि संस्थाननी कृतयुग्मादिरूपता पृ० २०८.-परिमंडलादि संस्थाननी कृतयु. Jain Education international Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा अल्पबहुत्व.--असंख्यातप्रदाशन अल्पबहुत्व. दशप्रदेशकाण काळा पुद्गलो.- परमावधी सकम्प होय .. ४० २२३. परमायस्थितिबाळा मुद्गलो अल्पबहुत्व.-प्रदेशावगाट ए अल्पबहुत्व.---परमाण मानबहुल.- संख्यातप्रदेशित अल्पबहुत्व. पृ० २२ ग्मादिरूपता.-परिमंडलादि संस्थाननी प्रदेशरूपे कृतयुग्मादिरूपता.-परिमंडलादि संस्थानो प्रदेशरूपे शुं कृतयुग्मादिरूप छे?-परिमंडल संस्थान केटला प्रदेशावगाढ होय !-वृत्तसंस्थान, व्यससंस्थान, चतुरनसंस्थान, आयतसंस्थान पृ० २०९.-परिमंडलसंस्थानो.-वृत्तसंस्थानो.-व्यसंस्थानो.-चतुरस्त्रसंस्थानो.-आयतसंस्थानो.-परिमंडलसंस्थाननी स्थिति. परिमंडलसंस्थानोनी स्थिति.-परिमंडलादि संस्थानना वर्णादि पर्यायो पृ० २१०.-द्रव्यरूपे आकाशप्रदेशनी श्रेणियोनी संख्या. लोकाकाशनी श्रेणिओ.-अलोकाकाशनी श्रेणिओ.-आकाशश्रेणिनी प्रदेशरूपे संख्या पृ० २११.-अलोकनी श्रेणि.-लोकाकाशश्रेणिओ अने सादि सपर्यवसितादि भंग.-अलोकाकाशनी श्रेणिओ संबंधे सादि सपर्यवसितादि भांगा पृ० २१२.-आकाशनी श्रेणिो द्रव्यरूपे कृतयुग्मादिरूप छे?-प्रदेशरूपे कृतयुग्मादिरूप छे? लोकाकाशनी श्रेणिओ.-ऊवं अने अधो लांबी श्रेणिओ.-अलोकाकाशनी श्रेणिओ.श्रेणिना सात प्रकार पृ. २१३.-परमाणुनी गति.-द्विप्रदेशिक स्कन्ध.-नैरयिकोनी गति.-नरकावास.-आचारांगादि अंगनी प्ररूपणा.-पांच गतिर्नु अल्पबहुत्व.-आठ गतिर्नु अल्पबहुत्व.-सेन्द्रियादि जीवोनुं अरुपबहुत्व पृ० २१४.-जीव-पुद्गलोना सर्व पर्यायो- अल्पबहुत्व.-आयुषकर्मना बन्धक अने अवन्धक इत्यादिनुं अल्पबहुत्व पृ० २१५. शतक २५ उद्देशक ४ पृ. २१५-२३५. युग्मना प्रकार.-नैरयिकोमा केटला युग्मो होय !-वनस्पतिकायिकमां कृतयुग्मादि राशि- अवतरण पृ० २१५.-द्रव्यना प्रकार.-धर्मास्ति कायादि द्रव्यमा कृतयुग्मादि राशिनु भवतरण.-जीवास्तिकाय द्रव्यरूपे शुं होय !-पुद्गलास्तिकायमां कृतयुग्मादिनु अवतरण.-धर्मास्तिकायना प्रदेशो.-धर्मास्तिकायादिनुं अल्पबहुत्व.-धर्मास्तिकाय अवगाढ छे के अनवगाढ?-लोकाकाशमां अवगाढता पृ. २१६.-असंख्यात प्रदेशमा अवगाढता.-रत्नप्रभानी अवगाढता.-जीवद्रव्यमा कृतयुग्मादिनी प्ररूपणा.-नैरयिकोमां कृतयुग्मादि राशिओनुं अवतरण.-जीवप्रदेशोमां कृतयुग्मादि राशिओ.-सिद्धोमां कृतयुग्मादिनो समवतार पृ० २१५.-जीवोमा प्रदेशापेक्षाए कृतयुग्मादि राशिओ.-सिद्धोमा प्रदेशनी अपेक्षाए कृतयुग्मादिरूपता.-एक जीवाश्रित आकाशप्रदेशर्मा कृतयुग्मादि राशिओ.-अनेक जीवाधित आकाशप्रदेशमा कृतयुग्मादि राशिओ.-नैरयिकादि दंडको अने सिद्धाश्रित आकाशप्रदेशनी अपेक्षाए कृतयुग्मादि राशिओ.-जीवना स्थितिकाळना समयोने आश्रयी कृतयुग्मादि राशिओ.-नैरयिकादि जीवनी स्थितिकाळना समयोने आश्रयी कृतयुग्मादि राशिओपृ. २१८.'नरयिकादि कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळा छै' इत्यादि प्रश्न.-जीवना काळा वर्णना पर्यायो.-जीवना आभिनिबोधिकपर्यायो कृतयुग्मादिराशिरूप छे ?जीवोना आभिनिबोधिकादि ज्ञानना पर्यायो पृ० २१९.-जीवना केवलज्ञानना पर्यायो कृतयुग्मादि राशिरूप छे ? -जीवोना केवलज्ञानना पर्यायो.--जीवना मतिअज्ञानना पर्यायो.-शरीरना प्रकार.-जीवो सकंप होय के निष्कंप होय?-देशथी के सर्वथी सकम्प होय? पृ. २२..-परमाणु.-एक आकाश प्रदेशमा रहेला पुद्गलो.-एक समयनी स्थितिवाळा पुद्गलो.-एकगुण काळा पुद्गलो.-परमाणु अने द्विप्रदेशिक स्कन्धर्नु अल्पबहुत्व. पृ. २२१.द्विप्रदेशिक अने त्रिप्रदेशिक स्कन्धर्नु अल्पबहुत्व.-दशप्रदेशिक अने संख्यातप्रदेशिकनुं अल्पबहुत्व.-संख्यातप्रदेशिक अने असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धनुं अल्पबहुत्व.-असंख्यातप्रदेशिक अने अनन्तप्रदेशिक स्कन्धर्नु अल्पबहुत्व.-परमाणु अने द्विप्रदेशिक स्कन्धनुं प्रदेशार्थरूपे अल्पबहुत्व.असंख्यातप्रदेशिक अने अनन्तप्रदेशिकचें अल्पबहुत्व.-प्रदेशावगाढ पुद्गलोनुं द्रव्यरूपे अल्पबहुत्व पृ. २२२.-प्रदेशावगाढ पुद्गलोर्नु प्रदेशरूपे अल्पबहुत्व.-समयस्थितिवाळा पुद्गलो- अल्पबहुत्व.-वर्ण, गन्ध अने रसविशिष्ट पुद्गलोर्नु अल्पबहुंत्व.-स्पर्शविशिष्ट पुद्गलोर्नु अल्पबहुत्व पृ० २२३. परमाणुथी आरंभी अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोनुं अल्पबहुत्व.-प्रदेशावगाढ पुद्गलोनुं अल्पबहुत्व.-एक समयादि स्थितिवाळा पुद्गलोनुं अल्पबहुत्व पृ. २२४.-वर्णादिविशिष्ट पुद्गलो- अल्पबहुत्व.-परमाणुमा कृतयुग्मादि राशिनो समवतार.-परमाणुओ.-परमाणु प्रदेशरूपे कृतयुग्मादिरूप छ? पृ० २२५.-द्विप्रदेशिक स्कन्ध.-निप्रदेशिक स्कन्ध.-चतुःप्रदेशिकादि स्कन्ध.-संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध.-परमाणुओमा प्रदेशरूपे कृतयुग्मादि राशिओ. द्विप्रदेशिक स्कन्धो.-त्रिप्रदेशिक स्कन्धो.-चतुष्प्रदेशिकादि स्कन्धो.-संख्यातप्रदेशिकादि स्कन्धो.-परमाणुनी प्रदेशावगाढता.-द्विप्रदेशिक.-त्रिप्रदेशिक.-चतुःप्रदेशिक.-परमाणुपुद्गलो.-द्विप्रदेशिक स्कन्धो.-त्रिप्रदेशिक स्कन्धो.-चतुःप्रदेशिक स्कन्धो.अनन्तप्रदेशिक परमाण्वादिनी कृतयुग्मादि समयनी स्थिति पृ० २२७.-वर्णादि पर्यायोनी कृतयुग्मादिरूपता.-परमाणु सार्ध के अनर्ध!-द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध सार्ध के अनर्ध ! पृ. २२८.-परमाणु सकंप होय के निष्कंप होय ?-परमाणुनी सकंपावस्थानो काळ.-परमाणुनी निष्कंपतानो काळ.-सकंप परमाणुर्नु अंतर पृ. २२९.-निष्कम्प परमाणुर्नु अन्तर.-सकम्प अने निष्कम्प द्विप्रदेशिकादि स्कन्धर्नु अन्तर.-निष्कम्प द्विप्रदेशि. कादि स्कन्धर्नु अन्तर.-सकम्प परमाणुओर्नु अन्तर.-सकम्प अने निष्कम्प परमाणुओर्नु अल्पबहुत्व.-असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धो.-सकम्प भने निष्कम्प अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोर्नु अल्पबहुत्व.-सकम्प अने निष्कम्प एवा परमाणु, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी अने अनन्तप्रदेशी स्कन्धोर्नु अलबहुत्व पृ. २३०.-परमाणुनो कम्प केवी रीते होय?-द्विप्रदेशिकादि स्कन्धनो कम्प केवी रीते होय?-परमाणुओनो कम्प केवी रीते होय?-द्विप्रदेविकादि स्कन्धोनो कम्प केवी रीते होय ? पृ. २३१.-परमाणुंना कंपननो काळ.-परमाणुना अकंपननो काळ.-द्विप्रदेशिकादि स्कन्धनो देशकम्पनकाळ.सर्वकंपनकाळ.-निष्कंपनकाळ.-परमाणुओनो कंपनकाळ.-निष्कपनकाळ.-द्विप्रदेशिकादि स्कन्धोनो देशकंपनकाळ.-सर्वकंपनकाळ.-अकंपनकाळ.सर्वांशे सकंप परमाणु- अन्तर.-निष्कंप परमाणुर्नु अन्तर पृ० २३२.-देशथी सकंप द्विप्रदेशिक स्कन्धर्नु अन्तर.-सर्व सकंप द्विप्रदेशिक स्कन्धनुं अन्तर.-निष्कंप द्विप्रदेशिकर्नु अन्तर.-सकंप परमाणुओर्नु अन्तर.-अकम्प परमाणुओर्नु अन्तर.-अंशतः सकंप द्विप्रदेशिक. स्कन्धोनुं अन्तर.सर्वतः सकंप द्विप्रदेशिक स्कन्धोनुं अंतर.-निष्कंप द्विप्रदेशिक स्कन्धर्नु अन्तर.-सकंप भने निष्कंप परमाणुओर्नु अल्पबहुत्व.-सकंप अने निष्कंप द्विप्रदेविक स्कन्धोनुं अल्पबहुत्व पृ. २३३.-अनन्तप्रदेशिकर्नु अल्पबहुत्व.-द्रव्यार्थादिरूपे परमाणु वगेरेनुं अल्पबहुत्व पृ. २३४.-धर्मास्तिकायना मध्य प्रदेशो.-अधर्मास्तिकायना मध्यप्रदेशो.-आकाशना मध्यप्रदेशो.-जीवना मध्यप्रदेशो-जीवना मध्यप्रदेशोनी अवगाहना पृ. २३५. शतक २५-उद्देशक ५ पृ. २३५-२३९. पर्यायना प्रकार पृ. २३५-आवलिकानुं खरूप-धानप्राणादिनुं स्वरूप-पुद्गलपरिवर्तनुं खरूप-आवलिकाओ, अनप्राणो, स्तोको भने पुलपरिवौ.-आनप्राण संख्याती आवलिका रूप छे ? पृ. २३६.-एम पल्योपम, पुद्गलपरिवर्त, भानप्राणो, पल्योपमो, पुद्गलपरिवर्तो संबन्धे प्रश्न. खोक संख्यात भानप्राणरूप छ?-सागरोपम, पुद्गलपरिवर्त, सागरोपमो अने पुद्गलपरिवों संख्याता पल्योपमरूप छे ? अवसर्पिणी संख्याता सागरोपमरूप छे? पुद्गलपरिवर्त अने पुद्गलपरिवर्ती संख्याती उत्सर्पिणी.-अवसर्पिणीरूप छे?-अतीताद्धा, अनागताद्धा अने सर्वोद्धा संबंधे प्रश्न पृ. २३८निगोदोना प्रकार.-निगोदजीवोना प्रकार.-नाम-भावना प्रकार पृ. २३९. शतक २५-उद्देशक ६ पृ. २३९-२६१. १. प्रज्ञापनद्वार-निर्घन्धना प्रकार.-पुलाकना प्रकार,-बकुशना प्रकार.-कुशीलना प्रकार.-प्रतिसेवनाकुशीलना प्रकार पृ. २४०-कषायकृशीलना प्रकार.-निर्मन्थना प्रकार.-नातकना प्रकार.-२ वेदद्वार-पुलाकने वेद-बकुश सवेद के वेदरहित ! पृ० २४१.-कषाय कुशील सवेदी . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अवेदी-निर्ग्रन्थ वेदसहित के वेदरहित ?-नातक सवेद के निर्वेद ?-३ रागद्वार-पुलाक, बकुश अने कुश्शील सराग छे के वीतराग!निम्रन्थ सराग के वीतराग-४ कल्पद्वार.-स्थित अने अस्थितकल्प.-पुलाक अने कल्प पृ. २४२.-बकुश अने कल्प-कषायकुशील भने कल्प-निर्ग्रन्थ अने कल्प,-५. चारित्रद्वार-पुलाक भने चारित्र.-कषायकुशील अने चारित्र.-६ प्रतिसेवनाद्वार-पुलाक भने प्रतिसेवना पृ. २४३.-बकुश अने प्रतिसेवना.-कषायफुशील अने प्रतिसेवना.-७ ज्ञानद्वार-पुलाकने ज्ञान.-कषायकुशील भने निम्रन्थोने ज्ञाननातकने ज्ञान.-८ श्रुतद्वार-पुलाकने श्रुत.-बकुशने श्रुत पृ० २४४-कषायकुशीलने श्रुत.-९ तीर्थद्वार-पुलाक अने तीर्थ.-कषायकुशील अने तीर्थ.-१० लिंगद्वार–पुलाक अने लिंग.-११ शरीरद्वार-पुलाकने शरीर.-बकुशने शरीर.-कषायकुशीलने शरीर-पृ. २४५. १२ क्षेत्रद्वार-पुलाक अने क्षेत्र.-बकुश अने क्षेत्र.-१३ काळद्वार-पुलाकनो काळ पृ० २४६.-बकुशनो काळ.-१४ गतिद्वार-पुलाकनी गति पृ. २४७.-निर्मथनी गति.-नातकनी गति.-पुलाक कया देवपणे उपजे ?-कषायकुशील कया देवपणे उपजे?-निर्ग्रन्थ कया देवपणे उपजे! पुलाकनी देवलोकमां स्थिति पृ० २४८.-कषायकुशीलनी देवलोकमां स्थिति.-निग्रन्थनी देवलोकमां स्थिति-१४ संयमद्वार-पुलाकादिने संयमस्थानो.निम्रन्थने संयमस्थानो.-संयमस्थानोनुं अल्पबहुत्व.-पुलाकादिने चारित्रपर्याय.-१५ संनिकर्षद्वार.-पुलाकनो खस्थानसंनिकर्ष पृ. २४९.-पुलाकनोपकुशनी अपेक्षाए परस्थानसंनिकर्ष.-बकुशना पुलाकनी अपेक्षाए चारित्रपर्यायो.-बकुशना स्वस्थाननी अपेक्षाए चारित्रपर्यायो.-बकुशना प्रतिसेवनाकुशीलनी अपेक्षाए चारित्रपर्यायो.-बकुशना निर्मन्थनी अपेक्षाए चारित्रपर्यायो.-प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशीलना चारित्रपर्यायो.-पुलाकनी अपेक्षाए निम्रन्थना चारित्रपर्यायो पृ० २५०-निर्घन्धना सजातीयनी अपेक्षाए चारित्रपर्यायो.-नातकना पुलाकनी अपेक्षाए चारित्रपर्याय.पुलाकादिनुं अल्पबहुत्व.-१६ योगद्वार.-पुलाक भने योग.-स्नातक अने योग.-१७ उपयोगद्वार-पुलाक अने उपयोग पृ. २५१.-१८ कषायद्वार.-पुलाकने कषायो.-कषायकुशीलने कषायो.-निर्मन्थने कषाय.-१९ लेण्याद्वार-पुलाकने लेश्या.-कषायकुशीलने लेश्या.-निर्ग्रन्थने लेश्या.-स्नातकने लेश्या पृ० २५२.-२. परिणामद्वार-पुलाक अने परिणाम.-निर्ग्रन्थ अने परिणाम.-पुलाकना परिणामनो काळ.-निर्घन्धना परिणामनो काळ पृ० २५३.-२१ बन्धद्वार-पुलाकने कर्मप्रकृतिओनो बन्ध.-बकुशने कर्मप्रकृतिओनो बन्ध.-कषायकुशीलने प्रकृतिओनो बन्ध.निम्रन्थने कर्मप्रकृतिओनो बंध.-स्नातकने कर्मप्रकृतिओनो बंध.-२२ वेदद्वार-पुलाकने कर्मनुं वेदन पृ. २५४.-निर्मन्यने कर्मवेदन.-नातकने कर्मवेदन.-२३ उदीरणाद्वार-पुलाकने उदीरणा.-बकुशने उदीरणा.-कषायकुशीलने उदीरणा.-स्नातकने उदीरणा.-२४ उपसंपद्-हानद्वार-पुलाकनी उपसंपद्-हान.-बकुशनी उपसंपद् अने हान पृ० २५५.-प्रतिसेवनाकुशीलनी उपसंपद् अने हान.-कषाय कुशीलनी उपसंपद् अने हान.निम्रन्थ शुं छोडे अने शुं पामे ?-नातक शुं छोडे अने शुं पामे ?-२५ संज्ञाद्वार–पुलाक अने संज्ञा.-बकुश अने संज्ञा.-२६ अहारद्वार-पुलाक भने आहार.-स्नातक अने आहार.-२७ भवद्वार-पुलाकने भव पृ० २५६–बकुशने भव.-नातकने भव.-२८ आकर्षद्वार-पुलाकने आकर्ष.बकुशने आकर्ष.-निर्मन्थने आकर्ष.-स्नातकने आकर्ष.-पुलाकने अनेक भवमा आकर्ष.-बकुशने अनेक भवमा आकर्ष.-निर्ग्रन्थने आकर्ष पृ. २५७.-स्नातकने आकर्ष.-२९ काळद्वार-पुलाकनो काळ.-बकुशनो काळ.-निर्ग्रन्थनो काळ.-नातकनो काळ-पुलाकोनो काळ.-बकुशोनो काळ.-३० अंतरद्वार-पुलाकादिनुं अन्तर.-स्नातकर्नु अन्तर पृ० २५८ पुलाकोनुं अन्तर.-बकुशोनुं अंतर.-निग्रंथोनु अन्तर.-३१ समुद्धातद्वारपुलाकने समुद्धात.-बकुशने समुद्धात.-कषायकुशीलने समुद्धातो-निर्मन्थने समुद्धातो.-नातकने समुद्धात.-३२ क्षेत्रद्वार-पुलाकनुं क्षेत्र.-स्नातकर्नु क्षेत्र पृ० २५९.-३३ स्पर्शनाद्वार-३४ भावद्वार-पुलाकने भाव.-निर्ग्रन्थने भाव.-नातकने भाव-३५ परिमाणद्वार-पुलाकोनी संख्या.बकुशोनी संख्या.-कषायकुशीलोनी संख्या.-निम्रन्थोनी संख्या पृ० २६०-सातकोनी संख्या.-३६ पुलाकादिनुं अल्पबहुत्व पृ० २६१. शतक २५ उद्देशक ७ पृ. २६१-२८२. १ प्रज्ञापनद्वार-संयतना प्रकार.-सामायिक संयतना प्रकार.-छेदोपस्थापनीयसंयतना प्रकार पृ. २६१.-परिहारविशुद्धिकना प्रकार.-सूक्ष्मसंपरायना प्रकार.-यथाख्यातसंयतना प्रकार.-सामायिकसंयतादिनुं स्वरूप.-२ वेदद्वार-सामायिकसंयतने वेद.-३ रागद्वार-सामायिकसंयत अने राग-४ कल्पद्वार-सामायिकसयतने कल्प.-छेदोपस्थापनीयने कल्प पृ. २६२.-सामायिक अने पुलकादि.-परिहारविशुद्धि अने पुलाकादि.-यथाख्यात अने पुलाकादि.-५ प्रतिसेवाद्वार-सामायिक संयत अने प्रतिसेवक.-परिहारविशुद्धिक अने प्रतिसेवक-६ ज्ञानद्वार.-७ श्रुतद्वार.-सामायिकसंयतने श्रुत पृ० २६३.-परिहारविशुद्धिकने श्रुत. यथाख्यातने श्रुत.-८ तीर्थद्वार.–९ लिंगद्वार.-१० शरीरद्वार.-११ क्षेत्रद्वार-१२ काळद्वार पृ. २६४.-१३ गतिद्वार.-सामायिकसंयतनी स्थिति.-परिहारविशुद्धिकनी स्थिति.-१४ संवमस्थानद्वार-सामायिकसंयतना संयमस्थान पृ. २६५. सूक्ष्मसंपरायना संयमस्थान.-यथाख्यातना संयमस्थान.-संयमस्थानोर्नु अल्पबहुत्व.-१५ संनिकर्षद्वार-सामायिकसंयतना चारित्रपर्यवो.सामायिकसंयतनुं सजातीय पर्यायनी अपेक्षाए अल्पबहुत्व.-सामायिक अने छेदोपस्थापनीयर्नु पर्यायापेक्षाए अल्पबहुत्व.--सामायिकना सूक्ष्मसंपरायनी अपेक्षाए पर्यायो.-सूक्ष्मसंपरायना सामायिकनी अपेक्षाए पर्यायो पृ० २६६.-सामायिकसयतादिनुं अल्पबहुत्व.-१६ योगद्वार.-१७ उपयोगद्वार.१८ कषायद्वार.-१९ लेश्याद्वार.-२० परिणामद्वार.-परिणामनो काळ.-२१ बन्धद्वार.-२२ वेदनद्वार.-२३ उदीरणाद्वार.-२४ उपसंपद्-हानद्वार-सामायिकसंयत शुं छोडे अने शुं स्वीकारे.-छेदोपस्थापनीय शुं छोडे अने शुं प्राप्त करे? पृ० २६९.-२५ संज्ञाद्वार.-२६आहारकद्वार.-२७ भवद्वार.-२८ आकर्षद्वार–परिहारविशुद्धिकने आकर्ष पृ. २७०.-सूक्ष्मसंपराय संयतने आकर्ष.-यथाख्यात संयतने आकर्ष.-सामायिक संयतने अनेक भवमा आकर्ष.-२९ काळद्वार.-सामायिकादिसंयतोनो काळ पृ. २७१.-३० अन्तरद्वार.-सामायिकादिसंयतर्नु अन्तर.-सामायिकादि संयतोर्नु अन्तर.-३१ समुद्धातद्वार पृ० २७२.-३२ क्षेत्रद्वार.-३३ स्पर्शनाद्वार-३४ भावद्वार.-३५ परिमाणद्वार.-३६ सामायिकसयतादिनुं अल्पबहुत पृ. २७३.-प्रतिसेवनाना प्रकार.-आलोचनाना दस दोष.-आलोचना करवा योग्य साधु पृ. २७४.-आलोचना आपनारना गुण.--सामाचारीना दसप्रकार.-प्रायश्चित्तना दस प्रकार.-तपना प्रकार पृ० २७५: अनशनना प्रकार.-इत्वरिक अनशनना प्रकार.-यावत्कथिक अनशनना प्रकार.-पादपोपगमनना प्रकार.-भक्तप्रत्याख्यानना प्रकार.-ऊनोदरिकाना प्रकार.-द्रव्यऊनोदरिकाना प्रकार.-उपकरणद्रव्यऊनोदरिकाना प्रकार पृ. २७६.-भक्तपानद्रव्यऊनोदरिकार्नु खरूप-भावऊनोदरिकाना प्रकार.-भिक्षाचर्याना प्रकार.-रसपरित्यागना प्रकार.-कायक्लेशना प्रकार.-प्रतिसंलीनताना प्रकार.इन्द्रिय प्रतिसंलीनताना प्रकार पृ. २७७.-कषायप्रति संलीनताना प्रकार.-योगसलीनताना प्रकार.-कायसंलीनताना प्रकार.-अभ्यन्तर तपना प्रकार.प्रायश्चित्तना प्रकार-विनयना प्रकार.- ज्ञानविनयना प्रकार पृ. २७८.-दर्शनविनयना प्रकार.-शुश्रूषाविनयना प्रकार.-चारित्रविनयना प्रकार.मन विनयना प्रकार.-प्रशस्त मनविनयना प्रकार.-अप्रशस्त विनयना प्रकार.-वचनविनयना प्रकार पृ. २७९. प्रशस्त वचनविनयना प्रकार.अप्रशस्त वचनविनयना प्रकार.-प्रशस्त कायविनयना प्रकार.-अप्रशस्त कायविनयना प्रकार.-लोकोपचारविनयना प्रकार.-वैयावृत्त्यना प्रकार.खाध्यायना प्रकार पृ० २८०-ध्यानना प्रकार.-आर्तभ्यानना प्रकार.-आर्तध्यानना लक्षण.-रौद्रध्यानना प्रकार.-रौद्रध्यानना लक्षण.-धर्मध्यानना Jain Education international For Private & Personal use only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार.-धर्मध्यानना लक्षण.-धर्मध्यानना आलंबन.-धर्मध्याननी चार भावना.-शुक्रध्यानना प्रकार पृ. २८१.-शुक्लध्यानना चार लक्षण,-शुक्लण्यामाना चार भालंयन.--शुक्लध्याननी चार भावना.-व्युत्सर्गना प्रकार.-द्रव्यव्युत्सर्गना प्रकार.-भावव्युत्सर्गना प्रकार, कषायव्युत्सर्गना प्रकार.-संसारम्युत्सर्गना प्रकार.-कर्मव्युत्सर्गना प्रकार पृ० २८२. शतक २५ उद्देशक ८ पृ. २८२-२८३. नारकोनी उत्पत्ति पृ० २८१-नारकोनी गति.-परभवायुषना बंधनुं कारण.-ते जीवोनी गतिर्नु कारण,-उत्पत्ति कारण स्वीय कर्म के परकीय कर्म.-उत्पत्ति कारण खप्रयोग के परप्रयोग ?-असुरकुमारनी उत्पत्ति केम थाय ? पृ. २८३. शतक २५ उद्देशक ९-१२ पृ. २८४. भवसिद्धिक नैरयिकनी उत्पत्ति.-अभवसिद्धिक नैरयिकनी उत्पत्ति.-सम्यग्दृष्टि नैरयिकनी उत्पत्ति.-मिथ्यादृष्टि नैरयिको केम उपजे ? पृ. २८४. शतक २६ उद्देशक १ पृ. २८५. १जीवद्वार-सामान्य जीवने आश्रयी पापकर्मनी बन्धवक्तव्यता.-२ लेश्याद्वार-सलेश्य जीवने पाश्रयी बन्ध पृ. २८५.-लेश्यारहित जीवने बन्ध.-३ पाक्षिकद्वार-कृष्णपाक्षिकने भाश्रयी बन्ध.-शुक्लपाक्षिकने आश्रयी बन्ध.-४ दृष्टिद्वार.-५-६ शान भने अज्ञान.- संज्ञाद्वार. पृ. २८६.-८ वेदद्वार.-९ कषायद्वार.-१०-११-योग अने उपयोगद्वार-नैरयिकादि दंडकने आश्रयी पापकर्मनी बन्धवक्तव्यता.-पृ. २८७.-ज्ञानावरणीयनो बन्ध.-वेदनीयकर्मबन्ध पृ० २८८.-नैरयिकादिने आश्रयी वेदनीय कर्मनो बन्ध.-मोहनीयकर्मबन्ध,-आयुषकर्मवन्ध पृ. २८९.नैरयिकने आश्रयी आयुषकर्मनो बन्ध पृ० २९.. शतक २६ उद्देशक २ पृ. २९०-२९१ भनन्तरोपपन मैरयिकने पापकर्मनो वन्ध पृ० २९..-आयुषनो बन्ध.-पृ० २९१. शतक २६ उद्देशक ३ पृ. २९१. परंपरोपपन नैरयिकने पापकर्मनो बन्ध पृ० २९१. __शतक २६ उद्देशक ४ पृ. २९२. भनन्तरावगाढ नैरयिकने आश्रयी कर्मबन्ध पृ० २९२. ___ शतक २६ उद्देशक ५ पृ. २९२. परंपरावगाढ नैरयिकने आश्रयी कर्मबन्ध पृ० २९२. शतक २६ उद्देशक ६ पृ० २९२. भनन्तराहारक नैरयिकने कर्मबन्ध. पृ. २९२. शतक २६ उद्देशक ७ पृ० २९२. परपराहारक नैरयिकने कर्मबन्ध. पृ० २९२. शतक २६ उद्देशक ८ पृ० २९३. भनन्तरपर्याप्त नैरयिकने कर्मबन्ध पृ. २९३. शतक २६ उद्देशक ९ पृ. २९३. परंपरपर्याप्त नैरयिकने कर्मबन्ध पृ० २९३. __ शतक २६ उद्देशक १० पृ. २९३. चरम नैरयिकने कर्मबन्ध पृ० २९३. शतक २६ उद्देशक ११ पृ. २९३-२९५. भचरम नैरयिकने कर्मबन्ध पृ० २९३.-भचरम मनुष्यने बन्ध.-लेझ्यासहित अचरम मनुष्यने बन्ध,-भचरम नैरयिकने ज्ञानावरणीयनो बन्ध.भवरम नैरयिकने मोहनीय कर्मबन्ध.-अचरम नैरयिकने आयुषबन्ध पृ० २९४. शतक २७ पृ. २९६. जीवे पापकर्म कर्यु हत, करे छे भने करशे-इत्यादि संबंधे प्रश्न पृ. २९६. शतक २८ उद्देशक १ पृ. २९७. कई गतिमा पापकर्मनुं समर्जन थाय? लेश्या-नैरयिकोने पापकर्मनुं समर्जन पृ. २९७. शतक २८ उद्देशक २ पृ. २९८. अनन्तरोपपन्न नैरयिकोने पापकर्मनुं समर्जन पृ. २९८. शतक २८ उद्देशको ३-११ पृ. २९८. एज मधी अहीं पण आठ उद्देशक कथन पृ. २९८. शतक २९ उद्देशक १ पृ. २९९-३००. पापकर्मना वेदननो प्रारम अने अन्त.-तेम कहेवार्नु कारण पृ० २९९.-लेश्याने आश्रयी प्रस्थापन भने निष्ठापन पृ. ३... Jain Education international Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ शतक २९ उद्देशक २ पृ. ३००. भनन्तरोपपन्न नैरयिकने आश्रयी समक प्रस्थापनादि.-तेनो हेतु.-सलेश्य नैरयिकने आश्रयी समक प्रस्थापनादि पृ. ३... शतक २९ उद्देशक ३-११ पृ० ३.१. बन्धिशतकमा कहेला क्रमे नहीं पण नत्र उद्देशकोनु कथन पृ.३.१. शतक ३० उद्देशक १ पृ. ३०२-३०८. समवसरण, जीवोने क्रियावादित्वादि.-सलेश्य जीवोने क्रियावादित्वादि पृ. ३०२.-लेश्यारहित जीवोने क्रियावादित्वादि.-कृष्णपाक्षिक्ने क्रियावादित्वादि.-मिश्रदृष्टिने क्रियावादित्वादि.-नैरयिकोने क्रियावादित्वादि.-पृथिवीकायिकोने क्रियावादित्वादि पृ. ३०३.-क्रियावादीने भायुषनो बन्ध.–अक्रियावादीने आयुषनो बन्ध,-सलेश्य क्रियावादीने आयुषनो बन्ध.-कृष्णलेश्यावाळा क्रियावादीने आयुषनो बन्ध पृ. ३०४.-तेजोलेश्यावाळा क्रियावादीने आयुषनो बन्ध.--लेश्यारहित क्रियावादीने आयुषनो बन्ध.--कृष्णपाक्षिक अक्रियावादीने आयुषनो बन्ध, सम्यग्दृष्टि क्रियावादीने आयुषनो बन्ध.-सम्यग्मिध्यादृष्टि अज्ञानवादीने आयुषनो बन्ध.-मनःपर्यवज्ञानीने आयुषनो बन्ध. पृ. ३०५.-क्रियावादी नैरयिकोने आयुषनो बन्ध.-सलेश्य क्रियावादी नैरयिकोने आयुषनो बन्ध.-अक्रियावादी पृथिवीकायिकोने आयुषनो बन्ध. पृ. ३०६.-क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यंचने आयुषनो बन्ध.कृष्णलेश्यावाळा क्रियावादी पंचेन्दिय तिर्यचने आयुषनो बन्ध.-क्रियावादी भव्य के अभन्य ? अक्रियावादी भव्य के अभव्य ? पृ. ३०७-सलेश्य क्रियावादी भव्य के अभव्य ?–सलेश्य अक्रियावादी भव्य के अभव्य ?-लेश्यारहित क्रियावादी भव्य के अभव्य ? पृ. ३०८. शतक ३० उद्देशक २ पृ. ३०९. अनन्तरोपपन्न नैरयिकोने कियावादित्वादि.-क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरयिकोने आयुषबन्ध.-अनन्तरोपपच क्रियावादी नैरयिको भव्य के भभव्य ! पृ० ३०९. शतक ३० उद्देशक ३ पृ. ३१०. परंपरोपपन्न नैरयिको शुं क्रियावादी छे इत्यादि प्रश्न पृ. ३१०. शतक ३० उद्देशक ४-११ पृ. ३१०. बंधिशतकमा कहेला क्रमप्रमाणे आठ उद्देशकोनुं कथन. पृ. ३१०. शतक ३१. उद्देशक १ पृ. ३११.-३१२. क्षुद्रयुग्म.-चार क्षुद्र युग्मो कहेवानो हेतु.--नैरयिकोनो उपपात-उपपातसंख्या पृ० ३११.-उपपातनो प्रकार.-रत्रप्रभा नैरयिकोनो उपपात.अद्रश्योजराशिप्रमाण नैरयिकोनो उपपात.-उपपातसंख्या.-क्षुद्रद्वापरयुग्मप्रमित नैरयिकोनो उपपात.-क्षुद्रकल्योजप्रमाण नैरयिकोनो उपपात पृ. ३१२. शतक ३१ उद्देशक २ पृ. ३१३. क्षुद्र कृतयुग्मप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा नैरयिकोनो उपपात.-कृष्ण. क्षुद्रकल्योज प्रमाण नैरयिकोनो उपपात.-कृष्ण. क्षुद्रकल्योजप्रमाण नैरयिकोनो उपपात पृ० ३१३. __ शतक ३१ उद्देशक ३ पृ. ३१३. नील• क्षुद्र कृतयुग्म नैरयिकोनो उपपात पृ० ३१३. शतक ३१ उद्देशक ४ पृ. ३१४. कापोत. क्षुद्र कृतयुग्म नैरयिको क्याथी आधी उपजे ? पृ०३१४. शतक ३१ उद्देशक ५ पृ. ३१४. भव्य क्षुद्र कृतयुग्म नैरयिकोनो उपपात पृ. ३१४. शतक ३१ उद्देशक ६ पृ. ३१४. कृष्ण भव्य कृतयुग्म नैरयिकोनो उपपात पृ० ३ १४. __ शतक ३१ उद्देशक ७-२८ पृ. ३१५. नीललेश्यावाळा अने कापोतलेश्यावाळा नैरयिको संबंधे चारे युग्मोने आश्रयी कथन-अभवसिद्धिक सम्यग्दृष्टि, मिथ्याष्टि, कृष्णपाक्षिक भने शुक्लपाक्षिक संबंधे चार चार उद्देशकोर्नु कथन. शतक ३२ उद्देशको १-२८ पृ. ३१६. क्षुद्र कृतयुग्म राशिरूप नैरयिकोनी उद्वर्तना.-एक समये कैटला उद्वर्ते अने केवी रीते उद्वर्ते ?-कृतयुग्मरूप रत्नप्रभा नैरयिकोनी उद्वर्तना पृ. ३१६. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक १ पृ. ३१७. एकेन्द्रियना प्रकार.-पृथिवीकायना प्रकार.-सूक्ष्म पृथिवीकायना प्रकार.-चादर पृथिवीकायिकना प्रकार.-कर्मप्रकृतिओ.-कर्मप्रकृतिओनो पन्ध,-कर्मप्रकृतिओनुं वेदन.-अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियना प्रकार.-अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियने कर्म प्रकृतिओ पृ.३१८-अनन्तरोपपन्न एफेन्द्रियने कर्मप्रकृतिओनो बन्ध.-अनन्तरोपपन एकेन्द्रियने कर्मप्रकृतिओनुं वेदन.-परंपरोपपन्न एकेन्द्रियने कर्मप्रकृतिओ पृ. ३१९. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक २ पृ. ३२०. कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियोना प्रकार.-पृथिवीकायिकोना प्रकार.-कृष्णलेश्यावाळा सूक्ष्म पृथिवीकायिकोना प्रकार.-अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियोना प्रकार.-परंपरोपपत्र कृष्णलेश्याबाळा एकेन्द्रियना प्रकार पृ. ३२.. Jain Education international Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ३ पृ. ३२१. नीललेझ्यावाळा एकेन्द्रियोना प्रकार वगेरे पृ. ३२१. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ४ पृ. ३२१. कापोतलेश्यावाळा एकेन्द्रियोना प्रकार वगेरे-पृ. ३२१. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ५ पृ० ३२१. भवसिद्धिक एकेन्द्रियना प्रकार पृ. ३२१. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ६ पृ. ३२१. कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकार पृ. ३२१.-अनन्तरोपपन्न कृष्ण भवसिद्धिक एकेन्द्रियना प्रकार पृ. ३२२. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ७ पृ. ३२२. नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकार वगेरे पृ. ३२२. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ८ पृ. ३२३. कापोतलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकार वगेरे. पृ. ३२३. ___ शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ९ पृ. ३२३. अभवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकार वगेरे पृ० ३२३. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक १० पृ. ३२३. कृष्णलेश्यावाळा अभवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकारादि संबंधे प्रश्न. पृ. ३२३. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक ११ पृ. ३२३. नीललेश्यावाळा अभवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकारादि संबन्धे प्रश्न. शतक ३३ एकेन्द्रियशतक १२ पृ. ३२३. कापोतलेश्याबाळा अभवसिद्धिक एकेन्द्रियना प्रकारादि पृ. ३२३. शतकं ३४ एकेन्द्रियशतक १ उद्देशक १ पृ. ३२४-३३२. एकेन्द्रियना प्रकार.-अपर्याश सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी गति.-तेमा एक, बे अने प्रण रामय थवानुं कारण पू. ३२४.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे विप्रहगति.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी बादर तेजस्कायिकपणे विप्रहगति.-पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी विग्रहगति पृ० ३२५.-अपर्याप्त धादर तेजस्कायिकनो उपपात.-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकनो उत्पाद.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनो उत्पाद पृ. ३२६.-अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियनो शर्कराप्रभाना पूर्व चरमतिथी पश्चिम चरमोतमा उपपात पृ. ३२७.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी विप्रहगति.-त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिनुं कारण पृ० ३२७.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी बादर तेजस्कायिकपणे केटला समयनी गति होय !-अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकनी विग्रहगति.-अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकनी पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकरूपे विप्रहगति पृ. ३२८.-अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकनी विप्रहगति.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी ऊर्ध्वलोकमाथी अधोलोकमा विग्रहगति पृ. ३२९. लोकना पूर्व चरमांतमा पृथिवीकायादिकनी विग्रहगति पृ० ३२९.-तेनुं कारण.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवी कायिकनो उपपात.-तेनी लोकना पूर्ववरमौतथी पश्चिम चरमान्तमा विप्रहगति पृ० ३३०. -बादरपृथिवीकायिकोना स्थान-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकने कर्मप्रकृतिओ.-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकने कर्मबन्ध.-एकेन्द्रियने कर्मर्नु वैदन.एकेन्द्रियोनो उपपात-एकेन्द्रियने समुहात.-एकेन्द्रियो तुल्य के विशेषाधिक कर्म करे ! पृ. ३३२ शतक ३४ एकेन्द्रियशतक १ उद्देशक २ पृ. ३३३. अनम्तरोपपन्न एकेन्द्रियना प्रकार.-अनन्तरोपपन्न बादर पृथिवीकायिकना स्थानो-अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियने कर्मप्रकृतिओ.-तेओ क्याथी आवीने उपजे छ । अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियने समुद्धातो पृ० ३३३.-कर्मबंधनी विशेषता पृ. ३३४. शतक ३४ एकेन्द्रियशतक १ उद्देशक ३ पृ. ३३४. परंपरोपपन्न एकेन्द्रियोना प्रकार.-परंपरोपपन्न एकेन्द्रियनी विग्रहगति पृ० ३३४. शतक ३४ एकेन्द्रियशतक १ उद्देशक ४-११ पृ. ३३५. ए रीते बाकीना आठ उद्देशकोनुं यावत् अचरम सुधी कथन पृ० ३३५. शतक ३४ एकेन्द्रियशतक २ पृ. ३३५. कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियोना प्रकार.-कृष्णलेश्यावाळा एकेन्दियोनो विग्रहगतिथी उपपात.-कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियना स्थानो पृ. ३३५. शतक ३४ एकेन्द्रियशतक ३-५ पृ. ३३६. नीललेश्यावाळा, कापोतलेश्यावाळा अने भवसिद्धिक एकेन्द्रियो संबन्धे अनुकमे त्रीजा, चोथा अने पांचमा शतकनु कथन पृ. ३३६. शतक ३४ एकेन्द्रियशतक ६ पृ. ३३६. कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रफार.-अनन्तरोपपन्न कृष्ण भवसिद्धिक एकेन्द्रियोना प्रकार.-परंपरोपपन्न कृष्ण भव. एकेन्द्रियना प्रकार. तेओनी विग्रहगति.-पृथिवीकायिकना स्थानो. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४ एकेन्द्रियशतक ७-१२ पृ० ३३७. नीलश्यावाळा अने कापोसलेश्याबाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियो सबन्धे सातमा अने आठमा शतकनुं कथन ए रीते अभवसिद्धिको संबंधे पण चार यातकोनुं कथन पृ० ३३७. शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक १ उद्देशक १ पृ० ३३८-३४२. महायुग्मना प्रकार. – सोळ महायुग्म कहेवानुं कारण पृ० ३३८. - कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रियोनो उपपात - एक समयमा उपपातसंख्या - ते जीवो केटला काळे खाली थाय ? पृ० ३३९. ज्ञानावरणीयना बन्धक. – वेदक. -- सातावेदक अने असातावदेक. - तेओने लेश्या. तेओना शरीरोना वर्णादि. - अनुबन्धकाळ पृ० ३४० - संबंधादि - सर्व जीवोनो कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियपणे उत्पाद — कृतयुग्मन्योजराशिरूप एकैन्द्रियोनो उत्पाद — उत्पादसंख्या – कृतयुग्मद्वापर प्रमाण एकेन्द्रियोनो उत्पात -- उपपात संख्या. — कृतयुग्मकल्योज रूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद. - श्योजकृतयुग्मप्रमाण एकेन्द्रियोनो उत्पाद. पृ० ३४१. — योजत्रयोजप्रमाण एकेन्द्रियोनो उपपात. - कल्यो जकल्यो जराशिरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद पृ० ३४२. शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक १ उद्देशक २ पृ० ३४२. प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद पृ० ३४२. शतक ३५ ३-११ उद्देशको पृ० ३४३ - ३४४ अप्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद. - चरमसमय. कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रियोनो उत्पाद. - अचरम समय कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद पृ०. ३४३ शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक २ पृ० ३४४ - ३४५. कृष्णळेश्याबाळा कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियो क्यांभी आवी उपजे छे ? – कृष्ण० कृतयुग्म २ रूप एकेन्द्रियोनी स्थिति. - प्रथम समयोत्पन्न पूर्वोक्क एकेन्द्रियो क्यांथी आवी उपजे ! पृ० ३४५. शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ३ पृ० ३४६ नीललेश्याषाळा पूर्वो एकेन्द्रियो संबंध कथन. १४ शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ४ पृ० ३४६. कापोस श्यावाळा पूर्वोक्त एकेन्द्रिय संबंधे कथन. शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ५ पृ० ३४५ - ३४६. भवसिद्धिक कृतयुग्म २ एकेन्द्रियो क्यांभी आवी उपजे ?, शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ६ पृ० ३४६. कृष्णलेश्यावाळा पूर्वी एकेन्द्रियो क्यांथी आवी उपजे ! ' शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ७ पृ० ३४६. नीलश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियो संबन्धे कथन. शतक ३५ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ८ पृ० ३४६. कापोत श्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियो संबन्धे कथन. शतक ३६ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक ९ – १२ पृ ३४६ अभवसिद्धिक एकेन्द्रियो संबंधे चार शतको पृ० ३४६. शतक ३६ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक १ उद्देशक १ पृ० ३४७. कृतयुग्म २ रूप यैइन्द्रियोनो क्यांथी भावी उत्पाद थाय ? – बेइन्द्रियोनो अनुबन्ध काळ. - प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म २ बेइन्द्रियोनो क्यांची आवी उत्पाद थाय ? पृ० ३४७. शतक ३६ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक २–८ पृ० ३४८. कृष्णश्यावाळा कृतयुग्म २ प्रमाण बेइन्द्रिय जीवो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? पृ० ३४८. शतक ३६ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक ३ पृ० ३४८. नीलश्यावाळा बेइन्द्रिय सबन्धे कथन. --- शतक ३६ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक ४ पृ० ३४८. कापोतचैश्यावाळा येइन्द्रियसंबंधे कथन पृ० ३४८. शतक ३६ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक ५–८ पृ० ३४९. भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप बेइन्द्रियो क्याथी भावी उत्पन्न थाय — इत्यादि प्रश्न. शतक ३६ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक ९ – १२ पृ० ३४९. अभवसिद्धिक पूर्वोक्त एकेन्द्रियो संबन्धे चार शतकोनुं कथन पृ० ३४९. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३७ तेइन्द्रियमहायुग्मशतक पृ० ३५०. कृतयुग्म कृतयुग्मरूप तेइन्द्रियोनो क्याथी आवी उत्पाद थाय? पृ. ३५.. शतक ३८ चउरिन्द्रियमहायुग्मशतक पृ. ३५१. चउरिंद्रियो संबन्ध बार शतकोर्नु कथन पृ० ३५१. __शतक ३९ असंज्ञी पंचेन्द्रियमहायुग्मशतक पृ० ३५२. कृतयुग्मकृतयुग्मरूप बसंज्ञी पंचेन्द्रियो क्याथी भावी उपजे ? पृ. ३५२. __ शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक १ पृ. ३५३. कृतयुग्म कृतयुग्मरूप संज्ञी पंचेन्द्रियो क्याथी आवी उपजे? तेओ कइ संज्ञाना उपयोगवाळा छे! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्मरूप संझी पंचेन्द्रियो कर्मना बन्धक क्याथी आवी उपजे ? पृ. ३५४. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक २ पृ. ३५५. कृष्णळेश्यावाळा कृत. सं. पंचेन्द्रियो क्याथी आवीने उपजे?-प्रथमसमयोत्पन्न संज्ञी पंचेन्द्रियो क्याथी आवीने उपजे ! पृ. ३५५. __ शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक ३ पृ. ३५६. नीललेश्यावाळा कृतयुग्म २ संज्ञी पंचेन्द्रियो क्याथी भावीने उपजे? पृ. ३५६. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक ४ पृ. ३५६. कापोतलेश्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्म रापिीरूप संज्ञी पंचेन्द्रियनो क्यांची आवी उत्पाद थाय ! शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक ५ पृ. ३५६. तेजोलेश्यावाळा संशी पंचेन्द्रियनो क्याथी भावीने उत्पाद थाय ! शतक ४० संज्ञी पं० महायुग्मशतक ६ पृ. ३५६. पद्मलेश्यावाळा संझी पंचेन्द्रियनो क्याथी आवी उत्पाद थाय ? पृ० ३५६. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक ७ पृ. ३५७. शुक्ललेश्यावाळा कृतयुग्म २ सं. पंचेन्द्रियनो क्याथी भावी उत्पाद थाय ? शतक ४० संज्ञी पं० महायुग्मशतक ८ पृ. ३५७. कृतयुग्म २ सं० पंचेन्द्रिय भवसिद्धिकोनो क्याथी आवी उत्पाद थाय ! शतक ४० संज्ञी पं० महायुग्मशतक ९ पृ. ३५७. कृष्ण भवसिद्धिक सं. पंचेन्द्रियनो क्याथी आवी उत्पाद थाय ! शतक ४० संज्ञी पंचेन्द्रियमहायुग्म शतक १० पृ. ३५७. नीलळेश्याबाळा कृतयुग्म २ भवसिद्धिक संशी पंचेन्द्रियनो क्याथी आवी उत्पाद थाय ? पृ. ३५७. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक ११-१४ पृ. ३५८. संझौ पंचेन्द्रियो संबंधे सात औधिक शतको कह्यां छे ए रीते भवसिद्धिक संशी पंचेन्द्रिय संबंधे पूर्वोक्त सात शतकोनुं कथन पृ० ३५८. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक १६ पृ. ३५८... कृत• २ अभवसिद्धिक सं० पंचेन्द्रियनो क्याथी आवी उत्पाद थाय!-प्रथमसमयोत्पन्न कृत० २ अभवसिद्धिक सं• पंचेन्द्रियो क्याथी भावीने उत्पाद थाय! पृ० ३५८. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक १६ पृ० ३५९. कृतयुग्म २ कृष्णलेश्यावाळा अभवसिद्धिक सं० पंचेन्द्रियो क्याथी आवीने उपजे ? पृ. ३५९. शतक ४० संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक १७-२१ पृ. ३५९. गोललेश्या संबंधे छ शतको कथन पृ. ३५९.. शतक ४१ उद्देशक १ पृ. ३६०-३६२. राशियुग्मना प्रकार.-चार राषियुग्म कहेवार्नु कारण:-कृतयुग्मरूप नैरयिकोनो क्याथी आवीने उपपात थाय?-एक समये केटला उत्पन्न थाय ! तेभोनो सान्तर के निरन्तर उत्पाद होय!-तेओ जे समये कृतयुग्मराशिरूप होय ते समये योजराशिरूप होय इत्यादि प्रश्न पृ. ३६०. तेओने आश्रयी कृतयुग्म अने द्वापरयुग्मनो संबंध होय!- कृतयुग्म अने कल्योज राशिनो संवन्ध होय!-जीवोनो उपपात केवी रीते थाय? -उपपातनो हेतु भात्मानो असंयम.-आत्मसंयम के आत्मसंयमनो आश्रय.-तेओ सलेश्य होय के भलेश्य होय.!-सलेश्य सक्रिय होय के सक्रिय ? -कृतयुग्म राशिरूप अमरकुमारनी क्याथी आवी उत्पत्ति थाय?-मनुष्योना उपपातनुं कारण आत्मानो असंयम पृ. ३६१.-आत्मसंयमी मनुष्यो सलेश्य छे के भळेश्य!-लेश्यारहित ममुष्यो सक्रिय के अक्रिय!-क्रियारहितनी सिद्धि.--लेश्यावाळा मनुष्योनी सक्रियता.-सक्रिय ते भवा सिर पाय के नहि।आत्मअसंयमी सलेश्य छ के अलेश्य छै? –सलेश्य मनुम्यनी सक्रियता.-सक्रिय मनुष्य ते भवमा सिद्ध पाय. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ शतक ४१ उद्देशक २ पृ. ३६२. योजराषिीप्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद. पृ. ३६२ - कृतयुग्म अने योजराशिनो परस्पर संबन्ध.-त्र्योजरात्रिी अने द्वापरयुग्मनो परस्पर संबन्ध पू. १६३. शतक ४१ उद्देशक ३ पृ० ३६२. द्वापरयुग्मराशिप्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद.-द्वापरयुग्म अने कृतयुग्मनो परस्पर संबन्ध.-पृ. ३६३. शतक ४१ उद्देशक ४ पृ. ३६३. कल्योजप्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद.-कल्योज अने कृतयुग्मनो परस्पर संबन्ध. पृ० ३६३. शतक ४१ उद्देशक ५ पृ० ३६३. कृष्णलेश्यावाळा कृतयुग्मप्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद. पृ. ३६४. शतक ४१ उद्देशक ६ पृ. ३६३. त्र्योजराविप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा नैरयिकोनो उत्पाद. शतक ४१ उद्देशक ७ पृ. ३६३. द्वापरयुग्मप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा (नैरयिको ) संबंधे पण एमज उद्देशक पृ० ३६४. शतक ४१ उद्देशक ८ पृ. ३६३. कृष्णलेश्यावाळा कल्योज प्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद. शतक ४१ उद्देशक ९-१२ पृ. ३६३. नीललेश्यावाळा संबंधे चार उद्देशकोर्नु कथन. शतक ४१ उद्देशक १३-१६ पृ. ३६३. कापोतलेश्यावाळा संबंधे एज रीते चार उद्दशकोनु कथन. शतक ४१ उद्देशक १७-२० पृ० ३६६. कृतयुग्मराशिप्रमाण तेजोलेश्यावाळा असुरकुमारोनो क्याथी आवी उत्पाद थाय? पृ. ३६५. शतक ४१ उद्देशक २१-२४ पृ. ३६६. ए रीते पद्मलेश्या संबंधे चार उद्देशकोनु कथन. शतक ४१ उद्देशक २५-२८ पृ. ३६६. शुक्ललेश्यासंबंधै चार उद्देशकोर्नु कथन. - शतक ४१ उद्देशक २९-५६ पृ. ३६७. भवसिद्धिक कृतयुग्मप्रमाण नैरयिकोनो क्याथी आवी उत्पाद थाय.-कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक कृतयुग्मरूप नैरयिफोनो उत्पाद क्याथी आवीचे थाय !-शुक्ल लेश्यावाळा संबंधे औधिक सरखा चार उद्दशकोनुं कथन. शतक ४१ उद्देशक ५७-८४ पृ. ३६७. अभवसिद्धिक कृतयुग्म प्रमाण नैरयिकोनो क्याथी आवी उत्पाद थाय ? शतक ४१ उद्देशक ८५-११२ पृ. ३६७. कृतयुग्मप्रमाण सम्यग्दृष्टि नैरयिकोनो क्याथी आवी उत्पाद थाय ? पृ. ३६५. कृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा सम्यग्दृष्टि नैरयिको क्याथी भावी उत्पन थाय-इत्यादि चार उद्देशकोर्नु कथन.-ए प्रमाणे सम्यग्दृष्टिओने आश्रयी अव्यावीश उद्देशकोर्नु कथन. शतक ४१ उद्देशक ११३-१४० पृ. ३६८. कृतयुग्मप्रमाण मिथ्यादृष्टि नैरयिकोनो क्याथी भावी उत्पाद थाय ? शतक ४१ उद्देशक १४१-१६८ पृ. ३६८. कृतयुग्मप्रमाण कृष्णपाक्षिक नैरयिकोनो क्याथी भावी उत्पाद थाय ! ___ शतक ४१ उद्देशक १६९-१९६ पृ. ३६९. कृतयुग्मप्रमाण शुक्लपाक्षिक नैरयिकोनो क्याथी आची उत्पाद थाय? पृ० ३६८ उद्देशक, शतक, भने पदसंख्या.-संघनी स्तुति.-लेखककृत मंगल. Jain Education international Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र सोलसमं सयं. १ अहिगरणि २ जरा ३ कम्मे ४ जावतियं ५ गंगदत्त ६ सुमिणे य । ७ उवओग ८ लोग ९ बलि १० ओहि ११ दीव १२ उदही १३ दिसा १४ थणिया ॥ पढमो उद्देसो. १. [प्र०] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव-पजवासमाणे एवं बयासी-अस्थि णं भंते! अधिकरणिसि वाउ. याए पक्कमति ? [उ० हंता अस्थि । [प्र०] से भंते! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ ? [उ.] गोयमा ! पुढे उद्दार, नो सोळमुं शतक. [उद्देशकार्थसंग्रह-] १. अधिकरणी-एरण प्रमुख संवन्धे पहेलो उद्देशक, २ जरादि अर्थ संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ कर्म वगेरे हेतुर्थ-न्धे त्रीजो उद्देशक, ४ उद्देशकना प्रारंभा 'जावतिय' यावतिक शब्द होवाथी यावतिक नामे चोथो उद्देशक, ५ गंगदत्त देव संबन्धे आश्रयमो उद्देशक, ६ स्वप्न विषे छट्ठो उद्देशक, ७ उपयोग संबन्धे सातमो उद्देशक, ८ लोकखरूप संबन्धे आठमो उद्देशक, ९ बलीन्द्र संबन्धे नवमो उद्देशक, १० अवधिज्ञान संबन्धे दशमो उद्देशक, ११ द्वीपकुमार संबन्धे अगीयारमो उद्देशक, तथा १२ उदधिकुमार, १३ दिक्कुमार अने १४ स्तनितकुमार संबन्धे बारमाथी चौदमा सुधी त्रण उद्देशको-ए प्रमाणे सोळमा शतकमां चौद उद्देशको कहेवाना छे. प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] ते काळे ते समये राजगृह नगरमा यावत्-पर्युपासना करता [भगवान् गौतम ] आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् । बाबुकायनी उत्पत्ति. अधिकरणी ( एरण) उपर [ हथोडो मारती वखते ] *चायुकाय उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! हा, थाय. [प्र०] हे भगवन् ! ते वायुकायनो बीजा कोइ पदार्थ साथे स्पर्श थायां तोज ते मरे के स्पर्श थया सिवाय पण मरे ! [उ०] हे गौतम ! तेनो बीजा पदार्थ वायुकायतुं मरण. साथे स्पर्श याय तोज मरे, पण स्पर्श थया सिवाय न मरे. प्र०] हे भगवन् ! [ज्यारे ते वायुकाय मरण पामे त्यारे] ते शरीरसहित __१* अहिं टीकाकार वायुकायनी उत्पत्ति संबन्धे आ प्रमाणे खुलासो करे छ-'एरण उपर हथोडा वती घा मारती वखते एरण भने हथोडाना अभिघातथी वायु उत्पन्न थाय छ, भने ते अभिघातथी उत्पन थयेलो होवाने लीधे प्रथम अचेतन होय छे भने पछीथी सचेतन थाय छे एम संभवे छे'. 'पृथिवीकाय आदि पांच स्थावर जातिना जीवोने ज्यारे विजातीय जीवोनो अगर विजातीयस्पर्शवाळा पदार्थोनो संघर्ष, थाय छे त्यारे तेमना शरीरनो घात थाय छे'-ते विचारने अनुसरीने भा प्रश्न करवामां आवेलो छे. भाचारांग सूत्रना 'शत्रपरिज्ञा' मामना अध्ययनमा आ विचार सारी रीते वर्णवेलो छे. जुओ-आचारांग प० २८ सू०८.. . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक १. अपुढे उद्दाइ । [40] से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ, असरीरी निक्खमा ? [उ०] एवं जहा खंदए, जाव-से तेणेद्वेणं नो असरीरी निक्खमइ' । २. [प्र० गालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं कालं संचिट्ठति ? [उ०] गोयमा! जहरेणं अंतोमहतं, उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई । अन्ने वि तत्थ वाउयाए वकमति, न विणा वाउयाएणं अगणिकाए उजलति ।। ३.[प्र०] पुरिसे गं भंते ! अयं अयकोटुंसि अयोमएणं संडासएणं उविहमाणे वा पधिहमाणे वा कतिकिरिए।[उ.] गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटुंसि अयोमपणं संडासपणं उविहिति वा पविहिति वा, तावं च णं से पुरिसे कातियाए जाव-पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहितो अए निष्पत्तिए, अयकोढे निष्पत्तिए, संडासए निष्पत्तिए, इंगाला निष्वत्तिया, इंगालकहणी निवत्तिया, भत्था निष्वत्तिया, ते विणं जीवा काइयाए जावपंचहि किरियाहिं पुट्ठा। ४. [प्र०] पुरिसे णं मंते ! अयं अयकोटाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिसि उक्खिधमाणे वा निपिखव-' माणे वा कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटाओ आव-निक्खिवह वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-पाणाइवायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुढे, जोर्स पिणं जीवाणं सरीरोहितो अयो निष्वत्तिए, संडासए निष्पत्तिए, चम्मेढे निवत्तिए, मुट्ठिए निष्पत्तिए, अधिकरणी निवत्तिया, अधिकरणिखोडी णिवत्तिया, उदगदोणी निष्पत्तिया, अधिकरणसाला निष्पत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । ५. [प्र०] जीवे णं भंते! कि अधिकरणी, अधिकरणं? [उ०] गोयमा! जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि। [प्र०] से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ-'जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि? [उ०] गोयमा! अविरतिं पडुच, से तेण?णं जाव अहिकरणं पि। बाबुकापर्नु शरीरस- भवान्तरे जाय के शरीररहित जाय ! [उ०] हे गौतम! आ बाबतमा जेम "स्कंदकना उद्देशका कमु छे, ते प्रमाणे यावत्-'शरीर र विना रहित थईने जतो नथी' त्यां सुधी अहिं जाणवू. भवान्तर गमन. सगढीमा अनिकाय २. [प्र०] हे भगवन् ! सगडीमां अग्निकाय केटला काळ सुधी [सचेतन ] रहे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहर्त सुधी केटष्ण काळ भी अने उत्कृष्टधी त्रण रात्रि दिवस सुधी रहे. वळी त्या अन्य वायुकायिक जीवो पण उत्पन्न थाय छे, कारण के वायुकाय विना अग्निकाय प्रज्वलित यतो नथी. भट्टीमा सांडसा बती ३. [प्र०] हे भगवन् ! लोढाने तपाववानी भट्ठीमां लोढाना सांडसा वडे लोढाने ऊंचुं के नीचुं करनार पुरुषने केटली क्रियाओ कोर्दू करनार लागे ! [उ०] हे गौतम ! ज्यां सुधी ते पुरुष लोढाने तपाववानी भट्ठीमां लोढाना सांडसा बडे लोढाने ऊंचु के नीचे करे छे त्यां सुधी पुरुषने क्रियाभो. ते पुरुषने कायिकीथी मांडीने प्राणातिपात क्रिया सुधीनी पांच क्रियाओ लागे छे. वळी जे जीवोना शरीरथी लो बन्युं छे, लोढानी भट्ठी बनी है, सांडसो बन्यो छे, अंगारा बन्या छे, अंगाराकर्षणी (अंगारा काढवानो सळीयो) बनी छे अने धमण बनी छे ते बधा जीवोने पण कायिकी यावत्-पांच क्रियाओ लागे छे. लोदाने तपावी . प्र०] हे भगवन् ! लोढानी भट्ठीमांथी लोढाना सांडसा वडे लोढाने लई तेने एरण उपर लेता अने मूकता पुरुषने केट" मूकनारने क्रियाओ लागे ? [उ०] हे गौतम ! ते पुरुष ज्यां सुधी लोढानी भट्ठीमाथी लोढाने लई यावत्-एरण उपर मूके छे, त्यां सुधी ते पुरुष क्रियाभो. कायिकी यावत्-प्राणातिपात सुधीनी पांच क्रियाओ लागे छे. वळी जे जीवोना शरीरथी लोदं बन्युं छे, सांडसो बन्यो छे, चर्मेष्टक-धण बन्यो छे, नानो हथोडो बन्यो छे, एरण बनी छे, एरण खोडवानुं लाकडु बन्युं छे, गरम लोढाने ठारवानी पाणीनी द्रोणी (कुंडी) बनी छे अने अधिकरणशाला (लोहारनी कोड) बनी छे ते जीवोने पण कायिकी यावत्-पांच क्रियाओ लागे छे. अभिकरणी ने अ ५ . [प्र०] हे भगवन् ! जीव अधिकरणी-अधिकरणवाळो छे के अधिकरण छे ! [उ०] हे गौतम ! जीव अधिकरणी पण छे धिकरण. जीवने अ- अने अधिकरण पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुधी कहो छो के 'जीव अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे ! धिकरणी अने अधिक रण कहेवा कारण. [उ०] हे गौतम ! 'अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अविरति रूप हेतुथी जीव अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे. १* जीव तैजस अने कार्मण शरीरनी अपेक्षाए शरीरसहित भवान्तरे जाय छे अने अन्य औदारिकादि शरीरनी अपेक्षाए शरीररहित थईने जाय छे. जुओ-भग• खं० १ श० २ उ. १ पृ० २५६. ३ कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी अने प्राणातिपातिकी-ए पांच क्रियाओ शरीरद्वारा लागे छे. ५. अधिकरण एटळे हिंसादि पापकर्मना हेतुभूत वस्तु, तेना भांतरिक अने बाह्य बे भेद छे, तेमां शरीर अने इन्द्रियो भातरिक अधिकरण, भने कुहाडा, कोश, हल भने गाडा आदि परिग्रहात्मक वस्तुओ बाह्य अधिकरण रूपे अहिं विवक्षित छे, ते जेने होय ते जीव अधिकरणी कहेवाय छे, अने ते शरीरादि अधिकरणथी कथंचिद् अभिन्न होवाथी अधिकरण रूप पण छे, अर्थात् जीव अधिकरणी अने अधिकरण बन्नेरूपे कहेवाय छे.-टीका. जे जीव विरतिवाळो होय तेने शरीरादि आंतर ने बाह्य परिग्रहात्मक वस्तुनो सद्भाव होवा छतां पण ममत्वना अभावथी ते अधिकरणी के अधिकरण कहेवातो नथी, परंतु जे जीव अविरतिवाळो होय छे तेने ममत्व होवाथी ते अधिकरणी भने अधिकरणाप कहेबाय छे. टीका. सरी कोश, हल भाटले हिंसादि पापा की, पारितापनिकी . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६. - उद्देशक. १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३ ६. [प्र०] नेरइप णं भंते! किं अधिकरणी अधिकरणं ? [30] गोयमा ! अधिकरणी वि अधिकरणं पि । एवं जहेव जीवे सहेव ने वि एवं निरंतरं जाव वैमाणिए । 1 ७. [प्र० ] जीचे णं भंते! किं साहिकरणी, निरहिकरणी ? [30] गोयमा ! साहिकरणी, नो निरद्दिकरणी [50] से hi - पुच्छा [अ०] गोयमा ! अविरति पडुञ्च, से तेणट्टेणं जाव-नो निरहिकरणी । एवं जाव - वेमाणिए । ८. [प्र० ] जीवे णं भंते! किं आयाहिकरणी, पराहिकरणी, तदुभयाहिकरणी १ [उ०] गोयमा ! आयाहिकरणी वि पराहिकरणी वि, तदुभयाद्दिकरणी वि। [50] से केणट्टेणं भंते! एवं दुध-च-तदुभयाहिकरणी बि' [४०] गोवमा ! अविरति पहुच से तेणद्वेणं जाव- तदुभवाहिकरणी वि एवं जाव-वेमाणिए । ९. [०] जीवाणं भंते! अधिकरणे किं आयप्पओगनिवत्तिए, परप्पयोगनिष्वत्तिए, तदुभयप्पयोगनिष्वत्तिए १ [30] गोयमा ! आयप्ययोगनिष्ठत्तिय वि, परप्ययोगनिष्ठत्तिए वि, तदुभयप्ययोगनिवत्तिय वि [प्र०] से केणद्वेषणं भंते! एवं बुवाई [४०] गोयमा ! अविरति पहुच से तेण जाय तदुभयप्पयोगनिष्ठत्तिए वि एवं जाय बेमाणियाणं । i 2 १०. [प्र० ] ते सरीरगा पण्णत्ता ? [४०] गोषमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, संजदा-१ ओरालिए, आप ५ कम्मर ११. [प्र०] कति णं भंते! [दिया पण्णता ? [४०] गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, संजहार सोदिप, जाव ५ फार्सिदिए । - १२. [अ०] कतिविद्दे णं भंते जोए पष्णते ? [४०] गोयमा ! तिविहे जोए पष्णते, तंजा-१ मणजोष, २ ३ कायजोए । जोप ए ६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिक अधिकरणी छे के अधिकरण छे ! [उ०] हे गौतम! नैरयिक अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे, जैम जीव संबंचे कहां रोग गैरविक संबंचे पण जाणवु, अने ए प्रमाणे यावत्- निरंतर वैमानिक सुभीना जीव संबन्धे पण जाई. ७. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीव साधिकरणी छे के निरधिकरणी छे ! [उ०] हे गौतम! जीव #साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी [0] हे भगवन् ! प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव साधिकरणी छे अने निरधिकरणी नथी' ! [उ०] हे गौतम! अविर - तिने आश्रयी, अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी जीवो साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु. ८. [ प्र० ] है भगवन्! शुं जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छे के तदुभयाधिकरणी छे। [30] हे गौतम जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छे अने तदुभयाधिकरणी छे. [प्र० ] हे भगवन् । ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव आत्माधिकरणी, पराधिकरणी अने तदुभवाधिकरणी पण छे' [४०] हे गौतम! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी जीव यावत्निरधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत् - वैमानिको सुधी जाणवुं. ९. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगथी थाय छे, परप्रयोगथी थाय छे के तदुभयप्रयोगधी थाय छे ! [उ०] हे गौतम! जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगथी, परप्रयोगथी अने तदुभयप्रयोगथी पण थाय छे. [प्र० ] हे भगवन् । ते ए प्रमाणे आप शा संधी कहो छो के जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगयी, परप्रयोगथी अने तदुभयप्रयोगथी थाय छे [30] हे गौतम! अविरतिने पांत्र्यी, अर्थात् जीवोनुं अधिकरण अविरतिरूप हेतुथी यावत्-तदुभयप्रयोगथी थाय छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवुं. १०. [प्र०] हे भगवन् ! शरीरो केटला कलां छे ? [उ०] हे गौतम ! शरीरो पांच कह्यां छे, ते आ प्रमाणे- १ औदारिक, यावत् ५ कार्मण. १२. [प्र०] हे भगवन् ! योगना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! योगना त्रण प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणे१ मनयोग, २ वचनयोग अने ३ काययोग.. शरीरादि अधिकरण सहित जीव ते साधिकरणी, (अहिं समासार्थे इन् प्रत्यय छे) केमके संसारी जीवने शरीर इन्द्रियादिक रूप अन्तर अधिकरण सो हमेशां साथेज होय छे. शस्त्रादिक बाह्य अधिकरण नियतपणे साधे होता नथी, पण तेनो अविरतिरूप ममत्वभाव नियत सहचारी होवाथी शस्त्रादि बाह्य अधिकरणमी अपेक्षा साधकर कवास, अने तेज रात मी विनाअभावी सारिणी नवी.टी. जे कृष्यादि आरंभमांस करे ते आत्माधिकरणी अन्यनी पासे करावे ते परारी अने सयं करे ने अग्यानी पासे पण करावे ते उमवाकिरणी. टीका. 'आत्मप्रयोगनिर्वर्तित एटले हिंसादि पाप कार्यमां प्रवृत्त मन आदिना व्यापारथी उत्पन्न थएलं अधिकरण, अन्यने हिंसादि पाप कार्य मां प्रवर्तयया बडे उत्पन्न थल वचनादि अधिकरण ते परप्रयोग निर्वर्तित अने आत्मद्वारा तथा अन्यने प्रवर्तन कराववा द्वारा उत्पन्न थएल ते तदुभयप्रयोग निर्वर्तित अधिकरण कामराजे जीने वचनादि व्यापार नची मने जे परोपादि अधिकरण देतं ते अविरतिभावने आयी जाणुं, टीका, ११. [प्र० ] हे भगवन् ! इंद्रियो केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! इंद्रियो पांच कही छे, ते आ प्रमाणे- १ श्रोत्रेंद्रिय, यावत् - इन्द्रियोना प्रकार. ५ स्पर्शेन्द्रिय आश्रयी अधिकरणी नैरविकादि जीवो ने अधिक जीव साधिकरणी के निरधिकरणी ? धर जीव णी, पराधिकरणी के तदुभयाधिकरणी १ शामी थाय छे ? जीवोनुं अधिकरण अधिकरणनो हेतु. शरीरना प्रकार. योगना प्रकार. / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक १. १३. [प्र. जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निवत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं ! [उ.] गोयमा! अधिकरणी वि अधिकरणं पिप्र०] से केणटेणं भंते! एवं पुष्पह-अधिकरणी वि अधिकरणं पिउ०] गोयमा! अविरतिं पद से तेणटेणं जाव-अधिकरणं पि। १४. [प्र०] पुढविकाइएण णं भंते ! ओरालियसरीरं निधत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-मणुस्से । एवं वेउधियसरीरं पि, नवरं जस्स अस्थि । १५. [प्र०] जीवे णं भंते! आहारगसरीरं निश्वत्तेमाणे किं अधिकरणी-पुच्छा । [उ.] गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि।[प्र०] से केणटेणं जाव-अधिकरणं पि! [उ०] गोयमा! पमायं पडुच, से तेणटेणं जाव-अधिकरणं पि। एवं मणुस्से वि, तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं सवजीवाणं भ १६. [प्र.] जीवे णं भंते! सोइंदियं निवत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं? [30] एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं पि भाणियचं, नवरं जस्स अत्थि सोइंदियं, एवं चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाण वि, नवरं जाणियचं जस्स जं अस्थि। १७. [प्र०] जीवे णं भंते! मणजोगं निवत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं? [उ०] एवं जहेव सोइंदियं तहेव निरषसेस, वाजोगो एवं चेव, नवरं एगिदियवजाणं । एवं कायजोगो वि, नवरं सघजीवाणं, जाव-वेमाणिए । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेति । सोलसमे सए पढमो उद्देसो समत्तो । बौदारिक शरीरने पोपतो बीब HTS मधिकरण प्रथिवीकायिक. भावारक शरीरने वाचतो मधिकरणी फे अधिकरण १३. [प्र०] हे भगवन् । औदारिक शरीरने बांधतो जीप अधिकरणी छे के अधिकरण छे ! [उ०] हे गौतम! ते अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे. [प्र०] हे भगवन् । ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'औदारिक शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी छे अने अधिकरण पण छे ! [उ०] हे गौतम । अविरतिने आश्रयी. अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी पूर्व प्रमाणे यावत्-अधिकरण पण छे. १४. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो "पृथ्वीकायिक जीव अधिकरणी छे के अधिकरण छे! [उ.1 हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवं. अने ए प्रमाणे यावत् मनुष्यो सुधी जाणवू. ए प्रमाणे वैक्रिय शरीर संबंधे पण समजवू, पण तेमां ए विशेष के के जे. जीवोने जे शरीर होय तेमना विषे ते शरीर संबन्धे कहेवू. १५. [प्र०] हे भगवन्! आहारक शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी छे-इत्यादि प्रश्न. उ०] हे गौतम | ते अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे. [प्र०) हे भगवन् । ते ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के ते यावत्-'अधिकरण पण छे' ! [उ०] हे गौतम ! प्रमादने आश्रयी, अर्थात् प्रमादरूप कारणने लइने ते यावत्-'अधिकरण पण छे.' ए प्रमाणे मनुष्य संबंधे पण जाणवू. औदारिक शरीरनी पेठे तैजस शरीर संबंधे पण कहे, पण तेमा विशेष ए छे के, [तैजस शरीर सर्व जीवोने होवाथी ] सर्व जीबोने विषे ए प्रमाणे. समजवू. एज प्रमाणे कार्मण शरीर विषे पण जाणवं. १६. [प्र०] हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियने बांधतो जीव अधिकरणी छे के अधिकरण छे! उ०] हे गौतम | जेम औदारिक शरीरने विषे कहेलं छे तेम श्रोत्रंद्रियने विषे पण कहे. विशेष ए छे के जे जीवोने श्रोत्रंद्रिय होय तेमना विषे ते कहे. ए प्रमाणे चक्षुरिनिक घ्राणेंद्रिय, जितेंद्रिय, अने स्पर्शेद्रिय संबंधे पण जाणवू. विशेष ए के जे जीवोने जे इन्द्रिय होय तेमना विषे ते इन्द्रिय संबन्धे कहे..... १७. [प्र०) हे भगवन् ! मनोयोगने बांधतो जीव अधिकरणी छे के अधिकरण छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम श्रोत्रंद्रियना विषयमां का छे तेम आ विषयमा पण बधुं कहे. ए प्रमाणे वचनयोग संबन्धे पण समजवं. विशेष ए के वचनयोगमा एकेंद्रिय जीवो न लेवा. ए प्रमाणे काययोग संबन्धे जाणवू. अने तेमां विशेष ए के काययोग सवैजीवोने होवाथी सर्वना विषे ते समजवू. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' सोळमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. मोवेन्द्रिय मनोयोग. नारक, देव, वायु, अन पंचेन्द्रिय तिर्थच भने मनुष्यने लायी तेने वैक्रिय शरीर होय छे. जुना प्रथम प्रश्न सामान्य जीवजातिने साना १४हवे अहिं दंडकना क्रमथी प्रश्न करे छे. तेमां औदारिक शरीर नारक भने देवोने होतुं नथी, तेथी नारक भने असुरादि देवीने छोटी पृथिवीकायिकने आश्रयी प्रश्न को छे. जनारक, देव, वायु, पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्यने क्रियशरीर होय छे. तेमां नारक भने देवने भवप्रत्यय वैक्रियशरीर होय छे एटले के तेमने जन्मश्रीज ए शरीर प्राप्त होय छे, अने पंचेन्द्रिय तिर्यच भने मनुष्यने लब्धिप्रत्यय वैक्रिय शरीर होय छे. एटले के वैक्रिय शरीर करवानी जेने खास शक्ति प्राप्त थई होय तेने ज होय छे. वायुकायने पण वैक्रिय शक्ति प्राप्त थयेली होवाथी तेने वैक्रिय शरीर होय छे. जुओ-भग० सं० २ ० ३ १.४ पृ. ८५. १५ आहारक शरीर संयत मनुष्यने ज होय छे, तेथी मूळ प्रश्न मनुष्यने उद्देशीने करवो जोइए, छतां प्रथम प्रश्न सामान्य जीवजातिने उद्देशीने करवामां आव्यो छे, तेनुं कारण मात्र क्रमर्नु अनुसरण छे. कारण के अहिं प्रथम दरेक प्रश्न सामान्य जीवसमूहने उद्देशीने करवामां आवे छे अने पछीना प्रश्नो दंडकना क्रम प्रमाणे करवामां आवे छे. अहिं अविरतिनो अभाव होवाची अविरति अधिकरण नथी. पण प्रमादरूप अधिकरण छ. Jain Education international Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. बीओ उद्देसो. १. रायगिहे जाव-एवं वयासी-जीवाणं भंते ! किंजरा, सोगे' [उ०] गोयमा जीवाणं जरा षि सोगे विप्रा सेकेण्टेणं मंते! एवं बुचइ-जाव-'सोगे वि'? [उ०] गोयमा! जे णं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति, तेसि णं जीवाणं जरा जेणे जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे, से तेणटेणं जाव-सोगे वि । एवं नेरदयाण वि । एवं जाव-थणियकुमाराणं। २.[प्र०] पुढविकाइयाणं भंते ! किं जरा, सोगे? [उ०] गोयमा! पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे । प्र०] से केणट्रेणं जाव-'नो सोगे' १ [उ.] गोयमा! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेदेति, से तेणटेणं जाव-नो सोगे। एवं जाव-बउरिदियाणं । सेसाणं जहा जीवाणं, जाव-वेमाणियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति जाव-पज्जवासति । ३. [प्र०] तेणं कालेणं तेणं समएणं सके देविदे देवराया वजपाणी पुरंदरे जाव-भुंजमाणे विहरह । इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासति समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे । एवं जहा ईसाणे तश्यसप तहेव सके वि । नवरं आभिओगे ण सद्दावेति, पायत्ताणियाहिवई हरी, सुघोसा घंटा, पालमो विमाणकारी, पालगं विभाणं, उत्तरिल्ले निजाणमग्गे, दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपथए, सेसं तं चेव, जाव-नामगं सावेत्ता पजुवासति । धम्मकहा, जाव-परिसा पडिगया । तए णं से सके देविदे देवराया समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मं सोप्या निसम्म हटुतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी४. [प्र०] कतिविहे गं भंते ! उग्गहे पन्नत्ते? [उ०] सक्का! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-१.देविंदोग्गहे, २ रायो द्वितीय उद्देशक. १.प्र. राजगृहमा [भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! शुं जीवोने "जरा-वृद्धावस्था अने शोक जरा बने शोक. भरा अने शोक होय छे ! उ.] हे गौतम | जीवोने जरा पण होय छे अने शोक पण होय छे. [प्र०] हे भगवन् । ते ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो . होवानुं कारण. के, जीवोने जरा अने शोक होय छे! [उ०] हे गौतम जे जीवोने शारीरिक वेदना होय छे ते जीवोने जरा होय छे, अने जे जीवोने मानसिक वेदना होय छे ते जीवोने शोक होय छे, माटे ते हेतुथी एम का छे के जीवोने जरा अने शोक होय छे, ए प्रमाणे नैरयिको संबंधे तथा यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. २. [प्र०] हे भगवन् । पृथिवीकायिकोने जरा अने शोक होय छे ! [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिकने जरा होय छे, पण शोक पृथ्वीकायिक वीवोने नथी होतो. [प्र०] हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण के पृथिवीकायिकोने जरा होय अने शोक न होय ! [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिको ' । भरा अने शोक होया शारीरिक वेदनाने अनुभवे छे, पण मानसिक वेदनाने अनुभवता नथी माटे तेओने जरा होय छे, पण शोक नथी होतो. ए प्रमाणे कारण, यावत्-चतुरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवु. बाकीना जीवो माटे सामान्य जीवोनी पेठे समजवु. अने ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुघी कहेवू. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे'-एम कही यावत्-पर्युपासना करे छे. ३. ते काळे ते समये शक्र, देवेंद्र, देवराज, वज्रपाणि, पुरंदर यावत्-सुखने भोगवतो विहरे छे, अने पोताना विशाल अवधिज्ञान शक्रेन्द्रनुं वर्णन अने वडे आ समस्त जंबूद्वीपने अवलोकतो अवलोकतो जंबूद्वीपमा श्रमण भगवंत महावीरने जुए छे. अहीं तृतीय शतकमां कहेल ईिशानेन्द्रनी आपर्व थक्तव्यता प्रमाणे शक्रनी बधी वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए छे के आ शक आभियोगिक देवोने बोलावतो नथी. एनो सेनाधिपति हरिनैगमेषी देव छे, घंटा सुघोषा छे, पालक नामे देव विमाननो बनावनार छे, विमाननुं नाम पालक छे, एनो निकळवानो मार्ग उत्तर दिशाए छे, दक्षिण पूर्वमां-अग्निकोणमा रतिकर पर्वत छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. यावत्-शक पोतानु नाम संभळावी भगवंतनी पर्युपासना करे छे. श्रमण भगवंत महावीरे धर्मकथा कही. यावत्-सभा पाछी गई. त्यारबाद ते शक्र, देवेन्द्र, देवराज श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी हर्षवाळो अने संतोषवाळो थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो १. [प्र०] हे भगवन् ! अवग्रह केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] हे शक्र ! अवग्रह पांच प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणे- अवमान्ने प्रश्न अने १ देवेन्द्रावग्रह, २ राजावग्रह, ३ गृहपतिअवग्रह, ४ सागारिकावग्रह अने ५ साधर्मिकावग्रह. जे आ श्रमण निम्रन्थो आजकाल विचरे र शकर्नु स्वखाव मन. १ * जरा शारीरिक दुःखरूप छे अने शोक मानसिक दुःखरूप छ, माटे मनोयोग विनाना जीवोने केवळ जरा भने मनोयोगवाळा जीवोने जरा भने शौक बन्ने होय छे.-टीका. ३ भग• खं० २ श.३ उ• १ पृ. २३. अवप्रह-स्वामीपणु, तेना पांच प्रकार छे. तेमा १ प्रथम देवेन्द्रावग्रह. देवेन्द्र एटले शक भने ईशानेन्द्र, तेनुं खामीपणुं अनुक्रमे दक्षिण लोकार्ध अने उत्तरलोकार्धमा छ, माटे ते देवेन्द्रावग्रह कहेवाय छे. २ चक्रवर्तिने अधीन भरतादि छ क्षेत्रमा राजाऽवग्रह होय छे. ३ मांडलिक राजाना पोताना ताबाना देशमा गृहपतिभवग्रह होय छे. ४ गृहस्थने पोतानी मालिकीना घर वगेरेमा सागारिकावग्रह होय छे. ५ समान धर्मवाळा. साधुओ परस्पर साधर्मिक कहेवाय छे, तेओनो वर्षाऋतु सिवायना काळमा एक मास सुधी भने वर्षाऋतुमा चार मास सुधी पांच कोशपर्यन्त क्षेत्रमा साधर्मिकावग्रह होय छे.-टीका. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक २. ग्गहे, ३ गाहावइउग्गहे, ४ सागारियउग्गहे, ५ साहम्मियउग्गहे । जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरति एएसि णं महं उग्गहं अणुजाणामीति कट्ट समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव दिवं जाणविमाणं दुरूति. दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए। ५. [प्र०] 'भंते'! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जणं भंते ! सके देविंदे देवराया तुझे णं एवं वदइ, सञ्चे णं एसमटे' ? [उ०] हंता सचे। १. [प्र०] सके णं भंते ! देविदे देवराया किं सम्मावादी, मिच्छावादी ? [उ०] गोयमा! सम्मावादी, नो मिच्छावादी। ७. [प्र०] सके णं भंते ! देविंदे देवराया किं सञ्चं भासं भासति, मोसं भासं भासति, सच्चामोसं भासं भासति, असचामोसं भासं भासति ? [उ.] गोयमा ! सच्चं पि भासं भासति, जाव-असचामोसं पि भासं भासति । ८.[३०] सकेणं भंते! देविदे देवराया कि सावजं भासं भासति, अणवजं भासं भासति [उ.] गोयमा! सावज पि भासं भासति, अणवजं पि भासं भासति । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सावजं पि जाव-अणवजं पि भावं भासति? [उ०] गोयमा! जाहे णं सक्के देविंद देवराया सुहुमकायं अणिजूहित्ता णं भासं भासति ताहे गं सक्के देविंदे देवराया सावजं भासं भासति, जाहे णं सक्के देविदे देवराया सुहुमकायं निहित्ता णं भासं मासति ताहेणं सके देविंदे देवराया अणवजं भासं भासति, से तेणटेणं जाव-भासति। ९. [प्र०] सक्के गं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए, अभवसिद्धीए, सम्मदिट्ठीए-एवं जहा मोउद्देसए सणंकु. मारो, जाव-नो अचरिमे। १०. [प्र०] जीवाणं भंते ! किं चेयकडा कम्मा कजंति, अचेयकडा कम्मा कजंति ? [उ०] गोयमा ! जीवाणं चेयकहा कम्मा कजंति, नो अचेयकडा कम्मा कजंति । [प्र०] से केण?णं भंते ! एवं पुचइ-जाव-'कजंति' ? [उ०] गोयमा ! छे तेओने हुँ अवग्रहनी अनुज्ञा आपुं छु. एम कही ते शक श्रमण भगवंत महावीरने वादी नमी तेज दिव्य विमान उपर बेसी ज्याथी आव्यो हतो त्या चाल्यो गयो. ५. [प्र०] "भगवन्' ! एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! शक देवेन्द्र देवराजे जे आपने पूर्व प्रमाणे [अवग्रह संबंधी ] कर्वा ते अर्थ सत्य छे ! [उ०] हा गौतम ! ए अर्थ सत्य छे.. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शक्र देवेंद्र देवराज शुं सत्यवादी छे के मिथ्यावादी छे! [उ०] हे गौतम! ते सत्यवादी छे पण शकेन्द्र सत्ववादी के निष्यावादी मिथ्यावादी नथी. शंकेन्द्र केवी भाषा ७. [प्र०] हे भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज सत्यभाषा बोले छे, मृषा भाषा बोले छे, सत्यमृषा भाषा बोले छे के असल्यामृषा ___ भाषा बोले छे! [उ०] हे गौतम ! ते सत्य भाषा बोले छे, यावत्-असत्यामृषा भाषा पण बोले छे. शकेन्द्र सावध ८. प्र०] हे भगवन् । शक देवेन्द्र देवराज सावध (पापयुक्त) भाषा बोले के निरवद्य (पापरहित) भाषा बोले ! [उ. हे गौतम! भापा बोहे के निरव ते सावध अने निरवद्य बन्ने भाषा बोले. [प्र०] हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण के शक सावध अने निरवद्य ए बन्ने भाषा बोले ! [उ०] सावध अने निरवय हे गौतम! शक देवेंद्र देवराज ज्यारे सूक्ष्म काय-हस्त अथवा वस्त्र वडे मुख ढक्या विना बोले त्यारे ते *सावध भाषा बोले छे अने मुख बालवा ढांकीने बोले त्यारे ते निरवध भाषा बोले छे, माटे ते हेतुथी ते शक सावद्य अने निरवद्य बन्ने भाषा बोले छे. कारण. शु शकेन्द्र भव- ९. [प्र०] हे भगवन् ! ते शक देवेन्द्र देवराज भवसिद्धिक छे, अभवसिद्धिक छे, सम्यग्दृष्टि छे, [के मिथ्यादृष्टि छे !] सिद्धिक के वगेरे [उ०] जेम त्रिीजा शतकना प्रथम उद्देशकमां सनत्कुमार माटे कयुं छे तेम अहिं पण जाणवू. अने ते यावत्,-'अचरम नथी' ए पाठ सुधी कहे. प्रश्न. कमों चैतन्यकृत के बचैतन्य कृत। १०. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना कर्मो चैतन्यकृत होय छे के अचैतन्यकृत होय छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवोना कर्मो चैतन्य ८ * हस्तादिकथी मुख ढांकीने बोलनार निरवद्य भाषा बोले छे, कारण के तेनो वायुकायिक जीवने बचाववानो प्रयत्न होवाथी ते सावधानतापूर्वक यो छे. उघाडे मुखे बोलनार सायद्य भाषा बोले छे, केमके तेनो जीवसंरक्षणनो यन्न नहि होवाथी ते असावधानतापूर्वक बोले छे.-टीका. भग• खं. २ श.३.१ पृ.३४. . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ - उद्देश २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. जीवाणं आहारोवचिया पोंगाला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा णं तें पोग्गला परिणमंति, नत्यि अचेयकडा कम्मा समणावसो !, दुद्वाणे, दुसेखासु, दुनिसीदियासु तदा तदा ते योग्गला परिणमति, नत्थि अधेयका कम्मा समणाउसो !, मयंके से बहार होति, संकप्पे से बढ़ाए होति मरणंते से बहाए होति तदा तहा णं ते पोला परिणमंति, नत्थि अपकडा कम्मा समणाउसो, से तेजद्वेणं जाब- कम्मा कति एवं नेरतियाण वि, एवं जाप-बेमाणियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव - विहरति । सोलसमे सए बीओ उद्देसो समतो । तेना कारणो. कृत होय छे पण अचैतन्यकृत नथी होता. [प्र० ] हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण छे के 'जीबोना कर्मों चैतन्यकृत होय छे पण चैतन् नथी होता'! [30] हे गीतमजीपोर ज आहाररूपे, शरीररूपे अने कलेवररूपे उपचित (संचित ) करेला पुद्गलो ते ते रूपे परिणमे छे, माठे हे आयुधान् भ्रमण अचेतन्यकृत कर्मों नथी. तथा दुःस्थानरूपे दुःशय्यारूपे, अने दुर्निपथारूपे ते ते पुद्गलोक परिणमे छे माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! अचैतन्यकृत कर्मपुद्गलो नथी. तथा ते आतंकरूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे, संकल्परूपे परिमी जीवनावध माटे थाय छे अने मरणांतरूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! कर्म पुद्गलो अचैतन्यकृत नथी. ते कारणथी यावत्-जीवोना कर्मों अचैतन्यकृत नथी. ए प्रमाणे नैरयिको संबंधे अने यावत्-- वैमानिको संबंधे पण जाणवुं. 'है भगवन् ! ते मज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही यावदू विहरे छे. सोलमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. तईओ उद्देसो. १. [ प्र० ] रायगिहे जाब - एवं वयासी कति णं भंते! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! भट्ठ कम्मपयटीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - १ नाणावर णिज्जं, जाव-८ अंतराइयं, एवं जाव-वेमाणियाणं । २. [प्र० ] जीचे णं भंते ! जानावरण कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति । [४०] गोपमा ! भट्ठ कम्मप्यग तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] राजगृहमां [ भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ! [उ०] हे गौतम! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आ प्रमाणे- १ ज्ञानावरणीय, यावत्-८ अंतराय. ए प्रमाणे यावत् - वैमानिको सुधी जाणवु. २. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मने वेदतो जीव बीजी केटली कर्मप्रकृतिओ वेदे छे १ [उ०] हे गौतम ! आठे कर्मप्रकृति- ज्ञानावरणीयने वेदसो खोने बेदे छे. ए प्रमाणे अहीं प्रज्ञापनासूत्रमां कहे 'वेदावेद' नामनो समग्र उद्देशक कहेवो तथा तेन प्रकारे 'वेदाबंध' नामनो तिभोने वेदे " १. जेम जीवोए आहारादिरूपे संचित करेला लो हादिरूपे परिणमे रोमकर्मसंति करेला लो जीने ते ते रूपे परिणये छे. तथा ते (कर्म पुद्गलो) टाढ, तडको, डांस, मच्छर वगेरे युक्त स्थानमां, दुःखोत्पादक वसतिमां अने दुःखकारक स्वाध्यायभूमिमां दुःखोत्पादकरूपे परिणमे छे, जीवोने ज दुःखनो संभव होवाथी दुःख हेतुभूत कर्मों तेणेज कर्या छे. वळी ते (कर्म पुद्गलो) आतंक - रोगरूपे, संकल्प भयादिविकल्परूपे अने मरणान्त उपघातरूपे अर्थात् रोगादिजनक असावेदनीय परिणने असे बचना हेतुभूता भने पथ जीवनो जपतो होवाथी मना हेतुरूप असावेदनीय लो जी माटे चैतत कम दो छ' एम. 2 २ * 'ज्ञानावरणीयादि आठ कर्ममांनी कोइ पण एक प्रकृतिने वेदतो बीजी केटली प्रकृतिओने वेदे - ए विचार वेदावेद पदम छे. ज्ञानावरणीय कर्मने वेदतो आठ कर्मप्रकृतिने वेदे. ज्यारे मोहनीय कर्मनो क्षय थाय त्यारे ते सिवाय सात कर्म प्रकृतिओने वेदे. जेम सामान्य जीवने आश्रयी कहुं तेम मनुष्यदंडकने आश्रयी जाणवुं नारकथी मांडी वैमानिक सुधी कोइ पण कर्मने वेदतो आठ ज कर्म प्रकृतिओ वेदे जुओ प्रज्ञा पद २७५० ४९७. + वेदाबंधपदमां कोइ पण एक कर्मप्रकृतिने वेदतो केटली प्रकृतिभोने आठ छ भने एक कर्मप्रकृति बकरे खरे राय गुणस्थानके आयुष अने मोड्गीय विवाम छ कर्म प्रकृतियो वर्ष भने उपशान्तमोहादि गुणस्थानके एक वेदनीय कर्मने बांध पद २६० ४९५. बांधे एवं प्रतिपादन करेलं छे. जीव ज्ञानावरणीय कर्मने वेदतो सात, करे आपनांचे खारे ते शिवाय सात प्रकृतिको बां कर्मप्रकृति. सूक्ष्म संप- प्रश / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. औरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक ३. डीओ-एवं जहा पन्नवणाए वेदावेउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियधो । वेदाधो वि तहेव, पंधावेदो वि तहेव, बंधाबंधो वि तहेव भाणियचो जाव-वेमाणियाणं ति । 'सेवं भंते। सेवं भंते'ति जाव-विहरति । उद्देशक पण कहेवो. तेवी ज रीते 'बंधावेद' नामनो तथा 'बंधाबंध' नामनो उद्देशक पण कहेवो. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावद्-विहरे छे. नाम. . . . १ -० १-. iii iiii ! * बन्धावेद पदमा 'कोइ पण एक कर्मप्रकृतिने बांधतो केटली प्रकृतिओने वेदे' एवं प्रतिपादन करेलुं छे. जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधतो अवश्य आठ प्रकृतिओ वेदे. जुओ प्रशा० पद २५५० ४९४. बन्धाबन्ध पदमा 'कोइ पण एक प्रकृतिने बांधतो जीव बीजी केटली प्रकृति ओबांधे एवं प्रतिपादन करेलु छे. जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधतो सात, आठ अने छ प्रकृतिओ बांधे. भायुष न बांधे त्यारे ते सिवाय सात, आयुषसहित आठ अने मोहनीय अने आयुष विना छ प्रकृतिमो बाँधे. जुओप्रज्ञा० पद २४ ५.४९१. 'ज्ञानावरणादि एक प्रकृतिमा उदयमा अन्य केटली प्रकृतिओनो उदय होय' ते सूचित करनार 'वेदावेद' यत्र. एक प्रकृतिनो उदय. अन्य प्रकृतिओनो उदय. ज्ञाना. दर्श. वेद. मोह. आयुष अन्तराय ज्ञानावरण. दर्शनावरण. वेदनीय. मोहनीय. भायुष. १-० गोत्र. अन्तराय. ज्ञानावरणादि एक प्रकृतिना उदयमा अन्य केटली प्रकृतिओनो बन्ध होय ते सूचित करनार 'वेदाबन्ध' यत्र. एक प्रकृतिनो उदय. अन्य प्रकृतिओनो बन्ध. ज्ञाना. दर्श. वेद. मोह. आयु. नाम गोत्र अन्त. ज्ञानावरण. १-० दर्शनावरण. १-. वेदनीय. १- ० १ -. मोहनीय. भायुष. १-० नाम. १-० १-. अन्तराय. १-० १- ० १ -० १-. १-. ज्ञानावरणादि एक प्रकृतिना बन्धमा अन्य केटली प्रकृतिओनो उदय होय ते सूचित करनार 'बन्धावेद' यत्र. एक प्रकृतिनो बन्ध. अन्य प्रकृतिनो उदय. ज्ञाना. दर्श. वेद. मोह. आयु. नाम. गोत्र. अन्त. ज्ञानावरण. दर्शनावरण. वेदनीय. १- ० १ -० मोहनीय. आयुष. नाम. गोत्र. अन्तराय. ज्ञानावरणादि एक प्रकृतिना बन्धमा अन्य केटली प्रकृतिओनो बन्ध होय ते सूचित करनार 'बधाबन्ध' यन्त्र. एक प्रकृतिनो बन्ध. अन्य प्रकृतिओनो बन्ध. दशे० मोह. आयु. अन्त ज्ञानावरण. १-० दर्शनावरण. वेदनीय. १- १-० मोहनीय. आयुष. नाम. १-० अन्तराय. सूचना-आ यत्रोमां ज्या ज्यां एक अंक अने शून्य साथे आवेला छे त्या त्या ते ते प्रकृतिना उदयादिक विकल्पे समजवा. ! १-० गोत्र. . १-० १४. शाना नाम गोत्र. गोत्र. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ - उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३. तप णं समणे भगवं महावीरे अदा कदायि रायगिहाओ नगराओ गुणसिताओ बेहयाओ पडिनियमति, २- मिता बहिना जनवयविदारं विहरति । तेषं कालेणं तेणं समर्पणं उलयतीरे नाम नगरे होत्या, वक्षयो । तरस पं उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिमाए एत्थ णं एगजंबूप नामं चेइप होत्था, वन्नओ । तप णं समणे भग महाबीरे अदा कदापि पुधाणुपुधिं चरमाणे जाच एगजंतूर समोसढे जाय-परिसा पढिगया । 'भंते त्ति भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीरं वंदर नमसर, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी I - ४. [प्र०] अणगारस्स नं भंते! भाविषण्यणो उद्वेणं अणिविखन्तेनं जाप आयायेमाणरस तरस पं पुरच्छिमे अब दिवस जो कप्पति इत्थं वा पादं वा जाव ऊरं वा भावडावेत या पसारेत्तर वा पचडिमेनं से अब दिवस कप्पति हत्थं वा पादं वा जाव ऊरुं वा आउंटावेत्तर वा पसारेत्तए वा । तस्स णं अंसियाओ लंबंति, तं चेव वेज्जे भदक्खु, ईसि पाडेति स पाडेता सियानो छिदेखा, से नूणं भंते जे दिति तस्स किरिया कजति, जस्स चिजति नो तस्स किरिया कज्जर णण्णत्थेगेणं धम्मंतराइपणं १ [उ०] हंता गोयमा ! जे छिंदति जाव- धम्मंतरायणं । 'सेवं भंते ! से मंते'ति । सोलसमे सए तईओ उद्देसो समयो । ३. व्यारबाद श्रमण भगवंत महावीरे अन्य कोई दिवसे राजगृह नगरना गुणसिलक चैत्यथी नीकळी बहारना बीजा देशोम विहार कर्यो. ते काळे ते समये उल्लुकतीर नामनुं नगर हतुं. वर्णक. ते उल्लुकतीर नामना नगरनी बहार ईशान कोणमां एकजंबूक नामनुं चैत्य हतुं वर्णक. त्यार पछी अनुक्रमे विचरता श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोई दिवसे एकजंबूनामक चैत्यमां समोसर्या, यावत् सभा पाछी - गइ. प्यार पछी 'भगवन्' ! एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे बोल्या ९ 8. [प्र० ] हे भगवन् 1 "छट्ट छट्टना तपपूर्वकं यावत् निरंतर आतापना लेता भावितात्मा एवा अनगारने दिवसना पूर्वार्ध भागमा पोताना हाथ, पग, यावत्-उरु-साथळने संकोचवा के पहोळा करवा कल्पता नथी, अने दिवसना पश्चिमार्ष भागमा पोताना हाथ, पग, यावत् - उरुने संकोचवा भने पोहळा करवा कल्पे छे. हवे [कायोत्सर्गमा रहेला ] एवा ते अनगारने [ नासिकामां] अर्शो लटकता होय अने अर्शोने कोई वैद्य जुए, जोईने ते अर्शोने कापवाने ते ऋषिने भूमि उपरं सूवाडीने तेना अर्शो कापे तो हे भगवन् ! ते कापनार वैद्यने क्रिया लागे के जेना अर्शो कपाय छे तेने धर्मांतराय रूप क्रिया सिवाय बीजी पण क्रिया लागे ! [उ०] हे गौतम । हा, जे कापे छे. तेने [शुभ ] क्रिया लागे छे, अने जेना अर्शो कपांय छे तेने धर्मांतराय सिवाय बीजी क्रिया नथी लागती. हे भगवन् ! ते एमंज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सोमा शतकां तृतीय उद्देशक समाप्त. १ 'वाससएहिं' इति पाठो न सम्यक प्रतिभाति । १ भ० सू० ४*काला अभिमाना भने निरन्तर छड़ना उपपूर्वक भातापमा ऐसा भावितात्मनेोरहेछा होवाथी दिवसना पूर्व भागमा इस्ता संकोच करा के पहला करवा न करपे, अने दिवसना पश्चिम भागमायोत्सर्ग नदि होयाची हस्तादि अवयवो संकुचित के पहोळा करा कल्पे ये काम रहेता ते साधुने मासिका अर्थ सटता होय लेने को वे लए अने ते साधुने वादी अर्धने का तो ते काम किया होन, अनेसा निपार होवाथी ने शुभ किया पद्म न होय, पण तुमच्यावना विच्छेदवी के करवाची सेनेतराय होव टीका. धर्मबुद्धि होवाथी अनुमोदन चउत्थो उद्देसो. १. [प्र० ] रायगिद्दे जाय एवं बयासी जाघतियं णं भंते! अन्नगिलावर समणे निम्गंधे फम्मं निचरेति पवतियं कर्म नरपसुनेरतिया णं वासेण वा बासेदिं या ( पाससपण या) बाससहिं वा खयंति [४०] णो तिपट्टे समट्टे । चतुर्थ उद्देशक. नित्यभोजी श्रमण १. [प्र०] राजगृहमां यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के - हे भगवन् ! अन्नग्लायक ( अन्न विना ग्लान थएलो - नित्यभोजी ) श्रमण निर्मंथ जेटलुं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीवो नरकमां एक वरसे, अनेक वरसे के सो बरसे खपावे ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ सो बरसे नैरविको समर्थ यथार्थ नथी. जेटली कर्मनी निर्जरा करे ? कीर रहे मुनिना अर्शने काप क्रिया लागेके नहि / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक ४. २. [प्र०] जावतियं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससपणं या पाससहि वा याससहस्सहिं वा खवयंति ? [उ०] णो तिणटे समटे । ३. [प्र०] जावतियं णं भंते ! छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससहस्सेगा या पाससहस्सेहि वा वाससयसहस्सेण वा खवयंति ? [उ०] णो तिणटे समझे। ४. [प्र०] जावतियं णं भंते ! अट्ठमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया घाससयसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं वा वासकोडीए वा खवयंति ? [उ०] नो तिणटे समढे। ५. [प्र०] जावतियं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया वासकोटरी' वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति ? [उ०] नो तिणटे समटे । ६.[प्र०] से केणटेणं भंते । एवं वुश्चइ-जावतियं अनगिलातए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएर नेतिया वासेण वा वासेहि वा वाससएण वा नो खवयंति. जावतियं चउत्थभत्तिए-एवं तं चेव पक्षमणियं उचारेयवं, जावपासकोडाकोडीए वा नो खवयंति' ? [उ०] गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे सिदिलतयावलितरंग संपिणद्धगत्ते पविरलपरिसडियदंतसेढी उपहाभिहए तण्हाभिहए आउरे मुंझिए पिवासिए दुम्बले किलंते एगं महं कोसंबगडिया सुकं जडिलं गंठिलं चिकणं वाइद्धं अपत्तियं मुंडेण परसुणा अवकमेजा, तए णं से पुरिसे महंताई २ सहाई करेइ, नो महंताई २ दलाई अबदालेइ, एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई चिक्कणीकयाई-एवं जहा छ?सए, जावनो महापजवसाणा भवंति । से जहानामए केह पुरिसे अहिकरणिं आउडेमाणे महया० जाव-नो महापज्जवसाणा भवंति । से अतुर्थ भक्कादि तप २. [प्र०] हे भगवन् ! चतुर्थभक्त (एक उपवास) करनार श्रमण निग्रंथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीवो नरकमा गरनार श्रमण जेटली पर सो बरसे, भनेक सो वरसे के हजार वरसे खपावे ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. नयिको सहस्रो व. रसे कमैनी निर्जरा ३. [प्र०] हे भगवन् । छट्ठ भक्त (बे उपवास) करी श्रमण निग्रंथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिको नरकमा एक हजार वरसे, अनेक हजार वरसे के एक लाख वरसे खपावे ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी, १. प्र०] हे भगवन् ! अष्टम भक्त (त्रण उपवास) करी श्रमण निग्रंथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिको नरकमा एक लाख वरसे, अनेक लाख वरसे के एक क्रोड वरसे खपावे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. करे। श्रमणने अधिक कर्मक्षय थवार्नु कारण. ५. [प्र०] हे भगवन् । दशम भक्त (चार उपवास) करनारो श्रमण निग्रंथ जेटल कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीवो नरकमा एक क्रोड वरसे, अनेक क्रोड वरसे के कोटाकोटी वरसे खपावे ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ६.प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'अन्नग्लायक श्रमण निग्रंथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीवो नरकमा एक वरसे, अनेक वरसे के एक सो वरसे पण न खपावे, अने चतुर्थभक्त करनार श्रमण निर्मथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिको नरकमा सो वरसे, अनेक सो वरसे के लाख वरसे न खपावे-इत्यादि बधुं पूर्व सूत्रनी पेठे कहे, यावत्-कोटाकोटी वरसे न खपावे' ! [उ.] हे गौतम! जेम कोई एक घरडो, घडपणथी जर्जरित शरीरवाळो, ढीला पडी गएला अने चामडीना वळीया वडे व्याप्त थयेला गात्रवाळो, थोडा अने पडी गयेला दांतवाळो, गरमीथी व्याकुल थयेलो, तरसथी पीडाएल, दुःखी, भूख्यो तरस्यो, दुर्बल अने मानसिक क्लेशवाळो पुरुष होय अने ते एक मोटा कोशंब नामना वृक्षनी सूकी, वांकी चुंकी गांठोवाळी, चिकणी, वांकी अने निराधार रहेली गंडिकागंडेरी उपर एक मुंड (बुढा ) परशु वडे प्रहार करे, तो ते पुरुष मोटा मोटा शब्दो (हुंकार) करे पण मोटा मोटा ककडा न करी शके. एज प्रमाणे हे गौतम | नैरयिकोए पोताना पाप कर्मो गाढ काँ छे, चिकणा कर्या छे-इत्यादि बधुं "छट्ठा शतकमा कह्या प्रमाणे कहेवू. यावत्-तेथी ते नैरयिको [ अत्यन्त वेदनाने वेदता छतां पण महानिर्जरावाळा अने] निर्वाणरूप फलवाळा थता नथी. वळी जेम कोई एक पुरुष एरण उपर घण मारतो मोटा शब्द करे [परन्तु ते एरणना स्थूल पुद्गलोने तोडवाने समर्थ थतो नथी, ए प्रमाणे नैरयिको गाढ कर्मवाळा होय छे, तेथी तेओ ] यावत्-महापर्यवसानवाळा नथी. तथा जेम कोई एक तरुण, बलवान् , यावत्-मेधावी अने निपुण कारीगर पुरुष एक मोटा शिमळाना वृक्षनी लीली, जटाविनानी, गांठो विनानी, चिकाश विनानी, सीधी अने आधारवाळी गंडिका उपर तीक्ष्ण कुहाडावडे प्रहार करे तो ते पुरुष मोटा मोटा शब्दो करतो नथी पण मोटा मोटा दळने फाडे छे, एज प्रमाणे हे गौतम ! जे श्रमण निग्रंथोए पोताना , 'सहस्सेण वा' इति पाठो कपुस्तके एव उपलभ्यते परं समीचीनः, 'वाससहस्सेहिं' इति पाठस्तु न सम्यक् प्रतीयते । *भग० सं० २२० ६ उ०१पृ० २५६. . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव-मेहावी निउणसिप्पोवगए एग महं सामलिगंडियं उल्लं अजडिलं अगंठिल्लं अचि. कणं अवाइद्धं सपत्तियं तिक्खेण परसुणा अक्कमेजा, तए णं से णं पुरिसे नो महंताई २ सहाई करेति, महंताई २ दलाई अवद्दालेति, एवामेव गोयमा! समणाणं निग्गंथाणं अहाबादराई कम्माई सिढिलीकयाई णिट्टियाइं कयाई, जाव-खिप्पामेष परिविद्धत्थाई भवंति जावतियं तावतियं जाव-महापजवसाणा भवंति । से जहा था कई पुरिसे सुक्कतणहत्थमं जायतेयंसि पक्खिवेजा-एवं जहा छट्ठसए तहा अयोकवल्ले बि, जाव-महापजवसाणा भवंति, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जावतियं अन्नइलायए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति-तं चेव जाव-वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति । 'सेवं भंते! सेवं भंते पति जाव-विहरद। सोलसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो। कर्मोने यथास्थूल, शिथिल यावत्-निष्ठित करेलां छे, यावत्-ते कर्मो शीघ्र ज नाश पामे छे अने यावत्-तेओ ( श्रमणो) महापर्यवसानवाळा थाय छे. वळी जेम कोइ एक पुरुष सूका घासना पूळाने यावत्-अग्निमां फेंके [अने ते शीघ्र बळी जाय ए प्रमाणे श्रमण निम्रन्थोना यथा बादर कर्मो शीघ्र नाश पामे छे.] तथा पाणीना टीपाने तपावेल लोढाना कढायामां नाखे तो ते जलदी नाश पामे ए प्रमाणे श्रमण निम्रन्थना कर्म शीघ्र विध्वस्त थाय छे-इत्यादि बधुं *छट्ठा शतकनी पेठे कहे, यावत्-तेओ महापर्यवसानवाळा थाय छे. माटे हे गौतम ! हेतुथी एम कर्दा छे के 'अन्नग्लायक श्रमण निग्रंथ जेटलं कर्म खपावे'–इत्यादि बधुं पूर्व प्रमाणेज कहे-यावत् तेटलं कर्म कोटाकोटी वरसे पण नैरयिक जीव न खपावे. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे- एम कही यावद्-विहरे छे, सोळमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो. १. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होत्था, वन्नओ। एगजंबूए चेहए, वन्नओ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । जाव-परिसा पजुवासति । तेणं कालेणं तेणं समएणं सके देविदे देवराया वजपाणी-एवं जहेव . बितियउद्देसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ, जाव-जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, २ जाव-नमंसित्ता एवं वयासी-प्र] देवे णं भंते ! महड्दिए जाव-महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगमित्तए?[उ० नो तिणट्रे समटे । देवे णं भंते ! महड्डिए जाव-महेसक्ने बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमित्तए ! [उ०] हंता पभू । प्र०] देवे णं भंते ! महड्डिए० एवं एएणं अभिलावेणं २ गमित्तए, एवं ३ भासित्तए वा, वागरित्तए वा, ४ उम्मिसावेत्तए वा निमिसावेतए वा, ५ आउद्यावेत्तए वा पसारेत्तए वा, ६ ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेइत्तए वा, एवं ७ विउवित्तए वा, एवं ८ रावेत्तए वा जाव-हंता पभू । इमाइं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, इमाई०२ पुच्छित्ता संभंतियवंदणएणं वंदति, संभंतिय० २ वंदित्ता तमेव दिलं जाणविमाणं दुरूहति, दुरूहित्ता जामेष दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए । पंचम उद्देशक. १.ते काळे, ते समये उल्लकतीर नामर्नु नगर हतुं. वर्णक. एकजंबूक नामर्नु चैत्य हतुं. वर्णक. ते काळे ते समये स्वामी समोसयों. उल्लकतीर नगरयावत्-सभा, पर्युपासना करे छे. ते काळे ते समये शक देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि-इत्यादि जेम बीजा उद्देशकमां कहेवामां आव्युं छे तेम एकजंबूक चैत्य. दिव्य विमान वडे अहीं आन्यो, अने यावत्-जे तरफ श्रमण भगवंत महावीर हता ते तरफ जइ यावत्-नमी आ प्रमाणे बोल्यो प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय अहीं आववा समर्थ छे ! [उ०] हे शक! देव बाम पुद्गलोने ना, ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुद्गलोने ग्रहण करीने अहीं आववा म अहि भाववा समर्थ समर्थ छ ? [उ०] हे शक्र! हा समर्थ छे. हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो देव यावत्-एज प्रमाणे बहारना पुद्गलोने ग्रहण करीने के। १ जवाने, २ बोलवाने, ३ उत्तर देवाने, १ आंख उघाडवाने के आंख मींचवाने, ५ शरीरना अवयवोने संकोचवाने के पहोळां करवाने. बाय पुनलाने माण ६ स्थान शय्या के निषद्या-स्वाध्यायभूमिने भोगववाने, ७ विकुर्ववाने अने ८ परिचारणा-विषयोपभोग करवाने समर्थ छे? [उ०] हा समर्थ छे? यावत्-समर्थ छे. ते देवेन्द्र देवराज पूर्वोक्त संक्षिप्त आठ प्रश्नो पूछी अने उत्सुकता-उतावळ पूर्वक भगवंत महावीरने वांदी तेज दिव्य वास पुद्गलोने ग्रहण करीने बोलना विमान उपर चढी ज्यांथी आव्यो हतो त्यां ते पाछो चाल्यो गयो. वगेरे क्रिया करवा समर्थ छ। * भग. खं० २ ० ६ उ०१पृ० २५६-२५७. ११ भग• खं. ४ श. १६ उ. २ पृ. ५. सर्व संसारी जीवो बाह्य पुदलोने प्रहण कर्या सिवाय कोइ पण किया करी शकला नथी, परन्तु 'महर्द्धिक देव समर्थ होवाथी कदाच बाह्य पुदलोने प्रहण को सिवाय गमनादि क्रिया करे' एवी संभावनाथी शक या प्रश्न पूछे छे. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकर्नु उत्सुकता पूर्वक वादीने जवानुं कारण. सम्यग्दृष्टि गंगद देवनी उत्पत्ति भने तेनो मिध्यादृष्टि दे बनी साथै संवाद. परिणाम पामतां पुलो परिणत कहेवाय. गंगादत्त देवनुं भग तपासे श्रगमन. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक १६. - उद्देश क ५ २. [प्र० ] 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी - अन्नदा णं भंते! सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति, नम॑सति, सक्कारेति, जाव-पज्जुवासति, किण्णं भंते । अज सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छर, २- च्छित्ता संभंतियवंदणपणं वंदति णमंसति, २ जाव- पडिग १ [अ०] 'गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समपणं महासुके कप्पे महासमागे विमाणे दो देवा महडिया जाव - महेसक्खा एगविमार्णसि देवत्ताए उववन्ना, तं जहा - मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नए य, अमायिसम्मदिट्टिउववन्नए य । तप णं से मायिमिच्छादिट्टिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मदिट्टिउववन्नगं देवं एवं वयासी - ' परिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया' । तप णं से अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नप देवे तं मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं देवं एवं वयासी- 'परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया' । तं माथिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं एवं पडिहणइ, एवं पडिणित्ता भहिं पउंजर, ओहिं परंजित्ता ममं ओहिणा आभो. er, ममं आभोपता अयमेयारूवे जाव - समुप्पजित्था - ' एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे, जेणेव भार हे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव - विहरति, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदिता जाव-पजुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए'त्ति कट्टु एवं संपेहेर, एवं संपेदित्ता चउर्दि सामाणियसादस्सीहि परियारो जहा सूरियाभस्स, जाव- निग्घोसनाहयरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव मारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुप चेइए, जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तप णं से सक्के देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिशं देवि दिवं देवजुति दिवं देवाणुभागं दिवं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छर, २ संभंतिय० जाव- पडिगए । १२ २. [प्र०] 'भगवन्' | एम कही पूज्य गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! अन्य दिवसे देवेन्द्र देवराज शक्र देवानुप्रिय आपने वंदन, नमन, सत्कार यावत् पर्युपासना करे छे, पण हे भगवन् ! आजे तो ते शक्र देवेन्द्र देवराज देवानुप्रिय एवा आपने संक्षिप्त आठ प्रश्नो पूछी अने उत्सुकतापूर्वक चांदी नमी यावत्-केम चाल्यो गयो ! [उ० ] 'हे गौतम' 1 एम कही, श्रमण भगवंत महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कर्छु - हे गौतम! ए प्रमाणे खरोखर ते काळे ते समये महाशुक्र कल्पना महासामान्य नामना विमानमां मोटी ऋद्धिवाळा, यावत्-मोटा सुखबाळा बे देवो एकज विमानमां देवपणे उत्पन्न थया, तेमां एक मायी मिथ्यादृष्टिरूपे उत्पन्न थयो भने एक अमायी सम्यग्दृष्टिरूपे उत्पन्न थयो. त्यार पछी उत्पन्न थयेला ते मायिमिध्यादृष्टि देवे उत्पन्न थयेला अमायिसम्यग्दृष्टि देवने आ प्रमाणे कछु के- " परिणाम पामता पुद्गलो 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के [हजी] ते परिणमे छे परिणत थी, पण 'अपरिणत' छे. त्यारबाद उत्पन्न थयेला ते अमायी सम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला ते. मायी मिध्यादृष्टि देवने कह्युं के, परिणाम पामता पुद्गलो 'परिणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय, कारण के ते परिणमे छे माटे ते परिणत कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. ए प्रमाणे कही उत्पन्न थयेला ते अमायिसम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला मायिमिध्यादृष्टि देवनो पराभव' कर्यो. त्यार पछी तेणे (सम्यग्दृष्टि देवे ) अवधिज्ञाननो उपयोग कर्यो, अने अवधिद्वारा मने जोईने ते सम्यग्दृष्टि देवने आ प्रकारनो संकल्प उत्पन्न थयो के जंबूद्वीपमां भारतवर्षमां ज्यां उल्लुकतीर नामनुं नगर छे, अने ते नगरमां ज्यां एकजंबूक नामनुं चैत्य छे, त्यो श्रमण भगवंत महावीर यथायोग्य अवग्रह लेइने विहरे छे, तो त्यां जई ते श्रमण भगवंत महावीरने वांदी यावत् पर्युपासी आ प्रकारनो प्रश्न पूछवो ए मारे माटे श्रेयरूप छे, एम विचारी चार हजार सामानिक देवोना परिवार साथे-जेम सूर्याभ देवनो परिवार को छे तेम अहिं पण समज - यावत्-निर्घोष नादित रवपूर्वक जे तरफ जंबूद्वीप छे, जे तरफ भारतवर्ष छे, जे तरफ उल्लुकतीर नामनुं नगर छे, अने जे तरफ एकजंबूक नामनुं चैत्य छे तथा ज्यां आगळ हुं विद्यमान छं ते तरफ आववाने तेणे ( सम्यग्दृष्टि देवे) विचार कर्यो. त्यारबाद ते देवेन्द्र देवराज शक मारी तरफ आवता ते देवनी तेवा प्रकारनी दिव्य देवर्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव अने दिव्य तेजोराशिने न सहन करतो आठ संक्षिप्त प्रश्नो पूछी अने उत्सुकतापूर्वक वांदी यावत्-चाल्यो गयो. २ * 'परिणाम पामतां पुद्गलोने परिणत न कहेवा जोइए, कारण के वर्तमानकाळ अने भूतकाळनो परस्पर विरोध छे, तेथी वे अपरिणत कहेवाय, तेनो परिणाम चालु छे माटे ते परिणत न कहेवाय'- ए मिथ्यादृष्टिदेवनुं कथन छे. सम्यग्दृष्टि देव तेने एवो उत्तर आपे छे के परिणाम पामता पुठूलो परिणत कद्देवा जोइए, पण ते अपरिणत न कहेवाय, केमके परिणाम पामे छे एटले ते अमुक अंशे परिणत थया छे, पण सर्वथा अपरिणत नथी. 'परिणमे छे' एवं कथन ते परिणामना सद्भावमा ज होइ शके, ते सिवाय न होइ शके. जो परिणामनो सद्भाव मानीए तो अमुक अंशे परिणतपणुं अवश्य मानवुं जोइए. जो अमुक अंशे परिणत छतां पण परिणतपणुं न मानवामां आवे तो सर्वदा परिणतपणानो अभाव थाय-टीका. + जुओ रायपसेणीय प० १४- १. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३. जापं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमद्वं परिकहेति तावं च णं से देवे तं देसं एचमागए । तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता पवं बयासी-प्र०] एवं खल भंते ! महासुके कप्पे महासमाणे विमाणे पगे मायिमिच्छदिविउववन्नए देवे ममं एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया'। तए णं अहं तं मायिमिच्छदिद्विउववनगं देवं एवं वयासी'परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया, से कहमेयं भंते । एवं'। 'गंगदत्ता'दि समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी-'महं पिणं गंगदत्ता! एवमाइक्खामि ४-परिणममाणा पोग्गला जाव-नो अपरिणया, सच्चमेसे अटे । तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हट्ठ-तुट्ठ० समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने जाव-पजुवासति । १.तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जांव-धम्म परिकहेइ, जाव-आराहए भवति । तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुढे उट्ठाए उट्टेति, उ०२ उद्देत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-प्र०] अहं णं भंते! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए, अभवसिद्धिए ? [उ०] एवं जहा सूरियाभो, जाव-बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेति, उवदंसेत्ता जाव-तामेव दिसं पडिगए। ५. [प्र०] 'मंते'त्ति भगवं. गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव-एवं पयासी-गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स सा विद्या देविड्डी विधा देवजुती जाव-अणुप्पविट्ठा ? [उ०] गोयमा! सरीरं गया, सरीरं अणुप्पविट्ठा, कूडागारसालादिटुंतो, जावसरीरं अणुप्पविट्ठा । अहो णं भंते ! गंगदत्ते देवे महिदिए जाव-महेसक्ने । ६.[प्र०] गंगदंचेणं भंते ! देवेणं सा दिया देविड्डी दिखा देवजुती किण्णा लद्धा, जाप-गंगदतेणं देवेणं सा दिया देविही जाव-अभिसमन्नागया? [उ.] 'गोयमा'दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा । तेणं ३. जे वखते श्रमण भगवंत महावीर पूर्व प्रमाणेनी वात पूज्य गौतमने कही रह्या छे तेज वखते ते (सम्यग्दृष्टि देव) त्यां शीघ्र आन्यो अने पछी ते देवे श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी वांदी नमी आ प्रमाणे कडं के [प्र०] हे भगवन् ! महाशुक्र कल्प- गंगदत्तनो भय वंतने प्रम. मां महासामान्य नामना विमानमा उत्पन्न यएला मायी मिथ्यादृष्टि देवे मने आ प्रमाणे कडं के परिणाम पामतां पुद्गलो 'परिणत' न कहे- क्त वाय, पण 'अपरिणतः कहेवाय. कारण के ते पुद्गलो हजी परिणमे छे माटे ते 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. पछी में ते मायी मिथ्यादृष्टि देवने आ प्रमाणे कडं के परिणाम पामता पुद्गलो परिणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. कारण के ते पुद्गलो परिणमे छे, माटे ते 'अपरिणत' न कहेवाय, पण 'परिणत' कहेवाय. तो हे भगवन्! ए मारुं कथन के छ? उ. गंगदत्त' । श्रमण भगवंत महावीरे ते गंगदत्त देवने आ प्रमाणे कह्यु के-हे गंगदत्त ! हुं पण ए प्रमाणे कहुं छं ४, के परिणाम पामता पुद्गलो यावत्'अपरिणत' नथी पण 'परिणत' छे, अने ते अर्थ सत्य छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीर पासेथी ए वातने सांभळी अवधारी ते गंगदत्त देव हर्षवाळो अने संतोषवाळो थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी बहु दूर नहि अने बहु नजीक नहीं एवी रीते पासे बेसी तेओनी पर्युपासना करे छे. १. पछी श्रमण भगवंत महावीरे ते गंगदत्त देवने अने ते मोटामा मोटी सभाने धर्मकथा कही, यावत्-ते आराधक थयो. पछी ते गंगदत्त देव भवसिगंगदत्त देव श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी अवधारी हर्ष अने संतोषयुक्त थई उभो थयो. उभो थईने श्रमण भगवंत सिकले के अभवसि. दिक ने इत्यादि प्रम. महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो के-प्र०] हे भगवंत! हुं गंगदत्त देव भवसिद्धिक छु के अभवसिद्धिक छु ! [उ०] जेम *सूर्याभ देव संबन्धे कह्यं तेनी पेठे बधुं जाणवू; यावत् ते गंगदत्त देव बत्रीस प्रकारना नाटक देखाडी ज्याथी आव्यो हतो त्यां पाछो चाल्यो गयो. ५. प्रि० 'हे भगवन् ! एम कही पूज्य गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कयु के-हे भगवन् ! ए गंगदत्त देवनी ते गंगदत्तनी दिव्य दिव्य देवर्षि, दिव्य देवद्युति यावत्-क्यां गई ! [उ०] हे गौतम! ते दिव्य देवर्धि ते गंगदत्त देवना शरीरमा गइ, भने शरीरमा अनुप्रविष्ट देवदि क्या गई। थई. आ स्थळे पूर्वोक्त कूिटागार शालानो दृष्टांत जाणवो. अने ते यावत्-'शरीरमा अनुप्रविष्ट थई'. हे भगवन्! ए गंगदत्त देव तो मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो छे. ६. [प्र०] हे भगवन्! गंगदत्त देवे ते दिव्य देवधि अने दिव्य देवधुति शाथी मेळवी, यावत्-दिव्य देवर्धि तेने शाथी अभिसमन्वागत-प्राप्त थई : [उ०] 'भो गौतम' ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे पूज्य गौतमने आ प्रमाणे कर्दा के-हे गौतम! ते काळे ते समये आज ४* रायपसेणीय प० ४४-१. ५१ जुओ रायपसेणीय प० ५६-२. Jain Education international Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तिनापुर. सहस्राभ्रवण. गंगदत्त गृहपति. मुनिसुव्रत स्वामीनी देशना भने गंगदत्तने प्रतिबोध. गगनी दीक्षा. १४ श्री रायचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे दात १६ – उदेशक ५. कालेणं तेणं समर्पणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हंत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था, वन्नओ । सहसंबवणे उज्जाणे, वन्नओ । तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे गंगदत्ते नामं गाहावती परिवसति, अड्डे जाव - अपरिभूप । तेणं कालेणं तेणं समपणं मुणिसुखप अरा आदिगरे जाव - सन् सङ्घदरिसी आगासगएणं चक्रेणं जाव-पकहियमाणेणं प० २ सीसगणसंपरिवुडे पुचापुर्णि चरमाणे गामाणुगामं० जाव जेणेव सहसंपवणे उखाणे जाप विहरति । परिसा निम्गवा, जाय पजुवासति । तर पं से गंगदत्ते गाडावती इमीसे कहाए लबट्टे समाणे तुट्ट जाव- कपचलि जाय सरीरे साथ निहाओ पडिनिक्यमति, पडनिमित्त पायविहारचारेणं हत्यिणागपुरं नगरं मज्झमज्झेणं निम्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेनेव सहसंघवणे उखाणे जेणेव मुनिसुर अरहा तेणेव उवागच्छर, ते० २ गच्छिता मुणिमुषयं सरखं तिषतुतो आयाहिण० जाव-तिविद्वाए पवासणार पचासति । 1 जबूद्वीपमां, भारतवर्षमा हस्तिनापुर नामनुं नगर हतुं वर्णन. त्यां सहस्राम्रवण नामनुं उद्यान हतुं वर्णन. ते हस्तिनापुर नगरमां आढ्य, यावत् - अपरिभूत एवो गंगदत्त नामनो गृहपति रहेतो हतो. ते काळे, ते समये आदिकर, यावत्- सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत चक्रसहित, यापद देवो चाता धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगंगधी संपरिवृत घई पूर्वानुपूर्वी विचरता अने ग्रामानुणाम विहरता यावत्-श्रीमुनिसुजत मुनिसुव्रत स्वामीनुं नामे अरहंत यावत्-जे तरफ सहस्राम्रवण नामनुं उद्यान हतुं त्यां आव्या अने यावत् विहरवा लाग्या. सभा वदिवा नीकळी अने यावत् www. आगमन. पर्युपासना करवा लागी मारवाद से मंगदस नाम गृहपति आदी रीते श्रीमुनिसुव्रत स्वामी आग्यानी बात समिली हवा अने संतोषवालो थई यावत् - बलिकर्म करी शरीरने शणगारी पोताना घरथी नीकळ्यो, नीकळी पगे चालीने हस्तिनापुर नगरनी वच्चावच्च थई जे तरफ सहस्राश्रवण नामनुं उद्यान हतुं अने य श्रीमुनिसुव्रत अरहंत हता त्यां आवी मुनिसुव्रत अरहंतने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, यावत्-त्रण प्रकारनी पर्युपासना वडे पर्युपासना करवा लाग्यो. ७. तप मुणिसुवर भरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महति० जाव परिसा पढिगया । तर णं से சு गंगदत्ते गाहावती मुणिसुवयस्स भरहओ अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट० उट्ठाए उट्ठेति, उ० २-त्ता मुणिसुष्वयं भर यंदति नर्मसति, वंदिता नर्मसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते! निग्गंधं पावनं जाय से जद्देवं तुज्झे वदद्द, जं नवरं देवापिया! जे कुहुंचे ठावेमि, तर अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे जाप पचपामि महादेवापिगा! मा पडिबंधं । - ८. तप णं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुवरणं अरहया एवं वृत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ मुणिसुष्वयं अरहं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नर्मसित्ता मुणिसुवयस्स भरनो अंतियाओ सहसंयत्रणाओ उज्जाणाओ पडिनिषणमति, २-मित्ता, जेणेव इत्थिणापुरे नगरे जेणेव सप गिहे तेणेव उवागच्छति, ते० २ - गच्छित्ता विउलं असणं पाणं जाव - उवपखडावेति, उवक्खडावेत्ता मित्त - णाति नियम जाच-भामतेति नामंतेता तभो पच्छा पहाए जहा पूरणे, जाब-जेडुपुचं कुटुंबे डावेति । तं मित्त-नातिजाव- जेट्ठपुत्तं च आपुच्छति, आपुच्छित्ता पुरिससहस्सवाहणि सीयं दुरुहति, पुरिस० २ दुरुहित्ता मिस्र - णाति-नियग० जाव ७. प्यार पछी ते श्रीमुनिसुव्रत स्वामीए ते गंगदत्त गृहपतिने तथा ते मोटी महासभाने धर्मकथा कही; यावत्-सभा पाछी गई. त्यार बाद ते गंगदत्त नामे गृहपति श्रीमुनिसुव्रत अरिहंत पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी हर्प तथा संतोषयुक्त थई उभो थयो, उठीने श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो के हे भगवन् ! हुं निर्ग्रथना प्रवचनमां श्रद्धा करूं छं, यावत्-आप जे प्रमाणे कहो छो ते तेमज मानुं हुं विशेष ए के हे देवानुप्रिय मारा मोटा पुत्रने कुटंबनो मुख्यभूत स्थापने आप देवानुप्रियनी पासे मुंड पई यावत्. [ श्रीमुनिसुक्त खामीए कयुं के] हे देवानुप्रिय जेम सुख धाय ते कर, वि न कर. प्रमय्या लेवा आयो. आवीने विपुल अशन, पान- यावत्-तैयार करावी पोताना मित्र, ज्ञाति खजन वगेरेने नोतर्या. पछी स्नान करी " पूरण ८. ज्यारे ते मुनिसुव्रत खामीए ते गंगदत्त नामे गृहपतिने ए प्रमाणे कयुं त्यारे ते हर्षयुक्त अने संतोषयुक्त थई मुनिसुव्रत स्वामीने चांदी, नमी मुनिसुव्रत स्वामी पासेथी सहस्राम्रवण नामना उद्यानथी नीकळी जे तरफ हस्तिनापुर नगर छे अने ज्यां पोतानुं घर छे शेठनी पेठे यावत् - पोताना मोटा पुत्रने कुटंबमां मुख्य तरीके स्थापी पोताना मित्र, ज्ञाति, स्वजन वगेरेने तथा मोटा पुत्र ने पूछी हजार पुरुषवडे उपाडी शकायतेची शिविवामां बेसी, पोताना मित्र, ज्ञाति, वजन यावत् परिवारवडे तथा मोटा पुत्रयढे अनुसरातो सर्व ऋद्धिसहित] यावत्वादिना यता घोषपूर्वक हस्तिनापुरनी बच्चोबच निकली जे तरफ सहसाम्रयण नामे उद्यान छे, ते तरफ आणी तीर्थंकरमा छादि अतिशय जोई यावत् उदायन राजानी पेठे यावत्- पोतानी मेळेज पोताना घरेणा उतार्या अने पोतानी मेलेज पंचमुष्टिक खोच क्यों स्वार बाद श्रीमुनिसुव्रत स्वामीनी पासे जई उदायन राजानी पेठे दीक्षा लीधी. यावत्-तेज प्रमाणे ते गंगदत्त अणगार अगीयार अंगो भण्यो, यावत्-एक भग० सं० २० ३ ० २०५४-५५. भगवती खं० ३ श० १३४० ६ पृ० ३८२. : Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.--उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. परिजणेणं जेट्रपुत्तेण य समणुगम्ममाणमग्गे सचिड्डीए जाव-णादितरवेणं हथिणागपुरं मज्झमझेणं निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता जेणेष सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छद, ते २-च्छित्ता छत्तादिते तित्थगरातिसए पासति । एवं जहा उदायणो, जाव-सयमेव आभरणे ओमुयइ, स० २ ओमुदत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति, स. २ करता जेणेव मुणिसुपए अरहा एवं जहष. उदायणे तहेव पञ्चहए, तहेव एकारस अंगाई अहिजा, जाव-मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई अणसणाए जाव-छेदेति, सटिं० २ छेदेत्ता आलोइय-पडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किश्चा महामुक्के कप्पे महासमाणे विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि जाव-गंगदत्तदेवत्ताए उववने । तए णं से गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पजसीए पज्जत्तभावं गच्छति, तंजहा-आहारपज्जत्तीए, जाव-मासा-मणपजत्तीय । पवं खलु गोयमा! गंगदतेणं देवेणं सा जाव-अभिसमन्नागया। ९. [प्र०] गंगदत्तस्स गं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! सत्तरस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता । १०. [प्र०] गंगदत्ते णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउफ्नएणं० १ [उ०] जाव-महाविदेहे वासे सिजिहिति, जाप-अंतं काहिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेति । सोलसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो। मासनी संलेखना वडे साठ भक्त-त्रीश दिवस अनशनपणे वीतावी आलोचन-प्रतिक्रमण करी समाधिपूर्वक मरणसमये मृत्यु प्राप्त करी ते गंगवचनी मशानुक कम्पा देवतरीके महाशुक्र कल्पमा महासामान्य नामना विमानमा उपपात सभाना देवशयनीयमा यावत्-गंगदत्त देवपणे उत्पन्न थयो. पछी ते तुरतज उत्पन्न उत्पति. थएलो गंगदत्त देव पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे पर्याप्तपणाने पाम्यो. ते पर्याप्तिना पांच प्रकार आ प्रमाणे छे-आहारपर्याप्ति, यावत्-भाषामनःपर्याप्ति. ए प्रमाणे हे गौतम! ते गंगदत्त देवे ते दिव्य देवर्षि पूर्वोक्त कारणथी यावत्-प्राप्त करी छे. ९. [प्र०] हे भगवन् ! ते गंगदत्त देवनी स्थिति केटला काळनी कही छे। [उ०] हे गौतम! तेनी स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे. गंगदत्त देपनी 'खिति. १०. [प्र०] हे भगवन् ! ते गंगदत्त देव तेना आयुषनो क्षय षया पछी ते देवलोकथी निकळी क्यां जशे! [उ०] हे गौतम! ते गंगदत्त देवलोकभी महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध थशे, यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करशे. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे.' ' च्यगी क्या हो। सोळमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. __ छ8ो उद्देसो. १. [प्र०] कतिविहे गं भंते! सुविणदसणे पण्णते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे सुविणदसणे पण्णचे, तंजहा-१ अहातथे, २ पयाणे, ३ चिंतासुविणे, ४ तविवरीए, ५ अवत्तदंसणे । २. प्र० सुत्ते णं भंते! सुविणं पासति, जागरे सुविणं पासति, सुत्तजागरे सुविणं पासति [10] गोयमानो सुत्ते सुषिणं पासइ, नो जागरे सुविणं पासद, सुत्तजागरे सुविणं पासह । षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवान् ! खमदर्शन केटला प्रकार- कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनुं स्वप्नदर्शन कयुं छे. ते आ प्रमाणे- खप्नदर्शन. १ "ययातथ्य स्वप्नदर्शन, २ प्रतान खमदर्शन, ३ चिंता खमदर्शन, ४ तद्विपरीत खप्नदर्शन, अने ५ अव्यक्त खमदर्शन. २. [प्र०] हे भगवन् ! सूतेलो प्राणी खप्न जुए, जागतो प्राणी खप्न जुए के सूतो जागतो प्राणी खाम जुए ! [उ०] हे गौतम! स्वप्न क्यारे चुप सूतेलो प्राणी खप्न न जुए, जागतो प्राणी स्वप्न न जुए पण सूतो जागतो प्राणी स्वप्नने जुए. 1. सूती अवस्थामा कोइ पण अर्थना विकल्पनो अनुभव करवो ते स्वप्न, तेना पांच प्रकार है-१ यथातथ्य-सत्य अथवा तात्त्विक. तेना दृष्टाविसंवादी बने फलाविसंवादी एवा बे प्रकार छे. खममा जोएला अर्थने अनुसारे जागृत अवस्थामा बनाव बने ते दृष्टार्थाविसंवादी. जेमके कोई माणस खपमा शुए के 'मने कोइए हाथमा फळ भाप्यु' भने ते जागीने तेज प्रमाणे जुए, खमना अनुसार जेनुं फळ अवश्य मळे ते फला विसंवादी. जेमके कोई गाय, बळद, हाथी वगेरे उपर आपढ़ थयेलो पोताने खममा जुए भने जाग्या पछी काळान्तरे संपत्ति पामे. २ प्रतानखम-विस्तारवाडं खान, ते यथातथ्य पण होय के अन्यथा पण होय. आ बने खानो परस्पर भेद मात्र विशेषणकृत छे. ३ चिन्ता-जागृत अवस्थामा जे. अर्थनु चिन्तन करेलुं होय तेने खममा जुए ते. ४ जेवं खन जोयु होय तेथी विरुद्ध वस्तुनी जागृत अवस्थामा प्राप्ति थाय ते तद्विपरीतखन. जेमके खममां अशुचि पदार्थथी विलिप्त पोताने जुएं भने बागृत अवस्थामां कोई शुचि पदार्थ प्राप्त याय. ५भने खानमा अस्पष्ट अर्थनो अनुभव करवो ते भव्यक दर्शन. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवो सूता-जागता सता-जागता के? पंचेन्द्रिय तिर्यचो सूता के इत्यादि प्रम. संवृत जीव के स्वप्न जुए जीवो संत छेइत्यादि प्रश्न. स्वप्नना प्रकार. महास्वमना प्रकार. सर्व स्वप्ना प्रकार जीवकरनी माता के श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६ - उद्देशक ६. ३. [२०] जीवा मंते किं सुत्ता, जागरा, सुत्तजागरा ? [30] गोयमा ! जीवा सुता वि, जागरा वि, सुतजागरा वि । ४. [प्र० ] रहाणं भंते किं सुत्ता- पुच्छा [उ०] गोयमा ! नेरड्या सुत्ता, नो जागरा, नो सुतजागरा । एवं जाव - चउरिंदिया | १६ ५. [प्र० ] पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! किं सुत्ता- पुच्छा । [अ०] गोयमा ! सुत्ता, नो जागरा, सुतजागरा वि । मस्सा जहा जीवा । वाणमंतर - जोइसिय- वेमाणिया जहां नेरहया । ६. [प्र० ] संबुडे णं भंते! सुविणं पास, असंबुडे सुविणं पासर, संवुडासंबुडे सुविणं पासइ ? [30] गोयमा ! संडे वि सुविणं पास, असंवुडे वि सुविणं पासह, संबुडासंबुडे वि सुविणं पासइ । संबुडे सुविणं पासति अहातचं पासति । असंपुढे सुविणं पासति तदा या तं होना, अन्नदा या तं होगा। संबुडाबुडे सुचिणं पासति एवं चेव । ७. [प्र० ] जीवा णं भंते! किं संबुडा, असंवुडा, संवुडासंबुडा ? [अ०] गोयमा ! जीवा संबुडा वि, असंबुडा वि, संबुडाबुडा वि । एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियो । ८. [अ०] कति णं भंते! सुविणा पण्णत्ता ? [30] गोयमा ! बायालीसं सुविणा पद्मता । ९. [प्र०] क णं भंते! महासुविणा पण्णत्ता ? [अ०] गोयमा ! तीसं महासुविणा पण्णत्ता । १०. [प्र० ] कति णं भंते समसुविधा पण्णत्ता [३०] गोषमा ! यावतारं ससुविणा पण्णत्ता । ११. [प्र० ] तित्थगरमायरो णं भंते! तित्थगरंसि गब्भं वक्कममाणंसि कति महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति ? [४०] गोयमा तित्थयरमायरो मं तित्थगरंसि गर्भ वक्रममाणंसि परसि तीसाए महासुविणार्ण इमे चोदस महासुविणे पासिता पति तं जदा-गय- उसमसीह अभिसेय- जाव-सिहिं च । ३. [प्र० ] हे भगवन् ! *जीवो सूतेला छे, जागृत छे के सूता-जागता छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवो सूतेला पण छे, जागृत पण छे अने सुता-जागता पण छे. ४. [प्र० ] हे भगवन् ! नैरयिको सूरोा छे इल्यादि प्रश्न. [30] हे गौतम! नैरविको सूतेा छे, पण जागता के सूता-जागता नथी. ए प्रमाणे यावत् - चउरिन्द्रिय संबन्धे पण जाणवुं. ५. [अ०] हे भगवन् ! पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिको तेता - इयादि प्रश्न. पण छे. पण [तदन] जागता नथी. मनुष्यना प्रश्नमां सामान्य जीवोनी पेठे जाणवु नैरधिकोनी पेठे सम [३०] हे गौतम! तेओ सूतेा छे अने सूता-जागता बानव्यंतर, ज्योतिषिक भने वैमानिक देवोना प्रश्नम ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! संवृत जीव खप्म जुए, असंवृत जीव स्वप्न जुए के संवृतासंवृत जीव स्वभ जुए [30] हे गौतम! संवृत, असंवृत अने संवृतासंवृत ए त्रणे जीवो स्वप्न जुए, पण संवृत जीव सत्य स्वप्न जुए, असंवृत जीव जे खम जुए ते सत्य पण होय असत्य पण होय; तथा असंवृतनी पेठे संवृतासंकृत जीव पण वम हुए, ७. [प्र० ] हे भगवन् ! जीवो संवृत छे, असंवृत छे के संवृतासंवृत छे ! [उ०] हे गौतम! जीवो संवृत, असंवृत अने संवृतासंवृत ए प्रणे प्रकारना छे. जेम सुप्त जीवोनुं वर्णन करे छे तेम अहीं पण समज. ८. [प्र० ] हे भगवन् ! म केटला प्रकारना का छे! [30] हे गौतम! खशो वेंतालीस प्रकारना का छे. ९. [प्र० ] हे भगवन् ! महास्वप्न केटला प्रकारना कयां छे ? [उ०] हे गौतम ! महाखम त्रीस प्रकारना कयां छे. १०. [प्र०] हे भगवन् । बधा महीने केटल वमो का छे [३०] हे गौतम! बचा मळीने बहोंतेर खप्मो का छे. ११. [प्र०] हे भगवन् । व्यारे तीर्थंकरनो जीव गर्भमा अवतरे प्यारे सीवनी माताओ केटला महास्वम जोईने जागे ! [०] हे गौतम! प्यारे तीर्थंकरनो जीव गर्भमा अन्तरे यारे तीर्थंकरनी माताओ श्रीस महाखमोगांची चीद महास्वनो जोईने जागे छे. ते आ प्रमाणे (१) हाथी, (२) बलद, (३) सिंह, यावत् - (१४) अग्नि. ३] अने भावी अपेक्षा प्रकारे होय. रोमन भने रितिरहित वा छे. पूर्वना सूत्रोमा खप्ननी हकीकत निद्रानी अपेक्षाए कही छे, हवे विरतिनी अपेक्षाए जीवादि दंडकने आश्रयी भावथी सूतापणा अने जागृतपणानी प्ररूपणा सर्वविरविरूप विकाराविनाना अविरत काम से जेल सर्वविरतिरूप जागृतिवाके से जवा छे, भने जेभो अविरतिवाळा अने कईक अंशे विरतिवाळा छे तेश्रो सूता-जागता कहेवाय छे- टीका. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२. [प्र०] चक्वट्टिमायरो गं भंते! चकवाट्टिसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति । उ० गोयमा! चकवट्टिमायरो चकवादिसि जाव-वकममाणंसि पएसिं तीसाए महामुविणाणं एवं जहा तित्थगरमायरो जाव-सिहि च। १३. [प्र०] वासुदेवमायरो गं-पुच्छा । [उ०] गोयमा वासुदेवमायरो जाव-वकममाणसि पपसि चोइसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडिवुझंति । १४. [प्र०] बलदेवमायरो-पुच्छा। [उ०] गोयमा! बलदेवमायरो जाव-एएसिं चोइसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति । १५. [प्र०] मंडलियमायरो णं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! मंडलियमायरो जाव-एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एग महासुविणं जाव-पडिबुझंति । १६. समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस महासुविणे पासित्ता गं पडिबुद्धे, तं जहा- १ एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं पडिबुद्धे । २ पगं च णं महं सुकिल्लपक्खगं पुंसकोइलं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ३ एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं 'पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ४ एगं च णं महं दामदुगं सवरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ५ एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ६ एगं च णं महं पउमसरं सवओ समंता कुसुमियं सुविणे | ७ एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भुयाहि तिन्नं सुविणे पासित्ता०। ८ एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुविणे पासित्ता०।९ एगं च णं महं हरिवेरुलियवन्नामेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पवयं सवओ समंता आवेढिय-परिवेढियं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। १० एगंध णं महं मंदरे पवए मंदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। १२. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे चक्रवर्तीनो जीव गर्भमां अवतरे त्यारे चक्रवर्तीनी माताओ केटला महास्वप्न जोईने जागे ! [उ०] हे चक्रवर्तीनी माता केटका स्वप्न जुए गौतम ! ज्यारे चक्रवर्तीनो जीव गर्भमां अवतरे त्यारे चक्रवर्तीनी माताओ एत्रीस महाखमोमांथी चौद महाखमो तीर्थकरनी माताओनी पेठेज जुए छे अने पछी जागे छे, ते चौद खप्न पूर्व प्रमाणे जाणवा, यावत्-अग्नि. १३. [प्र०] एज प्रमाणे वासुदेवनी मातानी स्वप्मसंबन्धे पृच्छा । [उ०] हे गौतम ! ग्यारे वासुदेवनो जीव गर्भमा अवतरे त्यारे वासुदेवनी गाता केटला स्वप्न जुए! वासुदेवनी माताओ ए चौद महास्वप्नोमांथी कोइ पण सात महास्वप्नो जोईने जागे छे. १४. [प्र०] ए प्रमाणे बलदेवनी माताओ संबन्धे स्वमनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! बलदेवनी माताओ ए चौद महास्वप्नोमाथी कोई बलदेवनी माताभो केटला खमो जुए। पण चार महास्वप्नो जोईने जागे छे. १५. [प्र०] मांडलिक राजानी माताना स्वप्मनी एज प्रमाणे पृच्छा करवी. [उ०] हे गौतम ! मांडलिक राजाओनी माताओ ए चौद मांडलिकनी मातामो केटला स्वप्न जुए। खप्नोमांथी कोई पण एक महास्वप्नने जोईने जागे छे. १६. ज्यारे श्रमण भगवंत महावीर छद्मस्थपणामा हता त्यारे तेओ एक रात्रिना छेल्ला प्रहरमा आ दश महास्वप्नो जोईने जाग्या. छपावस्थामा भगते आ प्रमाणे वंत महावीरनु दश स्वमोने जो. (१) 'एक मोटा भयंकर अने तेजस्वी रूपवाळा ताड जेवा पिशाचने पराजित कर्यो' एव॒ स्वम जोईने तेओ जाग्या. (२) एक मोटा धोळी पांखवाळा पुंस्कोकिलने (नरजातिना कोयलने ) तेओए स्वप्नमां जोयो अने जोईने जाग्या. (३) एक मोटा चित्रविचित्र पांखवाळा पुंस्कोकिलने खप्नमा जोई तेओ जाग्या. (४) एक महान् सर्वरत्नमय मालायुगलने स्वप्नमां जोईने जाग्या. (५) एक मोटा अने धोळा गायना धणने स्वप्नमा जोई तेओ जाग्या. (६) चारे बाजुथी कुसुमित थएला एक मोटा पद्मसरोवरने स्वप्नमा जोईने जाग्या. (७) 'हजारो तरंग अने कल्लोलोथी व्याप्त एक महासागरने पोते हाथवडे तर्यो' एवं स्वप्न जोई तेओ जाग्या. (८) तेजथी जळहळता एक मोटा सूर्यने स्वप्नमां जोईने जाग्या. (९) एक मोटा मानुषोत्तर पर्वतने लीला वैडूर्यना वर्ण जेवा पोताना आंतरडावडे सर्व बाजुएथी आवेष्टित अने परिवेष्टित थयेला स्वप्नमां जोईने जाग्या. (१०) अने एक महान् मंदर ( मेरु) पर्वतनी मंदर चूलिका उपर सिंहासनमा बेटेल पोताना आत्माने जोई तेओ जाग्या. , पूसको-ताड. २ पूसको-ताड. ३ संकुसुमियं ताड. ३ भ. सू. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक ६. १७. (१) जण्णं समणं भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजिय जाव-पडिबुद्धे, तणे समणेणं भगवया महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलाओ उग्धायिए। (२) जन्नं समणे भगवं महावीरे एगं महं सुकिल्ल-जावपडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे सुकज्झाणोवगए विहरति । (३) जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्तजाव-पडिबुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति, पनवेति, परूवेति, दसेति, निदंसेति, उवदंसेति; तंजहा-१ आयारं, २ सूयगडं, जाव-१२ दिट्ठिवायं । (४) जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं दामदुगं सवरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे दुविहे धम्मे पनवेति, तं जहा-आगारधर्म वा अणागारधम्मं वा । (५) जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सेयं गोवर्ग जाव-पडिवुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउवण्णाइन्ने समणसंघे, तं जहा-१ समणा, २ समणीओ, ३ सावया, ४ सावियाओ । (६) जण्णं समणे भगवं महावीरे पगं महं पउमसरं जाव-पडिबुद्धे तणं समणे जाव-वीरे चउविहे देवे पन्नवेति, तं जहा-१ भवणवासी, २ वाणमंतरे, ३ जोतिसिए, ४ वेमाणिए । (७) जन्नं समणे भगवं महावीरे पगं महं सागरं जाव-पडियुद्धे तन्नं समणेणं भगवया महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे जाव-संसारकंतारे तिन्ने । (८) जन्नं समणे भगवं महावीरे एगं महं दिणयरं जाव-पडिबुद्धे. तन्नं समणस्स भगवओ महावीरस अणंते अणुत्तरे जाव-केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने । (९) जण्णं समणे जाव-धीरे एगं महं हरिवेरुलिय- जाव-पडिबुद्ध तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ओराला कित्ति-वन-सह-सिलोया सदेवमणुयासुरे लोए परिभमंति-इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति०२। (१०) जन्नं समणे भगवं महावीरे मंदरे पथए मंदरचूलियाए जाव-पडिबुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगए केवली धम्मं आघवेति, जाव-उवदंसेति । दश महास्वनोनुं १७. कल. (१) श्रमण भगवंत महावीर [प्रथम स्वप्नमां ] जे भयंकर अने तेजस्वी रूपवाळा तथा ताडना जेवा एक पिशाचने पराजित करेलो जोईने जाग्या तेथी [ तेना फळरूपे] श्रमण भगवंत महावीरे मोहनीय कर्मने मूलथी नष्ट कयु. (२) श्रमण भगवंत महावीरे [बीजा खममा ] जे एक मोटो धोळी पांखवाळो यावत्-पुस्कोकिल जोयो अने जाग्या तेथी तेना फळरूपे श्रमण भगवंत महावीर शुक्ल ध्यानने प्राप्त करी विहर्या. (३) श्रमण भगवंत महावीर [त्रीजा स्वप्नमा ] जे एक मोटो चित्र विचित्र पांखवाळो यावत्-पुंस्कोकिल जोईने जाग्या तेथी श्रमणभगवंत महावीरे. विचित्र खसमय अने परसमयना [विविध विचारयुक्त ] द्वादशांग गणिपिटक कडं, प्रज्ञाप्यु, दर्शाव्यु, निदर्शाव्युं अने उपदाव्यु. ते द्वादशांगना नाम आ प्रमाणे छे-(१) आचार (२) सूत्रकृत, यावत्-(१२) दृष्टिवाद. (४) श्रमण भगवंत महावीरे [चोथा स्वप्नमां] जे एक महान् सर्वरत्नमय मालायुगल जोयु अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे बे प्रकारनो धर्म कह्यो, ते आ प्रमाणे-सागार धर्म अने अनगार धर्म. (५) श्रमण भगवंत महावीर [ पांचमा खप्तमा ] जे एक धोळी गायोनु महान् धण जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत ___ महावीरनो चार प्रकारनो संघ थयो, ते आ प्रमाणे-१ साधु, २ साध्वी, ३ श्रावक अने ४ श्राविका. (६) श्रमण भगवंत महावीर [छट्ठा खप्नमा ] जे एक मोटुं यावत्-पद्म सरोवर जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महा वीरे भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिषिक, अने वैमानिक एवा चार प्रकारना देवोने प्रतिबोध कर्यो. (७) श्रमण भगवंत महावीरे [सातमा खप्नमा ] जे एक मोटा यावत् महासागरने पोते हाथ वडे तरेलो जोयो भने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे अनादि अने अनन्त यावत्-संसाररूप कांतारने पार कर्यो. (८) श्रमण भगवंत महावीरे [आठमा स्वप्ना ] जे तेजथी जळहळतो एक मोटो सूर्य जोयो अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत ___ महावीरने अनंत, अनुत्तर, निरावरण, निर्व्याघात, समग्र अने प्रतिपूर्ण एवं केवळ ज्ञान अने केवळ दर्शन उत्पन्न थयुं. (९) श्रमण भगवंत महावीरे [ नवमा खममा ] एक मोटा मानुषोत्तर पर्यंतने नील वैडूर्यना वर्ण जेवा, पोताना आंतरडाथी चारे बाजुए आवेष्टित अने परिवेष्टित करेलो जोयो अने जोइने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरनी देवलोक, मनु ध्यलोक अने असुरलोकमां-"आ श्रमण भगवंत महावीर छे" एवी उदार कीर्ति, स्तुति, सन्मान अने यश व्याप्त थया. (१०) श्रमण भगवंत महावीरे [ दशमा खप्नमां ] पोताना आत्माने मंदरपर्यंतनी चूलिका परना सिंहासनमा बेठेलो जोयो अने जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे केवळी थई देव, मनुष्य अने असुर युक्त परिषदमा बेसी धर्म कह्यो, यावत्-उपदर्शाव्यो. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९ १८. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हयपति वा गयपंति वा जाव-वसभपति वा पासमाणे पासति, दुम्हमाणे दुरूहति, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति, जाव-अंतं करेति । १९. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं दामिणिं पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे पुढे पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव अप्पाणं बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं जाव-अंतं करेति । २०. इत्थी वा पुरिसे वा एगं महं रज्जु पाईणपडिणायतं दुहओ लोगंते पुढे पासमाणे पासति, छिंदमाणे छिवति, छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव जाव-अंतं करेति । २१. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं किण्हसुत्तगं वा जाव-सुकिल्लसुत्तगं वा पासमाणे पासति, उग्गोवेमाणे उग्गोवेर, उग्गोवितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्त्रणामेव जाव-अंतं करेति । २२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं अयरासिं वा तंबरासिं तउयरासिं वा सीसगरासि वा पासमाणे पासति, दुरूहमाणे दुरूहति, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोच्चे भवग्गहणे सिज्झति, जाव-अंतं करेति । २३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं हिरनरासि वा सुवन्नरासिं वा रयणरासि वा वइररासि वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहर, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणणं सिज्झति, जाव-अंतं करेति । २४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एग महं तणरासिं वा-जहा तेयनिसग्गे, जाव-अवकररासि वा पासमाणे पासति, विक्खिरमाणे विक्खिरइ, विक्खिण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव-अंतं करेति । २५. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते पगं महं सरथं वा वीरणथंभं वा वंसीमूलथंभं वा चल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पासइ, उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ, उम्मूलितमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव-अंतं करेति । १८. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटी अश्वपंक्ति, गजपंक्ति, यावत्-वृषभ(बलद )पंक्तिने जुए अने तेना सामान्य स्वप्ननुं उपर चढे तथा ते उपर पोते चढ्यो छे एम पोताने माने, अने ए प्रमाणे जोई जो तुरत जागे तो ते तेज भवमा सिद्ध थाय, यावत्सर्व दुःखोनो नाश करे. १०. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते समुद्रने बन्ने पडखे अडकेलं तथा पूर्व अने पश्चिम तरफ लांबु एक मोटुं दामण जुए अने तेने वींटाळे अने ते पोते वींटाळ्यु छे एम पोताने माने तथा ते प्रकारे जोई शीघ्र जागे तो तेज भवमां सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. २०. कोई स्त्री अथवा पुरुष (स्वप्नने अन्ते) बन्ने बाजुए लोकान्तने स्पर्शेलं तथा पूर्व अने पश्चिम लांबु एक मोटें दोरडं जुए, अने तेने कापी नाखे अने ते पोते कापी नाख्युं छे एम पोताने माने तथा ते प्रकारे जोई शीघ्र जागे तो ते यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. २१. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटुं कालु सूतर, यावत्-धोळु सूतर जुए तथा तेने उकेले अने तेने पोते उकेल्यु के एम पोताने माने अने एम जोई पछी ते तुरत जागे तो ते यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. २२. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटा लोढाना ढगलाने, तांबाना ढगलाने, कथीरना ढगलाने अने सीसाना ढगलाने जुए अने ते उपर चढे अने पोते ते उपर चढ्यो छे एम पोताने माने तथा एम जोई शीघ्र जागे तो ते यावत्-बे भवमा सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. २३. कोई स्त्री अथवा पुरुष खप्नने छेडे एक मोटा हिरण्य-रूपाना ढगलाने, सुवर्णना ढगलाने, रत्नना ढगलाने अने वजनां ढंगलाने जुए अने ते उपर चढे अने पोते ते उपर चढ्यो छे एम पोताने माने तथा तुरत जागे तो ते तेज भवमा सिद्ध थाय, यावत्सर्व दुःखनो नाश करे. २४. कोई स्त्री के पुरुष खमने अन्ते एक मोटा घासना ढगलाने, तेजोनिसर्ग नामना पंदरमा शतकमां कह्या प्रमाणे यावत्कचराना ढगलाने जुए अने तेने विखरे अने पोते विखेर्यो छे एम पोताने माने अने जो तुरत जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. २५. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्मने अन्ते एक मोटा शरस्तंभने, वीरणस्तंभने, वंशीमूलस्तंभने वा वल्लिमूलस्तंभने जुए अने तेने उखेडे भने पोते तेने उखेड्यो छे एम पोताने माने अने पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. *२४ भग० ख०३ श०१५पृ०३८६ स. ९९. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक ६. २६. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एग महं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा घयकुंम वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासति, एप्पाडेमाणे उप्पाडेइ, उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव-अंतं करे । २७. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणेत एगं महं सुरावियडकुंभ वा सोवीरवियडकुंभं पा तेल्लकुंभं वा वंसाकुंभ वा पासमाणे पासति, भिंदमाणे भिंदति, भिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोच्चेणं भव-जाव- अंतं करेति । २८. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति, ओगाहमाणे ओगाहति, ओगाढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव०, तेणेव जाव-अंतं करेति । । २९. इत्थी वा जाव-सुविणंते एगं महं सागरं उम्मीवीयी-जाव-कलियं पासमाणे पासति, तरमाणे तरति, तिण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव०, तेणेव जाव-अंतं करेति । ___३०. इत्थी वा जाय-सुविणंते एगं महं भवणं सवरयणामयं पासमाणे पासति, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति, अणुप्पषिडमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव-अंतं करेति । ३१. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं विमाणं सचरयणामयं पासमाणे पासइ, दुमहमाणे दुरूहृति, दुरुढमिति मपाणं मन्नति, तफ्षणामेव बुज्झति, तेणेव जाव-अंतं करेति । ३२. [40] अह भंते! कोट्टपुडाण वा जाव-केयइपुडाण वा अणुवायंसि उभिजमाणाण वा जाव-ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोटे वाति, जाव-केयई वाइ ? [उ०] गोयमा! नो कोटे वाति, जाव-नो केयई वाति, घाणसहगया पोग्गला वाति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! ति। सोलसमे सए छटो उद्देसो समत्तो। २६. कोई स्त्री या पुरुष स्वप्नने छेडे एक मोटा क्षीरकुंभने, दधिकुंभने, घृतकुंभने अने मधुकुंभने जुए अने तेने उपाडे तथा पोते तेने उपाग्यो छे एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. २७. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटा सुराना विकट (मोटा) कुंभने, सौवीरना मोटा कुंभने, तैलकुंभने के यसाकुंभने जुए, तेने मेदे अने पोते तेने भेदी नांख्यो छे एम पोताने माने, पछी तुरत जागे तो बे भवमा यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. २८. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते कुसुमित एवा एक मोटा पद्म सरोवरने जुए, तेमा प्रवेश करे अने पोते तेमा प्रवेश कयों छे एम पोताने माने, पछी तुरत जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. २९. कोई स्त्री के पुरुष खमने अन्ते तरंगो अने कल्लोलोथी व्याप्त एक मोटा सागरने जुए अने तरे, तथा पोते तेने तरी गयो छे एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवा यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. ३०. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते सर्व रत्नमय बनेलं एक मोटुं भवन सुए अने तेमा प्रवेशे, पोते तेमा प्रवेश कर्यो छे एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. ३१. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते सर्व रत्नमय एक मोटुं विमान जुए, तेना उपर चढे अने पोते ते उपर चढ्यो छे एम पोताने माने, त्यार पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! कोष्ठपुटो, यावत् केतकीपुटो यावत्-एक स्थानथी स्थानान्तरे लई जवाता होय त्यारे पवनानुसारे जे [ तेमनो गंध ] वाय छे तो ते कोष्ठ वाय छे के यावत्-केतकी वाय छे! [उ०] हे गौतम | कोष्ठपुटो के केतकीपुटो वाता नथी, पण गंधना जे पुद्गलो छे ते वाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'. कोचपुट बगेरे पाय। सोळमा शतकमा षष्ठ उद्देशक समाप्त. Jain Education international Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ७-८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सत्तमो उद्देसो. १. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! उवओगे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! दुविहे उवओगे पन्नत्ते, एवं जहा उवयोगपदं पनवणार तहेव निरवसेसं भाणियचं, पासणयापदं च निरवसेसं नेयध्वं । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति। सोलसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो। सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारनो उपयोग कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! उपयोग बे प्रकारनो कह्यो छे. जेम प्रज्ञापना सूत्र- मांना "उपयोग पदमां कहेवामां आव्यु छे तेम अहीं बधुं कहे. तेमज अहीं त्रिीसमुं 'पश्यत्तापद' पण समग्र कहे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' सोळमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त. उपयोग अट्ठमो उद्देसो. १. [प्र०] किंमहालए णं भंते ! लोप पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! महतिमहालए-जहा बारसमसए तहेव जाव-असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं । २. [प्र०] लोयस्स णं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा ? [उ०] गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपएसा घि। जे जीव अष्टम उद्देशक लोकनो पूर्व चरमात. १. [प्र०] हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! लोक अत्यन्त मोटो कह्यो छे. जेम "बारमा शतकमां कई छे तेम अहीं पण लोक संबंधी बधी हकीकत कहेवी, यावत्-ते लोकनो परिक्षेप-परिधि असंख्येय कोटाकोटी योजन छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना पूर्व चरमांतमी (पूर्व बाजुना छेडाना अंते) १ जीवो छे, २ जीवदेशो छे, ३ जीवप्रदेशो छे, ४ अजीवो छे, ५ अजीवदेशो छ, ६ के अजीवप्रदेशो छे! [उ०] हे गौतम! त्यां जीवो नथी, पण जीवदेशो छे, जीवप्रदेशो छ, अजीवो १* उपयोग-चेतना शक्तिनो व्यापार, तेना बे भेद छ- साकार उपयोग अने अनाकार उपयोग. साकार उपयोगना पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञानना भेदथी आठ प्रकार छ; अनाकार उपयोगना चक्षुदर्शनादिना मेदथी चार प्रकार छे. जुओ-प्रज्ञा• पद २९ प०५२५-५२७.. प्रिज्ञा० पद ३०प० ५२८-५३२. * पश्यत्ता-प्रकृष्ट बोधनो परिणाम, तेना साकार अने अनाकार बे भेद छ. साकारपश्यत्ताना मतिज्ञान सिवाय बाकीना चार ज्ञान भने मतिअज्ञान सिवाय बे अज्ञान-एम छ प्रकार छे. अनाकार पश्यत्ताना अचक्षुदर्शन सिवाय बाकीना त्रण प्रकार छे. जो के पश्यत्ता अने उपयोग बन्ने साकार भने अनाकार भेद वडे तुल्य छ, तो पण ज्या त्रैकालिक बोध होय ते पश्यत्ता भने ज्यां त्रैकालिक अने वर्तमान कालिक बोध होय ते उपयोग एटली विशेषता छे. अहिं अनाकार पश्यत्तामा चक्षुदर्शन प्रहण कयु अने अचक्षुदर्शन न प्रहण कर्यु तेनुं कारण एवं छे के प्रकृष्ट इक्षणने पश्यत्ता कहेछे भने ते चक्षुदर्शनने विषेज घटी शके छे, अचक्षुदर्शनमां घटी शकतुं नथी, केमके चक्षुदर्शनना उपयोगनो बीजी इन्द्रियना उपयोगथी अल्प काळ छे भने तेथी प्रकृष्ट ईक्षण चक्षुर्नुज होय छे, माटे पश्यत्तामा चक्षुदर्शनने ग्रहण कयु छे, बीजी इन्द्रियोना दर्शनने ग्रहण कर्यु नथी.-टीका. - १ भग० ख० ३ श• १२ उ०७ पृ० २८२. २ पूर्व दिशानो चरमान्त-लोकनो छेल्लो भाग विषम एक प्रदेशना प्रतररूप होवाथी तेमा असंख्य प्रदेशावगाही जीवनो सद्भाव होतो नथी, माटे या जीवो नथी, परन्तु जीवदेशो अने जीवप्रदेशोनो एक प्रदेशने विषे पण अवगाह संभवे छे, माटे 'जीवदेशो अने जीवप्रदेशो होय छे' एम कयुं छे. ए प्रमाणे त्यां पुगलस्कंधो, धर्मास्तिकायादिना देशो अने तेना प्रदेशो होवाथी अजीवो, अजीवदेशो अने अजीवप्रदेशो पण होय छे. हवे जे जीवदेशो छ तेमां पृथिव्यादि एकेन्द्रिय जीवोना देशो लोकान्ते अवश्य होय छे. आ प्रथम विकल्प थयो. हवे द्विकसंयोगी विकल्प ा प्रमाणे छे. १ अथवा एकेन्द्रियोना घणा देशो भने बेइन्द्रिय कदाचित् होवाथी तेनो एक देश होय छे. जो के लोकान्ते बेइन्द्रिय जीव होतो नथी, तो पण एकेन्द्रियोमा उत्पन्न थनार बेइन्द्रिय जीव मरणसमुदूधातवटे उत्पत्तिदेशने प्राप्त थाय ते अपेक्षाए आ विकल्प थाय छे. ए प्रमाणे दशमा शतकना प्रथम उद्देशकने विषे आनयी दिशा संबन्धे जे भांगा कहेला छे ते अहिं जाणवा, ते आ प्रमाणे-१ एकेन्द्रियोना देशो भने एक बेइन्द्रियनो देश; २ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने एक बेइन्द्रियना देशो ३ अथवा एकेन्द्रियोना देशो अने बेइन्द्रियोना देशो; ४ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने एक तेइन्द्रियनो देश; ५ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने एक तेइन्द्रियना देशो; ६ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने तेइन्द्रियोना देशो, ए प्रमाणे च उरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रियना प्रण त्रण भौगा जाणवा. अनिन्द्रियना भांगा पण ए प्रमाणे समजवा, परन्तु भामेयी दिशाने विषे तेना प्रण भांगाओ कह्या छे, तेमांनो 'एकेन्द्रियोना देशो भने अनिन्द्रियनो देश'-ए प्रथम भांगो अहिं न कहेवो; केमके केवलिसमुद्धातावस्थामा आत्मप्रदेशो कपाटाकार थाय त्यारे पूर्व दिशाना चरमान्ते प्रदेशनी वृद्धि-हानि वडे विषमता यती होवाथी लोकना दांताओमा अनिन्द्रिय जीवना-इन्द्रियना उपयोग रहित केवल ज्ञानीना घणा देशोनो संभव छे, पण एक देशनो संभव नधी. माटे अनिन्द्रियने उपर कहेलो भागो लागु पडतो नथी. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक देसा ते नियम एगिदियदेसा य, अहवा पगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसे-एवं जहा दसमसए अग्गेयी दिसा तहेव, नवरं देसेसु अणिदियाण आइल्लविरहिओ । जे अरूवी अजीवा ते छविहा, अद्धासमयो नत्थि । सेसं तं चेव निरवसेसं। ३. [प्र०] लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले चरिमंते किं जीवा० ? [उ०] एवं चेव, एवं पञ्चच्छिमिल्ले घि, उत्तरिले पि । ४. [प्र०] लोगस्स णं भंते ! उवरिले चरिमंते किं जीवा०-पुच्छा । [30] गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवप. देसा वि, जाव-अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते नियम पगिदियदेसा य आणदियदेसा य, अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेंदियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेंदियाण य देसा, एवं मझिल्लविरहिओ जाव-पंचिं. दियाणं । जे जीवप्पएसा ते नियम पर्गिदियप्पएसा य आणि दियप्पएसा य, अहवा एगिदियप्पएसा य अणिदियप्पएसा य दिन छे, अजीवदेशो छे अने अजीव प्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो छे ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना देशो छे, अथवा एकेंद्रियना देशो अने अनिन्द्रियनो (एक) देश छे–इत्यादि बधु *दशमा शतकमां कहेल आग्नेयी दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे कहे. विशेष ए के, देशोना विषयमा अनिद्रियो माटे प्रथम भांगो न कहेवो. त्यां जे अरूपी अजीवो रहेला छे ते 'छ प्रकारना छे अने अद्धासमय (काळ) नथी. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. ३. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना दक्षिण दिशाना चरमांतमा [दक्षिण बाजुना छेडाने अंते ] जीवो छे-इत्यादि सर्व पूर्व प्रमाणे पूछq. [उ०] पूर्व प्रमाणेज बधुं कहेवू, अने ए प्रमाणे पश्चिम चरमांतमा तथा उत्तर चरमांतमा पण समजवु. ४. प्र०] हे भगवन् ! लोकना उपरना चरमांतमा जीवो छे-इत्यादि पृच्छा. [उ.] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी, पण जीवदेशो छे, जीवप्रदेशो छे, यावत्-अजीवप्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो छे ते अवश्य एकेंद्रियोना देशो अने अनिंदियोना देशो छे, १ अथवा एकेद्रियोना देशो, अनिन्द्रियोना देशो अने बेइंदियनो एक देश छे. २ अथवा एकेंद्रियोना देशो अनिद्रियोना देशो अने बेइंद्रियोना देशो छे. एम वचला भांगा सिवायना त्रिकसंयोगी बीजा बघा भांगा कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-पंचेंदियो सुघी कहे. त्यां जे जीवप्रदेशो छे ते अवश्य एकेंदियोना प्रदेशो अने अनिद्रियोना प्रदेशो छे. १ अथवा एकेंद्रियोना प्रदेशो, अनिंद्रियोना प्रदेशो अने एक बेइंद्रियना प्रदेशो छे. २ अथवा एकेंद्रियोना प्रदेशो, अनिद्रियोना प्रदेशो अने बेइंद्रियोना प्रदेशो छे. ए प्रमाणे "प्रथम भांगा सिवायना बीजा बधा भांगा कहेवा. दक्षिणादि चरमांत. उपरनो चरमांत. २. भग० खं०३ श०१. उ०१पृ० १८९. भरूपी अजीबो छ प्रकारना -1 धर्मास्तिकायदेश अने २ प्रदेश, ३ अधर्मास्तिकाय देश अने ४ प्रदेश, तथा ५ आकाशास्तिकायदेश भने ' प्रदेश. समयक्षेत्रना अभावथी अद्धासमय नथी. ३ लोकना तथा रमप्रभामादि साते नरक भने सौधर्मथी अनुत्तर सुधीना देवलोकना पूर्वादि चारे दिशाओना चरमान्तने आश्रयी जीवदेश भने जीवप्रदेशना भांगाओर्नु यत्र एक के अनेक जीवोना एक के भनेक देशादि. एकेन्द्रिय. बेइन्द्रिय. तेइन्द्रिय. चउरिन्द्रिय. पञ्चेन्द्रिय. अनिन्द्रिय. कुलांगा. १-१ १-२ २-२ प्रदेश. १-२ १-२ । १-१ १-२ २-२ १-२ २-२ १५ २-२ १-२ १-२ ___आ एकेन्द्रियादि जीवोना देश प्रदेशना भोगाओमा प्रथम बांक जीवनो सूचक छ भने बीजो आंक तेना देश भने प्रदेशोनो सूवक छ. ज्या २-२ अंक मूकेला छे त्या अनेक जीवोना अनेक देशो या प्रदेशो समजवा.अहिं देशभांगाओमा एकेन्द्रियने आश्रयी असंयोगी एक अने तेनी साथे बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रियना त्रण त्रण भांगा अने अनिन्द्रियना बे भांगा जोडता द्विकसंयोगी चौद भर्भागा जाणवा, अने ए रीते प्रदेशभांगामा असंयोगी एक भने द्विकसंयोगी दश जाणवा. ४३ उपरना चरमान्तमा सिद्धो होवाथी त्यां एकेन्द्रियोना देशो अने अनिन्दियोना देशो होय छे, माटे भा द्विकर्मयोगी एक भौगो थाय छे. त्रिकसंयोगीमां बब्वे भांगा करवा; कारण के 'एकेन्द्रियोना देशो, अनिन्द्रियोना देशो अने एक बेइन्द्रियना देशो' आ मध्यम भांगो घटतो नथी. केमके कोई बेइन्द्रिय जीव मरणसमुद्धात बडे मरी उपरना चरमान्तने विषे रहेला एकेन्द्रिय जीवमा उत्पन्न थाय तो पण प्रदेशनी हानि वृद्धिथी थयेल लोकदन्तकविषम भाग नहि होवाथी पूर्व चरमान्तनी पेठे त्यां बेइन्द्रियना अनेक देशो संभवता नथी. पूर्व चरमान्तमा तो प्रदेशनी हानि-वृद्धि थती होवाथी भनेक प्रतरात्मक लोकदन्तक होवाने लीधे त्यो बेइन्द्रिय जीवना अनेक देशो संभवे छे. माटे उपरना मध्यम भंगरहित त्रिकसंयोगी बम्बे भांगा जाणवा. 1 पूर्व चरमान्तमा जीवदेश संबन्धे द्विकसयोगी त्रण भांगा थाय छे, तेमांनो 'एकेन्द्रियोना देशो अने बेइन्द्रियनो देश' ए प्रथम भांगो छ, तेने उपरना चरमान्तमा जीवप्रदेशना त्रिकसंयोगी भांगा करवामां वर्जयो. अर्थात्-'एकेन्द्रियोना प्रदेशो,अनिन्द्रियोना प्रदेशो, बेइन्द्रियनो प्रदेश'-एवो त्रिकसंयोगी भंग न करवो, कारण के तेमा 'बेइन्द्रियनो प्रदेश' ए अंशनो असंभव छे. केवलि समुद्धात समये लोकव्यापक अवस्था सिवाय जीवोनो ज्यां एक प्रदेश होय स्या असंख्याता प्रदेशो होय छे, तेथी उपरना चरमान्तमा एकेन्द्रियो भने अनिन्दियोना प्रदेशो संभवे छे. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६. - उद्देशक ६० भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३ यस्स परेसा य, अहवा पनिदियपसा व वर्णिदिप्पपसा य बेइंदियाण व परसा, एवं आदिहविरहिनो जाब-पंचिदिया । अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं । ५. [प्र० ] लोगस्स णं भंते ! हेट्ठिल्ले चरिमंते किं जीवा० - पुच्छा। [अ०] गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवदेसा वि, जाव - अजीवप्पपसा वि; जे जीवदेसा ते नियमं एर्गिदियदेसा, अहवा एर्गिदियदेसा य बेईदियस्स देसे, अहवा ए-ि दियदेसा व बंदियाण व देसा, एवं मझिलविरहिओ जाव अणिदियाणं पदेसा आदलबिरहिया सोसि जहा पुरच्छिमिले चरिमंते तव । अजीवा जहेव उवरिल्ले चरिमंते तहेव । 1 ६. [अ०] इमीले गं मंते । रवणण्यभार पुढवीर पुरच्छिमिले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा। [४०] गोषमा ! जो जीवा एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारि वि चरिमंता जाव - उत्तरिल्ले, उवरिले तहेव, जहा दसमसए विमला दिसा तहेव निरवसेसं हेडले चरिमंते देव लोगस्स देहिले चरिमंते तदेव नवरं ऐसे बिंदिपसु तियभंगो ति सेसं तं चैव एवं जहा रयमप्य भार चार चरमंता भणिया एवं सरप्यभार वि, उचरिम देहिला जहा रयणप्यभार हेट्ठिते । एवं जाय- महेसत्तमाप 1 तथा ए प्रमाणे यावत् पचेंद्रिये सुची जाग. अने दिशमा शतकमां कहेल तथा दिशानी वक्तम्यता प्रमाणे अहीं अजीबोनी वक्तव्यता कहेवी 5 1 चरमति. ५. [प्र० ] हे भगवन् ! *लोकना हेठळना चरमांतमां शुं जीवो छे - इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी, जीवदेशो लोकनी हेठे नो छे, जीवप्रदेशो छे, यावत् - [ अजीवो, अजीवना देशो अने] अजीवना प्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो छे ते अवश्य " एकेंद्रियना देशो छे. १ अथवा एकेंद्रियोना देशो अने बेइंद्रियनो देश छे. २ अथवा एकेंद्रियोना देशो अने बेइंद्रियोना देशो छे. ए प्रमाणे वचला भांगा सिवाय बीजा बधा भांगा कहेवा, अने ते यावत्-अनिंद्रियो सुधी जाणवुं. सर्वना प्रदेशोनी बाबतमां पूर्व चरमांतना प्रश्नोत्तर प्रमाणे जावं, पण तेमां प्रथम भांगो न कहेवो. अजीवोनी बाबतमां उपरना चरमांतमां कह्या प्रमाणे बघु कहे. ६. [प्र०] 'हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीना पूर्व चरमांतमां जीवो छे- इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी. जैम लोकना चार चरमांत कह्या तेम रत्नप्रभाना पण चारे चरमांत यावत्-उत्तरना चरमांत सुधी जाणवा. दशमा शतकमां कहेल ४६ जेम अजीवोनी वक्तव्यता देशमा शतकना प्रथम उद्देशकमां तमा दिशाने आश्रयी कहेली छे ते प्रमाणे उपरना चरमान्तने आश्रयी कहेवी. ते आ प्रमाणे - रूपी अजीवना स्कन्ध, देश, प्रदेश अने परमाणु-ए चार प्रकार अने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायना देश अने प्रदेशो- ए. ते अरूपी अजीवना दश प्रकार छे. लोकना उपरना चरमान्तने आश्रयी जीवदेश भने जीवप्रदेशोना भांगाअंनु यन्त्र देश. प्रदेश. एन. २-२ एक के अनेक जीवना एक के अनेक देशादि. अनिन्द्रिय. बेन्द्रिय १-१ SE २-२ 3-3 १-२ २-२ २-२ तेइन्द्रिय. १-१ २-२ १-२ २-२ उरिन्द्रिय १-१ २-२ १-२ २-२ २-२ " लोकना उपरना चरमान्तमां एकेन्द्रिय अने अनिन्द्रिय ( सिद्ध ) जीवो साथेज होवाथी अहिं असंयोगी भांगो थतो नथी, पण द्विकसंयोगीथी शरु - थाय छे. तेनी साथे बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय भने पंचेन्द्रियना बच्चे भांगा जोडता त्रिकसंयोगी आठ भांगा थाय छे. तेथी अहिं देश अने प्रदेशने श्री भांगामां द्विसंयोगी एक अने त्रिकसंयोगी आठ मळी नव नव भांगा जाणवा. * ५] 'एकेन्द्रियना देशो' ए अयोगी एक मांगो याद छ भने दिसंयोगी 'एकेन्द्रियोना देशो ने देश तथा एकेन्द्रियोना देशो भने यो देश-ए नेन्द्रिय साथै वे मांगा था. 'एकेद्रिय देशो बने बेन्द्रियना देशो-ए वो भांगो लोक अभावी थतो नथी. ए प्रमाणे तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अने अनिन्द्रियनी साथे बच्चे भांगा जाणवा. ए रीते जीवदेशने आश्रयी अगीयार भांगा थाय छे. पूर्वचरमान्तमां जीवदेशने आश्रयी जे भांगा कहेला छे ते अहिं जीवप्रदेशने आश्रयी कहेवा. जेमके एकेन्द्रियोना प्रदेशो भने बेइन्द्रियना प्रदेशो; एकेन्द्रियोना प्रदेशो अने बेइन्द्रियोना प्रदेशो. ए प्रमाणे तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अने अनिन्द्रियना प्रदेश संबन्धे भांगा जाणवा. मात्र 'एकेन्द्रियोना प्रदेशो अने बेइन्द्रियनो प्रदेश - ए प्रथम भंग असंभवित होवाथी घटी शकतो नथी, अने 'एकेन्द्रियना प्रदेशो' ए असंयोगी एक भांगो मेळवतां जीवप्रदेशने seerat अगीभर भांगा थाय छे उपरना चरमान्तमां कह्या प्रमाणे रूपी अजीवना चार अने अरूपी अजीवना छ मळी अजीवोना दश प्रकार जाणया. लोकनी नीचेना चरमान्त, मैवेयक अने अनुत्तर विमानना उपर अने नीचेना चरमान्तने आश्रयी जीवदेश अने जीवप्रदेशोना भांगाओनुं यन्त्र एक के अनेक जीवोना देशादि. 9-9 २-२ १-२ २-२ पञ्चेन्द्रिय. कुलभांगा 9-9 बार S २-२ १-२ २-२ एकेन्द्रिय. बेइन्द्रिय. १-१ अनिय १-१ १-१ १-१ २-२ BALI CINT २-२ २-२ २-२ १-२ १-२ प्रदेश २-२ १-२ २-२ १-२ २-२ २-२ २-२ २-२ अहिं देश अने प्रदेशना भांगाओमां असंयोगी एक, द्विकसंयोगी दश एम अगीयार २ भांगा जाणवा. - कुलभांगा. ११ ११ रतमभाना पूर्वादि चरमति. / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक ७ एवं सोहम्मस्स वि जावा, अघुयस्स । गेविजविमाणाणं एवं चेव, नवरं उवरिम-हेहिलेसु चरमंतेसु देसेसु पंचिंदियाण पि मझिल्लविरहिओ चेव, सेसं तहेव । एवं जहा गेवेजविमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिपमारा वि । *विमला दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे आ रत्नप्रभाना उपरना चरमांतनी पण वक्तव्यता जाणवी. तथा रत्नप्रभा पृथ्वीनो नीचलो चरमांत पण लोकनी नीचेना चरमांतनी पेठे जाणवो. परन्तु विशेष ए के जीवदेशोना संबंधे पंचेंद्रियोमा त्रण भांगा कहेवा. बाकीचें बधुं तेज प्रमाणे कहे, रत्नप्रभा पृथ्वीना चार चरमांतनी पेठे शर्कराप्रभा पृथिवीना पण चार चरमौत कहेवा. अने रत्नप्रभा पृथिवीना नीचेना चरमांतनी पेठे शिर्कराप्रभामो उपलो तथा नीचलो चरमांत समजवो. ए प्रमाणे यावत्-सातमी पृथिवी सुधी जाणवु. तथा सौधर्म [ देवलोक ] यावत्अध्युत [ देवलोक ] संबंधे पण एज प्रमाणे समजवू. अवेयक विमानो संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवू. पण तेमां विशेष ए छे के उपला अने हेठला चरमांत विषे देशो संबंधे पंचेंद्रियोमा पण वचलो भांगो न कहेवो. बाकीचें बधुं पूर्व प्रमाणे ज कहे. तथा ग्रैवेयक विमाननी पेठे अनुत्तर विमाननी अने ईषयाग्भारा पृथिवीनी पण वक्तव्यता कहेवी.. * दशमा शतकना प्रथम उद्देशकमा जेम विमला दिशा संबन्धे कयुं छे तेम रत्नप्रभाना उपरना चरमान्त संबन्धे पण कहे. जेमके-त्या जीवो नथी, कारण के ते एक प्रदेशना प्रतररूप होवाथी तेटलामा जीवो समाइ शकता नथी; पण जीवदेश भने जीवप्रदेश रही शके छे. तेमा जे.जीमा देशो होय छे ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना देशो होय छे. १अथवा एकेन्द्रिय देशो भने बेइन्द्रियनो देश; २ अथवा एकेन्द्रियदेशो भने बेइन्द्रियना देशो, ३ अथवा एकेन्द्रियदेशों अने बेइन्द्रियोना देशो. उपरना त्रण भागा थाय छे, कारण के रमप्रभामा बेइन्द्रियो रहे छे, अने तेओ एकेन्द्रियनी अपेक्षाए योडा होय छे, तेथी तेना उपरना चरमान्तमा बेइन्द्रियनो एक देश अथवा अनेक देशो संभवित छे. ए प्रमाणे त्रीन्द्रियथी मांडी भनिन्द्रिय सुधी प्रत्येकना त्रण प्रण भांगा जीवदेशने आश्रयी कहेवा. हवे जे जीवमा प्रदेशो छे ते अवश्य एकेन्द्रियना प्रदेशो छे. १ अथवा एकेन्द्रियप्रदेशो अने बेइद्रियना प्रदेशो; २ अथवा एकेन्द्रिय जीवप्रदेशो भने वेइन्द्रियोना प्रदेशो. ए प्रमाणे त्रीन्द्रियथी आरंभी अनिन्द्रिय सुधी बब्बे भांगा जाणवा. तथा त्यो रूपी अजीवना चार प्रकार भने अरूपी अजीवना सात प्रकार छ. कारण के ते समयक्षेत्रनी अंदर होवाथी त्या अद्धासमय पण होय छे.-टीका. रसप्रभाना उपरना चरमान्तने आश्रयी जीवदेश अने जीवप्रदेशोना भांगाओनुं यत्र एक के अनेक जीवोना देशादि. एकेन्द्रिय. बेइन्द्रिय. तेइन्द्रिय, चरिन्द्रिय. पश्चेन्द्रिय. अनिन्द्रिय. फुलभांगा. १-१ १-२ १-२. २-२ प्रदेश. { २-३ १-२ ३-२ अहिं देशने आश्रयी भागाभोमा असंयोगी. एक अने उपर प्रमाणे विकसंयोगी पंदर तथा प्रदेशने माश्रयी भागाओमा असंयोगी एक भने द्विकर्मयोगी दश भांगा जाणवा जेम लोकनी नीचेनो चरमान्त को तेम रमप्रभानी नीचेनो चरमान्त पण कहेवो. मात्र विशेष एके के लोकनी नीचेना चरमान्तमा जीवदेश संबन्धे बेइन्द्रियादिना मध्यम भांगारहित बब्बे भांगा कह्या छे, पण अहीं पंचेन्द्रियना प्रणे भांगा कहेवा भने पंचेन्द्रिय सिवायना जीवोमा पब्बे मांगा कहेवा, कारण के रमप्रभानी नीचेना चरमान्तमा देवरूप पंचेन्द्रियोना गमनागमनद्वारा पंचेन्द्रियनो देश अने सेना देशो संभवे छे, माटे पंचेन्द्रियना प्रणे भांगा अहिं लेवा. अने बेइन्द्रियादि तो रमप्रभानी नीचेना चरमान्तमा मरणसमुद्घातथी जाय त्यारेज तेनो संभव होवाथी या तेमनो देशज संभावित थे, परन्तु देशो संभवता नथी, केमके रसप्रभानी नीचेनो चरमान्त एक प्रतररूप होवाथी अनेक देशनो हेतु यतो नधी.-टीका. रसप्रभाना नीचेना चरमान्त तथा शर्कराप्रभा आदि बाकीनी नरको भने सौधर्मथी अच्युत सुधीना देवलोकना उपर बने नीचेना चरमान्तने बाधयी जीवदेश भने जीवप्रदेशोना भांगाभोनुं यत्र एक के अनेक जीवोना एक के अनेक देशादि. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय. . तेइन्द्रिय. चउरिन्द्रिय. पझेन्द्रिय, अनिन्निय. फुलभांगा. १-१ देश. २१- १ ३ १-२ २ - . प्रदेश. { २-२ . ३- ३ २ अहिं देशने आश्रयी भागामा असंयोगी एक भने द्विकर्मयोगी अगीयार, तथा प्रदेशने आश्रयी भागामा असंयोगी एक अने द्विकसयोगी दश मांगा जाणवा. शर्कराप्रभानी उपरनो तथा नीचेनो चरमान्त रमप्रभानी नीचेना चरमान्तनी पेठे जाणवो. त्यां बेहन्द्रियादिना जीवदेशने माधयी मध्यम भंग रहित बब्बे भागा अने पंचेन्द्रियना प्रण भांगा कहेवा. जीवप्रदेशने आश्रयी बधा बेइन्द्रियादिने विषे प्रथम भंगरहित पाकीना बच्चे भांगा जाणवा. अजीवने भाश्रयी रूपी अजीवना चार भने अरूपी भजीवना छ मेद जाणवा. शर्कराप्रभानी पेठे बाकीनी नरकपृथिवीओ: अने सौधर्मवी भारंभी प्रैवेयक सुधीना विमानोनी च.व्यता जाणवी. परन्तु एटलो विशेष छे के जीवदेशने आश्रयी अच्युत देवलोक सुधी देवोना गमनागमननो संभव होवाथी पंचेन्द्रियना प्रण Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ७.[H०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, च्छमिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिलं जाव-गच्छद. उत्तरिल्लाओ दाहिणिलं जाव-गच्छति, उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेटिलं चरिमंतं एवं जाव-गच्छति, हेछिल्लाओ चरिमंताओ उवरिलं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? [30] हंता गोयमा! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरच्छिमिल्लं तं चेव जाव-उवरिलं चरिमंतं गच्छति। ८. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वा बाहुं वा उरुं वा आउट्टावेमाणे वा पसारेमाणे वा कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे वासं वासति वासं नो वासतीति, हत्थं वा जाव-उरुं वा आउट्ठावेति वा पसारेति वा, तावं च णं पुरिसे काइयाए जाव-पंचहिं किरियाहिं पुढे । . ९. [प्र०] देवे णं भंते ! महिदिए जाव-महेसक्खे लोगंते ठिच्या पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव-उरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा ? [उ०] णो तिणढे समढे [प्र०] । से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चइ-'देवे णं महिड्डीए जाव-लोगते ठिच्चा णो पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव-पसारेत्तए वा'? [उ०] जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिजइ, अलोए णं नेवत्थि जीवा, नेवत्थि पोग्गला से तेणट्टेणं जाव-पसारेत्तए वा । 'सेवं भंते! सेवं भंते'1 त्ति । सोलसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो। ७. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल एक समयमा लोकना पूर्व चरमांतथी-छेडाथी पश्चिम चरमांतमा, पश्चिम चरमांतथी पूर्व परमाणुनी गति. चरमांतमा दक्षिण चरमांतथी उत्तर चरमांतमा, उत्तर चरमांतथी दक्षिण चरमांतमां; उपरना चरमांतथी नीचेना चरमांतमां, अने नीचेना चरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय ? [उ०] हे गौतम! हा, परमाणु पुद्गल एक समये लोकना पूर्व चरमान्तथी पश्चिम चरमांतमा, यावत्नीचेना चरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय. ८. [प्र०] हे भगवन् ! 'वरसाद वरसे छे के नथी वरसतो' ए [जाणवाने ] माटे कोई पुरुष पोतानो हाथ, पग, बाहु, के उरु । कायिकी आदि संकोचे के पसारे तो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! 'वरसाद वरसे छे के नथी वरसतो' ए जाणवाने माटे जे पुरुष क्रिया. पोतानो हाथ, यावत्-उरु संकोचे के पसारे ते पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे. ९. प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव लोकांतमां रहीने अलोकमा पोताना हाथने, यावत्-उरुने देव भलोकमा संकोचवा के पसारवा समर्थ छ। [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के । समर्थ है। मोटी ऋद्धिवाळो देव लोकान्तमा रहीने अलोकमां पोताना हाथने, यावत्-उरुने पसारवा समर्थ नथी' [उ०] हे गौतम ! *जीवोने [ अनुगत एवा ] आहारोपचित, शरीरोपचित अने कलेवरोपचित पुद्गलो होय छे, तथा पुद्गलोने आश्रयीनेज जीवोनो अने अजीवोनो [ पुद्गलोनो] गतिपर्याय कहेवाय छे. अलोकमां तो जीवो नथी, तेम पुद्गलो पण नथी माटे ते हेतुथी पूर्वोक्त देव यावत्-पसारवा समर्थ नथी. ह भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. सोळमा शतकमां अष्टम उद्देशक समाप्त. १-२ १-२ भांगा जाणवा अने द्वीन्द्रियना बब्बे भांगा जाणवा. अवेयक तथा अनुत्तर विमानमां देवोनु गमनागमन नहि होवाथी पंचेन्द्रियमां पण बब्बे भांगा थाय छे. यद्यपि त्रीजी नरकपृथिवी सुधी देवोर्नु गमनागमन होवाथी वालुकाप्रभाना उपरना चरमान्त सुधी देशने आश्रयी पंचेन्द्रियना त्रण त्रण भांगानो संभव छ, भने त्यांथी आगळनी नरकपृथिवीने विषे देवोनुं गमनागमन नहि होवाथी पंचेन्द्रियना बब्बे भांगा थाय छे, पण अहिं शर्कराप्रभानी पेठे साते नरकपृथिवी सुधी पंचेन्द्रियना त्रण भांगा कह्या छे ते विचारणीय छे.-टीका. ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला)ना पूर्वादि चारे दिशाओना चरमान्तने आश्रयी जीवदेश अने जीवप्रदेशोना भांगाओर्नु यन्त्र. एक के अनेक जीवोना एक के भनेक देशादि. एकेन्द्रिय. बेइन्द्रिय.. तेइन्द्रिय. चउरिन्द्रिय. पञ्चेन्द्रिय. अनिन्द्रिय. कुल भांगा २-२ १-१ १-१ १-१ देश. १-२ १-२ १-२ २-२ २-२ २-२ २-२ २-२ १-२ . १-२ २-२ २-२ महिं पूर्ववत् देशने आश्रयी असंयोगी एक अने तेनी साथे बे इन्द्रियादिनो योग करता द्विकसंयोगी चौद भांगा तथा प्रदेशने आश्रयी असंयोगी एक भने द्विकसंयोगी दश भांगा जाणवा. * जीवोनी साथे रहेला पुद्गलो आहाररूपे, शरीररूपे, कलेवररूपे तथा श्वासोच्छ्रासादिरूपे उपचित थयेला होय छे. अर्थात्-पुरलो हमेशां जीवानुगामी खभाववाळा होय छे, जे क्षेत्रमा जीवो छे त्यांज पुद्गलोनी गति होय छे, तेमज पुद्गलोने आश्रयी जीबोनो अने पुदलोनो गतिधर्म होय छे. तात्पर्य ए छे के जे क्षेत्रमा पुगलो छे तेज क्षेत्रमा जीवोनी भने दलोनी गति थाय छे, धर्मास्तिकायना अभावथी अलोकर्मा जीव भने पुद्गलो होता नथी माटे त्यां जीव भने पुदलोनी गति पण नथी.-टीका. ४ भ० सू० प्रदेश. १ १-२ २- २ १-२ २ -२ १११ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६.-उद्देशक ९. श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे नवमो उद्देसो. ११.. [प्र०] कहिनं भंते ! बलिस्स वहरोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पवयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेजे जहेव चमरस्स जाव-यायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स वइ. रोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो रुयर्गिदे नाम उप्पायपधए पन्नत्ते । सत्तरस एकवीसे जोयणसए-एवं पमाणं जहेव तिगिच्छिकूडस्स । पासायव.सगस्स वि तं चेव पमाणं, सीहासणं सपरिवार बलिस्स परियारेणं, अट्ठो तहेव, नवरं रुयगिदप्पभाई ३, सेसं तं चेव, जाव-बलिचंचाए रायहाणीए अनसिं च जाव-रुयगिंदस्स णं उप्पायपवयस्स उत्तरेणं छक्कोडिसए तहेव, जाव-चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता पत्थ णं बलिस्स वइरोयणिदस्स वहरोयणरन्नो बलिचंचा नाम रायहाणी पन्नत्ता। एग जोयणसयसहस्सं पमाणं, तहेव जाव-बलिपेढस्स उववाओ, जाव-आयरक्खा सम्वं तहेव निरवसेसं, नवरं सातिरेगे सागरोअमं ठिती पन्नत्ता, सेसं तं चेव जाव-बली वररोयर्णिदे बली० २ । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! जाव-विहरति । सोलसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो । नवम उद्देशक, .१ [प्र०] हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र अने वैरोचन राजा एवा बलिनी सुधर्मा सभा क्या कहेली (आवेली) छे ! [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मंदर पर्वतनी उत्तरे तिरछं असंखेय [द्वीप-समुद्रो ओळंगीने]-इत्यादि जेम *चमरनी हकीकतमा कयुं छे तेम अरुणवर द्वीपनी बाह्यवेदिकाथी अरुणवर समुद्रमां बेंतालीश हजार योजन अवगाह्या पछी वैरोचनेन्द्र अने वैरोचनराजा एवा बलिनो रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत कह्यो छे. ते उत्पात पर्वत १७२१ योजनन उंचो छे. बाकीनुं बधुं तेनुं प्रमाण तिगिच्छिकूट पर्वतनी पेठे जाणवू | प्रासादावतंसकनु पण प्रमाण तेज प्रमाणे जाणवू, तथा बलिना परिवार साथे सपरिवार सिंहासन पण ते प्रमाणे कहेg. रुचकेन्द्र नामनो अर्थ पण ते प्रमाणे कहेवो. विशेष ए के अहिं रुचकेन्द्र रत्नविशेष] नी प्रभावाळी उत्पलादि जाणवां. बाकी बधं तेज प्रमाणे यावस्-ते बलिचंचा राजधानी तथा अन्योन [आधिपत्य करतो विहरे छे. त्यां सुधी कहे. ते रुचकेन्द्र उत्पात पर्वतनी उत्तरे छ सो [पंचावन क्रोड, पांत्रीश लाख, पचास हजार योजन अरुणोदय समुद्रमा तिरछु जइने नीचे रत्नप्रभा पृथिवीमा ] इत्यादि पूर्ववत् यावत्-चालीस हजार योजन गया पछी त्यां वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजा एवा बलिनी 'बलिचंचा' नामनी राजधानी कही (आवेली) छे. ते राजधानीनो विष्कंभ-- विस्तार एक लाख योजन छे. बाकी- बधुं प्रमाण पूर्व प्रमाणे जाणवं, अने ते बावत्-बलिपीठ सुधी समजवू. तथा उपपात, यावत्-आत्म रक्षको-ए बधु पूर्ववत् समजवं. विशेष ए के वैरोचनेन्द्र वैरोचन राजा एवा बलिनी स्थिति सागरोपम करतां कंइंक अधिक कही छे. अने बाकी बधं ते संबंधे पूर्व प्रमाणेज जाणवू. यावत्-'वैरोचनेन्द्र बलि छे, वैरोचनेन्द्र बलि छे' त्या सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सोळमा शतकमां नवम उद्देशक समाप्त. १* भगा खं० १ ० २ उ०८० २९७-२९८. जिम बीजा शतकचा आटा उद्देशका चमरेन्द्रनी सुधर्मा सभासंबंधे हकीकत कही छे तेम पलि संबंधे पण कहेवी. त्या जेम तिगिच्छिकूटनामे उत्पात पर्वतर्नु प्रमाण कयुं छे ते प्रमाणे अहिं रुचकेन्द्र उत्पात पर्वतर्नु प्रमाण जाणवं. तिगिच्छिकूटना उपर रहेला प्रासादावतंसकर्नु जे प्रमाण कयुं छे ते प्रमाणे इचकेन्द्रनामे उत्पात पर्वत उपर रहेला प्रासादचं प्रमाण पण जाणवू. हवे ते. प्रासादावतंसकना मध्यभागे रहेलं बलिर्नु सिंहासन तेना परिवारना सिंहासनो सहित चमरेन्द्रनी पेठे जाणवू. तेमा मात्र विशेष ए छे के बलिना सामानिक देवोना आसनो साठ हजार छ भने भात्मरक्षक देवोना आसनो तेथी चार गुणा छे. जेम तिगिच्छिकूट नामनो अन्वर्थ कहेलो छे, तेम अहिं रुचकेन्द्रनो पण जाणवो. त्यां विनिच्छिकूटमां तिगिच्छिरमनी प्रभावाळो उत्पलादि होय छे माटे ते तिगिच्छिकूट कहेवाय छे, तेम अहिं रुचकेन्द्ररत्ननी प्रभावाळा उत्सलादि होय छे माटे रुचकेन्द्रकूट कहेवाय छे. नगरीनुं प्रमाण कह्या पछी प्राकार, तेना द्वार, उपकारिकालयन, द्वारना उपरतुं गृह, प्रासादावतंसक, सुधर्मसभा, चैत्यभवन, उपपातसभा, हृद, अभिषेकसभा, आलंकारिकसभा अने व्यवसायसभा वगेरेनुं खरूप अने प्रमाण पलिपीठना वर्णन सुधी कहे.-टीका. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक-१६.-उद्देशक. ११. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. दसमो उद्देसो. १.[प्र.] कतिविहेणं भंते ! ओही पन्नत्ते[उ०] गोयमा दुविहा ओही पन्नचा मोहीपदं निरवसेसं भाणियच सेवं मंते ! सेवं भंते जाव-विहरति । सोलसमे सए दसमो उद्देसों समत्तो। - दशम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् । अवधिज्ञान केटला प्रकारे कडं छे? [उ. हे गौतम ! अवधिज्ञान के प्रकारे कर्खा छे. अहिं *'प्रज्ञापना' सूत्रनुं तेत्रीसमुं अवधिपद संपूर्ण कहे. हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-एमं कही यावद्-विहरे छे. सोळमा शतकमां दशम उद्देशक समाप्त. अवधिज्ञान. इक्कारसमो उद्देसो. १. [प्र०] दीवकुमारा णं भंते ! सधे समाहारा, सच्चे समुस्सासनिस्सासा ? [उ०] णो तिणटे समढे । एवं जहा पढमसए बितियउद्देसए दीवकुमाराणं वत्तवया तहेव जाव-समाउया, समुस्सासनिस्सासा। २. [प्र०] दीवकुमाराणं भंते ! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ कण्हलेस्सा, जाव-४ तेउलेस्सा। ३.प्र०] एएसिणं भंते। दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव-तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो जाव-विसेसार हिया था? [उ.] गोयमा! सवत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेजगुणा, नीललेस्सा बिसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। ४. [प्र०] एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेसाणं जाव-तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा महद्विया वा [उ०] गोयमा ! कण्हलेस्साहितो नीललेस्सा महड्डिया, जाव-सवमहड्डीया तेउलेस्सा। 'सेवं भंते ! सेवं भंते! जाप-विहरति । सोलसमे सए इकारसमो उद्देसो समत्तो. अगियारमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! द्वीपकुमारो बधा समानआहारवाळा छे, समानउच्छास-निःश्वासवाळा छे ! [उ०] हे गौतम | ए अर्थ दीपकुमारो समान समर्थ नथी. अहिं जेम प्रिथम शतकना द्वितीय उद्देशकमा द्वीपकुमारोनी वक्तव्यता कहेली छे ते बधी कहेवी, यावत्-समान आयुष्यवाळा बाहारवाळा - इत्यादि प्रम. अने समान उच्छास-निःश्वास वाळा [नथी ] त्यां सुधी जाणवू. २. [प्र०] हे भगवन् । द्वीपकुमारोने केटली लेश्याओ कही छे? [उ०] हे गौतम! तेओने चार लेश्याओ कही छे. ते आ प्रमाणे- दीपकुमारोने वेश्यामो. १ कृष्णलेझ्या, यावत्-४ तेजोलेश्या. ३. [प्र०] हे भगवन् | कृष्णलेश्यावाळा यावत्-तेजोलेश्यावाळा ए द्वीपकुमारोमां कोण कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतमसौथी थोडा द्वीपकुमारो तेजोलेश्यावाळा छे, कापोतलेश्यावाळा असंखेयगुणा छे, तेथी नीललेश्यावाळा विशेषाधिक छे, अने तेना करतां कृष्णलेश्यावाळा विशेषाधिक छे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा, यावत् तेजोलेश्यावाळा-ए द्वीपकुमारोमां कोण कोनाथी अल्पर्धिक छे अने महर्धिक छ। [उ०] हे गौतम ! कृष्णलेश्यावाळा करतां नीललेश्यावाळा द्वीपकुमारो महर्षिक छे; यावत्-तेजोलेश्यावाळा सौथी महर्षिक छे. हि भगवन् ! ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावद् विहरे छे. , सोळमा शतकमां अगियारमो उद्देशक समाप्त. * अवधिज्ञान के प्रकारर्नु छ-भवप्रत्ययिक भने क्षायोपशमिक. देवो भने नैरयिकोने भवप्रत्ययिक अने मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकने क्षायोपशमिक-अवधिज्ञानावरणना क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान होय छे. विशेष माटे जुओ प्रज्ञा० पद ३३ ५० ५३६-५४२. . द्विविधोऽवधिः । भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । यथोकनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ तत्त्वा० अ० १सू. २१-२२-२३ ॥ अर्थः-अवधिज्ञान वे प्रकारे छे-भवप्रत्यय अने क्षयोपशमनिमित्त. नारक भने देवोने भवप्रत्यय अवधिज्ञान होय छ भने शेष मनुष्य अने पंचेन्द्रिय तिर्यचोने क्षयोपशमनिमित्तक होय छे. तेना छ प्रकार छ. ११ भग. खं० १.१ उ०२ पृ. ९६. . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १६.-उद्देशक १२-१४. १२-१४ उद्देसा. १. [प्र०] उदहिकुमारा गं मंते ! सवे समाहारा० [उ०] एवं चेव 'सेवं भंते सेषं मंते 1 ति । (१६-१२) एवं दिसाकुमारा वि (१६-१३) एवं थणियकुमारा वि । 'सेवं भंते सेवं भंते जाव-विहर (१६-१४)। सोलसमे सए १२-१४ उद्देसा समचा सोलसमं सयं समचं. १२-१४ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! अ॒ उदधिकुमारो बधा समान आहारवाळा छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणेज बधुं जाणवू. हि भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-(१६-१२) ए प्रमाणे दिक्कुमारो विषे तेरमो उद्देशक जाणवो अने ए प्रमाणे स्तनितकुमारो विषे चौदमो उद्देशक समजवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावद्-विहरे छे. सोळमा शतकमा १२-१४ उद्देशको समाप्त सोळमुं शतक समाप्त. Maa Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं सयं कुंजर संजय सेलेसितै किरिये ईसाणे पुढेवि दंगे वा। एगिदिय नाग सुवन्न विजु वायु-गि सत्तरसे ॥ पढमो उद्देसो. १.प्र. रायगिहे जाव-एवं वयासी-उदायी णं भंते! हत्थिराया कोहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता उदायिहस्थिरायत्ताए उयवन्ने ? [उ०] गोयमा! असुरकुमारेहितो देवेहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता उदायिहत्थिरायत्ताए उववन्ने । २. [प्र०] उदायी णं भंते! हत्थिराया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? [उ०] गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति । ३. [प्र०] से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? [उ०] गोयमा! महाविदेहे चासे सिज्झिहिति, जाव-अंतं काहिति । ४. [प्र०] भूयाणंदे णं भंते ! हत्थिराया कओहितो अणतरं उष्वट्टित्ता भूयाणंदे हत्थिरायत्ताए ० १ [३०] एवं जहेव उदायी, जाव-अंतं काहिति । सत्तरमुं शतक. उद्देशक संग्रह-१ कुंजर-कोणिकना प्रधान हस्ती संबन्धे प्रथम उद्देशक, २ संयतादि संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ शैलेशी प्राप्त अनगार संबन्धे त्रीजो उद्देशक, ४ क्रिया-कर्म संबन्धे चोथो उद्देशक, ५ ईशानेन्द्रनी सुधर्मा सभा संबन्धे पांचमो उद्देशक, ६-७ पृथिवीकायिक संबन्धे छट्ठो अने सातमो उद्देशक, ८-९ अप्कायिक संबन्धे आठमो अने नवमो उद्देशक, १०-११ वायुकायिक संबन्धे दशमो अने अगीयारमो उद्देशक, १२ एकेन्द्रिय जीव संबन्धे बारमो उद्देशक, १३-१७ नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार अने अग्निकुमार संबन्धे अनुक्रमे तेरथी आरंभी सत्तर उद्देशको-ए प्रमाणे सत्तरमा शतकमा सत्तर उद्देशको कहेवामां आवशे. प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! उदायी नामे प्रधान हस्ती कई गतिमांथी मरण उदायी हस्ती कई गतिमाथी आवी - पामी तुरत अहीं उदायी नामे प्रधान हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे ! [उ० ] हे गौतम ! ते असुरकुमार देव थकी मरण पामी तुरत अहीं पन्न भयो । उदायी नामे प्रधान हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे. २.प्र०] है भगवन् ! आ उदायी नामे हस्ती मरणसमये मरी क्यां जशे, क्या उत्पन्न थशे ! उ० हे गौतम ! आ रत्नप्रभा उदायी मरीने क्या जशे। पृथिवीने विषे एक सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थितिवाळा नरकावासमा नैरयिकपणे उत्पन्न थशे. . ३. [४०] हे भगवन् ! ते (उदायी हस्ती ) त्यांथी मरण पामी तुरत क्या जशे, क्या उत्पन्न थशे ! [उ०] हे गौतम ! महाविदेह त्यांची मरण पामी क्षेत्रमा उत्पन्न यई सिद्ध थशे, सर्व दुःखोनो अन्त करशे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! भूतानंद नामे प्रधान हस्ती कई गतिमांथी मरण पामी तुरत अहिं भूतानंद नामे हस्तीपणे उत्पन्न थयो . भूतानंद यांची आल्यो छे भने मरीछै! [उ०] जेम उदायी नामे हस्तीनी वक्तव्यता कही तेम भूतानंदनी पण वक्तव्यता अहिं जाणवी. यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे. ने क्या ज क्या नशे! Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.-उद्देशक १. ५. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! तालमारुहइ, तालमारुहित्ता तालाओ तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए। [10] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तालमारुहर, तालमारुहित्ता तालाओ तालफलं पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुढे जेसि पिणं सरीरोहितो ताले निवत्तिए, तालफले निष्वत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहि पुट्ठा। ६.प्र०] अहे णं भंते ! से तालफले अप्पणो गरुयत्ताए, जाव-पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव-जीवियाओ वव. रोवेति तए णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तलप्फले अप्पणो गरुयत्ताए जाव-जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-पंचहि किरियाहि पुढे जेसि पि णं जीवाणं सरीरोहितो तले निष्पत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव-चउहि किरियाहि पुट्टा, जेसि पिणं जीवाणं सरीरोहिंतो तलफले निवत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्टा; जेविय से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे वति ते विय णं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहि पुट्ठा। ७. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा, पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेइ वा, पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुढे; जेसि पि य 'गं जीवाणं सरीरोहितो मुले निवत्तिए, जाव-बीए निवत्तिए, ते वि य णं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहि पुट्ठा । ८. [प्र०] अहे णं भंते! से मूले अप्पणो गरुययाए जाव-जीवियाओ ववरोवेह तओ णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव-ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-चउहि किरियादि पुढे जेसि पि य णं जीवाणं सरीरोहितो कंदे निधत्तिए, जाव-बीए निवत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव-चउहि पुढा, कायिकी आदि कियाभो. ५. [प्र०] हे भगवन् ! कोई पुरुष ताडना झाड उपर चढे, अने ते ताडना झाड उपर चढी त्यां रहेला ताडना फळने हलावे के नीचे पाडे तो ते पुरुषने केटली क्रियाओ लागे ? [उ०] हे गौतम ! *जेटलामा पुरुष ताड उपर चढी ताडना फळने हलावे के नीचे पाडे, तेटलामा ते पुरुषने कायिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे. जे जीवोना शरीरद्वारा ताड वृक्ष तथा ताडनुं फळ उत्पन्न थयु छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! [ ते पुरुषे हलाव्या के तोड्या पछी ] ते ताडनुं फळ पोताना भारने लीधे यावत्-नीचे पडे, अने नीचे पडता ते ताडना फळद्वारा जे जीवो हणाय, यावत्-जीवितथी जूदा थाय, तो तेथी ते फळ तोडनार पुरुषने केटली क्रियाओ लागे ? [उ०] हे गौतम ! जेटलामां ते पुरुष ताडना फळने तोडे अने पछी ते पळ पोताना भारने लीधे नीचे पडता जीवोने यावत्-जीवितथी जूदा करे तो तेटलामां ( तोडनार ) पुरुषने कायिकी वगेरे चार क्रियाओ लागे, जे जीवोना शरीरथी ताडनु वृक्ष नीपज्युं छे ते जीवोने यावत् चार क्रियाओ लागे, अने जे जीवोना शरीरथी ताडनुं फळ नीपज्युं छे ते जीवोने तो कायिकी यावत् पांचे क्रियाओ लागे. तथा जे जीवो खाभाविक रीते नीचे पडता ताडना फळना उपकारक थाय छे ते जीवोने पण कायिकी यावत्-पांचे क्रियाओ लागे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! कोइ पुरुष झाडना मूळने हलावे के नीचे पाडे तो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे ! [उ०] हे गौतम ! झाडना मूळने हलावनार के नीचे पाडनार पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे, अने जे जीवोना शरीरथी मूळ यावत् बीज नीपज्यो छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे. वृक्षतुं मूळ चलाव नारने क्रिया. प्रक्षना मूळने क्रिया. ८. [प्र०] हे भगवन् ! त्यार पछी ते मूळ पोताना भारने लीधे नीचे पडे अने बीजा जीवोनु घातक थाय तो तेथी मूळने हला. वनार के तोडनार ते पुरुषने केटली क्रिया लागे ! [उ०] हे गौतम | जेटलामा ते मूळ पोताना भारने लीधे नीचे पडे अने बीजी जीवोन घातक थाय तेटलामा ते पुरुषने कायिकी वगेरे । चार क्रियाओ लागे. तथा जे जीवोना शरीरथी कंद नीपज्यो छे, यावत्-बीज ५* कोई पुरुष ताडना झाडने हलावे के तेना फळने नीचे पाडे तो ते ताडना फळनी अने ताडना फळने आश्रयी रहेला जीवोनी हिंसा करे छे, जे हिंसा रूप क्रिया करे छे ते कायिकी आदि चार क्रियाओ पण अवश्य करे छे, माटे ते पुरुषने कायिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे छे १.जेओ ताड अने फळना जीवो छ तेने पण पूर्वोक्त पांच क्रियाओ लागे छे, केमके ते बीजा जीवोने स्पर्शादि वडे साक्षात् हणे छे २. ज्यारे पुरुष ताडना फळने हलावे के तोडे, पछी ते फळ पोताना भारथी नीचे पडे अने ते द्वारा अन्य जीवोनी हिंसा थाय त्यारे ते पुरुषने चार क्रियाओ लागे, कारण के अहिं फळना पडवाथी जे हिंसा थाय छे तेमां पुरुष साक्षात् कारण नथी, पण परंपरा कारण छे, माटे तेने प्राणातिपात सिवाय बीजी चार क्रियाओ लागे ३. ए प्रमाणे ताडना झाडने पण चार क्रिया लागे, अने फळना जीवोने पांच क्रिया लागे, कारण के ते वधनुं साक्षात् कारण छ ५. नीचे पडता ताडना फळना जे उपकारक जीवो छे तेने पण पूर्वोक्त युक्तिथी पांच कियालो लागे ६. ए प्रमाणे फळद्वारा छ क्रिया स्थानो कपा. ए रीते मूळ, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पांदढा, पुष्प, फळ अने बीजने विषे पूर्वोक्त छ क्रियास्थानो समजवा. विशेष माटे बाण फेंकनार पुरुष संबन्धे जुओ भग० खं० २.५ उ.पृ. २०६-२.७. Jain Education international Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ शतक १७.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरोहितो मूले निवत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्टा, जे वि य णं से जीवा अहे बीससाए पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति ते वि णं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । ९. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स कंदं पचालेइ०१ [उ.] गोयमा! तावं च णं से पुरिसे जाव-पंचहि किरियाहिं पुटे, जेसि पिणं जीवाणं सरीरोहिंतो मूले निवत्तिए, जाव-बीए निष्पत्तिए ते विणं जीवा पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । १०. [प्र०] अहे णं भंते! से कंदे अप्पणो० उ०] जाव-चाहिं पुढे जेसि पिणं जीवाणं सरीरोहिंतो मुले निष्वत्तिए, खंधे निश्वत्तिए, जाव-चउहि पुट्ठा; जेसि पि णं जीवाणं सरीरोहिंतो कंदे निष्पत्तिए ते वि य णं जीवा जाव-पंचहिं पुट्ठा; जे वि य से जीवा अहे बीससाए पच्चोवयमाणस्स जाव-पंचहिं पुट्ठा, जहा कंदे, एवं जाव-धीयं । .११. [प्र० कति णं भंते! सरीरगा पन्नत्ता [उ०] गोयमा! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-१ ओरालिए, जावफम्मए । १२. [प्र०] कति णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा-१ सोइंदिए, जाव-५ फार्सिदिए । १३. [प्र०] कतिविहे णं भते! जोए पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ? तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-मणजोए, वयजोए, कायजोए। १४. [प्र०] जीवे णं भंते! ओरालियसरीरं निवत्तेमाणे कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए, एवं पुढविकाइए वि, एवं जाव-मणुस्से । १५. [प्र०] जीवा णं भंते! ओरालियसरीरं निष्पत्तेमाणा कतिकिरिया? [उ०] गोयमा! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि; एवं पुढविकाइया वि, एवं जाव-मणुस्सा । एवं वेउधियसरीरेण वि दो दंडगा, नवरं जस्स अत्थि वेउ नीपज्युं छे ते जीवोने कायिकी यावत्-चार क्रियाओ लागे. वळी जे जीवोना शरीरथी मूळ नीपज्युं छे ते जीवोने कायिकी यावत्-पांच क्रियाओ लागे. तथा जे जीवो खाभाविक रीते नीचे पडता मूळना उपग्राहक-उपकारक छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे छे. ९. [प्र०] हे भगवन् । कोइ पुरुष वृक्षना कंदने हलावे तो तेने केटली क्रिया लागे! [उ०] हे गौतम | कंदने हलावनार ते पक्षना कन्द चला बनारने क्रियापुरुषने यावत्-पांच क्रियाओ लागे. तथा जे जीवोना शरीरथी मूळ यावत्-बीज नीपज्युं छे ते जीवोने पण पांच क्रियाओ लागे छे. . , १०. [प्र०] हे भगवन् ! त्यार पछी ते कन्द पोताना भारने लीधे नीचे पडे अने यावत्-जीवोनो घात करे तो ते पुरुषने केटली कन्दने किया. क्रियाओ लागे ! [उ०] ते पुरुषने यावत्-चार क्रियाओ लांगे. [ साक्षात् घातक नहि होवाथी प्राणातिपातक्रिया न लागे. ] तथा जे जीवोना शरीरोथी मूळ, स्कंध वगेरे नीपज्यां छे ते जीवोने परंपराए घातक होवाथी प्राणातिपात क्रिया सिवाय चार क्रियाओ लागे, अने जे जीवोना शरीरोथी कंद नीपज्यो छे ते जीवोने यावत् पांचे क्रियाओ लागे. वळी जे जीवो स्वाभाविक रीते नीचे पडता ते कंदना उपकारक होय ते जीवोने पण पांचे क्रियाओ लागे. जेम कंद संबन्धे वक्तव्यता कही तेम यावत्-बीज संबन्धे पण जाणवी. ११. [प्र०) हे भगवन् ! केटलां शरीरो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच शरीरो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिक, यावत्- शरीरो. ५ कार्मण. १२. [प्र०] हे भगवन् ! केटली इन्द्रियो कही छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच इन्द्रियो कही छे, ते आ प्रमाणे-१ श्रोत्रेन्द्रिय, यावत्- इन्द्रियो. ५ स्पर्शेन्द्रिय. १३. [प्र०] हे भगवन् ! योग केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! योग त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-मनयोग, वचनयोग अने काययोग. १४. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो जीव केटली क्रियावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! *औदारिक शरीरने बांधतो औवारिकादि शरीर ने बांधतो जीव फेटजीव कोइवार त्रण क्रियावाळो, कोइवार चारक्रियावाळो अने कोइवार पांच क्रियावाळो होय. ए रीते पृथिवीकायिक संबन्धे कहेवू. तथा ए ली क्रिया करे। प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-मनुष्य सुधी जाणवू. १५. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधता अनेक जीवोने केटली क्रियाओ लागे ! [उ.] हे गौतम ! रोओने कदाचित् अनेक जीवो फेट की क्रिया करे। प्रण क्रियाओ, कदाचित् चार क्रियाओ अने कदाचित् पांच क्रियाओ लागे. ए प्रमाणे यावत् दंडकना क्रमथी पृथिवीकायिको सुधी योग. १४* ज्यारे औदारिक शरीरने बांधतो जीव ज्या सुधी वीजा जीवोने परितापादि न उत्पन्न करे त्यांसुधी तेने कायिकी, अधिकरणिफी अने प्रादेषिकीएग क्रियाओ लागे, ज्यारे परने परितापादि उत्पन्न करे त्यारे तेने पारितापनिकी सहित चार कियाओ लागे, अने अन्य जीवनी हिंसा करे सारे तेने प्राणातिपात सहित पांच क्रियाओ लागे.-टीका. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.-उद्देशक २. ध्वियं, एवं जाव-कम्मगसरीरं, एवं सोइंदियं, जाव-फासिदियं; एवं मणयोग, वयजोगं, कायजोग, जस्स जं अस्थि तं भाणियचं; एए एगत्त-पुहुत्तेणं छच्चीसं दंडगा। . १६. [प्र०] कतिविहे गं भंते ! भावे पण्णत्ते ? [30] गोयमा! छविहे भावे पन्नत्ते, तं जहा-१ उदइए, २ उपसमिए, जाव-६ सन्निवाइए। १७. [प्र०] से किं तं उदइए ? [उ०] उदइए भावे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-उदइए, उदयनिप्पन्ने य, एवं एएणं अभिलावणं जहा अणुओगदारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियवं, जाव-सेत्तं सन्निवाइए भावे । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । सत्तरसमसए पढमो उद्देसो समत्तो। जाणवू. तथा ए क्रमथी यावत्-मनुष्यो सुधी जाणवू. ए प्रमाणे वैक्रिय शरीर संबन्धे पण एक वचन अने बहुवचनने आश्रयी बे दंडको कहेवा. परन्तु जे जीवोने वैक्रिय शरीर होय ते जीवोने आश्रयी कहेवू. ए प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीर सुधी समजवू. श्रोत्रेन्द्रियथी आरंभी यावत्-स्पर्शेन्द्रिय सुधी पण एज क्रमथी जाणवू. वळी मनयोग, वचनयोग अने काययोग विषे पण ५ प्रमाणे कहे, परन्तु जेने जे योग होय तेने ते योगसंबन्धे कहे. एम बधा मळीने एकवचन अने बहुवचनने आश्रयी छब्बीश दंडको कहेवा. आदयिकादि भावो, १६. [प्र०] हे भगवन्! भाव केटला *प्रकारना कह्या छे? [उ०] हे गौतम! भाव छ प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ औदन यिक, २ औपशमिक, यावत्-६ सांनिपातिक. १७. [प्र०] हे भगवन् ! औदयिक भाव केटला प्रकारे कह्यो छे. [उ०] हे गौतम ! औदयिक भाव बे प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-औदयिक अने उदयनिष्पन्न. ए प्रमाणे आ अभिलाप वडे अिनुयोगद्वारमा जेम छि नामनी वक्तव्यता कही छे ते बधी अहिं कहेवी. यावत्-ए प्रमाणे सांनिपातिक भाव सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सत्तरमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. बीओ उद्देसो। १. [प्र०] से णं भंते ! संयत-विरत-पडिहय-पञ्चक्खायपापकम्मे धम्मे ठिए, अस्संजय-अविरय-अपडिहयपश्चक्खायपावकम्मे अधम्मे ठिते, संजयासंजए धम्माधम्मे ठिते ? [उ०] हंता गोयमा! संजय-विरय० जाव-धम्माधम्मे ठिए । [] एएसि णं भंते! धम्मंसि वा, अहम्मंसि वा, धम्माधम्मंसि वा चक्किया केइ आसइत्तए वा, जाव-तुयट्टित्तए वा ? [उ.] गोयमा! णो तिण? समढे। [प्र०] से केणं खाति अट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ-जाव-धम्माधम्मे ठिते'। [उ.] गोयमा! संजय द्वितीय उद्देशक. संयतादि धर्म, १. [प्र०] हे भगवन् ! संयत, प्राणातिपातादिथी विरतिवाळो अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कर्यु छे एवो जीव अधर्म के धर्माधर्ममा हो चारित्र धर्ममां स्थित होय, असंयत, अविरत अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कर्यु नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित होय, तथा संयतासंयत जीव धर्माधर्ममां स्थित होय ? [उ०] हे गौतम ! हा, संयत अने विरत जीव धर्ममां स्थित होय, संयतासंयत जीव यावत्कोइ नीव धर्म, म. धर्माधर्मां स्थित होय. [प्र०] हे भगवन् | ए धर्ममा, अधर्ममां अने धर्माधर्ममा कोइ जीव बेसवाने यावत्-आळोटवाने समर्थ छे ! [उ०] धर्म के धर्माधर्ममा बेसी शक हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी [अर्थात्-ते जीवनो स्वभाव होवाथी धर्ममां, अधर्ममां के धर्माधर्ममां कोइ जीव बेसी शकतो नथी.] [प्र०] हे धर्म, अधर्म के धर्मा भगवन् ! शा कारणथी आप एम कहो छो के–'यावत्-धर्माधर्ममां स्थित होय' ! [उ०] हे गौतम ! संयत, विरत अने जेणे पापकर्मर्नु धर्ममां स्थित होय एटले | प्रत्याख्यान क्युं छे एवो जीप धर्ममां स्थित होय एटले धर्मनो आश्रय करी-स्वीकार करीने विहरे. ए प्रमाणे असंयत, अविरत अने जेणे १६* पांच शरीर, पांच इन्द्रिय अने त्रण योगना एकत्व अने बहुत्वने आश्रयी २६ दंडको थाय छे.. १७ औदयिक भावना औदयिक अने उदयनिष्पन्न-ए बे मेद छे. आठ कर्मप्रकृतिओनो उदय ते औदयिक. उदयनिष्पनना बे प्रकार छे. जीबोदयनिष्पन्न अने अजीवोदयनिष्पन्न. कर्मना उदयथी जीवमां निष्पन्न थयेला नारक, तिर्यच इत्यादि पर्यायो जीवोदयनिष्पन्न कहेवाय छे. कर्मना उदयथी. अजीवने विषे थयेला पर्यायो, जेमके औदारिकादिशरीर तथा औदारिकादि शरीरने विषे रहेला वर्णादि ते औदारिकशरीरनाम कर्मना उदयथी पुद्गलद्रव्यरूप अजीवने विषे निष्पन्न होवाथी अजीवोदयनिष्पन्न कहेवाय छे. जुओ-अनुयोग. प० २१४. अनुयोगद्वार सूत्रमा एक नामथी मांडी छ नाम दगेरे संबंधे कथन छे, तेमा छ नामनी वक्तव्यतामा छ भावना खरूपनुं वर्णन छे. जुओ-प. ११३-१२७. ११ अहिं धर्म, अधर्म अने धर्माधर्मपदथी अनुक्रमे चारित्र धर्म, अविरति अने देशविरति विवक्षित छे. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३ विरय० जाव-पावकम्मे धम्मे ठिए, धम्म चेव उवसंपजित्ता णं विहरति; असंजय० जाव-पावकम्मे अधम्मे ठिते, अधर्म चेव उवसंपजित्ता णं विहरति; संजयासंजए धम्माधम्मे ठिए, धम्माधम्म उवसंपजित्ता णं विहरति, से तेणटेणं जाव-ठिए । २. [प्र०] जीवा णं भंते! किं धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे ठिया ? [उ०] गोयमा ! जीवा धम्मे वि ठिया, अधम्मे वि ठिया, धम्माधम्मे वि ठिया। ३. [प्र०] नेरतिआणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! णेरइया नो धम्मे ठिता, अधम्मे ठिता, णो धम्माधम्मे ठिता । एवं जाव-चरिंदियाणं । ___४. [प्र०] पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया नो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्में वि ठिया । मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरतिया। ५. [प्र०] अन्नउत्थिया णं भंते! एवं आइक्खंति, जाव-परूवेति-एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासया बालपंडिया, जस्स गं एगपाणाए वि दंडे अणिक्खित्ते से णं 'गंतवाले' त्ति वत्तवं सिया, से कहमेयं भंते! एवं उ०] गोयमा जणं ते अन्नउत्थिया एवं आइपखंति, जाव-वत्त, सिया; जे ते एवं आहंसु मिच्छं ते एवं आहंसु । अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि-'एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासगा बालपंडिया, जस्स णं एगपाणाए वि दंडे निषिखत्ते से णं नो 'एगंतबाले' त्ति वत्तवं सिया। ६. [प्र०] जीवा णं भंते! किं बाला, पंडिया, बालपंडिया? [उ.] गोयमा! बाला वि, पंडिया वि, बालपंडिया वि । ७. [प्र०] नेरइयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! नेरतिया बाला, नो पंडिया, नो बालपंडिया । एवं जाव-चरिदियाणं । पापकर्मनुं प्रत्याख्यान कयुं नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित होय-एटले अधर्मनो आश्रय करी विहरे, तथा संयतासंयत जीव धर्माधर्मा स्थित होय-एटले जीव धर्माधर्मनो-देशविरतिनो आश्रय करी विहरे. ते माटे हे गौतम ! यावत्-‘स्थित होय'. २. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो धर्ममां स्थित होय, अधर्ममां स्थित होय के धर्माधर्मां स्थित होय ! [उ०] हे गौतम ! जीवो धर्ममा पण स्थित होय, अथर्ममा पण स्थित होय अने धर्माधर्ममां पण स्थित होय _____३. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे नैरयिक संबन्धे पृच्छा करवी. [उ०] हे गौतम! नैरयिको धर्ममां स्थित न होय, तेम धर्माधर्ममा . दंडकना क्रमथी स्थित न होय, पण अधर्ममां स्थित होय. ए प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय जीवो सुधी जाणवू. नैरयिकादि संवन्धे पूर्वोक्त प्रश्न ४. [प्र०] पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवो संबन्धे पृच्छा. [उ०] हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यच जीवो धर्ममां स्थित नथी, पण तेओ अधर्मा अने धर्माधर्ममां स्थित छे. मनुष्योने विषे सामान्य जीवोनी पेठे वक्तव्यता कहेवी. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको विषेनी वक्तव्यता नैरयिकोनी पेठे कहेवी. ५. [प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीथिको एम कहे छे, यावत् एम प्ररूपे छे के 'श्रमणो पंडित कहेवाय छे अने श्रमणोपासको बाल- अन्यतीथिंको. पंडित कहेवाय छे, पण *जे जीवने एक पण जीवना वधनी अविरति छे ते जीव 'एकांत बाल' कहेवाय, तो हे भगवन् ! आ (अन्यती- बा वालपंदित भने पमा अन्यता- बाल संबन्धे तेओर्नु थिकोर्नु कथन ) सत्य केम होय ! [उ०] हे गौतम ! जे अन्यतीर्थिको आ प्रमाणे कहे छे के यावत्-'एकान्त बाल' कहेवाय, परन्तु जे- मन्तव्य. ओए एम कर्दा छे तेओए मिथ्या-असत्य कयुं छे, हे गौतम ! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु-यावत् प्ररूपुं छु के-ए प्रमाणे खरेखर श्रमणो पंडित छे अने श्रमणोपासको बालपंडित छे, पण जे जीवे एक पण प्राणिना वधनी विरति करी छे ते जीव एकांतबाल' न कहेवाय. [ परन्तु 'बालपंडित' कहेवाय. ] ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो बाल-विरतिरहित छे, पंडित-सर्वविरतिवाळा छे के बालपंडित-देशविरति युक्त छे ! [उ०] हे पात, बालप अनेपाल, गौतम ! जीवो बाल पण छे, पंडित पण छे अने बालपंडित पण छे. ७. [प्र०] नैरयिको संबन्धे ए प्रमाणे प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! नैरयिको बाल छे, पण पंडित नथी, तेम बालपंडित पण नैरयिकादि दक कना क्रमपी प्रश्न. मथी. ए प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-चउरिदियो सुधी जाणवू. ५. अन्यतीथिको 'श्रमणो पंडित-सर्वविरतिचारित्रवाळा-छे अने श्रमणोपासक बालपंडित-देशविरति सहित छे'-ए जिनसंमत वे पक्षनो अनुवाद करी तेमांना द्वितीय पक्षने दूषित करे छ-सर्व जीवोना वधनी विरति छतां जेने एक पण जीवना वधनी अविरति छे एवा श्रमणोपासकने पण एकान्तवाल' कहेवा जोइए: तेनुं आ मन्तव्य अयोग्य छ तेम भगवान महावीर जणावे छे-'जेने एक पण जीवना वधनी विरति छ तेने पण एकान्तबाल न कहेवाय, पण बालपंडित कहेवाय, कारण के तेनामा देशविरति छै; अने जेनामा देशविरति होय तेने 'एकान्तवाल' न कहेवाय. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.-उद्देशक २. ८. [प्र०] पांचंदियतिरिक्ख० पुच्छा । [उ०] गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया बाला, नो पंडिया, बालपंडिया वि। मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरतिया। ९. [प्र०] अन्नउस्थिया णं भते! एवं आइक्खंति, जाव-परूवेंति-'एवं खलु पाणातिवाए, मुसावाए, जाव-मिच्छादसजसले वट्टमाणस्स अन्ने जीवो, अन्ने जीवाया, पाणाइवायवेरमणे, जाव-परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे, जाव-मिच्छादसणसल्लविवेगे वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया; उप्पत्तियाए, जाव-परिणामियाए वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया; उग्गहे, ईहाअवाए, धारणाए य वट्टमाणस्स जाव-जीवाया, उट्ठाणे, जाव-परकमेवमाणस्स जाव-जीवाया; नेरइयत्ते, तिरिक्ख-मणुस्सदेवत्ते वट्टमाणस्स जाव-जीवाया, नाणावरणिजे, जाव-अंतराइए वमाणस्स जाव-जीवाया; एवं कण्हलेस्साए, जाव-सुक्क लेस्साए; सम्मदिट्ठीए ३, एवं चक्खुदंसणे ४, आभिणिबोहियणाणे ५, मतिअन्नाणे ३, आहारसन्नाए ४, एवं ओरालियसरीरे ५, एवं मणोजोए ३, सागारोवओगे, अणागारोवओगे वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया' सेकहमेयं भंते एवं उ०] गोयमा! जणं ते अन्नउत्थिया एवं आइपखंति, जाव-मिच्छं ते एवं आहेसु । अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि-- 'एवं खलु पाणातिवाए, जाव-मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्स सञ्चेव जीवे, सञ्चेव जीवाया, जाव-अणागारोवओगे वट्टमाणस्स जाव-सेञ्चव जीवाया। १०.[प्र०] देवेणं भंते! महिड्दिए, जाव-महेसक्खे पुवामेव रूवी भवित्ता पभू अरूवि विउवित्ता णं चिद्वित्तए? उ०] णो तिणटे समढे। [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'देवेणं जाव-नो पभू अरूविं विउवित्ता णं चिट्टित्तए? [उ. गोयमा! महमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि, मए एयं नायं, मए एयं दिटुं, मम एवं बुद्ध, मए एयं अभिसमन्नागयं-'जणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेदगस्स, समोहस्स, सले ८. [प्र०] पंचेंद्रिय तिर्यंचो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पंचेंद्रिय तिर्यंचो बाल अने बालपंडित होय छे, पण पंडित होता नथी. मनुष्यो संबंधे सामान्य जीवोनी वक्तव्यता कहेवी. तथा वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबंधे नैरयिकनी वक्तव्यता (सू०७) कहेवी. जीव अने जीवा- ९. [प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीर्थिको आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के प्राणातिपातमा, मृषावादमां यावत्-मिध्यादर्शनशस्मा मिन एवो ल्यमा वर्तता प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे' प्राणातिपातविरमणमां, यावत्-परिग्रहविरमणमा, क्रोधना त्यागमांयावत्-मिध्यादर्शनशल्यना त्यागमा वर्तता प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी तेनो जीवात्मा अन्य छे. औत्पत्तिकी बुद्धिमा, यावत्-पारिणामिकी बुद्धिमां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छे, अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणामां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे; उत्थानमा, यावत्-पुरुषकार-पराक्रममा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे नैरयिकपणामां, पंचेंद्रियतियंचपणामां, मनुष्यपणामा तथा देवपणामां वर्तमान जीव अन्य छे अने जीवात्मा अन्य छे; ज्ञानावरणीयमां यावत्-अंतरायमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छे; कृष्णलेश्यामा, यावत्-शुक्ललेझ्यामा, तथा सम्यग्दृष्टि मिध्यादृष्टि अने सम्यगमिथ्यादृष्टिमां, १ चक्षुर्दर्शन २ अचक्षुर्दर्शन, ३ अवधिदर्शन अने ४ केवल दर्शनमां, ५ आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवळज्ञानमां, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने विभंगज्ञानमा, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, निद्रासंज्ञा अने मैथुनसंज्ञामां, अने एज प्रमाणे औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर अने कार्मण शरीरमां, तथा मनोयोग, वचनयोग, . अने काययोगमां, साकारोपयोग अने अनाकारोपयोगमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेनो जीवात्मा अन्य छे. तो हे भगवन् ! ते केम सत्य होय ! [उ०] हे गौतम ! जे अन्यतीर्थिको ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-तेओ मिथ्या कहे छे. हे गौतम! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपं छ- "प्राणातिपात यावत्-मिथ्यादर्शनमा वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे, यावत्-अनाकारोपयोगमां वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे.", सशरीरी देवमा १०. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो, यावत्-मोटा सुखवाळो देव पहेला रूपी होईने-मूर्त खरूप धारण करी पछी अरूपी विकुवा रूप ( अमूर्त रूप ) विकुर्वीने रहेवा समर्थ छे ! (उ०] ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो ना सामर्थ्यनो अभाव अने तेनो हेतु. के 'मोटी ऋद्धिवाळो देव यावत्-अरूपी रूप विकुर्वीने रहेवा समर्थ नथी' ? [उ०] गौतम ! हुँ ए जाणुं छु, हुं ए जोउं छु, हुँ ए निश्चित जाणुं छु, हुं ए सर्वथा जाणुं छु, में ए जाण्यु छे, में ए जोयुं छे, में निश्चितू जाण्युं छे अने में ए सर्वथा जाण्युं छे के, तेवा प्रकारना रूपवाळा, कर्मवाळा, रागवाळा, वेदवाळा, मोहवाळा, लेश्यावाळा, शरीरवाळा, अने ते शरीरथी नहि मूकायेला-जूदा नहीं थयेला जीवने ९ * अहिं 'सर्वत्र प्राणातिपातादि क्रियामा प्रवर्तमान जीव एटले प्रकृति अने जीवात्मा-पुरुष परस्पर भिन्न छ'-आवो सांख्यदर्शननो मत छे. सांख्यो प्रकृतिनुं कर्तृत्व अने पुरुषने अकर्ता अने भोक्ता माने छ. उपनिषदो पण जीव-अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य-नुं कर्तृत्व अने जीवात्मा-ब्रह्मनुं अकर्तृत्व माने छे, तेओने मते पण जीव अने ब्रह्मनो भोपाधिक मेद छे, माटे ते बन्ने दर्शनो अन्यतीर्थिकतरीके ग्रहण करेला होय तेम संभवे छे. Jain Education international Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७.-उद्देशक ३. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सस्स, ससरीरस्स, ताओ सरीराओ अविप्पमुकस्स एवं पन्नायति, तं जहा-कालत्ते वा, जाव-सुकिलत्ते वा, सुन्भिगंधत्ते वा, दुभिगंधत्ते वा, तित्ते वा, जाव-महुरते वा, कक्खडत्ते वा, जाव-लुक्खत्ते वा से तेणटेणं गोयमा ! जाव-चिट्ठित्तए । ११ [प्र०] सञ्चेव णं मंते! से जीवे पुधामेव अरूबी भवित्ता पभू रूवि विउधित्ता णं चिट्ठित्तए ? [उ०] णो तिणद्वे समटे, जाव-चिट्टित्तए । गोयमा! अहं एवं जाणामि, जाव-जंणं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स, अकम्मस्स, अरागस्स, अवेदस्स, अमोहस्स, अलेसस्स, असरीरस्स, ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एवं पन्नायति, तं जहा-कालते वा, जावलुक्खत्ते वा से तेणटेणं जाव-चिट्ठित्तए वा । सेवं भंते! सेवं मंते'! ति। सत्तरसमे सए बीओ उद्देसो समचो। विषे एम जणाय छे, ते आ प्रमाणे-ते शरीरयुक्त जीवा-काळापणु, यावत्-धोळापणु, सुगंधिपणुं के दुर्गधिपणुं, कडवाप' के यावत्मधुरपणुं, तथा कर्कशप' के यावत्-रुक्षपणु होय छे, माटे हे गौतम! ते हेतुथी ते देव पूर्व प्रमाणे यावत्-अरूपी रूप विकुर्ववा समर्थ नथी. ११. [प्र०] हे भगवन् ! तेज देवरूप जीव पहेला अरूपी थईने पछी रूपी आकार विकुर्ववा समर्थ छे ! [उ०] ए अर्थ समर्थ शरीर रहित जीवनथी-इत्यादि यावत्-'विकुर्ववा समर्थ नथी' त्यांसुधी जाणवू. कारण के हे गौतम ! हुँ ए जाणुं छं के, यावत्-रूप विनाना, कर्म विनाना, कुर्ववाना सामर्थनो राग विनाना, वेद विनाना, मोह विनाना, लेश्या विनाना, शरीर विनाना अने शरीरथी जूदा थयेला तेवा प्रकारना जीवने विषे एम अभाव भने तेनु का जणातुं नथी के, ते जीवमां काळापणुं यावत्-लुखापणुं छे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी यावत्-ते देव पूर्व प्रमाणे विकुर्ववा समर्थ नथी. रण. "हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे." सत्तरमा शतकमां बीजो उद्देशक समाप्त. तईओ उद्देसो. १. [प्र०] सेलेसिं पहिषनाए णं भंते ! अणगारे सया समियं एयसि, यति, जाप-तं तं भावं परिणमति ! [उ०] गो तिणटे समझे, णण्णत्थ एगेणं परप्पयोगेणं । २. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! एयणा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पण्णता, तं जहा-१ दधेयणा, २ खितेथणा, ३ कालेयणा, ४ भावेयणा, ५ भवेयणा । ३. [प्र०] वधेयणा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! चउधिहा पनत्ता । तं जहा-१ नेरइयवधेयणा, २ तिरिक्ख०, ३ मणुस्स०, ४ देवदवेयणा । तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! शैलेशी अवस्थाने प्राप्त थयेल अनगार शुं सदा निरन्तर कंपे, विशेष कंपे, अने यावत्-ते ते भावे परिणमे! शैलेशी प्राप्त अन[उ०] ए अर्थ समर्थ नथी, मात्र एक परप्रयोग विना ( अर्थात्-शैलेशी अवस्थामा आत्मा अत्यन्त स्थिरताने प्राप्त थयेल होवाथी परप्रयोग, . गार एजनादि किया प्रयाग अनुभवे! सिवाय न कंपे). २. [प्र०] हे भगवन् ! एजना (कंपन ) केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम ! एजना पांच प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे- एजनाना प्रकार. १ द्रव्यएजना, २ क्षेत्रएजना, ३ कालएजना, ४ भावएजना अने ५ भवएजना. द्रव्यएजनाना ३. [प्र०] हे भगवन्! द्रव्यएजना केटला प्रकारनी कही छे! [उ०] हे गौतम! ते चार प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ नैरयिकद्रव्यएजना, २ तिर्यंचयोनिकद्रव्यएजना, ३ मनुष्यद्रव्यएजना अने ४ देवद्रव्यएजना. प्रकार. २* एजना-योगद्वारा आत्मप्रदेशोर्नु अथवा पुद्गलद्रव्योर्नु चलन के कंपन. तेना द्रव्यादि पांच प्रकार छे. मनुष्यादि जीव द्रव्यो के मनुष्यादि जीव सहित पु पर्नु कंपन ते द्रव्यैजना, मनुष्यादिक्षेत्रने विषे वर्तमान जीवोनुं कंपन ते क्षेत्रैजना, मनुष्यादि काळे वर्तमान जीवोनुं कंपन ते कालैजना, औदयिकादि भावमा वर्तता जीवोनु के पुद्गलोर्नु कंपन ते भावैजना अने मनुष्यादि भवमा वर्तता जीवोनी एजना-कंपन ते भवैजना. . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.-उद्देशक ३. ४. [प्र०] से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ-'नेरइयवेयणा' २ ? [उ०] गोयमा! जं णं नेरइया नेरइयदवे वहिसु वा, बदृति वा, वहिस्संति वा ते णं तत्थ नेरइया नेरतियदवे वट्टमाणा नेत्यदधेयणं एयंसु घा, एयंति वा, पास्संति. षा, से तेण?णं जाव-दधेयणा । ५. [प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुश्चति-तिरिक्खजोणियदधेयणा' २१ [उ०] एवं चेव, नवर-सिरिफ्खजोणियद माणियचं, सेसं तं चेव, एवं जाव-देवदधेयणा । ६. [प्र०] खेत्तेयणा णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? [उ०] गोयमा! चउधिहा पण्णत्ता, तं जहा-१ नेरायवेत्तेयणा, जाव-४ देवखेत्तेयणा। ७.० से केणट्रेणं भंते ! एवं बुच्चह-'नेरइयखेत्तेयणा' २१ [उ.] एवं चेव, नवरं 'नेरइयखेत्तेयणा' माणियचा; एवं जाव-देवखेत्तेयणा एवं कालेयणा वि, एवं भवेयणा वि, एवं भावेयणा वि, एवं जाव-देवभावेयणा । ८. [प्र०] कतिविहा गं भंते! चलणा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! तिविहा चलणा पनत्ता, तं जहा-सरीरचलणा, इंदियचलणा, जोगचलणा। ९. [प्र०] सरीरचलणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-१ ओरालियसरीरचलणा, जाव-५ कम्मगसरीरचलणा । १०. [प्र०] इंदियचलणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-१ सोईदियचलणा, जाव-५ फासिदियचलणा। . . ११. [प्र०] जोगचलणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-मणजोगचलणा, पाजोगचलणा, कायजोगचलणा। १२. [v०] से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चर्-'ओरालियसरीरचलणा २१ [३०] गोयमा! ज णं जीवा ओरालियसरीरे नैरयिकद्रव्यएजमा . ४. [प्र.] हे भगवन् ! शा कारणथी 'नैरयिकद्रव्यएजना' २ कहेवामां आवे छे! [उ०] हे गौतम ! जे माटे "नैरयिको नैरयिकद्रपाईवा कारण व्यमां वर्तता हता, वर्ते छे अने वर्तशे, ते नैरपिकोए नैरयिकद्रव्यमा वर्तता नैरयिकद्रव्यनी एजना करी हती, करे छे अने करशे, ते माटे यावत्-नैरयिकद्रव्यएजना कहेवामां आवे छे. तिथंचादिनम्पएन. ५. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिकद्रव्यएजना २ कहेवाय छे तेनु शु कारण ! [उ०] पूर्व प्रमाणेज जाणवं. विशेष ए के नैर कारण. पिकद्रव्यने बदले तिर्यंचयोनिकद्रव्य कहे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवं. तथा ए प्रमाणे मनुष्यद्रव्यएजना अने देवव्यएजना पण जाणवी. क्षेत्रएजनाना प्रकार ६.प्र०] हे भगवन् । क्षेत्रएजना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम | ते. चार प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे-१ नैर-- यिकक्षेत्रएजना, यावत्-४ देवक्षेत्रएजना. नैरयिकादि क्षेत्र- ७. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकक्षेत्रएजना २ कहेवार्नु शुं कारण ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के नैरपिकद्रव्यएजनाने एजना कडेवार्नु का. बदले नैरयिकक्षेत्रएजना कहेवी. अने एम यावत्-देव क्षेत्रएजना सुधी जाणवू. तथा कालएजना, भवएजना अने भावएजना विषे पण ए प्रमाणे जाणवू. यावत्-देवभावएजना सुधी समजवू. 'चलनाना प्रकार. ८. [प्र०] हे भगवन् ! चलना केटला प्रकारनी कही छे! [उ०] हे गौतम! चलना त्रण प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे-शरीर चलना, इन्द्रियचलना अने योगचलना. शरीरचलनामा ९. [प्र०] हे भगवन् । शरीरचलना केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम ! शरीरचलना पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रकार प्रमाणे-१ औदारिकशरीरचलना, यावत्-५ कार्मणशरीरचलना. इन्द्रियचरुनाना १०. [प्र०] हे भगवन् ! इन्द्रियचलना केटला प्रकारनी कही छे। [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ प्रकार. श्रोत्रेन्द्रियचलना, यावत्-५ स्पर्शेन्द्रियचलना. योगचलनाना - ११. [प्र०] हे भगवन् ! योगचलना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! योगचलना त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे मनोयोगचलना, वचनयोगचलना अने काययोगचलना. ओदारिकशरीर १२. [प्र०] हे भगवन् । शा हेतुथी औदारिकशरीरचलना २ कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! जे माटे औदारिक शरीरमा वर्तता मलना कहेवानुं का रण. ४. नैरयिक जीवो नरयिक शरीरमा रही ते शरीरद्वारा जे एजना करे ते नैरयिकद्रव्यैजना कहेवाय छे. ए प्रमाणे तिर्यंचादि द्रव्यैजना जाणवी. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७.-उद्देशक ३i भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. वमाणा ओरालियसरीरपायोग्गाई दवाइं ओरालियसरीरत्ताए परिणामेमाणा ओरालियसरीरचलणं चलिंसु वा, चलंति वा, चलिस्संति वा से तेणटेणं जाव-'ओरालियसरीरचलणा' २। १३. [३०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चा 'वेउधियसरीरचलणा' २१ [उ०] एवं चेव, नवरं-वेउधियसरीरे वट्टमाणा, एवं जाव-कम्मगसरीरचलणा। १४.०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'सोइंदियचलणा' २१ [उ०] गोयमा! जणं जीवा सोइंदिये घट्टमाणा स्रोईदियपाओग्गाई दवाई सोइदियत्ताए परिणामेमाणा सोइंदियचलणं चलिसुवा, चलंति वा, चलिस्संति वा, से तेणटेणं जावसोतिदियचलणा २ । एवं जाव-फासिंदियचलणा । १५. [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'मणजोगचलणा' २ ? [उ०] गोयमा! जणं जीवा मणजोए वमाणा मणजोगपाओग्गाई दवाइं मणजोगत्ताए परिणामेमाणा मणजोगचलणं चलिंसु घा, चलंति वा, चलिस्संति वा से तेणटेणं जावमणजोगचलणा २। एवं वइजोगचलणा वि, एवं कायजोगचलणा वि। . १६. [प्र०] अह भंते ! संवेगे, निए, गुरु-साहम्मियसुस्सूसणया, आलोयणया, निंदणया, गरहणया, खमापणया, सुयसहायता, विउसमणया, भावें अप्पडिबद्धया, विणिवट्टणया, विवित्तसयणासणसेवणया, सोइंदियसंवरे, जाव-फासिदियसंवरे, जोगपञ्चक्खाणे, सरीरपञ्चक्खाणे, कसायपञ्चक्खाणे, संभोगपञ्चक्याणे, उवहिपञ्चक्खाणे, भत्तपञ्चक्खाणे, खमा, विरागया, भावसच्चे, जोगसच्चे, करणसच्चे, मणसमन्नाहारणया, वइसमन्नाहरणया, कायसमनाहरणया, कोइविवेगे, जाव-मिच्छासणसल्लविवेगे, णाणसंपन्नया, सणसंपन्नया, चरित्तसंपन्नया, वेदणअहियासणया, मारणंतियअहियासणया-एए णं भंते ! पया किंपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो? [30] गोयमा! संवेगे, निष्ठेए, जाव-मारणंतियअहियासणया-एए गं सिद्धिपजवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो! । 'सेवं भंते !, सेवं भंतेत्ति जाव-विहरह। सत्तरसमे सए तईओ उद्देसो समत्तो। जीवोए औदारिकशरीरयोग्य द्रव्योने औदारिकशरीरपणे परिणमावता औदारिकशरीरनी चलना करी छे, करे छे अने करशे, ते कारणथी हे गौतम ! औदारिकशरीरचलना २ कहेवामां आवे छे. १३ [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी वैक्रियशरीरचलना २ कहेवामां आवे छे? [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवू. विशेष ए के वेक्रिय चलना 'वैक्रियशरीरने विषे वर्तता' इत्यादि कहेवू. [अर्थात्-औदारिकने बदले बधे वैक्रिय कहेवु.] अने एज प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीर 1 कहेवार्नु कारण. चलना सुधी जाणवू.. १४. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी श्रोत्रेन्द्रियचलना २ कहेवामां आवे छे ? [उ०] हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियने धारण करता प्रोत्रंद्रियादिचलना जीवोए श्रोत्रेन्द्रिययोग्य द्रव्योने श्रोत्रेन्द्रियपणे परिणमावता श्रोत्रेन्द्रियनी चलना करी छे, करे छे अने करशे, ते कारणथी श्रोत्रेन्द्रियच... कहेवार्नु कारण. लना २ कहेवामां आवे छे. ए प्रमाणे यावत्-स्पर्शेन्द्रियचलना सुधी जाणवू. १५. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी मनोयोगचलना२ कहेवामां आवे छे ? [उ०] हे गौतम! जे कारणथी मनयोगने धारण करता मनोयोग चलना जीवोए मनयोग्य द्रव्योने मनयोगपणे परिणमावता मनोयोगनी चलना करी छे, करे छे अने करशे, ते कारणथी मनोयोगचलना २ कहे.. ' कहेवार्नु कारण. वामां आवे छे. ए प्रमाणे वचनयोगचलना तथा काययोगचलना पण जाणवी. १६. प्रि०ा हे भगवन ! संवेग मोक्षनो अभिलाष, निर्वेद-संसारथी विरक्तता. गरुओनी तथा साधर्मिकोनी सेवा. पापोनी आलो- संवेगादिनु फल. चना-गुरु समक्ष कथन, निंदा-आत्मद्वारा दोषोनी निन्दा, गर्हा-परसमक्ष पोताना दोषो प्रगट करवा, क्षमापना, उपशांतता, श्रुतसहायताश्रुताभ्यास, भावाप्रतिबद्धता-हास्यादि भावोने विषे अप्रतिबंध, पापस्थानोथी निवृत्त थq, विविक्तशयनासता-ख्यादिरहित वसति भने आसननो. उपयोग, श्रोत्रेन्द्रियसंवर, यावत्-स्पर्शेन्द्रियसंवर, योगप्रत्याख्यान, *शरीरप्रत्याख्यान, कषायप्रत्याख्यान, सिंभोगप्रत्याख्यान, उपधिप्रत्याख्यान, भक्तप्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य-प्रतिलेखनादि क्रियानुं यथार्थ करवू, मनःसमन्वाहरण-मननु संगोपन, वच:समन्वाहरण-वचनसंगोपन, कायसमन्वाहरण-कायसंगोपन, क्रोधनो त्याग, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग, ज्ञानसंपन्नता, दर्शनसंपमता, चारित्रसंपन्नता, क्षुधादि वेदनामां सहनशीलता अने मारणान्तिक कष्टमां सहनशीलता-ए बधा पदोनुं हे आयुष्मान् श्रमण ! अन्तिम फळ शुं कर्तुं छे! [उ०] हे गौतम ! संवेग, निर्वेद, यावत्-मारणांतिक कष्टमा सहनशीलता-ए बधा पदोनुं अंतिम फळ मोक्ष कयुं छे. "हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन् ! ते एमज छे." सत्तरमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. १६*शरीरमां आसक्तिनो त्याग करवो. + साधुओ परस्पर एक मंडलीमा बेसी भोजन करे ते संभोग, जिनकल्पादिने खीकारी तेनो त्याग करवो ते संभोगप्रत्याख्यान, अधिक वनादिनो त्याग करवो ते उपधिप्रत्याख्यान, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक १७.-उद्देशक ४. चउत्थो उद्देसो. १.प्राणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे नगरे जाव-एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणावापणं किरिया कजा ? [उ०] हंता, अत्थि ।। २. [प्र०] सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ, अपुट्ठा कजइ १ [उ०] गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ । एवं जहा पढमसए छहेसए जाव-णो 'अणाणुपुश्विकडा' ति वत्तवं सिया, एवं जाव-वेमाणियाणं, नवरं-जीवाणं एगिदियाण य निधाधाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुश्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसिं, सेसाणं नियम छहिसिं । ३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावारणं किरिया कज्जा ? [उ०] हता, अस्थि। ४. [प्र०] सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजति ? [उ०] जहा पाणाइवाएणं दंडओ एवं मुसावारण वि; एवं अदिनादाणेण वि, मेहुणेण वि, परिग्गहेण वि । एवं एए पंच दंडगा। ५. [प्र०] जं समयं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते । किं पुट्ठा कज्जा, अपुट्ठा कजाउ०] एवं तहेव जाव-पत्तत्रं सिया, जाव-वेमाणियाणं, एवं जाव-परिग्गहेणं, एवं पते वि पंच दंडगा। ६. [प्र०] ज देसेणं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? [उ०] एवं चेव, जाव-परिग्गहेणं, एते वि पंच दंडगा। ७. [प्र०] जं पएसं गं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कजइ सा भंते किं पुट्ठा कजर-एवं तहेव दंडओ। [उ०] एवं जाव-परिग्गहेणं । एवं एए वीसं दंडगा। कराय। चतुर्थ उद्देशक. प्राणातिपात बगेरे १. [प्र०] ते काळे ते समये राजगृह नगरमा [भगवान् गौतम] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! जीवो वडे प्राणातिपातद्वारा थवी क्रिया. द्वारा क्रिया-कर्म कराय छ ! [उ०] हा, कराय छे. स्पृष्ट के अस्पष्ट कर्म २. [प्र०] हे भगवन् ! ते क्रिया (कर्म) रपृष्ट-आत्माए स्पर्शेली कराय के अस्पृष्ट-आत्माना स्पर्श विना कराय: [उ.] हे गौतम! ते स्पृष्ट कराय, पण अस्पृष्ट न कराय-इत्यादि बधुं प्रथम शतकना *छट्टा उद्देशका कह्या प्रमाणे कहे; यावत्-ते क्रिया (कम) अनुक्रमे कराय छे, पण अनुक्रम विना कराती नथी. ए प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. परन्तु विशेष ए के जीवो अने एकेन्द्रियो व्याघात-प्रतिबंध सिवाय छ ए दिशामाथी आवेलां कर्म करे छे, अने जो व्याघात होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, कदाच चार दिशामाथी अने कदाच पांच दिशामांथी, आवेलां कर्म करे छे. [जे एकेन्द्रियो लोकान्ते रहेला छे, तेने उपरनी अने आसपासनी दिशाथी कर्म आववानो संभव नथी, तेथी तेओ कचित् त्रण दिशामांथी कदाचित् चार दिशामांथी, अने कदाचित् पांच दिशामांथी आवेलं कर्म करे छे. अने बाकीना जीवो लोकना मध्य भागमा होवाथी व्याघातना अभावे छ ए दिशामाथी आवेलं कर्म करे छे. ते सिवाय बाकीना जीवो तो अवश्य छ ए दिशामांथी आवेलां कर्म करे छे.] मृषावाद द्वारा थती . ३. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो मृषावादद्वारा कर्म करे छे ! [उ०] हा, करे छे. क्रिया. १. प्र०] हे भगवन् । शुं ते क्रिया-कर्म स्पृष्ट कराय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम प्राणातिपात संबन्धे दंडक को छे तेम मृषावाद संबन्धे पण दंडक कहेवो. एम अदत्तादान, मैथुन अने परिग्रहसंबन्धे पांचे दंडको कहेवा. ५. [प्र०] हे भगवन् ! जे समये जीवो प्राणातिपातद्वारा (कर्म) करे छे ते समये हे भगवन् ! ते स्पृष्ट कर्म करे छे के अस्पृष्ट कर्म करे छे ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. यावत्-ते 'अनानुपूर्वीकृत नथी' त्यांसुधी कहे, ए प्रमाणे-यावत्-दंडकना क्रमथी वैमानिको सुची यावत्-परिग्रह संबन्धे जाणवू. बधा मळीने पूर्ववत् पांचे दंडको मृषावाद संबन्धे कहेवा. क्षेत्रने आनयी कर्म. ६. [प्र०] हे भगवन् ! जे क्षेत्रमा जीवो प्राणातिपात द्वारा कर्म करे छे ते क्षेत्रमा स्पृष्ट के अस्पृष्ट कर्म करे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे उत्तर कहेवो. यावत्-परिग्रह सुधी जाणवू. एम पांचे दंडको कहेवा. प्रदेशने माययी ७. [प्र०] हे भगवन् ! जे प्रदेशमा जीवो प्राणातिपात द्वारा कर्म करे छे ते प्रदेशमां शुं स्पृष्ट कर्म करे छे के अस्पृष्ट कर्म करे क्रिया. . छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे दंडक कहेवो. [उ०] ए प्रमाणे यावत्-परिग्रह सुधी जाणवु. एम बधा मळीने विीश दंडको कहेवा. २* भग• खं० १.१ उ.६ पृ. १६५-१६६. + प्राणातिपातथी परिग्रह सुधीना सामान्य पांच दंडको, अने ए प्रमाणे समय, देश अने प्रदेश आश्रयी पण पांच पांच दंडको मळी वीश दंडको जाणवा. . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८. [प्र०] जीवाणं मंते! किं अत्तकडे दुफ्ले, परकडे दुपखे, तदुभयकडे दुक्ने ? [उ०] गोयमा ! अत्तकडे दुफ्ले, नो परकडे दुक्ने, नो तदुभयकडे दुक्ने, एवं जाव-वेमाणियाणं । ९. [H०] जीवाणं भंते ! कि अत्तकडं दुक्खं वेदेति, परकडं दुक्खं वेदेति, तदुभयकडं दुक्खं वेदेति ? [30] गोयमा! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति; एवं जाव-वेमाणियाणं । १०. [प्र०] जीवाणं भंते ! अत्तकडा वेयणा, परकडा वेयणा-पुच्छा । [उ०] गोयमा! अत्तकडा वेयणा, णो परकडा यणा, णो तदुभयकडा वेयणा । एवं जाव-वेमाणियाणं । ११. [प्र०] जीवा गं भंते ! किं अत्तकडं वेदणं वेदेति, परकडं वेदणं वेदेति, तदुभयकडं वेदणं वेदेति ? [उ०] गोयमा! जीवा अत्तकडं वेयणं वेएंति, नो परकडं, नो तदुभयकडं; एवं जाव-वेमाणियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! ति । सत्तरसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो। ८. ० हे भगवन् ! जीवोने जे दुःख छे ते शुं आत्मकृत छे, परकृत छे के उभयकृत छे! [उ०] हे गौतम! जीवोने जे दुःख दुःख मारमात, प. छे ते आत्मकृत छे, परकृत नथी, तेम उभयकृत पण नथी, ए प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. रकृत के उभयकृत ! ९. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो शुं आत्मकृत *दुःख वेदे छे, परकृत दुःख वेदे छे के तदुभयकृत दुःख वेदे छे! [उ०] हे गौतम! दुखनुं वेदना. जीवो आत्मकृत दुःख वेदे छे; परकृत के उभयकृत दुःख वेदता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवं. स्मकृत, परकत के उभयत १. १०. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने जे वेदना छे ते \ आत्मकृत छे, परकृत छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! वेदना आत्मकृत वेदना आत्महत, छे, परकृत के उभयकृत नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. परकृत के उमयकृत ११. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो शुं आत्मकृत वेदनाने वेदे छे, परकृत वेदनाने वेदे छे के उभयकृत वेदनाने वेदे छे! उ० हे वेदनाना वेदनसंबन्धे गौतम जीवो आत्मकृत वेदनाने वेदे छे; परकृत के उभयकृत वेदनाने वेदता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. हि भगवन् । प्रश्न ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. सत्तरमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो. १. [प्र०] कहिं गं भंते! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पण्णत्ता १ [३०] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पच्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उहं चंदिम-सूरिय० जहा ठाणपदे जावमझे ईसाणवडेंसए। सेणं ईसाणवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई-एवं जहा दसमसए सक्कविमाणवत्तधया सा इह वि ईसाणस्स निरवसेसा भाणियचा, जाव-आयरक्ख त्ति । ठिती सातिरेगाइं दो सागरोवमाई, सेसं तं चेव, जावईसाणे देविदे देवराया २। 'सेवं भंते!, सेवं भंतेत्ति सत्तरसमे सए पंचमो उद्देसो समतो। पंचम उद्देशक. १.प्र०] हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज ईशाननी सुधर्मा सभा क्यों कही छे ? [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमां मंदरपर्वतनी ईशानेन्द्रनी सुधर्मा उत्तरे आ रतप्रभा पृथिवीना अत्यन्त सम अने रमणीय भूमिभागथी उपर चंद्र अने सूर्यने मूकीने आगळ गया पछी-यावत्-प्रज्ञापनासूत्रना बीजा स्थिानपदमां कह्या प्रमाणे मध्यभागमा ईशानावतंसक विमान आवे छे. ते ईशानावतंसक नामे महाविमान साडा बार लाख योजन लांबु अने पहोढुं छे-इत्यादि यावत्-दशम शितकमां शक्रविमाननी वक्तव्यता कही छे ते बघी अहीं ईशान संबंघे यावत्आत्मरक्षकनी वक्तव्यता सुधी कहेवी. ते ईशानेन्द्रनुं आयुष किंचित् अधिक वे सागरोपमनुं छे, बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. यावत्-देवेंद्र देवराज ईशान छे २. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. सत्तरमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. सभा. ९* अहिं दुःखशब्द दुःखनो अथवा दुःखना हेतुभूत कर्मनो वाचक छे अने वेदनाशब्द सुख-दुःख उभयनो, अथवा सुखदुःखना हेतुभूत कर्मनो वाचक छे. ११ प्रज्ञा• पद २१ प. १०२. भग• ख• ३ श• १० उ०६ पृ. २०१० Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.छट्टओ उद्देसो. १. [प्र०] पुढविक्काइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ताजे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! किं पुछि उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा, पुष्विं संपाउणित्ता पच्छा उववजेजा [उ.] गोयमा! पुष्विं वा उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा, पुर्वि वा संपाउणित्ता पच्छा उववजेजा। [प्र०] से केणटेणं जाव-पच्छा उववजेजा ? [उ०] गोयमा! पुढविकाइयाणं तओ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्घाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्घाए । मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणति, सवेण वा समोहणति; देसेण वा समोहणमाणे पुषि संपाउणित्ता पच्छा उववजिजा, सच्चेणं समोहणमाणे पुछि उववजेत्ता पच्छा संपाउणेजा; से तेणट्टेणं जाव-उववजिज्जा । ___२. [प्र०] पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव-समोहए, समोहणित्ताजे भविए ईसाणे कप्पे पुढवि०१ [उ०] एवं चेव ईसाणे वि, एवं जाव-अच्चुय-गेविजविमाणे, अणुत्तरविमाणे; ईसिपभाराए य एवं चेव । ३. [प्र०] पुढविक्काइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवि० ? [उ.] एवं जहा रयणप्पभाए पदविकाइओ उववाइओ एवं सक्करप्पभाए वि पुढविकाइओ उववाएयचो, जाव-ईसिंपम्भाराए, एवं जहा रयणप्पभाए वत्तवया भणिया, एवं जाव-अहेसत्तमाए समोहए ईसीपब्भाराए उववाएयचो, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते!, सेवं भंते ति। सत्तरसमे सए छट्ठओ उद्देसो समत्तो । षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमा मरण समुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! शुं प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-पुद्गल ग्रहण करे के प्रथम पुद्गल ग्रहण करे अने पछी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते *प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी पुद्गल ग्रहण करे; अथवा प्रथम पुद्गल ग्रहण करे अने पछी उत्पन्न थाय. [प्र०] ते शा कारणथी यावत्-पछी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिकोने त्रण समुद्घातो कह्या छे; ते आ प्रमाणे-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात अने मारणांतिक समुद्घात. ज्यारे जीव मारणांतिक समुद्घात करे छे त्यारे. दिशथी पण समुद्घात करे छे पण समुद्घात करे छे. ज्यारे देशथी समुद्घात करे छे त्यारे प्रथम पुद्गल ग्रहण करे छे अने पछी उत्पन्न थाय छे, ज्यारे सर्वथी समुद्घात करे छे त्यारे प्रथम उत्पन्न थाय छे भने पछी पुद्गल ग्रहण करे छे. ते कारणथी यावत्-पछीथी उत्पन्न थाय छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमां यावत्-मरणसमुद्घात करी जे ईशानकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] पूर्व प्रमाणे ईशानकल्पसंबन्धे जाणवू. एम यावत्-अच्युत, अवेयक विमान, अनुत्तर विमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवी संबन्धे पण जाणवू. ३. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव आ शर्कराप्रभा पृथिवीमां मरण समुद्घात करीने सौधर्म कल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम रत्नप्रभा पृथिवीना पृथिवीकायिकनो उत्पाद कह्यो छे तेम शर्कराप्रभाना पृथिवीकायिकनो उत्पाद कहेवो. यावत्-ए प्रमाणे ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी जाणवू. तथा जेम रत्नप्रभाना पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही तेम यावत्सातमी नरकपृथिवी सुधीमां मरणसमुद्घातथी समवहत थयेला जीवनो ईषत्प्राम्भारामां उपग्रत कहेवो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. सत्तरमा शतकमां पष्ठ उद्देशक समाप्त. १. जीव मरणसमुद्घातथी निवृत्त थई ज्यारे पूर्वना शरीरने सर्वथा छोडी दडानी पेठे सर्व आत्मप्रदेशो साथे उत्पत्तिस्थळे जाय त्यारे पूर्व उत्पन्न थाय अने पछी पुद्गलग्रहणरूप आहार करे, पण श्यारे मरण समुद्घात करतां ज मरण पामे अने ईलिकानी गतिथी उत्पत्तिस्थाने जाय, त्यारे पहेला आहार करे अने पछी उत्पन्न थाय. अर्थात्-पूर्वना शरीरमा रहेला जीव प्रदेशोने ईयळनी पेठे संहरी समस्त जीवप्रदेशो साथे उत्पत्तिस्थाने जाय त्यारे प्रथम पुद्गलग्रहण करे अने पछी उत्पन्न थाय.-टीका. 1 मारणान्तिक समुद्घात करता ज मरण पामे त्यारे ते ईयळनी गतिथी उत्पत्तिस्थाने प्राप्त थाय, ते वखते जीवनो अंश पूर्वना शरीरमा रहेलो होवाथी अने अमुक अंश उत्पत्ति स्थान प्राप्त थयेलो होवाथी 'देशथी समुद्घात करे' एम कहेवाय छे. पण ज्यारे मरणसमुदूधातथी निवृत्त थईने पछी मरण पामे छे त्यारे सर्व प्रदेशने संहरी दडानी पेठे उत्पत्तिस्थळे प्राप्त थाय छे, माटे 'सर्वथी समुद्घात करे छे' एम कहेवाय छे.-टीका. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक शतक १७.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, सत्तमो उद्देसो. १.प्र. पुढविक्काइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं पुष्धि-सेसं तं चेव । [३०] जहा रयणप्पभाए पुढविकाइए सधकप्पेसु जाव-ईसिप्पभाराए ताव उववाइओ, एवं सोहम्मपुढविकाइओ वि सत्तसु वि पुढवीसु उववाएयवो जाव-अहेसत्तमाए; एवं जहा सोहम्मपदविकाइओ सधपुढवीसु उववाइओ, एवं जाव-ईसिपब्भारापुढविकाइओ सधपुढवीसु उववाएयचो जाव-अहेसत्तमाए । सेवं भंते ! सेवं भंतेति । सत्तरसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो । सप्तम उद्देशक. १.प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव सौधर्मकल्पमां मरणसमुद्घात करी आ रत्नप्रभा पृथिवीमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न प्रपिवीकाविकसनन्थे थवाने योग्य छे ते हे भगवन् । प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम रत्नप्रभापृथिवीना पृथिवीकायिक जीवनो बधा कल्पोमां, यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उपपात कहेवामां आव्यो छे तेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो पण साते नरकपृथिवीमा यावत्-सप्तम नरक सुधी उपपात कहेवो. तथा जेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो सर्व पृथिवीओमा उपपात कह्यो छे तेम बधा खर्गो, यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीना पृथिवीकायिक जीवनो पण सर्व पृथिवीओमां यावत्-सातमी नरकपृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' सत्तरमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त. अट्ठमो उद्देसो। १.[प्र०] आरकाइए गंभंते । इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्सए१ [उ.] एवं जहा पुढविकाइओ तहा आउकाइओ वि सकप्पेसु, जाव-ईसिपभाराए तहेव उववाएयचो, एवं जहा-रयणप्पभआउकाइओ उववाइओ तहा जाव-अहेसत्तमपुढविआउकाइओ उववाएयचो, एवं जाव-ईसिप्पभाराए। 'सेवं भंते । सेवं भंते पति। सत्तरसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो । अष्टम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगधन् । जे अप्कायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमा मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा अप्कायिकपणे उत्पन्न थवाने बाविक योग्य छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पृथिवीकायिकसंबन्धे का छे तेम अप्कायिकसैबन्धे पण बधा कल्पोमां कहे, याव पृथिवीमा पण ते प्रमाणे उपपात कहेवो. तथा जेम रत्नप्रभांना अप्कायिक जीवनो उपपात कह्यो छे तेम यावत्-सातमी पृथिवीना अप्कायिक जीवनो पण यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' सत्तरमा शतकमां अष्टम उद्देशक समाप्त. नवमो उद्देसो। १. [प्र०] आउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिबलएसु आउकाइत्ताए उववजित्तए से गं भंते ? [10] सेसं तं चेव, एवं जाव-अहेसत्तमाए । जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव-ईसिपम्भाराभाउकाइओ जाव-अहेसत्तमाए उववाएयचो! 'सेवं भंते! सेवं भंते ति । सत्तरसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो । नवम उद्देशक. २..[प्र०] हे भगवन् ! जे अप्कायिक जीव सौधर्मकल्पमा मरणसमुद्घातने प्राप्त थईने आ रनप्रभाना घनोदधिवलयोर्मा अप्कायिक- सायिक पणे उत्पन्न थबाने योग्य छे, ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. एम यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी जाणवू. जेम सौधर्मकल्पना अप्कायिकनो निरक पृथिवीमां] उपपात कह्यो तेम यावत्-ईषत्प्राग्भारापृथिवीना अप्कायिक जीवनो यावत्अधःसप्तम पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सत्चरमा शतकमां नवम उद्देशक समाप्त. ६ भ० सू० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.-उद्देशक १२. दसमो उद्देसो। १. [प्र०] वाउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए जाव-जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयचाए उववजित्तए सेणं०? [१०] जहा पुढविकाइओ तहा वाउकाइओ वि, नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्याए, जाव-वेउध्वियसमुग्घाए । मारणंतियसमुग्धाए णं समोहणमाणे देसेण वा समोहणइ०, सेसं तं चेव, जाव-अहेसत्तमाए समोहओ ईसिपम्भाराए उववाएयचो । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । सत्तरसमे सए दसमो उद्देसो समत्तो। दशम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! जे बायुकायिक जीव आ रनप्रभामां मरणसमुद्घातने प्राप्त थइने सौधर्मकल्पमा वायुकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पृथिवीकायिकसंबन्धे कहेवामां आव्युं छे तेम वायुकायिकसंबन्धे पण जाणq. विशेष ए के वायुकायिकने चार समुद्घात होय छे; अने ते आ प्रमाणे वेदनासमुद्घात, यावत्-वैक्रियसमुद्घात. ते वायुकायिक मारणांतिक समुद्घातवडे समवहत थई देशथी समुद्घात करे छे-इत्यादि बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू; यावत्-सातमी नरकपृथिवीमा समुद्घातने प्राप्त थयेल वायुकायिकनो ईषत्प्राग्भारामा उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सत्तरमा शतकमां दशम उद्देशक समाप्त. बायुकायिक इकारसमो उद्देसो । १. [प्र०] वाउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए, तणुषाए, घणवायवलएसु, तणुवायवलएसु वाउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते!.१ [उ०] सेसं तं चेव, एवं जहा सोहम्मे वाउकाइओ सत्तसु वि पुढवीसु उववाइओ एवं जाव-ईसिप्पन्भाराए वाउकाइओ अहेसत्तमाए जाव-उववाएयचो। 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । सत्तरसमे सए इकारसमो उद्देसो समत्तो । अगीयारमो उद्देशक. १. प्र० हे भगवन् ! जे वायुकायिक जीव सौधर्मकल्पमां समुद्घात करी आ रत्नप्रभा पृथिवीना धनवात, तनुवात, घनवातवलयो के तनुवातवलयोमा वायुकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न [उ०] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. अने जेम सौधर्मकल्पना वायुकायिकनो साते पृथिवीमां उपपात कह्यो छे ते प्रमाणे यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीना वायुकायिकनो यावत्-अधःसप्तम पृथिवीपर्यंत उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ___ सत्तरमा शतकमां अगीयारमो उद्देशक समाप्त. वायुकायिक बारसमो उद्देसो। १. [३०] एगिदिया णं भंते! सधे समाहारा? [उ०] एवं जहा पढमसए बितियउद्देसए पुढविकाइयाणं वत्तध्धया भणिया सा चेव एगिदियाणं इह भाणियचा, जाव-समाउया, समोववन्नगा। २. [प्र०] पगिदियाणं भंते! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा, जाव-तेउलेस्सा। बारमो उद्देशक. एकेन्द्रिय जीवो १. प्रि०] हे भगवन् ! बधा एकेन्द्रिय जीवो समान आहारवाळा छे, समान शरीरवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम प्रथम शतकना समान माहारवाना *द्वितीय उद्देशकमां पृथिवीकायिकनी बक्तव्यता कही छे तेम अहीं एकेन्द्रियो संबन्धे पण कहेवी. यावत्-समान आयुष्यवाळा नथी, तेम छे-इत्यादि प्रश्न साथे उत्पन्न थता पण नथी. एकेन्द्रियोने लेश्या. २. प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियोने केटली लेश्याओ कही छे ? [उ०] हे गौतम! तेओने चार लेश्याओ कही छे. ते आ प्रमाणे १ कृष्णलेश्या, यावत्-४ तेजोलेझ्या. १* भन० सं० १श. १३.२ पृ. ९८. Jain Education international Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७.-उद्देशक. १५. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४३ ३.०] एएसि णं भंते! एगिदियाणं कण्हलेस्साणं जाव-विसेसाहिया वा? [उ.] गोयमा! सबथोवा एगिदिया णं तेउलेस्सा, काउलेस्सा अणंतगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। ४. [प्र०] एएसि णं भंते! एगिदियाणं कण्हलेस्साणं इट्टी०१ [३०] जहेव दीवकुमाराणं । 'सेवं भंते! सेवं भंते ! लि। सत्तरसमे सए बारसमो उद्देसो समत्तो। ३. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा, यावत्-तेिजोलेश्यावाळा ए एकेन्द्रियोमां] कोण कोनाथी यावत् विशेषाधिक छे! [उ०] हे लेश्यावाला रकेन्द्रि योन अपवाहत्व. गौतम! सौथी थोडा तेजोलेश्यावाळा एकेन्द्रियो छे, तेथी अनंतगुण अधिक कापोतलेश्यावाळा छे, तेथी विशेषाधिक नीललेश्यावाळा छ, भने । तेथी विशेषाधिक कृष्णलेश्यावाळा के. ४. [प्र०] हे भगवन्! ए कृष्णलेश्यावाळा, यावत्-तेजोलेश्यावाळा एकेन्द्रियोनी ऋद्धि-सामर्थ्य संबन्धे प्रश्न-एटले कृष्णलेश्यावाळा लेश्यावाळा एकेन्द्रियावत्-तेजोलेश्यावाळा एकेन्द्रियोमा कोण अल्पऋद्धिवाळो अने कोण महर्द्धिक छे! [उ०] जेम *द्वीपकुमारोनी ऋद्धि कही छे तेम एकेन्द्रि- ५ सन योनी कसिनु भय योनी कहेवी. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. · सत्वरमा शतकमां बारमो उद्देशक समात. तेरसमो उद्देसो। १. [प्र०] नागकुमारा गं भंते ! सच्चे समाहारा० ? [उ०] जहा सोलसमसए दीवकुमाकदेसे तहेष निरमसेसें भाषि. यवं जाप-ही। 'सेपं मंते! सेवं मंतेजाव-विहरति । सत्तरसमे सए तेरसमो उद्देसो समत्तो। तेरमो उद्देशक. १. [प्र०] है भगवन्! बधा नागकुमारो समान आहारवाला छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम सोळमा शतकमा द्विीपकुमार उद्देशका वधा नागकुमारो कहेवामां आव्युं छे तेम यावत्-ऋद्धि सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. समान आहारवाला छ-त्यादि प्रश्न. सत्तरमा शतकमां तेरमो उद्देशक समाप्त. आहारवा छेइत्यादि प्रम. चोदसमो उद्देसो। १. [४०] सुषण्णकुमारा णं भंते ! सो समाहारा० ? [उ०] एवं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! ति । सत्तरसमे सए चोदसमो उद्देसो समचो । चौदमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बधा सुवर्णकुमारो समान आहारवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवू. हे भगवन् ! ते सुवर्णकुमारो समान एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सत्तरमा शतकमां चौदमो उद्देशक समाप्त पन्नरसमो उद्देसो। १. [प्र०] विजुकुमारा णं भंते ! सधे समाहारा ? [उ०] एवं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । सत्तरसमे सए पन्नरसमो उद्देसो समत्तो । पंदरमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बधा विद्युत्कुमारो समान आहारवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवू. हे भगवन् ! ते विवकुमार संबन्ने एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' सत्तरमा शतकमां पंदरमो उद्देशक समाप्त. प्रव. ४.* भग० खं० ४ श०१६ उ०११पृ. २७. ११ भग० खं. ४ श० १६ उ०११पृ० २७. Jain Education international Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १७.-उदेशक १७. सोलसमो उद्देसो। १. [प्र०] पायुकुमाराणं भंते ! सधे समाहारा० ? [उ०] एवं चेष । 'सेवं भंते ! सेषं भंते ति। सत्तरसमे सए सोलसमो उद्देसो समचो । सोळमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बधा वायुकुमारो समान आहारवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवं. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. सत्तरमा शतकमा सोळमो उद्देशक समाप्त. बामा सत्तरसमो उद्देसो। १. [प्र०] अग्गिकुमारा णं भंते ! सवे समाहारा० १ [उ०] एवं चेव । 'सेवं भंते! सेवं भंते ति। सत्तरसमे सए सत्तरसमो उद्देसो समत्तो. सत्तरसमं सयं समत्तं. वथा अग्निकुमारो समान भागारवाळा पखादिप्रस. सत्तरमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बधा अग्निकुमारो समान आहारवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवू. हे भगवन् ! ते एमज छ, हे भगवन् ! ते एमज के. सत्सरमा शतकमां सत्तरमो उद्देशक समाप्त. सत्तरमुं शतक समाप्त. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं सयं। १ पढमे २ विसाह ३ मार्यदिए य ४ पाणाइवाय ५ असुरे य ६ । गुल ७. केवलि ८ अणगारे ९ भविए तह १० सोमिलट्ठारसे ॥ १. [सं०] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव-एवं वयासी-जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं पढमे अपढमे [उ.1 गोयमा ! नो पढमे, अपढमे । एवं नेरइए जाव-वेमाणिए । २. [प्र०] सिद्ध णं भंते ! सिद्धभावेणं किं पढमे अपढमे ? [उ०] गोयमा ! पढमे, नो अपढमे । ३ [प्र०] जीवा णं भंते ! जीवभावेणं किं पढमा अपढमा ? [उ०] गोयमा! नो पढमा, अपढमा । एवं जाव-वेमाणिया १ अढारमुं शतक उद्देशकसंग्रह- १ जीवादि अर्थ संबंधे प्रथम-अप्रथमादिभावनो प्रतिपादक प्रथम उद्देशक, २ विशाखा नगरीमा भगवान् महावीर समोसा-इत्यादि संबंधे बीजो उद्देशक, ३ माकंदीपुत्र अनगारना प्रश्न संबंधे बीजो उद्देशक, ४ प्राणातिपातादि संबंधे चोथो उद्देशक, ५ असुरकुमारनी वक्तव्यता संबंधे पांचमो उद्देशक, ६ गोळ वगेरेना वर्णादि संबंधे छट्ठो उद्देशक, ७ 'केवलज्ञानी यक्षना आवेशथी सत्य अने असत्य बोले'-एवा अन्यतीर्थिकना मन्तव्य बाबत सातमो उद्देशक, ८ अनगारने ऐर्यापथिकी क्रिया होय के सांपरायिक क्रिया होय वगेरे. संबंधे आठमो उद्देशक, भविक द्रव्यनैरयिकादि संबंधे नवमो उद्देशक अने सोमिल ब्राह्मणना प्रश्न वगेरे 'संबंधे दशमो उद्देशक-ए प्रमाणे श्रा अढारमा शतकमा दश उद्देशको कहेवामा आवशे. जीवदार. . 'प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] ते काळे, ते समये राजगृह नगरमा [भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! जीव जीवभाववडे (जीवत्वनी अपेक्षाए) प्रथम छे के अप्रथम छ ? [उ०] हे गौतम | ते प्रथम नथी, पण अप्रथम छे. ए प्रमाणे : नैरयिको यावत्-वैमानिको जाणवा. २. [प्र०] हे भगवन् ! सिद्ध सिद्धभाववडे ( सिद्धत्वनी अपेक्षाए ) प्रथम छे के अप्रथम छे ! [उ०] हे गौतम ! ते प्रथम छे, पण अप्रथम नथी. ३. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो जीवभाववडे प्रथम छे के अप्रथम छे ! [उ०] हे गौतम ! प्रथम नथी पण अप्रथम छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु. + आ उद्देशकमा जीवादि चौद द्वारोमा प्रथम-अप्रथमादि भावनो विचार चोवीश दंडक अने सिद्धने आश्रयी कयों छे. ते चौद द्वार आ प्रमाणे-१ जीव, २ आहारक, ३ भवसिद्धिक, ४ संज्ञी, ५ लेश्या, ६ दृष्टि, ७ संयत, ८ कषाय, ९ ज्ञान, १० योग, ११ उपयोग, १२ वेद, १३ शरीर, १४ पर्याप्ति. *जे जीवे जे भाव पूर्व प्राप्त करेलो छे तेनी अपेक्षाए ते अप्रथम कहेवाय छे, जेमके जीवत्व अनादि काळथी जीवने प्राप्त थयेलु छे माटे जीवत्वनी अपेक्षाए जीव अप्रथम कहेवाय छे. जे जीव पूर्वे अप्राप्त एवा जे भावने प्राप्त करे ते अपेक्षाए ते प्रथम कहेवाय छे, जेमके सिद्धत्वनी अपेक्षाए सिद्ध प्रथम छे, कारण के सिद्धत्व पूर्षे जीवने प्राप्त थयेलं नथी. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आहारक द्वार. अनादारक ३ भवसिद्धिक द्वार. ४ संधीद्वार. ४६ श्री रायचन्द्र - जिनागमसंप्रहे ४. [ प्र० ] सिद्धाणं पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! पढमा, नो अपढमा । ७. [प्र० ] अणाहारगा णं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं पुच्छा । [४०] गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि । नेरइया - । जाय बेमाणिया यो पदमा अपदमा सिद्धा पटमा नो अपमा एकेके पुच्छा भाणियचा २ । , ५. [प्र० ] आहारण णं भंते पेमाणिप, पोदशिय एवं चैव । शतक १८. उद्देश १. जीये आधारभावेणं किं पढने अपढने ? [ड०] गोयमा ! जो पहने, खपढमेवंजा ६. [ प्र० ] अणाहारण णं भंते! जीवे अणाहारभावेणं पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे । [प्र०] नेरइप णं भंते ० ! [उ०] एवं नेरतिए, जाव- वैमाणिए नो पढमे, अपढमे । सिद्धे पढमे, नो अपढमे । ८. भयसिद्धीप एग सेणं जहा आहारण, एवं अभवसिद्धीप वि [प्र० ] नोभयसिद्धीयनोभभवसिद्धीप णं भंते! जी नोभव०- पुच्छा । [३०] गोयमा ! पढमे, नो अपढमे । [प्र०] णोभवसिद्धी - नोभभवसिद्धीप णं भंते ! सिद्धे नोभव० । [अ०] एवं पुडुचेण वि दोन्द्र बि । ९. [प्र०] सभी भंते! जीवे सभीभाषेणं किं पढमे पुच्छा [डं०] गोयमा नो पढमे, अपढमे । एवं विलंदिय पाय- बेमाणि । एवं पुलेण चि३ असी एवं चेध एगतपुडु सेणं, नवरं जाय याणमंतरा। नोसभी नोमसभी जीवे मणुस्से सिये पढमे, नो अपढमे एवं पुडुचेण वि ४ । 1 ४. [प्र० ] है भगवन् । सिद्धो सिद्धभाववडे प्रथम के के अप्रथम - इत्यादि पृष्ठा. [३०] हे गौतम से प्रथम हे, पण अप्रयम नथी. - ५. [प्र० ] हे भगवन् ! आहारक जीव आहारकभाव वडे प्रथम छे के अप्रथम छे ! [उ०] हे गौतम ! ते प्रथम नथी, पण अप्र यम छे. ए प्रमाणे यावद वैमानिको सुधी जाणवु, बटुवचनमां पण तेज प्रमाणे समज ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! अनाहारक जीव अनाहारकभाववडे प्रथम छे – इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! कदाच * प्रथम होय अने कदाच अप्रथम पण होय. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिक अनाहारकभाववडे प्रथम छे- इत्यादि प्रश्न. [ उ०] ए प्रमाणे नैरयिक यावत्-वैमा - निक अनाहारकभाववडे प्रथम नथी, पण अप्रथम छे. सिद्ध अनाहारकमाचमडे प्रथम के, पण अप्रथम नयी. ७. [ प्र० ] हे भगवन् ! अनाहारक जीवो अनाहारकभाववडे प्रथम छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! प्रथम पण छे अने अप्रथम पण छे. नैरथिको यावत् - वैमानिको अनाहारकभाववडे प्रथम नथी पण अप्रथम छे. अने सिद्धो अनाहारकभाववडे प्रथम छे पण अप्रथम नथी. एम एक एक दंडके प्रश्न करवो. ८. आहारकजीवनी पेठे भयसिद्धिकाणीवो भवसिद्धिकपणे प्रथम नधी, पण अप्रथम छे इत्यादि वक्तव्यता एकवचन अने बहुवचनने आश्रयी जाणवी. एज प्रमाणे अभवसिद्धिक पण कहेवा. [प्र० ] हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक- नोअभवसिद्धिक (सिद्ध) जीव नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिकभाववडे (सिद्धत्वनी अपेक्षाए ) प्रथम छे - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! ते प्रथम छे पण अप्रथम नथी. [ प्र० ] हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोअभयसिद्धिक सिद्ध नोभवसिद्धिक- नोअभयसिद्धिकभाववढे प्रथम के के अप्रथम - इत्यादि पृच्छा. [३०] पूर्व प्रमाणे जाणवुं. ए प्रमाणे जीव अने सिद्ध बन्नेना बहुवचनने आश्रयी प्रश्नोत्तरो समजवा. ९. [प्र०) हे भगवन् संज्ञी जीव संज्ञीभावकडे प्रथम छेइयादि पृच्छा. [३०] हे गौतम! प्रथम नधी पण अप्रथम छे. ए प्रमाणे विकलेन्द्रिय ( एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय) सिवाय यावत् - वैमानिको सुधी जाणवुं. एम बहुवचनवडे पण वक्तव्यता कहेगी. अशी जीवोने पण एकवचन अने बहुवचनवडे एज वम्यता कहेवी. पण विशेष ए के, यावत्वानयंतरी सुभी समजवुं. नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य अने सिद्ध नोसंज्ञी - नोअसंज्ञीभाववडे प्रथम छे पण अप्रथम नथी. ए प्रमाणे बहुवचनने आश्रयी पण आ प्रश्नोत्तर समजवो. * ६ सिद्ध अने विग्रहगतिने प्राप्त थयेल संसारी जीव अनाहारक होय छे. सिद्ध अनाहारकपणा वडे प्रथम छे, कारण के तेने अनाहारकपणुं पूर्वे प्राप्त कर्यु नथी. संसारी जीव अप्रथम छे, केमके तेणे विग्रहगतिमां पूर्वे अनाहारकपणं अनंत बार प्राप्त कर्तुं छे. एम दंडकना क्रमथी नैरयिकथी मांडी वैमानिक सुधीना जीवो पण पूर्वोक्त हेतुथी अनाहारकभावे वडे अप्रथम जाणवा. ९+ असंज्ञीद्वारमां जीव अने नैरयिकथी मांडी दंडकना क्रमथी व्यन्तर सुधीना संज्ञी जीवो पण असंज्ञीभाववडे अप्रथम छे एम जे कहेवामां भन्युं छे, तेम असंही भूतपूर्वन्यानभी समन, फेमके अशी जीवोनो उत्पाद व्यन्तर सुधीना ही जीवोमां पण धाय ते पृथिव्यादि अशी जीवो तो अशीभाव वडे अप्रथम छ. : Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८. - उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. ४७ I १०. [२०] सलेसे णं भंते!-पुच्छा [०] गोषमा ! जहा आहारण, एवं पुडुचेण वि कण्डलेस्सा जाब- फलेस्सा एवं चैव नवरं जस्स जा लेसा अस्थि । अलेले पं जीव- मणुस्स- सिद्धे जहा नोसनीनो असनी ५ । , ११. [प्र० ] सम्मदिट्ठी णं भंते! जीवे सम्मदिट्टिभावेणं किं पढमे पुच्छा [ उ०] गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे । एवं पर्गिदियवज्जं जाव-वेमाणिए । सिद्धे पढमे, नो अपढमे । पुहुत्तिया जीवा पढमा वि, अपढमा वि एवं जावमानिया। सिद्धा पढमा नो अपढमा मिच्छादिद्वीप एगचपुदुचेणं जहा आदारगा सम्मामिच्छादिद्वी पगतपुचेणं जहा सम्मदिट्ठी, नपरं जस्स अस्थि सम्मामिच्छतं ६ । F १२. संजय जीवे मणुरसे व पगतपुडुचेण जहा सम्मदिट्ठी, असंजय जहा आहारण, संजपासंजर जीये पर्थिदिपतिरिक्जोगिय- मनुस्सा एगतपुडुचेणं जदा सम्मदिट्ठी नोसंजय नोअस्संजय नोसंजवासंजय जीवे सिद्धे य एगतपुडुचेणं पढमे, नो अपढमे ७ । १३. सफसायी कोहफसायी जाब- होमकसाथी पर रगतपुडुचेणं जहा भाहारण, अकसाथी जीवे सिप पढमे सिय अपढमे, एवं मणुस्से वि सिद्धे पढमे नो अपढमे, पुडुचेणं जीवा मणुस्सा वि पदमा वि अपदमा वि सिद्धा पडमा, नो अपढमा ८ । I १४. पाणी पगतपुतेणं जहा सम्मदिट्ठी, आभिणियोहियनाणी जाब-मणपखनयनाणी एगतपुतेणं एवं चेच, नवरं १०. [प्र०]] हे भगवन् सलेश्य जीव सश्यभाववडे प्रथम छे इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गौतम! आहारक जीवनी पेठे (सू. ५) अप्रथम जाणवो. बहुवचनवडे पण ए प्रमाणे जाणवुं. वळी कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या संबंधे पण एमज जाणवुं. विशेष ए के, जे लेश्या जेने होय ते लेश्या तेने कवी. लेश्यारहित जीव, मनुष्य अने सिद्धपदमां अलेश्यभाववडे नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी पेठे (सू० ९) प्रथमपणुं जाणवु. ११. [प्र०] हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दष्टिभाषवडे प्रथम होय इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच "प्रथम पण होय अने अप्रथम पण होय. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवाय बीजा बधा दंडके यावत्-वैमानिको सुधी जाणवुं सम्यग्दृष्टिभावे सिद्ध प्रथम छे, पण अप्रथम नयी. बहुवचनमडे सम्यग्दृष्टिभावे जीवो प्रथम पण छे अने अप्रथम पण छे. ए प्रमाणे यावद वैमानिको सुधी जाण. सम्यग्दृष्टिभाव वडे सिद्धो प्रथम छे, पण अप्रथम नथी. 1 मिथ्यादृष्टिभाववडे एकवचन अने बहुवचनने आश्रयी आहारकभावनी वक्तव्यता प्रमाणे ( सू० ५ ) जीवने बधी वक्तव्यता कहेवी. मिश्रदृष्टिभाववडे एकवचन अने बहुवचनने आश्रयी सम्यग्दृष्टिभावनी वक्तव्यता प्रमाणे ( सू० ११ ) जीवने बधी वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के, जे जीवने मिश्रदृष्टि होय तेने ते कहेवी. १२. [प्र० ] "संयत जीव अने मनुष्यना संबंधमां एक वचन अने बहुवचनवडे सम्यग्दृष्टि जीवनी वक्तव्यता पेठे ( सू० ११ ) बधुं कहे. असंयत आहारक जीवनी पेठे ( अप्रथम ) समजवो अने संयतासंयत जीव, पंचेंद्रियतियंच तथा मनुष्य एत्रण दे एकवचन अने बहुवचनवडे सम्पादधिमी पेठे कदाच प्रथम अने कदाच अप्रथम जाणया बळी नोसंपत (संयत नहि) नोअसंयत (असंपत नहीं ) तेम नोसंयतासंयत (संयतासंयत पण नहि ) एवा जीव अने सिद्ध एकवचन अने बहुवचनवडे प्रथम हे पण अप्रथम नथी. १३. सकपायी, क्रोधापायी यावत् छोभकषायी ए बधा एकवचन अने बहुवचनवढे आहारक जीवनी पेठे अप्रथम समजना. तथा अकषायी जीव कदाच प्रथम पण होय अने कदाच अप्रथम पण होय, ए प्रमाणे अकषायी मनुष्य संबंधे पण जाणवुं. पण अकपायी सिद्ध प्रथम छे पण अप्रथम नथी. बहुवचनवडे अकषायी जीवो अने मनुष्यो प्रथम पण होय छे अने अप्रथम पण होय छे. सिद्धो तो बहुवचनवडे अकषायी प्रथम छे पण अप्रथम नथी. १४. ज्ञानी जीव एकवचन अने बहुवचनवडे सम्यन्दृष्टि जीवनी पेठे ( सू० ११) कदाच प्रथम अने कदाच अप्रथम जाणवा ११ को सम्प]ि प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करे से अपेक्षा ते प्रथम जागयो भने कोई सम्पदर्शनी पढ़ी करी सम्यग्दर्शन प्राप्त करे से अपे एम एकेन्द्र सम्यग्दर्शन प्राप्त यतुं नयी वेषी एकेन्द्रिय सिम वाहीना नारकादि दंडके सम्यग्दर्शननी प्रथम प्राप्तिनी अपेक्षाए प्रथमपण अने फरीवार सम्यग्दर्शनप्राप्तिनी अपेक्षाए अप्रथमपणं जाणवु. ', + सिद्ध सम्यग्दृष्टिभाव वडे प्रथम जाणवा. कारण के सिद्धत्वसहचरित सम्यग्दर्शन मोक्षगमनसमये प्रथम प्राप्त थाय छे. 1 मिध्यादृष्टि आहारकनी पेठे एकवचन अने बहुवचनने आश्रमी अप्रथम के कारण के मिथ्यादर्शन अनादि . १२ ॥ संयतद्वारमा मात्र जीवपद अने मनुष्यपद ए बे पद होय छे अने तेमां संयत सम्यदग्दृष्टिनी पेठे प्रथम अने अप्रथम जाणवा. १३ ६ अकषायी जीव यथाख्यात चारित्रनी प्रथम प्राप्तिमा प्रथम, अने फरीबार प्राप्तिमां अप्रथम होय छे. ए प्रमाणे मनुष्यपद आश्रयीने जाणवु. अकथायी सिद्ध प्रथम जाणवा, कारण के सिद्ध सिद्धत्वसहित अकषायभावनी अपेक्षाए प्रथम छे. १४ $ ज्ञानद्वारमां ज्ञानी सम्यग्दृष्टिनी पेठे प्रथम अने अप्रथम जाणवा. तेमां केवलज्ञानी केवलज्ञाननी अपेक्षाए प्रथम, अने अकेवली केवलज्ञान शिवाय बाकीना ज्ञाननी प्रथम प्राप्तिमा प्रथम अने फरीवार प्राप्तिमा अप्रथम कहेवाय छे ५ श्याद्वार. ६ दृष्टिद्वार. ७ संयतद्वार ८ कषायद्वार ९धानद्वार / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक १. 'जस्स जं. अत्थि, केवलनाणी जीवे मणुस्से सिद्ध य एगत्तपुहुतेणं पढमा नो अपढमा । अनाणी, मइअनाणी, सुययनाणी, विमंगनाणी एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारए ९ । १५. सजोगी; मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारए, नवरं जस्स जो जोगो अत्यि । जोगी जीव-मणुस्स-सिद्धा एगत्तपुहुत्तेणं पढमा, नो अपढमा १० । १६. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्तपुहुत्तेणं जहा अणाहारए ११ । १७. सवेदगो जाव-नपुंसगवेद्गो एगत्तपुडुत्तेणं जहा आहारप, नवरं जस्स जो वेदो अत्थि। अवेदओ एगत्तासेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसायी १२। १८. ससरीरी जहा आहारए, एवं जाव-कम्मगसरीरी, जस्स जं अस्थि सरीरं, नवरं आहारगसरीरी एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी । असरीरी जीवो सिद्धो एगत्तपुष्टुत्तेणं पढमो नो अपढमो १३ । १९. पंचहिं पजत्तीहिं पंचहि अपजत्तीहि एगत्तपुडुत्तेणं जहा आहारए, नवरं जस्स जा अस्थि, जाप-वेमाणिया नोपढमा, अपढमा १४ । इमा लक्खणगाहा "जो जेण पत्तपुचो भावो सो तेण अपढमओ होइ । सेसेसु होइ पढमो अपत्तपुषेसु भावेसु" ॥ २०. [प्र०] जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे अचरिमे ? [उ०] गोयमा ! नो चरिमे, अचरिमे । १० योगदार. ११ उपयोगबार. १२ वेदवार. आभिनिबोधिकज्ञानी यावत्-मनःपर्यवज्ञानी एकवचन अने बहुवचनवडे ए प्रमाणे समजवा. विशेष एके जे जीवने जे ज्ञान होय ते तेने कहे. केवलज्ञानी जीव, मनुष्य अने सिद्ध ए बधा एकवचन तथा बहुवचनवडे प्रथम छे, पण अप्रथम नथी. अज्ञानी, मतिअज्ञानी श्रुतअझानी अने विभंगज्ञानी ए बधा एकवचन तथा बहुवचनवडे आहारक जीवोनी पेठे (सू०५) जाणवा. १५. सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी ए बधा एकवचन तथा बहुवचन आश्रयी आहारक जीवोनी पेठे (सू०५) अप्रथम जाणवा. विशेष ए के, जे जीवोने जे योग होय तेने ते योग कहेवो. अयोगी जीव, मनुष्य अने सिद्ध ए बधा एकवचन अने बहुवचनवडे प्रथम छे पण अप्रथम नथी. १६. साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळा ए बन्ने एकवचन अने बहुवचनवडे अनाहारक जीवनी पेठे (सू०६) जाणषा. १७. सवेदक-वेदवाळा-यावत् नपुंसकवेदवाळा ए बधा एकवचन अने बहुवचनवडे आहारकजीवोनी पेठे (सू०५) अप्रथम जाणवा. विशेष ए के,जे जीवने जे वेद होय तेने ते कहेवो. एकवचन अने बहुवचनवड़े अवेदक-वेदरहित जीव, मनुष्य अने सिद्ध (ए त्रणे पदमा ) अकषायी जीवनी पेठे (सू० १३) जाणवा. १८. सशरीर जीवो आहारक जीवनी पेठे (सू० ६) समजवा, अने ए प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीरवाळा संबंधे पण जाणवू. जे जीवने जे शरीर होय ते तेने कहे. विशेष ए के, आहारकशरीरवाळा एकवचन अने बहुवचनवडे सम्यग्दृष्टि जीवोनी पेठे (सू०११) कदाच प्रथम अने कदाच अप्रथम समजवा, अशरीरी-शरीररहित जीव अने सिद्ध ए बन्ने एकवचन अने बहुवचनवडे प्रथम छे पण अप्रथम नथी. १९. पांच पर्याप्तिवडे पर्याप्ता अने पांच अपर्याप्तिवडे अपर्याप्ता एकवचन तथा बहुवचननी अपेक्षाए आहारक जीवनी पेठे (सू० ६) अप्रथम समजवा. विशेष ए के, जेने जे पर्याप्ति होय ते तेने कहेवी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी समजवु. [ अर्थात् ते बधा प्रथम नथी पण अप्रथम छे.] प्रथम अने अप्रथमना खरूपने जणावनारी आ गाथा कहे छे-"जे जीवे जे भाव-अवस्था पूर्व प्राप्त करेल छे ते भावनी अपेक्षाए ते जीव अप्रथम कहेवाय छे, अने ते सिवाय पूर्वे नहि प्राप्त थयेल पण प्रथम वार प्राप्त थयेल भावोनी अपेक्षाए ते जीवो प्रथम कहेवाय छे." २०. [प्र०] हे भगधन् ! जीव जीवत्वभाववडे चिरम छे के अचरम छे ! [उ०] हे गौतम ! चरम नथी पण अचरम छे. १३ शरीरद्वार. १४ पर्याप्तद्वार. चरम अने अचरम जीवदार. १६ * साकार उपयोगवाळा अने अनाकार उपयोगवाळा अनाहारकनी पेठे जाणवा..तेओ जीवपदे सिद्धनी अपेक्षाए प्रथम अने संसारीनी अपेक्षाए अप्रथम जाणवा, नैरयिकथी मांडी वैमानिक सुधीना दंडकोमा प्रथम नथी, पण अप्रथम छे. सिद्धपदने विषे प्रथम छ पण अप्रथम नथी, कारण के साकारोपयोग भने अनाकारोपयोगविशिष्ट सिद्धत्वनी प्रथमज प्राप्ति थयेली छे. _ २० जेनो सर्वदा अन्त थाप छे ते चरम अने जेनो कदि अन्त थतो नथी ते अचरम कहेवाय छे. जीवनो जीवत्वभावथी फदि अन्त थतो नपी, माटे ते चरम नथी पण अचरम छे. Jain Education international Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४९ २१. [प्र०] नेरइए णं भंते ! नेरइयभावेणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे । एवं जाव-माणिए । सिद्धे जहा जीवे । २२. [प्र०] जीवा णं-पुच्छा । [उ.] गोयमा! नो चरिमा, अचरिमा । नेरइया चरिमा वि अचरिमा वि, एवं जाववेमाणिया । सिद्धा जहा जीवा १। २३. आहारए सम्वत्थ पगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुहुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि। अणाहारओ जीवो सिद्धो य एगत्तेण वि पुहुत्तेण वि नो चरिमे, अचरिमे । सेसटाणेसु एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारो २। २४. भवसिद्धीओ जीवपदे एगत्तपुहुत्तेणं चरिमे, नो अचरिमे, सेसटाणेसु जहा आहारओ। अमवसिद्धीओ सवत्थ एगत्तपुडुत्तेणं नो चरिमे, अचरिमे । नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीय जीवा सिद्धा य एगत्तपुहुत्तेणं जहा अभवसिद्धीभो ३ । २५. सन्नी जहा आहारओ, एवं असन्नी वि। नोसनी-नोअसन्त्री जीवपदे सिद्धपदे य अचरिमे, मणुस्सपदे चरिमे एगत्तपुहुत्तेणं ४। २६. सलेस्सो जाव-सुक्कलेस्सो जहा आहारओ, नवरं जस्स जा अस्थि । अलेस्सो जहा नोसन्नी-नोअसन्नी ५। २७. सम्मदिट्टी जहा अणाहारओं, मिच्छादिट्टी जहा आहारओ, सम्मामिच्छादिट्ठी पगिदिय-विगलिंदियवजं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुहुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि ६ । - २१. [प्र०] हे भगवन् । नैरयिक नैरयिकभाववडे *चरम छे के अचरम छे ! [उ०] हे गौतम! ते कदाच चरम पण छे भने कदाच अचरम पण छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवं. सिद्धने जीवनी पेठे (सू० २०) जाणवू. २२. [प्र०] जीवो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जीवो चरम नथी पण अचरम छे. नैरयिको नैरयिकभाववडे चरम पण छे अने अचरम पण छे, ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. सिद्धो जीवोनी पेठे अचरम जाणवा. २३. आहारक सर्वत्र एकवचनवडे कदाच चरम पण होय अने कदाच अचरम पण होय, तथा बहुवचन वडे आहारक चरम पण आहारक द्वार. होय अने अचरम पण होय. अनाहारक जीव अने सिद्ध बने स्थाने एकवचन अने बहुवचन बडे चरम न होय पण अचरम होय. बाकीना नैरयिकादि स्थानोमा अनाहारक आहारक जीवनी पेठे एकवचन अने बहुवचनवडे कदाच चरम होय भने कदाच अचरम होय २. २१. भवसिद्धिक जीवपदमा एकवचन अने बहुवचनवडे चरम छे पण अचरम नथी. अने बाकीना स्थानोमा आहारकनी पेठे ३ भवसिद्धिकदार. कदाच चरम होय अने कदाच अचरम होय. अभवसिद्धिक जीव सर्वत्र एकवचन अने बहुवचनवडे चरम नथी पण अचरम छे. तथा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव अने सिद्ध ए बन्ने पदे एकवचन तथा बहुवचन वडे अभवसिद्धिकनी पेठे अचरम जाणवा. ३ २५. संज्ञी अने असंज्ञी बन्ने आहारकनी पेठे (सू०२३) कदाचित् चरम अने कदाचित् अचरम समजवा. तथा नोसंज्ञीनोअसंज्ञी ४ संशीद्वार. जीव भने सिद्ध ए बन्ने अचरम छे, अने मनुष्य पदे [ केवलीनी अपेक्षाए ] एकवचन तथा बहुवचनवडे चरम छे. ४ २६. लेश्यासहित यावत्-शुक्ललेश्यावाळो आहारकनी पेठे (सू० २३) जाणवो. विशेष ए के, जेने जे लेश्या होय ते तेने कहेवी. ५ लेश्णवार.. लेश्यारहित जीव नोसंज्ञीनोअसंज्ञीनी पेठे जाणवो. ५.. २७. "सम्यग्दृष्टि अनाहारक पेठे अने मिथ्यादृष्टि आहारकनी पेठे (सू० २३) जाणवो. वळी एकेंद्रिय तथा विकलेन्द्रिय सिवायनो दृष्टिदार. २१ * 'जे नैरयिक नरकगतिमाथी नीकळी फरी नरकमा न जा मोक्ष जशे ते नैरयिकभावनो सर्वदा अन्त फरे छ माटे चरम कहेवाय छे अने तेथी भिन्न अचरम कहेवाय छे. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक सुधी जाणवू. सिद्धत्वनो सर्वदा अन्त थतो नथी माटे ते अचरम जाणवा- टीका. २३ + आहारक बधा जीवादि पदमा चरम के अचरम जाणवा. जे पछीना समये निर्वाण पामशे ते चरम अने तेथी भिक्ष ते अचरम आहारक जाणवा. २४ 1 सिद्धिगमन बडे भव्यत्वनो अन्त थतो होवाथी भवसिद्धिक चरम होय छे. अभवसिद्धिकनो अन्त नहि थतो होवाथी ते अचरम होय छे. नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सिद्धो होय छे अने ते अभवसिद्धिकनी पेठे अचरम जाणवा. २७१ सम्यग्दृष्टि अनाहारकनी पेठे चरम तथा अचरम जाणवा. अनाहारक जीव अने सिद्ध ए बस स्थानके होय छे, तेमा जीप अचरम छ, कारण के ते सम्यग्दर्शनथी पडी अवश्य तेने प्राप्त करे छे, अने सिद्ध चरम छे, कारण के ते सम्यग्दर्शनथी पडताज नधी. सम्यग्दृष्टि नरयिकादि जे सम्यग्दर्शन फरीथी सिद्ध चरम B. कारण के ते सम्यग्दशनी पडताज नधी, सम्यग्दृष्टि नायिका दिजे सम्यग्दर्शन फरीची पामशे नहि ते चरम अने ते सिवायना बीजा अचरम कहेवाय छे. मिथ्यादृष्टि जीव आहारकनी पेठे कदाचित् चरम अने कदाचित् अचरम जाणवा. जे निर्वाण पामशे ते मिथ्यादृष्टिपणे चरम अने ते सिवायना वीजा अचरम. मिथ्यादृष्टि नारकादि जे मिथ्यात्वसहित नारकादिपणुं फरीवार पामशे नहि ते चरम अने तेथी भिन्न अचरम कहेवाय छे. मिश्रदृष्टि एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रियने होती नथी माटे मिश्रदृष्टि संवन्धे नारकादि दंडकमा एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रिय न कहेवा. तथा सम्यग्दृष्टि संबन्धे एकेन्द्रिय पण न कहेवा, कारण तेओने सिद्धान्तने मते साखादन सम्यग्दर्शन होतुं नथी. ७ भ. सू. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उदेशक २.. २८. संजओ जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ, अस्संजओ वि तहेव, संजयासंजए वि तहेव, नवरं जस्स जं अत्थि। नोसंजय-नोअसंजय-नोसंजयासंजया जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीओ । २९. सकसाई जाव-लोभकसायी सचट्ठाणेसु जहा आहारओ, अफसायी जीवपदे सिद्ध य नो परिमो, मधरिमो, मणुस्सपदे सिय चरिमो, सिय अचरिमो ८। ३०. णाणी जहा सम्महिट्ठी सम्वत्थ, आभिणिवोहियनाणी, जाव-मणपजवनाणी जहा आहारओ, नवरं जस्स जं अस्थि । केवलनाणी जहा नोसन्नी-नोअसन्त्री, अन्नाणी जाव-विभंगनाणी जहा आहारओ ९। ३१. सजोगी जाव-कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोमो अत्थि । अजोगी जहा नोसन्नी-नोअसन्नी १० । ३२. सागारोवउत्तो अणागारोवउत्तो य जहा अणाहारओ ११ । ३३. सवेदओ जाव-नपुंसगवेदओ जहा आहारओ, अवेदओ जहा अकसाई १२। ३४. ससरीरी जाव-कम्मगसरीरी जहा आहारओ, नवरं जस्स जं अस्थि । असरीरी जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीय १३ । ७ संवतबार मिश्रदृष्टि जीव 'कदाच चरम पण होय छे अने कदाच अचरम पण होय छे. ए प्रमाणे बहुवचनवडे चरम अने अचरप बन्ने जाणवा. ६ २८. *संयत जीव तथा मनुष्य ए बन्ने पदे आहारकनी पेठे (सू० २३ ) जाणवा. वळी असंयत अने संयतासंयत पण तेज प्रमाणे समजवा. विशेष ए के, जे जेने होय तेने ते कहे. तथा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिकनी पेठे (सू० २४) अचरम समजवा. ७ ८ कायद्वार. २९. 'सकषायी यावत्-लोभकषायी सर्वस्थानोमा आहारकनी पेठे समजवा. अकषायी-जीव अने सिद्ध ए बन्ने चरम नथी पण अचरम छे. अने अकषायी मनुष्य कदाच चरम पण होय छे अने कदाच अचरम पण होय छे ८. शानदार ३०. ज्ञानी सर्वत्र सम्यग्दृष्टिनी पेठे बन्ने प्रकारना जाणवा. मतिज्ञानी यावत्-मनःपर्यवज्ञानी आहारकनी पेठे समजवा. विशेष ए के, जेने जे ज्ञान होय तेने ते कहे. केवलज्ञानी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञीनी पेठे अचरम जाणवा. तथा अज्ञानी यावत्-विभंगज्ञानी आहारकनी पेठे बन्ने प्रकारना समजवा. ९ १. योगदार. ३१. सयोगी यावत्-काययोगी आहारकनी पेठे समजवा. विशेष ए के, जेने जे योग होय ते तेने कहेवो अने. अयोगी नोसंबीनोअसंज्ञीनी पेठे जाणवा. १० . ३२. साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळा अनाहारकनी पेठे चरम अने अचरम जाणवा. ११ ११ साकारोपयोग बार. १२ वेदवार.' ३३. सवेदक यावत्-नपुंसकवेदवाळा आहारकनी पेठे जाणवा. अवेदक अकषायीनी पेठे समजवा. १२ १३ शरीरद्वार ३४. सशरीरी यावत्-कार्मणशरीरवाळा आहारकनी पेठे जाणवा. विशेष ए के, जेने जे शरीर होय तेने ते कहे. अशरीरी, नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सिद्धनी पेठे समजवा. १३ २८ * संयत जीव चरम अने अचरम बन्ने प्रकारे होय छे. जेने फरीथी संयतपणु प्राप्त थवानुं नथी ते चरम अने तेथी इतर अचरम कहेवाय छे. ए प्रमाणे मनुष्य संबन्धे पण जाणवू. असंयत पण आहारकनी पेठे चरम अने अचरम बन्ने प्रकारना होय छे. संयतासंयत-देशविरत पण ए प्रमाणे जाणवा, परन्तु देशविरतपणुं जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्य एत्रणे स्थानके होय छे. नोसंयतासंयत-सिद्ध अचरम जाणवा. कारण के सिद्धत्व नित्य होवाथी तेनो चरम क्षण होतो नथी. २९ । सकषायी जीवादि कदाचित् चरम होय अने कदाचित् अचरम पण होय. जे निर्वाण पामशे ते चरम अने अन्य अचरम. ३.१ सम्यग्दृष्टिनी पेठे ज्ञानी जीव अने सिद्ध अचरम जाणवा. कारण के जीव ज्ञानावस्थाथी पडे तो पण तेने ते अवश्य फरीथी प्राप्त 'थाय छ माटे अचरम अने सिद्ध अवश्य ज्ञानावस्थामांज रहे छे माटे अचरम. बाकीना जेओने ज्ञानसहित नारकत्वादिनी प्राप्तिनो फरीथी असंभव छे ते चरम, तेथी अन्य मीजा अचरम. आभिनिबोधिक ज्ञानी आहारकनी पेठे चरम अचरम एम बन्ने प्रकारना जाणवा. तेमा जे आभिनियोधिकादि ज्ञानने केवलशाननी प्राप्ति थवाथी फरी नहि पामे ते चरम अने ते सिवाय यीजा ते अचरम. केवलज्ञानी अचरम होय छे. Jain Education international Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ शतक १८.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मवामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५. पंचहि पजत्तीहिं पंचहि अपजत्तीहिं जहा आहारओ, सवत्थ एगत्तपुडुत्तेणं दंडगा भाणियवा १४ ॥ मा लक्खणगाहा "जो जं पाविहिति पुणो भावं सो तेण अचरिमो होइ । अध्वंतविओगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो॥ "सेवं भंते ! सेवं भंते"!त्ति जाव-विहरति । समत्तो। अठरसमे सए पढमो उद्देसो समत्तो। ३५. पांच पर्याप्तिवडे पर्याप्ता अने पांच अपर्याप्तिवडे अपर्याप्ता संबंधे एकवचन तथा बहुवचनवडे सर्वत्र आहारकनी पेठे १४ पर्याप्तवार. दंडक कहेवो. १४ चरम अने अचरमना खरूपने जणावनारी आ गाथा छे-"जे जीव जे भावने फरीवार पामशे, ते भावनी अपेक्षाए ते जीव अचरम कहेवाय छे, अने जे जीवने जे भावनो तद्दन वियोग होय छे, ते भावनी अपेक्षाए ते जीव चरम कहेवाय छे." "हे भगवन् ! . ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छ' एम कही यावत्-विहरे छे. अढारमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. बीओ उद्देसो. १. तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा नाम नगरी होत्था । वनो । बहुपुत्तिए चेहए । वन्नओ। सामी समोसढे, जाव-पजवासह । तेणं कालेणं तेणं समपण सके देविंदे देवराया वजपाणी पुरंदरे-एवं जहा सोलसमसए बितियउद्देसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ। नवरं एत्थ आभियोगा वि अस्थि, जाव-बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेति, उवदंसेत्ता जाव-पडिगए। २. 'भंते'त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव-एवं वयासी-जहा तईयसए ईसाणस्स तहेव फूडागारदिट्टतो, तहेव पुषभवपुच्छा, जाव-अभिसमन्नागया? [उ०] 'गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं पयासी'एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणापुरे नाम नगरे होत्था । पन्नओ। सहस्संबवणे उजाणे । वन्नओ । तत्थ णं हथिणागपुरे नगरे कत्तिए नाम सेट्री परिवसति, अहे, जाव-अपरिभूए, णेगमपढमासणिए, णेगमट्ठसहस्सस्स बहुसु कजेसु य कारणेसु य कोडंबेसु य-एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्ते जाव-चक्खुभूए, णेगमसहस्सस्स सयरस य कुंडुवस्स आहेवच्चं जाव-कारेमाणे पालेमाणे, समणोवासए, अहिगयजीवाजीवे जाव-विहरति । कार्तिडछेड द्वितीय उद्देशक. १. ते काळे, ते समये विशाखा नामे नगरी हती. वर्णक. अने त्यां बहुपुत्रिक नामे चैत्य हतुं. वर्णक. महावीर स्वामी समवसर्या. यावत्-परिषद् पर्युपासना करे छे. ते काळे, ते समये शक्र देवेन्द्र, देवराज, वज्रपाणि, पुरंदर-इत्यादि *सोळमा शतकना बीजा उद्देशकमा शक्रनी वक्तव्यता कही छे ते प्रमाणे यावत्-ते दिव्यविमानमां बेसीने आव्यो. विशेष ए के, आ स्थळे आभियोगिक देवो पण होय छे. यावत्-तेणे आवी बत्रीश प्रकारनो नाट्यविधि देखाड्यो; अने ते ज्यांची आव्यो हतो त्यां पाछो चाल्यो गयो. २. 'हे भगवन्'1 एम कही पूज्य गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने यावत्-आ प्रमाणे कर्दा के-जेम तृतीयशतकमा ईशानेंद्र संबंधे कूटागार शालानो दृष्टांत अने पूर्वभवनो प्रश्न कों छे तेम आ स्थळे यावत्-तेने 'ऋद्धि अभिमुख थई' त्या सुधी बधुं कहे. हे गौतम' ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे पूज्य गौतमने आ प्रमाणे कडं के-हे गौतम ! आ जंबूद्वीपना भारतवर्षमा हस्तिनापुर नामे नगर हाँ. वर्णक. सहस्राम्रवन नामे उद्यान हतुं. वर्णक. ते हस्तिनागपुर नगरमा धनिक यावत्-कोईथी पराभव न पामे एवो, वणिको मां पहेलं आसन प्राप्त करनार, एक हजार अने आठ वणिकोना घणा कार्योमा, कारणोमां अने कुटुम्बोमां यावत्-चक्षुरूप एवो कार्तिक नामे शेठ रहेतो हतो. जेम राजप्रश्नीयसूत्रमा चित्रसारथिनु वर्णन कयुं छे तेम अहिं बधुं वर्णन करवं.-वळी ते कार्तिकशेठ एक हजार आठ वणिकोर्नु अने पोताना कुटुम्बर्नु अधिपतिपणु करतो यावत्-पालन करतो रहेतो हतो. ते श्रमणोपासक तथा जीवाजीव तत्वोनो जाणकार हतो. १* भग• खं० ४ श० १६ उ. २ पृ० ५. २ जुओ-भग० खं० २ श० ३ उ० १ पृ. २८. जुओ. राज० ५० ११५-१६. . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे शतक १८. - उद्देशक २०. ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुवर अरहा आदिगरे- जहा सोलसमसए तहेव जाव- समोसढे, जाव-परिसा पज्जुवासति । तणं से कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्टतुट्ठ० एवं जहा एक्कारसमसप सुदंसणे तद्देव निग्गओ, जाव- पज्जुवासति । तप णं मुणिसुखप अरहा कत्तियस्स सेट्ठिस्स धम्मकहा जाव परिसा पडिगया । ४. तर णं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुखय० जाव-निसम्म हट्टतुट्ठ० उट्ठाए उट्ठेति, उ० २ उट्ठेत्ता मुणिसुष्वयं जाव- एवं वयासी- 'एवमेयं भंते । जाव से जहेयं तुज्झे वदह जं, नवरं देवाणुप्पिया ! नेगमट्टसहस्सं आपुच्छामि, जेट्ठपुत्तं च कुडुंबे. ठावे, तर णं अहं देवाणुवियाणं अंतियं पचयामि । अहासुखं जाव-मा पडिबंधं । तप णं से कत्तिए सेट्ठी जाव- पडिनिक्खमति, २ - मित्ता जेणेव इत्थणागपुरे नगरे जेणेव सए गेहे तेणेव उवागच्छर, २- च्छित्ता णेगमट्टसहस्सं सहावेति, २ - वेत्ता एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुपिया ! मए मुणिसुवयस्स अरहओ अंतियं धम्मे निसन्ते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरु । तप णं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुधिग्गे, जाव-पधयामि तं तुज्झे णं देवाणुप्पिया ! किं करेह, किं ववसह, किं भे हियइच्छिए, किं भे सामत्थे' ? तप णं तं णेगमट्टसहस्सं पि तं कत्तियं सेट्ठि एवं वयासी- 'जह णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुविग्गा जाव पवइस्संति, अम्हं देवाणुप्पिया ! किं अन्ने आलंबणे वा, आहारे वा, पडियंधे वा ? अम्हे वि णं देवाणुपिया ! संसारभयुधिग्गा भीया जम्मणमरणाणं देवाणुष्पिपछि सद्धि मुणिसुष्वयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता आगाराम्रो जाव- पचयामो' । ५२ ५. तरणं से कत्तिए सेट्ठी तं नेगमट्टसहस्वं एवं वयासी- 'जदि णं देवाणुपिया ! संसारभयुविग्गा भीया जम्मणमरगाणं मए सद्धि मुणिसुष्वय० जाव-पश्चयह, तं गच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया ! सपसु गिहेसु, विपुलं असणं जाव-उवक्खडावेह, मित्तनाइ० जाव - जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावेह, जेटू० २ ठावेत्ता तं मित्तनाइ० जाव - जेट्ठपुत्ते आपुच्छद, आपुच्छेता पुरिससह स्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह, दुरुहित्ता मित्तनाइ० जाव-परिजणेणं जेट्ठपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सवडीप जाव-रवेणं अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पाउन्भवद्द' । तप णं ते नेगमट्टसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एयम विणणं पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता जेणेव साई साई गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विपुलं असण० जाव-उवक्खडावेंति, उब ३. ते काळे, ते समये धर्मना आदिकर - इत्यादि वर्णन जेम *सोळमा शतकमां करवामां आव्युं छे तेवा मुनिसुव्रत तीर्थकर समोसर्या अने यावत्-पर्षदाए पर्युपासना करी. त्यारबाद कार्तिकशेठ भगवंत आव्यानी वात सांभळी हर्षवाळो अने संतुष्ट थयो - इत्यादि जेम अगीयारमां शतकमां कहेवामां आव्युं छे एवा सुदर्शन शेठनी पेठे वांदवा नीकळ्यो अने यावत् - तेणे भगवंतनी पर्युपासना करी - बगेरे बधुं कहे. पछी मुनिसुव्रत अर्हते कार्तिक शेठने धर्मकथा कही, यावत्-परिषद् पाछी गइ. ४. त्यारबाद कार्तिकशेठ, मुनिसुव्रत अर्हत पासेथी यावत् - धर्मने सांभळी, अवधारी प्रसन्न अने संतुष्ट थई उभो थयो ; ऊठी मुनिसुव्रत अर्हन्तने यावत्-आ प्रमाणे कह्युं के 'हे भगवन् ! ते एज प्रमाणे छे के यावत्-आप जे प्रमाणे कहो छो. परन्तु हे देवानुप्रिय ! एक हजार आठ वणिकोने पूछी मोटा पुत्रने कुटुम्बनो भार सोंपी देवानुप्रिय एवा आपनी पासे प्रव्रज्या लेवा इच्छं छं. श्रीमुनिसुव्रत भगवंते कह्युं के, 'जेम सुख थाय तेम करो, यावत् -- प्रतिबंध न करो.' त्यारबाद कार्तिक शेठ यावत्-त्यांथी नीकळी ज्यां हस्तिनागपुर नगर छे, अने ज्यां पोतानुं घर छे त्यां आव्यो. पछी तेणे एक हजार आठ बणिकोने बोलावी आ प्रमाणे कधुं - 'हे देवानुप्रियो ! में मुनिसुव्रत अर्हत पासेथी धर्म सांभळ्यो छे, अने ते धर्म मने इष्ट, विशेष इष्ट अने प्रिय छे. तथा हे देवानुप्रियो ! ते धर्म सांभळी ढुं संसारभयथी उद्विद्म थयो छं, यावत् - प्रव्रज्या लेवा इच्छं छं. माटे हे देवानुप्रियो ! तमे शुं करवा इच्छो छो, शी प्रवृत्ति करवा धारो छो, तमारा हृदयने शुं इष्ट छे, अने तमारुं सामर्थ्य शुं छे' ? त्यारबाद ते एक हजार आठ वणिकोए ते कार्तिकशेठने आ प्रमाणे क——'हे देवानुप्रिय ! जो तमे संसारभयथी उद्विग्न थई यावत् — प्रव्रज्या ग्रहण करशो तो अमने बीजुं शुं आलंबन छे, बीजो शो आधार छे, अने बीजो शो प्रतिबन्ध छे ? हे देवानुप्रिय ! अमे पण संसारभयथी उद्विग्न थया छीए, जन्म अने मरणथी भय पाम्या छीए, तो आपनी साथे मुनिसुव्रत अर्हतनी पासे मुंड थईने गृहत्याग करी अनगारपणुं यावत्-ग्रहण करीशुं. ५. त्यार बाद ते कार्तिकशेठे ते एक हजार आठ वणिकोने आ प्रमाणे कह्युं के, हे देवानुप्रियो ! जो तमे पण संसार भयथी उद्विग्न थया हो, जन्म अने मरणथी भय पाम्या हो, तथा मारी साथेज मुनिसुव्रत अर्हत पासे यावत् प्रव्रज्या लेवा इच्छता हो तो तमे तमारे घेर जाओ, अने पुष्कळ अशनादि यावत्-तैयार करावी, मित्र ज्ञाति वगेरेने बोलावी यावत् ज्येष्ठ पुत्रने कुटुम्बनो भार सोंपी अने मित्रादिक तथा ज्येष्ठ पुत्रने पूछी हजार पुरुषो वडे उचकी शकाय तेवी शिबिकामां बेसी, अने मार्गमां तमारी पाछळ चालता भित्र ज्ञाि यावत्-परिवार वडे अने ज्येष्ठ पुत्र षडे अनुसरायेला, सर्वऋद्धिथी युक्त यावत्-वाद्योना घोषपूर्वक विलंब कर्ता सिवाय मारी पासे आवो.. प्यार पछी कार्तिक शेठना ए कथनने विनयपूर्वक स्वीकारी ते बधा वणिको पोतपोताने घेर गया अने तेओए पुष्कळ अशन, पान, यावत् ३ * भग० सं० ४ श० १६०५ पृ० १४. + जुओ-भग० खं० ३ ० ११ उ० ११ १० २३४. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. क्खडावेत्ता मित्तनाइ० जाव-तस्सेव मित्तनाइ० जाव-पुरओ जेट्टपुत्ते कुटुंबे ठावेंति, जेट्ट० २ ठावेत्ता तं मित्तनाइ. जावजेट्टपुत्ते य आपुच्छंति, जेट्ट० २ आपुच्छेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहंति, दुरूहित्ता मित्तणाति जाव-परिजजेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सबड्डीए जाव-रवेणं अकालपरिहीणं चेय कत्तियस्स सेट्ठिस्स अंतियं पाउन्भवंति। . ६. तए णं से कत्तिए सेट्टी विपुलं असणं ४ जहा गंगदत्तो जाव-मित्त-णाति. जाव-परिजणेणं जेट्टपुत्तेणं णेगमट्टसहस्सेण य समणुगम्ममाणमग्गे सवढिए जाव-रवेणं हथिणापुरं नगरं मझमझेणं जहा गंगदत्तो जाव-आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए, जाव-अणुगामियत्ताए भविस्सति, तं इच्छामि णं भंते ! णेगम हस्सेण सद्धिं सयमेव पवावियं, जाव-धम्ममाइक्खियं । तए णं मुणिसुपए अरहा कत्तियं सेट्टि णेगमट्ठसहस्सेणं सद्धि सयमेव पवावेति, जाव-धम्ममाइक्खइ-'एवं देवाणुप्पिया! गंतवं, एवं चिट्रियचं, जाव-संजमियध्वं । ७. तए णं से कत्तिए सेट्ठी नेगमट्ठसहस्सेण सद्धिं मुणिसुष्वयस्स अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं उवदेस सम्म पडिबजइ, तमाणाए तहा गच्छति, जाव-संजमेति' । तए णं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टसहस्सेणं सद्धि अणगारे जाए, ईरियासमिए जाव-गुत्तबंभयायारी । तए णं से कत्तिए अणगारे मुणिसुध्धयस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाई चोद्दस पुवाई अहिजइ, सा० २ अहिजित्ता बहूर्हि चउत्थ छट्ठ-टुम० जाव-अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुन्नाई दुवालस वासाइं सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेइ, मा० २ झोसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेति, स० २ छेदेत्ता आलोइय० जाव-कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि जाव-सक्के देविदत्ताए उववन्ने । तए णं से सके देविंदे देवराया अहुणोववण्णे० सेसं जहा गंगदत्तस्स जाव-अंतं काहिति, नवरं ठिती दो सागरोवमाई, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेव भत्ते'त्ति । अट्ठारसमे सए बीओ उद्देसो समत्तो । तैयार करावी पोताना मित्र, ज्ञाति यावत्-खजनने बोलावी अने तेओनी समक्ष यावत्-मोटा पुत्रने कुटुंबनो भार सोंपी ते मित्र, ज्ञाति वगेरे अने पुत्रने पूछी हजार पुरुषोथी उपाडी शकाय एवी शिबिकामां बेसी, मार्गमा मित्र, ज्ञाति यावत्-परिजन वडे तथा ज्येष्ठ पुत्र वडे अनुसराता, यावत्-सर्वऋद्धियुक्त वाद्यना घोषपूर्वक तेओ तुरत कार्तिक शेठनी पासे हाजर थया. ६. स्यार बाद ते कार्तिक शेठे *गंगदत्तनी पेठे पुष्कळ अशन-यावत्-तैयार कराव्या. यावत्-मित्र, ज्ञाति, यावत्-परिवार, ज्येष्ठ पुत्र अने एक हजारने आठ वणिको वडे अनुसरातो सर्व ऋद्धिथी युक्त एवो कार्तिक शेठ यावत्-वाद्यना घोषपूर्वक हस्तिनापुर नगरनी बच्चोवच्च थई गंगदत्तनी पेठे नीकळ्यो, अने श्री मुनिसुव्रत अहंत पासे जई आ प्रमाणे बोल्यो-'हे भगवन् ! आ संसार चो तरफ सळगी रहेलो छे, हे भगवन् ! आ संसार अत्यन्त प्रज्वलित थई रहेलो छे, हे भगवन् ! आ संसार चो तरफ अत्यंत प्रज्वलित थई रहेलो छे. माढे आपनी पासे प्रव्रज्या ग्रहण करवी ए मने श्रेयोरूप थशे तेथी हे भगवन् ! आ एक हजार आठ वणिको साथे हुँ आपनी पासे स्वयमेव प्रव्रज्या लेवाने अने आपे कहेल धर्म सांभळवाने इच्छु छु.' त्यार पछी श्रीमुनिसुव्रत अहंते ते कार्तिक शेठने एक हजार आठ वणिको साथे प्रव्रज्या आपी अने यावत्-धर्मोपदेश कर्यो-'हे देवानुप्रियो ! आ प्रमाणे चालवू, आ प्रमाणे रहे-इत्यादि यावत्-आ प्रमाणे संयमनुं पालन करवू.' ___७. त्यार बाद ते कार्तिक शेठे एक हजार आठ वणिको साथे मुनिसुव्रतं अर्हते कहेला आवा प्रकारना धार्मिक उपदेशनो सारी रीते स्वीकार कर्यो, अने तेणे तेमनी आज्ञा प्रमाणे तेवीज रीते आचरण कयु, यावत्-संयमनुं पालन कयु. त्यार बाद ते कार्तिक शेठ एक हजार आठ वणिको साथे अनगार थया, ईर्यासमितियुक्त अने यावत्-गुप्त ब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्यनी गुप्तिने धारण करनारा थया. पछी ते कार्तिक अनगारे मुनिसुव्रत अहंतना तेवा प्रकारना स्थविरोनी पासे सामायिकथी आरंभी चौद पूर्व पर्यंत अध्ययन कयु, अने घणा उपवास, छट्ट तथा अट्ठमोथी यावत्-आत्माने भावित करता सम्पूर्ण बार वरस श्रमणपर्याय पाळ्यो. त्यार बाद ते कार्तिक शेठ एक मासनी संलेखना तप वडे शरीरने शोषवी साठ भक्त (त्रीश दिवस) अनशनपणे वीतावी, आलोचना करी यावत्-काळ करी सौधर्म कल्पमा सौधर्मावतंसक नामना विमानमा आवेली उपपातसभामां देवशयनीय विषे यावत्-शक-देवेंद्रपणे उत्पन्न थया. त्यार पछी हमणां उत्पन्न थयेल शक्र देवेन्द्र देवराज इत्यादि-'बधी वक्तव्यता गिंगदत्तनी जेम कहेवी, यावत्-ते सर्व दुःखोनो अंत करशे.' पण विशेष ए के, (शक्रनी) स्थिति बे सागरोपमनी छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. अढारमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. ६ * गंगदत्त संबन्धे जुओ भग० सं० ४ श. १६ उ०५ पृ. १४. 01 जुओ भग० ख० ४ श. १६ उ०५पृ० १५. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक ३० तईओ उद्देसो. १. तेणं कालेणं तेणं समपणं रायगिहे नगरे होत्था । वन्नओ । गुणसिलए चेहए । वन्नओ। जाव-परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समपणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव-अंतेवासी मागंदियपुत्ते नाम अणगारे पगइभहए-जहा मंडियपुत्ते जाव-पजुवासमाणे एवं वयासी [प्र०] से नूणं भंते ! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेहितो पुढरिकाइपहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता माणुसं विगह लभति, मा० २ लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति, के० २ बुज्झित्ता तओ पच्छा सिज्झति, जाव-अंतं करेति [उ.] इंता मागंदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव-अंतं करेति । . २.[प्र.] से नूणं भंते ! काउलेसे आउकाइए काउलेसेहितो आउकाइपहिंतो अणंतरं उघट्टित्ता माणुसं विग्गई लभति, मा० २ लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति, जाव अंतं करेति ? [उ०] हंता मागंदियपुत्ता ! जाव-अंतं करेति । ३. [प्र.] से नूणं भंते ! काउलेस्से वणस्सइकाइए-एवं चेव जाव-अंतं करेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति मार्गदियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव-नमंसित्ता जेणेव समणे निग्गंथे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणे निग्गंथे एवं वयासी-एवं खलु अजो! काउलेस्से पुढविकाइए तहेव जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउलेस्से आउकाइए जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउलेस्से वणस्सइकाइए जाव-अंतं करेति' । तए णं ते समणा निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव-एवं परूवेमाणस्स एयमढें नो सद्दहति ३, एयमढे असइहमाणा ३ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं घयासी-[प्र०] एवं खलु भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइवखति, जाव-परूवेति-एवं खलु अजो! काउलेस्से पुढविकाइए जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउलेस्से आउकाइए जाव-अंतं करेति, एवं वणस्सइकाइए वि जाव-अंतं फरेति' से कहमेयं भंते ! एवं? [उ.] 'अजोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणे निग्गंथे आमंतित्ता एवं वयासी-जण्णं तृतीय उद्देशक. माकंदिकपुत्र अन- १. ते काळे, ते समये राजगृह नामे नगर हतुं. धणेक. गुणसिलक चैत्य हतुं. वर्णक. यावत्-पर्षदा वांदीने पाछी गई. ते अमी. काळे, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना अंतेवासी यावत्-भद्रप्रकृतिवाळा माकंदिपुत्र अनगारे, *मंडितपुत्र अनगारनी जेम पर्युपासना पृथिवीकाथिकादि करतां श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे प्रश्न कर्यो-प्र०] हे भगवन् ! कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक जीव, कापोतलेश्यावाळा पृथिमनुपशरीर पामी वीकायिकोमाथी मरण पामी तुरतज मनुष्यना शरीरने प्राप्त करी, केवलज्ञान प्राप्त करे अने त्यार बाद सिद्ध थाय, यावत्-सर्वदुःखोनो तुरत सिद्ध थाय! नाश करे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! हा, कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक, यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. अकायिक २. [प्र०] हे भगवन् ! कापोतलेश्यावाळो अप्कायिक, कापोतलेश्यावाळा अकायिकोमाथी मरण पामी तुरतज मनुष्यशरीर प्राप्त करी केवलज्ञान प्राप्त करे अने त्यार बाद सिद्ध थाय, यावत्-सर्वदुःखोनो नाश करे! [उ०] हे माकंदिकपुत्र | हा, ते यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. ३. हे भगवन् ! कापोतलेश्यावाळो वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिकमाथी नीकळी-इत्यादि प्रश्न, अने उत्तर पूर्व प्रमाणे जाणवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही माकंदिकपुत्र अनगार श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी ज्यां श्रमण निम्रन्थो छे त्यां आवी ते श्रमण निग्रंथोने तेणे आ प्रमाणे का-'हे आर्यो! कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक यावत्सर्वदुःखोनो नाश करे, तेज प्रकारे हे आर्यो ! कापोतलेश्यावाळो अप्कायिक अने वनस्पतिकायिक जीव पण यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे.-ए प्रमाणे कथन करता यावत्-प्ररूपणा करता माकंदिकपुत्र अनगारनी आ वातने ते श्रमण निम्रन्थोए मान्य न करी अने तेओ ज्यां श्रमण भगवंत महावीर विराजमान हता त्यां आव्या; त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी यावत्-तेओ आ प्रमाणे बोल्या-प्र०] हे भगवन् ! माकंदिकपुत्र अनगारे अमने आ प्रमाणे का छे, यावत्-प्ररूप्यु के के हे आर्यो| कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक, कापोतलेश्यावाळो अप्कायिक अने कापोतलेश्यावाळो वनस्पतिकायिक यावत्-सर्वदुःखोनो नाश करे छे. तो हे भगवन् । ते एम केवी रीते होय ? [उ०] 'हे आर्यो !' एम संबोधी ते श्रमण निग्रंथोने श्रमण भगवंत महावीरे आ प्रमाणे कथु-'हे आर्यो ! माकंदिकपुत्र अनगारे तमने जे कयुं छे, यावत्-जे प्ररूप्यु छे के कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक, कापोतलेश्यावाळो अकायिक अने कापोतलेश्यावाळो वनस्पतिकायिक पण यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे छे.' ते वात सत्य छेहे आर्यो । हुँ पण एज प्रमाणे कहुं छं के, १ * मंडितपुत्र संबंधे जुओ-भग० खं० २ श० ३ उ० ३ पृ० ७३. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक. ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५५ अजो! मागंदियपुत्ते अणगारे तुज्झे एवं आइवखति, जाव परुवेति-एवं खलु अजो! काउलेस्से पुढविकाइए जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउलेस्से आउकाइए जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउल्लेस्से वणस्सइकाइए वि जावअंतं करेति, संञ्चे णं एसमटे, अहं पिणं अजो! एवमाइक्खामि ४-एवं खलु अजो! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेहितो पुढविकाइएहिंतो जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! नीललेस्से पुढविकाइए जाव-अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि, जह पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि, सच्चे णं एसमटे । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति समणा निग्गंधा समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव मागदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता मागंदियपुत्तं अणगारं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो २ खामेति । ..तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उढाए उटेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते०२ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-प्र०] अणगारस्स ण भंते ! भावियप्पणो सवं कम्मं वेदेमाणस्स, सच्चं कम्मं निजरेमाणस्स सवं मारं मरमाणस्स, सवं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं कम्म वेदेमाणस्स, चरिमं कम्मं निजरेमाणस्स, चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स मारणंतियं कम्मं वेदे. 'माणस्स, मारणंतियं कम्मं निजरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निजरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पन्नत्ता समणाउसो! सचं लोगं पिणं ते ओगाहित्ता णं चिटुंति ? [उ. मागंदियपुत्ता ! अणगारस्त णं भंते ! भावियप्पणो जाव-ओगाहित्ता गं चिट्ठति । ५. [प्र. छउमत्थे गं भंते! मणुस्से तेसि निजरापोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा.[उ एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव-वेमाणिया, जाव-तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति, पासंति, आहारेंति, से तेण?णं निक्खेवो भाणियचो तिन पासंति, आहारंति । ६. [प्र०] नेरइया णं भंते ! निजरापुग्गला न जाणंति न पासंति, आहारंति, एवं जाव-पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । कृष्णलेश्यावाळो पृथिवीकायिक कृष्णलेश्यावाळा पृथिवीकायिकोथी नीकळी तुरत यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे; ए प्रमाणे हे आर्यो ! नीललेग्यावाळो तथा कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक पण यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे.' ए प्रमाणे पृथिवीकायिकनी पेठे अप्कायिक तथा वनस्पतिकायिक पण यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. ए वात सत्य छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही ते श्रमण निर्गथो श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी, ज्यां माकं दिकपुत्र अनगार छे त्या आव्या, त्यां आवीने तेओए माकंदिकपुत्र अनगारने वांदी नमी ए बाबत सम्यग् रीते विनयपूर्वक वारंवार खमाव्या. ४. त्यार पछी माकंदिकपुत्र अनगार उठीने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर विराजमान छे त्यां आव्या. आवीने भगवंतने वांदी नमी निर्जरा पुनलो सर्वआ प्रमाणे कर्ष.-[प्र०]-हे भगवन् ! बधा कर्मने वेदता, बधा कर्मने निर्जरता, सर्व मरणे मरता अने सर्व शरीरने छोडता, तथा लोक व्यापी छे। चरम छेल्ला कर्मने वेदता, चरम कर्मने निर्जरता, चरम शरीरने छोडता, चरम मरणे मरता त्या मारणान्तिक कर्मने वेदता, मारणान्तिक कर्मने निर्जरता, मारणान्तिक मरणे मरता अने मारणान्तिक शरीरने छोडता भावितात्मा अन् गारना जे चरम छेल्ला निर्जराना पुद्गलो छे हे आयुष्मन् श्रमण! ते पुद्गलोने सूक्ष्म कहेवामां आव्या छे, अने हे आयुष्मन् श्रमण! ते पुद्गलो समग्र लोकने अवगाहीने रहे छे! [उ०] हा, माकंदिकपुत्र ! भावितात्मा अनगारना ते चरम निर्जरापुद्गलो यावत्-समप्र लोकने व्यापीने रहे छे.. ५. [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य ते निर्जरा पुद्गलो परस्पर जुदापणुं यावत्-नानापणुं जाणे अने जुए ! [उ०] 'जेम प्रथम छमस्य निर्जरापुद्ग*इन्द्रियोद्देशकमां कहेवामां आव्युं छे ते प्रमाणे यावत्-[ केटलाक देवो पण जाणता नर्थः अने जोता नधी ] एम वैमानिको सुधी कहेवू. लोनुं भिन्नपणु जुर १ तेमा जेओ उिपयोगयुक्त छे तेओ ते पुद्गलोने जाणे छे, जुए छे अने ग्रहण करे छे. ते कारण माटे ए समग्र निक्षेप-पाठ कहेवो. यावत्जेओ उपयोगरहित छे तेओ जाणता नथी, अने देखता नथी, पण ते पुद्गलोनो आहार-ग्रहण करे छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको संबंधे प्रश्न. [उ०] तेओ निर्जरापुद्गलोने जाणता नथी, जोता नथी, पण तेनो आहार करे छे. एम यावत्-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक सुधी जाणवू. ५ * प्रज्ञा० पद १५ उ० १५० २९२. . + जेओ विशिष्ट अवधिज्ञानादिना उपयोगयुक्त होय छे ते सूक्ष्म कार्मण पुद्गलोने जाणे छे अने जुए छे पण जेओ विशिष्ट अवधिज्ञानादिना उपयोगरहित छे ते सूक्ष्म कार्मण पुद्गलोने काइ पण जाणता के जोता नथी. ____ ओज आहार, लोमाहार अने प्रक्षेपाहार-ए त्रिविध आहारमाथी अहिं ओज आहार लेवो, कारण के कार्मण शरीरद्वारा पुद्गलोर्नु ग्रहण करवू ते ओज आहार कहेवाय छे अने ते आहार अहिं संभवे छे. Jain Education international Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशन. ३. ७. [प्र०] मणुस्सा णं भंते | निजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारंति, उदाहु न जाणंति न पासंति नाहाररात ? [30] गोयमा! अत्थेगइया जाणंति ३, अत्थेगा न जाणंति न पासंति, आहारंति ।[4] से केणटेणं भते ।। 'मत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइआ न जाणंति न पासंति, आहारंति ? [उ०] गोयमा! मणुस्सा दुविहा पनत्ता, तंजहा-सन्नीभूया य असन्नीभूया य । तत्थ णं जे ते असन्निभूया ते न जाणंति न पासंति, आहारंति । तत्थ णं जे ते सन्नीभूया ते दुविहा पन्नत्ता तंजहा-उवउत्ता अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते न याणंति न पासंति, आहारंति । तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति ३, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुझ्यह-अत्थेगइया न जाणंति, न पासंति, आहारेंति, अस्थेगया जाणंति ३ । वाणमंतरजोइसिया जहा नेरदया। . ८. [प्र०] वेमाणिया णं भंते ! ते निजरापोग्गले किं जाणंति ६ ? [उ०] गोयमा ! जहा मणुरसा, नवरं घेमाणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-माइमिच्छदिट्ठीउववनगा य अमाइसम्मदिट्टीउववन्नगा य । तत्थ णं जे ते मायिमिच्छदिटिउववन्नगा ते णं न जाणंति न पासंति आहारंति । तत्थ णं जे ते अमायिसम्मदिट्ठीउववनगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-अणंतरोधवनगा य परंपरोक्वनगा य । तत्थ णं जे ते अणंतरोववन्नगा ते णं न याणंति न पासंति आहारेति । तत्थ णं जे ते परंपरोषनगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं न जाणंति, न पासंति. आहारंति । तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-उवउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ गंजे ते अणुषउत्ता ते पाणंति न पासंति आहारंति । ९. [म०] कतिविहे गं भन्ते ! बंधे पन्नत्ते ? [उ०] मागंदियपुत्ता! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-दधबंधे य भावबंधे य । १०. [प्र०] दवयंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] मागंदियपुत्ता ! दुविहे पनचे तं जहा-पोगबंधे य वीससाधंधे य। ७. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यो शुं निर्जरा पुद्गलोने जाणे छे, जुए छे अने आहारे छे-ग्रहण करे छे, के जाणता नथी, जोता नथी अने ग्रहण करता नथी! [उ०] हे *गौतम | केटलाक जाणे छे, जुए छे अने आहारे छे, अने केटलाक जाणता नथी, जोता नथी पण तेओनो आहार करे छे. [प्र०] हे भगवन् । शा माटे एम कहेवामां आव्यु के, केटलाक जाणे छे, जुए छे अने आहारे छे अने केटलाक नथी जाणता, नथी जोता, पण आहारे छे' ! [उ०] हे गौतम ! मनुष्य बे प्रकारना कह्या छे, संज्ञीरूप-मनसहित अने असंज्ञीरूप-मनरहित. तेमा जे असंज्ञीरूप छे ते जाणता नथी, जोता नथी, पण ते निर्जरा पुद्गलोनो आहार करे छे; अने जे संज्ञीरूप छे ते पण बे प्रकारना छे, उपयुक्त भने अनुपयुक्त. तेमा जे विशिष्ट ज्ञानना उपयोग रहित छे ते जाणता नथी, जोता नथी, पण आहार करे छे. जे विशिष्ट ज्ञानना उपयोगबाळा छे तेओ तेने जाणे छे, जुए छे अने तेनो आहार करे छे, ते कारणथी हे गौतम | एम कहेवाय छे के केटलाक जाणता नथी, जोता नथी पण तेनो आहार करे के भने केटलाक जाणे छे, जुए छे अने तेनो आहार पण करे छे'. वाणव्यंतर अने ज्योतिष्कोनी वक्तव्यता नैरयिको प्रमाणे समजवी. ८. [प्र०] हे भगवन् । वैमानिको ते निर्जरा पुद्गलोने जाणे छे, जुए छे अने आहारे छे के नथी जाणता, नथी जोता अने आहारता पण नथी ! [उ०) हे गौतम | जेम मनुष्योनी वक्तव्यता कही छे (सू०७) तेम वैमानिकोनी वक्तव्यता जाणवी. परन्तु विशेष ए छे के, वैमानिक बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मायी मिथ्यादृष्टि अने अमायी सम्यग्दृष्टि. तेमां जे मायी मिथ्यादृष्टि देव छे तेओ निर्जरापुद्गलोने जाणता नथी, जोता नथी पण आहारे छे. तथा जे अमायी सम्यग्दृष्टि छे, ते वे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणेअनन्तरोपपन्नक अने परंपरोपपन्नक. तेमा जे अनंतरोपपन्नक-प्रथम समयोत्पन्न छे ते जाणता नथी, जोता नथी, पण आहारे छे, अने जे परंपरोपपन्नक (जेने उत्पन्न थयाने द्वितीयादि समयो थयेला छे.) छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-पर्याप्तक अने अपर्याप्तक. तेमा जे अपर्याप्तक छे ते जाणता नथी, जोता नथी, पण आहारे छे. जे पर्याप्तक छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-उपयुक्त अने अनुपयुक्त. तेमा जे अनुपयुक्त छे ते जाणता नथी, जोता नथी पण आहारे छे. ९. [प्र०] हे भगवन् ! बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे माकन्दिकपुत्र ! बंध वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यबंध अने भावबंध. १०. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यबंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणेप्रयोगबन्ध अने विस्रसाबन्ध (स्वाभाविकबन्ध ). ग्वधना प्रकार. ७. अहिं भगवंतने प्रश्न पूछनार तो मार्कदिकपुत्र, उतां भगवाने गौतमने संबोधी उत्तर आप्यो तेनुं कारण ए छे के, आ पाठ प्रज्ञापना सूत्र. माथी उद्धृत करेलो छ भने प्रज्ञापनासूत्रनी रचनाशैली प्रायः गौतमप्रश्न अने भगवंतना उत्तर रूप होवाथी अहिं पण ते सळंग पाठ प्रहण करेलो छे. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११.६० वीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नते। [30] मागंदियपुत्ता! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-साइयवीससाबंधे य अणाद्रीयवीससावंधे य। १५. [प्र०] पयोगधंधे णं मंते! कतिविहे पनते ? [] मार्गदियपुत्ता ! दुविहे पनवे, सं जहा-सिढिलपंधणपन्धे धणियबंधणषन्धे य। १३. [४०] भावबंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] मागंदियपुत्ता ! दुबिहे पन्नत्ते, तं जहा-मूलपगउिषधे य उत्तरपगडिबंधे य। - १४. [प्र०] नेरईयाणं भंते ! कतिविहे भावबंधे पनते ? [ज०] मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पनवे, तं जहा-मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य । एवं जाव-वेमाणियाणं । १५. [प्र०] नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे भावबंधे पन्नते? [उ०] मागंदियपुत्ला दुविहे भावबंधे पाते, तं जहा-मुलपगडिबंधे य उत्तरपयडिबंधे य। १६. [प्र०] नेरतियाणं भंते ! नाणावरणिजस्स कम्मस्स कतिविहे भावबंधे पन्नत्ते १ [उ०] मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते, तं जहा-मूलपगडिबंधे य उत्तरपयडि०, पचं जाव-धेमाणियाणं, जहा नाणावरणिज्जेणं दंडओ मणिो एवं जाव-अंतराइएणं भाणियो। १७. [प्र०] जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जाव-जे य कजिस्सइ, अत्थि यार तस्स र णाणते ? [उ०] इंता अस्थि । [३०] से केणटेणं भंते! एवं घुषह-जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे, जाप-जे य कजिस्सति, अस्थि यार तस्स णाणते। [उ०] मागंदियपुत्ता! से जहानामए-केर पुरिसे धणुं परामुसइ, धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसा, उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठाणं ठाएत्ता आययकन्नाययं उसुं करेति, आ० २ करेता उहं वेहासं उविहर से नूणं मागंदियपुत्ता तस्स उसुस्स उई ११. [प्र०] हे भगवन् ! *विस्रसाबंध केटला प्रकारनो कयो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र! ते वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ विवसामन्ध. प्रमाणे-"सादि विस्त्रसाबन्ध भने अनादि विस्रसाबन्ध, १२. [प्र०] हे भगवन् ! प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ! [उ०] हे मार्कदिकपुत्र! ते वे प्रकारनो कयो छे, ते आ प्रयोगाच. प्रमाणे-शिथिलबन्धनवाळो बन्ध अने गाढबन्धनवाळो बन्ध, १३. [प्र०] हे भगवन् ! भावबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- मावन्यमूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध. १४. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो भावबन्ध कह्यो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र! तेओने ये प्रकारनो भावबन्ध कयो छे, ते आ प्रमाणे-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुघी जाणवू. १५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनो भावबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ? [उ०] हे मार्कदिकपुत्र ! ते बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध. १६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने ज्ञानावरणीय कर्मनो भावबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ! [उ०] हे मार्कदिकपुत्र ! ते वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु, जेम ज्ञानावरणीय संबंधे दंडक कह्यो तेम यावत्-अंतरायकर्म सुधी दंडक कहेवो. १७. [प्र०] हे भगवन् ! जीवे जे पाप कर्म कर्यु छे अने यावत्-हवे पछी करशे, तेमां परस्पर कांइ भेद छे ! [उ०] हे मार्कदिकपुत्र ! हा, तेमां परस्पर भेद छे. प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के, 'जीवे जे पाप कर्म कयं छे अने यावत्-जे पाप कर्म करशे, तेमां परस्पर भेद छे! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! जेम कोइ एक पुरुष धनुषने ग्रहण करी, बाण लेइ अमुक आकारे उभो रही धनुषने कान सुधी खेंची छेवटे ते बाणने आकाशमा उंचे फेंके, तो हे माकंदिकपुत्र ! आकाशमा उंचे फेंकेला ते बाणना कंपनर्मा ११ * विस्रसाबन्ध-वादळा वगेरेनो खाभाविकबन्ध, तेना सादि विनसाबन्ध अने अनादि विनसाबन्ध एबे मेद छे. तेा वादळा वगेरेनो सादि विनसाबन्ध, अने धर्मास्तिकायादिनो परस्पर अनादि विनसाबन्ध, १७ 1 पुरुषे करेला भूत, वर्तमान अने भविष्यकाळना कर्मा तीव्र भन्दादि परिणामना भेदथी भिन्नता होय छे.. जेम कोई पुरुषे आकाशमा उंचे फेंकेला वाणना कंपनमा तेना प्रयत्ननी विशेषताथी मेद होय छ, तेवी रीते कर्ममा पण तीव्र मन्द इत्यादि परिणामनी विशेषताथी विशेषता होय . ८ म. . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक ४. वेहासं उधीढस्स समाणस्स एयति वि णाणतं, जाव-तं तं भावं परिणमति वि णाणत्तं? [उ.] हंता भगवं! एयति वि णाणतं, जाव-परिणमति वि णाणत्तं, से तेणटेणं मागंदियपुत्ता! एवं बुच्चइ-जाव-तं तं भावं परिणमति वि णाणत्वं । १८. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे० १ [उ०] एवं चेव, नवरं जाव-वेमाणियाणं । १९. [प्र०] नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति, तेसि णं भंते ! पोग्गलाणं सेयकालंसि कतिमागं आहारेति, कतिभागं निजरेंति [उ.] मागंदियपुत्ता ! असंखेजइभार्ग आहारेंति, अणंतभागं निजरेंति । २०. [प्र०] चक्किया णं भंते । केह तेसु निजरापोग्गलेसु आसइत्तए वा जाव-तुयट्टित्तए वा? [उ०] णो तिणट्रे समढे, अणाहरणमेयं बुइयं समणाउसो ! एवं जाव वेमाणियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'त्ति । ___ अट्ठारसमे सए तईओ उद्देसो समत्तो । मेद छे? यावत्-तें ते भावे परिणमे छे तेमां भेद छे ? [उ०] हे भगवन् ! हा, तेना कंपनमा अने यावत्-तेना ते ते खरूपना परिणा ममा पण मेद छे. तो हे माकंदिकपुत्र ! ते कारणथी एम कही शकाय छे के, "यावत्-ते कर्मना ते ते रूपादि परिणाममां पण मेद छे'. नैरविकादिना क- १८. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोए जे पाप कर्म कर्यु छे अने यावत्-जे करशे, ते पाप कर्ममां काइ मेद छे ? [उ०] हे माकंर्मबन्धमा भिन्नता. दिकपुत्र! हा भेद छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. आहाररूपे ग्रहण क १९. [प्र०] हे भगवन् । नैरयिको जे पुद्गलोने आहारपणे ग्रहण करे छे, भविष्य काळमां ते पुद्गलोनो केटलामो भाग आहार रूपे गृहीत थाय छे अने केटलामो भाग निर्जरे छे-त्यजे छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! आहार ग्रहण करेला पुद्गलोनो असंख्यातमो लामो भाग गृहीत थाय अने केटलामो भाग आहाररूपे गृहीत थाय छे, अने अनंतमो भाग निर्जरे छे. भाग त्याज्य थाय ? निर्जराना पुद्गलो २०. [प्र०] हे भगवन् । ए निर्जराना पुद्गलो उपर बेसवाने यावत्-सूवाने कोइ पुरुष समर्थ छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! ए उपर शयनादि अर्थ समर्थ नथी. हे आयुष्मन् ! श्रमण | ए निर्जराना पुद्गलो अनाधार रूप कहेलां छे. तेओ कांई पण धारण करवाने समर्थ नथी, एम थई शके! कयुं छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. अढारमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. चउत्थो उद्देसो. १. [प्र० तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव-भगवं गोयमे एवं वयासी-अह भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए, जाव-मिच्छादसणसल्ले, पाणाइवायवेरमणे, मुसावाय० जाव-मिच्छादसणसल्लवेरमणे, पुढविक्काइए, जाव-वणस्सइकाइए, धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवे असरीरपडिबद्धे, परमाणुपोग्गले, सेलेसिं पडिवनए अणगारे, सवे य बायरबोंदिधरा कलेवरा पए णं दुविहा जीवदवा य अजीवधा य जीवाणं परिभोगत्ताए हमागच्छंति ? [उ.] गोयमा! पाणाइवाए जाव-एए णं दुविहा जीवदधा य अजीवदया य अत्थेगतिया जीवाणं परिभोगत्ताए धमागच्छंति, अत्थेगतिया जीवाणं जाव-नो हदमागच्छंति । [प्र.म.से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पाणाइवाए जाव-नो हषमागच्छंति ? चतुर्थ उद्देशक. प्राणातिपातादि १. [प्र०] ते काळे, ते समये राजगृहमां यावत्-भगवान् गौतमे आ प्रमाणे कडं के हे भगवन् ! *प्राणातिपात, मृषावाद, यावत्-मिथ्यादभावना परिभोगमा र्शनशल्य, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण यावत्-मिध्यादर्शनशल्यविवेक, पृथिवीकायिक, यावत्-वनस्पतिकायिक, धर्मास्तिकाय, अधया छे के नहि ! र्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीररहित जीव, परमाणुपुद्गल, शैिलेशीने प्राप्त थयेलो अनगार, अने स्थूलाकारवाळा बधा कलेवरो-बेइंद्रियादि जीवो ए बधा मळीने बे प्रकारना छे, तेमांना केटलाक जीवद्रव्यरूप छे अने केटलाक अजीवद्रव्यरूप छे. तो हे भगवन् ! शुं ए बधा जीवना परिभोगमा आवे छे ? [उ०] हे गौतम ! प्राणातिपात वगेरे जीवद्रव्यरूप अने अजीवद्रव्यरूप छे, तेमांना केटलाक, जीवना परिभोगमां आवे शुद्ध खभावरूप जी उदयमां आवे हे १* प्राणातिपात वगेरे बधा सामान्यरूपे बे प्रकारना छे, पण तेमांना प्रत्येकना बे प्रकार नथी, तेमां पृथिवीकायिकादि जीव द्रव्यरूप छे, अने धर्मास्तिकायादि अजीवद्रव्यरूप छे. प्राणातिपातादि अशुद्ध खभावरूप अने प्राणातिपातविरमणादि शुद्ध स्वभावरूप जीवना धर्मो छे, तेथी ते जीवरूप कही शकाय. ज्यारे जीव प्राणातिपातादि सेवे छे त्यारे चारित्रमोहनीय कर्म उदयमा आवे छे, तेथी प्राणातिपातादि ते द्वारा जीवना परिभोगमां आवे छे. पृथिवीकायिकादिनो परिभोग गमन शौचादि द्वारा स्पष्ट छे. प्राणातिपातविरमणादि जीवना शुद्ध खभावरूप होवाथी चारित्र मोहनीयकर्मोदयना हेतुरूप थता नथी, माटे ते जीवना परिभोगमा आवता नथी. धर्मास्तिकायादि चार द्रव्यो अमूर्त होवाथी, परमाणु सूक्ष्म होवाथी अने शैलेशीने प्राप्त थयेल साधु उपदेश वगेरे द्वारा प्रेरणादि न करता होवाथी अनुपयोगी छे, तेथी ते जीवना परिभोगमा आवता नथी. 1 मोक्ष गमन समये मेरुपर्वतना जेनी योगनी अत्यंत स्थिरतारूम आत्मानी अवस्थाने शैलेशी कहे छे. रा स्पष्ट छे. प्राणा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. उ०] गोयमा! पाणाइवाए, जाव-मिच्छादंसणसल्ले, पुढविकाइए, जाव-वणस्सइकाइए, सवे य बायरबोंदिधरा कलेवरा एए णं दुविहा जीवदया य अजीवदया य जीवाणं परिभोगत्ताए हषमागच्छंति । पाणाइवायवेरमणे, जाव-मिच्छादसणसल्लवि. वेगे, धम्मत्यिकाए, अधम्मत्थिकाए, जाव-परमाणुपोग्गले, सेलेसी(सिं) पडिवन्नए अणगारे एए णं दुविहा जीवदया य अजीवदधा य जीवाणं परिभोगत्ताए नो हच्चमागच्छन्ति, से तेण?णं जाव-नो हष्टमागच्छति । २. [प्र०] कति णं भंते ! कसाया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि कसायां पन्नत्ता, तं जहा-कसायपदं निरवसेसं माणियचं जाव-निजरिस्संति लोभेणं'। . ३. [प्र०] कति णं भंते ! जुम्मा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा-१ कडजुम्मे, २ तेयोगे; ३ दावरजुम्मे, ४ कलिओगे। [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव-कलियोए ? [उ०] गोयमा! जे णं रासी चउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउप्रजवसिए सेत्तं कडजुम्मे । जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपञ्जवसिए सेतं तेयोए । जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं दावरजुम्मे । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए सेत्तं कलिओगे। से तेणट्टेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-जाव-कलिओए। ४. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं कडजुम्मा, तेयोगा, दावरजुम्मा, कलियोगा ४ ? [उ०] गोयमा ! जहन्नपदे कडजुम्मा, उक्कोसपदे तेयोगा, अजहन्नुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा । एवं जाव-थणियकुमारा। ५. [प्र०] वणस्सइकाइयाणं पुच्छा। उ०] गोयमा! जहन्नपदे अपदा, उक्कोसपदे य अपदा, अजहन्नुकोसपदे सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा। छे अने केटलाक परिभोगमा नथी आवता. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, 'प्राणातिपात वगेरे यावत्-केटलाक जीवना परिभोगमां आवे छे अने केटलाक जीवना परिभोगमा नथी आवता' ! [उ०] हे गौतम ! प्राणातिपात, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य, पृथिवीकायिक, यावत्-वनस्पतिकायिक अने बधा स्थूलाकारवाळा कलेवरधारी बेइंद्रियादिजीवो-ए बधा मळीने जीवद्रव्यरूप अने अजीवद्रव्यरूप बे प्रकारना छे, अने ते बधा जीवना परिभोगमा आवे छे. वळी प्राणातिपातविरमण, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य त्याग, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत्-परमाणुपुद्गल, तथा शैलेशी प्राप्त अनगार, ए बधा मळीने जीवद्रव्यरूप अने अजीवद्रव्यरूप बे प्रकारना छे, ते जीवना परिभोगमा आवता नथी. ते कारणथी एम का छे के, कोइ द्रव्यो परिभोगमा आवे छे अने कोइ द्रव्यो परिभोगमा पावतां नथी'. कपाव. २. [प्र०] हे भगवन् ! कषाय केटला कह्या छे । [उ०] हे गौतम ! चार कषायो कह्या छे. अहिं समग्र *कषायपद यावत्लोभना वेदन वडे ( आठकर्मप्रकृतिओनी) निर्जरा करशे'-त्यां सुधी कहे. ३.प्र०] हे भगवन् ! केटला युग्मो-राशिओ कह्यां छे, [उ०] हे गौतम ! चार युग्मो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-१ कृतयुग्म, कृतयुग्मादि चार २ योज, ३ द्वापरयुग्म ४ अने कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्म यावत्-कल्योज, एम चार राशिओ कहेवानुं शुं कारण राशिमो. उ० हे गौतम! जे राशिमांथी चार चार काढता छेवटे चार बाकी रहे ते राशि कृतयुग्म. जे राशिमांथी चार चार काढतां छेवटे त्रण बाकी रहे ते राशि त्र्योज. जेमाथी चार चार काढतां छेवटे बे बाकी रहे ते राशिने द्वापरयुग्म कहे छे, अने जे राशिमाथी चार चार काढतां एक बाकी रहे ते राशिने कल्योज कहे छे. ते माटे हे गौतम! यावत्-कल्योज राशि कहेवामां आवे छे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको कृतयुग्मराशिरूप छे, त्र्योज छे, द्वापरयुग्म छे के कल्योजरूप छे ! उ० हे गौतम! नैरयिकादि दंडकने आश्रयी कृतयुग्मातेओ जघन्यपदे कृतयुग्म छे अने उत्कृष्टपदे त्र्योज छे. तथा अजघन्योत्कृष्टपदे--मध्यमपदे कदाच कृतयुग्मरूप होय, यावत्-कदाच कल्यो दिवं अवतरण जरूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुची जाणq. ५. [प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिको संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ जघन्यपद अने. उत्कृष्टपदनी अपेक्षाए अपद छे. अर्थात् तेमां जिघन्य पद अने उत्कृष्ट पदनो संभव नथी. पण मध्यम पदनी अपेक्षाए कदाच कृतयुग्म अने यावत्-कदाच कल्योजरूप होय छे. २* जुओ कषायपद प्रज्ञा०प० २८९-२९२. ५ 1 जघन्यपद अने उत्कृष्टपद नियत संख्यारूप छे अने ते नैरयिकादिने विषे काळान्तरे पण घटी शके छे, पण वनस्पतिने विषे घटी शकतुं नथी. कारण के जेटला जीवोनो मोक्ष थाय छे तेटला जीवो अनन्त राशि छतां पण छेवटे तेमांथी घटवाथी वे राशि अनियत खरूपे होय छे.. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक .. ६.प्र०ा बेइंदिया णं पुच्छा।[उ०] गोयमा। जहन्नपदे कडजुम्मा, उकोसपदे दावरजुम्मा, अजहन्नमणुकोसपदे रियं फडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा । एवं जाव-चतुरिंदिया । सेसा एगिदिया जहा बेंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव-वेमाणिया जहा नेरइया । सिद्धा जहा वणस्सइकाइया। ७.प्र०] इत्थीओ णं भंते ! किं कडजुम्मा० [उ०] गोयमा! जहन्नपदे कडजुम्माओ, उक्कोसपदे कडजुम्माभो, अजहन्नमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्माओ, जाव-सिय कलियोगाओ, एवं असुरकुमारित्थीओ वि जाव-थणियकुमारइत्थीयो। एवं तिरिक्खजोणियइत्थीओ, एवं मणुसित्थीओ, एवं जाव-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियदेवित्थीओ। ८. प्रा जावतिया णं भंते ! वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीवा ? [उ०] हंता गोयमा ! जावतिया वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीवा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।। अट्ठारसमे सए चउत्थो उद्देसो समतो। ६. [प्र०] हे भगवन् ! बेइंद्रियो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्यपदनी अपेक्षाए कृतयुग्म अने उत्कृष्टपदे द्वापरयुग्म, मध्यमपदे कदाच कृतयुग्म अने उत्कृष्टपदे द्वापरयुग्म तथा मध्यमपदे कदाच कृतयुग्म अने यावत्-कदाच कल्योजरूप होय. ए प्रमाणे यावत्-चरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवु. बाकीना एकेंद्रियो, बेइंदियोनी पेठे जाणवा. पंचेंद्रियतियंचो अने यावत्-वैमानिको नैरयिकोनी पेठे समजवा. अने *सिद्धो वनस्पतिकायिकोनी पेठे जाणवा. ७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं स्त्रीओ कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ जघन्यपदे कृतयुग्म छे, उत्कृष्टपदे पण कृतयुग्म छे, अने मध्यम पदे कदाच कृतयुग्म अने कदाच कल्योजरूप होय छे. ए प्रमाणे असुरकुमारनी यावत्-स्तनितकुमारनी स्त्रीओ होय छे. तियंचयोनिकस्त्रीओ, मनुष्यस्त्रीओ यावत्-वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकदेवनी स्त्रीओ पण एमज जाणवी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! जेटला अल्प आयुषवाळा अिंधक वह्निजीवो छे तेटला उत्कृष्ट आयुषवाला अंधक वहि जीवो छ । [उ०] हे गौतम ! हा, जेटला अल्प आयुषवाळा अंधक वहि जीवो छे तेटला उत्कृष्ट आयुषवाळा अंधक वह्नि जीवो छे. हे 'भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. अढारमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो. १. [प्र०] दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना, तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिरूवे, एगे असुरकुमारे देवे से गं नो पासादीए-नो दरिसणिज्जे, नो अभिरुवे नो पडिरूवे, से कहमेयं भंते ! एवं ? [उ०] गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-घेउधियसरीरा य अपेडबियसरीरा य; तत्थ गंजे से वेउवियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए, नाव-पडिरूवे, तत्थ णं जे से अवेउधियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए जाव-नो पडिरूवे [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-तत्थ गंजे से उचियसरीरे तं चेव जाव-पडिरूवे ? [उ०] गोयमा ! से जहानामए-इह मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे अलंकिय-विभू भयूषित असुरकु- मार नगेरे देवो. पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! एक असुरकुमारावासमां वे असुरकुमारो असुरकुमारदेवपणे उत्पन्न थया. तेमांनो एक असुरकुमार देव प्रसलता उत्पन्न करनार, दर्शनीय, सुंदर अने मनोहर छे, अने बीजो असुरकुमार देव प्रसन्नता उत्पन्न करनार, दर्शनीय, सुंदर अने मनोहर नथी, तो हे भगवन् ! एम होवानुं शुं कारण ! [उ०] हे गौतम ! असुरकुमार देवो वे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-वैक्रिय-विभूषित शरीरवाळा अने अवैक्रिय-अविभूषितशरीरवाळा. तेमां जे असुरकुमार देव विभूषित शरीरवाळो छे ते प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने मनोहर छे, अने जे असुरकुमार देव अविभूषित शरीरवाळो छे ते प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने मनोहर. नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शा * सिद्धोमां वनस्पतिकायिकोनी पेठे जघन्य अने उत्कृष्ट पद नथी, कारण के तेभोनी संख्या वधती जती होवाथी तेओ अनियत परिमाण रूपे होय छे. 41 टीकाकार 'अंधक-अंहिप, वृक्ष; तेने आश्रयी रहेलो वहि-बादर अग्निकायिक जीयो' आवो अर्थ करें छे, वीजा आचार्यो 'अन्धक-सूक्ष्मनामकर्मना उदयथी अप्रकाशक-प्रकाश नहि करनार अग्नि, अर्थात् सूक्ष्मअग्निकायिक जीवो' आवो अर्थ करे छे. ११ देवशय्यामा प्रथम, देव खाभाविक-अरंकार वगेरे विभूषा रहित उपजे छ, त्यार पछी अनुक्रमे अलंकार पहेरी विभूषित थाय छे. . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, सिए, एगे पुरिसे अणलंकियविभूसिए, एएसिणं गोयमा! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासादीए, जाव-पडिरूवे, कयरे पुरिसे नो पासादीए, जाव-नो पडिरूवे, जे वा से पुरिसे अलंकियविभूसिए, जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए ? भगवं! तत्थ जे से पुरिसे अलंकियविभूसिए से णं पुरिसे पासादीए, जाव-पडिरूवे, तत्थ पंजे से पुरिसे अणलंकियविभूसिए से णं पुरिसे नो पासादीए, जाव-नो पडिरूवे, से तेणटेणं जाव-नो पडिरूवे । २. [प्र०] दो भंते! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि०१ [उ०] एवं चेव जाव-थणियकुमारा। वाणमंतरजोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव । ३.प्र. दो भंते । नेरतिया पगंसि नेरतियावासंसि नेरतियत्ताए उववन्ना, तत्थ णं एगे नेरइए महाकम्मतराए चेव जाव-महावेयणतराए चेव, एगे नेरइए अप्पकम्मतराए चेव, जाव-अप्पवेयणतराए चेव; से कहमेयं भंते! एवं? 3०1 गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-मायिमिच्छदिट्टिउववनगा य अमायिसम्मदिट्ठिउववनगा य । तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिट्रिउववनए नेरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव-महावेयणतराए चेव, तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिदिउववनए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव-अप्पवेयणतराए चेव । ४. [प्र०] दो भंते ! असुरकुमारा० [उ०] एवं चेव, एवं पगिदिय-विगलिंदियवजं जाव-वेमाणिया । ५.प्र. नेरइएणं भंते! अणंतरं उघट्टित्ता जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिपसु उववजित्तए से णं भंते। कयर आउयं पडिसंवेदेति ? [उ.1 गोयमा! नेरच्याउयं पडिसंवेदेति, पंचिदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठति, एवं मणुस्सेसु वि, नवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ । ६. [प्र०] असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए-पुच्छा । [उ०] असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेति, पुढविकाइयाउए से पुरओ कडे चिट्ठा, एवं जो जहि भविओ उववजित्तए तस्स तं पुरओ कडं कारणथी एम कहो छो के अलंकृत-विभूषित शरीरवाळो असुरकुमार देव यावत्-मनोहर छे अने बीजो असुरकुमार देव मनोहर नयी ! [उ०] हे गौतम ! 'आ मनुष्यलोकमा जेम कोइ बे पुरुषो होय, तेमां एक पुरुष आभूषणोथी अलंकृत अने विभूषित होय अने एक पुरुष अलंकृत अने विभूषित न होय. हे गौतम ! ए बन्ने पुरुषोमां कयो पुरुष प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने मनोहर होय अने कयो पुरुष अप्रसन्नता करनार यावत्-अमनोहर होय, जे पुरुष अलंकृत विभूषित होय ते के जे पुरुष अलंकृत विभूषित होतो नथी ते ! हे भगवन् ! तेमा जे पुरुष अलंकृत विभूषित होय छे ते पुरुष प्रासादीय यावत्-मनोहर छे अने जे पुरुष अलंकृत विभूषित नथी होतो ते पुरुष प्रासादीय यावत्-मनोहर नथी. ते माटे हे गौतम ! ते असुरकुमार यावत्-मनोहर नथी. २.प्र०] हे भगवन् ! बे नागकुमारदेवो एक नागकुमारावासमा नागकुमार देवपणे उत्पन्न थया-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व नागकुमार. प्रमाणे समजq. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. व्यानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबंधे पण एज प्रमाणे जाणवू. .. ३. प्र०] हे भगवन् ! एक नरकावासमां बे नैरयिको नैरयिकपणे उत्पन्न थाय, तेमांनो एक नैरयिक महाकर्मवाळो यावत्- अल्पकर्मवाळा अने महावेदनावाळो होय, अने एक नैरयिक अल्प कर्मवाळो यावत्-अल्पवेदनावाळो होय तो हे भगवन् ! एम केवी रीते होय ! [उ०] हे महाकर्मवाला नैर गौतम ! नैरयिको बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न थयेला अने अमायिसम्यग्दृष्टि उत्पन्न थयेला. तेमां जे मायिमिथ्यादृष्टि उत्पन्न थयेला नैरयिको छे, तेओ महाकर्मवाळा, यावत्-महावेदनावाळा होय छे अने जे अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न थयेला नैरयिको छे तेओ अल्पकर्मवाळा, यावत्-अल्पवेदनावाळा होय छे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! बे असुरकुमारो संबंधे प्रश्न. [उ०] ए प्रमाणे समजवू. एम एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय सिवाय यावत्वैमानिको सुधी जाणवू. ५. [प्र०] हे भगवन् ! जे नैरयिक मरीने तुरत ज पछीना समये पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते कया नैरयिकने भरणस आयुषनो अनुभव करे? [उ०] हे गौतम ! ते नैरयिक आयुषनो अनुभव करे छे, अने पंचेंद्रियतियंचयोनिकर्नु आयुष आगळ करे छे परभवना आयुषनो उदयाभिमुख करे छे. ए प्रमाणे मनुष्य विषे पण समजवं. विशेष ए के, ते मनुष्य- आयुष उदयाभिमुख करे छे. अनुभव होय? ६. [प्र०] हे भगवन् ! जे असुरकुमार मरीने पछीना समये तुरत ज पृथिवीकायिक जीवोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि प्रश्न- [उ०] हे गौतम! ते असुरकुमारना आयुषनो अनुभव करे छे अने पृथिवीकायिकर्नु आयुष उदयाभिमुख करे छे. एम जे जीव ..४ * एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रिय मायी मिथ्यादृष्टि होय छे, पण अमायी सम्यग्दृष्टि होता नथी माटे तेओमांना एकमां सम्यग्दर्शन साक्षेप अल्पकर्मता भने एकमां मिथ्यादर्शन साक्षेप महाकर्मता घटती नथी पण वधामां महाकर्मताज होय छे. तेथी 'एकेन्द्रियादि सिवाय' कहुं छे. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक चिट्ठति, जत्थ ठिओ तं पडिसंवेदेति, जाव-वैमाणिए, नवरं पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववजति, पुढविकाइयाउयं संवेएति, अन्ने य से पुढविक्काइयाउए पुरओ कडे चिट्ठति, एवं जाव-मणुस्सो सट्टाणे उववाएअधो, परहाणे तहेव । ___७. [प्र०] दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना, तत्य णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जयं विउविस्सामीति उजयं विउच्वइ, वंक विउचिस्सामीति वकं विउच्चइ, जं जहा इच्छह तं तहा विउच्चइ, एगे असुरकुमारे देवे उजुयं विउविस्सामीति वंकं विउष्वइ, वंकं विउविस्सामीति उजुयं विउच्चइ, जं जहा इच्छति णो तं तहा विउष्वइ, से कहमेयं भंते ! एवं ? [30] गोयमा! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-मायिमिच्छदिट्टिउववनगा य अमायिसम्मट्ठिीउववनगा य । तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिट्टिउववन्नए असुरकुमारे देवे से गं उज्जयं विउविस्सामीति वंकं विउधति, जाव-णो तं तहा विउधर, तत्थ ण जे से अमायिसम्मदिविउववन्नए असुरकुमारे देवे से उज्जयं विउविस्सा. मीति जाव-तं तहा विउच्चइ । ८. [प्र०] दो भंते ! नागकुमारा० १ [उ०] एवं चेव । एवं जाव-थणियकुमारा । वाणमंतर-जोइसिय-घेमाणिया एवं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेति । __ अट्ठारसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो । ज्या उत्पन्न थवाने योग्य छे, तेनुं आयुष उदयाभिमुख करे छे अने ज्यां रहेलो छे तेनुं आयुष अनुभवे छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. विशेष ए के, जे पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिकमां ज उत्पन्न थवाने योग्य छे ते पृथिवीकायिकनुं आयुष अनुभवे छे अने बीजुं पृथिवीकायिक- आयुष उदयाभिमुख करे छे. एम यावत्-मनुष्यो सुघी खस्थानमा उत्पाद संबंधे कहे. परस्थानमा उत्पाद संबंधे पण पूर्व प्रकारे कहेQ. ७. [प्र०] हे भगवन् ! एक असुरकुमारावासमां बे असुरकुमारो असुरकुमारदेवपणे उत्पन्न थाय, तेमांथी एक असुरकुमारदेव ऋजुसरल रूप विकुर्ववा धारे तो ते ऋजु विकुर्वी शके छे अने वांकुं रूप विकुर्ववा धारे तो ते वाकुं विकुर्वी शके छे; जेवा प्रकारचें अने जेवू रूप विकुर्ववा इच्छे तेवा प्रकारनुं तेवू रूप विकुर्वे छे. अने एक असुरकुमारदेव ऋजु विकुर्ववा धारे तो ते वाकुं रूप विकुर्वी शके छे भने जो वाकुं रूप विकुर्ववा धारे तो ते ऋजुरूप विकुर्वी शके छे. जे प्रकारे अने जेवा रूपने विकुवा इच्छे तेवा प्रकारे अने तेवू रूप विकुर्वी शकतो नथी; तो हे भगवन् । तेनुं शुं कारण ! [उ०] हे गौतम ! असुरकुमारदेवो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न थयेला अने अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न थयेला. तेमा जे "मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न थयेलो असुरकुमार देव छे ते ऋजुरूप विकुर्ववा धारे तो वांकुं करे छे, यावत्-जेवं रूप विकुर्ववा धारे छे तेवु रूप विकुर्वी शकतो नथी. अने जे अमायी सम्यग्दृष्टि असुरकुमार छे ते ऋजुरूप विकुर्ववा धारे तो ते तेवू रूप यावत्-विकुर्वी शके छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! बे नागकुमारो-इत्यादि प्रश्न अने उत्तर पूर्व प्रमाणे जाणवा. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको संबंधे पण एमज जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे'. अढारमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. देवोनी इष्ट अने अनिष्ट विकुर्वणा. छट्ठओ उद्देसो. १. [प्र०] फाणियगुले गं भंते ! कतिवन्ने, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा! एत्थ णं दो नया भवंति, तं जहा-निच्छइयनए य वावहारियनए य । वावहारियनयस्स गोई फाणियगुले, नेच्छाइयनयस्स पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे अट्टफासे पन्नत्ते। षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन्! फाणित-प्रवाही गोळ केटला वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळो होय छे! उ०] हे गौतम ! अहिं नैश्वयिक अने व्यावहारिक ए बे नयो विवक्षित छे, व्यावहारिक नयनी अपेक्षाए फाणित गोळ मधुर रसवाळो (गळ्यो) कह्यो छे, अने नैश्वयिक नयनी अपेक्षाए पांच वर्ण, वे गंध, पांच रस अने आठ स्पर्शवाळो छे. गोळ वगेरे वादरस्कन्धना वर्णादि. • केटलाक देवो पोतानी इच्छा प्रमाणे ऋजु के वक रूपो विकुर्वी शके छे अने केटलाक देवो पोतानी इच्छा मुजब रूपो विकुर्वी शकता नथी, तेनुं कारण क्रमशः आर्जवता अने सम्यग्दर्शननिमित्तक बांधेलु तीव्र रसवालु वैकियनाम कर्म अने मायामिथ्यादर्शननिमित्तक बांधेलु मन्दरसवाळू वैक्रियनाम कर्म छे. तेथी एम कयुं छे के अमायी सम्यग्दृष्टि देवो इच्छा मुजव रूपो विकुर्वी शके छे, अने मायी मिथ्यादृष्टि देव इच्छा मुजब विकुर्वी शकतो नथी, पण इच्छाविरुद्ध रूपो विकुर्वे छे. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक ६ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २. [प्र०] भमरे णं भते ! कतिवन्ने०-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! एत्य णं दो नया भवंति, तं जहा-निच्छश्यनए य यावहारियनए य । वावहारियनयस्स कालए भमरे, नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने, जाव-अट्टफासे पन्नत्ते। ३.प्र०] सुयपिच्छे णं भंते! कतिवन्ने०१ [उ०] एवं चेव, नवरं वावहारियनयस्स नीलए सुयपिच्छे, नेच्छायनयस्स पंचवण्णे, सेसं तं चेव । एवं एएणं अभिलावणं लोहिया मंजिट्ठिया, पीतिया हालिहा, सुकिल्लए संख्ने, सुन्भिगंधे कोटे, दुन्भिगंधे मयगसरीरे, तित्ते निवे, कडुया सुंठी, कसाए कविटे, अंबा अंविलिया, महुरे खंडे, फक्खडे वारे, मउए नवणीए, गरुप अप, लहुए उलुयपत्ते, सीए हिमे, उसिणे अगणिकाए, णिद्धे तेले। ४. [प्र०] छारिया णं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! एत्थ दो नया भयंति, तं जद्दा-निच्छइयनए य ववहारियनए य, ववहारियनयस्स लुक्खा छारिया, नेच्छइयनयस्स पंचवन्ना, जाव-अट्ठफासा पन्नत्ता । ५. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवन्ने, जाव-कतिफासे पन्नते ? [उ०] गोयमा ! एगवने, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पन्नत्ते। ६. [प्र०] दुपएसिए णं मंते ! खंधे कतिवन्ने-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय एगवन्ने, सिय दुवघ्ने, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, सिय दुरसे, सिय दुफासे, सिय तिफासे, सिय चउफासे पन्नत्ते । एवं तिपएसिप वि, नवरं सिय एगवन्ने, सिय दुवन्ने, सिय तिवन्ने । एवं रसेसु वि, सेसं जहा दुपएसियस्स । एवं चउपएसिए वि, नवरं सिय एगबन्ने, जाव-सिय चउवन्ने । एवं रसेसु वि, सेसं तं चेव । एवं पंचपएसिए वि, नवरं सिय एगवन्ने, जाव-सिय पंचवन्ने, एवं रसेसु वि, गंधफासा तहेव । जहा पंचपएसिओ एवं जाव-असंखेजपएसिओ। ७. [प्र०] सुहुमपरिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने ? [उ०] जहा पंचपएसिए तहेव निरवसेसं । २. [प्र०] हे भगवन् ! भ्रमर केटला वर्णवाळो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अहिं व्यावहारिक अने नैश्चयिक ए बे नयो अमरना वर्णादि. छे, व्यावहारिकनयनी दृष्टिथी भ्रमर काळो छे, अने नैश्चयिकनयनी दृष्टिधी भ्रमर पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस अने आठ स्पर्शवाळो छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! पोपटनी पांख केटला वर्णवाळी छे-इत्यादि प्रश्न अने उत्तर पूर्व प्रमाणे जाणवो. परन्तु व्यावहारिक पोपटनी पसिना नयनी अपेक्षाए पोपंटनी पांख लीली छे अने नैश्चयिक नयनी अपेक्षाए पांच वर्णवाळी-इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवी. एम ए पाठ वर्णादि. घडे राती मजीठ, पिळी हळदर, धोळो शंख, सुगंधी कुष्ठ–पटवास, दुर्गधी मडहूँ, तिक्त-कडवो लीमडो, कटुक तीखी सुंठ, तुरुं कोठं, खाटी आमली, मधुर-गळी खांड, कर्कश वज्र, मृदु-मुंवाळु माखण, भारे लोढुं, हळवं उलुकपत्र-बोरडी- पादहूं, ठंडो हिम, उष्ण अग्निकाय, अने स्निग्ध तेल विषे पण जाणq. ४. [प्र०] हे भगवन्! राख केटला वर्णवाळी होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अहिं नैश्चयिक अने व्यावहारिक ए बे नयो छे, तेमां व्यावहारिक नयनी अपेक्षाए राख लुखी-रुक्षस्पर्शवाळी छे, अने निश्चयनयनी अपेक्षाए राख पांच वर्णवाळी, यावत्-आठ स्पर्शवाळी छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल केटला वर्णवाळो, यावत्-केटला स्पर्शवाळो होय छे ? [उ०] हे गौतम ! एकवर्णवाळो, परमाणुना वर्णादि. एफगंधवाळो, एकरसवाळो अने बे स्पर्शवाळो होय छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कदाच एक वर्णवाळो, कदाच बे दिप्रदेशिक स्कन्ध. वर्णवाळो, कदाच एक गंधवाळो कदाच वे गंधवाळो, कदाच एक रसवाळो कदाच बे रसवाळो, अने कदाच बे स्पर्शवाळो, कदाच त्रण स्पर्शवाळो, अने कदाच चार स्पर्शवाळो पण होय छे. ए प्रमाणे त्रिप्रदेशिक स्कंध पण जाणवो, विशेष ए के ते कदाच एक वर्णवाळो, त्रिप्रदेशिकादि कदाच बे वर्णवाळो अने कदाच त्रण वर्णवाळो होय, एम रससंबंधे पण ए प्रमाणे यावत्-त्रण रसवाळो होय. बाकी बधुं द्विप्रदेशिक स्कन्धो. स्कंधनी पेठे जाणवू. एम चतुष्प्रदेशिक स्कंध विषे पण जाणवू. विशेष ए के, ते कदाच एक वर्णवाळो, यावत्-कदाच चार वर्णवाळो पण होय. रंस संबंधे पण एम ज जाणवु. अने बाकी बधुं पूर्वोक्त रीते समजवू. ए रीते पंचप्रदेशिक स्कंधने विषे पण समजवु. विशेष ए के, ते कदाच एक वर्णवाळो, यावत्-कदाच पांच वर्णवाळो पण होय, ए प्रमाणे रसने विषे पण जाणवं. गंध अने स्पर्श पूर्ववत् जाणवा. जेम पंचप्रदेशिक स्कंध संबंधे कयुं, तेम यावत्-असंख्यातप्रदेशिक स्कंध संबंधे पण कहे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मपरिणामवाळो अनंतप्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो होय-इत्यादि प्रश्न. [उ.] पंचप्रदेशिक स्कं- अनन्तप्रदेशिक धनी पेठे बधुं कहेवू Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक ७. ८. [प्र.] बादरपरिणए गं भंते! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सिय एगधने, जाव-सिय पंचवने, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, जाव-सिय पंचरसे, सिय चउफासे, जाव-सिय मट्टफांसे पाते। 'सेवं भंते ! सेवं भंते चि। अद्वारसमे सए छट्ठओ उद्देसो समत्तो। ८. [प्र०]-हे भगवन् ! बादर-स्थूलपरिणामवाळो अनंतप्रदेशिकस्कंध, केटला वर्णवाळो होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कदाच एक वर्णवाळो, यावत्-कदाच पांच वर्णवाळो, कदाच एक गंधवाळो, कदाच वे गंधवाळो, कदाच एक रसवाळो, यावत्कदाच पांच रसवाळो अने कदाच चार स्पर्शवाळो, कदाच पांच स्पर्शवाळो, यावत्-कदा च आठ स्पर्शवाळो पण होय. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. अढारमा शतकमां षष्ठ उद्देशक समाप्त. सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाघ-एवं वयासी-अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, जाप-परूवेंति-'एवं खलु केवली जफ्ताएसेणं आतिट्टे समाणे आहश्च दो भासाओ भासति, तं जहा-मोसं वा, सच्चामोसं वा, से कहमेयं भंते ! एवं [उ.] गोयमा! जणं ते अन्नउत्थिया जाव-जे ते पवमासु मिच्छं ते एवमाहंसुः अहं पुण गोयमा! एषमाइक्वामि ४-नो खलु केवली जपखाएसेणं आइस्सति, नो खलु केवली जक्खाएसेणं आतिढे समाणे आहष्य दो भासाओ भासति, तं जहा-मोसं वा सच्चामोसं वा, केवली णं असावजाओ अपरोवघाइयाओ आहच्च दो भासाओ भासति, तं जहा-सचं वा असञ्चामोसं था। २. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! उवही पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा-कम्मोवही, सरीरोवही, बाहिरभंडमत्तोवगरणोवही। ३. [प्र०] नेरदयाणं भंते !-पुच्छा। [उ०] गोयमा! दुविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा-कम्मोवही य सरीरोषही य, सेसाणं तिविहे उवही एगिदियवजाणं जाव-वेमाणियाणं। एगिदियाणं दुविहे उवही पक्षते, तं जहा-कम्मोवही य सरीरोवही य । ४. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! उवही पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! तिविहे उवही पनत्ते, तंजहा-सञ्चित्ते, अचित्ते, मीसए, एवं नेरायाण वि, एवं निरवसेसं नाव-वेमाणियाणं । सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! अन्यतीथिको आ प्रमाणे कहे छे, यावत्प्ररूपे छे के, ए प्रमाणे खरेखर केवली यक्षना आवेशथी आविष्ट थईने कदाच बे भाषा बोले छे, ते आ प्रमाणे-मृषाभाषा अने सत्यमृषा-मिश्र भाषा.' तो हे भगवन् ! ए प्रमाणे केम होइ शके ! [उ०] हे गौतम ! जे अन्यतीर्थिकोए यावत्-एम जे कयुं छे, तेओए ते असत्य कयुं छे. हे गौतम ! हुं एम कहुं छु, यावत्-प्ररूपे छु के, ए प्रमाणे खरेखर केवलज्ञानी यक्षना आवेशथी आविष्ट थता नथी, अने यक्षना आवेशथी आविष्ट थईने केवळी बे भाषा-असत्य अने सत्यासत्य-मिश्रभाषा बोलता पण नथी. केवली तो पापव्यापार विनानी अने बीजानो उपघात न करे तेवी बे भाषा कदाच बोले छे. ते बे भाषाओ आ प्रमाणे, सत्य अने असल्यामृषा-सत्य पण नहि अने असत्य पण नहि एवी भाषा. २. [प्र०] हे भगवन् ! उपधि केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! *उपधि त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ कर्मोपधि, २ शरीरोपधि, ३ बाह्यभांडमात्रोपकरणोपधि. ३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो उपधि कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम! तेओने बे प्रकारनो उपधि कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-कर्मरूप उपधि अने शरीररूप उपधि. एकेंद्रिय जीवो सिवाय बधा जीवोने यावत्-वैमानिको सुधी त्रणे प्रकारनो उपधि होय छे. एकेंद्रिय जीवोने कर्मरूप अने शरीररूप एम बे प्रकारनो उपधि होय छे. .. [प्र०] हे भगवन् ! उपधि केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] हे गौतम ! उपधि त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ सचित्त, २ अचित्त अने ३ मिश्र-सचित्ताचित्त. ए प्रमाणे निरयिकोथी मांडी यावत्-वैमानिको सुची (चोवीस दंडकने आश्रयी) त्रणे प्रकारनो उपधि जाणवो. यक्षाविष्ट केवली सस्य के असत्य बोले ते संबन्धे अन्यतीथिंकन उपधिना प्रण प्रकार. उपथिना धीजा श्रण प्रकार २. जीवननिर्वाहमा उपयोगी शरीर वस्त्रादिने उपधि कहे छे, तेना बे प्रकार छ-आन्तर अने बाह्य. कर्म अने शरीर आन्तर उपधि छे अने वनपात्रादि वस्तुओ बाह्य उपधि छे. ४ + नैरयिकोथी मांडी वैमानिक सुधी चोवीसे दंडके त्रणे प्रकारनो उपधि जाणवो. तेमा नारकोने सचित्त उपधि शरीर, अचित्त उपधि उत्पत्तिस्थान अने श्वासोच्छासादि युक्त सचेतनाचेतनरूप मिश्र उपधि कहेवाय ठे-टीका. . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८. - उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. ૧ ५. [०] कतिविहे णं भंते ! परिग्गद्दे पन्नत्ते ? [ उ०] गोयमा ! तिविद्वे परिग्गहे पन्नत्ते, तं जहा -१ कम्मपरिग्गहे, २ सरीरपरिग्गहे, ३ बाहिरगभंडम त्तोवगरणपरिग्गहे । ६. [प्र० ] नेरयाणं भंते 10 [30] एवं जहा उवहिणा दो दंडगा भणिया तहा परिग्गद्देण वि दो दंडगा भाणियचा । ७. [0] कवि णं भंते! पणिहाणे पत्ते ? [30] गोयमा ! तिविहे पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा -मणपणिहाणे, बह पणिहाणे, कायपणिहाणे । ८. [] नेरइयाणं ते! कद्रविहे पणिहाणे पत्ते ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-थणियकुमाराणं । ९. [ प्र० ] पुढविकाइयाणं पुच्छा । [३०] गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पन्नत्ते । एवं जाव - वणस्सइकाइयाणं । १०. [प्र० ] वेइंदियाणं पुच्छा । [30] गोयमा ! दुविहे पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा वहपणिहाणे य कायपणिहाणे य एवं जाव - चउरिंदियाणं, सेसाणं तिविहे वि जाव - वेमाणियाणं । ११. [प्र० ] कतिविहे णं भंते ! दुप्पणिहाणे पत्ते ? [अ०] गोयमा ! तिविहे दुप्पणिहाणे पत्ते, तंजा - मणदुष्पणिहाणे, जहेव पणिहाणेणं दंडगो भणिओ तहेव दुप्पणिहाणेण वि भाणियो । १२. [०] कतिविणं भंते! सुप्पणिहाणे पन्नत्ते ? [ड०] गोयमा ! तिविहे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तंजद्दा- मणसुत्राणिहाणे, वसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे । १३. [प्र० ] मणुस्साणं भंते ! कइविहे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते ? [४०] एवं चेव । ' सेवं भंते! सेवं भंते' ! त्ति जाबविहरति । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव - बहिया जणवयविहारं विहरद्द | ५. [प्र०] हे भगवन् ! *परिग्रह केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! परिग्रह ऋण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ कर्मपरिग्रह, २ शरीरपरिग्रह भने ३ बाह्य वस्त्रपात्रादि उपकरणरूप परिग्रह. ६. [प्र० ] हे भगवन् ! नैरथिकोने केटला प्रकारनो परिग्रह होय छे ! [उ०] जेम उपधिसंबंधे बे दंडक कह्या तेम परिग्रहविषे पण बे दंडक कहेवा. ७. [प्र०] हे भगवन् ! प्रिणिधान केटला प्रकारनुं कह्युं छे ? [30] हे गौतम! प्रणिधान त्रण प्रकारनुं कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे- प्रणिधानना प्रकार. १ मनप्रणिधान, २ वचनप्रणिधान अने ३ कायप्रणिधान. ८. [ प्र० ] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनुं प्रणिधान होय छे ? [उ०] उपर कह्या प्रमाणे जाणवुं. एम यावत् स्तनितकुमारो सुधी समज. ९. [प्र० ] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओने एक कायप्रणिधान होय छे, ए प्रमाणे यावत्वनस्पतिकायिक जीवो सुधी जाणवुं. १०. [ प्र० ] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम । तेओने बे प्रकारनुं प्रणिधान होय छे. ते आ प्रमाणे-वचनप्रणिधान अने कायप्रणिधान. ए प्रमाणे यावत् - चउरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवुं. बाकी बधा जीवोने यावत् - वैमानिको सुधी त्रणे प्रकाप्रणिधान होय छे. ११. [०] हे भगवन् ! दुष्प्रणिधान केटला प्रकारनुं कह्युं छे ! [उ०] हे गौतम! दुष्प्रणिधान त्रण प्रकारनुं कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे - मनदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान भने कायदुष्प्रणिधान, जेम प्रणिधान विषे दंडक कह्यो, तेम दुष्प्रणिधान विषे पण कहेवो. १२. [ प्र० ] हे भगवन् ! सुप्रणिधान केटला प्रकारनुं छे ! [ उ०] हे गौतम! सुप्रणिधान त्रण प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे- मनसुप्रणिधान, वचनंसुप्रणिधान अने काय सुप्रणिधान . १३. [प्र० ] हे भगवन् ! मनुष्योने केटला प्रकारनं सुप्रणिधान होय छे ? [उ० ] त्रणे प्रकारनुं सुप्रणिधान होय छे. अने ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही पूज्य गौतम स्वामी यावत् - विहरे छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीर यावत्-बहारना देशोमां विहरे छे. ५ * उपधि अने परिग्रहमां भेद एटलो छे के जीवन निर्वाहमां उपकारक कर्म, शरीर अने वस्त्रादि उपधि कहेवाय छे अने तेज ममत्वबुद्धिधी गृहीत धाय त्यारे ते परिग्रह कहेवाय छे. टीका. + कोइपण प्रकारना निश्चित आलंबनमां मन, वचन अने काययोगने स्थिर करवा ते प्रणिधान. ९ भ० स० परिग्रहना प्रकार. दुष्प्रणिधान ना प्रकार. सुप्रणिधान. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देश्क ७. १४. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे । गुणसिलए चेइए । वन्नओ। जाव-पुढविसिलापट्टओ । तस्स णं गुणसिलस्स चेयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा-कालोदायी, सेलोदायी, एवं जहा सप्तमसए अन्नउत्थिउद्देसए जाव-से कहमेयं मन्ने एवं ? तत्थ णं रायगिहे नगरे मदुए नाम समणोवासए परिवसति, अढे, जावअपरिभूए, अभिगय जाव-विहरति । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि पुवाणुपुष्विं चरमाणे जाव-समोसढे, परिसा जाव-पजुवासति । तए णं महुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ठतुटु० जाव-हियए हाए जावसरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति, स० २ पडिनिक्खमित्ता पादविहारचारेणं रायगिहं नगरं जाव-निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता तेसिं अन्नउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीयीवयति । तए णं ते अन्नउत्थिया महुयं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीगीवयमाणं पासंति, पासित्ता अन्नमन्नं सद्दाति, अनमन्नं सहावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहः अविउप्पकडा, इमं च णं महुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं वीइवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं मढुयं सम णोवासयं एयमट्ठ पुच्छित्तए'त्ति का अन्नमन्नस्स अंतियं एयमटुं पडिसुर्णेति, अन्नमन्नस्स० २ पडिसुणेत्ता जेणेव महुए समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता महुयं समणोवासयं एवं वदासी १५. एवं खलु मदुया! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे णायपुत्ते पंच अधिकाये पन्नवेइ-जहा सत्तमे सए अन्नउत्थिउद्देसए, जाव-से कहमेयं महुया! एवं? तए णं से महुए समणोवासए ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-'जति कज कजति जाणामो पासामो, अहे कजं न कजति न जाणामो न पासामो'। तए णं ते.अन्नउत्थिया मद्दयं समणोवासयं एवं वयासी-केस गं तुम महुया! समणोवासगाणं भवसि, जे गं तुम एयमटुं न जाणसि न पाससि' ? अन्यतीथिको अने १४. ते काले ते समये *राजगृह नामे नगर हतुं. गुणसिलक नामे चैत्य हतुं. वर्णक. यावत्-पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते गुणसिलक गोपासक चैत्यनी आसपास घणा अन्यतीर्थिको रहेता हता. ते आ प्रमाणे-कालोदायी, शैलोदायी-इत्यादि सप्तम शतकना अन्यतीर्थिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'ए वात एम केम मानी शकाय' ? स्यां सुधी कहे. हवे ते राजगृह नगरमा आत्य-धनिक यावत्-कोइथी पराभव न पामे तेवो अने जीवादि तत्त्वोनो जाणकार, मद्रुक नामे श्रमणोपासक-श्रावक रहेतो हतो. त्यार पछी अहिं अन्य कोइ एक दिवसे अनुक्रमे विहार करता, यावत्-श्रमण भगवंत महावीर समोसा. पर्षदा यावत्-पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर नी आ वात सांभळी, हृष्ट अने संतुष्ट हृदयवाळो थयेलो मदक श्रमणोपासक, स्नान करी यावत्-शरीरने अलंकृत करी पोताना घरथी बहार नीकळी पगे चाली राजगृह नगरनी वच्चोवच्च थईने ते अन्यतीर्थिकोनी बहू दूर नहि तेम बहु पासे नहि एवी रीते जाय छे. त्यारे ते अन्यतीर्थिकोए ते मद्रुक श्रमणोपासकने पोतानी पासे थईने जतो जोई, परस्पर एक बीजाने बोलावी आ प्रमाणे कयुं–'हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर आपणने आ वात अत्यंत विदित छे, अने आ मद्रुक श्रमणोपासक आपणी पासे थईने जाय छे, तो हे देवानुप्रियो ! आपणे ते वात मद्रुक श्रमणोपासकने पूछवी योग्य छे.' एम विचारी परस्पर ते वात कबूल करी ज्यां मद्रुक श्रमणोपासक छे, त्यां जईने ते अन्यतीर्थिकोए ते मद्रुक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कधुंअन्यतीथिकोनो १५. हे मद्रुक ! ए प्रमाणे खरेखर तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय प्ररूपे छे-इत्यादि सातमा अस्तिकायसंबन्धे मादक प्रावने प्र. शतकना अन्यतीर्थिक उद्देशकमा कह्या प्रमाणे बधु कहे. यावत्-हे मद्रक ! एम केवी रीते मानी शकाय? त्यार पछी ते मद्रक श्रमणो. १४ * राजगृह नगरमा जीवाजीवादि तत्त्वनो ज्ञाता मढक नामे श्रमणोपासक रहेतो हतो. भगवान् महावीर अनुक्रमे विहार करता अहिं आवी गुणसिल चैत्यमां समोसर्या. भगवंत आव्यानो वृत्तांत सांभळी मट्ठक श्रावक प्रसन्न अने संतुष्ट थयो अने भगवंतने वंदन करवा घेरथी नीकळ्यो. ते गुणसिल चैत्यनी आसपास कालोदायी वगेरे घणा अन्यतीर्थिको रहेता हता. तेओए मद्रुक श्रावकने भगवंतने वंदन करवा पासे थईने जतो जोयो अने तेओए तेने उभो राखी पूछ्यु के तमारा धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र धर्मास्तिकायादि पांच अस्तिकायनी प्ररूपणा करे छे, ते केवी रीते मानी शकाय? तुं शुं धर्मास्तिकायादिने जाणे छे ? मनुके उत्तर आप्यो के जो कोई वस्तु काइ कार्य करे तो आपणे तेने कार्यद्वारा जाणी शकीए, पण ते काइ पण कार्य न करे, निष्क्रिय होय तो आपणे तेने जाणी शकता नथी, तेम जोई शकता पण नथी. ते सांभळी अन्यतीथिकोए उपालंभपूर्वक कह्यु के तुं श्रमणोपासक छे अने तने धर्मास्तिकायादिनी पण खबर नथी' ! सार पछी मद्रुके ते अन्यतीथिकोने नीचे प्रमाणे उत्तर आप्यो-वायु वाय छे ए बरोवर छ ? तेनुं रूप तमे जाणी के जोई शको छो ? गन्धवाळा पुद्गलो छ ए सत्य छ ? तेने तमे जुओ छो ? समुद्रने पार अने देवलोका रूपो खरेखर छ ? तेने तमे जाणो छो? ते अन्यतीर्थिकोए ना कही एटले मनुके तेओने क्यु के छद्मस्थ मनुष्य जे न जाणे के न देखे ते वधुं न होय तो आ दुनीयामां घणी वस्तुओनो अभाव थई जाय. माटे छद्मस्थथी धर्मास्तिकायादि जाणी शकाता नथी तेथी तेनो अभाव सिद्ध न धाय. एम कही मद्रुक श्रावके तेओने निरुत्तर कर्या. त्यार पछी मद्रुक धावक भगवंत महावीरनी पासे गयो अने वंदन नमस्कार करी पर्युपासना करवा लाग्यो. सार बाद भगवान् महावीरे तेने संबोधीने कर्तुं के हे मद्रुक । तें अन्यतीर्थिकोने ठीक उत्तर आप्यो. जे माणस दीठा के सांभळ्या सिवाय अदृष्ट, अज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न के उत्तरने कहे छे ते अर्हतनी अने अर्हते कहेला धर्मनी आशातना करे छे. ते सांभळी मक प्रसन्न अने संतुष्ट थई पोताने घेर गयो. भिग० ख० ३ श० ७ पृ. ३६. अहिं मूळ पाठमा 'अविउप्पकडा' शब्दनो अर्थ 'अविद्वानोए कहेलो छे' एवो बीजो अर्थ टीकाकार करे छे. १५॥ भग० सं० ३ ० ७ उ०१० पृ. ३६. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८. - उद्देशक. ७. भगवत्सुधर्म स्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६७ तणं से महुए समणोवासए ते अन्नउत्थिए एवं वयासी - 'अत्थि णं आउसो ! वाउयाए वाति' ? हंता अधि, तुझे णं आउसो ! 'वाउयायस्स वायमाणस्स रूवं पासह' ? णो तिणट्टे समट्टे । अत्थि णं आउसो ! 'घाणसहगया पोग्गला' ? हंता अस्थि, 'तुज्झे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह' ? णो तिणट्टे समट्ठे । अस्थि असो! अरणिसहगए अगनिका' ? 'हंता अस्थि' 'तुझे णं आउसो ! अरणिसहगवस्स अगणिकायस्थ रूपं पासह णो तिणट्टे समट्टे । 'अत्वि पं भउसो समुहस्स पारगयाई रुचाई ! 'हंता अस्थि' 'तुझे णं आउसो समुदस्स पारगयाई रुवाई पास' ? यो तिगडे समट्टे 'अस्थि आउसो देवलोगगबाई रुचाई' ? 'हंता अस्थि' । 'तुझे नं आउसो ! देवलोगगयाई रुवाई पासद १ णो तिणडे समट्ठे । 'एवामेव आउसो ! अहं वा तुज्छे या अनो वा छमत्यो ज जो जं न जाणइ न पासह तं सवं न भवति, एवं भे सुबहुए लोए ण भविस्सती 'ति कट्टु ते णं अन्नउत्थिय एवं पडिहार, एवं पडिणित्ता जेणेव गुणसिलए चेइप जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छर, उद्यागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमे जाय-पवासति । ! १६. 'मया' 1 दी समणे भगवं महावीरे मदुयं समणोबासगं एवं क्यासी- 'शुद्ध णं मदुवा ! तुमं ते अन्नत्थि एवं बयासी, साहूणं महुया ! तुमं ते अनउत्थिर एवं पयासी, जेणं महुवा बहुं वा हे या पक्षिणं वा बागरणं वा अनार्य ! यदि अस्तं मयं अविण्णायं बहुजणमज्झे आघवेति पन्नवेति, जाव-उवदंसेति, से णं अरिहंताणं आसाअणाप घट्टति, अरिहंतपन्नत्तस्स धम्मरस आसावणार वट्टति, केवलीणं आसायणाए पट्टति, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स आसावणार बहुति, तं सुडु णं तुमं मया ते अउत्थिय एवं पयासी, साहू णं तुमं मदुषा ! जाय एवं बयासी' तर णं महुए समणोवासद समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुट्ठे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसिता गयासने जाव - पज्जुवास । तप णं समणे भगवं महावीरे मदुयस्स समासगस्स तीसे व जाव-परिसा पडिगया । तरणं 1 पासके ते अन्यतीर्थिकोने आ प्रमाणे कयुं - 'जो कोइ ( वस्तु ) कार्य करे तो आपणे तेने कार्यद्वारा जाणी शकीए के जोई शकीए. पण जो ते पोतानुं कार्य न करे तो आपणे तेने जाणी शकता नथी, तेम जोई शकता पण नथी.' त्यार पछी ते अन्यतीर्थिकोए ते मदुक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कां - 'हे मदुक ! तुं आ केवो श्रमणोपासक छो के जे तुं आ ( पंचास्तिकायनी ) वात जाणतो नथी अने जोतो नथी' . कनो प्रतिप्रश्न द्वारा उत्तर. प्यार पछी से मडुक श्रमणोपासके ते अन्यतीर्थिकोने आ प्रमाणे क- ६ आयुष्मन् ! पथन वाय छे ए बरोबर छे! हा, बरोबर म 'हे ! छे, हे आयुष्मन् ! तमे बाता एवा पवननुं रूप शुभ छो ना, ए बात यवार्थ नभी. अर्थात् अमे पपननुं रूप जोई शकता नथी. हे आयुष्मन् ! गंधगुणवाळा पुद्गलो छे ! हा, छे. हे आयुष्मन् ! ते गंधगुणवाळा पुद्गलोनुं रूप तमे जुओ छो: ए अर्थ समर्थ नथी- अमे सेनुं रूप जोई शकता मधी. हे आयुष्मन् अरणिना काष्ठ साथे अनि छे हा, छे. हे आयुष्यन् । ते अरणिना काष्ठमा रहेला अनिनुं रूप तमे जुओ छो ? ना, ए वात यथार्थ नथी. हे आयुष्मन्! समुद्रना पेले पार रहेलां रूपो ( पदार्थों ) छे ! हा, छे. हे आयुष्मन् ! समुद्रने पेले पार रहेला रूपोने तमे जुओ छो ! ना, ए बात यथार्थ नथी. हे आयुष्मन् ! देवलोकमां रहेला रूपो ( पदार्थों ) छे ? हा, छे. हे आयुष्मन् ! देवलोकमां रहेला पदार्थोंने तमे जुओ छो ? ना, ए वात समर्थ नथी. 'हे आयुष्मन् ! ए प्रमाणे हुं, तमे के बीजो कोइ उपस्थ, जैने न आगे के न देखे ते वधुं न होय तो तमारा मानवा प्रमाणे) घणा ढोकनो घणी वस्तुओनो अभाव यशे एम कहीने ते मनुके से अन्यतीर्थिकोनो पराभव कर्योतेओने निरुत्तर कर्या, एम निरुत्तर करीने ते मदुक श्रमणोपासके यां गुणसिलक चैत्य छे अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवीने पांच प्रकारना अभिगम वडे श्रमण भगवंत महावीरनी पासे जइने यत् पर्युपासना करी ( " 1 १६. स्यार बाद है मनुक' ! एम संबोधी श्रमण भगवंत महावीरे मद्भुक श्रमणोपासकने एम क के, हे मदुक तें ते अम्पतीर्थिकोने बरोबर कं, हे मढ़क तें ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे ठीक उत्तर आग्यो, हे मटुक ! जे कोइ जाण्या, देख्या के सांभळ्या सिवाय, जे कोइ अदृश, अश्रुत, असंमत के अविज्ञात अर्थने, हेतुने, प्रश्न के उत्तरने घणा माणसोनी बच्चे कहे छे, जणावे छे, यावत् दशनि छे, ते अतोनी, अर्हते कहेला धर्मनी, केवलज्ञानीनी अने केवलीए कहेला धर्मनी आशातना करे छे, माटे हे मदुक ! तें ते अन्यतीर्थिकोने ९ प्रमाणे ठीक है, याद ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे सारं कहां छे प्यारे श्रमण भगवंत महावीरे ते मदुक श्रमणोपासकने एम क स्मारे ते इष्ट अने संतुष्ट पई श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करी बहु दूर नहि तेम बहु नजीक नहि एषी रीते उभा रहीने यावत्-तेओनी पर्युपासना करी. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीरे ते मद्रुक श्रमणोपासक अने ते पर्षदाने धर्मकथा कही, 1 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ५८ शतक १८.-उद्देशक ७. महुए समणोवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव-निसम्म हट्ठ-तुढे पसिणाई पुच्छति, प० २ पुच्छित्ता अट्ठाई परियातिइ, अ० २ परियादित्ता उट्ठाए उट्टेइ, उ० २ उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, बदित्ता नमंसित्ता जाव-पडिगए। १७. [प्र०] 'भंतेत्ति भगवं गोयमे समणे भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पभू पं भंते ! महुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव-पच्चइत्तए ? [उ०] णो तिणटे समटे, एवं जहेव संखे तहेव अरुणाभे जाव-अंतं काहिति । १८. [प्र०] देवे णं भंते ! महडिए जाव-महेसक्खे रूवसहस्सं विउवित्ता पभू अन्नमनेणं सद्धि संगाम संगामित्तए ? [उ०] हंता पभू। १९. [प्र०] ताओ णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ अणेगजीवफुडाओ ? [उ०] गोयमा ! एगजीवफुडाओ, णो अणेगजीवफुडाओ। २०. [प्र०] ते णं भंते ! तासि णं बोंदीण अंतरा किं एगजीवफुडा अणेगजीवफुडा ?, [उ०] गोयमा ! एगजीवफुडा, नो अणेगजीवफुडा। २१. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! अंतरे थे हत्थेण वा० एवं जहा अट्ठमसए तइए उद्देसए जाव-नो खलु तत्थ सत्थं कमति । २२. [प्र०] अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामे दे० २१ [उ०] हंता अस्थि । २३. [प्र०] देवासुरेसु णं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किन्नं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ? [उ०] गोयमा ! जन्नं ते देवा तणं वा कटुं वा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति तं गं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति । २४. [प्र०] जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? [उ०] णो तिणटे समढे, असुरकुमाराणं देवाणं निचं विउधिया पहरणरयणा पन्नत्ता। देवोर्नु वैक्रिय रूप करवानुं सामर्थ्य. वैक्रिय शरीरोनो जीन साथे संबन्ध. देना परस्पर अंतरनो बीव साये संबन्ध, यावत्-ते पर्षदा पाछी गई. पछी ते मद्रुक श्रमणोपासके श्रमण भगवंत महावीर पासेथी यावत्-धर्मोपदेश सांभळी हृष्ट अने संतुष्ट थई प्रश्नो पूछया, अर्थो जाण्या, अने. त्यार बाद उभा थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी यावत्-ते पाछो गयो. १७. प्र०] 'हे भगवन् । एम कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे कयुं के हे भगवन् ! मद्रुक श्रमणोपासक आप देवानुप्रियनी पासे यावत्-प्रव्रज्या लेवा समर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी-इत्यादि जेम "शंख श्रमणोपासक संबन्धे कह्यु हतुं तेम यावत्-अरुणाभविमानमां देव तरीके उत्पन्न थई यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे. १८. [प्र०] हे भगवन् ! महर्द्धिक यावत्-मोटा सुखवाळो देव हजार रूपो विकुर्वी, परस्पर संग्राम करवा समर्थ छे ! [उ०] हा गौतम ! समर्थ छे. १९. [प्र०] हे भगवन् ! ते विकुर्वेलां शरीरो एक जीवनी साथे संबंधवा होय छे के अनेक जीव साथे संबंधवाळा होय छे ! [उ०] हे गौतम ! ते बधां शरीरो एक जीव साथे संबन्धवाळा होय छे, पण अनेक जीव साथे संबंधवाळां होता नथी. २०. [प्र०] हे भगवन् ! ते शरीरोना परस्पर अंतरो-वच्चेना भागो एक जीव वडे संबद्ध छे के अनेक जीव वडे संबद्ध छे ! [उ०] हे गौतम ! ते शरीरो वच्चेनां अंतरो एक जीव वडे संबद्ध छे पण अनेक जीव वडे संबद्ध नथी. २१. प्र०] हे भगवन् ! कोइ पुरुष ते शरीरो वच्चेना आंतराओने पोताना हाथवडे, पगवडे स्पर्श करतो यावत्-तीक्ष्ण शस्त्र वडे छेदतो कांइ पण पीडा उत्पन्न करी शके ! इत्यादि आठमा शतकना त्रीजा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-त्या शस्त्र असर करी शके नहि त्यां सुधी कहे. २२. [प्र०] हे भगवन् ! देव अने असुरोनो संग्राम थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! हा, थाय छे. २३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे देव अने असुरोनो संग्राम थतो होय त्यारे ते देवोने कई वस्तु शस्त्ररूपे परिणत थाय ! [उ०] हे गौतम | तणखलं, लाकडु, पांदई के कांकरो वगेरे जे कोइ वस्तुनो स्पर्श करे ते वस्तु ते देवोने शस्त्ररूपे परिणत थाय छे. २४. [प्र०] जेम देवोने कोई पण वस्तु स्पर्शमात्रथी शस्त्ररूपे परिणत थाय छे तेम असुरोने पण थाय ! [उ०] हे गौतम ! ९ अर्थ समर्थ नथी, पण असुरकुमार देवोने तो हमेशा विकुर्वेला शस्त्ररत्नो होय छे. तेना परस्पर अंतरनो शखादिथी छेद थाय के नहि ! देवासुर संग्राम. १७ * जुओ भग० श० १२ उ० १ पृ. २५६. २१ जुओ भग० सं०३ पृ. ७८ सू० ७. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५. [प्र०] देवे णं भंते ! महहिए जाव-महेसक्खे पभू लवणसमुदं अणुपरियट्टित्ता णं हवमागच्छित्तए ? [10] हंता पभू। २६. [प्र०] देवे पं भंते ! महडिए एवं धायइसंडं दीवं जाव-हंता पभू, एवं जाव-रुयगवरं दीर्घ जाव-हता पमू, तेणं परं वीतीवएजा, नो चेव णं अणुपरियडेजा। २७. [H०] अस्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं एक्केण वा छोहिं वा तीहिं वा, उकोसेणं पंचहिं पासस पहि खवयंति ? [उ०] हंता अस्थि । २८. [सं०] अत्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहनेणं एकेण वा दोहि या तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहि वासस. हस्सहिं खवयंति ? [उ०] हंता अत्थि। २९. [प्र०] अत्यि गं भंते ! ते देवा जे अणते कम्मसे जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं पास. सयसहस्सेहिं खवयंति ? [उ०] हंता अस्थि । ३०. [प्र०] कयरे णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं एकेण वा जाव-पंचहिं वाससएहिं खवयंति ? कयरे गं भंते! ते देवा जाव-पंचहि वाससहस्सहिं खवयंति ? कयरे णं भंते! ते देवा जाव-पंचहि वाससयसहस्सेहि खवयंति ? [उ०] गोयमा! वाणमंतरा देवा अणंते कम्मसे एगेणं वाससएणं खवयंति, असुरिंदवज्जिया भवणवासी देवा अणते कम्मसे दोहि वाससरहिं खवयंति, असुरकुमारा णं देवा अणंते कम्मंसे तीहिं वाससरहिं खवयंति, गह-नक्षत्त-तारारूवा जोइसिया देवा अणंते कम्मंसे चाहिं वास० जाव-खवयंति, चंदिम-सूरिया जोइसिंदा जोतिसरायाणो अणते कम्मसे पंचहि वाससरहिं खवयंति, सोहम्मी-साणगा देवा अणंते कम्मंसे एगेणं वाससहस्सेणं जाव-खवयंति, सणंकुमार-माहिंदगा देवा अणते कम्मंसे दोहिं वाससहस्सेहिं खवयंति, एवं एएणं अभिलावेणं बंभलोग-लंतगा देवा अणंते कम्मंसे तीहिं वाससहस्सेहि खयवंति, महासुक्क-सहस्सारगा देवा अणंते चर्हि वाससहस्सेहि, आणय-पाणय-आरण-अञ्चयगा देवा अणंते पंचहि वाससहस्सेहिं खवयंति, हिडिमगेविजगा देवा अणंते कम्मंसे एगेणं वाससयसहस्सेणं खवयंति, मज्झिमगेवेजगा देवा अणंते दोहि वाससयसहस्सेहिं जाव-खवयंति, उवरिमगेवेजगा देवा अणंते कम्मंसे तिहिं वास जाव-खवयंति, विजय-वेजयंत-जयंत २५. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव, लवणसमुद्रनी चोतरफ फरी शीघ्र आववा समर्थ छे ! देवोर्नु गमनसामर्थ्य. [उ०] हा, समर्थ छे. २६. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-देव धातकिखंड द्वीपनी चारे तरफ फरी शीघ्र आववा समर्थ छे? उ०] हा, समर्थ छे. [प्र०] ए प्रमाणे यावत्-रुचकवर द्वीप सुधी चोतरफ आंटो मारी शीघ्र आववा समर्थ छे ? [उ०] हा, समर्थ छे. स्यार पछी आगळना द्वीप-समुद्र सुधी जाय, पण तेनी *चारे बाजु फरे नहि. २७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एवा देवो छे के, जेओ अनंत (शुभप्रकृतिरूप) काशोने जघन्यथी एकसो, बसो के त्रणसो वर्षे अने देवोना पुण्यकर्मना क्षयर्नु तारतम्य. उत्कृष्टथी पांचसो वर्षे खपावे ? [उ०] हा, एवा देवो छे, २८. [प्र०] हे भगवन् ! एवा देवो छे के, जेओ अनंत काशोने जघन्यथी एक हजार, बे हजार के त्रण हजार वर्षे अने उत्कृष्टथी पांच हजार वर्षे खपावे ? [उ०] हा, छे. २०. [प्र०] हे भगवन् ! एवा देवो छे, के जेओ अनंत काशोने जघन्यथी एक लाख, बे लाख के त्रण लाख वरसे अने उत्कृष्टथी पांच लाख वरसे खपावे ! [उ०] हा, छे. ३०. [प्र०] हे भगवन् । एवा कया देवो छे के जेओ अनंत काशोने जघन्यथी एक सो वर्षे यावत्-पांचसो वरसे खपावे ! हे भगवन् ! एवा कया देवो छे के यावत्-पांच हजार वर्षे खपावे ? हे भगवन् ! एवा कया देवो छे के यावत्-पांच लाख वरसे खपावे! [उ०] हे गौतम ! वानव्यंतर देवो एकसो वर्षे अनंत काशोने खपावे, असुरेन्द्र सिवायना भवनवासी देवो अनंत काशोने बसो वरसे खपावे, असुरकुमार देवो अनंत काशोने त्रणसो वर्षे खपावे, ग्रह-नक्षत्र अने तारारूप ज्योतिषिक देवो अनंत काशोने चारसो वरसे खपावे, तथा ज्योतिषिकना राजा अने ज्योतिषिकना इन्द्र, चन्द्र अने सूर्य अनंत काशोने पांचसो वरसे खपावे. सौधर्म अने ईशान कल्पना देवो अनंत काशोने एक हजार वर्षे खपावे, सनत्कुमार अने माहेन्द्रना देवो अनंत काशोने बे हजार वर्षे खपावे, एम ए सूचना पाठ वडे ब्रह्मलोक अने लांतकना देवोत्रण हजार वर्षे, महाशुक्र अने सहस्रारना देवो चार हजार वर्षे, आनत-प्राणत अने आरण-अच्युतना देवो २६* देवो प्रयोजनना अभावथी चोतरफ फरे नहि एम संभवे छे-टीका. Jain Education international Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक ८. अपराजियगा देवा अणंते चउहिं वास जाव-खवयंति, सचट्ठसिद्धगा देवा अणते कम्मंसे पंचहि वाससयसहस्सेहिं खवयंति, एएणट्रेणं गोयमा! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं पक्केण वा दोहिं वा तीहिं. वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससएहि. खवयंति, एएणं गोयमा! ते देवा जाव-पंचहि वाससहस्सेहि खवयंति, एएणटेणं गोयमा । ते देवा जाव-पंचहिं वाससयसहस्सेहि खवयंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । अट्ठारसमसए सत्तमो उद्देसो समत्तो। पांच हजार वर्षे, हेठला प्रैवेयकना देवो एक लाख वर्षे, वचला अवेयकना देवो बे लाख वर्षे, उपरना प्रैवेयकना देवो त्रण लाख वर्षे, विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजितना देवो चार लाख वर्षे, अने सर्वार्थसिद्धना देवो पांच लाख वर्षे अनंत कर्माशोने खपावे छे. ते माटे हे गौतम ! एवा देवो छे के, जेओ अनंत काशोने जघन्यथी एक, बे के त्रण सो वर्षे अने उत्कष्टथी पांचसो वर्षे खपावे छे. एवा पण देवो छे के जेओ जघन्यथी एक, वे के त्रण हजार वर्षे अने उत्कृष्टथी पांच हजार वर्षे खपावे छे. तथा एवा देवो छे के, जेओ जघन्यथी एक, वे के त्रण लाख वर्षे अने उत्कृष्टथी पांच लाख वर्षे अनंत कर्माशोने खपावे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे.. अढारमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त. अट्ठमो उद्देसो. १ [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-अणगारस्स गं भंते ! भावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कडपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावजेजा, तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव-तस्स णं ईरियावहिया किरिया कजइ, नो संपराइया किरिया कज्जा । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चह-जहा सत्तमसए संवुडुद्देसए जाव-अट्ठो निक्खित्तो। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव-विहरति । तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जाव-विहरति । २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव-पुढविसिलापट्टए, तस्स णं गुणसिलस्स चेयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव-समोसढे, जाव-परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती नामं अणगारे जाव-उहुंजाणू जाव-विहह । तए गं ते अन्नउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता भगवं गोयम एवं वयासी-'तुज्झे णं अजो! तिविहं तिविहेणं अस्संजया जाव-एगंतबाला यावि भवह'। ३. तए णं भगवं गोयमे अन्नउत्थिए एवं वयासी-'से केणं कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं तिविदेणं अस्संजया जाव अष्टम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! आगळ अने बाजुए युग( धूसरा )प्रमाण भूमिने जोईने गमन करता भावितात्मा अनगारना पग नीचे कुकडीन बच्चु, बतकनुं बच्चु के कुलिंगच्छाय (कीडी जेवो सूक्ष्म जंतु) आवीने मरण पामे तो हे भगवन् ! ते अनगारने शुं ऐर्यापथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे ! [उ०] हे गौतम! ते भावितात्मा अनगारने यावत्-ऐपिथिकी क्रिया लागे, पण सांपरायिकी क्रिया न लागे. [प्र. हे भगवन् ! एम शा हेतथी कहो छो-इत्यादि प्रश्न अने उत्तर सातमा *शतकना संवृत उद्देशकमा कह्या प्रमाणे जाणवो. यावत्-अर्थनो निक्षेप-निगमन करवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीर बहारना देशोमां विहार करे छे. २. ते काळे, ते समये राजगृह नामे नगर हतुं. यावत्-पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते गुणसिलक चैत्यनी आसपास घणा अन्यतीर्थिको रहेता हता. त्यां श्रमण भगवंत महावीर समोसर्या. यावत्-पर्षदा वांदीने पाछी गई. ते काळे, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना मोटा शिष्य इन्द्रभूति नामे अनगार यावत्-ढींचण उंचा राखी संयमथी आत्माने भावित करता विहरे छे. त्यारे ते अन्यतीर्थिको ज्यां भगवंत गौतम.छे त्यां आव्या, आवीने भगवंत गौतमने आ प्रमाणे का-'हे आर्यों ! तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत-संयमरहित अने यावत्एकांत बाल-विरतिरहित छो.' ३. त्यार पछी भगवंत गौतमे ते अन्यतीर्थिकोने आ प्रमाणे का-'हे आर्यों! कया कारणथी अमे त्रिविध त्रिविधे असंयत यावत्एकांत बाल छीए ! त्यारे ते अन्यतीर्थिकोए भगवंत गौतमने आ प्रमाणे का-'हे आर्यो! तमे गमन करतां जीवोने आक्रान्त करो छो १* जुओ भग० सं० ३ श० ७ उ०१ पृ. २३. ऐपिथिक कर्मबंध. अन्यतीथिको अने भगवंत गौतमनो संवाद. अन्यतीयिको. गौतम Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ७१ एगंतवाला यावि भवामो'। तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी-'तुझे णं अजो! रीयं रीयमाणा पाणे पेञ्चेह, अभिहणह, जाव-उवहवेह, तए णं तुज्झे पाणे पेञ्चेमाणा जाव-उवद्दवेमाणा तिविहंतिविहेणं जाव-एगंतवाला यावि भवह। ४. तएणं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-'नो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेचेमो, जावउवद्दवेमो, अम्हे णं अजो! रीयं रीयमाणा कायं च जोयं च रीयं च पडुच्च दिस्सा २ पदिस्सा २ वयामो, तए णं अम्हे दिस्सा दिस्सा वयमाणा पदिस्सा पदिस्सा वयमाणा णो पाणे पेञ्चेमो, जाव णो उवहवेमो, तए णं अम्हे पाणे अपेञ्चेमाणा जाव-अणोइवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव-एगंतपंडिया यावि भवामो, तुझे णं अजो! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव-पगंतबाला यावि भवह'। ५. तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयम एवं बयासी-'केणं कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव-भवामो'। तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुझे णं अजो! रीयं रीयमाणा पाणे पेञ्चेह, जाव-उवद्दवेह, तए णं तुझे पाणे पेञ्चेमाणा जाव-उवद्दवेमाणा तिविहं जाव-एगंतबाला यावि भवह' । तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणह, पडिहणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता पच्चासन्ने जाव-पज्जुवासति । ६. 'गोयमाग्दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-'सुट्टणं तुम गोयमा! ते अन्नउत्थिए एवं वदासी, साहुणं तुम गोयमा ! ते अन्नउत्थिए एवं वदासी, अस्थि णं गोयमा! ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था, जे गं नो पभू पयं वागरणं वागरेत्तए, जहाणं तुम, तं सुट्ठ णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउत्थिए एवं बयासी, साहू णं तुम गोयमा! ते अन्नउत्थिए एवं वयासी । तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे हट्ट-तुटे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी____७. [प्र०] छउमत्थे णं भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गलं किं जाणति पासति, उदाहु न जाणति न पासति ? [उ०] गोयमा! अत्थेगतिए जाणति न पासति, अत्थगतिए न जाणति न पासति । दबावो छो, मारो छो, यावत्-उपद्रव करो छो, माटे प्राणोने आक्रांत करता यावत्-उपद्रव करता तमे त्रिविध त्रिविधे संयमरहित अने एकांत बाल छो.. भन्यतीर्थिको. गौतम. . ४. त्यारे भगवंत गौतमे ते अन्यतीर्थिकोने आ प्रमाणे को-हे आर्यो ! अमे गमन करतां प्राणोने कचरता नथी, यावत्-तेने पीडा करता नथी. पण अमे गमन करता *काय, संयमयोग अने [त्वरादि सिवाय ] गमनने आश्रयी जोइ जोइने, बारीकीथी जोइ जोइने चालीए छीए, तेथी तेवी रीते चालता अमे प्राणोने कचरता नथी, यावत्-उपद्रव करता नथी. ते माटे प्राणोने नहि कचरता तेम यावत्-नहि पीडा करता अमे त्रिविध त्रिविधे यावत्-एकांत पंडित-विरतिसहित छीए. हे आर्यो ! तमे पोतेज त्रिविध त्रिविधे यावत्एकांत बाल-विरतिरहित छो.' ५. त्यार बाद ते अन्यतीर्थिकोए भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कडं के, हे आर्यों ! अमे शा हेतुथी त्रिविध त्रिविधे असंयत यावत्- अन्य तीथिंकएकांत बाल-विरतिरहित छीए ! त्यारे भगवंत गौतमे ते अन्यतीर्थिकोने आ प्रमाणे कयु के, हे आर्यो ! तमे हालता चालतां जीवोने क चरो छो, यावत्-तेने उपद्रव करो छो अने तेथी जीवोने कचरता यावत्-उपद्रव करता तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत यावत्-एकांत बाल गौतम. छो.' ए प्रमाणे भगवंत गौतमे ते अन्यतीथिकोने निरुत्तर कर्या. त्यार पछी तेमणे ज्या श्रमण भगवंत महावीर विराजमान हता त्यां आवी श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी अने बहु दूर नहि तेम बहु नजीक नहि एवी रीते तेमनी पासे बेसी यावत्-पर्युपासना करी. ६. 'हे गौतम'1 एम संबोधी श्रमण भगवंत महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे का के, हे गौतम । तें ते अन्यतीर्थिकोने ठीक कथु, हे गौतम ! तें ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे सारं कडं, हे गौतम ! मारा घणा शिष्यो श्रमण निग्रंथो छमस्थ छे, जेओ तारी पेठे ए प्रमाणे उत्तर देवाने समर्थ नथी, माटे हे गौतम ! तें ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे ठीक कह्यु, हे गौतम । तें ते अन्यतीथिकोने सारं कर्तुं.' ज्यारे श्रमण भगवंत महावीरे भगवंत गौतमने ए प्रमाणे कयुं त्यारे प्रसन्न अने संतुष्ट थइ पूज्य गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे कडं.७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं उमस्थ मनुष्य परमाणुपद्गलने जाणे अने जुए के न जाणे अने न जुए! [उ०] हे गौतम | कोई प्राथना शानना विषय. जाणे, पण जुए नहि, अने कोइ जाणे नहि अने जुए पण नहि. परमाणु ४* अमे मात्र काय-शरीरनो आधार राखी चालीए छीए, पण अश्व, गाडी वगेरे वाहूनमा बेसी गमन करता नथी. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक ९. ८. [प्र०] छउमत्थे गं भंते ! मणूसे दुपएसियं खधं किं जाणति पासति ? [उ०] एवं चेव । एवं जाव-असंखेजपदेसियं । ९. [प्र०] छउमत्थे णं भंते ! मणूसे अणंतपएसियं खधं किं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए जाणति पासति १, अस्थगतिए जाणति न पासति २, अत्थेगतिए न जाणति पासइ ३, अत्यंगतिए न जाणइ न पासति । १०. [प्र०] आहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं० १ [उ०] जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि, जाव-अणंतपदेसियं । ११. [प्र०] परमाहोहिए णं भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणति तं समयं पासति, जं समयं पासति तं समयं जाणति ? [उ०] णो तिण? समढे । [प्र०] से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ-'परमाहोहिए णं मणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति' ? [उ०] गोयमा! सागारे से नाणे भवइ, अणागारे से दंसणे भवइ, से तेण?णं जाव-नो तं समयं जाणति, एवं जाव-अणंतपदेसियं । १२. [प्र०] केवली गं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं ? [उ०] जहा परमाहोहिए तहा केवली वि, जाव-अणंतपए सियं । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! ति। ___ अट्ठारसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो । द्विप्रदेशिक स्कन्ध. ८. [प्र०] हे भगवन् ! शु छद्मस्थ मनुष्य द्विप्रदेशिक स्कंधने जाणे अने जुए के न जाणे अने न जुए! [उ.] पूर्व प्रमाणे जाणवू अने एम यावत्-असंख्यातप्रदेशिक स्कंध सुधी कहे. अनन्त प्रदेशिक स्का ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं छमस्थ मनुष्य अनंतप्रदेशिक स्कंधने जाणे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! १ कोइ जाणे अने जुए, २ कोई जाणे पण जुए नहि, ३ कोई जाणे नहि पण जुए अने ४ कोई जाणे नहि तेम जुए पण नहि. अवधिज्ञाननो विषय. १०. [प्र०] आधोऽवधिक-अवधिज्ञानी मनुष्य परमाणुपुद्गलने जाणे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम छमस्थने कह्यं तेम अवधिज्ञानीने पण कहे. ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी आणवू. शान भने दर्शनना ११. [प्र०] हे भगवन्! परमावधि ज्ञानी मनुष्य परमाणुपुद्गलने जे समये जाणे ते समये जुए, अने जे समये जुए ते समये जाणे? समयनी भिन्नता. [उ०] ए अर्थ यथार्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, परमावधि ज्ञानी मनुष्य परमाणु पुद्गलने जे समये जाणे ते समये न जुए अने जे समये जुए ते समये न जाणे? [उ०] हे गौतम ! ते परमावधिज्ञानीनुं ज्ञान साकार (विशेषग्राहक) होय छे, अने दर्शन अनाकार (सामान्यग्राहक) होय छे, माटे ते हेतुथी एम कर्दा छे के-'यावत्-जे समये जुए छे ते समये जाणतो नथी.' ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी समजवु. १२. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी परमाणुपुद्गलने जे समये जाणे ते समये जुए-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम परमावधिज्ञानीने कद्यु तेम केवलज्ञानीने पण कहेवं. ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन्! ते एमज छे. अढारमां शतकमां अष्टम उद्देशक समाप्त. न्ध. नवमो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! भवियदधनेरइया भवि० २१ [उ०] हंता अस्थि । [प्र०] से केण?णं भंते ! पर्व वुच्चइ-'भवियदछनेरा भ०२१ [उ.] गोयमा! जे भविए पंचिदिए तिरिक्खजोणिए षा मणुस्से घा नेइएसु उववजित्तए से तेण?णं एवं जाव-थणियकुमाराणं । नवम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृहनगरमां भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! भव्यद्रव्यनैरयिको २ छे! [उ०] हे गौतम ! हा छे. [प्र०] हे भगवन् ! आप भव्यद्रव्यनैरयिको' २शा कारणथी कहो छो! [उ० हे गौतम! जे. कोई पंचेंद्रिय तिर्यंच के मनुष्य नैरयिकोमा उत्पन्न यवाने योग्य छे. ते 'भव्यद्रव्यनैरयिक' २ कहेवाय छे. ए प्रमाणे यावत्-'स्तनितकुमारो' सुधी जाणवू. भव्यद्व्यनैरपि कादि. .* भूत अथवा भावी पर्यायर्नु कारण द्रव्य कहेवाय थे. भावी नारकपर्याय कारण पंचेन्द्रिय तिर्यच के मनुष्य भव्यद्रव्यनैरयिक कहेवाय छ, तेना श्रण प्रकार छ-१ एकमविक, २ षद्धायुष्क अने ३ अभिमुखनामगोत्र. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ शतक १८.- ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २. [प्र०] अत्थि णं भंते ! भवियदधपुढविकाहया भ०२१ [उ०] हंता अस्थि । [प्र०] से केणटेणं.१ [उ०] गोयमा! जे भविए तिरिफ्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढविकाइएसु उववजित्ता मे तेण?णं । आउकाइय-वणस्सहकाइयाणं एवं चेव । तेउ-वाऊ-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से या देवे वा पंचिदियतिरिक्खजोणिए था, एवं मणुस्सा वि। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइया । ३. [प्र०] भवियधनेरइयस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ.] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुकुत्तं, उनोसेणं पुषकोडी। ४. [प्र०] भवियदधअसुरकुमारस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुडुत्तं, उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाइं । एवं जाव-थणियकुमारस्स । ५. भवियदधपुढविकाइयस्स णं पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुष्टुत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोषमाई। एवं आउक्काइयस्स वि । तेउ-बाऊ जहा नेरइयस्स । वणस्सइकाइयस्स जहा पुढविकाइयस्स । बेइंदियस्स तेईदियस्स चडरिदियस्स जहा नेरइयस्स । पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। एवं मणुस्सा वि । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। अट्ठारसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो । भव्यद्रव्य पृथिवीकायिकादे. २. [प्र०] हे भगवन् । 'भव्यद्रव्यपृथिवीकायिको'२ शा हेतुथी कहेवाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जे कोइ तिर्यच, मनुष्य के देव पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य होय छे ते 'भव्यद्रव्यपृथिवीकायिक' २ कहेवाय छे. ए प्रमाणे 'अप्कायिक' अने 'वनस्पतिकायिक' पण जाणवा. अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय अने चउरिद्रिय विषे जे कोइ तिर्यंच के मनुष्य उत्पन्न थवाने योग्य होय ते 'भव्यद्रव्यअग्निकायादि' कहेवाय छे. जे कोई नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव के पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिक पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकमा उत्पन्न थवाने योग्य होय ते 'भव्य द्रव्यपंचेंद्रियतियंचयोनिक' कहेवाय छे. ए प्रमाणे मनुष्यो संबंधे पण जाणवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिको अने वैमानिको नैरयिकोनी पेठे जाणवा. ३. [प्र०] हे भगवन् ! भव्य द्रव्यनैरयिकनी केटला काळनी स्थिति कही छे ? उ. हे गौतम ! तेनी स्थिति जघन्यथी *अंतर्महर्त भव्यद्रव्यनैरयिका 'दिनी आयुष स्थिति अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटि वर्षनी कही छे. ४.प्र०] हे भगवन् ! भव्य द्रव्य असुरकुमारनी स्थिति केटला काळनी कही छे ! [उ०] हे गौतम । तेनी स्थिति जघन्यथी अिंतमुहर्तनी अने उत्कृष्टथी त्रण पल्योपमनी कही छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ५.प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यपृथिवीकायिकनी स्थिति केटला काळनी कही छे ! [उ०] हे गौतम | तेनी स्थिति जघन्यथी अंतमुहर्तनी अजे उत्कृष्टथी काइक अधिक बे सागरोपमनी कही छे. ए प्रमाणे अकायिक संबन्धे पण जाणवू. भव्यद्रव्यअग्निकायिक भव्यद्रव्यवायुकायिक संबन्धे नैरयिकनी पेठे समजवु, वनस्पतिकायिकजे पृथिवीकायिक समान जाणवू भव्य द्रव्य बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय अजे चउरिन्द्रियनी स्थिति नैरयिकनी पेठे जाणवी. वळी भव्यद्रव्यपंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकनी स्थिति जघन्यथी अंतर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपमनी जाणवी. एज प्रमाणे मनुष्यजे विषे पण जाणवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिक तथा वैमानिको असुरकुमारनी पेठे समजवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छे.! अढारमा शतकमां नवमो उद्देशक समाप्त. ३ * जे संज्ञी के असंज्ञी अन्तर्मुहूर्तना आयुषवाळा मरीने नरकगतिमा जवाना छे ते अपेक्षाए भव्यद्रव्यनैरयिकनी अन्तर्मुहूर्तनी जघन्य स्थिति कही छे, अने उत्कृष्ट पूर्वकोटि आयुषवाळो संज्ञी नरकगतिमां जाय ते अपेक्षाए उत्कृष्ट स्थिति कहेवामां आवी छे-टीका. जघन्य अन्तर्मुहूर्तना आयुषवाळा मनुष्य के पंचेन्द्रिय तिथंचने आश्रयी भव्य द्रव्य असुरकुमारादिनी जघन्य स्थिति जाणवी अने देवकुर्वादि युगलिक मनुष्यने आश्रयी त्रण पल्योपमनी उत्कृष्ट स्थिति जाणवी. ५ भव्य द्रव्य पृथिवीकायिकनी उत्कृष्ट स्थिति ईशानदेवलोकने आश्रयी साधिक बे सागरोगमनी जाणवी. भव्य द्रव्य अग्निकायिक अने वायुकायिकनी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटि स्थिति जाणवी, कारण के देवादि तथा युगलिक मनुष्यो त्यो उत्सन्न थता नथी. भव्य द्रव्य पंचेन्द्रिय तिर्यचनी तेत्रीश सागरोपनी स्थिति सातमी नरक पृथिवीना नारकोनी अपेक्षाए जाणवी.-टीका. १० भ० स.. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक १० दसमो उद्देसो । १.प्र. रायगिहे जाव-एवं वयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेजा [उ.] हंता ओगाहेजा। [म.] से णं तत्थ छिज्जेज वा भिजेज वा? [उ०] णो तिणटे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । एवं जहा पंचमसए परमाणुपोग्गलवत्तचया, जाव-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा उदावत्तं वा जाव-नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । २. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! वाउयाएणं फुडे, वाउयाए वा परमाणुपोग्गलेणं फुडे ? [उ०] गोयमा ! परमाणुपोग्गले वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए परमाणुपोंग्गलेणं फुडे । ३. [प्र०] दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाएणं० ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-असंखेजपएसिए । ४. [प्र०] अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउ-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे वाउयाएणं फुडे, वाउयाए अणंतपएसिएणं बंधेणं सिय फुडे, सिय नो फुडे । ___५. [प्र०] वत्थी भंते ! वाउयाएणं फुडे, वाउयाए वत्थिणा फुडे ? [उ०] गोयमा ! वत्थी वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए वत्थिणा फुडे। . ६. [प्र०] अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे दवाई वनओ काल-नील-लोहिय-हालिह-सुकिल्लाई, गंधओ सुब्भिगंधाई, दुभिगंधाइ, रसओ तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराई, फासओ कक्खड-मउय-गरुय-लहुंयसीय-उसिण-निद्ध-लुक्खाई, अन्नमन्नबद्धाई, अन्नमनपुट्ठाई, जाव-अन्नमनघडत्ताए चिटुंति ? [उ०] हंता अस्थि । एवं जावअहेसत्तमाए । [प्र०] अत्थि णं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे ? [उ.] एवं चेव, एवं जाव-ईसिपम्भाराए पुढवीए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते जाव-विहरद । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव-बहिया जणवयविहारं विहरति । दशम उद्देशक. वैक्रिय लब्धिर्नु १. [प्र०] राजगृह नगरमां भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार [वैक्रिय लब्धिना सामर्थ्य. सामर्थ्यथी] तरवारनी धार उपर के अनानी धार उपर रहे ! [उ०] हे गौतम ! हा रहे. [प्र०] हे .भगवन् ! सां ते छेदाय के भेदाय ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. कारण के त्यां शस्त्र संक्रमतुं नथी-इत्यादि बधी पाँचमा शतकमां कहेली *परमाणुपुद्गलनी वक्तव्यता यावत्-हे भगवन् ! 'भावितात्मा अनगार उदकावर्तमां यावत्-प्रवेश करे ?-इत्यादि यावत् कहेवी, पण त्यां शस्त्र संक्रमतुं नथी.' परमाणु. २. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुमुद्गल यायुकायवडे स्पृष्ट-व्याप्त छे के वायुकाय परमाणुपुद्गल वडे स्पृष्ट-व्याप्त छे ! [उ०] हे गौतम ! परमाणुपुद्गल वायुकाय वडे व्याप्त छे, पण वायुकाय परमाणुपुद्गल वडे व्याप्त नथी. द्विप्रदेशिकस्वन्ध. ३. [प्र०] हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंध वायुकाय वडे स्पृष्ट-व्याप्त छे के वायुकाय द्विप्रदेशिक स्कंध बडे स्पृष्ट-व्याप्त छ । [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-असंख्यातप्रदेशिक स्कंध सुधी समजवू. अनन्तमदेशिक ४. [4] हे भगवन् ! अनंतप्रदेशिक स्कंध वायुकायवडे स्पृष्ट छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अनंतप्रदेशिक स्कंध स्कन्ध. वायुकायवडे स्पृष्ट छे, पण वायुकाय अनंतप्रदेशिक स्कंध वडे कदाच स्पृष्ट होय अने कदाच स्पृष्ट न होय. वस्ति भने वायुका- ५. [प्र०] हे भगवन् ! बस्ति-मसक वायुकायवडे स्पृष्ट छे के वायुकाय मसक बड़े स्पृष्ट छ । [उ०] हे गौतम ! बस्ति वायुयिकूनी स्पर्शना. कायवडे रपृष्ट-व्याप्त छे पण वायुकाय बस्ति बडे स्पृष्ट-व्याप्त नथी. रत्नप्रभादि पृथिवी ६. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे वर्णथी काळां, लीलां, पीळां, लाल अने धोळां, गंधथी सुगंधी अने दुर्गंधी, तथा सौधर्मादि PM रसथी कडवा, तीखां, तूरां, खाटां अने मीठां, स्पर्शथी कर्कश, कोमळ, भारे, हळवा, थंडा, उना, चीकणां अने लुखां द्रव्यो अन्योन्य चेना द्रव्यो. बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, यावत्-अन्योन्य संबद्ध थयेलां छे ! [उ०] हे गौतम ! छे. ए प्रमाणे यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म कल्पनी नीचे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणेज जाणवु. ए प्रमाणे यावत्-ईषत्प्राग्भारा सुधी जाणवू. "हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही यावत्-विहरे छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीर यावत्-बहारना देशो मां विहरे छे. *जुओ भग० सं० २ श. ५ उ०७ पृ. २१४. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, ७.तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नगरे होत्था। वन्नओ। दुतिपलासए चेतिए । वन्नओ। तत्थ णं वाणियगामे नगरे सोमिले नाम माहणे परिवसति, अड्डे, जाव-अपरिभूए, रिउच्चेद० जाव-सुपरिनिट्ठिए, पंचण्डं खंडियसयाणं, सयस्स कुटुंबस्स आहेषञ्चं जाव-विहरति । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव-समोसढे । जाव-परिसा पजवासति । तए गं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव-समुप्पजित्था-'एवं खलु समणे णायपुत्ते पुष्वाणुपुच्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे सुहंसुहेणं जाव-इहमागए, जाव-दूतिपलासए चेइए अहापडिरूवं जावविहराइ । तं गच्छामि णं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाइं च णं पयारूवाई अट्ठाई जाव-वागरणा पुच्छिस्सामि तं जा मे से इमाई एयारुवाई अट्ठाई जाव-वागरणाई वागरेहिति ततो णं बंदीहामि नमसीहामि, जाव-पजवासीहामि । अह मे से इमाइं अट्ठाई जाव-वागरणाई नो वागरेहिति तो णं एएहिं चेव अट्टेहि य जाव-वागरणेहि य निप्पटुपसिणवागरणं करेस्सामी' ति कट्ट एवं संपेहेइ । संपेहेत्ता ण्हाए जाव-सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता रचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धिं संपरिखुडे वाणियगामं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छा, निग्गच्छित्ता जेणेव इतिपलासए चेइए जेणेय समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीर एवं वयासी ८. [प्र०] 'जत्ता ते भंते ! जवणिजं, अवाघाहं, फासुयविहारं' ? [उ०] सोमिला! 'जत्ता वि मे, जवणिज पि मे, अवाषाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे'। ९. [प्र०] किं ते भंते ! जत्ता ? [उ.] सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-झाणा-वस्सयमादीएसु जोगेसु जयणा सेत्तं जत्ता। १०. [प्र०] किं ते भंते ! जवणिजं ? [उ०] सोमिला! जवणिजे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-इंदियजवणिजे य नोइंदियजवणिज्जे य। ११. [प्र०] से किं तं इंदियजवणिजे ? [उ०] इंदिय० २ जं मे सोइंदिय-चक्खिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाई वसे वट्ठति । सेत्तं इंदियजवणिज्जे । ७. ते काळे ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. वर्णक. दूतिपलाश चैत्य हतु. वर्णक. ते वाणिज्यग्राम नामे नगरमा सोमिल सोमिलना प्रो. नामे ब्राह्मण रहेतो हतो, जे आढ्य-धनिक यावत्-अपरिभूत-समर्थ हतो, तथा ऋग्वेद यावत्-बीजा ब्राह्मणना शास्त्रोमां कुशल हतो. ते पांचसो शिष्यो तथा पोताना कुंटुंबन अधिपतिपणुं करतो यावत्-रहेतो हतो. त्यार बाद कोइ दिवसे श्रमण भगवंत महावीर त्यां समोसर्या. यावत्-पर्षदा पर्युपासना करे छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीरं आव्यानी आ वात सांभळी ते सोमिल ब्राह्मणने आवा प्रकारनो यावत्-संकल्प थयो के; "ए प्रमाणे खरेखर अनुक्रमे विहरता अने एक गामथी बीजे गाम जता श्रमण ज्ञातपुत्र सुखपूर्वक अहिं आव्या छे, अने यावत्-दूतिपलाश चैत्यमां यथा योग्य अवग्रहने ग्रहण करी यावत्-विहरे छे, तो हुँते श्रमण ज्ञातपुत्रनी पासे जाउं, अने तेनी पासे प्रगट थाउं तथा तेने आ आवा प्रकारना अर्थो, यावत् व्याकरणो-उत्तरो पूछं. जो ते मने आवा प्रकारना आ अर्थ अने यावत्-प्रश्नना उत्तरो कहेशे तो तेमने वांदीश नमीश, यावत्-तेमनी पर्युपासना करीश, जो मने आ अर्थो अने प्रश्नोत्तरो नहि कहे तो आ अर्थ अने उत्तरो वडे निरुत्तर करीश." एम विचारी स्नान करी यावत्-शरीरने अलंकृत करी पोताना घरथी नीकळी एकसो शिष्योनी परिवार साथे पगे चाली वाणिज्यप्रामनी बच्चोवच्च नीकळी ज्यां दूतिपलाश चैत्य छे अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां ते आव्यो अने आवी श्रमण भगवंत महावीरनी थोडे दूर पासे बेसी तेणे तेमने आ प्रमाणे कडं ८. [प्र०] हे भगवन् ! तमने यात्रा, यापनीय, अव्याबाध अने प्रासुक विहार छे ? [उ०] हे सोमिल ! मने यात्रा पण छे, यात्रा, यापनीय यापनीय पण छे, अन्याबाध पण छे अने प्रासुक विहार पण छे. अन्यायाध भने प्रासुक विहार९. [प्र०] हे भगवन् ! तमने यात्रा शुं छे ! [उ०] हे सोमिल ! तप, नियम, संयम, खाध्याय, ध्यान अने आवश्यकादिक योगोमा संयमयात्राजे मारी यतना-प्रवृत्ति छे ते मारी यात्रा छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! तमने यापनीय ए शुंछ ? [उ०] हे. सोमिल ! यापनीय वे प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे-इन्द्रिययापनीय यापनीय. अने नोइन्द्रिययापनीय. ११. [प्र०] हे भगवन् ! इंद्रिययापनीय एटले शुं ? [उ०] हे सोमिल! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेंद्रिय, जिह्वेन्द्रिय अने स्पर्शने- इन्द्रिययापनीय. न्द्रिय-ए पांचे इन्द्रियो उपधात रहित मारे अधीन वर्ते छे ते मारे इन्द्रिययापनीय छे. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उद्देशक १०. १२. [प्र०] से किं तं नोइंदियजवणिजे? [उ.] नोइंदियजवणिजे जं में कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना नो उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिजे, सेत्तं जवणिजे । १३. [प्र०] किं ते भंते ! अधाबाहं ? [उ०] सोमिला! जं मे वातिय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइया विधिहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता नो उदीरेंति । सेत्तं अश्वाबाहं । १४.०] किं ते भंते ! फासुयविहारं? [उ०] सोमिला! जन्नं आरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थीपसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु फासु-एसणिजं पीढ-फलग-सेजा-संथारगं उवसंपजित्ता णं विहरामि, सेत्तं फासुयविहारं । १५. [प्र०] सरिसवा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? [उ०] सोमिला! सरिसवा मे] भक्खेया वि अभक्खेया वि।[प्र०] से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ-'सरिसवा मे भक्खेया वि अभक्खेया वि? [30] से नूणं ते सोमिला! बंभन्नएसु नएसु दुविहा सरिसवा पन्नत्ता, तंजहा-मित्तसरिसवा य धन्नसरिसवा य । तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-सहजायया, सहवडियया, सहपंसुकीलियया, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया। तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवा ते दुविहा पनत्ता, तंजहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य, तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभवखेया। तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य । तत्थ णं जे ते अणेसणिजा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जाइया य अजाइया य । तत्थ गंजे ते अजाइया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते जातिया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं जे ते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं मक्खेया, से तेणटेणं सोमिला! एवं बुच्चइ-जाव-'अभक्खया वि'। १६. [प्र०] मासा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? [उ.] सोमिला ! मासा मे भक्नेया वि अभक्नेया वि। नोइन्द्रिययापनीय. अन्यायाध. प्रासुकविद्वार. सरिसव भक्ष्य के अभक्ष्य. १२. [प्र०] हे भगवन् ! नोइन्द्रिययापनीय ए शु? [उ०] हे सोमिल ! जे मारा क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चारे कषायो व्युच्छिन्न थयेला छे अने उदयमा आवता नथी ते नोइंद्रिययापनीय छे. ए प्रमाणे यापनीय का. १३. [प्र०] हे भगवन् ! तमने अव्याबाध ए शुं छे ? [उ०] हे सोमिल ! जे मारा वात, पित्त, कफ भने संनिपातजन्य अनेक प्रकारना शरीरसंबंधी दोषो-रोगातंको उपशांत थया छे अने उदयमा आवता नथी ते अव्याबाध छे.. १४. [प्र०] हे भगवन् ! तमारे प्रासुकविहार ए शुं छे ! [उ०] हे सोमिल ! आरामो, उद्यानो, देवकुलो, सभाओ, परबो तथा स्त्री, पशु अने नपुंसकरहित वसतिओमां निर्दोष अने एषणीय पीठ, फलक, शय्या अने संथाराने प्राप्त करीने हुँ विहाँ छु ते प्रामुक विहार छे. १५. [प्र०] हे भगवन् ! सरिसवो आपने भक्ष्य छे के अभक्ष्य छे! [उ०] हे सोमिल ! "सरिसव मारे भक्ष्य पण छे अने अभक्ष्य पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'सरिसव भक्ष्य पण छे अने अभक्ष्य पण छे ?' [उ०] हे सोमिल ! तारा ब्राह्मणना नयोमां-शास्त्रोमा बे प्रकारना सरिसव कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मित्र सरिसव-समानवयस्क अने धान्यसरिसव. तेमां जे मित्रसरिसव छे ते त्रण प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-सहजात-साथे जन्मेला, साथे उछरेला अने साथे धूळमा रमेला. ते त्रणे प्रकारना सरिसवा समानवयस्क-मित्रो श्रमण निर्ग्रन्थने अभक्ष्य छे. अने जे धान्यसरिसव छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-शस्त्रपरिणत अने अशस्त्रपरिणत. तेमा जे अशस्त्रपरिणत-अग्नयादि शस्त्रथी निर्जीव थयेला नथी ते श्रमण निर्ग्रन्थोने अभक्ष्य छे. अने शस्त्रपरिणत (अग्नि आदिधी निर्जीव थयेला) छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-एषणीय-इच्छवा लायक, निर्दोष अने अनेषणीय-नहि इच्छवा लायक सदोष. तेमां जे अनेषणीय छे ते श्रमण निग्रंथोने अभक्ष्य छे. वळी जे एषणीय सरिसवो छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणेयाचित-मागेला अने अयाचित-नहि मागेला. तेमां जे अयाचित सरिसव छे, ते श्रमण निर्ग्रन्थोने अभक्ष्य छे, अने जे याचित सरिसव छे, ते बे प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे-मळेला अने नहि मळेला. तेमा जे नहि मळेला छे ते श्रमण निम्रन्थोने अभक्ष्य छे, अने जे मळेला. छे ते श्रमण निर्गन्थोने भक्ष्य छे. माटे हे सोमिल 1 ते कारणथी में का छे के सरिसव मारे भक्ष्य पण छे अने अभक्ष्य पण छे.' १६. [प्र०] हे भगवन् ! 'मास तमारे भक्ष्य छे के अभक्ष्य छे ! [उ०] हे सोमिल ! मास मारे भक्ष्य पण छे भने अभक्ष्य पण मास भक्ष्य के बमक्ष्या। 'सहजायए सहववियए सहपंसुकीलितए' इति क पुस्तके ५०। १५ * महिं 'सरिसव' विष्ट प्राकृत शब्द छे, तेनो एक अर्थ सर्षप एटले सरसव थाय छे अने बीजो अर्थ सदृशवयाः-मित्र थाय छे. १६ अहिं मास शन्द विष्ट छ भने एनो एक अर्थ माष-अडद थाय छे भने बीजो अर्थ मास-महिनो थाय छे. . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८.-उद्देशक १०.. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. [प्र.से केणटेणं जाव-अभक्खेया वि? [उ.] से नूणं ते सोमिला! बंभन्नएसु नपसु दुविहा मासा पन्नत्ता, तंजहा-दया मासा य कालमासा य । तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढपजवसाणा दुवालसं पन्नत्ता, तंजहा-सावणे, भदवप, आसोए, कत्तिए, मग्गसिरे, पोसे, माहे, फागुणे, चित्ते, वइसाहे, जेट्टामूले, आसाढे, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते दवमासा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अस्थमासा य धण्णमासा य। तत्थ णं जे ते अस्थमासा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुवन्नमासा य रुप्पमासा य, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते धनमासा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य-एवं जहा धन्नसरिसवा जाव-से तेणटेणं जाव-अभक्खेया वि । १७. [प्र०] कुलत्था ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ? [उ०] सोमिला ! कुलत्था भक्खेया वि अभक्खेया वि । [प्र०] से केणटेणं जाव-अभक्खेया वि? [उ०] से नूणं सोमिला! ते बंभन्नएसु नयेसु दुविहा कुलत्था पन्नत्ता, तंजहाइत्थिकुलत्था य धन्नकुलत्था य । तत्थ णं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-कुलकन्नया इ वा कुलवहुया ति वा कुलमांउया इवा, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धनकुलत्था एवं जहा धनसरिसवा, से तेणटेणं जाव-अभक्खेया वि। १८. [प्र०] एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अबए भवं, अवट्टिए भवं, अणेगभूयभावभविए भवं? [उ.] सोमिला! पगे वि अहं, जाव-अणेगभूयभावभविए वि अहं । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव-भविए वि अहं' [उ०] सोमिला ! दवट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणट्टयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अधए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं, से तेणटेणं जाव-भविए वि अहं'। १९. एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्धे, समणं भगवं महावीरं० जहा खंदओ, जाव-से जहेयं तुझे वदह, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर० एवं 'जहा रायप्पसेणइजे चित्तो, जाव'-दुवालसविहं सावगधम्म पडिवजति, छे [प्र०] हे भगवन् ! एम शा कारणथी कहो छो के 'मास मारे भक्ष्य पण छे अने अभक्ष्य पण छे ! [30] हे सोमिल ! तारा ब्राह्मणना नयो-शास्त्रोमां मास बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यमास अने कालमास. तेमां जे कालमास छे ते श्रावणथी मांडी आषाढ मास सुधी बार प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे-१ श्रावण, २ भादरवो, ३ आसो, ४ कार्तिक, ५ मार्गशीर्ष, ६ पोष, ७ माघ, ८ फाल्गुन, ९ चैत्र, १० वैशाख, ११ जेठ अने १२ आषाढ. ते श्रमण निम्रन्थोने अभक्ष्य छे. तेमा जे द्रव्यमास छे ते बे प्रकारे छे, ते आ प्रमाणेअर्थमास अने धान्य मास. तेमा जे अर्थमास छे ते बे प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे-*सुवर्ण माष अने रौप्यमाष. अने ते श्रमण निर्मन्थने अभक्ष्य छे. वळी जे धान्यमाष छे ते बे प्रकारना छे-शस्त्रपरिणत (अग्न्यादिथी अचित्त थयेला ) अने अशस्त्रपरिणत (अग्न्यादिथी अचित्त नहि थयेला, सजीव ) छे-इत्यादि जेम धान्यसरसव संबन्धे कयुं तेम धान्यमास संबन्धे पण जाणवू. यावत्-ते हेतुथी यावत्'अभक्ष्य पण छे.' १७. [प्र०] हे भगवन् ! आपने कुलत्था भक्ष्य छे के अभक्ष्य छे! [उ०] हे सोमिल ! कुलत्था भक्ष्य छे अने अभक्ष्य पण छे. कुलस्था भक्ष्य के अभक्ष्य। [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी यावत्-अभक्ष्य छे ? [उ०] हे सोमिल ! तारा ब्राह्मण शास्त्रमा कुलत्था बे प्रकारे छे-स्त्रीकुल स्त्री) अने धान्यकुलत्था (कळथी). तेमां जे स्त्री कुलत्था छे ते त्रण प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-कुलकन्यका, कुलवधू अने कुलमाता. ते श्रमण निर्भन्थोने अभक्ष्य छे. तेमा जे धान्यकुलत्था छे-इत्यादि-वक्तव्यता धान्यसरिसव प्रमाणे जाणवी. ते माटे यावत्-'अभक्ष्य पण छे'. १८. [प्र०] आप एक छो के बे छो, अक्षय छो, अव्यय छो, अवस्थित छो के अनेक भूत, वर्तमान अने भावी परिणामने योग्य छो। एक, अनेक इत्यादि [उ०] हे सोमिल ! हुँ एक पण छु, यावत्-अनेक भूत, वर्तमान अने भावी परिणामोने योग्य छं. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी आप कहो छो के हुं एक यावत्-अनेक भूत, वर्तमान अने भावी परिणामने योग्य छु ! [उ०] हे सोमिल ! हुं द्रव्यरूपे एक छं अने ज्ञानरूपे अने दर्शनरूपे बे प्रकारे पण छं. प्रदेश (आत्मप्रदेश ) रूपे हुं अक्षय छु, अव्यय छु भने अवस्थित पण छं, उपयोगनी दृष्टिए हुँ अनेक भूत वर्तमान अने भावी परिणामने योग्य छु. ते कारणथी हुँ यावत्-अनेक भूत, वर्तमान अने भावी परिणामने योग्य पण छं. १९. अहिं सोमिल ब्राह्मण प्रतिबोध पाम्यो, अने ते श्रमण भगवंत महावीरने वंदन-नमस्कार करे छे-इत्यादि स्कंदकनी पेठे यावत्'जेम आप कहो छो तेमज छे' त्यां सुधी कहेवं । हे देवानुप्रिय ! आपनी पासे जेम घणा राजेश्वर-वगेरे [हिरण्यादिनो त्याग करी मुंड थई १ फग्गुणे क. १६ * सुवर्ण अने रुपुं तोळवानो माष. ११ भग० खं. १ श०२ उ.१. Jain Education international Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक १८.-उद्देशक १०. पडिवजित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति, जाव-पडिगए । तए णं से सोमिले माहणे समणोवासए जाए, अभिगयजीवा. जाव-विहरद । भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-प्र०] पभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता० जहेव संखे तहेव निरवसेसं जाव-अंतं काहिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरति । अट्ठारसमे सए दसमो उद्देसो समत्तो । अनगारपणुं खीकारे छे तेम हुँ करी शकतो नथी ]-इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रमा *चित्रकनुं वर्णन छे तेम यावत्-बार प्रकारनो श्रावक धर्म अंगीकार करे छे' त्यां सुधी कहे. श्रावक धर्मनो स्वीकार करी श्रमण भगवंत महावीरने वांदीने यावत्-ते पोताना घेर गयो. त्यार पछी ते सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक थई जीवाजीवादिक तत्त्वोने जाणतो यावत्-विहरे छे. २०. [प्र०] 'हे भगवन् ! एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! सोमिल ब्राह्मण आप देवानुप्रियनी पासे मुंड थई अनगारपणुं लेवा समर्थ छे-इत्यादि जेम शंख श्रावकनी वक्तव्यता कही छे ते प्रमाणे यावत्'सर्व दुःखोनो अंत करशे' त्या सुधी बधी वक्तव्यता कहेवी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्विहरे छे. अढारमा शतकमां दशम उद्देशक समाप्त अढारमुं शतक समाप्त. १९ * जुओ राज• पृ० १२०. २.1 जुओ भग० खं०३ शु. १२ उ०१पृ०.२५६. . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एणवीस सयं । १ लेस्सा व २ गम्भ १ पुडवी ४ महासवा ५ चरम ६ दीव ७ भवणा य । ८ निवत्ति ९ करण १० वणचरसुरा य एगूणवीसइमे ॥ पढमो उद्देसो । १.[प्र० ] रायगिद्दे जाय एवं पयासी कति नं भंते! लेस्साओ पद्मत्ताओं [४०] गोयमा उल्लेसाओ पाओ, तंजा एवं जहा पनवणार चडत्थो लेसुहेसमो भाणियो निरवसेसो 'सेवं मंते । सेयं भंते! ति । 1 गूणवीस मे स पढो उद्देसो समत्तो । ओगणीशमं शतक. [ उदेशक संग्रह ] लेया विषयक प्रथम उदेशक, गर्भसंबंधे बीजो उद्देशक, पृथिवीकायिकादिनी वक्तम्यता संबंचे तृतीय उदेशक, 'नारको महासचचाळा अने महाकियाचाळा होय' इत्यादि अर्थ संबंचे चोथो उद्देशक, 'चरम अल्पस्थितियाय्य नारको करतां परम-अधिक स्थितिवाळा नारको महाकर्मवाळा होय' इत्यादि वक्तव्यता संबंधे पांचमो उद्देशक, द्वीपादिक संबंधे छट्ठो उद्देशक, भवनादि विषे सातमो उदेशक, निर्वृति - एकेन्द्रियादि जीव वगैरेनी उत्पत्ति संबंधे आठमो उद्देशक, द्रव्यादि करण संबंधे नवमो उद्देशक, अने वनचरपुरयानव्यन्तर देव संबंधे दशमो उद्देशक. ए प्रमाणे आ ओगणीशमा शतकमां दश उद्देशको कहेवाना छे. प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् - भगवान् ! गौतम आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! लेश्याओ केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! छश्याओ कही छे, ते आ प्रमाणे- इत्यादि प्रज्ञापना सूत्रनो चोथो लिश्या उद्देशक अहिं समग्र कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ओगणीशमा शतकमा प्रथम उदेशक समाप्त. * १ कृष्णादि द्रव्यना संबन्धथी आत्माना परिणामविशेष ते लेश्या. ज्यां सुधी योग होय छे त्यां सुधी लेश्या होय छे अने योगना अभावे लेश्या होती नदी भाटे योग सामान नियत से होवाथी योगनिमिया के एम आणी शकान छे. दवे सेवा मान्यरूप के योगनिमित्त कर्म द्रव्यरूप छे ते विचारणीय छे. जो योगनिमित्तक कर्मद्रव्यरूप मानीए तो ते घातीकर्म द्रव्यरूप छे के अघाती कर्मद्रव्यरूप छे ए वे प्रश्न उत्पन्न थाय छे. लेश्या घाती कर्मद्रव्यरूप तो नथी, कारण के सयोगी केवलीने घाती कर्म नहि होवा छतां लेश्या होय छे. ते अघाती कर्मरूप छे एम पण नहि कही शकाय, केम के अयोगी मलीने अपाती कर्म होवा छतां पण छेदया नयी, माटे या मोगान्तर्गत इयरूप के एम मान कोई अर्थात् मन, वचन भने शरीरमा अन्तर्गत शुभाशुभ परिणामना कारणरूप कृष्णादि वर्णना पुद्रलो ते लेक्ष्या. ते लेश्या ज्यां सुधी कषायो छे त्यां सुधी तेना उदयने वधारे छे. कारण के योगान्तर्गत पुन - सोनुं कषायोदय बधारवाई सामर्थ्य ओम के पाना प्रकोपथी कोपनी वृद्धि भाग. ते शिवाय बीजा बाह्य द्रव्यो पण कर्मना उदय भने क्षयोपशमादिना कारणभूत थाय छे, जेमके ब्राह्मी ज्ञानावरणक्षयोपशमनुं अने मद्यपान ज्ञानावरणोदयनुं निमित्त थाय छे, तो पछी यो द्रव्योनुं तेनुं सामर्थ्य होय तेमां कशो विरोध नथी. ते लेश्याना छ प्रकार छे. जुओ प्रज्ञापना टीका पद १७ पृ० ३३०. + श्यादिम्यो प्यारे नीलश्मादि इन्होने मळे खारे नादिना भावरूपे तथा तेन वर्णादिरूपे परिणाम छे. जैम दूधम छाश नांखवाथी के वने रंगवाथी दूध अने वस्त्रनो वर्णादि परिणाम थाय छे. आवो लेश्यापरिणाम मात्र तिर्यंच अने मनुष्यनी लेश्याने आश्रयी जाणवो. देव अने नारकोने सभवपर्यन्त रोमा अवस्थित होवाची अन्य दवा इन्दोनो संबन्ध तो सर्वथा तेो परिणाम तो नथी, अर्थात् ते यासा अन्य लेश्यारूपे थती नथी पण पोताना मूळ वर्णादि खभावने छोड्या सिवाय अन्य लेश्यानी छाया मात्र धारण करे छे. जेम वैडुर्य मणिने लाल सूत्रथी परोववामां आव्यो होय तो ते पोताना नील वर्णने नहि छोड़ता लाल छाया धारण करे छे, तेम कृष्णादि द्रव्यो अन्य लेश्या द्रव्यना संबन्धमां आवे छे त्यारे पोतानो मूळ स्वभाव के वर्णादि नहि छोडतां तेनी छाया-आकार मात्र धारण करे छे. जुओ प्रज्ञा० पद १७५० ३५८-३६८० लेपया / Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ. १. स्यात् द्वार. २. लेइयाद्वार. २. वृष्टिद्वार. ८० श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे बीओ उद्देसो. १. [प्र०] कति णं मंते 1 लेस्साओ पन्नताओ ? [30] एवं जदा पनवणार गम्भुद्देसो सो वेव निरवसेसो माणियां 'सेयं मंते । सेयं मंते' । ति । शतक १९. - उद्देशक ३ एगुणवीसहमे सए बीओ उदेसो समतो द्वितीय उद्देश. १. [प्र० ] हे भगवन् ! लेश्याओ केटली कही छे ! [उ०] ए प्रमाणे प्रज्ञापना सूत्रना सत्तरमा पदनो छडो * गर्भोदेशक सम्पूर्ण कहेबो. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ओगणीशमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त.. ईओ उस । १. [प्र० ] रायगिहे जाव एवं वयासी - सिय भंते ! जाव- चत्तारि पंच पुढविकाइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, ०२ धित्ता तो पच्छा आहारैति वा परिणार्मेति वा सरीरं या बंधंति ? [उ०] नो इणट्ठे समट्ठे पुढविकाराणं पतेयाद्वारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, प० २ धिता ततो पच्छा माहारेति वा परिणार्मेति वा सरीरं वा ति १ । २. [ प्र० ] तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नताओ ? [ड०] गोषमा ! चचारि लेस्साओ पद्मत्ताओ, तंजकण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा तेउलेस्सा 1 ३. [प्र०] ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी १ [उ०] गोयमा ! नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, जो सम्मामिच्छदिडी ३ । तृतीय उद्देशक. १. [प्र० ] राजगृह नगरमां यावत्-भगवान् गौतम आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! किदाच बे यावत्-चार पांच पृथिवीकायिको एकठा पईने एक साधारण शरीर बांधे, बांच्या पही आहार करे पछी से आहारने परिणामाने, अने स्यार बाद वशरीरनो बंध करे ! [४०] ए अर्थ समर्थ यथार्थ नथी. कारण के पृथिवीकायिको प्रत्येक जूदो जूदो आहार करवावाला अने ते आहारनो जूदो हो परि णाम करवावाळा होय छे, तेथी तेओ भिन्न भिन्न शरीर बांधे छे. अने त्यार पछी तेओ आहार करे छे, तेने शरीर बांधे छे. wow! परिणमावे के अने पोतानुं २. [१०] हे भगवन्! ते पृथिवीकायिक जीवोने केटली लेयाओ कही छे [30] हे गौतम! लेओने चार लेश्याओ कही छे, ते आ प्रमाणे - १ कृष्णलेश्या, २ नीललेश्या, ३ कापोतलेश्या, ४ तेजोलेश्या. ३. [प्र० ] हे भगवन् ! ते जीवो सम्यग्दृष्टि छे, मिथ्यादृष्टि छे के सम्यग्मिथ्यादृष्टि - मिश्र दृष्टि छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ सम्यदृष्टि नची, मिखदृष्टि नधी, पण तेओ मिध्यादृष्टि छे. * १ 'कृष्णलेश्यावाळो मनुष्य कृष्णलेश्यावाळा गर्भने उत्पन्न करे ? हा, उत्पन्न करे. एवी रीते कृष्णलेश्यावाळो मनुष्य नीललेश्यावाळा, यावत् शुरूलेश्यावाळा गर्भने पण उत्पन्न करे. एम नीललेश्यावाळो मनुष्य कृष्णादिलेश्यावाळा गर्भने उत्पन्न करे. ए प्रमाणे कापोत, तेजो, पद्म अने शुक्रलेश्या श्रीकृष्णसेवा गर्म उत्पन्न करे. एम कधी कर्मभूमि तया पण ते मनुष्य मनुष्य संबन्धे जाणवुं. मात्र एटलो विशेष के अकर्मभूमिना मनुष्यने प्रथमनी चार लेश्याओ होवाथी तेने आश्रयी जाणवुं जुओ प्रज्ञा० पद १७ उ० ५ पृ० ३७३. + आ उद्देशकमा १ स्थात्, २ लेश्या, ३ दृष्टि, ४ ज्ञान, ५ योग ६ उपयोग, ७ किमाहार- केवा प्रकारनो आहार, ८ प्राणातिपात, ९ उत्पाद, १० स्थिति, ११ समुद्धात अने १२ उद्वर्तना- ए बार द्वारो पृथिवीकायिकथी आरंभी वनस्पतिकायिक जीव पर्यन्त कहेवाना छे. तेमां प्रथम स्यात् द्वारने आश्रयी प्रश्न कर्यो छे. 91 कदाच अनेक पृथिवीकायिको मळी साधारण शरीर बांधे, त्यार पछी विशेष आहार तथा तेनो परिणाम करे माने पछी शरीरनो विशेष बन्ध करे ? ए प्रश्न छे. अहिं सामान्य रीते सर्व संसारी जीवोने प्रति समय निरंतर आहार ग्रहण - पुद्गलग्रहण होय छे. तेथी प्रथम सामान्य शरीरबन्धसमये पण आहार तो चालुज होय छे छतां प्रथम शरीर बांधे पछी आहार करे एम प्रश्न कर्यो ते विशेषाहारनी अपेक्षाए जाणवो. एटले जीव उत्पत्तिसमये प्रथम ओजाहार करे, अने त्यार पछी शरीरस्पर्शद्वारा लोमाहार करे अने तेने परिणमावे. अने त्यार बाद विशेष विशेष शरीर बन्ध करे आ प्रश्न छे. तेना उत्तरमां जणाव्युं के पृथिवीकायिको प्रत्येक भिन्न भिन्न आहार करे छे अने तेनो परिणाम पण भिन्न भिन्न करे छे, माटे तेओ प्रत्येक भिन्न भिन्न शरीर बांधे छे, साधारण शरीर बांधता नथी. त्यार पछी तेओ विशेषाहार, विशेष परिणाम अने विशेष शरीरबन्ध करे छे. / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी, तं जद्दामइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य ४ । ५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? [उ०] गोयमा ! नो मणजोगी, नो घयजोगी, कायजोगी ५। ६.० ते भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? [उ०] गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि ६। ७. [प्र० ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? [उ०] गोयमा! दपओ णं अणंतपदेसियाई दवाई-एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव-सवप्पणयाए आहारमाहारेंति ७ । ८.प्र.गते भन्ते ! जीवा जमाहारेंति तं चिजंति, जनो आहारेति तं नो चिजंति, चिन्ने वा से उहाह पलिसप्पति वा ? [उ०] हंता गोयमा! ते णं जीवा जमाहारेंति तं चिजंति, जं नो जाव-पलिसप्पति था। ९. प्र० तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा पन्नाति वा मणोति वा वईइ वा 'अम्हे णं आहारमाहारेभो' ? [उ.] णो तिणटे समढे, आहारेंति पुण ते। १०. [प्र.] तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाइ वा जाव-वईति वा 'अम्हे णं इट्टाणिट्टे फासे य पडिसंवेदेमो? [उ. णो तिणढे समढे, पडिसंवेदेति पुण ते । ११. [प्र.] ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइजंति, मुसावाए, अदिना०, जाव-मिच्छादसणसल्ले उवक्खा शानदार. ५ गोगदार. ६ उपयोग. ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते (पृथिवीकायिक) जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी नथी, पण अज्ञानी छे, अने तेओने अवश्य बे अज्ञान होय छे. ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान. ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते पृथिवीकायिक जीवो मनोयोगी, वचनयोगी के काययोगी छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ मनयोगी नथी, वचनयोगी नथी, पण काययोगवाळा छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवोने साकार-ज्ञानोपयोग होय छे के निराकार-दर्शनोपयोग उपयोग होय छे ! [उ०] हे गौतम! तेओने साकार उपयोग पण होय छे अने निराकार पण होय छे.' ७. [प्र०] हे भगवन्! ते (पृथिवीकायिक) जीवो केवो आहार करे छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ द्रव्यथी अनंत प्रदेशवाळां पुद्ग- लोनो आहार करे छे-इत्यादि बधुं प्रिज्ञापनासूत्रना प्रथम आहारोदेशका कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत्-'सर्व आत्मप्रदेश वडे आहार ग्रहण करे छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो जे आहार करे छे तेनो चय थाय छे अने जेनो आहार नथी करता तेनो चय नथीं थतो, तथा जे आहारनो चय थएलो होय छे ते आहार [असार भागरूपे] बहार नीकळे छे अने [साररूपे] शरीर-इन्द्रियपणे परिणमे छे ! [उ०] हे गौतम! ते जीवो जेनो आहार करे छे तेनो तेने चय-संग्रह थाय छे अने जेनो आहार नथी करता तेनो चय थतो नथी. यावत्ते आहार शरीर-इन्द्रियपणे परिणत थाय छे. किमाहार. ९. [प्र०] हे भगवन्! ते जीवोने 'अमे आहार करीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अने वचन छे? [उ०] ए अर्थ यथार्थ नथी. अर्थात् ते जीवोने 'अमे आहार करीए छीए' एवी संज्ञा वगेरे होता नथी, तो पण तेओ आहार तो करे छे. १०. [प्र०] हे भगवन्! ते जीवोने 'अमे इष्ट के अनिष्ट स्पर्शने अनुभवीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अने वचन छे? [उ०] ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी, तो पण एओ तेनो अनुभव तो करे छे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! ते पृथिवीकायिक जीवो प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद, अदत्तादान, यावत्-मिथ्यादर्शन शल्यमां ८ प्राणातियताररहेला एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ प्राणातिपातमा रहेला छे, यावत्-मिध्यादर्शनशल्यमां पण रहेला छे एम कहेबाय छे, ते मास्थिति. ७+क्षेत्रथी असंख्यात प्रदेशमा रहेला, काळथी जघन्य मध्यम के उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा अने भावथी वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळा पुद्गलस्कधोनो आहार करे छे. जुओ प्रज्ञा० पद २८ उ०१५० ४९८-५११ ११ पृथिवीकायिकादि जीवोने वचनादिनो अभाव छतां तेओ मृषावादादिमा रहेला कहेवाय छे, ते मृपावादादिनी अविरतिने आश्रयी जाणवू.-टीका. ११ भ० सू० Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक ३. इजंति ? [उ.] गोयमा! पाणाइवाप वि उवक्खाइजंति, जाव-मिच्छादसणसल्ले वि उवक्साइजति । जेसि पिणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिति तेसि पिणं जीवाणं नो विन्नाए नाणत्ते ८।। १२. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा कोहिंतो उववजंति, किं नेरइएहितो उववजंति ? [उ०] एवं जहा पकंतीप पुढषिकाइयाणं उववाओ तहा भाणियचो ९। १३. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई १०।। १४. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पन्नत्ता ?, [उ०] गोयमा ! तओ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहावेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्घाए । १५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्धापणं किं समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? [उ०] गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति ११ । १६. [प्र०] ते णं भंते! जीवा अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववजंति ? [उ०] एवं उधट्टणा जहा वकंतीए १२ । १७. [प्र०] सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच आउक्काइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, एग० २ बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति ? [उ०] एवं जो पुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियधो जाव-उष्वटुंति; नवरं ठिती सत्त वाससहस्साई उकोसेणं, सेसं तं चैव । १८. [H०] सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच तेउक्काइया० एवं चेव, नवरं उववाओ ठिती उच्चट्टणा य जहा पनवणाए, सेसं तं चेव । वाउकाइयाणं एवं चेव, नाणत्तं नवरं चत्तारि समुग्घाया। उत्पादद्वार. १० स्थितिद्वार. ११ समुद्घात. जीवो जे बीजा पृथिवीकायिकादि जीवोनी हिंसादि करे छे एम कहेवाय छे ते जीवोने पण ('आ जीवो अमारी हिंसा करनार छ') एवो भेद ज्ञात नथी. ९. १२. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय-शुं नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय?-इत्यादि. [उ०] जेम "व्युत्कान्तिपदमां पृथिवीकायिकोनो उत्पाद कहेल छे तेम अहिं कहेवो. १३. [प्र०] हे भगवन्! ते पृथिवीकायिक जीवोनी केटला काळनी स्थिति (आयुष) कही छे ! [उ०] हे गौतम! जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी बावीश हजार वर्षनी स्थिति कही छे. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने केटला समुद्घातो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! त्रण समुद्घातो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ वेदना समुद्घात, २ कषाय समुद्घात अने ३ मारणान्तिक समुद्धात. १५. [प्र०] हे भगवन्! शुं ते जीवो मारणान्तिक समुद्घात करीने मरे के मारणान्तिक समुद्घात कर्या सिवाय मरे ? [उ०] हे गौतम! तेओ मारणान्तिक समुद्घात करीने पण मरे अने ते कर्या सिवाय पण मरे. १६. [प्र०] हे भगवन् ! तेओ मरीने तुरत क्या जाय, क्या उत्पन्न थाय ! [उ०] 'व्युकान्ति पदमा कह्या प्रमाणे नेओनी उद्वर्तना कहेवी. १२ १७. [प्र०] हे भगवन् ! कदाच बे, त्रण चार के पांच अप्कायिको मेगा थईने एक साधारण शरीर बांधे अने पछी आहार करे? [उ.] पृथिवीकायिकोने आश्रयी जे पाठ कहेवामां आवेल छे ते अहिं उद्वर्तना द्वार सुधी कहेवो. परन्तु अप्कायिकोनी स्थिति उत्कृष्टथी सात हजार वर्षनी जाणवी. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवं. १८. [प्र०] हे भगवन्! कदाच यावत्-चार के पांच अग्निकायिक जीवो मेगा थईने एक साधारण शरीर बांधे-इत्यादि पूर्ववत् (सू० १) प्रश्न अने उत्तर कहेवो. परन्तु विशेष ए छे के तेओनो उपपात, स्थिति अने उद्वर्तना प्रिज्ञापनासूत्रमा कह्या प्रमाणे जाणवां, अने वाकी बधु पूर्ववत् जाणवू. वायुकायिकोने पण ए प्रमाणे जाणवू; परन्तु एटलो विशेष के तेओने चार समुद्घात होय छे. १२ उर्तनाद्वार. अप्कायिक. अधिकाविक १२ । पृथिवीकायिको नैरयिकोधी आवी उत्पन्न थता नथी, पण तिर्यचयोनिक, मनुष्य अने देवोथी आवी उत्पन्न थाय छे-जुओ प्रज्ञा० पद०६.१०२१२-१. १६ 1 जुओ प्रज्ञा० पद ३ प० ३११. १८१ तेजस्कायिक जीवो तियच अने मनुष्यमांथी आवी उपजे छ. तेओनी स्थिति उत्कृष्ट त्रण अहोरात्रनी होय छे. त्याथी नीकळीने तेओ तिर्यचा ज उत्पन्न थाय छे. बळी तेमा लेश्यानी पण विशेषता छे. ज्यारे पृथिवीकायिकने चार लेश्याओ होय छे, त्यारे अनिकायिकने त्रण लेश्याओ होय छे. वायुकायिकने अनिकायिकनी पेठे जाणवं, परन्तु तफावत एटलो छे के वायुकायिकने वैक्रिय समुद्घात अधिक होवाथी चार समुद्घात होय छे. जुओ-प्रज्ञा० पद६५०३१२. For Private & Personal use only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८३ १९. [प्र०] सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच वणस्सइकाइया०-पुच्छा । [उ०] गोयमा! णो तिणद्वे समढे । अणंता चणस्सइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, एग० २ बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परि० २। सेसं जहा तेउकाइयाणं जाव-उच्चटुंति, नवरं आहारो नियम छद्दिसि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव । २०. प्र०] एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयाणं सुहुमाणं बादराणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं जाव-जहन्नुक्कोसियाए ओगाहणाए कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा सुहमनिओयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा १, सुहुमवाउक्काइयस्स अपजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा २, सुहुमतेउकाइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३, सुहुमआउकाइयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा असंख्नेजगुणा ४, सुहमपुढविकाइयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा ५, वादवाउकाइयस्स अपजत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा ६, बादरतेउक्काइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ७, बादआउकाइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ८, बादरपुढविकाइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ९, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बादरनिओयस्स एएसिणं पजत्तगाणं एएसि णं अपज्जत्तगाणं जहनिया ओगाहणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेजगुणा १०-११, सुहुमनिगोयस्स पजत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा १२, तस्सेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १३, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १४, सुहुमवाउकाइयस्स पजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा १५, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १६, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्को. सिया ओगाहणा विसेसाहिया १७, एवं सुहुमतेउक्काइयस्स वि १८-१९-२०, एवं सहुमाउकाइयस्स वि २१-२२-२३, एवं सुहुमपुढविकाइयस्स वि २४-२५-२६, एवं बादवाउकाइयस्स वि २७-२८-२९, एवं वायरतेउकाइयस्स वि ३०३१-३२, एवं बादरआउकाइयस्स वि ३३-३४-३५, एवं बादपुढविकाइयस्स वि ३६-३७-३८, सधेसि तिविहेणं गमेणं भाणियवं, बादरनिगोयस्स पजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३९, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया १९. [प्र०) हे भगवन् ! कदाच यावत्-चार के पांच वनस्पतिकायिको भेगा थईने एक साधारण शरीर बांधे ?-इत्यादि प्रश्न. वनस्पतिकाविक. [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. पण अनंतवनस्पतिकायिक जीवो भेगा थईने एक साधारण शरीर बांधे छे, पछी आहार करे छे अने परिणमावे छे-इत्यादि बधुं अग्निकायिकोनी पेठे यावत्-'उद्वर्ते छे त्यांसुधी' कहे. विशेष ए के तेओने आहार अवश्य *छ दिशानो होय छे, वळी तेओनी जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी होय छे. बाकीनुं बधुं पूर्वनी पेठे ज जाणवू. २०. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा पृथिवीकायिको, अकायिको, अग्निकायिको, वायुकायिको अने पृथिवीकायिवादिनी अवगाइनार्नु अपवनस्पतिकायिकोनी जे जघन्य अने उत्कृष्ट अवगाहनामां कोनी अवगाहना कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदनी जघन्य अवगाहना साथी थोडी छे १, अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिकनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे २, अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ३, अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ४, अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ५, अपर्याप्त बादर वायुकायिकनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ६, तेथी अपर्याप्त बादर अग्निकायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यगुण छे ७, तेथी अपर्याप्त बादर अप्कायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यगुण छे ८, तेथी अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यगुण छे ९, तेथी पर्याप्त अने अपर्याप्त प्रत्येक शरीरवाळा बादर वनस्पतिकायिकनी अने बादर निगोदनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण अने परस्पर सरखी छे १०-११, तेथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोदनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे १२, तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १३, तेनाथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १४, तेथी पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे १५, तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १६, तेनाथी पर्याप्त सूक्ष्म वायुकायनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १७, ए प्रमाणे वायुकायनी पेठे सूक्ष्म अग्निकाय पर्याप्तनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण, अने तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायनी उत्कृष्ट अवगाहना अने पर्याप्तनी उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरोत्तर विशेषाधिक जाणवी. १८-१९-२०, एम सूक्ष्म अप्काय २१, २२, २३, अने सूक्ष्म पृथिवीकाय संबंधे पण जाणवू. २४-२५-२६. ए प्रमाणे बादर वायुकायिक २७-२८-२९, बादर अग्निकायिक ३०-३१-३२, बादर अप्कायिक ३३-३४-३५, अने बादर पृथिवीकायिक संबंधे पण समजवु. ३६-३७-३८, ए बधाने एम त्रिविधपाठबडे कहेवू. तेथी पर्याप्त बादर निगोदनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे ३९, तेथी अपर्याप्त बादर निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे ४०, १९ * वनस्पतिकायिकोने अवश्य छ दिशाओनो आहार होय छे एम जे कहेवामां आव्यु छे तेनुं शुं तात्पर्य छे ते समजा नथी, कारणके लोकान्त निष्कुष्टमां रहेला सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोने त्रण चार के पांच दिशाओना पण आहारनो संभव छे. पण जो वादर निगोद-साधारण वनस्पतिकायिक-ने माश्रयी आ सूत्र होय तो तेने अवश्य छ दिशानोज आहार घटी शके छे, कारण के ते लोकना मध्य भागमा रहेला होवाथी तेने अवश्य छ दिशानो आहार 'होय छे. टीका. . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक ३. योगाहणा विसेसाहिया ४०, तस्स चेव पज्जत्तगस्स उकोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४१, पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइयस्स पजसगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४२, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४३, सल्स चेय पजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४४। २१.०] एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स बाउकाइयस्स बणस्सइकाइयस्स कयरे जाये सधमुहुमे, कयरे काए सधसुहुमतराए ? [उ०] गोयमा ! वणस्सइकाए सवसुहुमे, वणस्सहकाए सधसुहुमतराप १ । २२. [४०] एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे काये सधमुहुमे, कयरे जाये सबसुषुमतराए ? [३०] गोयमा ! बाउकाए सधसुहुमे, घाउकाए सधसुहुमतराए २ । २३. [३०] एयस्स णं भंते ! पुढविवाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स कयरे काये सधसुहुमे, कयरे काए सधसुहुमतराप[उ०] गोयमा! तेउकाए सच्चसुहुमे, तेउकाए सबसुहुमतराए ३ । २४. [०] एयस्स णं भंते ! पुढविक्काइयस्स आइकाइयस्स कयरे काए सवसुडुमे, कयरे कार सधसुहुमतराए ? [उ०] प्यया! बाउकाए सवसुहुमे, आउकाए सबसुहुमतराए । २५. [३०] एयस्स णं भंते! पुढविक्काइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स वणस्सइकाइयस्स कयरे काये सम्पादरे, पयरे काये सधयादरतराए ? [उ०] गोयमा! वणस्सइकाये सवबादरे, वणस्सइकाये सधवादरतराए । २६. [३०] एयस्स गं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स पाउकाइयस्स कयरे कार सधबादरे, कवरे पर सपपादरसराए ? [उ०] गोयमा ! पुढविकाए सधबादरे, पुदविकाए सधयादरतराए २ । २७. [प्र०] एयस्स णं भंते! आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे कार सवबादरे, कयरे काए सधवादरपराप[उ०] गोयमा ! आउकाए सच्चयादरे, आउक्काए सवबादरतराए ३।। २८. [प्र०] एयस्स णं भंते ! तेउकाइयस्स पाउकाइयस्स कयरे कार सधबादरे, कयरे काए सवबादरतराए ? [3०] गोवमा! तेउकाए सबारे, तेउकाए सवबादरतराए । मिवावयादिनी परत्तर सूक्ष्मता. वेधी पर्याप्त बादर निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे ४१, तेथी प्रत्येक शरीरवाळा पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे ४२, तेथी प्रत्येक शरीरवाळा अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकनी उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुण छे ४३, अने तेथी प्रत्येक शरीरवाळा बादर वनस्पतिकायिकनी उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुण छे ४४. २१. प्र०हे भगवन् ! पृथिवीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक अने वनस्पतिकायिक ए बधामा कइ काय सौथी सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर छे! [उ०] हे गौतम ! वनस्पतिकायिक सौधी सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर छे. २२. हे भगवन् ! ए पृथिवीकाय, अप्काय, अग्निकाय अने वायुकायमां कई काय सर्वथी सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर छे ! [उ०] हे गौतम! वायुकाय सौथी सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर छे. २३. हे भगवन् । ए पृथिवीकाय, अप्काय अने तेजस्कायमां कई काय सर्व सूक्ष्म अने सर्व सूक्ष्मतर छे ? [उ०] हे गौतम ! अग्निकाय साधी सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर छे. २१. [प्र०] हे भगवन् ! ए पृथिवीकाय अने अप्कायमां कई काय सर्य सक्ष्म अने सर्व सूक्ष्मतर छे ! [उ०] हे गौतम ! अप्काय सौपी सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर छे. २५. [प्र०] हे भगवन् ! ए पृथिवीकाय, अप्काय, अनिकाय, वायुकाय अने वनस्पति कायमां कई काय सौथी बादर अने बादरतर है! [उ०] हे गौतम! वनस्पतिकाय सौथी बादर अने बादरतर छे. २६. [प्र०] हे भगवन् ! ए पृथिवीकाय, अप्काय, अग्निकाय अने वायुकायमां कई काय बादर अने बादरतर छ। [उ०] हे गौतम! पृथिवीकाय सौथी बादर अने बादरतर छे. २७. [प्र०] हे भगवन् ! ए अप्काय, अग्निकाय अने वायुकायमा कई काय सौथी बादर अने बादरतर छे! [उ०] हे गौतम ! पफाय सौथी बादर अने बादरतर छे. २८. [प्र०] हे भगवन् ! ए अमिकाय अने वायुकायमां कई काय सर्वथी बादर अने सर्वथी बादरतर छ ! [उ०] हे गौतम! बनिकाय सौथी बादर अने बादरतर छे. * वनस्पतिकाय सूक्ष्म वनस्पतिकायनी अपेक्षाए सर्व करता अधिक सूक्ष्म छ भने प्रत्येक वनस्पतिकायनी अपेक्षाए सर्व करता अधिक बादर छे. एपिपीकावादिनु Jain Education international Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २९. [प्र०] केमहालए णं भंते ! पुढविसरीरे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! अणंताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमवाउसरीरे, असंखेजाणं सुहुमवाउसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहुमतेउसरीरे, असंखेजाणं सुहमतेउकाइयसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहुमे आउसरीरे, असंखेजाणं सुहुमआउक्काइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहमे पुढविसरीरे, असंखेजाणं सुहमपुढविकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे वादरवाउसरीरे, असंखेजाणं बादरवाउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरतेउसरीरे, असंखेजाणं वादरतेउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बादआउसरीरे, असंखेजाणं बादरआउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बादरपुढविसरीरे । एमहालए णं गोयमा ! पुढविसरीरे पन्नत्ते । ३०. [प्र०] पुढविकाइयस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! से जहानामए रनो चाउरंतचक्कवहिस्स वनगपेसिया तरुणी बलवं जुग जुवाणी अप्पायंका० वन्नओ जाव-निउणसिप्पोवगया, नवरं चम्मेट्र-दुहणमुट्रियसमाहयणिचियगत्तकाया न भण्णति, सेसं तं चेव जाव-निउणसिप्पोवगया तिक्खाए वयरामईए सण्हकरणीए तिपखेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एग महं पुढविकाइयंजतुगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय प०२पडिसंखिविय पडि०२ जाव-'इणामेव'त्ति कट्ट तिसत्तक्खुत्तो उप्पीसेजा, तत्थ णं गोयमा! अत्थेगतिया पुढविकाइया आलिद्धा अत्थेगइया पुढविक्काइया नो आ. लिद्धा, अत्थेगइया संघट्टि(ट्ठि)या अत्थेगइया नो संघट्टि(हि)या, अत्थेगइया परियाविया अत्थेगइया नो परियाविया, अत्थेगइया उद्दविया अत्थेगइया नो उद्दविया, अत्थेगइया पिट्ठा अत्थेगतिया नो पिट्ठा, पुढविकाइयस्स गं गोयमा! पमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता। ३१. [प्र०] पुढविकाइए णं भंते ! अकंते समाणे केरिसियं वेदणं पञ्चणुब्भवमाणे विहरति ? [उ०] गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव-निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुन्नं जराजजरियदेहं जाव-दुब्बलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणिजा, से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे केरिसियं वेदणं पञ्चणुब्भवमाणे विहरति ? अणिटुं समणाउसो! तस्स णं गोयमा! पुरिसस्स वेदणाहितो पुढविकाइए अकंते समाणे एत्तो अणिट्टतरियं चेव अकंततरियं जाव-अमणामतरियं चेव वेदणं पञ्चणुब्भवमाणे विहरति । २९. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकोर्नु केटलुं मोटुं शरीर कयुं छे ? [उ०] हे गौतम ! अनंत सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोना जेटलां पृथिवीकायिकना शरीरनुं प्रमाणशरीरो थाय तेटलं एक सूक्ष्म वायुकायतुं शरीर छे. असंख्य सूक्ष्म वायुकायनां जेटलां शरीरो थाय तेटलं एक सूक्ष्म अग्निकायन शरीर छे. असंख्य सूक्ष्म अग्निकायनां जेटलां शरीरो थाय छे, तेटलं एक सूक्ष्म अप्कायर्नु शरीर छे, असंख्य सूक्ष्म अप्कायनां जेटलां शरीरो थाय तेटलं एक सूक्ष्म पृथिवीकायतुं शरीर छे, असंख्य सूक्ष्म पृथिवीकायनां जेटलां शरीरो थाय तेटलुं एक बादर वायुकायतुं शरीर छे, असंख्य बादर वायुकायना जेटलां शरीरो थाय तेटलं एक बादर अग्निकायनुं शरीर छे, असंख्य बादर अग्निकायना जेटलां शरीरो थाय, तेटलं एक बादर अप्कायर्नु शरीर छे अने असंख्य बादर अप्कायनां जेटलां शरीरो थाय तेटलं एक बादर पृथिवीकायतुं शरीर छे. हे गौतम ! [बीजी कायनी अपेक्षाए] एटलं मोटु पृथिवीकायतुं शरीर कयुं छे. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायना शरीरनी केटली मोटी अवगाहना कही छे ? [उ०] हे गौतम! जेमके कोइ एक चार पृथिवीकायिकना शरीरनी अवगाइनादिशाना खामी चक्रवर्ती राजानी चंदन घसनारी दासी होय, ते दासी युवान, बलवान्, युगवान्-सुषमादि विशिष्ट काळमां उत्पन्न थयेली, उमर लायक, नीरोगी-इत्यादि वर्णन जाणवू, यावत्-अत्यंत कळाकुशळ होय, परन्तु 'चमेष्ट, द्रुधण, अने मौष्टिकादि व्यायामना साधनोथी मजबूत थयेला शरीरवाळी' ए विशेषण न कहे. पूर्वोक्त एवी ते दासी चूर्ण वाटवानी वजनी कठण शिला उपर वज्रमय कठण पाषाणवडे लाखना दडा जेटला एक मोटा पृथिवीकायना पिंडने लईने तेने वारंवार एकठो करी करीने, तेनो संक्षेप करी करीने वाटे, यावत्-'आ तुरतमां वाटी नाखु छु' एम धारी एकवीस वार पीसे, तो पण हे गौतम ! तेमां केटलाएक पृथिवीकायिकोने ते शिला अने वाटवाना पाषाणनो मात्र स्पर्श थाय छे अने केटलाएकने स्पर्श पण थतो नथी, केटलाएकने संघर्ष थाय छे अने केटला एकने संघर्ष पण थतो नथी, केटलाएकने पीडा थाय छे अने केटलाएकने पीडा पण थती नथी, केटलाएक मरे छे अने केटलाएक मरता पण नथी; तथा केटलाएक पीसाय छे अने केटला एक पीसाता पण नथी. हे गौतम ! पृथिवीकायना शरीरनी एटली [सूक्ष्म ] अवगाहना कही छे. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे पृथिवीकाय दबाय त्यारे ते केवी पीडानो अनुभव करे ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोई एक पुरुष पृथिवीकायिकने केपी जुवान, बलवान् , यावत्-अत्यन्तकळा कुशळ होय, ते बीजा कोई घडपणथी जीर्ण थयेला शरीरवाळा यावत्-दुबळा ग्लान पुरुषना माथामां पीडा थाय? पोताना बन्ने हाथे मारे तो हे गौतम! ते पुरुषना बन्ने हाथना मारथी घवायेलो ते वृद्ध पुरुष केवी पीडा अनुभवे? हे आयुष्मन् श्रमण ! ते वृद्ध घणीज अनिष्ट पीडाने अनुभवे. हे गौतम! ते पृथिवीकाय ज्यारे दबाय त्यारे ते पुरुषनी वेदना करतां पण अनिष्टतर, अप्रिय अने अणगमती एवी घणी वेदना अनुभवे. १ 'सुहुमवाउकाइआणं'-टीका. ३. * दासीने साधनो द्वारा व्यायामनी प्रवृत्तिनो असंभव होवाथी आ विशेषण न कहेवू.-टीका. . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक ४३२. [प्र०] आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे केरिसियं वेदणं पचणुभवमाणे विहरति ? [30] गोयमा! जहा पुढविकाइए एवं चेव, एवं तेऊयाए वि, एवं वाऊयाएवि, एवं वणस्सइकाए वि, जाव-विहरति । 'सेवं मंते! सेवं भंते चि। एगूणवीसइमे सए तईओ उद्देसो समत्तो। ३२. प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे अप्कायिक जीवनो स्पर्श थाय त्यारे ते केवी वेदना अनुभवे ! [उ०] हे गौतम ! जेम पृथिवीकाय संबंधे का तेम अप्काय संबंधे पण कहे. ए प्रमाणे अग्निकाय, वायुकाय अने वनस्पतिकाय संबंधे पण जाणवू. हे भगवन् ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ओगणीशमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. अष्कायिकने केवी पीडा थाय! ३२. चउत्थो उद्देसो। १. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिजरा ? [उ०] गोयमा ! णो तिण? समढे १ । २. प्र०] सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा [उ.] हंता सिया २। ३. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिजरा ? [उ०] गोयमा ! णो तिणट्टे समढे ३ । ४. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा ? [उ०] गोयमा! णो तिणढे समढे ४ । ५. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेदणा महानिजरा ? [उ०] गोयमा ! णो तिणटे समढे ५ । चतुर्थ उद्देशक. महास्रष, महाक्रिया, १. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको महास्रव-*मोटा आस्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ? महावेदना भने [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. २. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको मोटा आस्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने थोडी निर्जरावाळा ! होय [उ०] हे गौतम ! हा होय. ३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको मोटा आस्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ४. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको मोटा आस्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. ५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको महाआस्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ! [उ.] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. आस्रव " एवं आउकाए वि ङ. * नैरयिकोने घणां कोनो बन्ध थतो होवाथी ते महास्रववाळा, कायिकी वगेरे घणी क्रियावाळा, असातानो तीन उदय होवाथी घणी वेदनावाळा अने घणा कर्मनो क्षय थतो होवाथी महानिर्जरावाळा होय?-ए प्रश्न छे. तेमा उपरना चार पदना नीचे प्रमाणे सोळ भांगा थाय छ:क्रिया वेदना निर्जरा आस्रव क्रिया वेदना निर्जरा महा- महा- महा- महा अल्प महा महा महा अल्प अल्प अल्प महा अल्प महा अल्प अल्प अल्प महा महा अल्प अल्प महा अल्प महा अल्प । अल्प तेमा नैरयिकोने 'महानववाळा, महाक्रियावाळा, महावेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा'-आ बीजो भांगो लागु पदे छे. केमके तेने महानवादि प्रणे होय छे, परन्तु अविरति होवाथी अल्प निर्जरा होय छे. बाकीना भांगाओ नैरयिकोने लागु पडता नथी. असुरकुमारादि देवोमां 'महासव, महाक्रिया, अल्प वेदना अने अल्प निर्जरा''-ए चोथो भांगो होय छे. केमके तेओमां अविरति होवाथी महासव, महाक्रिया अने अल्प निर्जरा होय छे, पण असातानो उदय प्रायः नहि होवाथी अल्प वेदना होय छे. बाकीना भांगाओं तेओमां होता नथी. पृथिवीकायिकादिमा बधा सोळे भांगाओ होय छे.-टीका, महा महा " . अल्प १६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ शतक १९.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा ? [उ०] गोयमा ! नो तिणटे समढे ६ । ७. [प्र० सिय भंते ! नेरतिया महासवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा महानिजरा? [उ.] नो तिणटे समढ़े। ८.०] सिय भंते ! नेरतिया महासवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा? [उ.] णो तिणटे समढे ८ । ९. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेदणा महानिजरा ? [उ०] नो तिणढे समढे ९ । १०. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा? [उ०] नो तिणटे समढे १० । ११. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिजरा ? [उ०] नो तिणढे समढे ११ । १२. प्रि०ा सिय भंते! नेरड्या अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा? [उ.] णो तिणट्रे समटे १२ । १३. [प्र०] सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिजरा ? [उ०] नो तिणटे समढे १३ । १४. प्र०] सिय भंते । नेरतिया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा? [उ०] नो तिणट्टे समटे १४ । १५. प्र० सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महानिजरा [उ०] नो तिणट्रे समटे १५ । १६. प्रकासिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिजरा [उ० णो तिणट्रे समटे १६ । पते सोलस भंगा। १७. प्र०] सिय भंते ! असुरकुमारा महासवा महाकिरिया महावेदणा महानिजरा ? [उ०] णो तिणटे समढे । एवं चउत्थो भंगो भाणियो, सेसा पनरस भंगा खोडेयधा, एवं जाव-थणियकुमारा । ६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको मोटा आश्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ७. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको मोटा आश्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा होय? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको मोटा आश्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. ९. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आश्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय? [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. १०. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आश्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय ! [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. ११. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आश्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय? [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. १२. हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आश्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय! [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. १३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आश्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ! [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. १४. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आम्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाव्य होय: [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. १५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको थोडा आश्रववाळा, थोडी क्रियावाळा, थोडी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी.. १६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको अल्प आश्रववाळा, अल्प क्रियावाळा अल्प वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय ! [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. ए प्रमाणे सोळ भांगा जाणवा. १७. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो मोटा आश्रवबाळा, मोटी क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ! [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. ए प्रमाणे अहिं चोथो भांगो कहेवो, अने बाकीना पंदर भांगाओनो प्रतिषेध करवो. एम यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक ५. १८. [प्र०] सिय भंते ! पुढविकाइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिजरा? [उ०] हंता सिया। प्र०] एवं जाव-सिय मंते! पुढविकाइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा' [उ०] हंता सिया, एवं आव-मणुस्सा, पाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !" ति। एगूणवीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो।। १८. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको मोटा आश्रववाळा, मोटी क्रियावाळा, मोटी वेदनावाळा अने मोटी निर्जरावाळा होय ! [उ०] हा होय.-ए प्रमाणे यावत्-प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको अल्प आश्रववाळा, अल्प क्रियावाळा, अल्प वेदनावाळा अने अल्प निर्जरावाळा होय : उ०] गौतम! हा, होय. ए प्रमाणे यावत्-मनुष्यो सुघी जाणवू. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको तथा वैमानिको असरकमारोनी पेठे कहेवा. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ओगणीशमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो. १. [प्र०] अस्थि णं भंते ! चरिमा वि नेरतिया परमा वि नेरतिया ? [उ०] हंता अस्थि । २. [प्र०] से नूणं भंते! चरमेहितो नेरहपहिंतो परमा नेरइया महाकम्मतरा ए चेष, महाकिरियतरा ए चेव, महस्सषतरा ए चेव, महावेयणतरा ए चेव; परमहिंतो वा नेरइएहितो चरमा नेरइया अप्पकम्मतरा ए चेव, अप्पकिरियतरा ए चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेयणतरा चेव ? [उ०] हंता गोयमा! चरमेहिंतो नेएपहिंतो परमा जाव-महावेयणतरा ए चेव, परमेहिंतो वा नेरइएहितो चरमा नेरइया जाव-अप्पवेयणतरा चेष । [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुश्चइ-जाष-अप्पवेयणतरा चेव' ? [उ०] गोयमा! ठिति पडुच्च, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुश्चइ-जाव-'अप्पवेदणतरा चेवा। . ३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमारा परमा वि असुरकुमारा.१ [उ०] एवं चेव, नवरं विवरीयं भाणियचं, परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्मा । सेसं तं चेव, जाव-थणियकुमारा ताव एवमेष । पुढविकाइया जाव-मणुस्सा पते जहा नेण्या। वाणमंतर-जोइसिय-येमाणिया जहा असुरकुमारा। ४. [प्र०] काविहा गं भंते ! वेदणा पन्नत्ता [उ.] गोयमा! दुविहा वेदणा पत्ता। तं जहा-निदा य अनिदा य । पंचम उद्देशक. चरम भने परम. १ ०] हे भगवन् ! नैरयिको चरम-अल्प आयुषवाळा अने परम-अधिक आयुषवाळा छे ! [उ. हे गौतम ! छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! चरम नैरयिको करतां परम नैरयिको महाकर्मवाळा, महाक्रियावाळा, महाआस्रववाळा अने महावेदनावाळा होय छे! तथा परम-अधिक स्थितिवाळा नैरयिको करतां चरम–अल्पस्थितिवाळा नैरयिको अल्पकर्मवाळा, अल्पक्रियावाळा, अल्पआनवाळा अने अल्पवेदनावाळा होय छे! [उ०] हा गौतम! अल्प आयुषवाळा नैरयिको करता अधिक आयुषवाळा नैरयिको यावत्-महावेदनावाळा होय छे, अने अधिक आयुषवाळा नैरयिको करतां अल्प आयुषवाव्य नैरयिको यावत्-अल्प वेदनावाळा होय छे. [प्र०] हे भगवन्! शा हेतुथी एम कहो छो के यावत्-अधिक आयुषवाळा नैरयिको करतां अल्प आयुषवाळा नैरयिको यावत्-अल्प वेदनावाळा होय छे! [उ०] हे गौतम *आयुषनी स्थितिने आश्रयी यावत्-अल्प वेदनावाळा होय छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो अल्पआयुषवाळा अने अधिक आयुषवाळा पण होय छे ! [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. पण विशेष ए के अहीं पूर्व करतां विपरीत कहेवू. अधिकआयुषवाळा असुरकुमारो [ अशुभ कर्मनी अपेक्षाए] अल्प कर्मवाळा, अने अल्पआयुषवाळा असुरकुमारो महाकर्मवाळा होय छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे कहे, यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवं. जेम नैरयिको कह्या तेम पृथिवीकायिकादि यावत्-मनुष्यो सुधी कहेवा, असुरकुमारोनी पेठे वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको कहेवा. ४. [प्र०] हे भगवन् ! वेदना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! वेदना बे प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-निदाज्ञानपूर्वक वेदना अने अनिदा-अज्ञानपूर्वक वेदना. जे नैरयिकोनी मोटी स्थिति होय, तेने वीजा नैरयिको करता घणां अशुभ कर्म होवाथी ते अपेक्षाए महाकर्मवाळा इत्यादि कया छ, अने जेओनी अल स्थिति छे तेने बीजा करतां अशुभ कर्म थोडां होवाथी अल्प कर्मवाळा इत्यादि कह्या छ-टीका. Jain Education international Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९. - उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८९ ५. [प्र० ] नेरइयाणं भंते! किं निदायं वेदणं वेयंति, अनिदार्थ जहा - पन्नवणाए जाव - ' बेमाणिय' त्ति ।' भंते! सेवं भंते! ति । गुगवीसहमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो । ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको ज्ञानपूर्वक वेदनाने वेदे - अनुभवे छे के अज्ञानपूर्वक वेदनाने वेदे छे ? [उ०] हे गौतम! * प्रज्ञापनासूत्रम का प्रमाणे आदि कहे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुची जाण हे भगवन् ! ते एम छे, हे भगवन् से एमज े' ओगणीशमा शतकमां पंचम उदेशक समाप्त. 1 छओ उद्देसो. १. [प्र०] कहि णं ते! दीवसमुद्दा? केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा ! किंसंडिया णं भंते! दीपसमुद्दा ? [०] एवं जहा जीवाभिगमे दीवसमुद्देसो सो चेव इह वि जोरखियमंडिउद्देसगञ्चो भाणियो जाय परिणामो जीवदाओ जायअनंतखुत्तो | 'सेवं भंते! सेवं भंते' । त्ति । एगूणवीस मे सए छडओ उद्देसो समतो षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! द्वीप अने समुद्रो क्या कह्या छे, हे भगवन् ! द्वीप समुद्रो केटला कह्या छे अने हे भगवन् ! द्वीप द्वीप अने समुद्र समुद्रो केवा आकारे का छे ! [उ०] जीवाभिगमसूत्रमां कहेल ज्योतिविकमंडित उद्देशक सिवाय द्वीपसमुद्रोद्देशक यावत्- 'परिणाम, जीवनो उपपात अने यावत्-अनंतवार 'घटित वाक्य सुधी कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ओगणीशमा शतकमा छट्टो उद्देशक समाप्त. सतमो उद्देसो. १. [ प्र० ] केवतिया णं भंते! असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? [30] गोयमा ! चउसट्ठि असुरकुमारभव णावाससय सहस्सा पन्नता । २. [ प्र० ] ते णं भंते! किमया पन्नत्ता ? [अ०] गोयमा ! सवरयणामया, अच्छा, सण्छा, जाव - पडिरुवा । तत्थ णं बहवे जीवा योगा व चकमंति, बिडकर्मति चयंति, उपवनंति खासया णं ते भवणा दधया यत्रपञ्चवेडिं जावफासपदि असासया, एवं जाब धणियकुमारावासा सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारोना भवनावासो केटला लाख का छे ? [ उ०] हे गौतम! असुरकुमारोना भवनावासो चोसठ भवनावाली अने लाख कह्या छे. विमानावासो [प्र० ] हे भगवन् ! ते भवनावासो केवा छे ? [उ०] हे गौतम! ते भवनावासो सर्वरत्नमय, स्वच्छ, सुंबाळा, यावत्-प्रतिरूपसुन्दर छे. अने त्यां घणा जीचे अने पुछो उपजे हे अने विनाश पाने छे तथा यने छे अने उपजे छे. ते अपनो व्यार्थिकपणे शाश्वत छे अने वर्णपर्यायोवडे यात्रत् - स्पर्शपर्यायोवडे अशाश्वत छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवुं. * ५ निदानपूर्वक अथवा सम्यमाने अनिदा-अशनपूर्वक अथवा सम्यगृविकल्प नापादिनी अरोमां नारकोने बन्ने प्रकारनी वेदना होय छे. जेओ संशीथी आवी उत्पन्न थयेला छे तेने निदा वेदना होय छे अने जेओ असंज्ञीथी आवी उत्पन्न थयेला छे तेने अनिदा वेदना होय छे. ए प्रमाणे असुरकुमारादि देवोने पण जाणवु. पृथिवीकायादिधी मांडी चउरिंद्रिय सुधीना जीवोने मात्र अनिदा वेदना होय छे. पंचेन्द्रिय तिच मनुष्य भने वानर ने नारकोनी पेठे प्रकारनी वेदना दोन है. ज्योतिषिक अने वैमानिकने प्रभारी वेदना होय है, परन्तु ते कारण बीजा जीवो करतो जुदुं कर्तुं छे. त्यां जे मायी मिथ्यादृष्टि देवो छे तेओ अनिदा- सम्यक्विवेकरहितपणे वेदना वेदे छे अने जेओ अमायी सम्यग्दृष्टि देवो छे ते निदा- सम्यक् विवेकपूर्वक वेदना वेदे छे. जुओ-प्रशा० पद ३५ ५० ५५६-५७. १ परिणामसंबधे 'हे भगवन् ! बघा द्वीपसमुद्रो शुं पृथिवीना परिणामरूप छे' ? - जीवना उपपात संबन्धे 'हे भगवन् ! द्वीपसमुद्रोमां सर्व जीवो पृथिवी कायिकादिपणे पूर्व उत्पन्न थया छे' ?- ए बन्ने वाक्यो गौतम स्वामीना प्रश्नरूपे छे, अने अनन्तवार संबन्धे 'हा गौतम! अनेकवार अथवा 'अनंतवार ' उत्पन्न थया छे ए वादय भगवान् महावीरमा उत्तररूपे छे. जुओ-जीवाभि० प्रति० ३५० ३७३. १२ भ० सू० : Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक ८. ३. [प्र०] केवतिया णं भंते ! वाणमंतरभोमेजनगरावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! असंखेजा वाणमंतरमोमेजनगरावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ४. [प्र०] ते णं भंते ! किंमया पन्नत्ता' [उ.] सेसं तं चेव । ५. [प्र०] केवतिया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा-पुच्छा । [उ०] गोयमा! असंखेजा जोइसिय० । ६.० ते भंते । किमया पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! सवफालिहामया, अच्छा, सेसं तं चेव । ७. [प्र०] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! बत्तीसं विमाणापाससयसहस्सा पनत्ता। ८.० ते णं भंते । किमया पन्नत्ता [उ.] गोयमा! सवरयणामया, अच्छा, सेसं तं चेव जाष-अणुत्तरविमाणा, नवरं जाणेयचा जत्थ जत्तिया भवणा विमाणा वा । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । . एगूणवीसइमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो । ३. [प्र०] हे भगवन् ! वानव्यन्तरोना भूमिनी अन्तर्गत केटला लाख नगरो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम ! वानव्यन्तरोना भूमिनी अन्तर्गत असंख्याता नगरो कह्यां छे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! ते वानव्यन्तरना नगरो केवां छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे बाकी- बधुं छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिकना केटला लाख विमानावासो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! ज्योतिषिकना असंख्य लाख विमानावासो कह्या छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! ते विमानावासो केवा छे ! [उ०] हे गौतम 1 ते विमानावासो बधा स्फटिकमय भने स्वच्छ छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. ७. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म कल्पमा केटला लाख विमानावासो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! त्यां बत्रीश लाख विमानावासो कह्या छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! ते बधा विमानावासो केवा छे ? [उ०] हे गौतम | ते बधा सर्व रत्नमय अने स्वच्छ छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे यावत्-अनुत्तरविमान सुधी जाणवू, विशेष ए के ज्या जेटलां भवनो के विमानो होय त्यां तेटलां कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ओगणीशमा शतकमा सप्तम उद्देशक समाप्त. अट्ठमो उद्देसो। १. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! जीवनिवत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा जीवनिधत्ती पन्नत्ता, तं जहा-एगिदियजीवनिवत्ती, जाव-पंचिंदियजीवनिवत्ती।' ___२. [प्र०] पगिंदियजीवनिधत्ती णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-पुढविक्काइयएगिदियजीवनिष्पत्ती, जाव-वणस्सइकाइयार्गदियजीवनिष्पत्ती।। ३. [प्र०] पुढविकाइयएगिदियजीवनिधत्ती णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पनत्ता, तं जहासुहुमपुढविकाइयएगिदियजीवनिष्पत्ती य यादरपुढवि०, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा बडगबंधो तेयगसरीरस्स, जाप अष्टम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! जीवनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवनिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-एकेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति, यावत्-पंचेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति. २. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति, यावत्-वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति. ३. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम | बे प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-सूक्ष्मपृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति अने बादर पृथिवीकायिक-एकेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे ए पाठ वडे महद् बंधना अधिकारमा जेम तैिजसशरीरनो मेद कह्यो छे तेम अहिं कहेवो. यावत्-प्र०) हे भगवन् । सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक मीवनिवृत्ति. भग० सं०३ श.८ उ. पृ.११२. प्रशा० पद २१ ५.४२५. . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९.-उद्देशक. ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ९१ प्र०] 'सचट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियजीवनिवत्ती णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं तहा-पजत्तगसचट्ठसिद्धअणुत्तरोववातिय-जाव-देवपंचिदियजीवनिष्पत्ती य अपजत्तसचट्ठसिद्धाणुत्तरोववाइय-जाव-देवपंचिंदियजीवनिष्पत्ती य'। ४. [प्र०] कतिविहा णं भंते! कम्मनिष्पत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! अट्टविहा कम्मनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-नाणावरणिजकम्मनिष्पत्ती, जाव-अंतराइयकम्मनिष्पत्ती। ५. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! कतिविहा कम्मनिवत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! अविहा कम्मनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहानाणावरणिजकम्मनिष्पत्ती, जाव-अंतराइयकम्मनिष्पत्ती, एवं जाव-वेमाणियाणं । ६. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! सरीरनिवत्ती पन्नत्ता ? [उ.] गोयमा! पंचविहा सरीरनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरनिष्पत्ती, जाव-कम्मगसरीरनिष्पत्ती। ७. [प्र०] नेरइयाणं भंते !०१ [उ०] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं । नवरं नायवं जस्स जइ सरीराणि । ८. [प्र०] कइविहाणं भंते ! सधिदियनिधत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा। पंचविहा सविदियनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहासोइंदियनिवत्ती, जाव-फासिदियनिष्पत्ती, एवं जाव-नेरइया(णं), जाव-थणियकुमाराणं। ९. [प्र०] पुढविकाइयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! एगा फासिदियनिवत्ती पन्नत्ता, एवं जस्स जइ इंदियाणि, जाववेमाणियाणं। १०. [प्र०] कइविहा णं भंते ! भासानिवत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चउधिहा भासानिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-सप्याभासानिवत्ती, मोसाभासानिष्पत्ती, सच्चामोसमासानिष्पत्ती, असञ्चामोसमासानिवत्ती। एवं एगिदियवजं जस्स जा भासा जाव-वेमाणियाणं । ११. [प्र०] कइविहा णं भंते ! मणनिधत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! चउचिहा मणनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-१ सचमणनिष्पत्ती, जाव-असञ्चामोसमणनिष्पत्ती । एवं एगिदियविगलिंदियवजं जाव-वेमाणियाणं । १२. [प्र०] कइविहा णं भंते ! कसायनिवत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमाचउधिहा कसायनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहाकोहकसायनिवत्ती, जाव-लोभकसायनिष्पत्ती, एवं जाव-वेमाणियाणं । देवपंचेन्द्रिय जीवनिवृत्ति केटला प्रकारे कही छे ! उ०] हे गौतम! बे प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे-पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत्-देवपंचेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति अने अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत्-देवपंचेंद्रिय जीवनिर्वृत्ति. ४. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम! कर्मनिवृत्ति आठ प्रकारनी कही छे, ते आ कर्मनिर्वृत्ति. प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय कर्मनिवृत्ति, यावत्-अंतराय कर्भनिर्वृत्ति. ५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनी कर्मनिर्वृत्ति कही छे, [उ०] हे गौतम ! आठ प्रकारनी कर्मनिर्वृत्ति कही छे, ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय कर्मनिर्वृत्ति, यावत्-८ अन्तराय कर्मनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. ६. प्र०] हे भगवन् ! शरीरनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम! शरीरनिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, ते आ शरीरनिर्वृत्ति. प्रमाणे-१ औदारिकशरीरनिर्वृत्ति यावत्-५ कार्मणशरीरनिर्वृत्ति. ७. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने शरीरनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. तथा ए प्रमाणे यावद्-वैमानिकोने जाणवू. विशेष ए के, जेने जेटलां शरीरो होय तेने तेटलां कहेवां. ८. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, तें सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति. आ प्रमाणे-श्रोत्रेन्द्रियनिर्वृत्ति यावत्-स्पर्शेन्द्रियनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे नैरयिको यावत्-स्तनितकुमारो संबन्धे जाणवू. .९. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकोने केटली इन्द्रियनिर्वृत्ति कही छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने एक स्पर्शेन्द्रियनिर्वृत्ति कही छे. ए प्रमाणे जेने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली इन्द्रियनिर्वृत्ति कहेवी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. १०. प्र०] हे भगवन् । भाषानिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ! उ० हे गौतम! भाषानिवृत्ति चार प्रकारनी कही छे, ते आ भाषानिवृत्ति. प्रमाणे-१ सत्यभाषानिवृत्ति, २ मृषाभाषानिवृत्ति, ३ सत्यमृषाभाषानिर्वृत्ति अने ४ असल्यामृषाभाषानिवृत्ति. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवाय यावत्-वैमानिको सुधी जेने जे भाषा होय तेने तेटली भाषानिर्वृत्ति कहेवी... ११. [प्र०] हे भगवन् ! मनोनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे? [उ०] हे गौतम! मनोनिवृत्ति चार प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे- मनोनिवृत्ति सत्यमनोनिवृत्ति यावत्-असत्याऽमृषामनोनिवृत्ति. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रिय सिवाय बाकी बधा माटे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! कषायनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! कषायनिर्वृत्ति चार प्रकारनी कही छे, ते कषायनिर्वृत्ति. आ प्रमाणे--क्रोधकषायनिवृत्ति, यावतू-लोभकषायनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे-यावत्-मानिको सुधी जाणवू. . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णनिर्वृत्ति. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक ८. १३. [प्र०] कइविहा णं भंते ! वननिष्पत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा वन्ननिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा--कालवन्ननिवत्ती, जाव-सुकिल्लवन्ननिष्पत्ती, पवं निरवसेसं जाव-वेमाणियाणं । एवं गंधनिष्पत्ती दुविहा जाप-बेमाणियाणं । रसनिधत्ती पंचविहा जाव-चेमाणियाणं । फासनिवत्ती अट्टविहा जाव-वेमाणियाणं । १४. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! संठाणनिवत्ती पन्नत्ता? [उ.] गोयमा! छविहा संठाणनिष्पत्ती पन्नत्ता, तंजहा-समचउरंससंठाणनिवत्ती, जाव-हुंडसंठाणनिवत्ती। १५. [प्र०] नेरइयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! एगा हुंडसंठाणनिष्पत्ती पन्नत्ता । १६. प्र०] असुरकुमाराणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! एगा समचउरंससंठाणनिश्वत्ती पन्नत्ता, एवं जाव-थणियकुमाराणं । १७. [प्र०] पुढविकाइयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा ! एगा मसूरचंदसंठाणनिष्पत्ती पन्नत्ता, एवं जस्स जं संठाणं जाव-वेमाणियाणं । १८. [प्र०] कइविहा णं भंते ! सन्नानिवत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! चउधिहा सन्ना निष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-आहारसवानिवत्ती, जाव-परिग्गहसन्नानिष्पत्ती, एवं जाव-बेमाणियाणं । १९. [प्र०] कइविहा णं भंते ! लेस्सानिवत्ती पन्नत्ता? [उ.] गोयमा! छविहा लेस्सानिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहाकण्हलेस्सानिवत्ती, जाव-सुक्कलेस्सानिवत्ती, एवं जाव-वेमाणियाणं जस्स जइ लेस्साओ। २०. [प्र०] कइविहा णं भंते ! दिट्ठीनिवत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! तिविहा दिट्ठीनिष्पत्ती पन्नत्ता, तंजहा-सम्मादिलिनिष्पत्ती, मिच्छादिटिनिष्पत्ती, सम्मामिच्छदिट्ठीनिवत्ती । एवं जाव-वेमाणियाणं जस्स जइविहा दिट्ठी। २१. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! णाणनिवत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा णाणनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-आभिणियोहियणाणनिष्पत्ती, जाव-केवलनाणनिष्चत्ती । एवं एगिदियवजं जाव-वेमाणियाणं जस्स जइ णाणा । २२. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! अनाणनिष्पत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! तिविहा अनाणनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहा-मइअन्नाणनिवत्ती, सुयअन्नाणनिष्पत्ती, विभंगनाणनिष्पत्ती । एवं जस्स जइ अन्नाणा जाव-वेमाणियाणं । १३. [प्र०] हे भगवन् ! वर्णनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम । पूर्णनिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-काळावर्णनी निवृत्ति, यावत्-श्वेतवर्णनी निर्वृत्ति. ए प्रमाणे सघळं यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. एम बे प्रकारनी गंधनिर्वृत्ति, पांच प्रकारनी रसनिर्वृत्ति अने आठ प्रकारनी स्पर्शनिवृत्ति यावत्-वैमानिक सुधी कहेवी. १४. [प्र०] हे भगवन् ! संस्थाननिर्वृत्ति केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] हे गौतम ! संस्थाननिर्वृत्ति छ प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-समचतुरस्रसंस्थाननिर्वृत्ति, यावत्-हुंडसंस्थाननिर्वृत्ति. १५. प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटली संस्थाननिवृत्ति छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओने एक हुंडसंस्थाननिवृत्ति कही छे. १६..[३०] हे भगवन् ! असुरकुमारो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओने एक समचतुरस्रसंस्थाननिर्वृत्ति छे. ए प्रमाणे यावत्स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. १७. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकोने आश्रयी प्रश्न. उ०) हे गौतम! तेओने एक मसूर अने चंद्राकारसंस्थान निर्वृत्ति छे. एम जेने जे संस्थान होय तेने ते यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. १८. [प्र०] हे भगवन् ! संज्ञानिवृत्ति केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] दे गौतम ! संज्ञानिवृत्ति चार प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे१ आहारसंज्ञानिवृत्ति, यावत्-४ परिग्रहसंज्ञानिवृत्ति. ए रीते यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. १९. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यानिवृत्ति केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] हे गौतम ! लेश्यानिवृत्ति छ प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे१ कृष्णलेश्यानिवृत्ति, यावत्-६ शुक्ललेश्यानिवृत्ति. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जेने जे लेश्या होय ते तेने लेश्यानिवृत्ति कहेवी. २०. [प्र०] हे भगवन् ! दृष्टिनिर्वृत्ति केटला प्रकारे कही छे ! [उ०] हे गौतम ! दृष्टिनिर्वृत्ति त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे१ सम्यग्दृष्टिनिवृत्ति, २ मिथ्यादृष्टिनिर्वृत्ति अने ३ सम्यग्मिध्यादृष्टिनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जेने जे दृष्टि होय तेने ते दृष्टिनिर्वृत्ति कहेवी. २१. [अ०] हे भगवन् ! ज्ञाननिर्वृत्ति केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्ञाननिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ आमिनिबोधिकज्ञाननिर्वृत्ति, यावत्-५ केवलज्ञाननिर्वृत्ति. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवाय यावत्-वैमानिको सुधी जेने जेटलां ज्ञान होय तेने तेटली निर्वृत्ति कहेवी. २२. [प्र०] हे भगवन् ! अज्ञाननिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे! [उ०] हे गौतम ! अज्ञाननिर्वृत्ति त्रण प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे-१ मतिअज्ञाननिर्वृत्ति, २ श्रुतअज्ञाननिर्वृत्ति अने ३ विभंगज्ञाननिर्वृत्ति. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जेने जेटलां अज्ञानो होप तेने तेटली अज्ञाननिर्वृत्ति कहेवी. संस्थाननिर्वृत्ति संशानिवृत्ति. लेश्यानिर्वृत्ति. दृष्टिनिर्वृत्ति. शाननि ईत्ति. अज्ञाननिवृत्ति. For Private & Personal use only . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ९३ २३. [प्र०] कइविहाणं भंते ! जोगनिवत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! तिविहा जोगनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहा--मणजोगनिष्पत्ती, वयजोगनिवत्ती, कायजोगनिवत्ती । एवं जाव-चेमाणियाणं जस्स जइविहो जोगो।। २४. प्रि०] कइविहा णं भंते ! उवओगनिवत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा उवओगनिधत्ती पन्नत्ता, तं जहासागारोवओगनिष्पत्ती, अणागारोवोगनिच्चत्ती । एवं जाव-वेमाणियागं । [अत्र सहगीगाथे वाचनान्तरे-] "जीवाणं निवत्ती कम्मप्पगडी सरीरनिवत्ती । सविंदियनिवत्ती भासा य मणे कसाया य ॥ वन्ने गंधे रसे फासे संठाणविही य होइ बोद्धयो । लेसा दिट्टी णाणे उवओगे चेव जोगे य" ॥ 'सेवं भंते ! 'सेवं भंते ! त्ति । _____एगूणवीसइमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो। २३. प्र०] हे भगवन् ! योगनिवृत्ति केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] हे गौतम ! योगनिवृत्ति त्रण प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे- १ मनोयोगनिवृत्ति, २ वचनयोगनिर्वृत्ति अने ३ काययोगनिवृत्ति. ए रीते यावत्-वैमानिको सुधी जेने जेटला योगो होय तेने तेटली योगनिर्वृत्ति कहेवी. २४. प्र०] हे भगवन् ! उपयोगनिर्वृत्ति केटला प्रकारे कही छे ? [उ०] हे गौतम ! उपयोगनिर्वृत्ति बे प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-साकारोपयोगनिर्वृत्ति अने निराकारोपयोगनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाण. अहिं बीजी वाचनामां बे संग्रहगाथाओ छे.-"१ जीव, २ कर्मप्रकृति, ३ शरीर, ४ सर्वेन्द्रिय, ५ भाषा, ६ मन, ७ कषाय, ८ वर्ण, ९ गंध, १० रस, ११ स्पर्श, १२ संस्थान, १३ लेश्या, १४ दृष्टि, १५ ज्ञान, १६ उपयोग अने योग ए बधानी निर्वृत्ति आ उद्देशकमा कही छे." हे भगवन ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ओगणीशमा शतकमां अष्टम उद्देशक समाप्त. योगनिर्वृत्ति. उपयोगनिर्वृत्ति, नवमो उद्देसो । १. [प्र०] काविहे णं भंते ! करणे पण्णते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं जहा-१ दधकरणे, २ खेत्तकरणे, ३ कालकरणे ४ भवकरणे, ५ भावकरणे। २. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं जहा-दधकरणे, जावभावकरणे । एवं जाव-वेमाणियाणं । ३. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! सरीरकरणे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे सरीरकरणे पन्नत्ते, तं जहा-१ ओरालियसरीरकरणे, जाव-कम्मगसरीरकरणे । एवं जाव-वेमाणियाणं जस्स जइ सरीराणि । ४. [प्र०] कइविहे णं भंते ! इंदियकरणे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे इंदियकरणे पन्नत्ते, तंजहा-सोईदियक नवम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! "करण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! करण पांच प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ द्रव्यकरण, २ क्षेत्रकरण, ३ कालकरण, ४ भवकरण अने ५ भावकरण. २. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारचें करण कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने पांचे प्रकारनं करण आ प्रमाणे-१ द्रव्यकरण, यावत्-भावकरण. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. ३. [अ०] हे भगवन् ! शरीरकरण केटला प्रकारचें कयुं छे ! [उ०] हे गौतम! शरीरकरण पांच प्रकारचं कडं छे, ते आ प्रमाणे- १ औदारिकशरीरकरण, यावत् ५ कार्मणशरीरकरण. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवं. जेने जेटलां शरीरो होय तेने तेटलां शरीरकरणो कहेवा. ४. [प्र०] हे भगवन् ! इंद्रियकरण केटला प्रकारचें कह्यु छे ? [उ०] हे गौतम! इंद्रियकरण पांच प्रकारचें कर्तुं छे, ते आ १* जे वडे कराय ते करण-क्रियानुं साधन, अथवा करवू ते करण, आ बीजी व्युत्पत्ति प्रमाणे करण अने निष्पत्ति एक ज थई जशे एम न जाणवू. कारण के करण ए आरंभक्रियारूप छे अने निवृत्ति कार्यनी समाप्तिरूप छे. तेना पांच प्रकार ठे-१ द्रव्यरूप दातरडा वगेरे करण ते द्रव्यकरण, अथवा शलाकादि द्रव्यवडे कटादि द्रव्यर्नु करवू ते द्रव्यकरण, २ क्षेत्ररूप करण, अथवा शालिक्षेत्रादिनुं करण, अथवा क्षेत्रद्वारा स्वाध्याय, कर ते क्षेत्रकरण, ३ कालरूम करण, अथवा काळजें, काळवडे अथवा काळमां करवू ते काळकरण. ४ नारकादि भवरूप करण ते भवकरण. ए प्रमाणे ५ भावकरण संवन्धे पण जाणवू.-टीका. ___ * अहिं छ पुस्तकमा करणसंबन्धे बे संग्रहणी गाथा आपेली छे, तेनो अर्थः-१ द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल, ४ भव, ५ भाव, ६ शरीर, ७ इन्द्रिय, ८ भाषा, ९ मन, १० कपाय, ११ समुद्धात, १२ संज्ञा, १३ लेश्या, १४ दृष्टि, १५ वेद, १६ प्राणातिपात, १७ पुद्गल, १८ वर्ण, १९ गंध, २० रस, २१ स्पर्श अने २२ संस्थान-ए बावीश करण छे. कार करण कयुं छे, ते शरीरकरण इन्द्रियकरण, Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण। श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १९.-उद्देशक १०. रणे, जाव-फासिदियकरणे । एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइ इंदियाई। एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चउविहे. मणकरणे चउचिहे, कसायकरणे चउबिहे, समुग्धायकरणे सत्तविहे, सन्नाकरणे चउधिहे, लेसाकरणे छविहे, दिट्ठीकरणे तिविहे, वेदकरणे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-१ इत्थिवेदकरणे, २ पुरिसवेदकरणे, ३ नपुंसगवेदकरणे । एए सधे नेरइयादी दंडगा जाववेमाणियाणं जस्स जं अत्थि तं तस्स सञ्चं भाणियो। ५.प्र०] कतिविहे णं भंते! पाणाइवायकरणे पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! पंचविहे पाणाइवायकरणे पन्नत्ते, तं जहाएगिदियपाणाइवायकरणे, जाव-पंचिंदियपाणाइवायकरणे । एवं निरवसेसं जाव-वेमाणियाणं । ६. प्रि०] कइविहे णं भंते ! पोग्गलकरणे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे पोग्गलकरणे पन्नत्ते, तं जहा-१ वनकरणे, २ गंधकरणे, ३ रसकरणे, ४ फासकरणे, ५ संठाणकरणे । ७. [प्र०] वनकरणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-कालवन्नकरणे, जाव-सुकिलवन्नकरणे, एवं भेदो, गंधकरणे दुविहे, रसकरणे पंचविहे, फासकरणे अट्ठविहे । ८. [प्र०] संठाणकरणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-परिमंडलसंठाणकरणे, जाव-आयतसंठाणकरणे । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति जाव-विहरति । ___एगूणवीसइमे सए नवमो उद्देसो समत्तो । प्रमाणे-१ श्रोत्रेन्द्रियकरण, यावत्-५ स्पर्शेन्द्रियकरण. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जेने जेटली इंद्रियो होय तेने तेटलां इंद्रियकरणो कहेवा. एम ए क्रमवडे चार प्रकारे भाषाकरण, चार प्रकारे मनकरण, चार प्रकारे कषायकरण, सात प्रकारे समुद्घातकरण, चार प्रकारे संज्ञाकरण, छ प्रकारे लेश्याकरण, अने त्रण प्रकारे दृष्टिकरण कहे. वेदकरण पण त्रण प्रकारचं छे, ते आ प्रमाणे-१ स्त्रीवेदकरण, २ पुरुषवेदकरण, अने ३ नपुंसकवेदकरण. ए सघळु नैरयिकोथी मांडी यावत्-वैमानिको सुधी जेने जे होय तेने ते बधुं कहे. प्राणातिपातकरण. ५. [प्र०] हे भगवन् ! प्राणातिपातकरण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! प्राणातिपातकरण पांच प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ एकेन्द्रियप्राणातिपातकरण, यावत्-पंचेन्द्रियप्राणातिपातकरण. ए प्रमाणे सघळु यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. पुद्गलकरण. ६. [अ०] हे भगवन् ! पुद्गलकरण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! पुद्गलकरण पांच प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे १ वर्णकरण, २ गंधकरण, ३ रसकरण, ४ स्पर्शकरण अने ५ संस्थानकरण. वर्णकरण. ७. प्र०] हे भगवन् ! वर्णकरण केटला प्रकारनुं कर्तुं छे ? [उ०.] हे गौतम ! वर्णकरण पांच प्रकारचें कयुं छे, ते आ प्रमाणे१ कृष्णवर्णकरण, यावत्-५ श्वेतवर्णकरण. ए प्रमाणे पुद्गलकरणना वर्णादि भेदो कहेवा. एम बे प्रकारे गंधकरण, पांच प्रकारे रसकरण अने आठ प्रकारे स्पर्शकरण छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! संस्थानकरण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! संस्थानकरण पांच प्रकारे कयुं छे, ते आ प्रमाणे१ परिमंडलसंस्थानकरण, यावत्-२ आयतसंस्थानकरण. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-एम कही यावद्-विहरे छे. ओगणीशमा शतकमां नवम उद्देशक समाप्त. दसमो उद्देसो. १.प्र. वाणमंतरा णं भंते! सवे समाहारा०-एवं जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्देसओ जाव-अप्पिडियाति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। एगूणवीसइमे सए दसमो उद्देसो समत्तो । एगूणवीसतिमं सयं समत्तं । दशम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बधा' वानव्यन्तरो समानआहारवाळा होय छे--इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! *सोळमां शतकना द्वीपकुमारोद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'अल्पर्धिक सुधी जाणवू. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ओगणीशमा शतकमां दशम उद्देशक समाप्त. ओगणीशमुं शतक समाप्त. संस्थानकरण. * १ अल्पर्द्धिक संबन्धे आ प्रमाणे उल्लेख छ-'हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा यावत्-तेजोलेश्यावाळा वानव्यंतरोमां कोण कोनाथी अल्पर्द्धिक छे के महर्द्धिक छे! हे गौतम ! कृष्णलेश्यावाळा करता नीललेश्यावाळा वानव्य॑तर महर्द्धिक छे, यावत्-सर्वथी महर्द्धिक तेजोलेश्यावाळा वानव्यंतर छे. जुओ-भग. सं०४ श. १६. उ०११ पृ. २७ सू. ३. Jain Education international Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमं सयं । १ बेइंदिय २ मागासे ३ पाणवहे ४ उवचए य ५ परमाणू । ६ अंतर ७ बंधे ८ भूमी ९ चारण १० सोवक्कमा जीवा ॥ पढ़मो उद्देसो. १ ०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, ए गयओ० बिंधित्ता तओ रच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति ? [उ०] णो तिणटे समटे। बेंदिया णं. पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयसरीर बंधति, प० २ बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधंति । २. [प्र० तेसि ण भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा! तओ लेस्साओ पन्नत्ताओं, तंजहा-कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा । एवं जहा एगूणवीसतिमे सए तेउक्काइयाणं जाव-'उष्वटंति' । नवरं सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छदिट्टी, दो नाणां दो अन्नाणा नियम, नो मणजोगी, वयजोगी वि कायजोगी वि, आहारो नियम छहिसि । वीशमुं शतक. [उद्देशक संग्रह-] बेइन्द्रियादिनी वक्तव्यता संबंधे प्रथम उद्देशक, आकाशादि अर्थ विषे बीजो उद्देशकं, प्राणातिपातादि अर्थ परत्वे त्रीजो उद्देशक, इन्द्रियोपचय संबंधे चोथो उद्देशक, परमाणुथी आरंभी अनन्तप्रदेशिकस्कंध विषे पांचमो उद्देशक, रत्नप्रभादि नरक पृथिवीना अन्तराल संबंधे छट्ठो उद्देशक, जीवप्रयोगादि बन्ध विषे सातमो उद्देशक, कर्मभूमि अने अकर्मभूमि संबंधे आठमो उद्देशक, विद्याचारणादि विषे नवमो उद्देशक अने सोपक्रम तथा निरुपक्रम आयुषवाळा जीव संबंधे दशमो उद्देशक-एम आ वीशमा · शतकमां दर्श उद्देशको कहेवामां आवशे. प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृहनगरमां यावत्-भगवान् गौतम आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! कदाचित्-बे यावत्-चार के पांच बेइन्द्रिय बेइन्द्रियादि जीवोना जीवो एकठा थईने एक साधारण शरीर बांधे, त्यार पछी आहार करे, तेने परिणमावे अने पछी विशिष्ट शरीर बांधे ! [उ०] हे गौतम.! शरीरबन्धनो क्रम. - बेइन्द्रिय साधारण ए अर्थ समर्थ नथी. कारण के बेइन्द्रिय जीवो जुदा जुदा आहार करनारा अने तेनो भिन्न भिन्न परिणाम करनारा होय छे, तेथी तेओ शरीर बांधे के प्रत्येक प्रत्येक-जुदा जुदा शरीरने बांधे छे, अने प्रत्येक शरीर बांधी आहार करे छे, तेनो परिणाम करे छे अने पछी विशिष्ट शरीर बांधे छे. शरीर बधि २. [प्र०] हे भगवन् । बेइन्द्रिय जीवोने केटली लेश्याओ कही छे ? [उ०] हे गौतम! तेओने त्रण लेश्याओ कही छे, तें आ लेश्या. प्रमाणे-१ कृष्णलेश्या, २ नीललेश्या अने ३ कापोतलेश्या. ए प्रमाणे जेम *ओगणीशमा शतकमां तेजस्कायिक जीवो विषे कयुं छे, तेम अहिं पण यावत्-'उद्वर्ते छे' त्यां सुधी कहे. विशेष ए के, बेइन्द्रिय जीवो सम्यग्दृष्टि पण होय छे अने मिथ्यादृष्टि पण होय छे, पण सम्यग्मिध्या ( मिश्रदृष्टि ) दृष्टि होता नथी. तेओने अवश्य बे ज्ञान के बे अज्ञान होय छे, तेओने मनोयोग नथी, पण वचनयोग अने काययोग होय छे. तेओने अवश्य छ दिशानो आहार होय छे. २* भग० श. १९ उ०३ सू० १८. पृ० ८२. . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक १. ३. [प्र० तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणे ति वा वई ति वा-'अम्हे णं इट्टाणिद्वे रसे इटा. णिट्टे फासे पडिसंवेदेमो' ? [उ०] णो तिण? समटे, पडिसंवेदेति पुण ते । ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई, सेसं तं चेव, एवं ते इंदिया(ण)वि, एवं चरिदिया(ण)वि, नाणत्तं इंदिपसु ठितीए. य, सेसं तं चेव, ठिती जहा पन्नवणाए। ४. [प्र०] सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच पंचिंदिया एगयओ साहारणं० [उ०] एवं जहा बेदियाणं, नवरं छल्लेसाओ, दिट्ठी तिविहा वि, चत्तारि नाणा तिन्नि अनाणा भयणाए, तिविहो जोगो। ५. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा जाव-वती ति वा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो' ? [उ.] गोयमा! अत्थेगइयाणं एवं सन्ना इ वा पन्ना इ वा मणे इ वा वती तिवा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो'। अत्थेगइयाणं नो एवं सन्ना ति वा जाव-वती ति वा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो', आहारेंति पुण ते । ६.० तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा जाव-वह ति वा-'अम्हे णं इट्टाणि? सद्दे इट्टाणिटे रूवे, इट्टाणिटे गंधे, इट्ठाणिद्वे रसे, इटाणिटे फासे पडिसंवेदेमो' ? [उ०] गोयमा! अत्थेगतियाणं एवं सन्ना ति वा जाव-वयी ति वा-'अम्हे णं इट्ठाणिटे सद्दे, जाव-इट्टाणिटे फासे पडिसंवेदेमो'; अत्थेगतियाणं नो एवं सन्ना इ वा जाव-वयी इवा- 'अम्हे णं इट्टाणिटे सहे, जाव-इट्टाणिढे फासे पडिसंवेदेमो', पडिसंवेदेति पुण ते। ७. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइजंति? [१०] गोयमा! अत्थेगतिया पाणातिवाए वि उवक्खाइजंति, जाव-मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइजंति, अत्थेगतिया नो पाणाइवाए उवक्खातिजंति, नो मुसा० जायनो मिच्छादसणसल्ले उवक्खातिजति । जेसि पिणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिति तेसि पिणं जीवाणं अत्थेगतियाणं विनाए संशा अने प्रशा- दिनो अभाव. ३. प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने 'अमे इष्ट अने अनिष्ट रसने तथा इष्ट अने अनिष्ट स्पर्शने अनुभवीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन होय छे ? [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी, परन्तु तेओ ते रसदिकनो अनुभव करे छे. तेओनी जघन्य स्थिति-आयुष अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट स्थिति बार वरसनी छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. ए प्रमाणे तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय जीवो संबंधे पण कहे. मात्र स्थितिमां अने इन्द्रियोमा विशेष छे, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. स्थिति *प्रज्ञापनासूत्रमा कह्या प्रमाणे जाणवी. पंचेन्द्रिय साधारण ४. [प्र०] हे भगवन् ! कदाचित् यावत्-चार पांच पंचेन्द्रियो भेगा मळीने एक साधारण शरीर बांधे ! [उ०] बधुं । वेइन्द्रियोनी पेठे कहे. विशेष ए के तेओने छ ए लेश्याओ होय छे, सम्यग् , मिथ्यात्व अने मिश्र ए त्रणे दृष्टि होय छे, चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए-विकल्पे होय छे अने योग त्रणे होय छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने 'अमे आहार करीए छीए'-एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन होय छे ? [उ०] हे गौतम ! केट वोने (संज्ञी जीवोने ) 'अमे आहार ग्रहण करीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन होय छे, अने केटलाक जीवोने ( असंज्ञी जीवोने ) 'अमे आहार ग्रहण करीए छीए'-एवी संज्ञा, यावत्-वचन होतुं नथी, पण तेओ आहार तो करे छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने 'अमे इष्ट के अनिष्ट रूप, गंध, रस अने स्पर्शने अनुभवीए छीए'-एवी संज्ञा, यावत्-वचन होय छे ? [उ०] हे गौतम ! 'अमे इष्ट के अनिष्ट शब्द यावत्-स्पर्शने अनुभवीए छीए'-एवी संज्ञा, यावत्-वचन केटलाएक जीवोने (संज्ञी जीवोने ) होय छे अने 'अमे इष्ट के अनिष्ट शब्दने यावत् - स्पर्शने अनुभवीए छीए' एवी संज्ञा, यावत्-वचन केटलाएक जीयोने ( असंज्ञी जीवोने ) नथी होतुं. पण तेओ ते शब्द वगेरेनो अनुभव तो करे छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो 'प्राणातिपातमा रहेला छे'-इत्यादि कहेवाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जीवोमांना केटलाएक 'प्राणातिपातमां यावत्-मिध्यादर्शनशल्यमां पण रहेला छे'-एम कहेवाय छे अने केटलाएक जीवो 'प्राणातिपातमां, मृपावादमां यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यमा रहेला छे'-एम कहेवातुं नथी. जे जीवोना प्राणातिपात-हिंसा वगेरे तेओ करे छे, ते जीवोमांना पण केटलाएक जीवोने 'अमे हणाइए छीए अने आ अमारा घातक छे' एवं भेदज्ञान होय छे अने केटलाएक जीवोने ए, भेदज्ञान होतुं नथी. तेमां उपपात सर्वजीवोधी यावत्-सर्वार्थसिद्धथी पण होय छे. स्थिति (आयुष) जघन्यथी अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम होय छे. - ३ * तेइन्द्रिय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति ओगणपचास दिरुनी भने चउरिन्द्रियनी छ मास होय छे, अने जघन्य स्थिति बनी अन्तर्मुहूर्त जाणवी, जुओ-प्रज्ञा० पद ६५० ३११. ४ पंचेन्द्रिय जीवने मत्यादि चार ज्ञान होय छे अने केवळज्ञान अनिन्द्रियने ज होय छे-टीका. Jain Education international Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ९७ नाणत्ते, अत्थेगतियाणं नो विण्णाए नाणत्ते, उववाओ सपओ जाव-सट्टसिद्धाओ, ठिती जहनेणं अंतोमुहर, उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं; छस्समुग्धाया केवलिवजा, उधट्टणा सवत्थ गच्छंति जाव-सवट्ठसिद्धं ति, सेसं जहा बेदियाणं । ८. [प्र०] एएसि णं भंते ! बेइंदियाणं जाव-पंचिदियाण य कयरे कयरेहितो जाव-विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा । सपत्थोवा पंचिंदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव-विहरति । वीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो। तेओने (पंचेन्द्रियोने ) केवलिसमुद्घात सिवाय बाकीना छ समुद्घातो जाणवा. उद्वर्तना-मरीने तेओ यावत्-सर्वार्थसिद्ध सुधी बधे जाय छे, बाकी बधुं बेइन्द्रियोनी पेठे जाणवू. . ८.प्र०] हे भगवन् ! पूर्वोक्त बेइन्द्रिय यावत्-पंचेन्द्रिय जीवोमा कया जीवो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे! [उ०] हे गौतम! सौथी थोडा पंचेन्द्रिय जीवो छे, तेथी चउरिन्द्रिय जीवो विशेषाधिक छे, तेथी तेइन्द्रिय जीवो विशेषाधिक छे अने तेथी बेइन्द्रिय जीवो विशेषाधिक छे. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् । ते एम ज छे'-एम कही (भगवान् गौतम ) यावत्-विहरे छे. वीसमा शतकमां प्रथम उद्देशक समाप्त. इन्द्रियादिनु अल्प बहुत्व. बीओ उद्देसो। १. [प्र०] कइविहे णं भंते ! आगासे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे आगासे पञ्चत्ते, तंजहा-लोयागासे य अलोयागासे य। २. [प्र०] लोयागासे णं भंते ! किं जीवा, जीवदेसा ?-एवं जहा वितियसए अत्थिउद्देसे तह चेव इह वि भाणियचं, नवरं अभिलावो जाव-'धम्मत्थिकाए णं भंते। केमहालए पन्नते १ गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव ओगाहित्ता णं चिट्ठति; एवं जाव-पोग्गलत्थिकाए। ३. [प्र०] अहेलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवतियं ओगाढे १ [उ०] गोयमा ! सातिरेगं अद्धं ओगाढे, एवं एएणं अभिलावणं जहा वितियसए जाव-ईसिपब्भारा गं भंते ! पुढवी लोयागासस्स किं संखेजहभागं० ओगाढा-पुच्छा। गोयमा! नो संखेजइभाग ओगाढा, असंखेजइभाग ओगाढा, नो संखेजे भागे ओगाढा, नो असंखेजे भागे, नो सबलोयं मोगाढा । सेसं तं चेव । द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! आकाश केटला प्रकारर्नु कयुं छे ? [उ०] हे गौतम ! आकाश बे प्रकार- कयुं छे, ते आ प्रमाणे- आकाश बगेरे द्रव्य. लोकाकाश अने अलोकाकाश. २. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाश ए शुं जीवरूप छे, जीवदेशरूप छे-इत्यादि "बीजा शतकना अस्ति उद्देशकमां कह्या प्रमाणे अहिं कहे. विशेष ए के , आ अभिलाप (पाठ) अहिं कहेवो'-'हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय केवडो मोटो छे ! हे गौतम! धर्मास्तिकाय लोकरूप, लोकमात्र, लोकप्रमाण अने लोक वडे स्पर्शायलो छे अने लोकने अवगाहीने रह्यो छे.' ए प्रमाणे यावत्-पुद्गलास्तिकाय सुधी जाणवू. ३. [प्र०] हे भगवन् ! अधोलोक धर्मास्तिकायना केटला भागने अवगाहीने रह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! कंइक अधिक अर्ध भागने अवगाहीने रह्यो छे. ए प्रमाणे ए अभिलापथी जेम 'बीजा शतकमां कडं छे तेम अहिं कहे. यावत्-प्र०] 'हे भगवन् ! ईषप्राग्भारा पृथिवीए लोकाकाशनो शुं संख्यातमो भाग (के असंख्यातमो भाग) वगेरे अवगाह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! लोकाकाशनो संख्यातमो भाग अवगाह्यो नथी, पण असंख्यातमो भाग अवगाह्यो छे, संख्यातमा भागो अवगाह्या नथी, असंख्यातमा भागो अवगाह्या नथी, तेम सर्वलोकने पण अवगाह्यो नथी.' बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवं. २* भग• खं०१श. २ उ०१०पृ. ३१.-३१२. ३१ भग० ख०१श. २ उ०१०पृ. ३१३. १३ भ• सू. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.--उद्देशक २. ४. [प्र०] धम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! अणेगा अभिवयणा पन्नता, तंजहा-धम्मे इ वा धम्मत्थिकाये ति वा पाणाइवायवेरमणे इ वा मुसावायवेरमणे ति वा-एवं जाव-परिग्गहवेरमणे तिवा, कोहविवेगे ति वा जाव-मिच्छादसणसल्लविवेगे ति वा, ईरियासमिती ति वा भासासमिती ति वा, एसणासमिती ति वा आयाणभंडमत्तनिक्खेवणसमिती ति वा, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिढावणियासमिती ति वा, मणगुत्ती तिवा, वइगुत्ती ति वा, कायगुत्ती ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा सच्चे ते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा । . ५. [प्र०] अधम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तंजहा-अधम्मे ति वा, अधम्मत्थिकाए ति वा, पाणाइवाए ति वा, जाव-मिच्छादसणसल्लेति वा, ईरियाअसमिती ति वा, जाव-उच्चारपासवण-जाव-पारिद्वावणियाअसमिती ति वा, मणअगुत्ती ति वा वइअगुत्ती ति वा, कायअगुत्ती ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा सवे ते अधम्मत्थिकायस्स अभिवयणा । ६.[प्र०] आगासत्थिकायस्स णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तंजहा-आगासे ति वा, आगासत्थिकाये ति वा, गगणे ति वा, नभे ति वा, समे ति वा, विसमे ति वा, खहे ति वा, विहे ति वा, वीयी ति वा, विवरे ति वा, अंबरे ति वा, अंबरसे ति वा, छिडे ति वा, झुसिरे ति वा, मग्गे ति वा, विमुहे ति वा, अहे ति वा, (अट्टे ति वा) वियइ ति वा, आधारे ति वा, वोमे ति वा, भायणे ति वा, अंतरिक्खे ति वा, सामे ति वा, उवासंतरे वा, अगमि इ वा, फलिहे इ वा, अणंते ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा सवे ते आगासत्थिकायस्स अभिवयणा । ७. [प्र०] जीवत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तंजहाजीवे ति वा, जीवत्थिकाये ति वा, पाणे ति वा, भूए ति वा, सत्ते ति वा, विन् ति वा, चेया ति वा, जेया ति वा, आया तिवा, रंगणा ति वा, हिंडुए ति वा, पोग्गले ति वा, माणवे ति वा, कत्ता ति वा, विकत्ता ति वा, जए ति वा, जंतु ति वाजोणी ति वा, सयंभू ति वा, ससरीरी ति वा, नायए ति वा, अंतरप्पा ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा सवे ते जाव- अभिवयणा । धर्मास्तिकायना अभिवचनो. अधर्मास्तिकायना अभिवचनो. आकाशास्तिकायना अभिवचनो. ४.प्र०] हे भगवन् ! *धर्मास्तिकायना अभिवचनो-अभिधायक शब्दो केटलां कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम ! तेना अनेक अभिवचनो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, ए प्रमाणे यावत्-परिग्रहविरमण, क्रोधविवेकक्रोधनो त्याग, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग, ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, 'आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चारप्रस्रवणखेलजल्लसिंधानकपारिष्टापनिकासमिति, मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति-ए बधां अने तेना जेवा बीजा शब्दो ते सर्वे धर्मास्तिकायनां अभिवचनो छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकायना केटलां अभिवचनो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम ! तेनां अनेक अभिवचनो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-अधर्म, अधर्मास्तिकाय, प्राणातिपात, यावत्-मिध्यादर्शनशल्य, ईर्यासंबन्धी असमिति, यावत्-उच्चारप्रस्रवण-यावत्पारिष्ठापनिका संबन्धे असमिति, मननी अगुप्ति, वचननी अगुप्ति, कायनी अगुप्ति-ए बधा अने तेनां जेवां बीजां अनेक वचनो छे ते सर्वे अधर्मास्तिकायनां अभिवचनो छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेनां अनेक अभिवचनो कयां छे, ते आ प्रमाणे-आकाश, आकाशास्तिकाय, गगन, नभ, सम, विषम, खह, विहाय, वीचि, विवर, अंबर, अंबरस ( अंब-जलरूप रस जेनाधी प्राप्त थाय छे ते ) छिद, शुषिर, मार्ग, विमुख (मुख-आदिरहित ), अर्द [ अट्ट ] (जेद्वारा गमन कराय ते), व्यर्द, आधार, व्योम, भाजन, अंतरिक्ष, श्याम, अवकाशांतर, अगम, (गमन क्रियारहित ) स्फटिक-स्वच्छ अने अनंत-ए बधां अने तेना जेवा बीजा अनेक शब्दो ते बधा आकाशास्तिकायनां अभिवचनो छे. ७. प्र०ी हे भगवन् ! जीवास्तिकायनां केटलां अभिवचनो कयां छ? [उ०] हे गौतम! जीवास्तिकायनां अनेक अभिवचनो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-जीव, जीवास्तिकाय, प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ, चेता (पुद्गलोनो चय करनार ), जेता-कर्मरूपी शत्रुने जीतनार, आत्मा, रंगण (रागयुक्त), हिंडुक-गमन करनार, पुद्गल, मानव (नवीन नहि पण प्राचीन ) कर्ता, विकर्ता (विविधरूपे कर्मनो कर्ता) जगत्-(गमनशील ), जंतु, योनि ( उत्पादक ), स्वयंभूति, शरीरी, नायक-कर्मनो नेता अने अन्तरात्मा. ए बधां अने तेना जेवा बीजा अनेक शब्दो जीवास्तिकायनां अभिवचनो छे. * अहिं धर्मास्तिकायशब्द प्रतिपाद्य अर्थना वाचक शब्दो केटला छे ए प्रश्न छे. तेमा मुख्यत्वे धर्मास्तिकायशब्दना प्रतिपाद्य बे अर्थ -धर्मास्तिकाय द्रव्य तथा सामान्यधर्म अने विशेष धर्म. सामान्यधर्म प्रतिपादक अने धर्मास्तिकाय द्रव्य प्रतिपादक धर्म शब्द छे अने विशेष धर्मप्रतिपादक प्राणातिपातविरमणादि शब्दो छै. ते सिवाय बीजा सामान्यरूपे के विशेषरूपे चारित्रधर्मना प्रतिपादक जे शब्दो छे ते बधा धर्मास्तिकायना अभिवचनो कयां छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायादि संवन्धे पण जाणq. + वनपात्रादि वस्तुने ग्रहण करवा अने मूकवामा सम्यक् प्रवृत्ति ते आदानभांडमात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चार-विष्टा, प्रस्रवण-मूत्र, खेल-कफ, जाल-काननो मेल, सिंघानक-नाकनो मेल वगेरे त्याज्य वस्तुने त्याग करवा सम्यक् प्रवृत्ति करवी, अर्थात् निर्जीव भूमि उपर यतनापूर्वक तेनो त्याग करवो ते उच्चारप्रस्रवणखेलजल्लसिंघानकपारिष्ठापनिकासमिति. जीवास्तिकायना अभिवचनो. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ शतक २०.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८. पोग्गलत्थिकायस्स णं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तंजहा-पोग्गले ति वा, पोग्गलथिकाये ति वा, परमाणुपोग्गले ति वा, दुपएसिए ति वा, तिपएसिए ति वा जाव-असंखेजपएसिए ति वा, अणंतपएसिए तिवा, जे यावन्ने तहप्पगारा सवे ते पोग्गलत्थिकायस्स अभिवयणा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । वीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तो। ८. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय संबंधे प्रश्न. [उ०] हे मौतम ! तेनां अनेक अभिवचनो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-पुद्गल, पुद्गलास्तिकायना अमिवचनो. पुद्गलास्तिकाय, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, यावत्-असंख्यातप्रदेशिक अने अनंतप्रदेशिक स्कंध. ए बधां अने तेनां जेवां बीजां अनेक पुद्गलास्तिकायनां अभिवचनो छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' वीशमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. तईओ उद्देसो। १.[प्र०] अह भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए जाव-मिच्छादसणसल्ले, पाणातिवायवेरमणे, जाव-मिच्छादसणसल्लविवेगे, उप्पत्तिया, जाव-पारिणामिया, उग्गहे, जाव-धारणा, उट्ठाणे, कम्मे, वले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे, नेरइयत्ते, असुरकुमारत्ते, जाव-वेमाणियत्ते, नाणावरणिजे, जाव-अंतराइए, कण्हलेस्सा, जाव-सुक्कलेस्सा, सम्मदिट्ठी ३, चक्खुदंसणे ४, आभिणिबोहियणाणे, जाव-विभंगनाणे, आहारसन्ना ४, ओरालियसरीरे ५, मणजोगे ३, सागारोवओगे, अणागारोवओगे, जे यावन्ने तहप्पगारा सवे ते णण्णत्थ आयाए परिणमंति ? [उ०] हंता गोयमा! पाणाइवाए, जाव-सवे ते णण्णत्थ आयाए परिणमंति । २. [प्र०] जीवे णं भंते! गम्भं वक्कममाणे कतिवन्ने, कतिगन्धे०१ [उ०] एवं जहा बारसमसर पंचमुइसे जाव-'कम्मओ णं जए, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमति' । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरति । वीसइमे सए तईओ उद्देसो समत्तो। . तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य, प्राणातिपातविरमण, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, प्राणातिपातादि औत्पत्तिकी, यावत्-पारिणामिकी, अवग्रह, यावत्-धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम, नैरयिकपणुं, असुरकुमारपणुं, परिणमता नथी. यावत्-वैमानिकपणुं, ज्ञानावरणीय, यावत्-अंतराय, कृष्णलेश्या, यावत्-शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि, चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन, आमिनिबोधिकज्ञान, यावत-विभंगज्ञान. आहारसंज्ञा. भयसंज्ञा. परिग्रहसंज्ञा. मैथनसंज्ञा. औदारिकशरीर, यावत्-कार्मणशरीर, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, साकार उपयोग अने निराकार उपयोग; ए बधां अने बीजा तेना जेवा धर्मो आत्मा सिवाय अन्यत्र परिणमता नथी ! [उ०] हे गौतम! प्राणातिपात, यावत्-अनाकार उपयोग ए बधा आत्मा सिवाय बीजे परिणमता नथी. २. [प्र०] हे भगवन् ! गर्भमां उत्पन्न थतो जीव केटला वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळा परिणाम वडे परिणमे छे ! [उ०] *बारमा शतकना पांचमा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे अहिं कहे. यावत्-'कर्मथी जगत् छे, कर्म सिवायः तेनो विविधरूपे परिणाम थतो नथी. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-' एम कही [भगवान् गौतम ] यावत्-विहरे छे. वीशमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. चउत्थो उद्देसो। १. [प्र०] कइविहे गं भंते ! इंदियउवचए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे इंदियोवचए पन्नत्ते, तंजहा-सोइंदियउवचएक-एवं बितिओ इंदियउद्देसओ निरवसेसो भाणियचो जहा पन्नवणाए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते!, त्ति भगवं गोयमे जाव-विहरति । वीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो। चतुर्थ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! इन्द्रियोपचय केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! इन्द्रियोपचय पांच प्रकारनो कह्यो छे, ते इन्द्रियोपचय. आ प्रमाणे-श्रोत्रेन्द्रियोपचय-इत्यादि बधुं प्रिज्ञापनाना बीजा इन्द्रियउद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ- एम कहीं यावत्-विहरे छे. वीशमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. २* भग० खं. ३ श. १२ उ०५पृ० २७८. १t प्रज्ञा० पद १५ उ०२ पृ.३०८. . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक ५. पंचमो उद्देसो । १. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवन्ने, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते ? [३०] गोयमा ! एगवन्ने, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पन्नत्ते, तंजहा-जइ एगवन्ने सिय कालए, सिय नीलए, सिय लोहिए, सिय हालिद्दए, सिय सुकिल्लए, जह एगगंधे सिय सुम्भिगंधे, सिय दुन्भिगंधे, जइ एगरसे सिय तित्ते, सिय कडुए, सिय कसाए, सिय अंबिले, सिय महुरे, जह दुफासे सिय सीए य निद्धे य १, सिय सीए य लुक्ने य २, सिय उसिणे य निद्धे य ३, सिय उसिणे य लुक्खे य ।। २. [प्र.] दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने ? [उ०] एवं जहा अट्ठारसमसए छट्ठद्देसए जाव-सिय चउफासे जइ एगवन्ने सिय कालए जाव-सिय सुकिल्लए, जइ दुवन्ने सिय कालए य नीलए य १, सिय कालए य लोहितए य २, सिय कालए य हालिइए य ३, सिय कालए य सुकिल्लए य ४, सिय नीलए य लोहियए य ५, सिय नीलए य हालिइए य ६, सिय नीलए य सुकिल्लए य ७, सिय लोहियए य हालिइए य ८, सिय लोहियए य सुकिल्लए य ९, सिय हालिद्दए य सुकिल्लए य १० । एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा । जइ एगगंधे सिय सुन्भिगंधे १, सिय दुन्भिगंधे य २, जइ दुगंधे सुन्भिगंधे य दुन्भिगंधे य । रसेसु जहा वन्नेसु । जइ दुफासे सिय सीए य निद्धे य, एवं जहेव परमाणुपोगले ४ । जइ तिफासे सवे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १, सच्चे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे २, सधे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ३, सधे लुक्ने देसे सीए देसे उसिणे ४ । जब चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुक्ने १, पर नव भंगा फासेसु। पंचम उद्देशक. परमाणु वगेरेमा १. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल केटला वर्णवाळो, केटला गंधवाळो, केटला रसवाळो अने केटला स्पर्शवाळो छे ! [उ०] हे वर्णादि गौतम ! ते एक वर्णवाळो, एक गंधवाळो, एक रसवाळो अने बे स्पर्शवाळो छे. ते आ प्रमाणे-जो ते एक वर्णवाळो होय तो, कदाच परमाणु. काळो, कदाच लीलो, कदाच रातो, कदाच पीळो अने कदाच धोळो होय (५). जो ते एक गंधवाळो होय तो कदाच सुगंधी अने कदाच दुर्गधी होय (२). जो ते एक रसवाळो होय तो कदाच कडवो, कदाच तीखो, कदाच तूरो, कदाच खाटो अने कदाच मधुर (मीठो) होय (५). जो ते "बे स्पर्शवाळो होय तो कदाच शीत अने स्निग्ध १, कदाच शीत अने रुक्ष-लुखो २, कदाच उष्ण अने स्निग्ध ३, कदाच उष्ण अने रुक्ष होय ४. [ए प्रमाणे परमाणुमा वर्णना ५, गंधना २, रसना ५, अने स्पर्शना ४ मळीने १६ भांगा थाय छे ]. द्विप्रदेशिक स्कन्ध. २. [प्र०] हे भगवन् । द्विप्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] अढारमा शतकना छट्ठा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहे, यावत्-'ते कदाच चार स्पर्शवाळो होय.' जो ते एक वर्णवाळो होय तो कदाच काळो होय अने यावत्-कदाच धोळो होय ५. जो ते बे वर्णवाळो होय तो १ कदाच काळो अने लीलो, २ कदाच काळो अने रातो, ३ कदाच काळो अने पीळो, ४ कदाच काळो अने धोळो, ५ कदाच लीलो अने रातो, ६ कदाच लीलो अने पीळो, ७ कदाच लीलो अने धोळो, ८ कदाच रातो अने पीळो, ९ कदाच रातो अने धोळो अने १० कदाच पीळो अने धोळो होय. ए प्रमाणे द्विकसंयोगी दश भांगा जाणवा. जो ते एक गंधवाळो होय तो कदाच सुगंधी होय अने कदाच दुर्गधी होय २. जो ते बे गंधवाळो होय तो सुगंधी अने दुर्गन्धी बन्ने गंधवाळो होय ३. जेम वर्णोमां भांगा कह्या, तेम "रसोमा पण १५ भांगाओ जाणवा. हवे जो ते बे स्पर्शवाळो होय तो कदाच शीत अने स्निग्ध होय-इत्यादि चार भांगा परमाणुपुद्गलनी पेठे समजवा. जो ते (द्विप्रदेशिकस्कंध) त्रण स्पर्शवाळो होय तो ते कदाच सर्वशीत होय अने तेनो एक देशभाग स्निग्ध अने एक देश रूक्ष होय १; कदाच सर्व उष्ण होय अने तेनो एक देश स्निग्ध अने एक देश रूक्ष होय २, अथवा कदाच सर्व स्निग्ध होय अने एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय ३, अथवा कदाच सर्व रुक्ष होय भने एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय ४. हवे जो ते चार स्पर्शवाळो होय तो तेनो एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष प्रदेशिक स्कम्भमा होय १. ए प्रमाणे स्पर्शना नव भांगा जाणवा. [ ए रीते द्विप्रदेशिक स्कंधमा वर्णना १५, गंधना ३, रसना १५, अने स्पर्शना ९ R भोगा मो. सर्व मळीने ४२ भांगा थाय छे]. १* परमाणुमा शीत, उष्ण, स्निग्ध अने रूक्ष-ए चार स्पर्शमांना अविरोधी बे स्पर्श होय छे. २१ भग० सं०४ श०१८ उ०६पृ०६३ सू०६. द्विप्रदेशिक स्कन्धमा ज्यारे बन्ने प्रदेशोनो एकवर्णरूपे परिणाम थाय छे त्यारे तेना काळो वगेरे पांच विकल्प थाय छे, अने ज्यारे बग्ने प्रदेशोयो भिन्न भिल वर्णरूपे परिणाम थाय छे त्यारे तेना द्विकसंयोगी दश विकल्प थाय छे. गन्धमा एकगन्धरूपे परिणाम थाय त्यारे बे भांगा अने बन्ने गन्धरूपे परिणाम पाय त्यारे एक भांगो, रसना एक रसरूपे परिणाम थाय त्यारे पांच भांगा अने बे रसरूपे परिणाम थाय त्यारे दश अने स्पर्शना पूर्व कहेला चार भांगा मळीने ४२ भांगाओ थाय छे. तेमा रसना असंयोगी १ तीसो, २ कडवो, ३ तूरो, ४ खाटो, ५ मीठो-ए पांच भांगाओ अने द्विकसयोगी दश भागा छ१ तीखो अने कडवो, २ तीखो भने तूरो, ३ तीखो अने खाटो, ४ तीखो अने मीठो, ५ कडवो अने तूरो, ६ कडवो अने खाटो, ५ कडवो भने मीठो, “तूरो अने खाटो, तूरो अने मीठो, अने १० खाटो अने मीठो. बन्ने मळी रसना पंदर भांगा थाय छे. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १०१ ३. [प्र०] तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने० [उ०] जहा अट्ठारसमसए छटुंदेसे जाव-चउफासे पन्नत्ते । जा एगवने सिय कालए जाव-मुक्किलए ५ । जइ दुवन्ने सिय कालए य सिय नीलए य १, सिय कालए य नीलगाय २, सिय कालगा य नीलए य ३, सिय कालप य लोहियए य १, सिय कालए य लोहीयगा य २, सिय कालगा ३, एवं हालिहएण वि समं भंगा ३, एवं सुकिल्लएण वि समं ३, सिय नीलए य लोहियए य एत्य वि भंगा ३, एवं हालिहुएण वि समं भंगा ३, एवं सुकिल्लेण वि समं भंगा ३, सिय लोहियए य हालिद्दए य भङ्गा ३, एवं सुकिल्लेण वि समं ३, ३. प्र०] हे भगवन् ! त्रिप्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम "अढारमा शतकना छट्ठा उद्देशकमा कर्वा त्रिप्रवेशिकस्कन्ध, छ तेम यावत्-'ते कदाच चार स्पर्शवाळो होय' त्यां सुधी कहे. जो ते एक वर्णवाळो होय तो कदाच काळो होय अने यावत्-कदाच धोळो पण होय ५. जो ते बे वर्णवाळो होय तो तेनो एक अंश कदाच काळो अने एक अंश लीलो होय १, कदाच तेनो एक अंश काळो अने बीजा बे अंशो लीला होय २; कदाच बे देशो काळा अने एक देश लीलो होय ३. कदाच एक अंश काळो अने एक अंश रातो होय १. अथवा कदाच तेनो एक देश काळो अने अनेक देशो राता होय २. कदाच अनेक देशो काळा अने एक देश रातो होय ३. ए प्रमाणे काळावर्णना पीळानी साथे पण त्रण भांगा करवा ३. तथा ए रीते ज काळा वर्णना धोळा वर्णनी साथे पण त्रण भांगा जाणषा ३. अथवा कदाच लीलो अने रातो होय. अहिं पण पूर्व प्रमाणे त्रण भांगा जाणवा ३. एम लीला वर्णना पीळानी साथे ३ अने धोळानी साथे त्रण त्रण भांगा करवा ३. कदाच रातो अने पीळो होय ३. ए प्रमाणे राता वर्णना धोळानी साथे पण त्रण भांगा करवा ३. कदाच पीळो अने धोळो होय ३. ए बधा मळीने दस द्विक संयोगना त्रीश भांगा थाय छे. हवे जो ते त्रिप्रदेशिकस्कंध त्रण वर्णवाळो होय तो. कदाच १ काळो, लीलो अने रातो, २ कदाच काळो, लीलो अने पीळो, ३ कदाच काळो, लीलो अने धोळो, कदाच ४ काळो, रातो अने पीळो, कदाच ५ काळो, रातो अने धोळो, कदाच ६ काळो, पीळो अने धोळो होय. अथवा कदाच ७ लीलो, रातो अने पीळो, कदाच ८ लीलो, रातो अने धोळो होय, अथवा कदाच ९ लीलो, पीळो अने धोळो होय, कदाच १० रातो, पीळो अने धोळो होय. ए प्रमाणे ए दस त्रिकसंयोगी भांगाओ जाणवा. हवे जो ते एक गंधवाळो होय तो कदाच १ सुगंधी होय अने कदाच २ दुर्गधी होय. जो बे गंधवाळो होय तो कदाच सुगंधी अने दुर्गंधी होय. अहिं एक वचन अने बहु वचनने आश्रयी त्रण भांगा जाणवा. (चोथो मांगो थतो नथी.) जेम वर्णने आश्रयी ४५ भांगा कह्या, तेम रसोने आश्रयीने पण ४५ भांगा जाणवा. जो ते बे स्पर्शवाळो होय तो कदाच शीत अने स्निग्ध होय-इत्यादि चार भांगा द्विप्रदेशिकस्कंधनी पेठे अहिं कहेवा ४. जो (त्रिपदेशिक स्कन्ध) त्रण स्पर्शवाळो होय तो सर्व ३. जुओ भग• खं० ४ श. १८ उ० ६ पृ. ६३ सू० ६. + त्रिप्रदेशिक स्कन्धा त्रण परमाणुओ होवा छतां तथाविध परिणामने लीधे ते एक प्रदेशावगाही, द्विप्रदेशावगाही अने त्रिप्रदेशावगाही होय छे. ज्यारे एक प्रदेशावगाही होय छे त्यारे तेमां अंशनी कल्पना थई शकती नथी. ज्यारे द्विप्रदेशावगाही होय छे त्यारे तेमां बे अंशनी अने त्रिप्रदेशावगाही होय त्यारे त्रण अंशनी कल्पना थई शके छे. ज्यारे त्रणे प्रदेशोनो काळा वगेरे एकवर्णरूपे परिणाम थाय छे त्यारे तेना पांच विकल्प थाय छे. ज्यारे बे वर्णरूपे परिणाम थाय छे त्यारे एक प्रदेश काळो अने बे प्रदेशो एक आकाशप्रदेशावगाही होवाथी एक अंश लीलो होय-एम द्विकर्मयोगी पहेलो भांगो थाय छे. अथवा एक प्रदेश काळो होय अने बे प्रदेशो भिन्न भिन्न बे आकाश प्रदेशावगाही होवाची बे अंश लीला होय एम विवक्षा थई शके छे. ए रीते बीजो भांगो जाणवो. एज प्रमाणे वे अंश काळा होय अने एक अंश लीलो होय. एम एक द्विकसंयोगना त्रण प्रण भांगा थता होवाथी दश द्विक संयोगना श्रीश भांगा थाय छे. गन्धना एकगन्धरूपे परिणाम थाय त्यारे बे भागा अने बे गन्धरूपे परिणाम थाय त्यारे एक अंश अने अनेक अंशनी कल्पनाथी पूर्वनी पेठे त्रण भांगा थाय छे. ज्यारे त्रिप्रदेशिक स्कन्धना बे स्पर्श होय छे त्यारे तेना द्विप्रदेशिकनी पेठे चार भांगा थाय छे. ज्यारे तेना त्रण स्पर्श होय छे त्यारे तेना त्रणे प्रदेशो शीत होवाथी सर्व शीत, एक प्रदेशात्मक एक देश निग्ध अने द्विप्रदेशात्मक एक देश रूक्ष होय-ए प्रथम भंग, एवी रीते सर्व शीत एक देश निग्ध अने अनेक देशो रूक्ष-ए बीजो भंग, सर्व शीत अनेक देश निग्ध अने एक देश रूक्ष-ए श्रीजो भंग-एम त्रण भांगा थाय. ए प्रमाणे सर्वोष्ण, सर्व स्निग्ध अने सर्वक्षनी साथे पण प्रण प्रण भांगा जाणवा. द्विप्रदेशिक स्कंधना रसना द्विकसंयोगी १० भांगा पृ० १६ मानां टिप्पनमा कह्या छे, ते दरेक भांगाना नीचेना त्रण त्रण भागाओ करवाथी ३० भांगा थाय छे. त्रिभंगी-१-११-२,२-१. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे-१ एक अंश तीखो अने एक अंश कडवो, २ एक अंश तीखो अने बे अंश कडवा, ३ बेअंश तीखा अने एक अंश कडवो. त्रिकसंयोगी दश भांगाओ नीचे प्रमाणे १ तीखो, २ कडयो, ३ तुरो. १तीखो, २ कडवो, ४ खाटो. १ तीखो, २ कडवो, ५ मीठो. .१ तीखो, ३ तूरो, ४ खाटो. १ तीखो, ३ तूरो, ५ मीठो. २ तीखो, ४ खाटो, ५ मीठो. २ कडवो, ३तरो, ४ खाटो. २ कडवो, तूरो, ५ मीठो. २ कडवो, ४ खाटो, ५ मीठो. ३ तूरो, ४' खाटो, ५ मीठो. आ प्रमाणे त्रिप्रदेशिक स्कन्धना द्विकसयोगी ३० भागा, त्रिकसंयोगी १. भांगा भने असंयोगी ५भांगा मेळवां कुल ४५ भांगा रसने माश्रयी जाणवा. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक ५. सिय हालिहए य सुकिल्लए य भंगा ३, एवं सचे ते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवंति । जइ तिवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए. य १, सिय कालए य नीलए य हालिइए य २, सिय कालए य नीलए य सुकिल्लए य ३, सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य ४, सिय कालए य लोहियप य सुकिल्लए य ५, सिय कालए य हालिइए य सुक्किलए य ६, सिय नीलए य लोहियए य हालिद्दए य ७, 'सिय नीलए य लोहियए य सुकिल्लए य ८, सिय नीलए य हालिहए य सुकिल्लए य १, सिय लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १०. एवं पए दस तियासंजोगा । जइ एगगंधे सिय सुम्मिगंधे १, सिय दभिगंधे २जह दुगंधे सिय सुब्भिगंधे य दुम्मिगंधे य ३ भंगा । रसा जहा वना । जब दुफासे सिय सीए य निय, एवं जहेष दुपएसियस्स तहेव चत्तारि भंगा ४ । जइ तिफासे सवे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १, सवे सीप देसे निद्धे देसा लुक्खा २, सवे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे ३, सवे उसिणे देसे निद्धे देसे लुफ्खे ३ एत्य वि मंगा तिन्नि, सच्चे निद्ध देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिन्नि ९, सवे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिन्नि एवं १२ । जब चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १, देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २, देसे सीए देसे उसिणे देसा निशा देसे लक्खे ३. देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्ध देसे लुफ्खे ४, देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्ध देसा लुक्खा ५, देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसे लुक्खे ६, देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुफ्खे ७, देसा सीया देते उसिणे देसे निद्ध देसा लुक्खा ८, देसा सीया देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे ९. एवं एए तिपएसिए फासेसु पणवीसं भंगा। . ____४. [प्र०] चउप्पएसिए णं भंते ! बंधे कतिवन्ने ? [उ०] जहा अट्ठारसमसए जाव-सिय चउफासे पन्नते' । जह एगवन्ने सिय कालए य जाव-सुकिल्लए ५ । जइ दुवन्ने सिय कालए य नीलए य १, सिय कालप य नीलगा य २, सिय कालगा य नीलए य ३, सिय कालगा य नीलगा य ४ । सिय कालए य लोहियए य । पत्थ वि चत्तारि भंगा ४ । सिय शीत अने तेनो एक देश स्निग्ध अने एक देश रूक्ष होय १. अथवा सर्व शीत, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय २. अथवा सर्व शीत, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ३. कदाच सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. अहिं पण पूर्व प्रमाणे त्रण भांगा जाणवा ३. अथवा कदाच सर्व स्निग्ध, एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय. अहिं पण पूर्वनी पेठेत्रण भांगा जाणवा ३. अथवा कदाच सर्व रुक्ष, एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय. अहिं पण पूर्व प्रमाणे त्रण भांगा जाणवा ३. [बधा मळीने त्रिकसंयोगी बार भांगा जाणवा.] जो ते "चार स्पर्शवाळो होय तो तेनो एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक. देश रुक्ष होय १. अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय २.. अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ३. अथवा एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष ४. अथवा एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ५. अथवा एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष ६. अथवा अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष ७. अथवा अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष ८. अथवा अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष पण होय ९. ए प्रमाणे आ त्रिप्रदेशिक स्कंधने विषे स्पर्शोना बधा मळीने पचीश भांगा थाय छे. [ एम त्रिप्रदेशिक स्कंधने विषे वर्णना ४५, गंधना ५, रसना ४५, अने स्पर्शना २५ सर्व मळीने १२० भांगाओ थाय छे.] १. [प्र०] हे भगवन् । चतुष्प्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो होय-इत्यादि प्रश्न. [उ.] जेम अढारमा शतकमां कयुं छे, ते प्रमाणे अहिं यावत्-'ते कदाच चार स्पर्शवाळो होय त्यां सुधी कहे. जो ते एक वर्णवाळो होय तो ते कदाच काळो होय अने यावत्-धोळो होय ५. जो ते बे वर्णवाळो होय तो (१) कदाच तेनो एक अंश काळो अने एक अंश लीलो होय, कदाच तेनो एक देश काळो अने अनेक देशो लीला होय २. कदाच अनेक देशो काळा अने एक देश लीलो होय ३. अथवा अनेक देशो काळा अने चम्पदेसिक स्वन्धना भांगायो ३* त्रिप्रदेशिक स्कन्धना चार स्पर्शना बधा अंश एकवचनमा होय त्यारे प्रथम भंग थाय. जेम, १ एकदेश शीत, २ एक देश उष्ण, ३ एक देश स्निग्ध अने ४ एक देश रूक्ष. तेमा छल्ला रूक्ष पदने अनेकवचनमा मूकीए त्यारे बीजो भंग थाय. एटले परमाणुरूप एक देश शीत अने परमाणु रूप एक देश उष्ण. पुनः बेशीत परमाणुमा एक परमाणु खिग्ध अने बीजो शीत परमाणुमानो एक परमाणु तथा उष्ण परमाणुरूप एक देश एबे अंश रूक्ष, त्रीजा पदने अनेक वचनर्मा S H RISHAIमान एक एक, मागापदन मन मूकता त्रीजो भांगो थाय. ते आ प्रमाणे-एक परमाणुरूप देश शीत, बे परमाणुरूप देश उष्ण, जे शीत छे ते अने जे बे उष्ण परमाणुमानो एक छे ते बसे स्निग्ध अने जे एक उष्ण छे ते रूक्ष छे. बीजा पदने अनेक वचना मूकर्ता चोथो भागो थाय. स्निग्ध बे परमाणुरूप एक देश शीत अने एक परमाणुरूप बीजो अंश रूक्ष, निग्ध वे परमाणुमानो बाकीनो अंश तथा रूक्ष अंश बने उष्ण. पांचमो भंग-एक अंश शीत अने स्निग्ध तथा श्रीजा बे अंश उष्ण अने रूक्ष. छट्ठो भंग-- एक अंश शीत अने रूक्ष तथा बीजा बे अंशो उष्ण अने स्निग्ध, सातमा भंगमां निग्नरूप बे परमाणुमानो एक अने बीजो एक एम वे अंश शीत जाणवा, बाकीना एक एक अंश उष्ण, निग्ध अने रूक्ष जाणवा. आठमा भंगा बे अंशो शीत अने रूक्ष तथा एक अंश उष्ण अने निग्ध जाणवो. नवा भंगा भिन्न देश वर्ती बे परमाणुओ शीत अने स्निग्ध होय अने एक अंश उष्ण अने रूक्ष होय. ए प्रमाणे त्रिप्रदेशिक स्कन्धना स्पर्शने आश्रयी पचीश भांगा थाय छ,-टीका. ४ भग.सं. ४ श०१८ उ०६ सू०६. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, १०३ कालए य हालिहए य ४। सिय कालए य सुकिल्लए य ४ । सिय नीलए य लोहियए य ४। सिय नीलए य हालिहए य । सिय नीलए य सझिल्लए य । सिय लोहियए य हालिहए य । सिय लोहियए य सुकिल्लए यासिय हालिहए य सुकिल्लए य ४। एवं एए दस दुयासंजोगा भंगा पुण चत्तालीसं ४० । जइ तिवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य १, सिय कालए नीलए लोहियगा य २, सिय कालए य नीलगा य लोहियए य ३, सिय कालगा य नीलए य लोहियए य एए भंगा ४ । एवं कालनीलहालिहपहिं भंगा ४, कालनीलसुकिल्ल० ४, काललोहियहालिद्द० ४, काललोहियसुकिल्ल०४, कालहालिहसुकिल्ल० ४ । नीललोहियहालिहगाणं ४ भंगा, नीललोहियसुकिल्ल० ४, नीलहालिहसुकिल्ल० ४, लोहियहालिहसुकिल्लगाणं ४ भंगा । एवं एए दसतियासंजोगा, एक्के संजोए चत्तारि भंगा, सवे ते चत्तालीसं भंगा ४० । जई चउवन्ने सिय कालए नीलए लोहियए हालिहए य १, सिय कालए नीलए लोहियए सुकिल्लए २, सिय कालए नीलए हालिइए सुकिल्लए ३, सिय कालए लोहियए हालिद्दए सुकिल्लए ४, सिय नीलए लोहियए हालिहए सुकिल्लए य ५ । एवमेते चउकगसंजोए पंच भंगा। एए सवे नउड भंगा। जह एगगंधे सिय सुब्भिगंधे १ सिय दुम्भिगंधे य २, जइ दुगंधे सिय सुब्भिगंधे य सिय दुन्भिगंधे य ४ । रसा जहा वन्ना । जइ दुफासे जहेव परमाणुपोग्गले ४ । जइ तिफासे सच्चे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १, सवे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा २, सधे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे ३, सच्चे सीए देसा निद्धा देसा लुक्खा ४, सो उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे। एवं भंगा ४, सो निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ४, सो लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४। एए तिफासे सोलस भंगा। अनेक देशो लीला होय ४. (२) अथवा कदाच एक अंश काळो अने एक अंश रातो होय. अहिं पण पूर्वनी पेठे चार भांगा करवा ४. (३) कदाच एक अंश काळो अने एक अंश पीळो होय ४. (४) कदाच एक अंश काळो अने एक अंश धोळो होय ४. (५) कदाच एक अंश लीलो अने एक अंश रातो होय १. (६) कदाच लीलो अने पीळो होय ४. (७) कदाच लीलो अने धोळो होय ४. (८) कदाच रातो अने पीळो होय ४. (९) कदाच रातो अने धोळो होय १. (१०) कदाच पीळो अने धोळो होय ४. ए प्रमाणे आ दश द्विकसंयोगना चालीश भांगा थाय छे. जो ते त्रण वर्णवाळो होय तो कदाच (१) काळो, लीलो अने रातो होय १. अथवा एक देश काळो, एक देश लीलो अने अनेक देशो राता होय २. अथवा एक देश काळो, अनेक देशो लीला अने एक देश रातो होय ३. अथवा अनेक देशो काळा, एक देश लीलो अने एक देश रातो होय १. ए प्रमाणे एक त्रिकसंयोगनी चतुभंगी जाणवी. एज प्रमाणे (२) काळा, लीला अने पीळा वर्णना ४, (३) काळा, लीला अने धोळा वर्णना ४, (४) काळा, राता अने पीळा वर्णना ४, (५) काळा, राता अने धोळा वर्णना ४, (६) काळा, पीळा अने धोळा वर्णना ४. (७) अथवा लीला, राता अने पीळा वर्णना ४, (८) अथवा लीला, राता अने धोळा वर्णना ४, (९) अथवा लीला, पीळा अने धोळा वर्णना ४, (१०) अथवा कदाच राता, पीळा अने धोळा वर्णना ४. ए प्रमाणे दश त्रिकसंयोग थाय छे अने एक एक त्रिकसंयोगमां चार चार भांगा थाय छे. ए बधा मळीने चालीश भांगा थाय छे. जो ते चार वर्णवाळो होय तो कदाच काळो, लीलो, रातो अने पीळो होय १. कदाच काळो, लीलो रातो अने धोळो होय २. अथवा कदाच काळो, लीलो, पीळो अने धोळो होय ३. अथवा कदाच काळो, रातो, पीळो अने धोळो होय ४. अथवा कदाच लीलो, रातो, पीळो अने धोळो होय ५. ए प्रमाणे ए बधा मळीने चतुष्कसंयोगना पांच भांगा थाय छे अने बधा मळीने वर्णने आश्रयी ने, भांगा थाय छे. वर्णने आश्रयी ५० जो ते चतुःप्रदेशिक स्कन्ध एक गंधवाळो होय तो कदाच सुगंधी होय अने कदाच दुर्गधी होय २. जो बे गंधवाळो होय । तो ते कदाच सुगंधी अने दुर्गधी होय १. (कुल छ भांगा थाय.) जेम वर्णोना भांगाओ कंह्या तेम रसोना ९० भांगाओ जाणवा. रसने आश्रयी ९० जो बे स्पर्शवाळो होय तो तेना परमाणुपुद्गलनी पेठे (चार) भांगा कहेवा. जो ते त्रण स्पर्शवाळो होय तो सर्व शीत होय अने तेनो भांगाओ. एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १. अथवा सर्व शीत होय अने तेनो एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष हो अथवा सर्व शीत होय अने अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ३. अथवा सर्व शीत होय अने अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ४. (२) कदाच सर्व उष्ण होय अने एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. (३) अथवा सर्व स्निग्ध होय अने एक ___भांगाओ. *४ रसना द्विकसंयोगी अने त्रिकसंयोगी दश दश भांगाओ थाय छे, अने एक एक संयोगमा एकवचन अने अनेकवचन वडे चतुर्भगी थवाथी वेने चार गुणा करतां तेना कुल ८. भांगा थाय छे. चतुःसंयोगी भांगाओ १ तीखो-२ कडवो-३ तूरो-४ खाटो. १ तीखो-२ कडवो-३ तूरो-५ मीठो १ तीखो-२ कडवो-४ खाटो-५ मीठो १तीखो-३ तूरो-४ खाटो-५ मीठो २ कडवो-३ तूरो-४ खाटो ५ मीठो ए प्रमाणे चतुःसंयोगी पांच भांगाओ अने असंयोगी पांच भागाओ मेळवता रसना कुल ९० मांगाओ जाणवां. Jain Education international Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे शतक २०. - उद्देशक ५. जइ फासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १, देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २, देसे सीए देसे उसने देखा ना देखे लुक्खे ३, देसे सीए देसे उलिणे देसा निद्धा देखा लुफ्ला ४, देखे सीए देखा उसिणा देखे निदे देसे लुक्खे ५, देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा ६, देसे सीए देखा उसिणा देसा निद्धा देसे लुक्ने ७, देखे सीए देखा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा ८, देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ९, एवं एए उफासे सोलस भंगा भाणियष्ट्वा जाव - देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा । सधे पते फासेसु छत्तीसं भंगा । १०४ ५. [प्र० ] पंचपपसिए णं भंते! धंधे कतिपत्रे० १ [४०] जहा अट्ठारसमस जावसिय चडफासे पद्मतेज एग बजे एगवदुचना जहेच चढप्पपसिए । जइ तिने सिय कालए नीलए लोहिया व १, सिय कालय नीलए लोहिया व २, सिय काल नीलगाय छोहिए य ३, सिय कालर नीलगाय लोहिया व ४ सिय कालगा व नीलए य लोहियए ५, सिय कालगाय नीलए य लोहियगा य ६, सिय कालगा य नीलगाय लोहियर य ७ सिय कालर नीलर हालिइत्यपि सत्त भंगा ७ एवं कालगनीलम सुकिलपसु सन्त भंगा, फालगलोहियहालिदेसु ७, कालमहोदयसुकिल्ले ७, देश शीत अने एक देश उष्ण होय ४. (४) अथवा सर्व रुक्ष होय अने एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय ४. ए प्रमाणे बधा मळीने त्रण स्पर्शना सोळ भांगा थाय छे १६. कदाच चार स्पर्शवाळो होय तो तेनो एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १. अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय २. अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय २. अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देशो निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ४. अथवा एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ५. अथवा एक देश शीत अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ६. अथवा एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ७. अथवा एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, अथवा अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ९. ए प्रमाणे चार स्पर्शना *सोळ भांगा कहेवा. अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ८. यावत् तेना अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय १६. ए बधा मळीने [ द्विक संयोगी चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध- ४, त्रिकसंयोगी १६, अने चतु:संयोगी १६] स्पर्श संबंधे छत्रीश भांगा थाय छे. [ चतुष्प्रदेशी स्कंधने आश्रयी वर्णना ९०, गंधना ६, ना २२२ भांगाओ. रसना ९०, अने स्पर्शना ३६ मळी २२२ भांगाओ थाय छे. ] पांच प्रवेशिक स्कन्ध. ५. [प्र०] हे भगवन् ! पांच प्रदेशवाळो स्कंध केटला वर्णवाळो होय - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अढारमां शतकर्मा कह्या प्रमाणे यावत्- 'से कदाच चार स्पर्शया को छे' यां सुधी जाणवु, जो से एक वर्णवालो के वे वर्णवाळो होय तो चार प्रदेशबाळा स्कन्धनी पेठे तेना (५, ४०) भांगा जाणवा जो ते श्रम वर्णवाल होय तो (१) कदाच तेनो एक देश काळो, एक देश लीलो भने एक देश रातो होय १. कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो अने अनेक देशो राता होय २. कदाच एक देश काळो, अनेक देशो लीला अने एक देश रातो होय १. कदाच एक देश काळो, अनेक देशो ढीला अने अनेक देशो राता होय ४. अथवा तेना अनेक देशो काळा, एक देश लीलो अने एक देश रातो होय ५. अथवा अनेक देशो काळा, एक देश लीलो अने अनेक देशो राता होय ६. अथवा अनेक देशो काळा, अनेक देशो लीला अने एक देश रातो होय ७. अथवा कदाच (२) तेनो एक देश काळो, एक देश लीलो अने एक देश पीळो होय. आ त्रिकसंयोगमां पण सात भांगा कहेबा ७. एम (३) काळो, लीलो अने धोळो. अहिं पण सात भांगा समजवा ७. (४) अथवा काळो, रातो अने पीळो होय ७. (५) अथवा काळो, रातो अने धोळो होय ७. (६) अथवा काळो, पीळो अने धोळो होय ७. (७) लीलो, रातो अने पीळो ७. (८) अथवा लीलो, रातो अने धोळो ७. (९) अथवा लीलो, अथवा रातो पीळो भने धोलो होप ७. ए प्रमाणे दश त्रिकसंयोगना सीतेर भांगा थाय छे. हवे जो ते कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, एक देश रातो अने एक देश पीळो होय १. अथवा एक देश काळो, लीलो, रातो अने अनेक देश पीळा होय २, अथवा एक देश काळो, लीलो, अनेक देशो राता अने एक देश पीळो होय ३, अथवा एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो अने एक देश पीळो होय ४. अथवा तेना अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, एक देश रातो अने एक देशो पीलो दोष ५. ए प्रमाणे एक चतुःसंयोगमां पांच मांगा जागवा, बळी ए रीते (२) कदाच एक देश काळो, लीडो, रातो अने धोळो ५. (३) एक देश काळो, लीलो, पीळो अने घोळो ५. (४) अथवा काळो, रातो, पीळो अने धोळो होय ५. (५) अथवा कदाच लीलो, रातो, पीळो भने घोळो होय ५. ए प्रमाणे पांच चतुःसंयोगना पचीश भांगा थाय छे. बळी जो ते पांच वर्णवाळो होय तो काळो, सीटो पीळो अने धोळो ७. (१०) चार स्पर्शवाळो होय तो (१) ४ * अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रूक्ष होय १०. अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रूक्ष होय ११. अथवा अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रूक्ष होय १२. अथवा अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रूक्ष होय १३. अथवा अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रूक्ष होय १४. अथवा अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रूक्ष १५. अने छेलो भांगो मूळमां कहेलो छे. ५ भग० नं० ४ श० १८ उ० ६ पृ० ६३ सू० ६. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०. - उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. १०५ कालगहालिदसुकिल्ले ७, नीललोद्दियहालिदेसु ७, नीलमलोहियसुकिल्लेसु सत्त भंगा ७, नीलगद्दालिकले ७, लोहियहादिकले वित्त मंगा ७ एवमेते तियासंजोर सतरि भंगा। जह चयने सिय काल व नीलए लोहिय हालिद व १ सिय कालर व जीलए य लोहियर य इालिगा य २, सिय काल व मीटर व लोहिया व हालिद्गे य ३, सिय कालर नीलगाय लोहियने व हालिइगे य ४, सिय कालगा य नीडर व लोहिया व हालिए य ५ ए पंच भंगा । सिय कालए य नीलए य लोहियए य सुकिल्लए य एत्थ वि पंच भंगा ५, एवं काल गनीलगद्दालिद्दसुकिल्लेसु वि पंच भंगा ५, फालगलोहियालिदसुकिल्पसु वि पंच गंगा ५, नीलगलोहियद्दालिद सुकिले वि पंच गंगा ५ एवमेते चउकगसंजोपर्णपणवीसं भंगा। जइ पंचवन्ने कालए य नीलए य लोहियए य हालिए य सुकिल्लए य । सबमेते एक्कग-दुयग-तियगचक- पंचगसंजोपणं ईया मंगसवं भवति । गंधा जदा चढप्परसियरस रसा जहा वना फासा जहा चउप्परसियस्स । 1 ६. [ प्र० ] छप्पयसिप णं भंते ! खंधे कतिवन्ने ! [उ०] एवं जहा पंचपपसिए, जाव - 'सिय चउफाले पन्नत्ते' । जइ एग एगवन्न- दुवन्ना जहा पंचपपसियस्स जर तिबन्ने सिय काल व नीलर व लोदियर य एवं जब पंचपरसियस्स सत्त भंगा जाव - सिय कालगा य नीलगा य लोहिया य ७, सिय कालगा य नीलगाय लोहियगा य ८ । एए अट्ठ भङ्गा । यमेते दसतियाजोगा, एकेकर संजोगे अट्ठ भंगा, एवं सप्ते वि तियगसंजोगे असीति मंगा जर चडवन्ने सिय काल य नीलए य लोहियए य हालिइए य १, सिय कालप य नीलए य लोहियए य हालिइगा य २, सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिए य ३, सिय कालप य नीलए य लोहियगा य हालिहगा य ४, सिय कालप य नीलगा य लोहियए वालिद य ५, सिय कालय य नीलगाय खोहिया व हाडिगा व ६, सिय काल व नीलगाय लोहिया यदालिदए यं ७, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दर य ८, सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिगा य९, सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य हालिइए य १०, सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य हालिदए य ११ । एए एक्कारस भंगा, एवमेते पंचचउक्कासंजोगा कायचा, एक्केक्कसंजोए एक्कारस भंगा, सधे ते चउक्कसंजोएणं पणपनं भंगा। जंद पंत्रवने सिय कालए य नीलए य लोहियप य हालिद्दर य सुकिल्लए य १, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिइए य रातो पीठो भने पोलो होप १. ए प्रमाणे असंयोगी ५, द्विकसंयोगी ४०, त्रिकसंयोगी ७०, चतुः संयोगी २५, अने पंचसंयोगी १ एम बधा मळीने वर्णना १४१ भांगा थाय छे. गंच संबंधे चतुष्यदेशिक कंपनी पेठे छ भांगा जाणवा. अने वर्णोनी पेठे रसना पण १४१ पंचप्रादेशिक स्कन्धना वर्णादिने भाभयी भांगा जाणवा. तेमज स्पर्शना ३६ भांगा पण चतुष्प्रदेशिक स्कंधनी पेठे जाणवा. [पंच प्रदेशिक स्कंधने आश्रयी वर्णना १४९, ३२४ मांगाओ. गंधा ६, रसना १४९ अने स्पर्शना ३६ मळीने कुल ३२४ भांगाओ थाय छे. ] छ प्रदेशिक स्क गाओ. ६. [प्र० ] हे भगवन् । छ प्रदेशवाली स्कंध केला वर्णवाळो होय इत्यादि प्रश्न. [30] प्रेम पंचप्रदेशिक स्वत्थ माटे क छे तेम ते यावत्-'कदाच चार स्पर्शवाळो होय' त्यां सुधी बधुं कहेतुं. जो ते एक के बे वर्णवाळो होय तो एक वर्ण अने बे वर्णना भांगा बना वर्णादिना मांपंचप्रदेशिकनी पेठे (५ अने ४५) जागवा जो प्रण वर्णवाळो होय तो (१) कदाच काळो, ढीठो अने रातो होय १, ए प्रमाणे पंच प्रदेशिक स्कंधना सात भांगा कहा से रोग आदि कहेगा यावत्-७ 'कदाच लेगा अनेक देशो काळा, लीला अने एक देश रातो होय.' ८ कदाच अनेक देशो काला, खीला अने राता होय. ए प्रमाणे एक त्रिकसंयोगना आठ मांगा जाणवा. एवा दश त्रिक संयोगना एंशी भांगा थाय. जो ते चार वर्णवाळो होय तो कदाच एक देश काळो, लीलो, रातो अने पीळो होय १, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, एक देश रातो अने अनेक देशो पीळा होय २, अथवा एक देश काळो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता अने एक देश पीठो होय ३, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता अने अनेक देशो पीळा होय ४, कदाच एक देश काळो, अनेक देशो लीला एक देश रातो अने एक देश पीळो होय ५, अथवा एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो अने अनेक देशो पीळा होय ६, अथवा एक देश काळो, अनेक देशो लीला, अनेक देशो राता अने एक देश पीळो होय ७, अपचा एक देश काळो, एक देश खीलो, एक देश रातो अने एक देश पीळों होय ८, कदाच तेना अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, एक देश रातो अने अनेक देशो पीळा होय ९, कदाच तेना अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, अनेक देशो राता अने एक देश पीळो होय १०, अथवा अनेक देशो काळा, अनेक देशो लीला, एक देश रातो अने एक देश पीळो होय ११. ए प्रमाणे ए चतुःसंयोगी अगीवार भांगा गया. एवा पांच चतुः संयोग करवा. प्रत्येक चतुः संयोगमा अगियार अगियार मांगा गणतां वधा महीने चतुःसंयोगी पंचावन भांगा चाय है. हवे जो ते पांचमर्णयाये होय तो (१) कदाच एक देश काव्ये, लीडो, रातो, पीछे अने पो होय १, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, एक देश रातो, एक देश पीळो अने अनेक देशो धोळा होय २, अथवा एक देश काळो, लीलो, रातो, अनेक देशो पीळा अने एक देश धोळो होय ३, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, एक देश पीळो अने एक देश धोळो होय ४, अथवा एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो, पीळो अने धोको होय ५, अथवा . १४ भ० सू० : Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ प्रदेशिक स्कन्धना ४१४ भांगा. सात प्रदेशिक स्क न्धना वर्णादिना भांगाओ. १०६ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक प्रदेश ५. सुलिगा य २, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लए य ३, सिय कालए य नीलए य लोद्दियगा य हालिहर य सुकितर व ४, सिय कालए य नीलगाय लोहिया व हालिद्दर व सुकिलर यं ५, सिय कालगा व नीलए य लोहिया व हालिद्दर व सुपि य ६ एवं एए उम्मंगा भाणियचा, एवमेते सधे वि एकग- दुयग- लिपग-धडकणपंचगसंजोगे छासी भंगसर्व भयंति गंधा जहा पंचपरसियरस रसा जदा एयरसेव पद्मा फासा जहा चउप्परसियस्स । I ७. [ प्र० ] सत्तपए सिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने० ? [अ०] जहा पंचपरसिए जाव - 'सिय चउफासे' पन्नत्ते । जइ एगघने एवं एगवन्नदुवण्णतिवन्ना जहा छप्परसियस्स । जइ चउवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिइए य १, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिइगा य २, सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिइए य ३, एवमेते चउफगसंजोगेणं पारस भंगा भाषिषता जाव - सिय कालगा य नीलगा व लोहियना व हालिद व १५ । एवमेते पंचचसंजोगा नेवा, एकेके संजोए पनरस भंगा, सद्यमेते पंचसप्तरि मंगा भयंति जद पंचयने सिय कालयील लोहियय हालिए य सुकिल्लए य १, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दर ये सुकिल्लागा य २, सिय कालप य नीलप य लोहियए य हालिगा य सुकिल्लए य ३, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहगा य सुकिल्लगा य ४, सिय काल य नीलए य लोहियगा य हालिइए य सुक्किलए य ५, सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगे य सुकिलगाय ६, सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिगा य सुकिल्लए य ७, सिय कालए य नीलगाय लोहियए य हालिद्दर य सुकिल्लए य ८, सिय कालए य नीलगा य लोहियए य हालिद्दर य सुक्किलगा य ९, सिय कालए य नीलगा लोहियने वालिदा य सुकिलर य १० सिय काल व नीलगाय लोहिया व हालिद्दर व सुपि य ११, सिय सुकिल्लए कालगा य नीलगे य लोहियए य हालिए य सुकिल्लए य १२, सिय कालगा य नीलए य लोहियगे य हालिद्दर य सुकिलगाय १३, सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिगा य सुकिल्लए य १४, सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य अनेक देशो काव्य, एक देश लीलो, रातो, पीळो, अने धोलो होय. ए प्रमाणे छ भांगा समजवा. ए प्रमाणे [ असंयोगी ५, द्विकसंयोगी ४०, त्रिकसंयोगी ८०, चतुः संयोगी ५५ अने पंचसंयोगी ६- सर्व मळीने वर्णने आश्रयी ] १८६ भांगा याय छे. गंध संबंचे पंचप्रदेशिकनी पेठे ६ भांगा जाणवा, रसो वर्णोनी पेठे जाणवा. अने स्पर्शना चतुष्प्रदेशिक स्कंधनी पेठे भांगा जाणवा. [ए प्रमाणे छ प्रदेशिक स्कंधने आश्रयी वर्णना १८६, गंधना ६, रसना १८६, अने स्पर्शना ३६ मळी कुल ४१४ भांगाओ थाय छे. ] ७. [प्र० ] हे भगवन् ! सात प्रदेशवाळो स्कंध केटला वर्णवाळो होय ? - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! जेम पंचप्रदेशिक स्कंध संबंधे कह्युं म अहिं पण कहेवुं यावत् - 'कदाच चार स्पर्शवाळो होय.' जो ते एक वर्णवाळो - इत्यादि होय तो एक वर्ण, बे वर्ण अने त्रण वर्णना भांगा छ प्रदेशिक स्कंधनी पेठे जाणवा. हवे जो ते कदाच चार वर्णवाळो होय तो (१) कदाच एक देश काळो, लीलो, रातो अने पीळ होय. १, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, एक देश रातो अने अनेक देशो पीळा होय २, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता अने एक देश पीळो होय ३, [ कदाच एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो अने एक देश पीछे होय ४] ए प्रमाणे आ चतुष्यसंयोगमां पंदर मांगा का यावत् १५ कदाच अनेक देशो काळा अनेक देशोसी, अनेक देशो राता भने एक देश पीळो होय. ए प्रमाणे पांच चतुष्कसंयोग जाणया. एक एक चतुष्कसंयोगमा पंदर पंदर भांगाओ थाय छे. मधा महीने पंचोतेर मांगा थाय छे. जो से पांचवर्णवाल होय तो (१) बादाच एक देश कालो, लीलो, रातो पीठो अने पो होय २, कदाच एक देश कालो, सीटो, रातो, पीळो अने अनेक देशो धोव्य दोष २, कदाच एक देश कालो, एक देश लीलो, एक देश रातो, अनेक देशो पीळा भने एक देश धोळो होय ३, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, एक देश रातो, अनेक देशो पीया अने अनेक देशो चोळा होय ४, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, एक देश पीळो अने एक देश धोटो होय ५. अथवा एक देश कालो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, एक देश पीछे अने अनेक देशो धोळा होय ६, कदाच एक देश काळो, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, अनेक देशो पीळा अने एक देश धोटो होय ७, कदाच एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो, एक देश पीटो अने एक देश धोळो होय ८, कदाच एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो, पीळो अने अनेक देशो धोळा होय ९, कदाच एक देश काळो, अनेक देशो लीला, एक देश रातो, अनेक देशो पीळा अने एक देश घोळ होय १०, कदाच एक देश को अनेक देशो सीला, राता, एक देश पीटो अने पोलो होय ११, कदाच अनेक देशो का एक देश को, रातो, पीळो अने धोको होप १२, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, रातो, पीळो अने अनेक देशो धोळा होय १३, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, रातो, अनेक देशो पीळा अने एक देश धोळो होय १४, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, एक देश पीळो अने धोळो होय १५, तथा कदाच अनेक देशो काळा, लीला, एक देश रातो, पीळो अने घोळो होय १६. ए प्रमाणे सोळ भांगाओ थाय छे. असंयोगी ५, द्विकसंयोगी ४०, त्रिकसंयोगी ८०, चतुष्कसंयोगी ७५ अने पंचसंयोगी १६ सोळ. बघा मळीने वर्णने आश्रयी बसो ने सोळ भांगा थाय छे. गंध संबंधे चतुष्प्रदेशिक स्कंधनी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १०७ य हालिहए य सुकिल्लए य १५, सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १६ । एए सोलस भंगा, एवं समेते एकग-दुयग-तियग-चउक्कग-पंचगसंजोगेणं दो सोला भंगसया भवंति । गंधा जहा चउप्पएसियस्स । रसा जहा एयस्स चेव वन्ना । फासा जहा चउप्पएसियस्स । ८. [प्र०] अट्टपएसियस्स भंते ! खंधे०-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सिय एगवन्ने जहा सत्तपपसियस्स जाव-सिय चउफासे पन्नत्ते जइ एगवन्ने एवं एगवन्नदुवन्नतिवन्ना जहेव सत्तपएसिए । जइ चउवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य १, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहगा य, एवं जहेव सत्तपएसिए जाव-सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिहगे य १५, सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य १६' । एर, सोलस भंगा, एवमेते पंच चउक्कसंजोगा, एवमेते असीति भंगा ८० । जइ पंचवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहए य सुकिल्लए य १, सिय कालए य नीलए य लोहियगे य हालिद्दगे य सुकिल्लगा य २, एवं एएणं कमेणं भंगा चारेयवा जाव-सिय कालए य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य सुकिल्लगे य १५, एसो पन्नरसमो भंगो, सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दर य सुकिल्लए य १६, सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिहगे य सुकिल्लगा य १७, सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगा य सुकिल्लए य १८, सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिइगा य सुकिल्लगा य १९, सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २०, सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लगा य २१, सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगा य सुकिल्लए य २२, सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लए य २३, सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिइए य सुकिल्लगा य २४, सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दगा य सुकिल्लए य २५, सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २६, एए पंचसंजोएणं छवीसं भंगा भवंति, एवमेव सपुवावरेणं एक्कग-दुयग-तियग-चउक्कग-पंचगसंजोएहिं दो एकतीसं भंगसया भवंति । गंधा जहा सत्तपएसियस्स, रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, फासा जहा चउप्पएसियस्स। पेठे जाणवू. अहिं जेम वर्णना कह्या तेम रसना भांगा जाणवा अने स्पर्शना भांगा चतुष्प्रदेशिक स्कंधनी पेठे जाणवा. [ए प्रमाणे सप्त- सात प्रदेशिक स्क प्रदेशिक स्कंधने आश्रयी वर्णना २१६, गंधना ६, रसना २१६ अने स्पर्शना ३६. मळीने कुल ४७४ भागाओ थाय छे. न्धना वादिने आ श्रयी ४७४ भांगा. ८.प्रि०] हे भगवन् ! आठ प्रदेशवाळो स्कंध केटला वर्णवाळो होय?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच एक वर्णवाळो होय- आठ प्रदेशिक स्क ___धना वर्णादिना इत्यादि सप्तप्रदेशिक स्कंधनी पेठे यावत्-कदाच 'चार स्पर्शवाळो होय वगेरे कहेवू.' हवे जो ते एक वर्णवाळो-इत्यादि होय तो तेना एक भगो. वर्ण, बे वर्ण अने त्रण वर्णना भांगाओ सप्तप्रदेशिक स्कंधनी पेठे समजवा. जो ते चारवर्णवाळो होय तो, कदाच तेनो एक देश काळो, लीलो, रातो अने पीळो होय १. कदाच तेनो एक देश काळो, लीलो, रातो अने अनेक देशो पीळा होय २. ए प्रमाणे सप्तप्रदेशिक स्कंधनी पेठे पंदर भांगा जाणवा, यावत्--'अनेक देशो काळा, लीला, राता अने एक देश पीळो होय' १५. सोळमो भंग-कदाच अनेक देशो काळा, लीला, राता अने पीळा होय. १६. एक चतुष्कसंयोगमा सोळ भांगाओ थाय छे. बधा मळीने पांच चतुष्कसंयोगन सोळ सोळ भांगा करतां एंशी भांगा थाय छे. हवे जो ते पांच वर्णवाळो होय तो कदाच एक देश काळो, लीलो, रातो, पीलो अने धोठो होय १, कदाच एक देश काळो, लीलो, रातो, पीळो अने अनेक देशो धोळा होय. ए प्रमाणे अनुक्रमे भांगाओ कहेवा, यावत् एक देश काळो, अनेक देशो लीला, राता, पीळा अने एक देश धोळो होय १५. ए पंदरमो भांगो जाणवो. कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, रातो, पीळो अने धोळो होय १६, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, रातो, पीळो अने अनेक देशो धोळा होय १७, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, रातो, अनेक देशो पीळा अने एक देश धोळो होय १८, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, रातो अने अनेक देशो पीळा अने धोळा होय १९, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, एक देश पीलो अने धोळो होय २०, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, एक देश पीळो, अने अनेक देशो धोळा होय २१, कदाच अनेक देशो काळा, एक देश लीलो, अनेक देशो राता, पीळा अने एक देश धोळो होय २२, कदाच अनेक देशो काळा, लीला, एक देश रातो, पीळो अने धोळो होय २३, कदाच अनेक देशो काळा, लीला, एक देश रातो, पीळो अने अनेक देशो धोळा होय २४, कदाच अनेक देशो काळा, लीला, एक देश रातो, अनेक देशो पीळा अने एक देश धोळो होय २५, कदाच अनेक देशो काळा, लीला, राता, एक देश पीळो अने धोळो होय २६. ए प्रमाणे ए पंच संयोगना पूर्वोक्त छन्वीश भांगाओ थाय छे. अने पूर्वापर बधा मळीने असंयोगी ५, द्विकसंयोगी ४०, त्रिकसंयोगी १८०, चतुःसंयोगी ८० अने पंचसंयोगी २६-एम वर्णना बसो ने एकत्री नागाओ थाय छे. गंध संबंधे सप्तप्रदेशिकनी पेठे भांगाओ समजवा. वर्णोनी पेठे रसो कहेवा, अने स्पर्शना भांगा चतुष्प्रदेशिकनी पेठे कहेवा. [ए प्रमाणे अष्टप्रदेशिक स्कंधने आश्रयी वर्णना २३१, गंधना बट प्रदशिक स्क बना वादिने आ६, रसना २३१, अने स्पर्शना ३६ सर्व मळीने ५०४ भांगाओ थाय छे. 1 अयी ५०४ भांगा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक ५. ९. [प्र०] नवपएसियस्स पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय एगवन्ने, जहा अट्टपएसिए जाव-'सिय चउफासे पन्नत्ते । जइ एगवन्ने एगवन्न-दुवन्न-तिवन्न-चउवन्ना जहेव अट्ठपएसियस्स । जइ पंचवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहए य सुकिल्लए य १, सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलगा य २, एवं परिवाडीए एकतीसं भंगा भाणियवा जाव-सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य सुकिलए य। एए एकत्तीसं भंगा। एवं एकग-दुयगतियग-चउक्कग-पंचगसंजोएहिं दो छत्तीसा भंगसया भवंति । गंधा जहा अट्टपएसियस्स । रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, फासा जहा चउपएसियस्स। १०. [प्र०] दसपएसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय एगवन्ने जहा नवपएसिए जाव-'सिय चउफासे पन्नत्ते' । जइ एगवन्ने एगवन्न-दुवन्न-तिवन्न-चउवन्ना जहेव नवपएसियस्स । पंचवन्ने वि तहेव, नवरं बत्तीसतिमो भंगो भन्नति । एवमेते एक्कग-दुयग-तियग-चउक्कग-पंचगसंजोएसु दोन्नि सत्ततीसा भंगसया भवंति । गंधा जहा नवपएसियस्स । रसा जहा एयरस चेव वन्ना । फासा जाव-चउप्पएसियस्स । जहा दसपएसिओ एवं संखेजपएसिओ वि, एवं असंखेजपएसिओ वि, सुहुमपरिणओ अणंतपएसिओ वि एवं चेव । ११. [प्र०] बायरपरिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने ? [उ०] एवं जहा अट्ठारसमसए जाव-'सिय अट्टफासे पन्नत्ते'। वन-गंध-रसा जहा दसपएसियरस । जइ चउफासे सच्चे कक्खड़े सच्चे गरुए सधे सीए सवे निद्धे १, सवे कक्खडे सच्चे गरुए सवे सीए सवे लुक्खे २, सच्चे कक्खडे सव्वे गरुए सच्चे उसिणे सो निद्धे ३, सो कक्खडे सधे गरुए सवे उसिणे सवे लुक्खे ४, सच्चे कक्खडे सच्चे लहुए सवे सीए सवे निद्धे ५, सच्चे कक्खडे सच्चे लहुए सवे सीए सवे लुक्खे ६, सवे कवखडे सच्चे लहुए सव्वे उसिणे सच्चे निद्धे ७, सवे कक्खडे सव्वे लहुए सच्चे उसिणे सधे लुक्खे ८, सवे मउए सवे गरुए सवे सीए सच्चे निद्धे ९, सच्चे मउए सच्चे गरुए सवे सीए सधे लुक्खे १०, सच्चे मउए सच्चे गरुए सचे उसिणे सच्चे मंगो. न्ध नाबणादिन आ. .. .. . . ..... ..... नव प्रदेशिक स्क- ९. [प्र०] हे भगवन् ! नव प्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो होय !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अष्टप्रदेशिक स्कंधनी पेठे कदाच धना वर्णादिना एक वर्णवाळो यावत्-'कदाच चार स्पर्शवाळो होय छे.' जो ते एक वर्णवाळो इत्यादि होय तो एक, बे, त्रण अने चार वर्णना भांगाओ अष्टप्रदेशिक स्कंधनी पेठे जाणवा. हवे जो ते पांचवर्णवाळो होय तो कदाच एक देश काळो, लीलो, रातो, पीळो भने धोळो होय १, कदाच एक देश काळो, लीलो, रातो, पीळो अने अनेक देशो धोळा होय २, ए प्रमाणे क्रम पूर्वक एकत्रीश भांगाओ कहेवा. यावत्कदाच तेना अनेक देशो काळा, लीला, राता, पीळा अने एक देश धोळो होय ३१. ए प्रमाणे एकत्रीश भांगा जाणवा. एम वर्णने आश्रयी असंयोगी ५, द्विकसंयोगी ४०, त्रिकसंयोगी ८०, चतुःसंयोगी ८० अने पंचसंयोगी ३१-बधा मळीने बसो ने छत्रीश भांगा नव प्रदेशिक स्क- थाय छे. गंधसंबंधे अष्टप्रदेशिकनी जेम कहे. रस संबंधे पोताना वर्णनी जेम जाणवू अने स्पर्श संबंधे चतुष्प्रदेशिक स्कंधनी पेठे कहेवू. [ए प्रमाणे नवप्रदेशिक स्कंधने आश्रयी वर्णना २३६, गंधना ६, रसना २३६ अने स्पर्शना ३६, सर्व मळीने ५१४ भांगाओ थाय छे.] दश प्रदेशिक स्क- १०. [प्र०] हे भगवन् ! दशप्रदेशिक स्कंध संबंधे प्रश्न. [उ०) हे गौतम ! नवप्रदेशिक स्कंधनी पेठे कदाच एक वर्णवाळो न्धना वर्णादिना भंगो. होय, यावत्-कदाच चार स्पर्शवाळो होय. जो ते एक वर्णवाळो इत्यादि होय तो, एक, बे, त्रण अने चार वर्ण संबंधे नवप्रदेशिक स्कंधनी जेम कहे. जो ते पांच वर्णवाळो होय तो पण नवप्रदेशिकनी पेठे ज जाणवू. पण विशेष ए के, अहिं *बत्रीशमो भांगो अधिक कहेवो. ए प्रमाणे असंयोगी ५, द्विकसंयोगी ४०, त्रिकसंयोगी ८०, चतुःसंयोगी ८० अने पंचसंयोगी ३२-बधा मळीने बसोने साडत्रीश भांगा थाय छे. गंध संबंधे नवप्रदेशिक स्कन्धनी पेठे भांगा कहेवा. रसना भांगा पोताना वर्णनी पेठे जाणवा. अने स्पर्श संबंधी भांगा दश प्रदेशिक स्क- चतुष्प्रदेशिकनी पेठे जाणवा. [ए प्रमाणे दशप्रदेशिक स्कंधने आश्रयी वर्णना २३७, गंधना ६, रसना २३७, अने स्पर्शना ३६. बधा न्धना ५१६ भंगो. मळीने ५१६ भांगाओ थाय छे.] जेम दशप्रदेशिक स्कंध कह्यो तेम संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक अने सूक्ष्मपरिणामवाळो अनंतप्र देशिक स्कंध पण जाणवो. अनंत प्रदेशिक ११. [प्र०] हे भगवन् ! बादरपरिणामवाळो (स्थूल) अनंतप्रदेशिक स्कंध केटला वर्णवाळो होय!-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! 'अढारमा शतकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'ते कंदाच आठ स्पर्शवाळो पण कह्यो छे' त्यां सुधी जाणवू. तेना वर्ण, गंध अने रसना भांगाओ स्कन्धना वर्णा दिना दशप्रदेशिक स्कंधनी पेठे जाणवा. हवे जो ते चारस्पर्शवाळो होय तो, कदाच सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत अने सर्व स्निग्ध होय १, कदाच सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत अने सर्व रुक्ष होय २, कदाच सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व उष्ण अने सर्व स्निग्ध होय ३, कदाच सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व उष्ण अने सर्व रुक्ष होय ४, कदाच सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व शीत अने सर्व स्निग्ध होय ५, कदाच सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व शीत अने सर्व रुक्ष होय ६, कदाच सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व उष्ण अने सर्व स्निग्ध होय ७, कदाच सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व उष्ण अने सर्व रुक्ष होय ८, कदाच सर्व मृदु-कोमळ, सर्व गुरु, सर्व शीत अने सर्व स्निग्ध होय ९, कदाच १. * अनेक देशो काळा, लीला, राता, पीळा भने धोळा होय छे ३२. ११ भग० खं०४ श०१८ उ०६पृ. ६४, भंगो. . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. निद्ध ११, सच्चे मउए सच्चे गरुए सचे उसिणे सधे लुक्खे १२, सधे मउए सबै लहुए सवे सीए सवे निद्धे १३, सधे मउए सधे लहुए सचे सीए सधे लुक्खे १४, सवे मउए सचे लहुए सच्चे उसिणे सवे निद्धे १५, सच्चे मउए सच्चे लहुए सवे उसिणे सचे लुक्खे १६ । एए सोलस भंगा। जद पंचफासे सखे कक्खडे सच्चे गरुए सच्चे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १, सधे कक्खडे सधे गए सवे सीए देसे निद्ध देसा लुक्खा २, सचे कक्खडे सधे गरुए सधे सीए देसा निद्धा देसे लुफ्खे ३,सवे कक्खडे सधे गरुए सधे सीए देसा निद्धा देसा लुक्खा ४, सधे कक्खडे सधे गरुए सचे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्ने ४, सवे कक्खडे सधे लहुए सचे सीप देसे निद्ध देसे लुक्ने ४, सो कक्खडे सधे लहुए संचे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा । सवे मउए सवे गरुए सवे सीए देसे निद्धे देसे लुक्ने ४, एवं मउएण वि सोलस भंगा, एवं बत्तीसं भंगा। सवे कक्खडे सचे गरुए सच्चे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ४, सव्वे कक्खडे सच्चे गरुए सवे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४, पए बत्तीसं भंगा । सच्चे कक्खडे सधे सीए सच्चे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए, एत्थ वि बत्तीसं भंगा, सवे गरुए सच्चे सीए सवे निद्धे देसे फक्खडे देसे मउए, एत्य वि बत्तीसं भंगा, एवं सच्चे ते पंचफासे अट्ठावीसं भंगसयं भवति ।। ___ जइ छफासे सवे कक्खडे सधे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुक्खे १, सधे फक्खडे सच्चे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २, एवं जाव-सवे कक्खडे सच्चे गरुप देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा १६, एए सोलस भंगा। सच्चे कक्खडे सच्चे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, पत्थ वि सोलस भंगा। सच्चे मउए सच्चे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एस्थ वि । सवे मउए सधे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा, एए चउढि भंगा। सधे कक्खडे सच्चे सीए देसे गरुप देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे, एवं जाव-सवे मउए सधे उसिणे देसा गरुया देसा लहुया देसा णिद्धा देसा लुक्खा, सर्व मृदु, सर्व गुरु, सर्व शीत अने सर्व रुक्ष होय १०, कदाच सर्व मृदु, सर्व गुरु, सर्व उष्ण अने सर्व स्निग्ध होय ११, कदाच सर्व मृदु, सर्व गुरु, सर्व उष्ण अने सर्व रुक्ष होय १२, कदाच सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व शीत अने सर्व स्निग्ध होय १३, कदाच सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व शीत अने सर्व रुक्ष होय १४, कदाच सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व उष्ण अने सर्व स्निग्ध होय १५, कदाच सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व उष्ण अने सर्व रुक्ष होय १६. ए सोळ भांगाओ जाणवा हवे जो ते पांचस्पर्शवाळो होय तो (१) सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १, पांच स्पर्शना भगो. अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय २, अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, अनेक देशो स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ३, अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ४, अथवा (२) कदाच सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४, [अर्हि उपर प्रमाणे चार भांगा जाणवा.] (३) सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४, (४) कदाच सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. ए प्रमाणे कर्कशनी साथे सोळ भांगा थया. अथवा सर्व मृदु, सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १६. अहिं मृदुनी साथे पण कर्कशनी पेठे सोळ भांगा करवा. ए रीते बधा मळीने बन्नीश भांगा थाय छे. अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व स्निग्ध एक देश शीत अने एक देश उष्ण १६, अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व रुक्ष, एक देश शीत अने एक देश उष्ण १६, ए बधा मळीने बत्रीश भांगा जाणवा. कदाच सर्व कर्कश, सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश गुरु अने एक देश लघु. अहिं पण बत्रीश भांगा करवा. अथवा कदाच सर्व गुरु, सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश अने एक देश मृदु ३२. अहिं पण बत्रीश भांगा करवा. ए प्रमाणे बंधा मळीने पांच स्पर्शना एकसोने अठ्यावीश भांगा थाय छे. हवे जो ते छ स्पर्शवाळो होय तो (१) सर्व कर्कश, सर्व गुरु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १, कदाच सर्व कर्कश, सर्व गुरु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय २, ए प्रमाणे यावत्-सर्व कर्कश, सर्व गुरु, अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय १६. ए प्रमाणे सोळ भांगा करवा. (२) कदाच सर्व कर्कश, सर्व लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १६. अहिं पण सोळ भांगा कहेवा. (३) कदाच सर्व मृदु, सर्व गुरु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १६. अहिं पण सोळ भांगा कहेवा. (४) कदाच सर्व मृद्, सर्व लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १६. अहिं पण सोळ भांगा कहेवा. ए बधा मळीने चोसठ भांगा थाय छे. अथवा कदाच सर्व कर्कश, सर्व शीत, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे यावत्-सर्य मृदु, 'सर्व उष्ण, अनेक देशो गुरु, अनेक देशो लघु, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय. अहिं चौसठ भांगा जाणवा. कदाच सर्व कर्कश, सर्व स्निग्ध, एक देश गुरु, एक . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक. २०.-उद्देशक ५ पत्थ वि चउसहि भंगा। सवे कक्खडे सवे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे १, जाव-सवे मउए सवे लुक्ने देसा गण्या देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा, एए चउसर्टि भंगा। सधे गरुप सधे सीए देसे कक्खडे देसे 'मउए देसे निद्धे देसे लुफ्खे, एवं जाव-सवे लहुए सधे उसिणे देसा कक्खडा देसा मउया देसा निद्धा देसा लुक्खा, एए. घउसदि भंगा। सवे गरुए सच्चे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे, जाव-सचे लहुए सवे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा सीया देसा उसिणा, एए चउसर्टि भंगा । सच्चे सीए सच्चे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए, जाव-सचे उसिणे सच्चे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया, एए चउसद्धि भंगा। सचे ते छफासे तिन्नि चउरासीया भंगसया भवंति ३८४ । ___जइ सत्तफासे सवे कवखडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १, सवे कक्खडे देस गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिण देसा निद्धा देसा लुक्खा ४, सवे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, सन्चे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, सवे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे । सच्चे ते सोलस भंगा भाणियवा । सन्ने कक्खडे देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एवं गरुएणं एगत्तेणं लहुएणं पुहुत्तेणं एते वि सोलस भंगा । सन्चे कक्खडे देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एए वि सोलस भंगा भाणियधा। सच्चे कक्खड़े देसा गरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एए वि सोलस भंगा भाणियचा। एवमेते चरसदि भंगा कक्खडेणं समं । सवे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्ने । एवं मउएण वि समं चउसर्टि भंगा भाणियवा । सवे गरुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे । एवं गरुपण वि समं चउसटुिं भंगा कायवा । सच्चे लहुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे । एवं लहुएण वि समं चउसाट्ट भंगा कायया । सच्चे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्ध देसे लुक्खे । एवं सीतेण वि समं चउसट्टि भंगा कायथा । सवे उसिणे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे देश लघु, एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय, यावत्-कदाच सर्व मृदु, सर्व रुक्ष, अनेक देशो गुरु, अनेक देशो लघु, अनेक देशो शीत अने अनेक देशो उष्ण होय. ए प्रमाणे अहिं पण चोसठ भांगा करवा. कदाच सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय, ए प्रमाणे यावत्-सर्व लघु, सर्व उष्ण, अनेक देशो कर्कश, अनेक देशो मृदु, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय. ए प्रमाणे चोसठ भांगा समजवा. कदाच सर्व गुरु, सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश शीत अने एक देश उष्ण होय, यावत्-कदाच सर्व लघु, सर्व रुक्ष, अनेक देशो कर्कश, अनेक देशो मृदु, अनेक देशो शीत अने अनेक देशो उष्ण होय. ए प्रमाणे अहिं पण चोसठ भांगा जाणवा. कदाच सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु अने एक देश लघु होय, यावत्-कदाच सर्व उष्ण, सर्व रुक्ष, अनेक देशो कर्कश, अनेक देशो मृदु, अनेक देशो गुन अने अनेक देशो लघु होय. ए प्रमाणे अहिं पण चोसठ भांगा जाणवा. ते बधा मळीने छ स्पर्श संबंधे ३८४ भांगा थाय छे. सात सर्शना भगो. हवे जो ते सात स्पर्शवाळो होय तो (१) सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १, कदाच सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध धने अनेक देशो रुक्ष होय ४. [ए प्रमाणे चार भांगा करवा ]. (२) कदाच सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. [अहिं पण चार भांगा करवा ]. (३) कदाच सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. (४) कदाच सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. ए बधा मळीने सोळ. भांगा कहेवा. (२) कदाच सर्व कर्कश, एक देश गुरु, अनेक देशो लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे 'गुरु' पद एक वचनमा अने 'लघु' पदने अनेक वचनमा राखी उपरना ज सोळ भांगा अहिं पण कहेवा १६. (३) कदाच सर्व कर्कश, अनेक देशो गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १६. अहिं पण सोळ भांगा कहेवा. (४) कदाच सर्व कर्कश, अनेक देशो गुरु, अनेक देशो लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय १६. ए पण सोळ भांगा कहेवा. (१) ए प्रमाणे ए चोसठ भांगा 'कर्कश' साथे कह्या ६४. (२) कदाच सर्व मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे 'मृदु'नी साथे पण चोसठ भांगा करवा. (३) कदाच सर्व गुरु, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष. ए प्रमाणे 'गुरु'नी साथे पण चोसठ भांगा कहेवा..(४) कदाच सर्व लघु, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ शतक २०.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. लुक्खे । एवं उसिणेण वि समं चउसटुिं भंगा कायचा । सवे निद्ध देसे कक्खडे देसे मउप देसे गरुए देसे लंहुए देसे सीए देसे उसिणे । एवं निद्धण वि चउसद्धिं भंगा कायश्वा । सवे लुक्खे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे । एवं लुक्खेण वि समं चउसर्टि भंगा कायवा जाव-सवे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा । एवं सत्तफासे पंच बारसुत्तरा भंगसया भवंति । १५ . जइ अट्टफासे. देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुर देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, एए चत्तारि चउक्का सोलस भंगा । देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुफ्खे, एवं एते गरुएणं एगत्तएणं लहुएणं पुहत्तएणं सोलस भंगा कायया । देसे कक्खडे देसे मउए देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ । एए वि सोलस भंगा कायवा । देसे कक्खडे देसे मउए देसा गरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुफ्खे। एते वि सोलस भंगा कायवा । सच्चे वि ते चउसटुिं भंगा कक्खड-मउपहिं एगत्तपहिं । ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं मउएणं पुहत्तेणं एते चउसटुिं भंगा कायचा । ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं मउएणं एगत्तपणं चउसद्धिं भंगा कायवा । ताहे पतेहिं चेव दोहि वि पुहुत्तेहि चउसहि भंगा कायवा जाव-'देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा' एसो अपच्छिमो भंगो। सवे ते अट्ठफासे दो छप्पन्ना भंगसया भवंति । एवं पते बादपरिणए अणंतपएसिए खंधे ससु संजोएसु बारस छन्नउया भंगसया भवति । शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे 'लघु'नी साथे पण चोसठ भांगा कहेवा. (५) कदाच सर्व शीत, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे 'शीत'नी साथे पण चोसठ भांगा कहेवा. (६) कदाच सर्व उष्ण, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे 'उष्ण'नी साथे पण चोसठ भांगा कहेवा. (७) कदाच सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, अने एक देश उष्ण होय. ए प्रमाणे 'स्निग्ध'नी साथे पण चोसठ भांगा कहेवा. (८) कदाच सर्व रुक्ष, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत अने एक देश उप्ण होय. ए प्रमाणे 'रुक्ष' साथे पण चोसठ भांगा करवा. यावत्-सर्व रक्ष, अनेक देशो मृदु, अनेक देशो गुरु, अनेक देशो लघु, अनेक देशो शीत अने अनेक देशो उष्ण होय ६४. ए रीते बधा मळीने सात स्पर्शना पांचसोने बार भांगा थाय छे. जो ते आठ स्पर्शवाळो होय तो (१) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक भाठ स्पर्शना भगो. देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. [अहिं चार भांगा करवा.] (२) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४, (३) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देशो शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. [ अहिं पण चार भांगा करवा ]. (४) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय ४. ए प्रमाणे चार चतुष्कना सोळ भांगा करवा. (२) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, अनेक देशो लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे 'गुरु' ने एक वचनमा भने 'लघु'ने बहुवचनमा राखी (उपरना ज) सोळ भांगा करवा १६. (३) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, अनेक देशो गुरु एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक देश रुक्ष होय. ए प्रमाणे अहिं पण सोळ भांगा करवा. (४) कदाच एक देश कर्कश, एक देश मृदु, अनेक देशो गुरु, अनेक देशो लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध अने एक 'देश रुक्ष होय. अहिं पण सोळ भांगा करवा. ए बधा मळीने चोसठ भांगा 'कर्कश अने मृदु' ने एक वचनमा राखवाथी थाय. (२) तेमां कर्कशने एक वचनमा अने मृदुने अनेक वचनमा राखी एज प्रमाणे बीजा चोसठ भांगा करवा. वळी तेमा (३) कर्कशने बहुवचनमा अने मृदुने एक वचनमा राखी पुनः चोसठ भांगा करवा. वळी पण (४) कर्कश अने मृदु बन्नेने बहुसंख्यामा राखी बीजा चोसठ भांगा करवा. यावत्-अनेक देशो कर्कश, अनेक देशो मृदु, अनेक देशो गुरु, अनेक देशो लघु, अनेक देशो शीत, अनेक देशो उष्ण, अनेक देशो स्निग्ध अने अनेक देशो रुक्ष होय ६४. ए छेल्लो भांगो छे. ए बधा मळीने आठ स्पर्शना बसो ने छप्पन्न भांगा थाय छे. ए प्रमाणे बादर- पादर स्कन्धना स्पर्शने भाषयी परिणामवाळा अनंतप्रदेशिक स्कंधमा स्पर्शना सर्व संयोगोने आश्रयी [चतुःसंयोगी १६, पंचसंयोगी १२८, छसंयोगी ३८४, सप्तसंयोगी १९९५ मंगो. ५१२ अने अष्टसंयोगी २५६-] बधा मळीने १२९६ भांगा थाय छे. . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार. द्रव्यपरमाणुना प्रकार. ११९ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उदेशक ६. १२. [प्र०] कइविहे भंते ! परमाणू पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! चउधिहे परमाणू पन्नत्ते तंजहा-१ वचपरमाण, ९ खेतपरमाणू, ३ कालपरमाणु, ४ भावपरमाणू । १३. [प्र०] दधपरमाणू णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! चउधिहे पन्नत्ते तंजहा-१ अच्छेजे, २ अमेजे, ३ अडझे, ४ अगेझे। १४. [५०] खेत्तपरमाणू णं भंते ! काविहे पन्नत्ते ? [३०] गोयमा ! चउधिहे पनवे तंजहा-१ अणचे, २ अमज्झे, ३ अपदेसे, ४ अविभाइमे। १५. [प्र०] कालपरमाण-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! चउधिहे पन्नत्ते, तंजहा-१ अवन्ने, २ अगंधे, ३ अरसे, ४ अफासे। १६. [प्र०] भावपरमाणू णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! चउधिहे पन्नत्ते तंजहा-१ वनमंते, २ गंधमंते, ३ रसमंते, ४ फासमंते । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरति । वीसइमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो। परमाणुना चार १२. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणु केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! परमाणु चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ *द्रव्यपरमाणु, २ क्षेत्रपरमाणु, ३ कालपरमाणु अने ४ भावपरमाणु. १३. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यपरमाणु केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! द्रव्यपरमाणु चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ अछेद्य, २ अभेद्य, ३ अदाह्य अने ४ अग्राह्य. क्षेत्रपरमाणुना १४. [प्र०] हे भगवन् ! क्षेत्रपरमाणु केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! क्षेत्रपरमाणु चार प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-१ अनर्ध, २ अमध्य, ३ अप्रदेश अने ४ अविभाग, १५. [प्र०] हे भगवन् ! कालपरमाणु केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ अवर्ण, २ अगंध, ३ अरस अने ४ अस्पर्श. १६. [प्र०] हे भगवन् ! भावपरमाणु केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ वर्णवाळो, २ गंधवाळो, ३ रसवाळो अने ४ स्पर्शवाळो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' एम कही [ भगवान् गौतम ] यावत्-विहरे छे. वीशमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. छट्टओ उद्देसो। १. [प्र०] पुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे मविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं पुर्वि उववजित्ता पच्छा आहारेजा पुषि आहारिता षष्ठ उद्देशक. पृथिवीकायिकर्नु १. [प्र०] हे भगवन्! जे पृथिवीकायिक जीव, आ रत्नप्रभा पृथिवी अने शर्कराप्रभा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकआहार अने उत्प- रूपमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते शुं पहेलां उत्पन्न थईने पछी आहार करे के पहेला आहार करीने पछी उत्पन्न थाय ! तिनुं पौर्वापर्व [उ०] हे गौतम ! ते पहेलां उत्पन्न थईने पछी आहार करे, अथवा पहेलां आहार करीने पछी उत्पन्न थाय-इत्यादि हकीकत सत्तरमा प्रकार. काळपरमाणुना प्रकार. भावपरमाणुना प्रकार. १२ * वर्णादि धर्मनी विवक्षा सिवायनो एक परमाणु द्रव्य परमाणु कहेवाय छे; कारण के अहिं केवल द्रव्यनी ज विवक्षा छ, एक आकाश प्रदेश क्षेत्र परमाणु, समय काळ परमाणु अने वर्णादि धर्मना प्राधान्यनी विवक्षा थी भाव परमाणु कहेवाय छे. - १४१ परमाणुना समसंख्यावाळा अवयव नथी माटे ते अनर्ध, विषम संख्यावाळा अवयवो नथी माटे अमध्य, अवयवो नथी माटे अप्रदेश अने तेनो विभाग थई शकतो नथी माटे अविभाग कहेवाय छे. ११ अन्तर्मुहूर्तनुं आयुष बाकी होय त्यारे मरणान्त दुःखथी पीडित थयेल जीव पोताना आत्मप्रदेशो वडे मुखादि छिद्रोने पूरीने तथा शरीर प्रमाण पहोळाइ अने जाडाइ राखी तथा लंबाइमा उत्पत्ति स्थानपर्यंत. क्षेत्र व्यापीने अन्तर्मुहूर्तमा मरण पामे अने आयुष कर्मना घणा पुद्गलोनो क्षय करे ते मरणसमु धात कहेवाय छे. कोइ एक जीव समुद्घात करीने भवान्तरमा उत्पन्न थाय छे अने त्यां आहार करे छे अने शरीर बांधे छ, कोइ जीव समुद्घातथी निवृत्त थई पोताना शरीरमा आवीने फरी समुद्घात करी भवान्तरमा उत्पन्न थाय छे. जुओ भग• खं० २ श० ६ उ०६ पृ. ३१६. जीवो देशथी अने सर्वथी एम बे प्रकारे मरणसमुद्घात करे छे, ज्यारे देशथी मरणसमुद्घात करे छे त्यारे ते मरणसमुद्घातथी निवृत्त यई पूर्वना शरीरने सर्वथा छोडी दडानी गतिथी जाय छे अने ते प्रथम उत्पन्न थाय छे भने पछी आहार करे छे. पण जे सर्व समुद्घात करे छे ते ईलिका गतिथी त्यां जई पछी शरीरनो त्याग करे छे ते थी प्रथम आहार करे छे अने पछी उत्पन्न थाय छे-जुओ भग० ख०० १७ उ०६ पृ. ४०. Jain Education international Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११३ पच्छा उववजेजा ? [उ.] गोयमा ! पुर्वि वा उववजित्ता० एवं जहा सत्तरसमसए छठु से जाव-से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-पुष्टि वा जाव-उववजेजा' । नवरं तेहिं संपाउणणा, इमेहिं आहारो भन्नति, सेसं तं चेव। २.प्र. पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-ईसीप-भाराए उववाएयचो।। ३. [40] पुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए वालुयप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहते, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे जाव-ईसीपब्भाराए, एवं एतेण कमेणं जाव-तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जावईसिपब्भाराए उववाएयचो। ४.प्रि०] पुढविक्काइए णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! पुर्वि उववजित्ता पच्छा आहारेजा, सेसं तं चेव जाव-से तेणट्टेणं जाव-णिक्खेवओ। ५. [प्र०] पुढविकाइए णं भंते! सोहम्मी-साणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए० ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-अहेसत्तमाए उववाएयच्यो । एवं सणंकुमारमाहिंदाणं बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समोहणित्ता पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए उववाएयवो, एवं बंभलोगस्स लंतगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं लंतगस्स महासुक्कस्स कप्पस्स य अंतरा समोहए, पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य कप्पस्स अंतरा पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाण य अंतरा पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं आणय-पाणयाणं आरण-अञ्चुयाण य कप्पाणं अंतरा पुणरवि जावअहेसत्तमाए, एवं आरण-चुयाणं गेवेजविमाणाण य अंतरा जाव-अहेसत्तमाए, एवं गेवेजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य अंतरा पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसीपम्भाराए य पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए उववाएयत्रो । ६.०] आउकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए. सेसं जहा पुढविकाइयस्स, जाव-से तेणटेणं । एवं पढम-दोच्चाणं अंतरा समोहए शतकना छट्ठा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवी. यावत्-ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के-'ते पहेला उत्पन्न थईने पछी आहार करे, अथवा पहेला आहार करीने पंछी उत्पन्न थाय.' पण विशेष ए के, त्यां पृथिवीकायिको 'संप्राप्त करे-पुद्गलग्रहण करे' ए कथन छे अने अहिं 'आहार करे' एम कहेवार्नु छे. बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवू. . २. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभापृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने ईशानकल्पमां पृथिवी कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते शुं पहेला उत्पन्न, थाय अने पछी आहार करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. ३. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमां यावत्ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उत्पन्न थवाने योग्य होय-इत्यादि प्रश्न अने उत्तर पूर्ववत् जाणवो. ए प्रमाणे ए क्रमवडे यावत्-तमा अने अधःसप्तम (तमतमा ) पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घातपूर्वक पृथिवीकायिकनो सौधर्मकल्पमा यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उपपात कहेवो. ४. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक सौधर्म-ईशान अने सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने आ रत्नप्रभा. पृथिवीमा पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य होय ते शुं पहेलां उत्पन्न थईने पछी आहार करे के पहेला आहार करीने पछी उत्पन्न थाय ! [उ०] बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. यावत्-ते हेतुथी यावत्-एम कहेवाय छे-इत्यादि उपसंहार कहेवो. ५. प्रि०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक सौधर्म-ईशान अने सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पनी बच्चे मरणसमदघात करीने शर्कराप्रभा प्रथिवीमा पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ते प्रमाणे यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. एम सनत्कुमार-माहेन्द्र अने ब्रह्मलोक कल्पनी वच्चे मरणसमुद्घात पूर्वक फरीथी रत्नप्रभाथी मांडी यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. एज रीते ब्रह्मलोक अने लांतककल्पनी बच्चे मरणसमुद्घात करी पुनः यावत्-अधःसप्तम नरक सुधी, एम लांतक अने महाशुक्र कल्पनी बच्चे, महाशुक्र अने सहस्रार कल्पनी वच्चे, सहस्रार अने आनत-प्राणतकल्पनी बच्चे, आनत-प्राणत अने आरणअच्युतकल्पनी वच्चे, आरण-अच्युत अने प्रैवेयकविमाननी वच्चे, अवेयकविमान अने अनुत्तरविमाननी वच्चे तथा अनुत्तरविमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करवा पूर्वक रत्नप्रभाथी आरंभी अधःसप्तम पृथिवी सुधी पृथिवीकायिकनो उपपात कहेवो. ६.प्र०] हे भगवन् ! जे अप्कायिक आ रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा अप्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि बधु पृथिवीकायिकनी पेठे यावत्-ते हेतुथी यावत्-[ पूर्वे आहार करे अने] पछी पण उपजे त्यां सुधी कहे. ए १५ भ० सू० भकायिक. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक ७. जाव-ईसीपभाराए उववाएयचो, एवं एएणं कमेणं जाव-तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जावईसीपब्भाराए उववाएयचो. आउक्काइयत्ताए । ७. [प्र०] आउयाए णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं सणंकुमार-माहिदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहि-घणोदहिवलएसु आउक्काइयत्ताए उववजित्तए० सेसंतं चेव, एवं एएहि चेव अंतरा समोहओ जाव-अहेसत्तमाए पुढवीए घणोदहि-घणोद्दिवलएसु आउक्काइयत्ताए उववाएयधो, एवं जाव-अणुत्तरविमाणाणं ईसिपब्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए जाव-अहेसत्तमाए घणोदहि-घणोदहिवलपसु उववाएयधो २।। ८. [प्र०] वाउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तए० एवं जहा सत्तरसमसए वाउकाइयउहेसए तहा इह वि, नवरं अंतरेसु समोहणा नेयवा, सेसं तं चेव, जाव-अणुत्तरविमाणाणं ईसीप-भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए घणवाय-तणुवाए घणवाय-तणुवायवलएसु वाउक्काइयत्ताए उववजित्तए, सेसं तं चेव, जाव-से तेणटेणं जाव-उववजेजा। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । वीसइमे सए छट्ठओ उद्देसो समत्तो। प्रमाणे पहेली अने बीजी पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घातने प्राप्त थयेल अप्कायिकनो यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. एं प्रमाणे ए क्रम वडे यावत्-तमा अने अधःसप्तम पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घातने प्राप्त थयेल अप्कायिकनो यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी अप्कायिकपणे उपपात कहेवो. ७. [प्र०] हे भगवन् ! जे अप्कायिक सौधर्म-ईशान अने सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने आ रत्नप्रभापृथिवीमा घनोदवि अने घनोदधिवलयोमा अप्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि बधु पूर्ववत् कहे. ए प्रमाणे पूर्वे कहेला आंतराओमां मरणसमुद्घातने प्राप्त थयेल अकायिकनो अधःसप्तम पृथिवी सुधीना घनोदधि अने धनोदधिवलयोमा अप्कायिकपणे उपपात कहेवो यावत् -अनुत्तर विमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घातने प्राप्त थयेल अप्कायिकनो यावत्-सातमी पृथिवी सुधी घनोदधि भने घनोदधिवलयोमा अप्कायिकपणे उपपात कहेवो... ८. [प्र०] हे भगवन् ! जे वायुकायिक आ रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा वायुकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] जेम *सत्तरमा शतकना वायुकायिक उद्देशकमां कयु छे ते प्रमाणे अहिं पण कहेवू विशेष ए के, रत्नप्रभादि पृथिवीओना आंतरामां मरण समुद्घातसंबन्धे कहे. बाकी बधु पूर्ववत् जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-अनुत्तर विमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने जे वायुकायिक घनवात अने तनु वातमां तथा घनवात अने तनुवातना वलयोम वायुकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य होय-इत्यादि बाकीर्नु बधुं पूर्ववत् कहेवू. यावत्-ते हेतुथी यावत्-'उत्पन्न थाय. "हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'–एम कही यावत्-विहरे छे. वीशमा शतकमां छट्ठो उद्देशक समाप्त. बायुकायिक सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] कइविहे गं भंते ! बंधे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-१ जीवप्पयोगबंधे, २ अणं. तरबंधे, ३ परंपरबंधे। २. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! काविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ.] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं ।' कर्मवन्ध, सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बंध केटला प्रकारनी कह्यो छे? [उ०] हे गौतम ! बंध त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-जिीवप्रयोगबंध, अनंतरबंध अने परंपरबंध. २. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो बंध कह्यो छे ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. एम यावत्-वैमानिको सुधी कहे. ८.* भग० ख०.४ श०१७ उ०१०-११ पृ.४२. जीवना प्रयोग-मन, वचन भने कायना व्यापार-वडे कर्मपुद्गलोनो आस्मानी साथे संबन्ध थवो ते जीवप्रयोग बन्ध, कर्मपुद्गलोनो बन्ध थया पछीना समये जे बन्ध ते अमन्तर बन्ध कहेवाय छे अने त्यार पछी द्वितीयादि समये जे बन्ध ते परंपर बन्ध कहेवाय छे. Jain Education international Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३. [प्र०] नाणावरणिजस्स र्ण भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे धंधे पन्नत्ते, तंजहाजीवप्पयोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे। ४. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! नाणावरणिजस्स कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं, पषं जाव-अंतराइयस्स। ५. [प्र०] णाणावरणिजोदयस्स णं भंते ! कम्मस्स कहविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे बंधे पन्नत्ते एवं चेष, एवं नेरल्याण वि, एवं जाव-वेमाणियाणं, एवं जाव-अंतराइउदयस्स । ६. [प्र०] इत्थीवेदस्स गं भंते ! कइविहे बंधे पन्नत्ते? [30] गोयमा! तिविहे बंधे पन्नत्त एव चव । ७. [प्र०] असुरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेदस्स कतिविहे बंधे पन्नत्ते? [उ.] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं, नवरं जस्स इत्थिवेदो अत्थि, एवं पुरिसवेदस्स वि, एवं नपुंसगवेदस्स वि, जाव-वेमाणियाणं, नवरं जस्स जो अत्थि वेदो । ८. [प्र०] दंसणमोहणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] एवं चेव, निरंतरं जाव-वेमाणियाणं । एवं चरित्तमोहणिजस्स वि जाव-वेमाणियाणं । एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव-कम्मगसरीरस्स, आहारसनाए जाव-परिग्गहसन्नाए, कण्हलेसाए जाव-सुक्कलेसाए, सम्मदिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्ठीए, आभिणियोहियणाणस्स जाव-केवलनाणस्स, मइअन्नाणस्स, सुयअन्नाणस्स, विभंगनाणस्स, एवं आभिणिबोहियणाणविसयस्स भंते ! काविहे बंधे पन्नत्ते, जाव-केवलनाणविसयस्स मइअन्नाणविसयस्स सुयअन्नाणविसयरस विभंगणाणविसयस्स एएसि सधेसि पदाणं तिविहे बंधे पन्नत्ते । सवे एते चंउच्चीसं दंडगा भाणियवा, नवरं जाणियचं जस्स जं अत्थि । जाव-[प्र०] वेमाणियाणं भंते ! विमंगणाण बन्ध. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ शानावरणीय कर्मनो प्रमाणे-१जीवप्रयोगबंध, २ अनंतरबंध अने ३ परंपरबंध. ४. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने ज्ञानावरणीय कर्मनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी ज्ञानावरणीयनो बंध कहेवो. ए रीते यावत्-अंतराय कर्मनो बंध पण जाणवो. ५. [प्र०] हे भगवन् ! *ज्ञानावरणीयोदय (उदयप्राप्त ज्ञानावरणीय) कर्मनो बंध केटला प्रकारनो को छे! [उ०] हे गौतम! पूर्वनी शानावरणीयोदय पेठेत्रण प्रकारनो कह्यो छे. ए प्रमाणे नैरयिको अने यावत्-वैमानिकोने पण बंध कहेवो. एम यावत्-अंतरायोदय कर्मनो बंध पण जाणवो. कर्मनो बन्ध. . ६. [प्र०] हे भगवन् ! (उदय प्राप्त ) स्त्रीवेदनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे त्रण प्रकारनो स्त्रीवेदनो बन्ध. कह्यो छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारोने (उदय प्राप्त ) स्त्रीवेदनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. विशेष ए के, जेने स्त्रीवेद होय तेने ते कहेवो. एम पुरुषवेद अने नपुंसकवेद संबंधे पण ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुघी कहे. विशेष ए के जेने जे वेद होय तेने ते कहेवो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! दशेनमोहनीयकर्मनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ. हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे त्रण प्रकारनो कह्यो दर्शनमोहनीय कर्मनो बन्धछे. ए प्रमाणे निरंतर यावत्-वैमानिको सुधी कहेवू. तथा ए रीते चारित्रमोहनीय संबंधे पण यावत्-वैमानिको सुघी कहे. ए क्रम वडे औदारिकशरीर, यावत्-कार्मणशरीरनो, आहार, संज्ञा, यावत्-परिग्रह संज्ञानो, कृष्णलेश्या, यावत्-शुक्ललेश्यानो, सिम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिथ्यादृष्टिनो, मतिज्ञाननो, यावत्-केवलज्ञाननो, मतिअज्ञाननो, श्रुतअज्ञाननो अने विभंगज्ञाननो, तथा ए प्रमाणे मतिज्ञानना विषयनो, यावत्-केवलज्ञानना विषयनो, मतिअज्ञानना विषयनो, श्रुतअज्ञानना विषयनो, अने विभंगज्ञानना विषयनो, ए बधानो बंध हे भगवन् ! केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] ए बधानो बंध त्रण प्रकारनो कह्यो छे, अने ते बधा संबंधे चोवीश चोवीश दंडको कहेवा. विशेष ए के, जेने जे होय ते तेने कहे. यावत्-प्र. हे भगवन् । वैमानिकोने विभंगज्ञानना विषयनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे ५*१ उदय प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्मनो बन्ध पूर्वकाळनी अपेक्षाए जाणवो, २ अथवा ज्ञानावरणीयपणे जेनो उदय छे एवा कर्मनो बन्ध समजवो, केमके कमै विपाक अने प्रदेश ए बने रूपे वेदाय छे, माटे अहिं विपाकोदयरूपे वेदवा लायक कर्मनो बन्ध प्रहण करवो, ३ अथवा शानावरण कर्मना उदयमा जे कर्म बंधाय अथवा वेदाय ते कर्मनो बन्ध जाणवो-आ त्रण विकल्पो टीकाकारे जणाव्या छे. ८पूर्वे कर्मनो आत्मानी साथे संबन्ध ते बन्ध एम कहेलं छे, पण अहिं कर्मपुद्गल के इतर पुद्गलोनो आत्मानी साथे संबन्ध ते पन्ध एम लइए तो औदारिकादि शरीर, आहारादिसंज्ञाजनक कर्म अने कृष्णादि लेश्यानो बन्ध होइ शके, पण दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान अने तेना विषयनो बन्ध केम होइ शके ! कारण के ते.बधा अपौगलिक छे, परन्तु अहिं पन्धनो अर्थ संबन्ध मात्र विवक्षित छे, तेथी सम्यग्दृष्टि इत्यादिनो जीवप्रयोगादि बन्ध घटी शके छे. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक ८. विसयस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-जीवप्पयोगधंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेति जाव-विहरति । वीसइमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो । गौतम!त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-जीवप्रयोगबंध, अनंतरबंध अने परंपरबंध. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे. एम कही यावत्-विहरे छे. वीशमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त. अट्ठमो उद्देसो। १. [प्र०] कइ णं भंते ! कम्मभूमीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! पन्नरस कम्मभूमीओ पन्नत्ताओ, तं तहा-पंच भरहाई, पंच एरवयाई, पंच महाविदेहाई । २. [प्र०] कति णं भंते ! अकम्मभूमीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! तीसं अकम्मभूमीओ पन्नताओ, तं जहा-पंच हेमवयाई, पंच हेरनवयाई, पंच हरिवासाई, पंच रम्मगवासाई, पंच देवकुराई, पंच उत्तरकुराई । ३. [प्र०] एयासु णं भंते ! तीसासु अकम्मभूमीसु अस्थि उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा ? [उ०] णो णिढे समझे। ४. [प्र०] एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु पंचसु एरवरसु अत्थि उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा ? [उ०] हंता भत्थि । एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु णेवत्थि उस्सप्पिणी, नेवत्थि ओसप्पिणी, अवट्ठिए णं तत्थ काले पन्नते समणाउसो।। ५. [प्र०] एएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो पंचमहवइयं सपडिक्कमणं धम्म पन्नवयंति ? [३०] णो तिणटे समझे। एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु, पुरिम-पच्चच्छिमगा दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहधइयं (पंचागुषइयं) सपडिक्कमणं धम्मं पन्नवयंति, अवसेसा णं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पनवयंति । एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउजामं धम्मं पनवयंति । ६. [प्र०] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए कति तित्थगरा पन्नत्ता ! [उ.] गोयमा! चउवीसं तित्थगरा पन्नत्ता, तंजहा-उसभ-अजिय-संभव-अभिनंदण-सुमति-सुप्पभ-सुपास-ससि-पुष्फवंत-सीयल-सेजंस-वासु अष्टम उद्देशक. कर्मभूमि- १. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मभूमिओ केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! पंदर कर्मभूमिओ कही छे, ते आ प्रमाणे-पांच भरत, पांच ऐवत अने पांच महाविदेह. अकर्मभूमि. २. [प्र०] हे भगवन् ! अकर्मभूमिओ केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! त्रीश अकर्मभूमिओ कही छे, ते आ प्रमाणे-पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु अने पांच उत्तरकुरु. अकर्मभूमिमा उत्स- ३. [प्र०] हे भगवन् ! ए त्रीश अकर्मभूमिओमा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीरूप काळ छे ! [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. पिणी भने अवसर्पिणीरूप काळ होय। भरत अने ऐरवतमा ४. [प्र०] हे भगवन् ! ए पांच भरतोमा अने पांच ऐरवतोमा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीरूप काळ छे! [उ०] हा छे. [प्र०] ए काळ. पांच महाविदेहमा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काळ छे ? [उ०] नथी. हे आयुष्मान् श्रमण ! त्यां एकरूपे अवस्थित काळ कह्यो छे. महाविदेशमां धर्मनो ५. [प्र०] हे भगवन् ! ए पांच महाविदेहोमां अरहंत भगवंतो पांच महाव्रतवाळा अने प्रतिक्रमण सहित धर्मनो उपदेश करे छे । [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. परन्तु ए पांच भरतोमा अने पांच ऐरवतोमा पहेला अने छेल्ला ए बे अरहंत भगवंतो पांचमहाव्रतवाळा ( अने पांच अणुव्रतवाळा ) तथा प्रतिक्रमणसहित धर्मनो उपदेश करे छे, बाकीना अरहन्त भगवंतो चारमहाव्रतवाळा धर्मनो उपदेश करे छे. वळी ए पांच महाविदेहोमां पण अरहंत भगवंतो चारमहाव्रतवाळा धर्मनो उपदेश करे छे. भारतवर्षमा ६. [प्र०) हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामे द्वीपना भारतवर्षमा आ अवसर्पिणीमां केटला तीर्थंकरो थया छ ? [उ०] हे गौतम ! चोवीश तीर्थकरो थया छे, ते आ प्रमाणे-१ ऋषभ, २ अजित, ३ संभव, ४ अभिनंदन, ५ सुमति, ६ सुप्रभ, ७ सुपार्श्व, ८ शशी उपदेश. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पुज-विमल-अणंत-धम्म-संति-कुंथु-अर-मल्लि-मुणिसुष्वय-नमि-नेमि-पास-वद्धमाणा २४ । ७. [H०] एएसि णं भंते ! चउवीसाए तित्थगराणं कति जिणंतरा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पनत्ता। ० एएसिणं भंते । तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहिं कालियसुयस्स बोच्छेदे पन्नत्ते [10] गोयमा! परसुणे तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिमएसु अट्ठसु २ जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पन्नत्ते, मज्झिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स वोच्छेदे पन्नत्ते, सवत्थ वि णं वोच्छिन्ने दिट्टिवाए। . ९.०] जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवतियं कालं पुषगए अणुसजिस्सति ? [उ.] गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं पगं वाससहस्सं पुषगए अणुसज्जिस्सति । १०. [प्र०] जहा णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पिणाणं एगं वाससहस्सं पुषगए मणुसज्जिस्सइ, तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए अवसेसाणं तित्थगराणं केवतियं कालं पुश्वगए अणुसज्जित्था ? [उ०] गोयमा ! अत्यंगतियाणं संखेनं कालं, अत्थेगइयाणं असंखेजं कालं। ११. [प्र०] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवतियं कालं तित्थे अणुसजिस्सति ? [उ०] गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसजिस्सति । १२. [प्र०] जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एकवीसं वाससहस्साई तित्थं अणुसज्जिस्सति तहा गं भंते जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स केवतियं कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ? [उ०] गोयमा ! जावतिए णं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए एवइयाई संखेजाई आगमेस्साणं चरिमतित्थग. रस्स तित्थे अणुसज्जिस्सति । १३. [प्र०] तित्थं भंते ! तित्थं तित्थगरे तित्थं ? [उ०] गोयमा ! अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवनाइने समणसंघो, तं जहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ। चन्द्रप्रभ, ९ पुष्पदंत-सुविधि, १० शीतल, ११ श्रेयांस, १२ वासुपूज्य, १३ विमल, १४ अनंत, १५ धर्म, १६ शांति, १७ कुंथु, १८ अर, १९ मल्लि, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि, २२ नेमि, २३ पार्श्व अने २४ वर्धमान.. ७. [प्र०] हे भगवन् ! ए 'चोवीश तीर्थकरोना केटलां अंतरो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! वीश अंतरो कयां छे. चोवीश जिननी अंतरो. ८. [प्र०] हे भगवन् । ए जिनोना त्रेवीश अंतरोमां कया जिनना अंतरमा *कालिकश्रुतनो विच्छेद कह्यो छे! [उ०] हे। कालिक भुतनो विच्छेद अने गौतम ! ए त्रेवीश जिनांतरोमा पहेला अने छेल्ला आठ आठ जिनांतरोमां कालिकश्रुतनो अविच्छेद कह्यो छे, अने वचला सात जिनांतरोमां अविच्छेद कालिकश्रुतनो विच्छेद कह्यो छे. दृष्टिवादनो विच्छेद तो बधाय जिनांतरोमां कह्यो छे. ९. [प्र०] हे भगवन् । जंबूद्वीप नामे द्वीपना भारतवर्षमां आ अवसर्पिणीमां आप देवानुप्रियर्नु पूर्वगत श्रुत केटला काळ सुघी रहेशे ! पूर्वगत श्रुतनी स्थिति. [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपना भारतवर्षमा आ अवसर्पिणी काळमां मारुं पूर्वगत श्रुत एक हजार वर्ष सुधी रहेशे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! जेम जंबूद्वीप नामे द्वीपना भारतवर्षमां आ अवसर्पिणी काळमां आप देवानुप्रियर्नु पूर्वगत श्रुत एक हजारवर्ष सुधी रहेशे तेम बाकी बधा तीर्थंकरोतुं पूर्वगत श्रुत केटला काळ सुधी रह्यं हतुं ? [उ०] हे गौतम ! केटलाक. तीर्थकरोनु संख्याता काळ सुघी अने केटलाक तीर्थंकरोतुं असंख्याता काळ सुधी पूर्वगत श्रुत रघु हतुं. ११. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामे द्वीपना भारतवर्षमां आ अवसर्पिणीकाळमां आप देवानुप्रियनुं तीर्थ केटला काळ सुधी तीर्थनी भिति. रहेशे ! [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीपं नामे द्वीपना भारत वर्षमा आ अवसर्पिणी काळमां मारुं तीर्थ एकवीश हजार वर्ष सुधी रहेशे. १२. [प्र०] हे भगवन् ! जेम जंबूद्वीप नामे द्वीपना भारतवर्षमा आ अवसर्पिणीकाळमां आप देवानुप्रियर्नु तीर्थ एकवीश हजार भावी छेला तीर्थंकरवर्ष सुधी रहेशे तेम हे भगवन् ! जंबूद्वीपना भारतवर्षमां भावी तीर्थंकरोमांना छेल्ला तीर्थकरनुं तीर्थ केटला काळ सुधी रहेशे ? [उ०] हे ' गौतम ! कोशलदेशना ऋषभ देव अहंतनो जेटलो जिनपर्याय कह्यो छे, तेटलां (हजार वर्षन्यून लाख पूर्व ) वर्ष सुधी भावी तीर्थकरोमांना छेल्ला तीर्थंकरर्नु तीर्थ रहेशे. १३. [प्र०] हे भगवन् ! तीर्थ ए तीर्थ छे के तीर्थकर तीर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! अहंत तो अवश्य तीर्थकर छे, (पण तीर्थ तीर्थ भने तीर्थकर. नथी.) परन्तु चार प्रकारनो श्रमण प्रधान संघ-१ साधु, २ साध्वी, ३ श्रावक अने ४ श्राविका ते तीर्थ रूप छे. *जेना अध्ययनादि काळे-दिवस अने रात्रिना पहेला अने छेल्ला प्रहरे ज थई शके ते आचारांगादि कालिक श्रुत कहेवाय छे अने जेना अध्ययनादि बधा काळे थई शके ते दशवकालिकादि उत्कालिक श्रुत कहेवाय छे-जुओ नंदिसूत्र श्रुतज्ञानाधिकार प० २०२ . Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन अने प्रवचनी उम्र बगेरे क्षत्रियोनो धर्ममा प्रवेश. देवलोकना प्रकार. चारण मुनिना प्रकार अने तेनुं साम चकवा कारण. विद्याचारणनी शीघ्र गति. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०-देशक ९. ? १४. [प्र०] पचपणं भंते पचवणं, पावयणी पवयणं १ [ड०] गोपमा ! अरहा ताव नियमं पायवणी, पचवणं पुण दुबालसंगे गणिपिडगे, तं जहा - आयारो, जाव-दिट्टिवाओ । ११८ १५. [२०] जे इमे भंते! उग्गा भोगा, राना, इक्खागा, नाया, कोरक्षा पर णं असि परमे योगाहंति, स० २ ओगाहिता अद्भुवि कम्मरयम पचाति अट्ठ २ पपादिता तो पच्छा सिज्यंति, जाथतं करेति [ड०] दंता गोयमा जे इसे उग्गा भोगा तं चैव जाव-अंतं करेंति, अत्थेगइया अन्नयरेसु देवलोपसु देवत्ताप उववत्तारो भवंति । " १६. [ प्र० ] कइविहा णं भंते ! देवलोया पत्ता ? [30] गोयमा ! चउष्ठिद्दा देवलोया पन्नत्ता, तंजदा - भवणवासी, वाणमंतरा, जोतिसिया वैमाणिया 'सेयं मंते । सेयं भंते' ! ति । I बीसइमे सए अट्टमो उद्देसो समतो १४. [प्र०] हे भगवन् प्रवचन प्रवचन के के प्रवचनी ए प्रवचन ? [30] हे गौतम! अत तो अवश्य प्रवचनी ( प्रवचनना उपदेशक ) छे, पण प्रवचन नथी. ) अने द्वादशांगगणिपिटक ( आचारादि) प्रवचन छे, ते आ प्रमाणे १. आचारांग यावत्-१२ दृष्टिवाद १५. [प्र०] हे भगवन् ! जे आ उपकुलना, भोगकुलना राजन्यकुना कुना, हातकुलना अने कौरव्यकुलना क्षत्रीयो, ए वधा आ धर्ममा प्रवेश करे छे अने प्रवेश करीने आठ प्रकारमा धर्मरूप रजोनलने घुए है, खार पछी तेओ सिद्ध थाय छे, यावत् सबै दुःखोनों अंत करे छे ? [उ०] हे गौतम! हा, जे आ उग्रकुल वगेरेना क्षत्रियो छे ते यावत्- सर्व दुःखोनो अंत करे छे, अने केटलाक कोइएक देवलोकोमा देवपने उपन्न थाय छे. १६. [प्र०] हे भगवन्! देवढोको केटला प्रकारना कहा के [४०] हे गौतम! देवलोको चार प्रकारना कया छे, ते आ प्रमाणे - १ भवनवासी, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिषिक अने ४ वैमानिक. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' वीशमा शतकम अष्टम उद्देशक समाप्त. नवमो उद्देसो । - १. [प्र० ] कविडा नं भंते! चारणा पत्रता ? [उ०] गोयमा ! दुबिधा चारणा पद्मता, तं जहा विज्ञाचारणा व जंघाचारणाय । २. [प्र० ] से केणटुणं भंते! एवं बुधाइ - विज्ञाचारणा' २१ [४०] गोयमा ! तस्स णं छछद्वेणं अनिक्सितेणं तयोकम्मेण विज्ञाय उत्तरगुणलदि सममाणस्स विज्ञाचारणलद्धी नामं लदी समुप्यजर, से तेणद्वेगं जाय-विज्ञाचारणा २ । ३. [प्र० ] विज्ञाचारणस्स णं भंते कई सीदा गती, कई सीधे दीवे जाच किंविविसेसाहिए परिक्लेवेणं देवे णं महडीए जाय- महेस तिहिं अच्छरानिवाहिं तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हवमागच्छेजा, विजाचारंणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सी गतिविस पन्नत्ते । गतिविसर पसते ? [४०] गोषमा ! अयनं जंबुद्दीचे जाब- इणामेव ' तिकट्टु केवलकणं बुद्दीचं दी 1 नवम उद्देशक १. [प्र० ] हे भगवन् ! चारणो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! चारणो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे*विद्याचारण अने अंपाचारण २. [प्र० ] हे भगवन् ! विद्याधारण मुनिने 'विद्याचारण' एम शा हेतुथी कहेवाय छे [30] हे गौतम निरंतर छ छडुना तपकर्मपडे अने पूर्वगतरूप विद्यापडे उत्तरगुणलब्धि- तपोम्पिने प्राप्त पयेा मुनिने विद्याचारण नामे सन्धि उत्पन्न थाय छे, माटे ते कारणथी ते यावत् - विद्याचारण मुनिने 'विद्याचारण' कहेवाय छे. ३. [ प्र० ] हे भगवन् ! विद्याचारणनी केवी शीघ्र गति होय, अथवा तेनो गतिविषय केटलो शीघ्र होय ! [उ०] हे गौतम! आ जंबूद्वीप नामे द्वीपनी यावत्-कांइक विशेषाधिक [त्रण खास सोळ हजार बसो सत्तावीश योजन] परिधि के ते संपूर्ण जंबूदीपने कोइएक महर्द्धिक यावत्-मोटा मुखबाळ देव यावत्- 'आ फर्रु हूं' एम कही त्रण चपटी बगाडे तेली वारमां प्रणवार फरीने पाछो शीघ्र आवे, हे गौतम! विद्याचारणनी तेवी शीघ्र गति अने तेवा प्रकारनो शीघ्र गतिनो विषय कह्यो छे. ** १ चरण - आकाशमां लब्धिथी अतिशय गमन करवानी शक्ति-वाळा मुनिने चारण कहे छे, तेना बे प्रकार छे-विद्या- पूर्वंगत श्रुतद्वारा गमन करवानी लब्धि प्राप्त थयेला विद्याचारण अने जंघाना व्यापारथी गमन करवानी लब्धिवाळा जंघाचारण कहेवाय छे. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक. ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११९ ४.प्र. विजाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतियं गतिविसप पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! से गं इओ एगेणं उप्पारणं माणसुत्तरे पष्चए समोसरणं करेति, माणु० २ करेत्ता तहि चेहयाई वंदति, तहिं०२वंदित्ता बितिएणं उप्पापणं नंदीसरवरे ही समोसरणं करेति, नंदीस० २ करेत्ता तहिं चेहयाई वंदति, तहिं० २ वंदित्ता तओ पडिनियत्तति, तो पडिनियर्सित्ता इहमागच्छद, आगच्छित्ता इह चेहयाई वंदति । विजाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते । ५. [प्र०] विजाचारणस्स णं भंते ! उहूं केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? [उ ०] गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पापणं नंदणवणे समोसरणं करेइ, नंद० २ करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, तहिं०.२ वंदित्ता बितिएणं उप्पारणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, पंडग०२ करेत्ता तहिं चेइयाई बंदइ, तहिं० २ वंदित्ता तओ पडिनियत्तति, तंओ पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छित्ता इहं चेइयाई वंदति । विजाचारणस्स णं गोयमा ! उहुं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते। से णं तस्स ठाणस्स अणालो. इय-पडिकते कालं करेति, नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेति अत्थि तस्स आराहणा । . ६. [H०] से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चइ-'जंघाचारणा' २ ? [उ०] गोयमा ! तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स जंघाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पजति, से तेणटेणं जाव-जंघाचारणा २।। ____७. [प्र०] जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! अयन्नं जंधुद्दीषे दीवे० एवं जहेव विजाचारणस्स, नवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हवमागच्छेजा, जंघाचारणस्स गं गोयमा! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पन्नत्ते, सेसं तं चेव । ८. [प्र०] जंघाचारणस्स णं भंते ! तिरिय केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! से णं इओ एगेणं उप्पारणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति, रुयग० २ करता तर्हि चेहयाई वंदह, तहिं० २ वंदित्ता तो पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरदीवे समोसरणं करेति, नंदी० २ करेत्ता तहिं चेइयाई वंदइ, तहिं० २ वंदित्ता इहमागच्छद, आगच्छित्ता इहं चेहयाई बंदह, जंघाचारणस्स णं गोयमा! तिरियं एवतिए गइविसए पन्नत्ते । १. [प्र०] हे भगवन् ! विद्याचारणनी तिर्यग्गतिनो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम | ते विद्याचारण एक उत्पात-पगलावडे विषाचारणनी तिर्य मानुषोत्तर पर्वत उपर समवसरण (स्थिति) करे-त्यां जाय १, त्यां जइने त्यां रहेला चैत्योने वांदे, बांदीने त्यांथी बीजा उत्पातवडे गतिनो विषय. नेदीश्वरद्वीपमा समवसरण-स्थिति करे २, त्यां रहेलां चैत्योने वांदी पछी त्यांथी पाछो वळी अहिं आवे ३. अने अंहिनां चैत्यो वांदे. हे गौतम | विद्याचारणनी तिर्यग् गतिनो विषय एटलो कह्यो छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! विद्याचारणनी ऊर्ध्व गतिनो विषय केटलो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! ते विद्याचारण एक उत्पातवडे नंदन- विघाचारणनी ऊर्ध्वगतिनो विषय वनमा समवसरण करे १, त्यां रहेला चैत्योने वांदे, पछी बीजा उत्पातवडे पांडुकवनमा समवसरण करे २, त्यां रहेलां चैत्योने वांदे, पछी * त्यांथी पाछो आवी अहिं रहेलां चैत्योने वांदे ३. हे गौतम ! विद्याचारणनी ऊर्ध्व गतिनो विषय एटलो कह्यो छे. बळी हे गौतम ! जो ते विद्याचारण, गमनागमन संबंधी पापस्थानकने आलोच्या के प्रतिक्रम्या सिवाय काळ करे तो ते आराधक थतो नथी', अने जो ते स्थानने आलोची तथा प्रतिक्रमी काळ करे तो ते आराधक थाय छे. ६, प्र०] हे भगवन् ! जंघाचारणने 'जंघाचारण' शा हेतुथी कहेवाय छे? [उ०] हे गौतम! निरंतर अट्ठम अट्ठमना तपकर्मवडे जंपाचारण शाथी आत्माने भावता मुनिने जंघाचारण नामे लब्धि उत्पन्न थाय छे. माटे ते हेतुथी जंघाचारणने 'जंघाचारण' एम कहेवाय छे. कहेवाय ! ७. [प्र०] हे भगवन् ! जंघाचारणनी केवी शीघ्र गति होय छे, या तो तेनो गतिविषय केटलो शीघ्र होय छे ! [उ०] हे गौतम ! जंघाचारणनी गति. आ जंबूद्वीप नामे द्वीपनी परिधि-इत्यादि जेम विद्याचारण संबंधे कह्यु छे तेम अहि कहे, पण विशेष ए के, [ कोई महर्द्धिक देव ] आ जंबूद्वीपने यावत्-त्रण चपटी वगाडे एटली वारमा एकवीश वार फरीने शीघ्र आवे, हे गौतम ! तेवी जंघाचारणनी शीघ्र गति छे, या तो तेनो गतिविषय एवो शीघ्र होय छे, बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू. ८.प्र०] हे भगवन् ! जंघाचारणनी तिर्यग् गतिनो विषय केटलो कह्यो छे! [उ०] हे गौतम! ते जंघाचारण एक उत्पातवडे जंपाचारणनो तिर्यम् गतिषिषय. रुचकवरद्वीपमा समवसरण करे १, पछी त्यां रहेला चैत्योने वांदे, वांदी त्यांथी पाछा वळतां बीजा उत्पातवडे नंदीश्वरद्वीपमा समवसरण करे २, पछी त्यांना चैत्योने वांदी, अहिं शीघ्र आवी अहिंना चैत्योने वांदे ३. हे गौतम ! जंधाचारणनी तिर्यग् गति या तेनो तिर्यग् गतिविषय एटलो शीघ्र कह्यो छे. ५* लब्धिनो उपयोग करवो ते प्रमाद छे, लब्धिनो उपयोग कयों होय अने तेनी आलोचना न करी होय तो तेने चारित्रनी आराधना धती नथी. . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंघाचारणनो उर्ध्व गति विषय. सोपक्रम अने निरुपक्रम आयुष. नैरयिकोनो उत्पाद "आत्मोपक्रम, परो पनि पक्रम पक्रमची थाय छे? श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे पातक २०. - उद्देशक १०. ९. [०] पाचारणस्स णं भंते! उई के लिए गतिविरूप पद्मते [] गोवमा ! से णं हलो एवं कृपाणं पंढगवणे समोसरणं करेति, स० २ करेता दिलाई बंदति तहिं० २ वंदिता ततो पदिनियतमाणे चितिषणं उप्पारणं नंदraणे समोसरणं करोति, नंदण० २ करेत्ता तर्हि चेइयाहं वंदति, तर्हि ० २ वंदित्ता इह आगच्छर, इह चेहयाई वंदति, जंघा - चारणस्स णं गोयमा ! उ पवतिए गतिविसए पन्नत्ते से णं तस्स ठाणरस अणालोइचपडिते कालं करे नत्यि तस्स 1 आराहणा, सेणं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकंते कालं करेति अत्थि तम्स आराहणा | 'सेवं भंते! सेवं मंते' ! सि । जाय-बिहरह १२० बीसमे सए नवमो उद्देसो समतो | ९. [ प्र० ] हे भगवन् ! जंघाचारणनी गति अने गतिविषय उंचे केटलो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम । ते जंघाचारण एक * उत्पातबड़े पांडुफमनमां समवसरण करे १, पछी त्यांना चेयो वांदी, त्यांची पाछा वळतां भीजा उत्पातकडे नंदनवनमां समवसरण करे २, पछी त्यांना चत्यो वांदी त्यांथी अहिं आवी, अहिंना चैत्योने वांदे २, हे गौतम ! जंघाचारणनी गति या गतिविषय उंचे एटलो कह्यो छे. वळी जो ते जंघाचारण ते स्थानने आलोच्या के प्रतिक्रम्या सिवाय काळ करे तो ते आराधक थतो नथी अने ते स्थानकने आलोची के प्रतिक्रमी काळ करे तो ते आराधक थाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' एम कही यावत् विहरे छे. वीशमा शतकमा नवमो उद्देशक समाप्त दसमो उद्देसो । १. [प्र० ] जीवा णं भंते! किं सोवक्रमाज्या, निश्चक्रमादया [४०] गोयमा ! जीवा सोचक्रमादया विनिश्वक माया वि। २. [0] रइयाणं - पुच्छा। [30] गोयमा ! नेरइया नो सोवक्कमाउया, निरुवकमाउया । एवं जाव - थणियकुमारा । पुढविक्काइया जहा जीवा, एवं जाव- मणुस्सा । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । ३. [प्र० ] नेरवा णं भंते! कि आतोयकमेणं उपयचंति, परोवक्रमेणं उपवनंति निश्वक्रमेणं उपबति १ [30] गोथमा ! आतोषकमेण वि उपपति, परोचकमेण वि उचचनंति, निरुचक्रमेण वि उपजंति एवं जाच वैमाणियाणं । दशम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो सोपक्रम आयुषवाळा होय छे के निरुपक्रम आयुषवाळा होय छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवो 'सोकम आपला अने निरुपक्रम आयुषवान्य होय छे. २. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं नैरविको सोपक्रम आयुपवाया होय छे के निरुपकम आयुषयाळा होय छे ! [उ०] हे गौतम! गैरपिको सोपक्रम आपवाळा होता नथी पण निरुपक्रमआयुषवाळा होय छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनित्कुमारो सुधी आण. पृथिवीकायिको जीवोनी पेठे बन्ने प्रकारना जाणवा. ए प्रमाणे यावत् मनुष्यो सुधी समजतुं तेमज वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकाने नैरपिकोनी पेठे (निरुपम आयुपवा) जाणमा. ३. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं नैरयिको आत्मोपक्रमवडे-पोते पोताना वडेज [ पूर्वभवना आयुषने ] उपक्रमी - घटाडी उत्पन्न थाय छे, परोपक्रमपडे — अन्यबडे पूर्वभवना आयुपने घटाडी उत्पन्न थाय छे, के निश्पकमवढे कोइ पण रीते आयुपने घटाया सिवाय पूरेपूर्क आयुष भोगवीने उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ आत्मोपक्रमवडे, परोपक्रमवडे अने निरुपकक्रमवडे उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाण. विद्याचारणनुं गमनं बे उत्पातथी अने आगमन एक उत्पातथी थाय छे अने जंघाचारणनुं गमन एक उत्पातथी अने आगमन वे उत्पातथी थाय छे ते लब्धिना स्वभावथी जाणवु. अन्य आचार्यों आ संबन्धे एवं कहे छे के विद्याचारणनी विद्या आववाना समये वधारे अभ्यासवाळी थाय छे अने गमनसमये तेवी होती नथी, तेथी एक उत्पातथी अहिं आगमन थाय छे अने बे उत्पाते गमन थाय छे, पण जंघाचारणनी लब्धिनो जेम जेम उपयोग थाय छे तेम तेम ते अल्पसामर्थ्यवाळी थाय छे माटे ते एक उत्पाते गमन करे छे अने बे उत्पाते अहिं आवे छे - टीका. १ + जेओ अप्राप्त काळे आयुषनो क्षय करे छे ते सोपक्रमायुषवाळा अने ते सिवायना बीजा निरुपक्रम आयुषवाळा कहेवाय छे. देवो, नैरयिको, असंख्यात वर्षना आयुषवाळा तिर्यंच अने मनुष्यो, उत्तम पुरुषो तथा चरमशरीरी निरुपक्रम आयुषवाळा होय छे, अने बाकीना सर्व संसारी जीवो सोपक्रम अनेको केटीका Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२१ प.प्रा नेरइया णं भंते ! किं आओवक्कमेणं उच्चदंति, परोवक्कमेणं उच्चटुंति, निरुवक्कमेणं उच्चद॒ति ? [उ०] गोयमा! नो आओवक्कमेणं उच्वइंति, नो परोवक्कमेणं उच्चटुंति, निरुवक्कमेणं उच्चसृति, एवं जाव-थणियकुमारा। पुढविकाइया जावमणुस्सा तिसु उच्चटुंति, सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति । ५. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आइवीए उववजंति, परिड्डीए उववजंति ? [उ०] गोयमा ! आइडीए उववजंति, नो परिडीए उववजंति, एवं जाव-वेमाणिया। ६. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आइवीए उच्चट्ठति, परिड्डीए उवटंति ? [उ०] गोयमा ! आइडीए उच्घटुंति, नो परिड्डीए उच्चटुंति, एवं जाव-वेमाणिया, नवरं जोइसिया वेमाणिया य चयंतीति अभिलावो। ७. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आयकम्मुणा उववजंति, परकम्मुणा उववजंति ? [उ०] गोयमा! आयकम्मुणा उववजंति, नो परकम्मुणा उववजंति । एवं जाव-वेमाणिया । एवं उच्चट्टणादंडओ वि । ८. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आयप्पओगेणं उववजंति, परप्पओगेणं उववजंति ? [उ०] गोयमा ! आयप्पओगेणं उववजंति, नो परप्पयोगेणं उववजंति, एवं जाव-वेमाणिया, एवं उच्चट्टणादंडओ वि । ९. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं कतिसंचिया, अकतिसंचिया, अवत्तधगसंचिया ? [उ०] गोयमा ! नेरइया कतिसंचिया वि, अकतिसंचिया वि, अवत्तवगसंचिया वि।[प्र०] से केणेट्टणं जाव-अवत्तवगसंचिया वि? [उ०] गोयमा ! जेणं नेरड्या संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया कतिसंचिया, जेणं नेरइया असंखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेररया १.[प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको आत्मोपक्रमवडे उद्वर्ते-मरे छे, परोपक्रमवडे उद्वर्ते छे के निरुपक्रमवडे उद्वर्ते छे ? [उ०] नैरयिकोनी उतना आत्मोपक्रमथी परोहे गौतम ! तेओ आत्मोपक्रमवडे के परोपक्रमवडे उद्वर्तता नथी, पण निरुपक्रमवडे उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पक्रमथी के निरुपपृथिवीकायिको अने यावत्-मनुष्यो त्रणे-आत्मोपक्रम, परोपक्रम अने निरुपक्रम-बडे उद्वर्ते छे. बाकी बधा नैरयिकोनी पेठे जाणवा. क्रमथी थाय छे ? विशेष ए के ज्योतिषिको अने वैमानिको 'च्यवे छे' एम कहेवू. ५. प्र०) हे भगवन् ! नैरयिको आत्मद्धि-पोताना सामर्थ्य-वडे उपजे छे के परद्धि-बीजाना सामर्थ्य-वडे उपजे छे ! [उ०] हे गौतम! · नैरयिकोनो उत्पाद तेओ पोताना सामर्थ्यवडे उपजे छे, पण बीजाना सामर्थ्यवडे उपजता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी कहे. आत्मशक्तिपी के परनी शक्तिथीं? ६.प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको आत्मद्धि पोताना सामर्थ्य-वडे उद्धर्ते छे के अन्यना सामर्थ्यवडे उद्धर्ते छे? [उ० हे गौतम ! तेओ आत्मशक्तिवडे उद्वर्ते छे पण परनी शक्तिवडे उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. विशेष ए के ज्योतिषिक अने वैमानिको 'च्यवे छे' एवो अभिलाप-पाठ कहेवो.. ७.प्र. हे भगवन् ! शुं नैरयिको पोताना कर्म बडे उत्पन्न थाय छे के वीजाना कर्मवडे उत्पन्न थाय छे ? [उ.] हे गौतम | नैरयिकोना उत्पत्ति तेओ पोताना कर्मवडे उत्पन्न थाय छे, पण बीजाना कर्मवडे उत्पन्न थता नथी. ए रीते यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. अने ए प्रमाणे : कर्मयी? उद्वर्तनानो दंडक पण कहेवो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको आत्मप्रयोग-आत्मप्रयत्न-वडे उत्पन्न थाय छे, के परप्रयोगवडे उत्पन्न थाय छे ? (उ०] हे नैरयियोनी उत्पत्ति गौतम | तेओ आत्मप्रयोगवडे उत्पन्न थाय छे पण परप्रयोगबडे उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. तथा उद आत्मप्रयोगथी के तना दंडक पण एज प्रमाणे कहेवो. ९.प्र०] हे भगवन् ! शु नैरयिको कतिसंचित-एकसमये संख्याता उत्पन्न थएला, अकतिसंचित-एक समये असंख्याता नैरयिको कतिसंचित, उत्पन्न थएला के अवक्तव्यसंचित-एकसमये एक ज उत्पन्न थएला होय छे ? [उ०] हे गौतम! नैरयिको कतिसंचित पण छे, अकति सो अकतिसंचित के अवक्तव्यसंचित संचित पण छे अने अवक्तव्यसंचित पण छे. प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी तेओ यावत्-अवक्तव्यसंचित पण होय छे ! होय छे ? उ०] हे गौतम! जे नैरयिको नरकगतिमा एक साथे संख्याता प्रवेश करे छे ते कितिसंचित छे, वळी जे नैरयिको असंख्या-. नैरयिको कतिसचिचत छ, वळा ज नरायका असल्या.. तादि होय छे तेनुं कारण. ९-१०-११ जेओ बीजी जातिमांथी आवी एक साथे संख्याता उत्पन्न थाय छे ते कतिसंचित, असंख्याता उत्पन्न थाय छे ते अकतिसंचित अने एकज उत्पन्न थाय छे ते अवक्तव्यसंचित कहेवाय छे. तेमां बेथी मांडी शीर्षप्रहेलिका सुधी संख्यात व्यवहार थाय छे अने त्यार पछी असंख्यात व्यवहार थाय छे. तेमा नारको त्रणे प्रकारना छे, कारण के एक समये एकथी मांडी असंख्याता सुधी उत्पन्न थाय छे. पृथिवीकायिकादि पांचे दंडको अकतिसंचित छे, केमके एक समये असंख्याता उत्पन्न थाय छे. यद्यपि वनस्पतिकायिको अनन्ता उत्पन्न थाय छे, परन्तु विजातीय जीवोथी आवीने उत्पन्न थाय तेनी ज अहिं विवक्षा होवाथी तेओ पण असंख्याता ज उपजे छे. सिद्धो अकतिसंचित नथी, कारण के एक साथे एकथी मांडी संख्याता ज सिद्धत्व पामे छे. १६ भ. सू. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक १०. अतिसंचिया, जे णं नेरइया एक्कएणं पवेसणपणं पविसंति ते णं नेरइया अवत्तष्वगसंचिया, से तेणटेणं गोयमा! जाव-अवत्तधगसंचिया वि । एवं जाव-थणियकुमारा वि । १०. [प्र०] पुढविक्काइयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! पुढविकाइया नो कइसंचिया, अकइसंचिया, नो अवत्तष्वगसं. चिता । [प्र०] से केणटेणं एवं वुच्चइ-जाव-'नो अवत्तवगसंचिया' ? [उ०] गोयमा ! पुढविकाइया असंखेजपणं पवेसणएणं पविसंति से तेणटेणं जाव-नो अवत्तधगसंचिया, एवं जाव-वणस्सइकाइया, बेदिया जाव-वेमाणिया जहा नेरदया। । ११. प्र०] सिद्धाणं पुच्छा। उ०] गोयमा! सिद्धा कतिसंचिया, नो अकतिसंचिया, अवत्तवगसंचिया वि । प्रि० से केणटेणं जाव-'अवत्तवगसंचिया वि' ? [उ०] गोयमा ! जे णं सिद्धा संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा कतिसंचिया, जे णं सिद्धा एकरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा अवत्तधगसंचिया, ते तेणटेणं जाव-अवत्तधगसंचिया वि। १२. [प्र०] एएसि णं भंते ! नेरइयाणं कतिसंचियाणं अकतिसंचियाणं अवत्तवगसंचियाण य कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा नेरइया अवत्तवगसंचिया, कतिसंचिया संखेजगुणा, अकतिसंचिया असंखेजगुणा, एवं एगिदियवजाणं जाव-वेमाणियाणं अप्पाबहुगं, एगिदियाणं नत्थि अप्पाबहुगं । १३. [प्र०] एएसि णं भंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं अवत्तष्वगसंचियाण य कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा सिद्धा कतिसंचिया, अवत्तधगसंचिया संख्नेजगुणा । १४. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! किं छक्कसमजिया १, नोछक्कसमजिया २, छक्केण य नोछक्केण य समजिया ३, छक्केहि य समजिया ४, छक्केहि य नोछक्केण य समजिया ५? [उ०] गोयमा ! नेरइया छक्कसमजिया वि १, नोछक्कसमजिया वि २, छक्केण य नोछक्केणं य समजिया वि ३, छक्केहि य समजिया वि ४, छक्केहि य नोछक्केण य समजिया वि ५। [प्र०] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-'नेरइया छक्कसमजिया वि जाव-छक्केहि य नोछक्केण य समजिया वि' ? [उ०] गोयमा! जे गं नेरइया छक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया छक्कसमजिया १ । जे णं नेरइया जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहि वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया नोछक्कसमजिया २। जे गं नेरदया एगेणं छक्कएणं अनेण य जहानेणं ता प्रवेश करे छे ते नैरयिको अकतिसंचित छे, अने जे नैरयिको एक एक प्रवेश करे छे ते नैरयिको यावत्-अवक्तव्यसंचित छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिकादि. १०. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको कतिसंचित छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओ कतिसंचित नथी, अवक्तव्य संचित नथी पण अकतिसंचित छे. [प्र०) हे भगवन् ! 'तेओ यावत्-अवक्तव्यसंचित नथी' तेनुं शुं कारण छे ! [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिको एक साथे असंख्य प्रवेश करेछे माटे तेओ अकतिसंचित छे, पण यावत्-अवक्तव्यसंचित नथी. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक जीवो सुधी जाणवु. बेइन्द्रियथी यावत्-वैमानिको सुधी नैरयिकोनी पेठे जाणवा. सिद्धो. ११. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सिद्धो कतिसंचित छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सिद्धो कतिसंचित अने अवक्तव्यसंचित छे, पण अकतिसंचित नथी. [प्र०] हे भगवन् ! सिद्धो यावत्-शा हेतुथी अवक्तव्यसंचित छे ! [उ०] हे गौतम ! जे सिद्धो संख्याता प्रवेश करे छे तेओ कतिसंचित छे, अने जे सिद्धो एक एक प्रवेशनकवडे प्रवेश करे छे ते अवक्तव्यसंचित छे, माटे सिद्धो यावत् अवक्तव्यसंचित छे. नैरयिकोने आश्रयी . १२. [प्र०] हे भगवन् ! कतिसंचित, अकतिसंचित अने अवक्तव्यसंचित नैरयिकोमा कोण कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! कतिसंचितादिनु उ०] हे गौतम! अवक्तव्यसंचित नैरयिको सौथी थोडा छे, कतिसंचित नैरयिको संख्यातगुण छे अने अकतिसंचित नैरयिको असंख्यातअल्पवहुत्व. गुण छे. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवाय यावत्-वैमानिको सुधी अल्पबहुत्व कहे. एकेन्द्रियोर्नु अल्पबहुत्व नथी. सिद्धने आश्रयी १३. [प्र०] हे भगवन् ! कतिसंचित अने अवक्तव्यसंचित सिद्धोमां कोण कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे! [उ०] हे गौतम ! कतिसंचितादिनु कतिसंचित सिद्धो सौथी थोडा छे, अने अवक्तव्यसंचित सिद्धो संख्यातगुण छे. अल्पबहुत्व. नैरयिका दिने आश्रयी १४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको षटूसमर्जित-एक साथे छ उत्पन्न थएला होय छे १ ! नोषटूसमर्जित-एकथी आरंमी पांच पटक समार्जितादि. सुधी उत्पन्न थएला होय छे २ ! एक षट अने एक नोपटरूपे उत्पन्न थया होय छे ! अथवा एक पट अने एक नोषटूनी संख्यामा उत्पन्न थएला होय छे ३ ! अनेक षटनी संख्यावडे ४, के अनेक पट अने एक नोपनी संख्यावडे उत्पन्न थयेला होय छे ५ ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिको एक साथे एक पटूनी संख्याथी उत्पन्न थयेला होय छे १, नोषटनी संख्याथी उत्पन्न थया होय छे २, एक षटू अने नोषटूवडे उत्पन्न थया होय छे ३, अनेक षटूनी संख्यावडे उत्पन्न यया होय छे ४, अने अनेक षटु तथा एक नोषटुनी संख्यावडे पण उत्पन्न थयेला होय छे ५. [प्र०] हे भगवन् ! आप शा हेतुथी एम कहो छो के, नैरयिको पटसंख्यावडे उत्पन्न थया होय छे, यावत्-अनेक षटू तथा . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२३ एक्कण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णे नेरइया छक्केण य नोछक्केण य समजिया ३ । जे नेरइया णेगेहि छक्कोहि पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया छक्केहि य समजिया ४ । जे णं नेरहया णेगेहिं छक्केहि अण्णेण य जहन्नेणं एकण वा दोहि वा तीहि वा उकोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया छक्केहि य नोछक्केण य समजिया ५ । से तेणट्टेणं तं चेव जाव-समजिया वि । एवं जाव-थणियकुमारा । १५. [प्र०] पुढविकाइयाणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! पुढविक्काइया नो छक्कसमजिया १, नो नोछक्कसमजिया २, नो छक्केण य नोछक्केण य समजिया ३, छक्केहिं समजिया ४, छक्केहि य नोटक्केण य समजिया वि ५। [प्र०] से केणटेणं जाव'समज्जिया वि' ? [उ०] गोयमा! जे णं पुढविक्काइया णेगोहिं छक्कएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविक्काइया छक्कोहि समजिया । जे णं पुढविक्काइया णेगेहि छक्कएहि य अनेण य जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहि वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविकाइया छक्केहि य नोछक्केण य समजिया, से तेणेटणं जाव-समजियावि'। एवं जाव-वणस्सइकाइया। बेदिया जाव-वेमाणिया, सिद्धा जहा नेरइया । १६. [प्र०] एएसि णं भंते ! नेरइयाणं छक्कसमजियाणं, नोछक्कसमजियाणं, छक्केण य नोछक्केण य समजियाणं, छक्केहि थ समजियाणं, छक्केहि य नोछक्केण य समजियाणं कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा नेरइया छक्कसमजिया, नोछक्कसमजिया संखेजगुणा, छक्केण य नोछक्केण य समजिया संखेजगुणा, छक्केहि य समन्जिया असंखेजगुणा, छक्केहि य नोछक्केण य समजिया संखेजगुणा । एवं जाव-थणियकुमारा। १७. [प्र०] एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं छक्केहि समजियाणं, छक्केहि य नोछक्केण य समजियाणं कयरे २ जावविसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सपत्थोवा पुढविकाइया छक्केहिं समज्जिया, छकेहि य नोछक्केण य समजिया संस्खेजगुणा । एवं जाव-वणस्सइकाइयाणं । बेइंदियाणं जाव-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । एक नोषट संख्यावडे पण उत्पन्न थयेला होय छे? उ. हे गौतम ! जे नैरयिको एक समये छनी संख्याथी प्रवेश करे छे ते नैरयिको षटसमर्जित कहेवाय छे, जे नैरयिको जघन्य एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट पांच संख्यावडे प्रवेश करे छे ते नैरयिको नोषटुसमर्जित कहेवाय छे, जे नैरयिको एक षटूसंख्याथी अने बीजा जघन्य एक, बे के त्रण तथा उत्कृष्ट पांचनी संख्यावडे प्रवेश करे छे ते नैरयिको एक षटू अने नोषटुवडे समर्जित कहेवाय छे, जे नैरयिको अनेक षटुनी संख्यामा प्रवेश करे छे ते नैरयिको अनेक षटूसमर्जित कहेवाय छे, जे नैरयिको अनेक षटू तथा जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट पांच संख्यावडे प्रवेश करे छे ते नैरयिको अनेक षटू तथा नोषटू समर्जित कहेवाय छे. ते हेतुथी हे गौतम ! ए प्रमाणे का छे के यावत्-अनेक षटूवडे अने नोषटूवडे समर्जित पण होय छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. १५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पृथिवीकायिको षटकसमर्जित छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिको षटूसमर्जित नथी, पृथिवीकायिकादिने नोषटूसमर्जित नथी, एक षटू अने नोषटूवडे समर्जित नथी, पण अनेक षट्रोवडे समर्जित छे, अने अनेक षटू तथा नोषटूवडे पण सम- आश्रयी षट्कसमर्जित छे. [प्र] हे भगवन् ! आप शा हेतुथी एम कहो छो के, तेओ यावत्-[अनेक षट्क तथा नोषट् ] समर्जित छे ! [उ०] हे गौतम ! जे पृथिवीकायिको अनेक षटोबडे प्रवेश करे छे ते पृथिवीकायिको अनेक षटू समर्जित छे, अने जे पृथिवीकायिको अनेक षटो तथा जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट पांचनी संख्या बडे प्रवेश करे छे ते पृथिवीकायिको अनेक षटो तथा नोषटवडे पण समर्जित कहेवाय छे, माटे ते हेतुथी तेओ यावत्-'समर्जित छे.' ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिको सुधी जाणवू. अने बेइन्द्रियथी आरंभी यावत्-वैमानिको अने सिद्धो नैरयिकोनी पेठे जाणवा. जिंतादि. १६. [प्र०] हे भगवन् ! १ षटुसमर्जित, २ नोषटूसमर्जित, ३ एक षटू अने नोषटूवडे समर्जित, ४ अनेक पटू समर्जित, ५ नैरयिकादिने आश्रअनेक षट तथा नोषट्समर्जित नैरयिकोमा कोण कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम! १ एक षटसमर्जित नैर बस यी षट्कसमर्जितादि नुं अल्पबहुत्व. यिको सौथी थोडा छे, २ नोषटूसमर्जित नैरयिको संख्यातगुण छे, ३ तेथी एक षटू अने नोषटूवडे समर्जित नैरयिको संख्यातगुणा छे. ४ तेथी अनेक षटू समर्जित नैरयिको असंख्यातगुणा छे, ५ अने तेथी अनेक षटू तथा नोषटुसमर्जित नैरयिको संख्यातगुणा छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. १७. [प्र०] हे भगवन् ! अनेकषटुसमर्जित तथा अनेक षटो अने नोषटू समर्जित पृथिवीकायिकोमां कोण कोनाथी यावत्- पृथिवीकायिकादिने विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! अनेकषटूवडे समर्जित पृथिवीकायिको सौथी थोडा छे. अने तेथी अनेक षटो तथा नोषटुसमर्जित आश्रयी अल्पबहुत्व. पृथिवीकायिको संख्यातगुण छे. ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिको सुधी जाणवु. बेइन्द्रियो यावत्-वैमानिको नैरयिकोनी पेठे जाणवा. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उद्देशक १०. १८. प्र० एएसिणं भंते ! सिद्धाणं छक्कसमजियाणं नोछक्कसमजियाणं जाव-छक्केहि य नोछक्केण य समज्जियाण य कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा सिद्धा छक्केहि य नोछक्केण य समजिया, छक्केहिं समज्जिया संखेजगुणा, छक्केण य नोछक्केण य समजिया संखेजगुणा, छक्कसमजिया संखेजगुणा, नोछकसमजिया संखेजगुणा। १९. [प्रनेरइया णं भंते ! किं बारससमजिया १,नोवारससमजिया २, बारसरण यनोबारसपण य समजिया ३, पारसरहिं समजिया ४, बारसएहि य नोबारसरण य समजिया ५१ [उ०] गोयमा ! नेरतिया बारससमजिया वि, जावबारसएहि य नोबारसरण य समजिया वि । [प्र०] से केणटेणं जाव-'समजिया वि' ? [उ०] गोयमा ! जे णं नेरइया बारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण नेरइया वारससमजिया १। जे णं नेरइया जहन्नेणं पक्केण वा दोहिं वा तीहि वा उक्कोसेणं, एकारसपणं पवेसणपणं पविसंति ते ण नेरइया नोवारससमजिया २ । जे ण नेरइया बारसरणं अन्नेण य जहन्नण एकेण । दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया बारसपण य नोवारसरण य समजिया ३ । जे णं नेरया णेगेहि बारसरहिं पवेसणगं पविसंति ते णं नेरतिया बारसरहिं समजिया ४ । जेणं नेरइया णेगेहिं बारसरहिं अन्नेण य जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया बारसएहि य नोयारसएण य समजिया ५।से तेणटेणं जाव-समजिया वि । एवं जाव-थणियकुमारा। २०. [प्र०] पुढविकाइयाणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! पुढविक्काइया नोबारससमजिया १, नो नोवारससमजिया २ नो पारसएण य नोबारसरण य समजिया ३, वारसपहिं समजिया ४, बारसेहि य नोबारसेण य समजिया वि५ प्र०] से केणटेणं जाव-'समजिया वि' ? [उ०] गोयमा ! जे णं पुढविकाइया णेगेहि वारसहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविक्काइया वारसरहिं समजिया। जेणं पुढविक्काइया णेगेहिं बारसएहिं अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं सिद्धोने आयी १८. हे भगवन् ! षटूसमर्जित, नोषटूसमर्जित, यावत्-अनेक षटु अने नोषटू समर्जित सिद्धोमां कोण कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! अनेक षटो तथा नोषटूसमर्जित सिद्धो सौथी थोडा छे. तेथी अनेक षटूसमर्जित सिद्धो संख्यातगुण छे, तेथी एक षटु तथा नोषटसमर्जित सिद्धो संख्यातगुण छे, तेथी षटकसमर्जित सिद्धो संख्यातगुण छे, अने तेथी नोषटसमर्जित सिद्धो संख्यातगुण छे. नैरयिका दिने आश्र १९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको १ द्वादशसमर्जित (एक समये बारनी संख्यावडे उत्पन्न थएला ) छे, २ नोद्वादशसमर्जित यी द्वादशसमर्जि- (एक समये एकथी आरंभी अगियार सुधी उत्पन्न थएला) छे, ३ द्वादश अने नोद्वादशसमर्जित (एकथी आरंभी अगियार सुधी सादि. उत्पन्न थएला) छे, ४ अनेक द्वादश समर्जित (एकसमये अनेक बारनी संख्यामा उत्पन्न थयेला) छे, के ५ अनेक द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित (एक समये एकथी अगीयार सुधी उत्पन्न थएला ) छे ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिको १ द्वादशसमर्जित पण छे, यावत्-५ अनेक द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी आप एम कहो छो के तेओ यावत्अनेक द्वादश तथा नोद्वादश समर्जित पण छे ? [उ०] हे गौतम! जे नैरयिको एक समये वारनी संख्यामा प्रवेश करे छे, तेओ १ द्वादशसमर्जित छे, जे नैरयिको जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी अगियार प्रवेश करे छे तेओ २ नोद्वादशसमर्जित छे, जे नैरयिको एक समये बार अने जघन्यथी एक, बे के त्रण तथा उत्कृष्टथी अगिआर प्रवेश करे छे तेओ ३ द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित छे, जे नैरयिको एक समये अनेक बारनी संख्यामा प्रवेश करे छे तेओ४ अनेक द्वादशसमर्जित छे, वळी जे नारको एक समये अनेक बार तथा जघन्यथी एक, बे के त्रण तथा उत्कृष्टथी अगिआर प्रवेश करे छे तेओ ५ अनेक द्वादश अने नोद्वादश समर्जित छे. ते हेतुथी हे गौतम ! यावत्-तेओ अनेक द्वादश अने नोद्वादश समर्जित कहेवाय छे ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिकोने आमयी द्वादशसम जिंतादि. २०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पृथिवीकायिको द्वादशसमर्जित छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिको १ द्वादशसमर्जित नथी, २ नोद्वादशसमर्जित नथी, ३ द्वादश तथा नोद्वादश समर्जित नथी, पण ४ अनेक द्वादशसमर्जित छे, ५ तेम ज अनेक द्वादश तथा नोद्वादश समर्जित छे. [प्र०] हे भगवन् ! आप शा हेतुथी एम कहो छो के तेओ यावत्-'अनेक द्वादश तथा नोद्वादश समर्जित छे'! उ०] हे गौतम! पृथिवीकायिको १ द्वादशसमर्जित-एक समये बारनी संख्यामा उत्पन्न थता-नथी, २ नोद्वादशसमर्जित-एकथी मांडीने अगियार सुधी पण उत्पन्न थता-नथी, ३ द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित पण नथी, पण ४ अनेकद्वादशसमर्जित छे, तेमज ५ अनेक द्वादशो अने नोद्वादशसमर्जित छे. [प्र०] हे भगवन् ! आप शा हेतुथी एम कहो छो के तेओ यावत्-अनेक द्वादशो अने नोद्वादशसमर्जित छे ! [उ०] हे गौतम ! जे पृथिवीकायिको एक समये [असंख्य उपजता होवाथी] अनेक बारनी संख्यामा प्रवेश करे छे ते अनेक द्वादशसमर्जित कहेवाय छे, अने जे पृथिवीकायिको एक समये अनेक द्वादश तथा नोद्वादश-एकथी अगियार सुधी-प्रवेश करे छे तेओ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ शतक २०.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविक्काइया वारसएहिं य नोवारसरण य समजिया, से तेणद्वेणं जाव-'समजिया वि। एवं जाव-वणस्सइकाइया । बेइंदिया जाव-सिद्धा जहा नेरदया। २१. [प्र०] एएसि णं भंते ! नेरतियाणं बारससमजियाणं० सवेसि अप्पाबहुगं जहा छक्कसमजियाणं, नवरं वारसामिलावो, सेसं तं चेव । २२. [प्र०] नेरतिया णं भंते ! किं चुलसीतिसमजिया १, नोचुलसीतिसमजिया २, चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समजिया ३, चुलसीतीहिं समजिया ४, चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समजिया ५१ [उ०] गोयमा ! नेरतिया चुलसीतिसमजिया वि, जाव-चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समजिया वि । [प्र०] से केण?णं भंते ! एवं घुञ्चइ-जाव-'समजिया वि' ? [उ०] गोयमा! जे णं नेरइया चुलसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया चुलसीतिसमजिया १ । जे गं नेरइया जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा.तीहि वा उक्कोसेणं तेसीतिपवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया नोचुलसीतिसमजिया २ । जेज नेरइया चुलसीतीए णं अन्नेण य जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा जाव-उक्कोसणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरतिया चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समन्जिया ३ । जेणं नेरइया णेगेहिं चुलसीतीएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं नेरतिया चुलसीतीएहिं समजिया ४ । जे णं नेरइया णेगेहिं चुलसीतीएहि य अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा जाव-उक्कोसेणं तेसीईएणं जाव-पविसंति ते गं नेरतिया चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समजिया ५, से तेणटेणं जाव-'समजिया वि'। एवं जाव-थणियकुमारा। पुढविक्काइया तहेव पच्छिल्लएहिं दोहिं, नवरं अभिलावो चुलसीतीओ, एवं जाव-वणस्सइकाइया । दिया जाव-वेमाणिया जहा नेरतिया । २३. [प्र०] सिद्धाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिद्धा चुलसीतिसमजिया वि १, नोचुलसीतिसमन्जिया वि २, चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समजिया वि ३, नो चुलसीतीहिं समजिया ४, नोचुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समजिया ५। [प्र०] से केणटेणं जाव-'समजिया'? [उ०] गोयमा ! जे णं सिद्धा चुलसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसी. तिसमजिया । जे णं सिद्धा जहन्नेणं पक्केण वा दोहिं तीहि वा उक्कोसेणं तेसीतएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा नोचुल अनेक द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित कहेवाय छे ते हेतुथी हे गौतम ! तेओ यावत्-'समर्जित' छे. ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिको सुधी जाणवू. तथा बेइन्द्रियथी मांडी वैमानिको सुधीना जीवो अने सिद्धो नैरयिकोनी पेठे जाणवा. २१. [प्र०] हे भगवन् ! १ द्वादशसमर्जित, २ नोद्वादशसमर्जित, ३ द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित, ४ अनेक द्वादशसमर्जित अने नैरयिकादिने आश्र५ अनेक द्वादश तथा नोद्वादशसमर्जित एवा नैरयिकादिक सर्यन अल्पबहुत्व जेम षट्समर्जितोन अल्पबहुत्व का तेम कहे. विशेष ए यो द्वादशसमाजता दिनुं अल्पबतुत्वके, षटूने स्थाने द्वादशनो पाठ कहेवो. बाकी बधैं पूर्ववत् जाणवू. २२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको एक समये १ चोरासी समर्जित-एक समये चोरासीनी संख्यामां उत्पन्न थएला छे, २ नोचो- नैरयिकादिने आश्रयी रासीसमर्जित-एक समये एकथी मांडी व्यासी सुधी उत्पन्न थएला छे, ३ चोरासी अने नोचोरासी समर्जित-एकथी आरंभी त्र्याशी सुधी ' उत्पन्न यएला छे, ४ अनेक चोरासी समर्जित छे, के अनेक चोरासी अने नोचोरासी समर्जित छे ! [उ०] हे गौतम! नैरयिको १ चोरासीसमर्जित छे, अने यावत्-५ अनेक चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित पण छे. [प्र०] हे भगवन्! आप शा हेतुथी एम कहो छो के तेओ यावत्-'अनेक चोरासी तथा नोचोरासी समर्जित छे! [उ०] हे गौतम! १ जे नैरयिको एक समये चोरासीनी संख्यामा प्रवेश करे छे तेओ चोरासीसमर्जित छे, २ जे नैरयिको जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट त्र्याशीनी संख्यावडे प्रवेश करे छे तेओ नोचोरासीसमर्जित छे, ३ जे नैरयिको एक चोरासी अने नोचारासी-एकथी व्यासी सुधी प्रवेश करेछे तेओ चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित छ, ४ जे नैरयिको अनेक चोरासीनी संख्या वडे प्रवेश करे छे तेओ अनेक चोरासीसमर्जित छे, ५ अने जेओ अनेक चोरासी तथा नोचोरासी संख्यावडे प्रवेश करे छे तेओ अनेक चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित छे माटे हे गौतम ! ते हेतुथी तेओ यावत्-'समर्जित छे.' ए प्रमाणे यावत्स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिको संबंधे ए प्रमाणे ४ अनेक चोरासी समर्जित अने ५ अनेक चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित एबे भंगो कहेवा. एम यावत्-वनस्पतिकायिको सुधी जाणवू. बेइन्द्रियो अने यावत्-वैमानिको पण नैरयिकोनी पेठे कहेवा. २३. [प्र०] सिद्धो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सिद्धो चोरासीसमर्जित छे १, नोचोरासीसमर्जित छे २, चोरासी तथा नोचो- सिद्धने आश्रयी । चोराशीसमर्जितादिरासीसमर्जित छे ३, पण अनेक चोरासीसमर्जित नथी अने ५ अनेक चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित पण नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आप शा हेतुथी एम कहो छो के सिद्धो यावत्-'समर्जित छे' ! [उ०] हे गौतम ! जे सिद्धो एक समये चोरासीनी संख्यामा प्रवेश करे छे तेओ चोरासीसमर्जित छे १, जे सिद्धो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट व्यासीनी संख्यामां प्रवेश करे छे तेओ नोचोरासी . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २०.-उदेशक १०. सीतिसमजिया। जेणं सिद्धा चुलसीतएणं अनेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहि वा उकोसेणं तेसीतएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समजिया। से तेणटेणं जाव-'समज्जिया'। २४. [प्र०] एएसि गं भंते ! नेरतियाणं चुलसीतिसमजियाणं नोचुलसीतिसमजियाणं० सधेसि अप्पायहुगं जहा छकसमजियाणं जाव-वेमाणियाणं, नवरं अभिलावो चुलसीतीओ। २५. [प्र०] एएसि णं भंते! सिद्धाणं चुलसीतिसमजियाणं, नोचुलसीतिसमजियाणं, चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समजियाणं कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समजिया, चुलसीतीसमजिया अणंतगुणा, नोचुलसीतिसमजिया अणंतगुणा । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव-विहरह। वीसइमे सए दसमो उद्देसो समत्तो। वीसतिमं सयं समत्तं। चोरासीसमर्जितादिनुं अल्पबहुत्व. समर्जित छे २, जे सिद्धो एक समये एक चोरासी अने जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट व्यासी सुधी प्रवेश करे छे तेओ चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित छे ३. माटे ते हेतुथी यावत्-तेओ 'समर्जित छे.' . २४. प्र०हे भगवन् ! चोराशीसमर्जित, नोचोरासीसमर्जित-इत्यादि यावत्-बधा नैरयिकोर्नु अल्पब पेठे कहेवू. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुची जाणवू. विशेष ए के, अहिं षटूने बदले चोरासीनो पाठ कहेवो. २५. [प्र०] हे भगवन् ! १ चोरासीसमर्जित, २ नोचोरासीसमर्जित अने ३ चोरासीनोचोरासीसमर्जित सिद्धोमां कोण कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! चोरासी तथा नोचोरासीसमर्जित सिद्धो सौथी थोडा छे, तेथी चोरासीसमर्जित सिद्धो अनंत गुण छे अने नोचोरासीसमर्जित सिद्धो अनंतगुण छे. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे.-एम कही यावत्विहरे छे. वीशमा शतकमां दशमो उद्देशक सम्पूर्ण. वीशमुं शतक समाप्त. Jain Education international Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसइमं सयं । सालि कल अयसि वसे इक्खू दन्भे य अब्भ तुलसी य । अढए दस वग्गा असीतिं पुण होंति उद्देसा ॥ पढमो वग्गो पढमो उद्देसो। १. प्र०] रायगिहे जाव-पवं वयासी-अह भंते ! साली-वीही-गोधूमजाव-जवजवाणं, एएसि णं भंते ! जीवा मूलजाए वनमंति? ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववजंति-कि नेरहपहितो. जाव-उववजंति ? तिरि०, मणु०, देवे-जहा धकंतीए तहेव उववाओ, नवरं देववजं । २. [प्र.] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजंति ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि घा, उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । अवहारो जहा उप्पलुइसे । एकवीशमुं शतक. १ शालि वगेरे धान्य संबंधे दश उद्देशात्मक प्रथम वर्ग, २ कलाय-वटाणा वगेरे धान्य विषे बीजो वर्ग, ३ अळसीप्रमुख धान्य संबंधे त्रीजो वर्ग, ४ वांस वगेरे पर्ववाळी वनस्पतिसंबंधे चतुर्थ वर्ग, ५ इक्षु वगेरे पर्ववाळी वनस्पति विषे पांचमो वर्ग, ६ दर्भ वगेरे तृण संबंधे छट्ठो वर्ग, ७ अभ्र वगेरे वनस्पति संबंधे सातमो वर्ग, ८ तुलसी प्रमुख वनस्पति विषे आठमो वर्ग. ए प्रमाणे एकवीशम शतकमा "दश दश उद्देशकना समूहरूप आठ वर्ग अने एंशी उद्देशको कहेवाना छे. प्रथम वर्ग प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा [भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! शालि, व्रीहि, घउ, यावत्-जवजव- ए बधाना मूळतरीके जे जीवो उत्पन्न थाय छे, हे भगवन् ! ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ?-शुं नैरयिकोथी आवीने उपजे छे के तिर्यचो, मनुष्यो अने देवोथी पण आवीने उपजे छे ? [उ.] व्युत्क्रान्तिपदमां कह्या प्रमाणे तेओनो उपपात जाणवो. विशेष ए के, तेओ देवगतिथी आवीने मूळपणे उपजता नथी. २. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक, बे के प्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. तेओनो अपहार उत्पलोदेशका कह्या प्रमाणे जाणवो. शाल्यादि वर्ग. उत्पाद-एक समये केटला उपजे? सक्खू क। २ असीती क-ग-छ । १* मूळ, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, (कोमल पदिडा ) पांदडा, पुष्प, फळ अने बीज-ए दश उद्देशको एक एक वर्गमा जाणवा-टीका. प्रज्ञा• पद ६५० २१२ 1व्युत्क्रान्तिपदा देवोनी वनस्पतिमा उत्पत्ति कही छे, देवो बनस्पतिना पुष्पादि शुभ अंगमा उत्पन्न याय छे, परन्तु मूळादि अशुभ अंगर्मा उत्पन थता नथी, माटे एम कर्दा छे के 'तेओ देवगतिथी आवीने मूळपणे उत्पन्न थता नथी'-टीका. २ अपहार-ते उत्पलना जीवो असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी सुधी प्रतिसमय असंख्याता काढवामां आवे तो पूरा काढी शकाय नहि. जुओ-भग. खं. ३ श० ११ उ०१५० २०८. Jain Education international Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २१.-उद्देशक १. ३. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं धणुद्दपुहुत्तं । ४. [प्र०] ते णं भंते जीवा ! नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा, अबंधगा ? [उ०] जहा उप्पलुइसे, एवं घेदे पि, उदए वि, उदीरणाए वि। ५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा, नील० काउ० छधीसं भंगा, दिट्ठी जाव-ईदिया जहा उप्पलुइसे । ६. [प्र०] ते णं भंते ! साली-वीही-गोधूम० जाव-जवजवगमूलगजीवे कालओ केवचिरं होति ? [उ०] गोयमा ! जहनेणं अंतोमहत्तं. उक्कोसेणं असंखेनं कालं । ७. [प्र०] से णं भंते ! साली-वीही-गोधूमजाव-जवजवगमूलगजीवे पुढवीजीवे, पुणरवि साली-वीही-जाव-जवजवगमूलगजीवे केवतियं कालं सेवेजा, केवतियं कालं गतिरागतिं करिजा? [उ०] एवं जहा उप्पलुइसे । एएणं अभिलावेणं जाव-मणुस्सजीवे, आहारो जहा उप्पलुइसे, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहुतं, समुग्घाय(या),समोहया, उघहणा य जहा उप्पलुईसे। ८. [प्र०] अह भंते ! सधपाणा, जाव-सवसत्ता साली-वीही-जाव-जवजवगमूलगजीवत्ताए उववनपुषा ? [उ०] इंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । एकवीसइमे सए पढमवग्गस्स पढमो उद्देसो समत्तो । लेश्या . ववगाहना. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोना शरीरनी केटली मोटी अवगाहना कही छे! [उ०] जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्टथी धनुषपृथक्त्व-बेथी नव धनुष सुधीनी-कही छे. कर्मना बन्धक ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो ज्ञानावरणीयकर्मना बंधक छे के अबंधक छे ? [उ.] जेम *उत्पलोद्देशकमां का छे ते प्रमाणे अहिं कहेवू. ए प्रमाणे कर्मना वेदक (वेदनार ) संबंधे जाणवू. उदय अने उदीरणा विषे पण ए प्रमाणे समजवू. ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा के कापोतलेश्यावाळा होय. उ०] अहिं लेश्यासंबंधे छवीश भांगा कहेवा. दृष्टि अने यावत्-इन्द्रियो संबंधे उत्पलोद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवू. ल्यादिना मूळपणे ६. प्र०] हे भगवन् । शालि, व्रीहि, गोधूम, यावत्-जवजव-ए बधाना मूळनो जीव काळथी काळ सुधी रहे ! [उ०] हे गौतम ! जीवनी स्थिति. • जघन्यथी अंतर्मुहुर्त, अने उत्कृष्टथी असंख्याता काळ सुधी रहे. ल्यादि अने पृथि- ७. [प्र०] हे भगवन् ! शालि, व्रीहि, गोधूम, यावत्-जवजव-ए बधाना मूळनो जीव पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थाय, पाछो फरीने शालि, व्रीहि अने यावत्-जवजवना मूळपणे उपजे-ए प्रमाणे केटला काळ सुधी सेवे-केटला काळ सुधी गमनागमन करे ! [उ०] जेम उत्पल उद्देशकमां कर्तुं छे ते प्रमाणे अहिं कहे. अने ए अमिलाप वडे यावत्-मनुष्य सुधी समजवु. वळी तेओनो आहार पण उत्पलोदेशका कह्या प्रमाणे जाणवो. स्थिति जघन्यथी अंतर्मुहुर्त अने उत्कृष्टथी वर्षपृथक्त्व (बे वर्षथी नव वर्ष सुधी) समजवी. बळी समुद्घात, समवहत-समुद्घातनी प्राप्ति अने उद्वर्तना उत्पलोद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वप्राणो, यावत्-सर्व सत्त्वो शालि, व्रीहि, यावत्-जवजवना मूळना जीवपणे पूर्व उत्पन्न थएला छे ? [उ.] हा गौतम ! अनेक वार अथवा अनंतवार उत्पन्न थएला छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' एकवीशमा शतकमा प्रथमवर्गनो प्रथम उद्देशक समाप्त. ४ * (शाल्यादिना जीवो) अबंधक नथी, तेमांनो एक जीव ज्ञानावरणीय कर्मनो बंधक छे, घणा जीवो पण बन्धक छे. ए प्रमाणे वेदक-उदयवाळा अने उदीरक जाणवा. जुओ भग० खं. ३ श० ११ उ०१पृ० २०८ ५ कृष्ण, नील अने कापोत-ए त्रण लेश्याना एकवचन अने बहुवचनना असंयोगी श्रण त्रण भांगा गणतो.छ भांगा थाय छे तथा तेना द्विकर्मयोगी 'कृष्ण नील, कृष्ण कापोत अने नील कापोत ए त्रण विकल्प थाय, अने प्रत्येकना एक अने अनेकना चार चार भागा गणतां बार भांगा थाय. तेमज त्रिकसंयोगी एक अने अनेकना आठ विकल्प थाय-ए प्रमाणे बधा मळीने छन्वीश भांगा जाणवा-टीका. भग• खं• ३ श० ११ उ०१ पृ. २१० जघन्यथी बे भव अने उत्कृष्टथी असंख्यात भव सुधी गमनागमननी स्थिति जाणवी-इत्यादि जुओ भग० खं०३ श. ११ उ०१पृ० २१२ 'तेओने (शाल्यादि जीवोने) वेदना, कषाय अने मरण-एत्रण समुत्पातो कहेला छे, 'तेओ समुद्घातने प्राप्त थईने मरे अने प्राप्त थया सिवाय पण मरे,' तेओ मरीने मनुष्य अने तिर्यंचगतिमा जाय छे.-इत्यादि माटे जुओ-भग० सं० ३ घा० ११ उ.१पृ. २१२ Jain Education international Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१.-वर्ग ३. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२९ पढमवग्गस्स बीआईआ उद्देसा । हमले साली-बीही जाव-जवजवाणं एपसिणं जे जीवा कंदत्ताए पकमंति ते गंभंते जीवा कमो. हिंतो उववजंति ! [उ.] एवं कंदाहिगारेण सव मूलुद्देसो अपरिसेसो भाणियचो, जाव-असति अदुवा अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते । सेवं मंते ति । २१-२। एवं खंधे वि उद्देसओ नेयधो । २१-३। एवं तयाए वि उद्देसो माणियो । २१-४। साले वि उद्देसो भाणियो । २१-५। पवाले वि उद्देसो भाणियधो । २१-६ । पत्ते वि उद्देसो भाणियो । एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मूले तहा नेयवा । २१-७। एवं पुप्फे वि उद्देसओ, नवरं देवा उववजंति जहा उप्पलुद्देसे । चत्वारि लेस्साओ, असीति भंगा। ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं अंगुलपुहुत्तं, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते । सेवं भंतेसि ।२१-८। जहा पुप्फे एवं फले वि उद्देसओ अपरिसेसो भाणियचो । २१-९। एवं बीए वि उद्देसओ । २१-१०। एए दस उद्देसगा। एगवीसइमे सए पढमो वग्गो समत्तो। प्रथमवर्गना २-१० उद्देशको. १. [प्र०] हे भगवन् ! शालि, वीहि, यावत्-जवजव-ए बधाना कंदरूपे जे जीवो उत्पन्न थाय छे तेओ हे भगवन् ! क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] आ कंदना अधिकारमा तेज समग्र मूळनो उद्देशक यावत्-'अनेक वार अथवा अनंतवार उत्पन्न थयेला छे' त्यां सुधी कहेवो. विशेष ए के मूळने बदले कंदनो पाठ कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' (२१-२.) ए प्रमाणे स्कंध संबंधे तथा त्वचा, शाखा, प्रवाल-कुंपळो अने पांदडां संबंधे पण एक एक उद्देशक कहेवो. ए साते उद्देशको जेम मूळ संबंधे बधुं कधु छे तेम कहेवा. (२१-७.) वळी पुष्पसंबंधे पण पूर्वनी पेठे उद्देशक कहेवो. पण तेमा विशेष ए के 'पुष्पमां देवो पण उत्पन्न थाय छे' एम कहे. जेम उत्पलोद्देशकमां चार लेश्या अने तेना *एंशी भांगा कह्या छे तेम अहिं कहेवा. अवगाहना जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट अंगुलपृथक्त्व-बेथी नव अंगुल जाणवी. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे. (२१-८.) जेम पुष्प संबंधे का तेम फळ अने बीज संबन्धे पण समग्र उद्देशक कहेवो (२१-१०.) ए प्रमाणे ए दश उद्देशको जाणवा. एकवीशमा शतकमां प्रथम वर्ग समाप्त. बीओ वग्गो। १. [प्र०] अह भंते ! किलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निप्फाव-कुलत्थ-आलिसंद्ग-सडिण-पलिमंथगाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वनमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं मूलादीया दस उद्देसगा भाणियवा आहेष सालीणं निरवसेसं तहेव । एगवीसइमे सए वितिओ वग्गो समत्तो। द्वितीय वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! कलाय–वटाणा, मसुर, तल, मग, अडद, वाल, कलथी, आलिसंदक, सटिन अने पलिमंथक-चणा-ए कलाप परे भाम्प, बधाना मूळपणे जे जीवो उत्पन्न थाय छे ते क्यांची आवीने उपजे छे ? [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे मूळादिक दश उद्देशको अहिं कहेवा अने जेम शालिसंबंधे कह्यु तेम बधुं अहिं कहे. एकवीशमा शतकमां द्वितीय वर्ग समाप्त. तईओ वग्गो। १. [प्र०] अह भंते ! अयसि-कुसुम-कोद्दव-कंगु-रालग-तुवरी कोदूसा-सण-सरिसव-मूलगबीयाणं एएसि गं तृतीय वर्ग. १. [प्र०]-हे भगवन् ! अळसी, कुसुंब, कोद्रव, कांग, राळ, तुवेर, कोदूसा, सण, सरसव अने मूळकबीज-ए वनस्पतिना १ * प्रथमनी चार लेश्याना एकत्व अने बहुत्वने आश्रयी असंयोगी चार चार भांगा गणता आठ भांगा, द्विकसंयोगी छ विकल्प, अने प्रत्यना एकत्व अने बहुत्वने आश्रयी चार चार भंग गणता चोवीश भांगाओ, त्रिकसंयोगी आठ विकल्प अने तेना पूर्वोक्त रीते चार चार भंग गणता बत्रीश विकल्पो तथा चतुःसंयोगी सोळ विकल्पो-ए बधा मळीने एंशी विकल्पो थाय छे.-टीका. १txx कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलत्थ-आलिसंद-सत्तीण-पलिमंथा । xx जुओ प्रज्ञा पद १५० ३३. ११ अयसी-कुसुंभ-कोदव-कंगू-रालग-मास-कोइंसा। सण-सरिसव-मूलगवीया जे यावन्ने तहप्पगारा। सेत्तं ओसहीओ। जुओ प्रशा. पद १५०३३. १७ भ. सू. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वांस वगेरे पर्ववाळी वनस्पति. यक्षुवगेरे पर्ववाळी वनस्पति. सेटिय वगेरे वनस्पति. १३० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २१. वर्ग ६. जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति ? [अ०] एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देगा जद्देव सालीणं निरवसेसं तहेव भाणियां । एगवीसहमे सए तइओ वग्गो समत्तो । मूळपणे जे जीवो उत्पन्न थाय छे ते जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ? [ उ०] अहिं पण शालिउद्देशकनी पेठे मूळादिक दश उदेशको समग्र कहेवा. एकवीशमा शतकमां तृतीय वर्ग समाप्त. चउत्थो वग्गो । १. [ प्र० ] अ भंते ! *वंस - वेणु - कणक - कक्कावंस - चारुवंस - दंडा- कुंडा- विमा चंडा वेणुया - कल्लाणीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताप वक्कमंति० १ [ उ० ] एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा जहेव साळीणं, नवरं देवो सवत्थ विन उववज्जति, तिन्नि लेसाओ, सवत्थ वि छष्वीसं भंगा, सेसं तं चेव । गवीसहमे स चत्थो वग्गो समत्तो । चतुर्थ वर्ग. १. [प्र० ] हे भगवन् ! वांस, वेणु, कनक, कर्कावंश, चारुवंश, दंडा, कुडा, विमा, चंडा, वेणुका अने कल्याणी-ए बधी वनस्पतिना मूळपणे जे जीवो उत्पन्न थाय छे ते जीवो क्यांथी आवीने उपजे छे ! [उ०] पूर्व प्रमाणे शालिवर्गनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको कहेवा. विशेष ए के अहिं कोइ पण ठेकाणे देवो उत्पन्न धता नथी. प्रण लेश्याओ तथा ते संबंधे छन्वीश भांगा कहेवा. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवुं. एकवीशमा शतकमां चतुर्थ वर्ग समाप्त. पंचमो वग्गो । १. [ प्र० ] अह भंते! सिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति देवो उववज्जति, चचारि लेस्साओ, सेसं उक्खु - इषखुवाडिया - वीरणा-इक्कड-भमास - एंठि - सरे- वेत्त - तिमिर - सतपोरग - नलाणं [ उ०] एवं जहेब वंसवग्गो तहेव पत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा, नवरं खंधुदेसे तं चैवं । ? raaiसहमे सए पंचमो वग्गो समत्तो । पंचम वर्ग. १. [प्र० ] हे भगवन् ! इक्षु-शेळडी, इक्षुवाटिका, वीरण, इक्कड, भमास, सुंठ, शर, वेत्र ( नेतर), तिमिर, सतपोरग अने नडए बधी वनस्पतिना मूळपणे जे जीवो उपजे छे तेभो क्यांथी आवीने उपजे छे ! [उ०] जेम वंशवर्गसंबंधे कधुं छे तेम अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको कहेवा. विशेष ए के स्कंधोदेशकमा 'देवो पण उत्पन्न थाय छे भने तेओने चार लेश्याओ होय छे'- एम कहेनुं. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवुं. एकवीशमा शतकमा पंचम वर्ग समाप्त. छओ वग्गो । मंते 1 सेडियै - भंतिय-ष्म- कोंतिय- दष्भकुस - पञ्चग - पौदेल- बैज्जुण - आसाढग-रोहिय- समु-अबषष्ठ वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! सेडिय, भंतिय (भंडिय), दर्भ, कोंतिय, दर्भकुश, पर्वक, पोदेइल (पोइदद्दल), अर्जुन (अंजन), भाषाढक, े १. [ प्र० ] १ कंडा - वे कु । २ सतवत्त-ग ३ भंडिय-ग ४ पोइदद्दल ५ अंजणग १. सेवेच्छू (णू) कणए कंकासे य चाववंसे य । उदए कुडए बिसए कंडा वेले य कलाणे ॥ ३२ ॥ जुओ प्रज्ञा० पद १ प० ३२ 1 t इक् य इक्खुवाडी वीरुणी तह इकडे य मासे य । सुंठे सरेय वेत्ते तिमिरे सतपोरग नले य ॥ जुओ प्रज्ञा० पद १ प ३२. संडिय मंतिय हो ( को ) त्तिय दब्भकुसे पव्वए य पोढइला । अज्जु असाढ होहियंसे सुयवेय खीरभुसे ॥ एरंडे कुरुविंदे करजर सुंठे तहा विभंगू य । महुरतण छुरय सिप्पिय बोद्धव्वे सुंकलितणे य ॥ ३४ ॥ जुओ प्रशा० पद १ प० ३२. For Private Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शसफ २१.-वर्ग ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३१ पीर-भुस-परंड-कुरुकुंद-करकर-सुंठ-विमंगु-महुरयण-थुरग-सिप्पिय-सुंकलितणाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए पकमंति० । [उ०] एवं एत्य वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो। एगवीसइमे सए छट्ठो वग्गो समत्तो। रोहितक, समु, अ(स)वखीर, भुस, एरंड, कुरुकुंद, करकर, सुंठ, विभंग, मधुरयण (मधुवयण), थुरग, शिल्पिक अने संकलितॄण-ए बधाना मळ तरीके जे जीवो उपजे छे, तेओ क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] ए प्रमाणे समग्र वंशवर्गनी पेठे मूळ्यदिक दश उद्देशको कहेवा. एकवीशमा शतकमा षष्ठ वर्ग समाप्त. सत्तमो वग्गो १. [प्र०] मह भंते! अमरुह-वायण-हरितग-तंदुलेजग-तण-वत्थुल-पोरंग-मजारयाई-विल्लि-पालक-गपिप्प लिय-दधि-सोत्थिय-सायमंडुकि-मूलग-सरिसव-अंबिलसाग-जियंतगाणं एएसि णं जे जीवा मूल०१ [उ०] एवं एत्थ घि दस उद्देसगा जहेष पंसपग्गो। एगवीसइमे सए सत्तमो वग्गो समत्तो। सप्तम वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! अभ्ररुह, वायण, हरितक, तांदळजो, तृण, वित्थुल, पोरक, मार्जारक, बिल्लि( चिल्लि), पालक्क, दग- अनवशादि. पिप्पली, दन्वि-दी, स्वस्तिक, शाकमंडुकी, मूलक, सरसव, अंबिलशाक, जियंतग, ए बधाना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्यांची आवीने उपजे छे! [उ०] पूर्वोक्त वंशवगनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको कहेवा. एकवीशमा शतकमां सप्तम वर्ग समाप्त. ___ अट्ठमो वग्गो १. [प्र०] मह मंते ! तुलसी-कण्ह-दराल-फणेजा-अंजा-चूयणा-चोरा-जीरा-दमणा-मुख्या-दीवर-सयपुप्फाणं पएसि णं जे जीवा मूलसाए वशमंति०१ [उ०] पत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा वंसाणं । एवं एएस अट्ठसु बग्गेसु असीति उद्देसगा भवंति। एगवीसइमे सए अट्टमो वग्गो समत्तो। एकवीसतिमं सयं समत्तं. अष्टम वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! तुलसी, कृष्ण, दराल, फणेज्जा, अज्जा, चूतणा, चोरा, जीरा, दमणा, मरुया, इंदीवर अने शतपुष्प-ए तुलसी वगेरे हरित बधाना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] वंशवर्गनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको . . कहेवा. ए प्रमाणे ए बधा मळीने आठ वर्गना एंशी उद्देशको जाणवा. ( २१-८) एकवीशमा शतकमां अष्टम वर्ग समाप्त. एकवीशमुं शतक समाप्त. १.कुन-क। महुवयण-ग। ३ चायण-क। ४ चोरग-ग-घ। ५ वल्लिपाइ-क, चिल्लियाल-। भूणा-क; भूयणा-ङ । मजो(ब्भ )रुह वोडाणे हरितग तह तदुलेज तणे य वत्थल पोरग मजारयाइ बिल्ली य पालका ॥ ३ ॥ दगपिप्पली य दवी सोत्तिय साए तहेव मंडुकी। मूलग सरिसव अंबिलसाए य जियंतए चेव ॥३८॥ जुओ प्रज्ञा० पद १.३३. 1 वृक्ष उपर अमुक प्रकारनी वनस्पति थाय छे तेने अभ्ररुह कहे छे. तुलस कण्ह उराले फणिज्जए अजए य भूयणए। वारग दमणग मखस्यग सतपुष्फींदीवरे य तहा ॥३९॥ जे यावने तहष्पगारा । सेत्तं हरिया । जुभो प्रज्ञा. पद १५०३३. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसतिमं सयं । ताले-गट्ठिय-बहुवीयगा य गुच्छा य गुम्म वल्ली य । छद्दस वग्गा एए सढि पुण होंति उद्देसा ॥ पढमो वग्गो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-अह भंते! "ताल-तमाल-तकलि-तेतलि-साल-सरला-सारगल्लाणं जावकेयति-कदलि-कंदलि-चम्मरुक्ख-गुंतरुक्ख-हिंगुरुक्ख-लवंगरुक्ख-पूयफल-खजूरि-नालएरीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए पक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायचा अहेव सालीणं, नवरं इमं नाणत्तं-मूले कंदे खंधे तयाए साले य एएसु पंचसु उद्देसगेसु देवो न उववजति । तिनि लेसाओ। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दसवाससहस्साई। उवरिलेसु पंचसु उद्देसएसु देवो उववजति।चत्तारि लेसाओ। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहुत्तं । ओगाणा मूले कंदे धणुहपुहुत्तं, खंधे तयाए साले य गाउयपुहुत्तं, पवाले पत्ते धणुहपुहुतं, पुप्फे हत्थपुहत्तं, फले बीए य अंगुलपुहत्तं । सवेसिं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं । सेसं जहा सालीणं । एवं एए दस उद्देसगा। बावीसतिमे सए पढमो वग्गो समतो। बावीशमुं शतक. १ ताल-तमालप्रमुख वृक्ष संबंधे दश उद्देशकना समुदायरूप प्रथम वर्ग, २ एकबीजवाळा वृक्ष संबंधे बीजो वर्ग, ३ जेना फळोमा घणां बीज छे तेवा बहुबीज वृक्षो संबंधे त्रीजो वर्ग, ४ रीगणी वगेरे गुच्छ वनस्पति विषे चोथो वर्ग, ५ सिरिय, नवमालिका वगेरे गुल्म वनस्पति विषे पांचमो वर्ग अने ६ वल्लि-पुंकली वगेरे वेल संबंधे रहो वर्ग-ए प्रमाणे दश दश उद्देशकना छ वर्ग अने तेना बधा मळीने साठ उद्देशको आ शतकमां कहेवामां आवशे. प्रथम वर्ग. १.[प्र०] राजगृहनगरमां यावत्-[भगवान् गौतम ] आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् । ताड, तमाल, तक्कलि, तेतलि, साल, सरल-देवदार, सारगल्ल, यावत्-केतकी (केवडो), केळ, कंदली, चर्मवृक्ष, गुंदवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, सोपारीनुं वृक्ष, खजूरी अने नाळीएरी-ए बधाना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे! [उ०] शालिवर्गनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको कहेवा. परंतु तेमा विशेष ए छे के, आ वृक्षना मूळ, कंद, स्कंध, छाल, अने शाखा-ए पांचे उद्देशकमां देवो आवी उपजता नथी, तेथी त्यां तेओने त्रण लेश्याओ होय छे. तेओनी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट दश हजार वर्ष छे. अने बाकीना पांच उद्देशका देवो उत्पन्न थाय छे, माटे त्यां तेओने चार लेश्याओ होय छे. तेओनी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व-वे वरसथी नव वरस सुधीनी होय छे. अवगाहना-शरीर प्रमाण मूळ अने कंदनी धनुषपृथक्त्व, तथा शाखानी गाउपृथक्त्व होय छे, प्रवाल अने पांदडानी अवगाहना धनुषपृथक्त्व, पुष्पनी हस्तपृथक्त्व भने बीजनी अंगुलपृथक्त्व उत्कृष्ट अवगाहना होय छे. ए बधानी जघन्य अवगाहना अंगुलना असंख्यातमा भागनी जाणवी. बाकी बधु शालिवर्गनी पेठे कहे. ए प्रमाणे ए दस उद्देशको कहेवा. बावीशमा शतकमां प्रथम वर्ग समाप्त. बगेरे वलयवर्ग. गुंदरु ग-। ताल तमाले तकलि तो( ते )यली साली (ले) य सारकत्ताणे। सरले जावति केतह कदली तह ध(च)मक्खे य ॥३ ॥ मुयरुक्ख हिंगुरुक्खे लवंगुरुक्खे य होइ बोद्धव्वे ॥३॥ पूर्यफली सज्जुरी बोहव्वा णालिएरी य ॥ ३७॥ जेयावने तहप्पयारा । सेत्तं वलया । जुओ प्रशा• पद १५.११ . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ शतक २२. वर्ग ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. बीओ वग्गो। १. [प्र०] मह भंते ! *निव-य-जंबु-कोसंब-ताल-अंकोल्ल-पीलु-सेलु-सलर-मोया-मालय-बउल-पलास-करंजपुतंजीवग-रिटु-विहेलग-हरितग-भल्लाय-उंब(बे)भरिय-खीरणि-धायई-पियाल-पूतियणिबायग-(करंज)-सेण्हय-पासिय -सीसव-अयसि-पुन्नाग-नागरुक्ख-सीवन्न असोगाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति०१ [उ०] एवं मूलादीया दस उसगा कायना निरवसेसं जहा तालवग्गो । बाविसतिमे सए वितिओ वग्गो समतो। द्वितीय वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! लीमडो, भांबो, जांबू, कोशंब, ता(सा)ल, अंकोल्ल, पीलु, सेलु, सल्लकी, मोचकी, मालक, बकुल, पलाश, लोमठा बनेरे एका करंज, पुत्रंजीवक, अरिष्ट-अरिठा, बहेडा, हरडे, मिलामा, उंबेभरिका, क्षीरिणी, धावडी, प्रियाल-चारोळी, प्रतिनिंब, [करंज], सेण्हय, पासिय, सीसम, अतसी (असन), नागकेसर, नागवृक्ष, श्रीपर्णी( सेवन ) अने अशोक-ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे! [उ०] ए प्रमाणे अहिं पण मूलादिक दश उद्देशको समग्र ताडवर्गनी पेठे कहेवाः चावीशमा शतकमां द्वितीय वर्ग समाप्त. तइओ वग्गो। १. [प्र०] अह भंते ! अित्थिय-तिंदुय-बोर-कविटा-अंबाडग-माउलिंग-बिल्ल-आमलग-फणस-दाडिम-आसत्य-उवर-बड-णग्गोह-नंदिरुपन-पिप्पलि-सतर-पिलक्खुरुक्ख-काउंबरिय-कुच्छंभरिय-देवदालि-तिलग-लउय-छत्तोह-सिरीस-सत्तवन-दहिवन-लोद्ध-धव-चंदण-अजण-णीव-कुडु(ड)ग-कलंबाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति तेणं भंते ! १[30] एवं एस्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा नेयधा जाव-बीयं । बाविसतिमे सए तइओ वग्गो समत्तो। तृतीय वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! अगस्तिक, तिंदुक, बोर, कोठी, अंबाडग, बीजोरु, बिल्व, आमलक, फणस, दाडिम, अश्वस्थ-पीपळो, गस्तिक वगेरे उंबरो, वड, न्यग्रोध, नंदिवृक्ष, पीपर, सतर, प्लक्षवृक्ष ( खाखरो), काकोदुंबरी, कुस्तुंभरि, देवदालि, तिलक, लकुच, छत्रौघ, शिरिष, बबीज वर्गसप्तपर्ण-सादड, दधिपर्ण, लोधक, धव, चंदन, अर्जुन, नीप, कुटज अने कदंब-ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे! [उ०] ए बधुं ताडवर्गनी पेठे कहे. अहिं पण मूळथी मांडी बीज सुधी दश उद्देशको जाणवा. बावीशमा शतकमां तृतीय वर्ग समाप्त. १ बहेडग-ग, बहेलग छ। २ उंबभरिय क। ३-णिवारग-क। ४-घग्गे क। ५ अस्थिया-ग-ङ। णिवं-ब-जंबु-कोसंब-साल-अंकुल-पिलू सेलू य । साहइ-मोयह-मालय-बउल-पलासे करजे य॥१२॥ पुत्तंजीवय-रिटे बिहेलए हरिडए य भिल्लाए। उंबेभरिया खीरिणी बोद्धव्वे धायइ पियाले ॥१३॥ पूइयनिंब-करंजे सुण्हा तह सीसवा य असणे य । पुषाग-नागरुक्खे सीवण्णि तह असोगे य ॥ १४॥ जुओ प्रज्ञा-परप.31-1. अत्थिय तेंदु कविढे अंबाडग-माउलिंग-बिल्ले य । 'आमलग फणिस दालिम आसोठे(त्थे )उबर बडे य ॥१५॥ णग्गोह गंदिरुक्खे पिप्परी सयरी पिलुक्खएक्खे य । काउंचरि कुत्थुभरि बोद्धव्वा देवदाली य ॥१६॥ तिलए लउए छत्तोह सिरीस सत्तवन दहिवन्ने । लोदव-चंदण-ज्जुण-णीए फुटए कंयंबे य॥१७॥ Jain Education international Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतफ २२.-वर्ग ६. चउत्थो वग्गो। १. [H०] मह भंते । *पाइंगणि-अल्लर-पोडइ० एवं जहा पन्नघणाए गाहाणुसारेणं णेयचं, जाप- गंज-पाटलावासि-अंकोल्लाणं पएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वफमंति? [उ०] एवं पत्थ वि मूलादीया दस उदेसगा नेयचा जाव-बीयं ति निरवसेसं जहा वंसवग्गो। बावीसतिमे सए चउत्थो वग्गो समत्तो । चतुर्थ वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! वेंगण, अल्लइ, पोंडइ-इत्यादि वृक्षोना नामो प्रज्ञापनासूत्रनी गापाने अनुसारे यावत्-ज, पाटला, पासी अने अंकोल्ल सुधी जाणवां. ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे! [उ०] अहिं पण मूळादिक यावत्-बीजपर्यंत दश उद्देशको वंशवर्गनी पेठे कहेवा. बावीशमा शतकमां चतुर्थ वर्ग समाप्त बैंगण बगेरे गुम्छ पंचमो वग्गो। १. [प्र०] मह भंते ! सिरियका-णेवमालिय-कोरंटंग-बंधुजीवग-मणोजा० जहा पनवणाए पढमपदे गाहाणुसारेणं जाप- नलणीय-कुंद-महाजाईणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति०१ [30] एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा निरषसेसं जहा सालीणं । बावीसतिमे सए पंचमो वग्गो समत्तो । __पंचम वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! सिरियक, नवमालिका, कोरंटक, बंधुजीवक, मणोज्जा-इत्यादि बा नामो प्रज्ञापनासूत्रमा कहेल प्रथमपदनी गाथाने अनुसारे यावत्-नलिनी, कुंद अने महाजाति सुधी जाणवा. ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] अहिं पण शालिवर्गनी पेठे मूलादिक दश उद्देशको समन कहेवा. बावीशमा शतकमां पंचम वर्ग समाप्त. सिरियक वगेरे गुल्मवर्ग. छटो वग्गो। १. [प्र०] भह भंते । पूसफलि-कालिंगी-तुंबी-तउसी-एलावालुंकी. पवं पदाणि छिदियवाणि पनघणागाहाणुसारेणं जहा तालवग्गे जाव-दधिफोल्लइ-काफलि-सोक्कलि-अक्कयोंदीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकर्मतिः ? [उ.] षष्ठ वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! पूसफलिका, कालिंगी, तुंबडी, त्रपुषी-चीभडी, एलवा-की-इत्यादि नामो प्रज्ञापनासूत्रनी गाथाने अनुसारे ताडवर्गा कह्या प्रमाणे समजवां, यावत्-दधिफोल्लइ, काकलि, सोकलि अने अर्कबोंदी, ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते पूसफली वगेरे वही वर्ग: उसगा तालवग्गसरिसा ने-ग-घ। २-नालिय-ग-ङ । १* वाइंगणि-सहइ-धुंडई य तह कत्थुरी य जीभुमणा । रूवी आढई णीली तुलसी तह माउलिंगी य ॥ १८॥ इत्यादि यावत् जीवइ केयइ तह गंज पाडला दा(वा)सि अंकोले ॥ २२ ॥ जुओ प्रज्ञा० पद १५०३२-२ + सेण(सिरि)यए णोमालिय कोरंटय बंधुजीवग-मणोजे । पिइयं पाणं कणयर कुंजय तह सिंदुवारे य ॥ २३ ॥ जाई मोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंती। वत्थुल कत्थुल सेवाल गंठी मगदंतिया चेव ॥ २४ ॥ चंपकजी(जा)इ णीइया कुंदो तहा महाजाई। xx जुओ प्रज्ञा० पद १५० ३२-२ 1 पूसफली कालिंगी तुंबी तउसी य एलवालुंकी। घोसाडइ पंडोला पंचंगुली आयणीली य ॥ २६ ॥ यावत्दधिफोलई कागली सोगली य तह अकबोंदी य ॥ ३०॥ जुओ प्रशा० पद १५०३३-१ . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३५ एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायथा जहा तालवग्गो । नवरं फलउद्देसे ओगाहणाए जहजेणं अंगुलस्स अखंयएमागं, उक्कोसेणं धणुहपुद्दुत्वं । ठिती सवत्थ जहणं अंतोमुडुत्तं, उकोसेणं वासपुडतं, सेसं तं चेव । छट्ठो षग्गो समत्तो। एवं छसु वि वग्गेसु सहि उद्देसगा भवंति । बावीसतिमे सए छटो वग्गो समतो। बावीसतिमं सयं समत्तं । जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] अहिं पण ताडवर्गनी पेठे मूळादिक दश उद्देशको संपूर्ण कहेवा. विशेष ए के फलोदेशकमां फलनी जघन्य अवगाहना अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व-बेथी नव धनुषनी होय छे. बधे स्थळे स्थिति जघन्य अंतर्मुहुर्तनी अने उत्कृष्ट बेथी नव वरसनी जाणवी. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे छ वर्गना मळीने साठ उद्देशको थाय छे. चावीशमा शतकमां षष्ठ वर्ग समाप्त. बावीशमुं शतक समाप्त. PHABARREARS Jain Education international Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसतिमं सयं । आलुय लोही अवए पाढा तह मासवन्नि वल्ली य । पंचेते दसवग्गा पन्नासं होति उद्देसा ॥ पढमो वग्गो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-अह भंते ! आलुय-मूलग-सिंगबेर-हलिइ-रुरु-कंडरिय-जीरु-च्छीरबिरालिकिट्ठि-कुंटुंक-कण्ह-कैडउसु-मैहु-पयला-महुसिंगि-णिरुहा-सप्पसुगंधा-छिन्नहा-धीयरुहाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए पकमंति०१ [उ०] एवं मूलादीया इस उद्देसगा कायवा वंसवग्गसरिसा, नवरं परिमाणं जहमेणं एको वा दो वा तिनि वा, उकोसेणं संस्खेजा असंत्रेजा वा अणंता पा उववजंति । अवहारो-गोयमा! ते णं अणंता समये २ अवहौरमाणा २ अणंताहि ओसप्पिणीहिं उस्सप्पिणीहिं एवतिकालेणं अवहीरंति, नो चेव .णं अवहरिया सिया। ठिती जहन्नेण विउकोसेण वि मंतोतं, सेसं तं चेव । तेवीसतिमे सए पढमो वग्गो समत्तो । त्रेवीशमुं शतक. [ उद्देशकार्थसंग्रह-] १ आलुक वगैरे साधारण वनस्पतिना भेद संबन्धे दश उद्देशात्मक प्रथम वर्ग, २ लोही प्रमुख अनंतकायिक वनस्पति संबंधे बीजो वर्ग, ३ अवक वगेरे वनस्पति विषे त्रीजो वर्ग, ४ पाठा, मृगवाढंकी वगेरे वनस्पति संबंधे चतुर्थ वर्ग भने ५ माषपर्णी वगेरे वनस्पति विषे पंचम वर्ग. ए प्रमाणे पांच वर्गना दस दस उद्देशको मळीने पचास उद्देशको आत्रेवीशमां शतकमा कहेवाना छे. प्रथम वर्ग. १. [प्र.] राजगृहनगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! आलुक, मूळा, आदु, हळदर, रुरु, कंडरिक, जीरं, क्षीरविराली (क्षीरविदारीकन्द), किट्ठि, कुंदु, कृष्ण, कडसु, मधु, पयलइ, मधुसिंगी, निरुहा, सर्पसुगंधा, छिनरहा अने बीजरहा-ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ? [उ०] अहिं वंशवर्गनी पेठे मूळादिक दश उद्देशको कहेवा. विशेष ए के तेओर्नु परिमाण जघन्यथी एक समये एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता, असंख्याता अने अनंता आवीने उपजे छे. वळी हे गौतम ! तेओनो अपहार आ प्रमाणे छे–जो ते अनंत जीवो, समये समये अपहरीए तो अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काळे अपहराय, पण ए.प्रमाणे अपहराता नथी. वळी तेओनी जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्तनी छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. त्रेवीशमा शतकमा प्रथम वर्ग समाप्त. आलु बगेरे साधारण वनस्पति. रुप्पसुगंधा ङ। ..भवय-ग। २ पञ्चासा-ग। ३जार-क। कदुकपण-ङ। ५ कडडसु-ग। मधुमयलइ-क। अवए पणए सेवाले मिहुत्यु हुत्थिभागा य । अस्सकनि सिंहकमि सिंढि तत्तो मुसुंडी य ॥४३ ॥ रुरु कुंडरिया जीरु छीरविराली तहेव किट्टीया । हालिद्दा सिंगबेरे य आतूलगा मूलए इय ॥४४॥ जुओ प्रज्ञा० पद १५०३४-२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३.-वर्ग ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३७ बीओ वग्गो। १. [प्र०] अह भंते ! लोही-णीहू-थीहू-थिभगा-अस्सकन्नी-सिंहकन्नी-सीउंढी-मुसंढीणं एएसि णं जीवा मूल.? उ० एवं एत्थ वि दस उद्देसगा जहेव आलुवग्गे। णवरं ओगाहणा तालवग्गसरिसा, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। तेवीसतिमे सए वितिओ वग्गो समतो । द्वितीय वर्ग. १. प्रि०] हे भगवन् ! *लोही, नीह, थीह, थिभगा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सीउंढी' अने मुसंढी-ए बधा वृक्षोना मूलपणे जे लोही वगेरे अनन्तजीवो उपजे छे तेओ क्याथी आवीने उपजे छे! [उ०] आलुवर्गनी पेठे अहिं पण मूळादिक दस उद्देशको कहेवा. परंतु कायिक बनस्पतिविशेष ए के, अवगाहना ताडवर्गनी पेठे जाणवी. बाकी बधुं तेज प्रमाणे समजवू. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.. त्रेवीशमा शतकमां द्वितीय वर्ग समाप्त. तइओ वग्गो। १. [प्र०] अह भंते ! आय-काय-कुहुण-कुंदुरुक्क-उष्वेहलिय-सफा-सज्जा-छत्ता-वंसाणिय-कुमाराणं एतेसि णं जे जीवा मूलत्ताए? [उ.] एवं पत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा आलुवग्गो, नवरं ओगाणा तालवग्गसरिसा, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । तेवीसतिमे सए तइओ वग्गो समत्तो । तृतीय वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! आय, काय, कुहुणा, कुंदुरुक्क, उव्वेहलिय, सफा, सेज्जा, छत्रा, वंशानिका अने कुमारी-ए बधा वृक्षोना आयादि कुतुणावर्गमूळ तरीके जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे! (उ०] हे गौतम ! बधुं आलवर्गनी पेठे कहे. अने ए प्रमाणे दशे , उद्देशको कहेवा. विशेष ए के, अवगाहना ताडवर्गनी पेठे कहेवी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' त्रेवीशमा शतकमां तृतीय वर्ग समाप्त. चउत्थो वग्गो। . १. [प्र०] अह भंते ! पाढा-मियवालुंकि-मधुररसा-रायवल्लि-पउमा-मोढरि-दंति-चंडीणं पतेसि णं जे जीवा मलाउ.1 एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा आलुयवग्गसरिसा, नवरं ओगाहणा जहा वल्लीणं, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। तेवीसइमे सए चउत्थो वग्गो समत्तो । चतुर्थ वर्ग. १. [३०] हे भगवन् ! पाठा, मृगवालुंकी, मधुररसा, राजवल्ली, पद्मा, मोढरी, दंती अने चंडी-ए बधाना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे! [उ०] आलुवर्गनी पेठे अहिं पण मूलादिक दस उद्देशको कहेवा. विशेष ए के शरीरर्नु प्रमाण वल्लीनी पेठे जाणवू. बाकी बधुं तेज प्रमाणे कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' वीशमा शतकमां चतुर्थ वर्ग समाप्त. पाठावर्ग. १* जुओ प्रज्ञा पद १ प०३४-२ , 'नवरं ओगाहणा! तालवग्गसरिसा' इति पाठो क-ग पुस्तके नोपलभ्यते। २ मोंढरि ग-ध। + कुणा अणेगविहा पनत्ता, तंजहा-आए, काए, कुहणे, कुणके, दव्वहलिया, सफाए, सज्झाए, छत्तोए, वंसीण, हिताकुरए । जुओ-प्रज्ञा. पद १५० ३३-२ पाढा-मियवालुकी महुररसा चेव रायवत्ती(ली)य पउमा माढरि दंतीति चंदी किट्ठीत्ति यावरा ॥ जुओ-प्रज्ञा• पद १५.३४-२ १८ भ. सू. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषपर्णी आदि बलिवर्ग. १३८. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे पंचमो वग्गो । १ [प्र० ] अह भंते! * मासपन्नी - मुग्गपन्नी - जीवग - सरिसव - करेणुय - काओलि - खीरका कोलि-भंगि-हि-किमिरासिभद्दमुच्छ - मंगलइ-पओय - किंणा ( किण्हाय) पउल - पा (ह) ढे - हरेणुया - लोहीणं एएसि णं जे जीवा मूल० १ [अ०] एवं पत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं आलुयवग्गसरिसा । एवं एत्थ पंचसु वि वग्गेसु पन्नासं उद्देसगा भाणियचा । सवत्थ देवा उववजंति, तिनि लेसाओ । 'सेवं भंते । सेवं भंते' ! प्ति । तेवीसति स तेवीस पंचमो वग्गो समत्तो । सयं समत्तं । पंचम वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! भाषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवक, सरसव ( ? ), करेणुक, काकोली, क्षीरकाकोली, भंगी, नही, कृमिराशि, भद्रमुस्ता, लांगली, पउय ( पयोद ), किण्णापउलय, पाढ (हढ), हरेणुका अने लोही-ए बधा वृक्षोना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते क्यांथी आवीने उपजे छे ? [उ०] आल्लुवर्गनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको कहेवा. ए प्रमाणे अहिं आ पांच वर्गोमां बधा मळीने पचास उद्देशको कहेवा. बधे ठेकाणे देवो उपजता नथी, तेथी दरेक ठेकाणे प्रथमनी त्रणज लेश्याओ होय छे. 'हे भगवन् ! ते मज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' वीशमा शतकमां पंचम वर्ग समाप्त. वीशभुं शतक समाप्त. मासपणि मुग्गपण्णी जीवि (व) य - रस य रेणुया चेव । काभोली खीरकाओली तहा भंगी नही इय ॥ ४७ ॥ शतक. २३. - वर्ग ५० किमिरासि भद्दमुच्छा णंगलइ पेलुया इय । किण्ह पउले य हंढे हरतणुया चेव लोयाणी ॥ ४८ ॥ कण्हे कंदे वजे. सूरणकंदे तहेव खल्लूरे । एए अनंतजीवा जे यावने तद्दाविहा ॥ ४९ ॥ जुओ- प्रज्ञा० पद ११० ३४-२ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसइमं सयं । १ उववाय २ परीमाणं ३ संघयणु-४ च्चत्तमेव ५ संठाणं । ६ लेस्सा ७ दिट्ठी ८ णाणे अन्नाणे ९ जोग १० उवओगे ॥ ११ सन्ना १२ कसाय १३ इंदिय २४ समुग्धाया १५ वेदणा य १६ वेदे य । १७ आउं १८ अज्झवसाणा १९ अणुवंधो २० कायसंवेहो॥ जीवपदे जीवपदे. जीवाणं दंडगंमि उद्देसो। चउवीसतिमंमि सए चउधीसं होंति उहेसा ॥ पढमो उद्देसो। १.प्र.] रायगिहे जाव-एवं बयासी-णेरड्या णं भंते ! कओहिंतो उववजंति, किं नेरइएहितो उववजंति, तिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति, मंणुस्सेहितो. उववजंति, देवहितो उववजंति ? [उ.] गोयमा ! णो नेरदपहिंतो उववजंति. तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, मणुस्सहिंतो वि उववजंति, णो देवेहितो उववजंति । २. [प्र०] जइ तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, बेइंदियतिरि०, तेइंदियतिरि० चउरिदियतिरि० पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? [उ०] गोयमा! नो एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, णो बेंदिय०, णो तेइंदिय०, णो चउरिदिय०, पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति । चोवीशमुं शतक. [उद्देशकसंग्रह-] १ *उपपात, २ परिमाण, ३ संहनन-संघयण, ४ उंचाई, ५ संस्थान-आकार, ६ लेश्या, ७ दृष्टि, ८ ज्ञानअज्ञान, ९ योग, १० उपयोग, ११ संज्ञा, १२ कषाय, १३ इन्द्रिय, १४ समुद्घात, १५ वेदना, १६ वेद, १७ आयुष, १८ अध्यवसाय, १९ अनुबंध, अने २० कायसंवेध-आ बधा विषयो चोवीश दंडकोने आश्रयी प्रत्येक जीवपदे कहेवाना छे. अर्थात्-एक एक दंडके आ वीश द्वारो कहेवाना छे. ए रीते चोवीशमा शतकमां चोवीश दंडकने आश्रयी चोवीश उद्देशको कहेवामां आवशे. प्रथम उद्देशक. १. प्र०] राजगृह नगरमा [ भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! नरयिको क्याथी आवीने उत्पन्न थाय नैरयिकोनो उपपातं. छे, शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे, तिर्यंचयोनिकोथी, मनुष्योथी के देवोथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिको नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थता नथी, तेम देवोथी आवी. उत्पन्न थता नथी, पण तिर्यंचयोनिकोथी अने मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय छे. २. प्र०] हे भगवन् । जो तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शं एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवीने उत्पन्न थाय छे के बेइ- तिर्यंचोनो नैरयि कोमा उपपात. न्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे? उ०] हे गौतम ! एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय के चउरिन्द्रिय तिर्यचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थता नथी, पण पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे. *१ उपपातद्वारमा चोवीश दंडकने आश्रयी नारकादि जीवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय छे ? परिमाणद्वारमा जे जीवो नारकादिमां उत्पन्न थवाना छे तेओ पोतानी कायमा केटला उत्पन्न थाय छे ? संहननद्वारमा नारकादिमा उत्पन्न थवाने योग्य जीवोने कयुं संघयण होय! उच्चत्वद्वारमा नारकादि गतिमा जनारा जीवोनी उंचाई केटली होय ! ए प्रमाणे बीजा संस्थांनादि द्वारो जाणवा, अनुबन्ध-विवक्षित पर्यायर्नु सातत्य, अमुक कायथी अन्य कायमा अथवा तेनी समान कायमा जई पुनः त्यां आवq ते कायसंवेध. आ वधा द्वारा प्रत्येक उद्देशकमां कहेवानां छे. . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक २४.-उद्देशक १० ३. प्र०] जब पंचिंदियतिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति किं सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति, असनिपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? [उ०] गोयमा! सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति, असनिपचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववजंति । ४. [प्र०] जइ असन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववजंति, थलचरेहिंतो उववजंति, खहचरेकिंतो उववजंति ? [उ.] गोयमा ! जलचरेहिंतो उववजंति, थलचरहिंतो वि उववजंति, खहचरेहितो वि उववजंति । ५.प्र.जह जलचर-थलचर-खहचरहिंतो उववजंति किं पजत्तपहिंतो उववजंति अपज्जत्तपहिंतो उववजंति ! [उ०] गोयमा ! पजत्तपहिंतो उववजंति, णो अपजत्तपहिंतो उववजंति ।। ६. [प्र०] पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! कतिसु पुढवीसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा! एगाए रयणप्पभाए पुढवीए उववजेजा। ७.प्र. पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पमाए पुढवीए नेरइएसु उववजित्तए से गं मंते! केवतिकालट्रितीएसु उववजेजा? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टितीएसु उववजेजा १ । ८. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजंति ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दोवा वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उपयजति २। ९. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंघयणी पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! छेवट्ठसंघयणी पन्नत्ता ३ । १०. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ४. ११. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंठिता पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिया पन्नत्ता ५। प.तियचोनो नार ३. प्र०] हे भगवन् ! जो नैरयिको पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे तो शुं संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी कोमा उपपात. उत्पन्न थाय छे के असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक अने असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय छे. असंशी पं० तिर्यचनो ४. [प्र०] हे भगवन् ! जो (नारको) असंज्ञी पंचेंद्रिय तियंचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय छे तो शुं जलचरोथी, स्थलचरोथी के उपपात. खेचरोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ जलचरोथी, स्थलचरोथी अने खेचरोथी आवीने उत्पन्न थाय छे. पर्याप्ता असंशी पं० ५. [प्र०] जो तेओ जलचरोथी, स्थलचरोथी अने खेचरोथी आवी उत्पन्न थाय छे तो शुं ते पर्याप्ता के अपर्याप्ता जलचरो, स्थलतिर्यचनो नारकोमा चरो के खेचरोधी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्ता जलचरो, स्थलचरो अने खेचरोधी आवी उत्पन्न थाय छे, पण अपउपपात. प्तिाथी आवी उत्पन्न थता नथी. असंधी पं० तिथंचो ६. [प्र०] पर्याप्ता असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे नैरयिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटली नरकपृथिवीमा उत्पन्न केटली नरकपृथिवी थाय! [उ.] हे गौतम! ते प्रथम रत्नप्रभा नरकपृथिवीमा उत्पन्न थाय. सुधी उत्पन्न थाय! केटला आयुषवाळा ७. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे रत्नप्रभापृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते नारकमा असंशी केटला काळना आयुषवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा तिर्यंचो उपजे? भागनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. २ परिमाण. ८. [प्र०] हे भगवन् ! तेओ (रत्नप्रभापृथिवीमा उत्पन्न थवाने योग्य असंज्ञी तिर्यंचो) एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय. ३ संधयण ९. [प्र०] हे भगवन् ! ते असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोना शरीरो कया संघयणवाळा होय ! [उ०] हे गौतम ! छेवट्ठ-सेवार्तसंघ यणवाळा होय. शरीरनी अवगा- १०. प्रि०] हे भगवन् ! ते जीवोनी केटली मोटी शरीरावगाहना-उंचाई होय ! [उ.] हे गौतम! तेओनी शरीरावगाहना हना. जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उत्कृष्ट एक हजार योजननी होय छे. ५ संसान. ११. [प्र०) तेओना शरीरोनुं कयु संस्थान होय छे । [उ०] हे गौतम | तेओना शरीरनुं हुंडकसंस्थान होय छे. . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४१ १२. प्र० तेसिणं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ[उ०] गोयमा! तिनि लेस्साओ पन्नत्ताओ। तं जहाकण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा ६। १३. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी ? [उ०] गोयमा! णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी ७। १४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं णाणी, अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! णो णाणी, अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य ८।। १५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? [उ०] गोयमा! णो मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि ९। १६. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? [उ०] गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि १०। १७. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सन्नाओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा! चत्तारि सन्ना पन्नचा, तं जहा-आहारसन्ना, भयसन्ना, मेहुणसन्ना, परिग्गहसन्ना ११ । १८. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पन्नत्ता ? [३०] गोयमा ! चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तं जहा-कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए १२ । .. १९. [प्र० तेसि णं भंते! जीवाणं कति इंदिया पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! पंचिंदिया पन्नत्ता, तं जहा-सोइंदिए, चखिदिए, जाव-फासिदिए १३ । २०. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! तओ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहावेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्धाए, १४ । २१. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं सायावेयगा असायावेयगा ? [उ०] गोयमा! सायावेयगा वि, असायावेयगा वि १५। १२. [प्र०] हे भगवन् ! तेओने ( असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंचोने) केटली लेश्याओ कही छे ! [उ०] हे गौतम ! त्रण लेश्याओ ६ लेश्या. कही छे. ते आ प्रमाणे-कृष्णलेश्या, नीललेल्या अने कापोतलेश्या. १३ [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो सम्यग्दृष्टि छे, मिथ्यादृष्टि छे के सम्यग्मिथ्यादृष्टि छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ सम्यग्दृष्टि के दृष्टि. सम्यग्मिथ्यादृष्टि नथी, पण मिध्यादृष्टि छे. . १४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी, पण अज्ञानी छे अने तेओने ८ ज्ञान अने अशान अवश्य बे अज्ञान होय छे, ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान. १५. [प्र०] हे भगवन् ! ते असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचो मनयोगवाळा, वचनयोगवाळा के काययोगवाळा छे ! [उ०] हे गौतम! योग. तेओ मनयोगवाळा नथी पण वचनयोग अने काययोगवाळा छे. १६. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो साकार उपयोगवाळा छे के अनाकार उपयोगवाळा छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ साकार भने १० उपयोग. अनाकार बन्ने उपयोगवाळा छे. १७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने केटली संज्ञाओ होय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओने चार संज्ञाओ होय छे, ते आ ११ संशा. प्रमाणे-१ आहारसंज्ञा, २ भयसंज्ञा, ३ मैथुनसंज्ञा अने ४ परिग्रहसंज्ञा. १८. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने केटला कषायो होय छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने चार कषायो होय छे, ते आ प्रमाणे-१ १२ कषाय. क्रोधकषाय, २ मानकषाय, ३ मायाकषाय अने ४ लोभकषाय. १९. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने केटली इन्द्रियो होय छे ? [उ०] हे गौतम | तेओने पांच इन्द्रियो होय छे, ते आ प्रमाणे- १३ इन्द्रिय. १ श्रोत्रेन्द्रिय, २ चक्षुइन्द्रिय, यावत्-५ स्पर्शेन्द्रिय. २०. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने केटला समुद्घातो कह्या छे! (उ०] हे गौतम! तेओने त्रण समुद्घातो कह्या छे, ते आ १४ समुद्घात. प्रमाणे-१ वेदनासमुद्घात, २ कषायसमुद्घात अने ३ मारणान्तिक समुद्घात. २१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो साता-सुख अनुभवे छे के असाता-दुःख अनुभवे छे! [उ०] हे गौतम! तेओ सुख १५ वेदना. अनुभवे छे अने दुःख पण अनुभवे छे. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक १. __ २२. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीवेयगा, पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा? [उ०] गोयमा! णो इत्थीवेयगा, जो पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा १६ । २३. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुटुत्तं, उक्कोसेणं पुष्चकोडी १७ । २४. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! असंखेजा अज्झवसाणा पन्नत्ता। २५. प्र०] ते णं भंते। किं पसत्था अप्पसत्था? [उ०] गोयमा! पसत्था वि अप्पसत्था वि १८ २६. [प्र०] से गं भंते ! पजत्ताअसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणियत्ति कालओ केवचिरं होह? [उ.] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुष्षकोडी १९ । २७. [प्र०] से णं भंते ! पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभाए पुढवीए रहए, पुणरवि पज्जत्ताअसनिपंचिदियतिरिक्खजोणिएत्ति केवतियं कालं सेवेजा-केवतियं कालं गतिरागतिं करेजा १७०] गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुष्वकोडिमभहियं, पवतियं कालं सेवेजा-पवतियं कालं गतिरागति करेजा २०। २८. [प्र०] पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं, भंते ! जे भविए जहन्नकालद्वितीपसु रयणप्पभापुढविनेएएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइकालट्टितीएसु उववजेजा [उ०] गोयमा! जहनेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्टितीएसु उववजेजा। २९. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजंति ? [उ०] एवं सञ्चेव वत्तचया निरवसेसा भाणियचा, जाव-अणुबंधो ति। २२. प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा के नपुंसकवेदवाळा होय छे! उ०] हे गौतम! तेओ स्त्रीवेद वाळा के पुरुषवेदवाळा नथी, पण नपुंसकवेदवाळा छे. १७ आयुष २३. [प्र०] हे भगवन् ! तेओनी केटला काळनी स्थिति-आयुष कही छे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहर्तनी अने उत्कृ ष्टयी पूर्वकोटीनी स्थिति कही छे. १८ अध्यवसाय. २४. [प्र०] हे भगवन् ! तेओना अध्यवसायस्थानो केटलां कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम! तेओनां असंख्याता अध्यवसायस्थानो कह्यां छे. २५. प्र०] हे भगवन् ! ते अध्यवसायस्थानो प्रशस्त छे के अप्रशस्त छे ! [उ०] हे गौतम! ते प्रशस्त पण छे अने अप्र शस्त पण छे. १९ अनुबंध. २६. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीव पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकरूपे केटला काळ सुधी रहे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहूर्त सुधी अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी सुधी रहे. २० कायसंवेध २७. [प्र०] हे भगवन् ! ते पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय, पछी रत्नप्रभा पृथिवीमां नैरयिकपणे उपजे अने फरीवार पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय-एम केटलो काळ सेवे, केटलो काळ गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवादेश-भवनी अपेक्षाए *बे भव अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दसहजार वर्ष तथा उत्कृष्टथी पूर्वकोटी अधिक पल्योपमनो असं ख्यातमो भाग-एटलो काळ सेवे, एटलो काळ गमनागमन करे (१). २ असंनी पं० तिर्य- २८. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे रत्नप्रभा पृथिवीमा जघन्य काळनी स्थितिवाला नैरयिकोमा : उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य दस हजार वर्ष अने बाळा रमप्रभा नारकमा उपपात. उत्कृष्ट पण दस हजार वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. परिमाणादि. २९. [प्र०] हे भगवन् ! ते (असंज्ञी पंचेन्द्रियतियचो) एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! पूर्व कहेली बधी वक्तव्यता यावत्-'अनुबंध' (सू.७-२६) सुधी अहिं कहेवी. २७ * प्रथम भवमा असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय अने बीजा भवमा नारक थाय, त्यांथी नीकळी ते पुनः असंज्ञी पं० तिर्यचयोनिक न थाय, पण अवश्य संज्ञीपणुं प्राप्त करे, माटे भवनी अपेक्षाए बे भवनो कायसंवेध जाणवो अने काळनी अपेक्षाए जघन्य कायसंवेध असंज्ञीना जघन्य अन्तर्मुहूर्त आयुषसहित नारकनी जघन्य दश हजार वर्षनी स्थिति अने उत्कृष्ट कायसंवेध असंज्ञीना पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयुष सहित रमप्रभामा उत्कृष्ट भायुष पल्योपमना असंख्यातमा भाग प्रमाण जाणवो-टीका. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक. १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४३ ३०.०] से मंते! पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहनकालद्वितीयरयणप्पभापुढविणेराप, पुणरवि पजत्तअसन्नि० जाव-गतिरागतिं करेजा? [उ०] गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं पुषकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अन्भहियाई, एवतियं कालं सेवेजा-एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा २। । ३१. [३०] पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं जे भविए उक्कोसकालद्वितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववजित्तर से पं भंते ! केवतियकालट्ठिईएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागठिईएसु उववजेजा, उकोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टितीएसु उववजेजा। ३२. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा० [उ०] अवसेसं तं चेव, जाव-अणुबंधो।। ३३. [प्र० सेणं भंते। पजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्टितीयरयणप्पभापुढविनेरइए, पुणरवि पजत्ता. जाव-करेजा ? [उ०] गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागं अंतोमुहुत्तमन्भहियं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुवकोडिअब्भहियं, एवतियं कालं सेवेजा-एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ३। ३४. [प्र०] जहन्नकालद्वितीयपजत्ताअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतियकालठितीएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टितीएसु उववजेजा । ३५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिआ०१ [उ०] सेसं तं चेव, णवरं इमाई तिन्नि णाणत्ताई-आउं, अज्झवसाणा, अणुबंधो य । जहन्नेणं ठिती अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । २ तेसि गं भंते ! जीवाणं केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? गोयमा! असंखेजा अज्झवसाणा पन्नत्ता । ते णं भंते । किं पसत्था अप्पसत्था ? गोयमा। णो पसत्था, अप्पसत्था । ३ अणुबंधो अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव । ३०. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थई जघन्यस्थितिवाळा रत्नप्रभा पृथिवीना नैरयिकपणे उत्पन्न थाय, कायसंवेध. अने पुनः पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियचयोनिक थाय-एम यावत् केटला काळ सुधी गति आगति करे? [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए बे भव अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष, तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक दस हजार वर्षएटलो काळ सेवे, एटलो काळ गति आगति करे (२). ३१. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक, जे उत्कृष्टस्थितिवाळा रत्नप्रभानैरयिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ३ असंशी पं० तियते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नारकने विषे उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा भागनी, चनो उत्कृष्ट स्थिति स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. उपपात. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय -इत्यादि बाकीनी बधी हकीकत यावत्-अनुबंध सुधी परिमाणादि. (सू०७-२६) पूर्वनी पेठे कहेवी. ३३. प्रि० हे भगवन् ! ते पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय, पछी उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभामां नैरयिकपणे उत्पन्न कायसंवेष. थाय, वळी पाछो पर्याप्त असंज्ञी पचेन्द्रिय तिथंच योनिक थाय-एम केटला काळ सुधी यावत्-गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम! भवनी अपेक्षाए बे भवो अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पस्योपमनो असंख्यातमो भाग तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (३). ३४. प्र०] हे भगवन् ! जघन्यस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे रत्नप्रभा पृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न ४ जपन्य स्थितिथवाने योग्य छे ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य दस हजारवर्षनी स्थितिवाळा अने वाळा असंही तिथे चनो रसप्रभामा उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. उपपात. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जघन्यआयुषवाळा असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि बधी वक्त- परिमाणादि. व्यता पूर्वनी पेठे कहेवी. पण तेमां आयुष, अध्यवसाय अने अनुबंध संबंधे *विशेषता आ प्रमाणे छे-१ आयुष जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तमुहर्तनुं छे. [प्र०] हे भगवन् ! तेओने केटलां अध्यवसायो होय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओने असंख्याता अध्यवसायो होय छे २. [प्र०] हे भगवन् ! ते अध्यवसायो प्रशस्त छे के अप्रशस्त छे ! [उ.] हे गौतम! ते प्रशस्त नथी पण अप्रशस्त छे. ३ अनुबंध अन्तर्मुहूर्तनो छे. बाकी बधुं पूर्वोक्त जाणवू. ३५ * असंज्ञीनुं जघन्य आयुष अन्तर्मुहूर्त होय छे, तेथी तेने अध्यवसायस्थानो अप्रशस्त होय छे, आयुषनी दीर्घ स्थिति होय तो बजे प्रकारना प्रशस्त भने अप्रशस्त अध्यवसायनो संभव छे. अनुबन्ध अहिं आयुषना समान जाणवो-टीका. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायसंवेध. ५ जघन्य० असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्येचनो यिकम उपपात. परिमाणादि. कायसंवेध. ६ जय० असंशी तिर्यचनी उत्कृ० रत्नप्रभानैरयिकमां उत्पत्ति, परिमाणादि. कायसंवेध. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २४. - उद्देशक १. ३६. [प्र० ] से णं भंते! जहन्नकालद्वितीय पजत्ताअसन्निपचिदिय० रयणप्पभा० जाव-करेजा ? [30] गोयमा ! मवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं पलियोवमस्स असंखेजइभागं अंतोमुहुत्तमन्महियं, एवतियं कालं सेवेजा, जाव-गतिरागर्ति करेजा ४ । १४४ ३७. [०] जहनकालद्वितीयपजत्तअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए जहन्नकालट्ठिएसु रयणप्पभापुढविनेरइपसु उववजित्तए, से णं भंते! केवतियकालट्ठितीएसु उववजेजा ? [अ०] गोयमा ! जन्नेणं दसवाससहस्सट्ठितीसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्ठितीपसु उववजेजा ३ । ३८. [०] ते णं भंते! जीवा ० १ [30] सेसं तं चैव, ताइं चेव तिन्नि णाणत्ताई, जाव ? ३९. [ प्र० ] से णं भंते! जहन्नकालद्वितीयपजत्त० जाव- जोणिए जहन्नकालद्वितीयरयणप्पभा० पुणरवि जाव- १ [30] गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहनेणं दसवाससहस्लाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेण वि दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा - जाव - करेजा ५ । ४०. [प्र०] जहन्नकालट्ठितीयपजत्ता० जाव - तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्ठितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइपसु उववजित्तए से णं भंते! केवतियकालठितीएसु उववजेजा ? [30] गोयमा ! जहन्त्रेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टितीएसु उववजेज्जा, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठितीपसु उववजेजा । ४१. [] णं ते! जीवा० ? [उ०] अवसेसं तं चेव । ताइं चेव तिन्नि णाणताई-जाव ४२. [प्र० ] से णं भंते! जहन्नकालट्ठितीयपज्जत्त० जाव - तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्ठितीयरयण० जाव - करेजा ? [अ०] गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं, अंतोमुहुत्तमन्भहियं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागं अंतोमुहुत्तमम्भहियं, एवतियं कालं जाव - करेजा ६ । ३६. [प्र०] हे भगवन् ! जघन्यस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव थाय, पछी रत्नप्रभामां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय अने पाछो जघन्यस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय-एम केटला काळसुधी सेवे, क्यां सुधी गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए बे भव सुधी अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष भने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग – एटलो काळ यावत् — गमनागमन करे (४). ३७. [प्र० ] हे भगवन्! जघन्य आयुषवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे जघन्य आयुपवाळा रत्नप्रभापृथिवीना रोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला आयुपत्राळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय ? [30] हे गौतम ! जघन्य अने उत्कृष्ट दस हजार वर्षना आयुषवाळा नैरथिकोमा उत्पन्न थाय. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! ते जघन्य आयुषवाळा असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादिबधी वक्तव्यता पूर्ववत् जाणवी. तथा आयुप, अध्यवसाय अने अनुबंध - ए बधी विशेषताओ पण पूर्ववत् जाणवी. यावत् ३९. [प्र०] हे भगवन् ! ते जघन्य आयुषवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय, त्यार पछी ते जघन्य आयुषवाळा रत्नप्रभा पृथिवीना नैरयिकपणे उत्पन्न थाय, वळी पुनः असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय-एम केटला काळ सुधी यावत् - गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवादेशथी वे भव सुधी अने काळादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष - एटलो काळ सेवे, एटलो काळ गति आगति करे (५). ४०. [प्र०] हे भगवन् ! जघन्यस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव जे उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( पर्याप्ता असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो ) एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि बधी वक्तव्यता पूर्वनी पेठे जाणवी. आयुष, अध्यवसाय तथा अनुबंधसंबंधे त्रण विशेषता छे ते पूर्ववत् जाणवी. ४२. [प्र० ] हे भगवन् ! ते जघन्यस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक थई उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय अने पाछो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय-एम केटला काळ सुधी यावत्- गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए बे भव अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग -एटलो काळ यावत् — गमनागमन करे (६).. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४५ ४३. [प्र. उक्कोसकालट्ठियपजत्तअसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएम उववजित्तए सेणं भंते ! केवतियकाल. जाव-उववजेजा? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सठिइएसु, उकोसेणं पलिओवमस्त असंख्नेजइ० जाव-उववजेजा। प्रि० ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० १ [उ०] अवसेसं जहेव ओहियगमएणं तहेव अणुगंतवं । नवरं इमाई दोन्नि नाणत्ताई-ठिती जहन्नेणं पुष्चकोडी, उक्कोसेण वि पुष्पकोडी, एवं अणुबंधो वि, अवसेसं तं चेव । ४५. प्र०] से णं भंते ! उक्कोसकालद्वितीयपजत्तअसन्नि० जाव-तिरिक्खजोणिए रयणप्पमा० जाव-१ [उ०] गोयमा! भवादेसणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अभहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागं पुषकोडीए अब्भहियं, एवतिय जाव-करेजा ७ । ४६:०] उक्कोसकालद्वितीयपजत्ततिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए जहन्नकालद्वितीएसु रयण जाव-उववजित्तए से णं भंते ! केवति० जाव-उववजेजा ? [उ०] गोयमा! जहन्नेण दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्टितीएसु उववजेजा। ४७. [प्र०] ते णं भंते ! ०? [उ०] सेसं तं चेव, जहा सत्तमगमए । जाव ४८. प्रि० से णं भंते! उक्कोसकालद्वितीय-जाव-तिरिक्खजोणिए जहन्नकालद्वितीयरयणप्पभा० जाव-करेजा ? [उ०] गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेण वि पुषकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया, एवतियं जाघ-करेजा ८ । ४९. प्र०] उक्कोसकालट्टितीयपजत्त-जाव-तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्टितीएसु रयण जावउववजित्तए से णं भंते ! केवतियकाल० जाव-उववजेजा [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागद्वितीएसु, उकोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टितीएसु उववजेजा। 4. जपमा ५वणारा जगमा समानारकमा उत्पत्ति. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! उत्कृष्ट आयुषवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे रत्नप्रभा नैरयिकोमा उत्पन्न थवाने ७ उत्कृष्ट० असंशी तिर्यंचनी रतप्रमा योग्य छे ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय : उ०] हे गौतम! जघन्यथी दस हजारवर्षनी अने उत्कृष्टथी पल्योप- . नारकमा उत्पत्ति. मना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. . ४४. प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि बधी वक्तव्यता सामान्य पाठमां कह्या प्रमाणे जाणवी. परिमाणादि. 'परन्तु स्थिति अने अनुबंध ए बे बाबत विशेषता छे. स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी छे अने अनुबंध पण ए प्रमाणे ज जाणवो. बाकी बधु पूर्ववत् जाणवू. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्कृष्टस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थई रत्नप्रभामां नैरयिकपणे उपजे अने पुनः कायसंवेध. उत्कृष्ट स्थितिवाळो असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय-एम केटला काळ सुघी यावत्-गमनागमन करे ? [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेभाए बे भवसुधी अने काळनी अपेक्षाए जघन्य दश हजारवर्ष अधिक पूर्वकोटी, अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग-एटला काळ सुधी यावत्-गमनागमन करे (७). ४६. [प्र०] हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक जीव जे जघन्यस्थितिवाळा रत्नप्रभानैरयिकोमा ८ उत्कृष्ट० असंक्षी उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! जघन्यथी अने उत्कृष्टथी दस हजारव तिर्यंचनी जघन्य रत्नप्रभानारका पनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. उत्पत्ति. ४७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] बाकी बधुं यावत्-अनुबंध सुधी सातमा गमकमा परिमाणादि. कह्या प्रमाणे जाणवू. ४८. प्रि०] हे भगवन् ! ते उत्कृष्ट स्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक थई जघन्य स्थितिवाळा रत्नप्रभानैरयिकोमा कायसंवेष. उत्पन्न थाय अने पुनः उत्कृष्टस्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक थाय-एम केटलो काळ यावत्-गमनागमन करे ! [उ.] गौतम ! भवनी अपेक्षाए बे भव सुधी अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक दस हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्गमनागमन करे (८). ४९. [प्र०] हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक, जे उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमा ९ उस्कृष्ट० असंशी उपजवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा रत्नप्रभानारकने विषे उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम । ते जघन्यथी अने उत्कृष्टथी पं. तिथंचनी उत्कृत भानारकर्मा पल्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. उत्पत्ति. १९ भ• सू० . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाणादि. कायसंवेध. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे ५०. [ प्र० ] ते णं भंते ! जीवा एगसमपणं० ? [उ०] सेसं जहा सत्तमगमप । जाव ५१.[प्र० ] से णं भंते! उक्कोसकालद्वितीयपजत्त० जाव- तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्ठितीयरयणप्पभा० जावकरेजा ? [अ०] गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणारं, कालादेसेणं जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुचकोडीए अम्भहियं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुचकोडीए अन्भहियं, एवतियं कालं सेवेजा, जाव- गतिरागतिं करेजा ९ । एवं एते ओहिया तिन्नि गमगा ३, जहन्नकालट्ठितीएसु तिन्नि गमगा ६, उक्कोसकालद्वितीयसु तिनि गमगा ९, सवे ते णव गमा भवंति । १४६ परिमाण. शतक २४. - उद्देशक १. ५२. [०] जइ सन्निपचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिपर्हितो उववजंति, असंखेजवासा उयंसन्निपचिदियतिरिक्ख० जाव उववजंति ? [अ०] गोयमा ! संखेज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, णो असंखेज्जवासाउय० जाव उववजंति । ५३. [ प्र० ] जइ संखेज्जवासाउयसन्निपंचिंदिय० जाव-उववजंति किं जलचरेहिंतो उववजंति- पुच्छा [अ०] गोयमा ! जलचरेहिंतो उववजंति, जहा असन्नी, जाव-पजत्तपहिंतो उववजंति, णो अपजत्तपहिंतो उववजंति । ५४. [प्र०] पजत्तसंखेज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए णेरइपसु उववजित्तर से णं भंते! कतिसु पुढवीसु उववज्जेजा ? [अ०] गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववजेजा, तंजहा - रयणष्पभाए, जाव - अद्देसत्तमाए । ५५. [प्र०] पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निपचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए रयणप्पभपुढविनेरइएसु उववजित्तर से णं भंते! केवतियकालद्वितीयसु उववज्जेज्जा ? [अ०] गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीयसु, उक्कोसेणं सागरोवमट्ठितीपसु उववजेज्जा । ५६. [प्र० ] ते णं भंते ! जीवा एगसमपणं केवतिया उबवजंति ? [अ०] जहेव असन्नी संज्ञी पंचेन्द्रिय ५२. [प्र०] हे भगवन्। जो [ नैरयिको ] संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचनो नारकमां संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते संख्यात वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आवी उत्पन्न न थाय. उपपात. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि सातमा गमकमां (सू० ४३ ) कह्या प्रमाणे जाणवुं. ५१. [प्र० ] हे भगवन् ! ते उत्कृष्ट स्थितिवाळो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थई उत्कृष्टस्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरथिकोमा यावत्—उत्पन्न थाय अने पाछो असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक थाय-ए प्रमाणे केटला काळ सुधी यावत् गमनागमन करे ? [उ०] है गौतम ! भवनी अपेक्षाए वे भव अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग -एटलो काळ सेवे, यावत्-गतिआगति करे ( ९ ). ए प्रमाणे औधिक - सामान्य ऋण गम, जघन्यकाळनी स्थितिवाळा संबंधे त्रण गम अने उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा संबंधे त्रण गम-ए बधा मळीने नव गमो थाय छे. संख्याता० सं० पं० ५३. [प्र० ] हे भगवन् ! जो [ नैरथिको ] संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय तो तियैचौनो नारकमां जलचरोथी, स्थलचरोथी के खेचरोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जलचरोथी आवी उत्पन्न थाय-- इत्यादि बधुं असंज्ञीनी पेठे जाणवुं. यावत्-पर्याप्ताथी आवी उत्पन्न थाय, पण अपर्याताथी आवी न उत्पन्न याय. उपपात. पर्याप्त संख्याता ५४. [प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिको जे नैरयिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे सं० पं० तिर्यचनो ते केटली नरक पृथिवीओमां उत्पन्न थाय ? [उ०] ते साते नरक पृथिवीओमां उत्पन्न थाय. ते आ प्रमाणे - रत्नप्रभा, यावत् - अधः नारकमां उपपात. सप्तम पृथिवी. संध्याता० सं० पं० ५५. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवो, जे रत्नप्रभा पृथिवीना नैरयितिथैचोनो रणप्रभा- कोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय ? [ उ०] हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्षनी नारकमां उपपात. स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न था. ५६. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवो ] एक समये केटला उपजे - इत्यादि बधुं असंज्ञीनी पेठे जाणं. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाव शतक २४.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५७. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंघयणी पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! छविहसंघयणी पन्नत्ता, तं जहायहरोसभनारायसंघयणी, उसमनारायसंघयणी, जाव-छेवट्टसंघयणी । सरीरोगाहणा जहेव असन्त्रीणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। ५८. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंठिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा!, छविहसंठिया पन्नत्ता, तंजहासमचउरंसा, निग्गोहा, जाव-हुंडा। ५९. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ । तंजहा-कण्हलेस्सा, जाव-सुक्कलेस्सा । दिट्ठी तिविहा वि । तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए । जोगो तिविहो वि । सेसं जहा असन्नीणं जाव-अणुबंधो । नवरं पंच समुग्घाया आदिल्लगा । वेदो तिविहो वि, अवसेसं तं चेव । जाव ६०. [प्र०] से णं भंते ! पजत्तसंखेजवासाउय० जाव-तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा० जाव-करेजा ? [उ०] गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहि पुच्चकोडीहिं अन्भहियाई, एवतियं कालं सेवेजा, जाव-करेजा १ । ६१. [प्र०] पजत्तसंखेज० जाव-जे भविए जहन्नकाल० जाव-से णं भंते ! केवतियकालद्वितीएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सठितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीएसु जाव-उववजेजा। ६२. [प्र०] ते गं भंते जीवा० ? [उ०] एवं सो चेव पढमो गमओ निरवसेसो भाणियष्ठो, जाव-कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उकोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सहिं अब्भहियाओ, पवतियं कालं सेवेजा, एवतियं कालं गतिरागति करेजा २। ६३. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टितीएसु उववजेजा । अवसेसो परिमाणादीओ भवादेसपजवसाणो सो चेव पढमगमो यवो जाव-कालादेसेणं जहन्नेणं सागरो लेश्या . ५७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोनां शरीरो केटलों संघयणवाळां होय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओना शरीरो छए संघयण- संघयण. वाळा होय छे, ते आ प्रमाणे-१ वज्रऋषभनाराच संघयणवाळां, २ ऋषभनाराच संघयणवाळा, यावत्-६ छेवट्ठ संघयणवाळा. शरीरनी उंचाइ असंज्ञीनी पेठे जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हजार योजन होय छे. ५८. प्रि०] हे भगवन् ! तेओनां शरीरो कया संस्थानवाळां होय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओनां शरीरो छए संस्थानवाळा संस्थान. होय छे, ते आ प्रमाणे-१ समचतुरस्रसंस्थानवाळां, २ न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानवाळां अने यावत्-६ हुंडकसंस्थानवाळां. ५९. प्र०] हे भगवन् ! ते संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यंचोने केटली लेश्याओ होय छे ? [उ०] हे गौतम | तेओने छए लेश्याओ होय छे. ते आ प्रमाणे -१ कृष्णलेश्या, यावत्-शुक्ललेश्या. तेओने दृष्टि त्रणे होय छे, तथा त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए-विकल्प होय दृष्टि शान छे. योग त्रणे होय छे. बाकी बधुं असंज्ञीनी पेठे यावत्-अनुबंध सुधी जाणवू. पण विशेष ए छे के तेओने प्रथमना पांच समुद्घातो अने अज्ञान. होय छे. वेद त्रणे होय छे. बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवू. यावत्६०. [प्र०] हे भगवन् ! ते पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच थई रत्नप्रभामां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय, कायसंवेध. पुनः संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच थाय-एम केटला काळ सुधी यावत्-गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए जघन्यथी बे भव अने उत्कृष्टथी आठ भव सुधी, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्टथी चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ सेवे, यावत्-गमनागमन करे (१). ६१. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, जे जघन्य आयुषवाळा रत्नप्रभाना संख्याता० संशी नैरयिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! जघन्यथी अने उत्कृष्टथी सी पं०तियैचनी जघ० रलप्रभानारकमा पण दस हजार वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा यावत्-उत्पन्न थाय. उत्पत्ति. ६२. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वोक्त (सू० ५६-५८) प्रथम गमक परिमाण. सम्पूर्ण कहेवो, यावत्-कालादेश वडे जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्टथी चालीश हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटी-एटलो काळ सेवे, यावत्-गमनागन करे (२). ६३. ते (संख्याता वर्षना-आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभानैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो जघन्य सागरोपमस्थितिवाळा अने उत्कृष्ट पण सागरोपम स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. बाकी परिभाणथी मांडी भवादेश सुधीनो Jain Education international Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण. जघ० संज्ञी पं० तिर्थंचनी उत्कृष्ट ० ज० संशी पं० ६४. [प्र० ] हे भगवन् ! जघन्य स्थितिवाळो पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्येचयोनिक जीव, जे रत्नप्रभा तिर्यंचनी रत्नप्रभा पृथिवीमां नैरयिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला वर्षना आयुषवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी नारकमा उत्पत्ति. दस हजार वर्ष अने उत्कृष्टथी सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय. रक्षमभा नार कमां उत्पत्ति. १४८ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे - शतक २४. - उद्देशक १० वमं अंतोमुदुत्तमम्भद्दियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाहं चउहिं पुचकोडीहिं अम्महियाई, एवतियं कालं सेवेज्जा, जावकरेजा ३ । ६४. [प्र० ] जद्दन्नकालट्ठितीयपज्जत्तसंखे जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! ने भविए रयणप्पभपुढवि०जाव - उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीयसु उववज्जेज्जा ? [30] गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीयसु, उक्कोसेणं सागरोवमट्टितीपसु उववजेज्जा । ६५. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा० ? [30] अवसेसो सो चेव गमओ । नवरं इमाई अट्ठ णाणत्ताई -१ सरीरोगाहणा जन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं धणुहपुहुत्तं, २ लेस्साओ तिनि आदिलाओ, ३ णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी, ४ णो णाणी, दो अन्नाणा णियमं, ५ समुग्धाया आदिल्ला तिन्नि, ६ आउं, ७ अज्झवसाणा, ८ अणुबंधो य जदेव असन्नीणं । अवसेसं जहा पढमगमए जाव - कालादेसेणं जहनेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भद्दियावं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं अंतोमुहुत्तेर्हि अमहियाई, एवतियं कालं-जाव करेजा ४ । ६५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न धाय - इत्यादि बधी वक्तव्यता माटे प्रथम गमक कहेवो. पण आ आठ बाबत संबंधे विशेषता छे - १ तेओना शरीरंनी उंचाई जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्टथी धनुषपृथक्त्व - बेथी नव धनुष सुधीनी जाणवी. २ तेओने प्रथमनी त्रण लेश्याओ होय ३ तेओ सम्यग्दृष्टि के मिश्रदृष्टि नथी, पण मिध्यादृष्टि होय छे. ४ तेओ ज्ञानी नथी पण बे अज्ञानवाळा होय छे. ५ तेओने प्रथमना त्रण समुद्घातो होय छे. ६ आयुष. ७ अध्यवसाय अने ८ अनुबंध असंज्ञीनी पेठे जाणवा. बाकी बधुं प्रथम गमकनी पेठे जाणवु, यावत्-काळनी अपेक्षाए अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत् - गमनागमन करे ( 8 ). लघ० संज्ञी पं० तियं ६६. ते (जघन्य स्थितिवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) जघन्य काळनी स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकमां उत्पन्न थाय तो जघन्य चनी घरलप्रभा - अने उत्कृष्ट दस हजार वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय. हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न याय - इत्यादि संबंधे नारकमां उत्पत्ति. परिमाण. उत्कृष्ट० संज्ञी पं० तिर्यचनी उत्कृष्ट रसप्रभानारकमां उत्पत्ति, ६६. सो चेव जहनकालट्ठितीएस उववन्नो जहन्नेणं दसवाससहस्सट्ठितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीपसु उववज्जेज्जा । ते णं भंते !० एवं सो चेव चउत्थो गमओ निरवसेसो भाणियधो, जाव - कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई, एवतियं जाव - करेजा ५ । ६७. सो चेव उक्कोसकालट्ठितीपसु उववन्नो जहनेणं सागरोवमट्टितीपसु उववजेजा, उक्कोसेण वि सांगरोचमद्वितीयसु उववज्जेजा । ते णं भंते ० ! एवं सो चेव चउत्थो गमओ निरवसेसो भाणियचो, जाव - कालादेसेणं जहन्त्रेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तमन्महियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोबमाई चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई, एवतियं जाव - करेजा ६ ६८. [प्र०] उक्कोसकालट्ठितीयपज्जत्तसंखेजवासाउय० जाव - तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइपसु उववजित्तए से णं भंते! केवतिकालट्ठितीपसु उववज्जेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्सद्वितीयसु, उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीयसु उववज्जेजा । पूर्वोक्त प्रथम गमक अहिं जाणवो. यावत्-काळनी अपेक्षाए जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अधिक सागरोपम अने उत्कृष्टथी चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ सेवे, यावत्- गमनागमन करे (३). संपूर्ण चोथो गम कहेवो. यावत् - काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चालीस हजार वर्ष - एटलो काळ सेवे, यावत्- गमनागमन करे ( ५ ). अने उत्कृष्ट सागरोपम स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. कहेवो. यावत्-काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक यावत् - गमनागमन करे (६). ६७. ते ( जघन्य आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) उत्कृष्ट स्थितियाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय तो जघन्य हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उपजे - इत्यादि चोथो गम सम्पूर्ण सागरोपम अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम - एटलो काळ ६८. [प्र०] हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव, जे रत्नप्रभा पृथिवीमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला चर्षनी स्थितियाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्यथी दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्टथी एक सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४९ ६९. ते णं भंते ! जीवा० अवसेसो परिमाणादीओ भवाएसपजवसाणो एएसिं चेव पढमगमओ णेयवो, नवरं ठिती जहन्नेणं पुष्चकोडी, उक्कोसेण वि पुचकोडी । एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी दसहिं वाससहस्सोहं अब्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चाहिं पुचकोडीहिं अब्भहियाई, पवतियं कालं जाव-करेजा ७ ॥ ७०. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्ठितीएसु उववजेजा। ७१. ते णं भंते ! जीवा० सो चेव सत्तमो गमओ निरवसेसो. भाणियचो, जाव-भवादेसोत्ति । कालादेसणं जहनेणं पुवकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुष्चकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहि अब्भहिआओ, एवतियं जाव-करेजा ८। ७२. [प्र०] उक्कोसकालद्वितीयपजत्त० जाव-तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालद्वितीय० जाव-उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीपसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु, उक्लोसेण वि सागरोवमद्वितीपसु उववजेजा। ७३. ते णं भंते ! जीवा० सो चेव सत्तमगमओ निरवसेसो भाणियो, जाव-'भवादेसोपत्ति । कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं पुषकोडीए अब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चाहिं पुषकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं जावकरेजा ९ । एवं पते णव गमका उक्खेवनिक्खेवओ नवसु वि जहेव असन्नीणं ।। ७४. [प्र०] पजत्तसंखेजवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए सकरप्पभाए पुढवीए रइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइकालद्वितीएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु, उक्कोसेणं तिसागरोवमट्टितीपसु उववजेजा।। ७५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० [उ०] एवं जहेव रयणप्पभाए उववजंतंगस्स लद्धी सञ्चेव निरवसेसा भाणियधा जाव-'भवादेसो'त्ति । कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तमभहियं, उनोसेणं बारस सागरोवमाई ६९. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय इत्यादि-परिमाणथी मांडी भवादेश सुधीनी वक्तव्यता कहेवा माटे एओनो (संज्ञी पंचेन्द्रियोनो) प्रथम गम कहेवो. परन्तु विशेष ए के स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. बाकी बधुं पूर्ववत् समजवू. तथा काळनी अपेक्षाए जघन्यथी दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटी वर्ष अने उत्कृष्टथी चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (७). ७०. जो ते ( उत्कृष्ट संझी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) जघन्य स्थितिवाळा रत्नप्रभा पृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो ते जघन्य उत्कृष्ट संशी पं० तिवचनी जघन्य अने उत्कृष्ट दस हजार वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकमां उत्पन्न थाय. रसमभानारकमां ७१. हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि यावत्-भवादेश सुधी सातमो गम कहेवो. काळनी उत्पत्ति परिमाण. अपेक्षाए जघन्यथी दस हजार अधिक पूर्वकोटी वर्ष अने उत्कृष्टथी चालीश हजार अधिक चार पूर्वकोटी वर्ष-एटलो काळ यावत्गमनागमन करे (८). ७२. [प्र०] हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाळो पर्याप्त यावत्-तिर्यंचयोनिक, जे उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमा उत्पन्न उत्कृष्ट० संपी पं० थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! जघन्यथी अने उत्कृष्टथी एक सागरोपमनी तिय तिर्यचनी उत्कृष्ट रत्नप्रभानारकमा स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. ७३. हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि यावत्-भवादेश सुधी पूर्वे कहेल सातमो गम संपूर्ण कहेवो. यावत्-काळनी अपेक्षाए जघन्यथी पूर्वकोटी अधिक सागरोपम अने उत्कृष्टथी चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटला काळ सुधी यावत्-गमनागमन करे, (९). ए प्रमाणे ए नव गमो जाणवा. अने नवे गमोमां प्रारंभ अने उपसंहार असंज्ञीनी पेठे कहेवो. ७४. प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियेचयोनिक जीव, जे शर्कराप्रभा पृथिवीमां नैर- सही पं० तिथंचनी यिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला वर्षनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी एक सागरोप- शर्करामभामा उत्पत्ति मनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्टथी त्रण सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. ७५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय! [उ०] रत्नप्रभा नरकमां उत्पन्न थनार पर्याप्ता संज्ञी पंचेन्द्रिय पर तिर्यंचयोनिकनी समग्र वक्तव्यता अहिं भवादेश सुधी कहेवी. तथा काळनी अपेक्षाए अन्तर्मुहर्त अधिक सागरोपम अने उत्कृष्टयी चार उत्पत्ति परिमाणादि. -तगमगस्सघ। . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्याता० सं० पं० तिर्यचनो नरकमा उपपात. संधी तिर्यचनी जघ समर ना मारकमा उत्पत्ति. संशी पं० तिर्यचनो उत्कृष्ट० सप्तम नारकर्मा उपपात. १५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंपदे शतक २४. - उद्देशक १. I चहिं पुष्कोडीहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव-करेजा १ । एवं रयणप्पभपुढविगमसरिसा णव वि गमगा भाणियचा । नवरं सङ्घगमपसु चिनेरइयद्वितीसंबेहेसु सागरोबमा माणियष्ठा एवं जाव छेडुपुरवित्तिः । पयरं नेरइयटिई जा जत्य पुढषीष जनुकोसिया सा तेणं चैव कमेण चटगुणा कायचा वालुयप्यभार पुढवीए द्वाषीसं सागरोवमा चडगुणिया मर्पति, पंकभार चाली, धूमप्यमा अस ितमाए अट्ठासी संघयणाई चालुयप्यभाव पंचविहसंघयणी, तं जहा बयरोसहनारायसंघयणी, जाव- सीलिया संघवणी, पंकप्पमाप चउठिहसंघयणी, धूमप्यभाए तिविहसंघयणी, तमाप दुविध संघयणी, तं जहा- - वयरोसमनारायसंघयणी य १ उसमनारायणसंघयणी य २, सेसं तं चेव । ७६. [२०] पात्तखेजपासाउय० जाय-तिरिक्खजोगिए णं मंते ! जे भविष अहेरातमार पुढवीण नेर उपयजित्तर से गं भंते! केवतिकालद्वितीयसु उपयलेजा ? [४०] गोयमा! जहत्रेणं वायीसंसागरोयमद्वितीयसु फोसेणं तेत्तीसागरोपमद्वितीयसु उपचलेला । ७६. [ प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे सप्तम नरक पृथिवीना नैरयिकोमा समापन ययाने योग्य ते केटला वर्षनी स्थितिवाला नैरविकोमां उत्पन्न पाय [३०] हे गौतम! जघन्य बाबीश सागरोपमनी अने उत्कृष्ट तेत्री सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां उत्पन्न थाय ७७. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा० [अ०] एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमका लद्धी वि सच्चेव । णवरं वयरोसणारायसंघयणी । इत्थवेयगा न उववजंति, सेसं तं चैव, जाव- 'अणुबंधोत्ति । संवेहो भवादेसेणं जहनेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहनेणं बावीसं सागरोवमाहं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई, उक्कोसेणं छावा सागरोयमाई चढाई पुलकोडीहिं अम्महियाएं पवतियं जाप करेजा १ । - ७८. सो चेच जालद्वितीयसु उपभो० सचेव दत्तक्षया जाय 'भवादेखो'ति । कालादेसेणं घेणं कालादेसो वि तहेव, जाव - चउहिं पुष्वकोडीहिं अमहियाई, एवतियं जाव-करेजा २ । ७९. [०] सो चे उक्कोसकालद्वितीयसु उचचन्नो० सोच ली जाय - 'अणुबंधो 'ति । भयादेसेणं जहणं तिनि - पूर्वकोटी अधिक बार सागरोपम-एटलो काळ यावत् - गमनागमन करे ९. ए प्रमाणे रत्नप्रभा पृथिवीना गमकनी समान नवे गमक जाणया. पण विशेष एछे के बधा रामकोमा नैरयिकनी स्थिति अने संवेधने लिये "सागरोपमो' कहेना. अने एम यावत् छडी नरक पृथिवी सुधी जाणवुं परन्तु जे नरक पृथिवीमां जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति जेंटला काळनी होय ते स्थितिने तेज क्रमयी चारगुणी करवी. जेमके वालुकाप्रभा नरकपृथिवीमां सात सागरोपमनी स्थितिने चारगणी करता अठ्यावीश सागरोपम थाय. ते प्रमाणे पंकप्रभाम चालीश सागरोपम, धूमप्रभामां अडसठ, अने तमःप्रभामां अठ्याशी सागरोपम थाय छे. हवे संघयणने आश्रयी वालुकाप्रभामां वज्रऋषभनाराच, यावत्कीलिका ए पांच संघपण पंकप्रभामो प्रथमना चार संघवणवाळा, धूमप्रभागां प्रथमना त्रण संघपण अने तमः प्रभामां प्रथमना वे संघयणबाळा नारको उत्पन्न थाय छे. बाकी वधुं पूर्ववत् जाणवुं. ७७. [प्र०] हे भगवन्! ते जीवो एक समये केला उत्पन्न धाप इत्यादि प्रमाना नव गमकोनी अने बीजी अभी वक्तम्यता कवी. पण विशेष ए के खां वज्रऋषभनाराचसंघयणचाळा (पंचेन्द्रिय तिर्यंच) उपने छे, "श्रीवेदयाळा जीवो यां उत्पन्न बता नथी. बाकी बधुं यावत् - अनुबंध सुधी पूर्वोक्त कहेवुं. संवेध - जघन्यथी भवनी अपेक्षाए त्रिण भव अने उत्कृष्ट सात भव, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य वे अन्तर्मुहूर्त अधिक वावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक छास सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमना गमन करे (१). ७८. ते संधी पचेन्द्रिय तिर्यच ) जघन्य स्थितियाळा सप्तम नरक पृथिवीना नैरपिकोमा उत्पन्न पाय इत्यादि वक्तव्यता यावत् भवादेश सुची पूर्वे का प्रमाणे कहेवी जघन्यथी काळादेश पण तेज प्रकारे कहेमो यावत्-चार पूर्यकोटी अधिक ( छासठ सागरोपम ) - एटलो काळ यावत्- गमनागमन करे (२). ७९. से जीव उत्कृष्टस्थितिवाव्य नैरपिकोमा उत्पन्न पाय इत्यादि वक्तव्यता यावत् अनुबंध सुची पूर्व प्रमाणे कवी. १ छडीपुढ-ग-घ । २ की लिया-ग-ङ । * ७५ रनप्रभागां नैरविकनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष अने जाट स्थिति एक सागरोपमनी छे भने एराप्रभादि नरकामिनीने मिधे प्रण, सात, दस, सत्तर, बावीश, अने तेत्रीश सागरोपमनी क्रमशः उत्कृष्ट स्थिति छे. पूर्व पूर्वनी नरकपृथिवीमां जे उत्कृष्ट स्थिति होय ते पछी पछीनी नरकपृथिवीमां कनिष्ठ स्थिति जाणवी, माटे स्थिति अने संवेधमां सागरोपमो कहेवा - एम कहुं छे. ७७ स्त्रीओ छट्ठी नरक पृथिवी सुधी ज उपजे छे. टीका. + बे मत्स्यना भव अने एक नारकभव - एम जघन्य त्रण भव, अने उत्कृष्ट चार मत्स्यभव अने त्रण नारकभव-एम सात भव जाणवा. टीका. + सातमी नरकपृथिवीना जघन्य स्थितिवाळा नारकमां उत्कृष्ट ऋण वारज उपजे छे, जो एम न होय तो उपर कहेलो काळ घटी शके नहि. टीका. * Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. भवग्गणाई, उकोसेणं पंच भवग्गणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं तेतीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुत्तेहि अब्भहियाई, उनोसेणं छादि सागरोवमाइं तिहिं पुषकोडीहिं अभहियाई, एवतियं जाव-करेजा ३ । ८०. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ० सच्चेव रयणप्पभपुढविजहन्नकालद्वितीयवत्तश्चया भाणियधा, जाव'भवादेसोत्ति, नवरं पढमसंघयणं, णो इत्थिवेयगा । भवादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, उकोसेणं छावट्टि सागरोवमाई चउहि अंतोमहुतेहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव-करेजा । ८१. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो० एवं सो चेव चउत्थो गमओ निरवसेसो भाणियो, जाव'कालादेसो'त्ति ५। ८२. सो चेव उक्कोसकालद्वितीपसु उववन्नो० सञ्चेव लद्धी जाव-'अणुबंधोत्ति । भवादेसेणं जहनेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उकोसेणं पंच भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अभहियार, उकोसेणं छावदि सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं जाव-करेजा ६ । ८३. सो चेव अप्पणा उकोसकालट्टितीओ जहन्नेणं बावीससागरोवमट्रिइपसु, उकोसेणं तेत्तीससागरोवमट्रितीएसु उववजेजा। ८४. ते णं भंते !• अवसेसा सञ्चेव सत्तमपुढविपढमगमवत्तधया भाणियधा, जाव-भवादेसो'त्ति । नवरं ठिती अणुबंधो य जहनेणं पुषकोडी उक्कोसेण वि पुचकोडी, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं पुष्चकोडीहिं अब्भहियाई, उकोसेणं छावढि सागरोवमाई चाहिं पुचकोडीहिं अमहियाई, एवइयं जाव-करेजा ७ । ८५. सो चेव जहन्नकालद्वितीपसु उववन्नो सञ्चेव लद्धी संवेहो वि तहेव सत्तमगमगसरिसो ८। ८६. सो चेव उकोसकालद्वितीएसु उववन्नो० एस चेव लद्धी जाव-'अणुबंधोति । भवादेसेणं जहन्नेणं तिथि भवनी अपेक्षाए जघन्यथी त्रण भव अने उत्कृष्टथी पांच भव, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य बे अन्तर्मुहर्त अधिक तेत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्टथी त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (३). ८०. जो ते (संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) जीव पोते जघन्य स्थितिवाळो होय अने ते सप्तम नरक पृथिवीना नैरयिकोमा जप सभी पं० उत्पन्न थाय-ते संबंधे बधी वक्तव्यता रत्नप्रभामा उत्पन्न थनार जघन्यस्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रियनी वक्तव्यता प्रमाणे यावत्-भवादेश तियेचनी सप्तम नार का उत्पत्ति. सुधी कहेवी. परन्तु विशेष ए के ते (सप्तम नरक पृथिवीमा उत्पन्न थनार ) प्रथम संघयणवाळो होय छे, अने स्त्रीवेदी होतो नथी. भवनी अपेक्षाए जघन्य त्रण भव अने उत्कृष्ट सात भव, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य बे अन्तर्मुहर्त अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (४). ८१.ते (जघन्यस्थितिवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव ) जघन्यस्थितिवाळा सप्तम नरक पृथिवीमां नैरयिकपणे उत्पन्न जघ संशी पं० थाय तो ते संबंधे चोथो गम यावत्-कालादेश सुधी समग्र कहेवो (५). विवंचनो जघ सप्तम नरकमा ८२. ते (जघ० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) उत्कृष्टस्थितिवाळा सप्तम नरक पृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो ते संबंधे उपपात. यावत्-अनुबंध सुधी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. भवनी अपेक्षाए जघन्य त्रण भव, उत्कृष्ट पांच भव, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य बे जघ० सं०५०तियअन्तर्मुहूर्त अधिक तेत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण अन्तर्मुहूर्त अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (६). नरकमा उपपात. ८३. ते पोते उत्कृष्ट स्थितिवाळो (संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच) होय अने सप्तम नरक पृथिवीमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य बावीश उत्कृष्ट सं० पं० सागरोपमनी अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. तिर्यंचनी सप्तम नर कमा उत्पत्ति. ८४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि बधी वक्तव्यता सप्तम नरक पृथिवीना प्रथम गमकनी परिमाण. पेठे यावत्-भवादेश सुधी कहेवी. परन्तु विशेष ए के स्थिति अने अनुबंध जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी जाणवो. बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवू. संवेध काळनी अपेक्षाए जघन्य बे पूर्वकोटी अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (७).. ८५. जो ते (उत्कृष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच) जघन्यस्थितिवाळा सप्तम नरकपृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो ते संबंधे उत्कृष्ट० सं०६० तिर्यंचनी जघ० सप्तते ज वक्तव्यता अने संवेध सातमा गमकनी पेठे कहेवो (८). मनरकमा उत्पत्ति. ८६. [प्र०] जो ते उत्कृष्ट स्थितिवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक उत्कृष्टस्थितिवाळा सप्तम नरकपृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न उत्कृष्ट सं० ५० तिर्यचनी उ० सप्तम याय तो ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता यावत्-अनुबंध सुधी कहेवी. संवेध-भवनी अपेक्षाए जघन्य "त्रण भव अने उत्कृष्ट पांच भव नरकमा उत्पत्ति. 64 * बे मत्स्यना भव अने एक नारक भव-एम जघन्यथी त्रण भव अने उत्कृष्ट त्रण मत्स्यभव अने वे नारकं भव-एम पांच भव होय छे-टीका. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक १. भवग्गणाई, उक्कोसेणं पंच भवगहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहि पुष्चकोडीहिं अमहियाई, उकोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं पुत्वकोडीहिं अमहियाई, एवतियं कालं सेवेजा, जाव-करेजा । ८७. [प्र० जइ मणस्सेहिंतो उववजंति किं सन्निमणुस्सहिंतो उववजंति, असन्निमणुस्सहिंतो उववजति ? [उन गोयमा ! सन्निमणुस्सेहिंतो उववजंति, णो असन्नीमणुस्सेहिंतो उववजंति। ८८. [प्र०] जइ सन्निमणुस्सेहिंतो उववजन्ति किं संखेजवासाउयसन्निमणुस्सेहितो उववजंति, असंखेज० जावउववजंति ? [उ०] गोयमा! संखेजवासाउयसन्निमणुस्सेहितो उववजंति, णो असंखेजवासाउय० जाव-उववजन्ति । ८९. [प्र०] जइ संखेजवासाउय० जाव-उववजन्ति किं पजत्तसंखेजवासाउय०, अपजत्तसंखेजवासाउय० १ [३०] गोयमा! पजत्तसंखेजवासाउय०, नो अपजत्तसंखेजवासाउय० जाव-उववजंति । ९०. [प्र०] पजत्तसंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! कति पुढवीसु उववजेज्जा ? [उ०] गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववजेजा, तं जहा-रयणप्पभाए, जाव-अहेसत्तमाए। ९१. [प्र०] पजत्तसंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालटिइएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीएसु उववजेजा। ९२. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक्को या दो वा तिन्नि था, उकोसेणं संखेजा उववजंति । संघयणा छ, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहुत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई । एवं सेसं जहा सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव-भवादेसो'त्ति । नवरं चत्तारि णाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए । छ समुग्धाया केवलि तथा काळनी अपेक्षाए जघन्यथी बे पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (९). संघी मनुष्योनो. ८७. [प्र०] जो ते (नारक ) मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शं संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय के असंज्ञी मनुष्योथी नरकमा उपपात. आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. संख्यात संशी म- ८८. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी नुष्योनी नारकपणे उत्पन्न थाय के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता वर्षना आयुषवाळा उत्पत्ति.. संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. पर्याप्ता मनुष्योनी ८९. [प्र०] जो ते संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा नारकपणे उत्पत्ति. संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय के अपर्याप्ता संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय! [उ०] हे गौतम! ते पर्याप्ता संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण अपर्याप्ता संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. उपपात. ९०. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो पर्याप्त संज्ञी मनुष्य जे नैरयिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते हे भगवन् ! केटली नरकपृथिवीओमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते साते नरक पृथिवीओमां उत्पन्न थाय. ते आ प्रमाणे-१ रत्नप्रभा, यावत्-७ अधःसप्तम नरकपृथिवीमां. १संख्याता मनु ९१. [३०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो पर्याप्त संज्ञी मनुष्य, जे रत्नप्रभाना नैरयिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते प्यनो रत्नभानारक' हे भगवन् ! केटला काळनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! ते जघन्यथी दस हजार वर्षना आयुषवाळा अने पणे उपपात. "" उत्कृष्टथी एक सागरोपमना आयुषवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. परिमाण. ९२. [प्र०] हे भगवन् ! तेओ (संख्यात वर्षना आयुषवाळा मनुष्यो) एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ.] हे गौतम ! जघन्यथी एक बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उत्पन्न थाय छे. तेओने छए संघयण होय छे. शरीरनी उंचाई जघन्य बेथी नव आंगळ प्रमाण अने उत्कृष्ट पांचसो धनुष प्रमाण होय छे. बाकी बधु संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकोनी पेठे यावत्-भवादेश सुधी कहे. पण विशेष एके मनुष्योने चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. केवलिसमुद्घात सिवाय छ समुद्घात होय छे. स्थिति अने ९२* अहिं चूर्णिकार कहे छे के, जे मनुष्य अवधि, मनःपर्यव अने आहारक शरीर प्राप्त करी त्यांथी परी नरकमा उपजे छे' ते मनुष्यने चार ज्ञान भने त्रण अज्ञान विकल्पे होय छे. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. Eat | ठिती अणुबंधो य जहन्त्रेणं मासपुहुत्तं, उक्कोसेणं पुचकोडी, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहनेणं दसवाससहस्साई माखपुत्तमम्भदियाई, उकोलेनं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुष्ठकोडीहिं बम्महिवाएं श्वतियं जाव-करेखा १ । ९३. सो चेव जहन्नकालट्ठितीपसु उववन्नो-एस चैव वत्तवया । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साईं मासपुहुत्तममहियाएं, उफोसेणं चत्तारि पुढकोडीओो पत्तालीसार वाससदस्सदि अम्मदियाओ एवतियं० २ । ९४. सो चेव उक्कोसकालट्ठितीपसु उववन्नो-एस चैव वत्तवया । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोषमं मासपुपुसमन्मंहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुषकोडीहिं अब्भहियाई - एवतियं जाव - करेजा ३ । १५३ ९५. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितीओ जाओ एस चेव वत्तवया । नवरं इमाई पंच नाणत्ताई -१ सरीरोगाद्दणा जहणं अंगुल, उफोसेण वि अंगुलपुहतं, २ तिनि नाणा तिनि अन्नाणाई भवणार, ३ पंच समुन्याया आदिला, ४ ठिती ५ अणुबंधो व जहनेणं मासपुडुतं, उक्कोसेण वि मासपुडुतं, सेसं तं चेव, जाव-भवादेसो ति । कालादेसेणं जणं दसवाससहस्सा मासपुडुत्तमम्भदियाई, उकोसेणं चत्तारि सागरोपमाई चढद्दि मासपुदतेदिं अम्महियाई एवतियं जाव-करेला ४ । ९६. सो चेव जद्दन्नकालट्ठितीपसु उववन्नो-एस चेव वृत्तवया चउत्थगमगसरिसा णेयवा । नवरं कालादेसेणं जहनेणं दसवाससहस्साइं मासपुहुत्तमम्भद्दियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साइं चउहिं मासपुडुत्तेहिं अब्भहियाएंपतियं जाच करेजा ५ । 1 ९७. सो चे उकोसकालद्वितीय उबबनो एस चैव गमगो नवरं कलादेसेणं उदद्वेणं सागरोषमं मासपुदतमम्मदियं, उफोसेणं चचारि सागरोवमाहं चउदं मासपुडुचेदि अम्मदिया जाय करेजा ६ । अनुबंध जघन्यथी "मासयक वे मासभी नवमास सुची अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनो दोष छे. बाकी बधुं पूर्ववत् जाण. संवेध-काळनी अपेक्षाए जघन्यथी मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत्गमनागमन करे, (१). ९२. जो ते मनुष्य जघन्य काळनी स्थितिवाळा रक्तप्रभा नैरविकोमां उत्पन्न धाय तो तेने उपर कहेली सर्व कल्पता कवी. पण विशेष एछे के काळनी अपेक्षाए जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक चालीश हजार वर्ष एक काळ यावत् गमनागमन करे (२). ९४. जो ते मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमां विशेष ए के काळादेशची मासपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम अने यावत्-गमनागमन करे (३). उत्पन्न थाय तो तेने ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ ९५. जो ते मनुष्य पोते जघन्य कालनी स्थितियाळा होय अने रजप्रभा नैरयिकोमा उत्पन्न चाय तो तेने पण एज वक्तव्यता कहेवी. तेमां आ पांच बाबतनी विशेषता छे - १ तेओना शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट अंगुलपृथक्त्व होय छे, २ तेओने प्रेण ज्ञान अने प्रण अज्ञान भजनाए होय छे, ३ प्रथमना पांच समुद्घातो होय छे, ४-५ स्थिति अने अनुबंध जघन्य भने उत्कृष्ट मासप्रथाय होय छे. बाकी मधुं यावत्-भवादेश सुधी पूर्व प्रमाणे जाणवुं काटनी अपेक्षार जघन्यथी मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत्- गमनागमन करे ( ४ ) . एज ९७. हवे तेज (जघन्य स्थितिवाळ) मनुष्य उत्कृष्ट कालनी स्थितिवाव्य रजप्रभा नैरथिकोमा उत्पन्न चाय तो तेने (पूर्वोक्त) गमक कहेवो. पण विशेष ए के काळादेश वडे जघन्य मासपृथक्त्व अधिक सागरोपम अने उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत् - गमनागमन करे (६). *५५ भासनी अंदरना आयुषवाको मनुष्य नरकगतिमां जतो नवी द्विवी नरकगतियां अनार मनुष्य जपन्य आयुष मास होय छे. inter. + मनुष्य थईने नरकगतिमां जाय तो एक नरकपृथिवीमां चार ज वार नारकपणे उपजे छे अने पछीथी अवश्य तिर्यंच थाय छे, माटे मनुष्यभव संबंधी चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम संवेध जाणवो. टीका. २० भ० सू० ९६. जो से ( जघन्य स्थितिवाळो ) मनुष्य जघन्य काळनी स्थितिवाव्य प्रभा नैरवियोगां उत्पन्न थाय तो तेने पूर्वोक ५० घोषा गम्फना समान वक्तम्यता कहेवी. पण विशेष एके काळी अपेक्षा जघन्य माधव अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चालीस हजार वर्ष एटलो काळ यावद गमनागमन करे (५). जब रमप्रभाम उत्पत्ति. २ से० मनुष्यनी जघ० रसप्रमानार कर्मा उत्पत्ति. ३ सं० मनुष्यनी उत्कृष्ट० रक्षप्रभा भैरवकर्मा उत्प ४ जघ० सं० पं० मनुष्यनी रणप्रभामां उत्पत्ति. ६ जय० मनुष्यनी उत्कृष्ट रणमभामां उत्पत्ति. / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उदेशक १. . ९८. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ, सो चेव पढमगमओ णेयधो। नवरं सरीरोगाणा जहणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई, ठिती जहन्नेणं पुषकोडी, उक्कोसेण वि पुष्वकोडी, एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहन्नेणं पुष्चकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहि पुषकोडीहिं अमहियाई-एषतियं कालं जाव-करेजा ७ । __ ९९. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, सव सत्तमगमगवत्तधया । नवरं कालादेसणं जहनेणं पुधकोसी दसहि वाससहस्सेहि अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुषकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अम्भहियामो-पवतियं कालं जाव-करेजा ८। १००. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, सच्चेव सत्तमगमगत्तवया । नवरं कालादेसेणं जहनेणं सागरोवमं पुषकोडीए अब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुषकोडीहिं अमहियाई-एवतियं कालं जाव-करेजा ९ । १०१. प्र० पजत्तसंखेजवासाउयसभिमणुस्से णं भंते । जे भविए सकरप्पभाए. पुढवीए ने अपसु जाव-उववजितर से णं भंते ! केवति. जाव-उववजेजा [उ.] गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमद्वितीपसु. उकोसेणं तिसागरोवमद्वितीपसु उववजेजा। १०२. [प्र०] ते णं भंते !० [उ०] सो चेव रयणप्पभपुढविगमओ णेयधो। नवरं सरीरोगाहणा जहनेणं रयणिपुरणं, उकोसेणं पंचधणुसयाई । ठिती जहन्नेणं 'वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं पुषकोडी । एवं अणुबंधो वि । सेसं तं चेव, जाव-भवादेसो'त्ति । कालादेसेणं जहन्नेणं सागरीवमं, वासपुहत्तमन्महियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चउहि पुषकोडीहिं मम्महियाई-पवतियं जाव-करेजा । एवं एसा ओहिए तिसु गमएसु मण्सस्स लद्धी। नाणत्तं-नेरदयट्टिती कालादेसेणं संवेहं च जाणेजा १-२-३ । १०३. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएम एस चेव लद्धी । नवरं सरीरोगाहणा ७ उत्कृष्ट मनुष्यनी ९८. जो ते मनुष्य पोते उत्कृष्ट स्थितिवाळो होय अने रनप्रभा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो ते संबंधे प्रथम गमक रखमभामा उत्पत्ति कहेवो. पण विशेष ए के शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी होय छे. स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी अने अनुबंध पण ते प्रमाणे जाणवो. काळनी अपेक्षाए जघन्य पूर्वकोटी अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक चार . सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (७). ८ उत्कृष्ट मनुष्यनी ९९. जो ते ज मनुष्य जघन्यकाळनी स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोर्मा उत्पन्न थाय तो ते संबंधे ए ज सातमा गमकनी मषकरवप्रमामा उत्पत्ति वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के काळनी अपेक्षाए जघन्य दश हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट चालीश हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटी-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (८). उत्कृष्ट मनुष्यनी १००. जो ते उत्कृष्टस्थितिवाळो मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिवाळा रत्नप्रभा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो तेने सातमा गमकनी वक्तसस्कृष्ट० रमप्रभामा उत्पत्ति. व्यता कहेवी. पण विशेष ए छे के काळनी अपेक्षाए जघन्य पूर्वकोटी अधिक सागरोपम अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरो. पम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (९). मनुष्यनी शर्कराम- १०१. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो पर्याप्त संज्ञी मनुष्य जे शर्कराप्रभामा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! भामा उत्पत्ति केटला वर्षना आयुषवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम | जघन्यथी एक सागरोपमनी स्थितिवाळा भने उत्कृष्टथी त्रण सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. परिमाण.. १०२. [प्र०] हे भगवन्.! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] अहिं रत्नप्रभा नैरयिकनो गमक कहेवो. परन्तु विशेष ए के शरीरनी अवगाहना जघन्यथी रनिपृथक्त्व-बेथी नव हाथ अने उत्कृष्ट पांचसो धनुष होय छे. स्थिति जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी होय छे. एवी रीते अनुबंध पण जाणवो. बाकी बधुं ते ज पूर्वोक्त यावत्-भवादेश सुधी कहे. काळनी अपेक्षाए जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक बार सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे *औधिक त्रणे गमकमा मनुष्योनी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए छे के नैरयिकनी स्थिति अने काळादेश वडे तेनो संवेध जाणवो १-२-३. पन्य मनुष्य नी १०३. [प्र०] ते संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य पोते जघन्य काळनी स्थितिवाळो होय भने ते शर्कराप्रभामा उत्पन्न थाय तो ते संबंधे शर्कराप्रमामा उत्पति. १.१*१ औधिक औधिकमा २ औधिक जघन्य स्थितिवाळामा भने ३ औधिक उत्कृष्टस्थितिवाळामा-ए त्रणे गममा मनुष्यनी वकव्यता कहेवी. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५५ जहणं रयणिपुरतं, उक्कोसेण वि रयणिपुहुतं, ठिती जहन्नेणं वासपुहुत्तं, उकोसेण वि वासपुहुत्तं, एवं अणुबंधो वि । सेसं जहा मोहियाणं । संवेहो सो उप जिऊण भाणियचो ४-५-६ । १०४. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्टितीओ जाओ। तस्स वि तिसु वि गमएसु इमं णाण-सरीरोगाणा जहणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई, ठिती जहन्नेणं पुष्पकोडी, उबोसेण वि पुषकोडी, एवं अणुबंधो वि।सेसं जहा पढमगमए । नवरं नेरइयठिई य कायसेवेहं च जाणेजा ७-८-९ । एवं जाव-छ?पुढवी । नवरं तच्चाए माढवेत्ता एकेकं संघयणं परिहायति जद्देव तिरिषखजोणियाणं । कालादेसो वि तहेव, नवरं मणुस्सट्टिती भाणियधा। १०५. [प्र० पजत्तसंख्नेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे मविए अहेसत्तमाए पुढवि (वीए) नेरइएसु उपवजित्तए से गं भंते । केवतिकालद्वितीएसु उववजेजा। उ०] गोयमा। जहन्नेणं बावीसंसागरोवमठितीएसु, उकोसेणं तेत्तीसंसागरोधमट्टितीपसु उववजेजा। १०६. [प्र०] ते गं मंते । जीवा एगसमएणं० [उ.] अवसेसो सो चेव सकरप्पभापुढविगमओ यष्यो। नवरं पढमं संघयणं, इत्थिवेयगा न उववजंति, सेसं तं चेव, जाव-'अणुबंधो'त्ति । भवादेसेणं दोभवग्गहणाई । कालादेसेणं जहनेणं बावीसं सागरोवमाइं वासपुहुत्तमम्भहियाई, उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुषकोडीए अध्भहियाई-पतियं जापकरेजा है। १०७. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उघवन्नो-एस चेव वत्तवया । नवरं नेरायद्विति संवेहं च जाणेज्जा २ । १०८. सो चेव उक्कोसकालट्ठितीएसु उववन्नो-एस चेव वत्तष्चया। नवरं संवेहं च जाणेजा ३ । १०९. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएस एस चेव यत्तष्चया । नवरं सरी त्रणे गमकमा ए पूर्वोक्त वक्तव्यता कद्देवी. पण विशेष ए के शरीरनी उंचाई जघन्य अने उत्कृष्ट *बेथी नव हाथ सुधीनी होय छे, अने आयुष जघन्य तथा उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व होय छे. अनुबंध पण ए ज प्रमाणे जाणवो. बाकी बधुं सामान्य गमकनी पेठे कहे,. अने सर्व संवेध पण विचारीने कहेवो. (४-५-६.) १०४. [प्र०] जो ते मनुष्य पोते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळो होय अने ते शर्कराप्रभामा नैरयिक थाय तो ते संबंधे त्रणे गमकोमा ५ उत्कष्ट मनुष्पनी आ प्रमाणे विशेषता छे-१ शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी होय छे, २ स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी । शर्कराप्रभामा उत्पति होय छे, ३ अनुबंध पण ए ज प्रमाणे जाणवो. बाकी बधुं प्रथम गमकनी पेठे समजवू. पण विशेष ए के नैरयिकनी स्थिति अने कायसंवेध विचारीने कहेवो (७-८-९). ए प्रमाणे यावत्-छट्ठी नरक पृथिवी सुधी जाणवू. पण विशेष ए छे के त्रीजी नरकथी मांडी तिर्यंचयोनिकनी पेठे एक एक संघयण घटाडवू, अने काळादेश पण तेमज कहेवो. पण विशेष ए छे के अहिं मनुष्योनी स्थिति कहेवी. १०५. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य जे सप्तम नरक पृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न १ संख्याता० सं० यवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला काळनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! ते जघन्यथी बावीश सागरो मनुष्यनी सप्तम नरपमनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपमनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा उत्पन्न थाय. १०६. [प्र०) हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] बाकीनी बधी वक्तव्यता शर्कराप्रभा पृथिवीना गम- परिमाण. कनी पेठे जाणवी. परन्तुं विशेष ए छे के सप्तम नरकमां प्रथम संघयणवाळा उपजे छे, अने स्त्रीवेदवाळा नथी उपजता, बाकी बधुं यावत्-अनुबंध सुधी पूर्ववत् जाणवू. भवादेशथी बे भव, अने काळादेशथी जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक बावीश सागरोपम तथा उत्कृष्टथी पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम--एटलो काळ यावत् गमनागमन करे (१). १०७. जो ते ज मनुष्य जघन्यकाळनी स्थितिवाळा सप्तम नरकपृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो तेने पूर्वोक्त २ मनुष्यनी जघन्य वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए छे के अहिं नैरयिकनी स्थिति तथा संवेध विचारीने कहेवो (२). . सप्तम नरखमा उत्पत्ति १०८. जो ते मनुष्य उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा सप्तम नरकमां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय तो तेने पण ए ज वक्तव्यता कहेवी. ३ मनुष्यनी उस्कृष्ट पण विशेष ए छे के संवेध विचारीने कहेवो (३). सप्तम नरकमा १०९. जो ते संज्ञी मनुष्य पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय अने सप्तम पृथिवीना नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो तेने ये जघन्य मनुष्यनी सप्तम नरकमा उत्पत्ति. , 'सम्वो' क-ग-ङ इत्येतस्पुस्तकत्रये नास्ति । १.३°आ कथनथी एम जणाय छे के बे हाथथी ओछी शरीरनी उंचाइवाळा अने बे वरसथी ओछा आयुषबाळा मनुष्यो यीजी नरकपृथिवीर्मा उत्पन यता नथी-टीका. उत्पत्ति. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट० मनुष्यनी सप्तम नरकम उत्पत्ति. असुरकुमारमां उपपात. असंज्ञी पं० तिर्यचनी असुरकुमारमां उत्पत्ति परिमाण. १५६ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंप्रहे शतक २४. - उद्देशक ९. रोगाणा जणं रवभिपुडुचं, उक्कोसेण वि रवणिपुडुचं ठिती जइनेणं वासपुडुचं, उझोसेण वि वास एवं अणुबंधो वि । संवेहो उवजुंजिऊण भाणियष्ठो ४-५-६ ॥ ११०. सो चेव अपणा उक्कोसकालट्ठितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमपसु एस चैव वतवया । नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई । ठिती जहन्नेणं पुचकोडी, उकोसेण वि पुत्रक्कोडी, एवं अणुबंधो वि । णवसु वि पतेसुगमपसु नेरइयद्विती (ति) संवेद्दं च जाणेजा । सवत्थ भवग्गहणाई दोन्नि, जाव णवमगमए । कालादेसेणं अणं तेत्तीस सागरोपमाई पुत्रकोडीए अम्मदियाई, डकोरोग चि तेत्तीस सागरोचमाई पुचकोडीय अम्मदिया-पवतियं का सेवेजा, एवतियं कालं गतिरागति करेखा ७-८-९ । 'सेवं भंते! सेवं भंते! सि जाय-विहरति । चवीसतिमे सए पढमो उद्देसो समतो । गमकोमा ए ज वक्तम्पता कहेंगी. पण विशेष ए के शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट बेधी नव हाथ सुधी तथा स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. तथा संवेध ध्यान राखीने कहेवो. (४-५-६ ). ११०. जो ते संक्षी मनुष्य पोते उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळो होष अने सप्तम नरक पृथिवीमां उत्पन्न धाय तो तेने त्रणे गमकर्मा एज पूर्वोक्त वक्तव्यता कवी. परन्तु विशेष एछे के शरीरनी उंचाई जघन्य अने उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी होय छे, स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. तथा उपर कहेला नवे गमोमां नैरयिकनी स्थिति अने संवेध विचारीने कहेवो. सर्वत्र भय जाणया यावत्-नवमा गमवर्मा काळनी अपेक्षाए जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक तेजीश सागरोपम-एटलो काळ सेने, यावत्-गमनागमन करे (७-८ - ९ ). 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे.' - एम कही यावत् विहरे छे. चोवीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. - बीओ उदेसो । २. [प्र० ] रायगि जाय एवं पयासी असुरकुमारा णं भंते! कथोहिंतो उबबजंति किं नेरहपहिंतो उपपति तिरि०म० उचचनंति ? [४०] गोयमाणो मेरपदितो उचचजंति, तिरिफ्खजोणिएहिंतो उचपति, मनुसेद्दितो उववजंति, नो देवेहिंतो उववजंति । एवं जद्देव नेरइयउद्देसए । जाव " २. [ प्र० ] पजत्तअसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तप से णं भंते! केवतिकाद्वितीय उचचखेखा [४०] गोयमा ! अद्वेणं दसवाससदस्सद्वितीय, कोरोणं पछिओवमस्स असंखेवर भागट्टितीरसु उववज्जेजा । 1 ३. [प्र०] ते नं भंते जीवा० १ [30] एवं रयणप्यभागमगसरिसा जय विगमा भाषिया । नवरं जाहे अप्पणा जनकालती भवति ताई अवसाणा सत्था, णो अप्पसत्था तिसु वि गमपसु अवसेसं तं चैव ९ । द्वितीय उद्देशक. - १. [ प्र० ] राजगृह नगरमां यावत् - [भगवान् गौतम ] आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन्! असुरकुमारो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे रोओ नैरयिकोची आची उत्पन्न थाय छे, तिर्यबोधी, मनुष्योधी के देवोधी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गौतम! तेभो नैरयिकोथी के देवोथी आवी उत्पन्न थता नथी, परन्तु तिर्यंचोथी अने मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे बधुं यावत्-नैरयिकोदेशकनी पेठे जाणवुं. यावत् २. [प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त असंही पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोगिक जीव जे असुरकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केला कानी स्थितिवाळा असुरकुमारोमां उत्पन्न थाय ? [ उ०] हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट *पल्योपमना असंख्यातमा भागनी पितियाळा असुरकुमारोमा उत्पन्न याय २. [प्र० ] हे भगवन् । ते जीवो एक समये केला उत्पन्न घाय [३०] ९ प्रमाणे रतप्रभाना गमकनी पेठे नव गमको आ कवा. पण विशेष ए के यारे ते पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय त्यारे तेना ( वचला) त्रणे गमकोमां अध्यवसायो प्रशस्त होय छे, पण अप्रशस्त होता नथी. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवुं ९. * अहं पत्थोपमनी असंख्यातमो भाग पूर्वकोटीरूप यो कारण के मूर्तिमतिर्वच उत्कृष्ठ आयुष पूर्वकोटिप्रमाण होय छे, अने से पोताना आयुषना समान देवायुष बांधे छे, अधिक बांधतो नथी. टीका / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५७ .प्र.1 जा सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजति कि संखेजवासाउयसन्नि-जाव उववजंति. असंखेजवासाउय० जाव-उववजंति ? [उ०] गोयमा ! संखेजवासाउय० जाव-उववजंति, असंखेजवासाउय० जावन उववजंति । ५. प्र०] असंखेजवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए से गं भंते ! केवइकालद्वितीएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं तिपलिओवमद्वितीपसु उववजेजा। ६. प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेजा उववजंति । वयरोसभनारायसंघयणी । ओगाहणा जहन्नेणं धणुपहत्तं, उक्कोसेणं छ गाउयाई । समचउरससंठागसंठिया पन्नत्ता । चत्तारि लेस्साओ आदिल्लाओ । णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । णो णाणी, अन्नाणी, नियम दुअन्नाणी-मतिअन्नाणी सुयअन्नाणी य । जोगो तिविहो वि । उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सन्नाओ। चत्तारि कसाया । पंच इंदिया । तिन्नि समुग्धाया आदिल्लगा। समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । वेदणा दुविहा विसायावेयगा असायावेयगा । वेदो दुविहो वि-इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि, णो नपुंसगवेदगा। ठिती जहन्नेणं साइरेगा पुषकोडी, उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई । अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहेव ठिती । कायसंवेहो भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुषकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसणं छप्पलिओवमाईएवतियं जाव-करेजा १। ७. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो-एस चेव वत्तवया । नवरं असुरकुमारद्विती (ति) संवेहं च जाणेजा २। ८. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो जहन्नेणं तिपलिओवमट्टितीएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्टितीएसु उववजेजा-एस चेव वत्तधया । नवरं ठिती से जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई, उक्कोसेण वि तिन्नि पलिओवमाई । एवं अणुबंधो वि। कालादेसेणं जहन्नेणं छप्पलिओवमाइं, उक्कोसेण वि छप्पलिओवमाई-एवतियं० सेसं तं चेव३ । ओवमद्वितीपसु उप ४. [प्र०] जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शु संख्यात वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयो- संधी पं. तिचनी निकोथी आवी उत्पन्न थाय के असंख्यात वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! उत्पत्ति संख्यातवर्षना आयुषवाळा अने असंख्यात वर्षना आयुषवाळा बन्ने प्रकारना तियंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय. ५. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्या तवर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे असुरकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते असं० संशी पं. केटला काळनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य दस हजारवर्पनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट त्रण पल्यो । तिवचनी अमुरकुमा रमा उत्पत्ति. पमनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमा उत्पन्न थाय. ६. प्र०] हे भगवन् ! ते (असंख्यात० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचो) एक समये केटला उत्पन्न थाय-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जघ- . परिमाण. न्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय. तेओ ( असं० पंचेन्द्रिय तिर्यचो) वज्रऋषभनाराचसंघयणवाळा होय छे. तेओना शरीरनी उंचाई जघन्य धनुषपृथक्त्व अने उत्कृष्ट छ गाउनी होय छे. तेओ समचतुरस्र संस्थानवाळा होय छे, सम्यग्दृष्टि के मिश्रदृष्टि होता नथी, पण मिथ्यादृष्टि होय छे. ज्ञानी नथी पण अज्ञानी छे अने तेने अवश्य मतिअज्ञान अने श्रुत अज्ञान ए बे अज्ञान होय छे. योग त्रणे होय छे. उपयोग साकार अने अनाकार बन्ने प्रकारनो होय छे. चार संज्ञाओ, चार कषायो अने पांच इन्द्रियो होय छे. समुद्घात प्रथमना त्रणे होय छे. समुद्घात करीने पण मरे छे अने कर्या विना पण मरे छे. वेदना सुखरूप अने दुःखरूप-एम बन्ने प्रकारनी होय छे. पुरुषवेद अने स्त्रीवेद-एम बे वेद होय छे, पण नपुंसक वेद होतो नथी. स्थिति जघन्यथी कांइक अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय छे. अध्यवसायो प्रशस्त अने अप्रशस्त बन्ने प्रकारना होय छे. स्थितिनी पेठे अनुबंध पण जाणवो. कायसंवेध-भवनी अपेक्षाए बे भव अने काळनी अपेक्षाए जघन्यथी कंइक अधिक पूर्वकोटी सहित दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट छ पल्योपमएटलो काळ यावत्- गमनागमन करे (१). ७. जो ते ( असंख्यात वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच ) जघन्यकाळनी स्थितिवाळा असुरकुमारमा उत्पन्न थाय तो तेने तिर्येचनी जप एज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण अहिं असुरकुमारनी स्थिति अने संवेध विचारीने कहेवो (२). अमरकुमारमा ८. जो ते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा असुरकुमारमा उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा असुरकु- ३ उत्पत्ति मारोमा उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए छे के तेनी स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय तिषचनी उत्कृष्ट अमरकुमारमा । छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. काळनी अपेक्षाए जघन्य अने उत्कृष्ट छ पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे, बाकी बधुं . पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू (३). Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व० संख्यात ही पं० तिर्यचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति. परिमाणादि. संख्यात पं० श्वनी जघ सुरकुमारम उत्पत्ति. संख्यात० पं० चिनी उत्कृष्ट सुरकुमारम उत्पत्ति. ० असंख्यात तेर्यचनी जव० सुरकुमार म उत्पत्ति. ट असंख्यात चिनी उत्कृष्ट घरकुमारम उत्पत्ति. त० संधी तिर्य असुर कुमारमां उत्पत्ति. श्रीरामचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे ९. सो चेव अप्पणा जद्दन्नकालट्ठितीओ जाओ, जद्दनेणं दसवाससद्दस्सट्ठितीपसु, उफोसेणं सातिरेगपुचकोडी आउपसु पपजा । १५८ । १०. ते पं मंते १० अवसेसं तं चेत्र जाब- 'भयादेसो ति नयरं बोगाइणा जणं धणुपुटुचं, कोसेणं सातिरेगं धणुसहस्सं । ठिती जहन्नेणं सातिरेगा पुचकोडी, उक्कोसेण वि सातिरेगा पुचकोडी । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहपेणं सातिरेगा पुषकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अम्महिया, उक्कोसेणं सातिरेगाओ दो पुषकोडीओ-पपतियं० ४ । 1 ११. सो चेव जनकालट्ठितीपसु उववन्नो, एस चेव वत्तष्वया । नवरं असुरकुमारट्ठिदं संवेदं च जाणेजा ५ । १२. सो चेव उकोसकालद्वितीपसु उचचनो, जत्रेणं सातिरेगपुधकोडिभाउसु, उफोसेन वि सातिरेगपुधकोसीबाडपशु उपचलेखा, सेसं तं चेत्र नवरं कालादेसेणं जणं सातिरेगाम दो पुचकोडीमो, उफोषेण वि खातिरेगामी दो पुछफोडीमो एवतियं कालं सेपेक्षा ६ । 1 १३. सो चे अप्पणा उशोसकालद्वितीयो जाओ, सो चेव पदमगमगो भाणियों नवरं ठिती दूद्वेणं तिनि पलियोमाई, उक्कोसेण वि तिनि पलिओवमाई । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जद्दन्नेणं तिनि पलिभोवमाहं दसाई वाससहस्लोई अष्भद्दिया, उक्कोसेणं छ पलिभोवमाइं - एवतियं ० ७ । वर्षनी स्थितिवाळा असुरकुमारमा उत्पन्न थाय. बाकी बधुं कांक अधिक वे पूर्वकोटी वर्ष एसो काळ यावत् १३. हवे ते पोते टाळनी स्थिति बनी असुरकुमा: के स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय छे, ८० असंख्यात मां उत्पत्ति. शतक २४-२१. १४. सो चे कालद्वतीयसु उपयचो, एस चेद धत्तश्या नवरं असुरकुमारद्विति संवेदं च जाणिला ८। १५. सो उफोसफालद्वितीपसु उपयचो, जहणं तिपलिभोषम० उफोसेन तिपलिभोषम० एस बेच पतया । नवरं कालादेसेणं जनेणं छप्पलिभवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिओ माई - एवतियं ० ९ । " १६. [प्र० ] जर संखेज्जवासाउयसन्निपंचिंदिय० जाव - उववज्जंति किं जलचर०, एवं जाव-पत्तसंखेज्जवासाउयस ९. जो से (असंख्यात वर्चना आयुषयाको संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्थचयोनिक) पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो दोय अने असुरकुमा रमी उत्पन्न पाप तो से जघन्य दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट कांक अधिक पूर्यकोटी वर्षना आयुषचाळा असुरकुमारमा उत्पन्न चाय. १०. [प्र० ] हे भगवन् । ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न याय ! [उ०] बाकी बधुं यावत्-भवादेश सुधी तेज प्रमाणे जाणवुं. विशेष ए छे के शरीरनी उंचाई जघन्यथी बेथी * नव धनुष सुधी अने उत्कृष्ट कोइक अधिक एक हजार धनुष होय छे. स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट कोइक अधिक पूर्वकोटी वर्धनी होय . ए प्रमाणे अनुबंध पण जागयो. कालनी अपेक्षाए जघन्यथी कोइक अधिक पूर्वकोटी सहित दस हजार वर्ष भने उत्कृष्ट फांइक अधिक वे पूर्वकोटी वर्ष-एटलो काळ या गमनागमन करे (४). ११. जो ते जयम्यकाळनी स्थितिवाज्य अनुरकुमारम उत्पन्न धाय तो तेने एव कुमारनी स्थिति भने संबंध विचारीने कद्देवो (५). वच्चम्यता कहेगी. पण विशेष ए के अहिं असुर १२. वे जो तेज जीव उष्टकानी स्थितियाळा असुरकुमारम उत्पन्न धाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट कोइक अधिक पूर्यकोटी पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. पण विशेष एके काळादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट गमनागमन करे (६). अधिक ऋण पत्योपम अने उकृष्ट छ पत्थोपम पटटो काळ यापद गमनागमन करे (७). होय भने असुरकुमारमा उत्पन्न घाय तो तेने प्रथम गमक कहेवो. पण विशेष ए तथा अनुबंध पण एज प्रमाणे जाणवो. काळादेशथी जघन्य दस हजार वर्ष १४. जो ते ( उत्कृष्ट स्थितिवाळो पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) जघन्य काळनी स्थितिवाळा असुरकुमारमां उत्पन्न थाय तो तेने एज वक्तव्यता कवी. पण विशेष ए के अहिं असुरकुमारनी स्थिति अने संवेध विचारीने कहेवो (८). १५. जो ते ( उत्कृष्ट स्थितिवाळो पंचेन्द्रिय तिर्यंच) उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा असुरकुमारमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट ऋण पत्योपमनी स्थितियाळा असुरकुमारमां उत्पन्न धाय इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कवी. पण विशेष एके काळी अपेक्षार जघन्य भने उत्कृष्ट छ पल्योपम - पटलो काळ यावत् - गमनागमन करे ९. १० १६. [प्र० ] हे भगवन्! जो ते असुरकुमारो संख्याता वर्षंना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोची आवीने उत्पन्न चाय तो जलचरोधी आयी उत्पन्न याय- इलादि यावत् हि भगवन् । पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुपवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक, जे - पक्षीओनुं उत्कृष्ट शरीर धनुषपृथक्त्व प्रमाण होय छे तेने आश्रयी आ कथन छे. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५९ त्रिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते । जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तप से णं भंते । केवहयकालट्ठितीएस उववज्जेचा १ [30] गोयमा ! जद्दनेणं दसवाससद्दस्सट्ठितीएसु, उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमट्ठितीएसु उववजेज्जा । १७. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा एगसमपणं ० १ [अ०] एवं पतेसिं रयणप्पभपुढविगमगसरिसा नव गमगा णेयचा । नवरं जाहे अप्पणा जनकालट्ठिइओ भवर, ताहे तिसु वि गमपसु इमं णाणत्तं चत्तारि छेस्साओ, अज्झवसाणा पलत्था, नो मप्पसत्था, सेसं तं चेव । संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायशो ९ । १८. [प्र० ] मणुसेद्दितो उवधजंति किं सन्निमणुस्सेर्द्दितो० असन्निमणुस्सेर्हितो ० १ [३०] गोयमा ! लक्षिमणुसेर्द्दितो०, नो असन्निमणुस्सेर्द्दितो उववजंति । १९. [०] ज सन्निमस्सेहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाज्यसन्निमणुस्सेहितो उघवजंति, असंखे नवासा यस्तचिमणुस्सेहिंतो उववजंति ? [30] गोयमा । संखेज्जवासाउय० जाव-उववज्जंति, असंखेज्जवासाउय० जाव- उबवजंति । I २०. [१०] असंनेज्जवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उवषजित्तर से णं भंते! केवतिकालंद्वितीयसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहस्रेणं दसवाससइस्सट्ठितीपसु, उक्कोस्सेणं तिपलिभोवमद्वितीयसु उववज्ञेखा । एवं असंखेज्जवासाउयतिरिक्खजोणियसरिसा आदिल्ला तिन्नि गमगा नेयचा । नवरं सरीरोगाद्दणा पढमबितिपसु गमपसु जद्दणं सातिरेगाई पंचधणुसयाई, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई, सेसं तं चेव । तईयगमे ओगाहणा जहस्रेणं तिनि गाउयाएं, उद्योसेण वि तिनि गाउयाई, सेसं जद्देव तिरिक्खजोणियाणं ३ । २१. सो चेव अप्पणा जनकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि जहन्नकालट्ठितियतिरिषखजोणिय सरिसा तिनि गमना भाणियचा । नवरं सरीरोगाहणा तिसु षि गमपसु जहनेणं साइरेगाएं पंचधणुसयाएं, उक्कोसेण वि सातिरेगाएं पंचधणुसबाएं, सेसं तं चेच ६ । असुरकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् । केटला काळनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट कांइक अधिक एक सागरोपमनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमां उत्पन्न थाय'. १७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो (संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो ) एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] पूर्वे कक्षा प्रमाणे रक्षप्रभापृथिवीना समान नवे गमको अहिं जाणषा. पण विशेष ए के ज्यारे पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय त्यारे वच्चेना त्रणे गमोमा आ मैद जाणवो-तेने चार लेश्याओ होय छे, अध्यवसायो प्रशस्त होय छे, पण अप्रशस्त होता नथी. बाकी बधुं पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. * संवेध फांक अधिक सागरोपमधी करवो. १८. [प्र० ] जो ते असुरकुमारो मनुष्योथी आवी उत्पन्न धाय तो शुं संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न याय के असंज्ञी मनुष्योषी मनुष्योनी नहरकु आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम । तेओ संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. मारोमा उत्पत्ति. १९. [प्र० ] हे भगवन् | जो तेओ संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी संवी मनुष्योनो उत्पन्न थाय के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम । तेओ बने प्रकारना आयुषवाळा असरकुमारमा प मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय छे. पात. परिमाण. २०. [प्र० ] हे भगवन् ! असंख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी मनुष्य, जे असुरकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी पसंख्यात मनुष्यस्थितिवाळा असुरकुमारमां उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम । ते जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमा उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे असंख्यात वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचयोनिकोनी पेठे प्रथमना ऋण गमको जाणवा. पण विशेष ए के शरीरनी उंचाई प्रथम अने द्वितीय गमकमां कांइक अधिक पांचसो धनुष अने उत्कृष्टथी त्रण गाउनी होय छे. बाकी बधुं पूर्वोक्त कहेतुं श्रीजा गमकमा शरीरनी उंचाई जघन्य अने उत्कृष्ट पण त्रण गाउनी जाणवी. बाकी बधुं तिर्यचयोनिकनी पेठे समजवुं. १-२-३. १७ * असुरकुमार निकायनुं आयुष उत्कृष्ट कांइक अधिक सागरोपम होवाथी तेवढे कायसंवेध करवो. २१. जो ते पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय तो तेने जघन्यकाळनी स्थितिवाळा तिर्यंचयोनिकोनी पेठे त्रणे गमो कहेवा वघन्य संक्षी मनुपण विशेष ए के अहिं त्रणे गममा शरीरनी उंचाई जघन्य अने उत्कृष्ट कांइक अधिक पांचसो धनुष जाणवी. बाकी बधुं पूर्वोक्त कहेतुंनी भरमा(४-५-६ ). नी असुरकुमारोमा उत्पत्ति. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट संची मनु ध्वनी असुरकुमारमा उत्पत्ति संख्यात संची मनुब्यनी असुरकुमारमा उत्पत्ति. परिमाणादि. नागकुमारमा उप पात. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे २२. सो वेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितीओ जाओ, तस्स वि ते चैव पच्छिल्लुगा तिनि गमगा भाणियथा । नवरं सरीदोगाणा तिसु विगमपसु जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिन्नि गाउयाई, अवसेसं तं चेव ९ । १६० शतक २४. - . - उद्देशक ३ – ११० २३. [प्र०] जद्द संखेजवासाउयसन्निमणुस्सेहिंतो उववजंति किं पजत्तसंखेजवासाउय०, अपजत्तसंखेजवासाउय० १ [30] गोयमा ! पज्जत्तसंखेज ०, णो अपजत्तसंखेज्ज० । २४. [प्र०] पज्जत्तसंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तर से णं भंते ! केषतिकालद्वितीयसु उववजेज्जा ? [30] गोयमा ! जहनेणं दसवाससहस्सट्ठितीएसु, उक्कोसेणं साइरेगसागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा । २५. [प्र० ] ते णं भंते ! जीवा० ? [30] एवं जहेव पतेसिं रयणप्पभाष उववज्रमाणाणं णव गमगा तहेव इह वि णव गमगा भाणि यवा । वरं संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायचो, सेसं तं चेव ९ । 'सेवं भंते । सेवं ते' ! ति । चवीस तिमे सए बीओ उद्देसो समत्तो । २२. जो ते पोते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळो होय तो ते संबंधे पण पूर्वोक्त छेल्ला त्रण गमो कहेवा. पण विशेष ए के त्रणे गमोम शरीरनुं प्रमाण जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण गाउनुं होय छे. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवुं ( ७–८–९). २३. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते असुरकुमारो संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा के अपर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण अपर्याप्ता संज्ञी मनुष्योयी आवी उत्पन्न न था. २४. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी मनुष्य, जे असुरकुमारोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमा उत्पन्न थाय ? [ उ० ] हे गौतम! ते जघन्य दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट कांइक अधिक सागरोपमनी स्थितिवाळा असुरकुमारोमां उत्पन्न याय. २५. [प्र० ] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ? [ उ० ] ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभामां उत्पन्न थनार मनुष्योना नक गमो कह्या ते अहिं पण नव गमो कहेवा. पण विशेष ए के अहीं संबेध पूर्वकोटी सहित सागरोपमनो कहेवो. बाकी बधुं पूर्वोक्त जाणवु. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चोवीशमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. आइआ उस । तिरि० १. [ प्र० ] रायगिहे जाव एवं वयासी नागकुमारा णं भंते! कओहिंतो उववज्रंति, किं नेरइपर्हितो उववज्जंति, मणु०, देवहितो उववजंति ? [अ०] गोयमा ! णो णेरहपहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणि०, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, नो देवेहिंतो उववजंति । २. [ प्र० ] जर तिरिक्ख ० १ [अ०] एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तवया तहा एतेसि पि जाव - 'असन्निति' । ३-११ उद्देशको. १. [प्र०] राजगृहमां [ भगवान् गौतम !] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के - हे भगवन् ! नागकुमारो क्यांथी आवीने उत्पन्न याय छे- शुं नैरयिकोथी, तिर्यंचोथी, मनुष्योथी के देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिकोथी के देवोथी आवी उत्पन्न थता नथी, पण तिर्यंचोयी अने मनुष्योयी आवी उत्पन्न थाय छे.. २. जो तेओ तिर्यंचोथी आवी उत्पन्न थाय छे- इत्यादि जेम असुरकुमारोनी वक्तव्यता कही तेम एओनी पण वक्तव्यता यावत्असंज्ञी सुधी कहेवी.. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३. [३०] जइ सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो० किं संखेजवासाउय०, असंखेजवासाउय? [उ०] गोयमा! संखेजवासाउय०, असंखेजवासाउय. जाव-उववजंति। ४.प्र०] असंखेजवासाउयसनिपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए नागकुमारेसु उववजित्तए से गंभंते ! केवतिकालट्ठिति ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सट्ठितिएसु, उक्कोसेणं देसूणदुपलिओवमट्टितीएसु उववजेजा। ५. [प्र.] ते णं भंते ! जीवा० [उ०] अवसेसो सो चेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स गमगो भाणियधो जाव'भवादेसो'त्ति । कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुष्धकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्लोसेणं देसूणाई पंच पलिओवमाई-एवतियं जाव-करेजा १ । ६. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तवया । नवरं णागकुमारद्धिति संवेहं च जाणेजा २। ७. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, तस्स वि एस चेव वत्तवया । नवरं ठिती जहन्नेणं देसूणाई दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, सेसं तं चेव जाव-भवादेसो'त्ति । कालादेसेणं जहन्नेणं देसूणाई चत्तारि पलिओवमाई, उकोसेणं देसूणाई पंच पलिओवमाई-एवतियं कालं. ३। ८. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स जहअकालट्ठितियस्स तहेव निरवसेसं ६। ९. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जातो, तस्स वि तहेव तिन्नि गमगा जहा असुरकुमारेसु उववजमाणस्स । नवरं नागकुमारट्ठिति संवेहं च जाणेजा सेसं तं चेव ७-८-९ ।। १०. [प्र०] जइ संखेजवासाउयसन्निपंचिंदिय० जाव-कि पजत्तसंखेजवासाउय०, अपज्जत्तसंखेज. ? [उ०] गोयमा ! पजत्तसंखेजवासाउय०, णो अपजत्तसंखेजवासाउय० । ३. [प्र०) जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयो- मंशी तिर्यचनी नागकुमारमा निकोथी आवी उत्पन्न थाय के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! उत्पत्ति तेओ बन्ने प्रकारना तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय. ४. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्यात वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक, जे नागकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा नागकुमारोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्यथी दश हजार वर्षनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्टयी काइक न्यून'बे पल्पोपमनी स्थितिवाळा नागकुमार देवोमा उत्पन्न थाय. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि असुरकुमारमा उत्पन्न थनार असंख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचोनो यावत्-भवादेश सुधी समग्र पाठ कहेवो. काळनी अपेक्षाए जघन्य काइक अधिक पूर्वकोटी सहित दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट कांइक न्यून पांच पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (१). ६. जो ते जीव जघन्यकाळनी स्थितिवाळा नागकुमारोमा उत्पन्न थाय तो तेने एज · वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के अहिं असंख्यात संशी पं० तिर्यचनी जघमाग नागकुमारोनी स्थिति अने संवेध जाणवो (२). कुमारमा उत्पत्ति७. जो ते जीव उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नागकुमारमा उत्पन्न थाय तो तेने पण ए ज वक्तव्यता कहेवी, पण विशेष ए के असंख्यात० संशी पं० तिर्यचनी उत्कृष्ट जधन्य स्थिति कांइक न्यून बे पल्योपमनी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय छे. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत्-भवादेश सुधी जाणवू. काळादेशथी जघन्य कांइक न्यून चार पल्योपम अने उत्कृष्ट काइक न्यून पांच पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमना उत्पत्ति. गमन करे (३). ८. जो ते जीव पोते जघन्य काळनी स्थितिवाळो' होय तो तेने पण त्रणे गमकोमा असुरकुमारोमा उत्पन्न थनार जघन्य काळनी जपन्यः असंख्यात. संशी पं० तिर्यंचनी स्थितिवाळा (असंख्यातवर्षना आयुषवाळा तिथंचनी) पेठे बधु कहेQ (४-५-६). नागकुमारमांउत्पत्ति ९. जो ते पोते उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळो होय तो तेने पण त्रणे गमको असुरकुमारोमा उत्पन्न यता तिर्यंचयोनिकनी पेठे कहेवा. उत्कृष्ट असंख्यात पं. तिथंचनी नागपण विशेष ए के अहीं नागकुमारोनी स्थिति अने संवेध कहेवो. बाकी बधु तेज प्रमाणे कहे, (७-८-९). कुमारमा उत्पत्ति. १०. [प्र०] जो ते नागकुमारो संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं तेओ प० संख्यातः संघी - पं० तियेचनी नागपर्याप्ता के अपर्याप्ता संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ पर्याप्ता मारमा उत्पत्ति. संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी तिर्यचयोनिकथी आवी उत्पन्न घाय, पण अपर्याप्ताथी आवी न उत्पन्न थाय. २. भ. सू. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक ३. ११. [प्र०] पजत्तसंखेजवासाउय. जाव-जे भविए णागकुमारेसु उववजित्तए से जं भंते । केवतिकालद्वितीएस उववज्जेजा? [उ०] जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं । एवं जहेव असुरफुमारेसु उववजमाणस्स बत्तवया तहेव इह वि णवसु वि गमएसु । णवरं णागकुमारट्टिति संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चैव ९। १२. [प्र०] जइ मणुस्सहिंतो उववजंति किं सन्निमणु०, असन्निमणु० १ [उ०] गोयमा ! सन्निमणु०, णो असचिमणुस्सेहितो०, जहा असुरकुमारेसु उववजमाणस्स जाव १३. [प्र०] असंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं मंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववजित्तए से गं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववजह ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई, एवं जहेव असंखेजबासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं नागकुमारेसु आदिल्ला तिनि गमगा तहेव इमस्स वि । नवरं पढमबितिएसु गमपसु सरीरोगाहणा जहन्नेणं सातिरेगाई पंचधणुसयाई, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई, तहयगमे ओगाहणा जहन्नेणं दमणाई दो गाउयाई, उकोसेणं तिनि गाउयाई, सेसं तं चेव ३।। - १४. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स तिसु वि गमएसु जहा तस्स चेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स तहेव निरवसेसं ६। १५. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ, तस्स तिसु वि गमएसु जहा तस्स चेष उकोसकालद्वितियस्स असुरकुमारेसु उववजमाणस्स, नवरं णागकुमारहिति संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव ९ । १६. [प्र०] जा संनेजवासाउयसनिमणु० किं पजत्तसंखेज०, अपजत्तसंस्खेज०१ [उ०] गोयमा ! पजत्तसंखेजा, णो अपजत्तसंखेज । ११. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त संख्याता वर्षना भायुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक, जे नागकुमारमा उत्पन्न यवाने योग्य छे, ते केटला काळनी स्थितिवाळा नागकुमारमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट काइक न्यून ये पल्योपमनी स्थितिवाळा नागकुमारोमा उत्पन्न थाय-इत्यादि जेम असुरकुमारोमा उत्पन्न थता संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी वक्तव्यता कही छे तेम अहिं नवे गमकोमा कहेवी. पण विशेष ए के अहीं नागकुमारनी स्थिति अने संवेध जाणवो. बाकी बधुं तेज प्रमाणे समजवं. संही मनुष्यनी. नागकुमारमा उत्पत्ति. १२. [प्र०] जो तेओ मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय के असंज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय-इत्यादि जेम असुरकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य मनुष्योनी वक्तव्यता कही छे तेम कहेवी. यावत् वसंख्यवर्षीय संशी १३. [प्र०] हे भगवन् । असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्य जे नागकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला काळनी 4. मनुष्यनी स्थितिवाळा नागकुमारोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट कांइक न्यून बे पल्योपमनी स्थितिनागकुमारमा उत्पत्ति. वाळा नागकुमारोमा उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे बधुं असंख्यात वर्षना आयुषवाळा तिर्यचयोनिकोना नागकुमारोमा उत्पन्न थवा संबंधे आदिना त्रण गमको कह्या छे ते अहिं पण कहेवा. पण विशेष ए के प्रथम अने बीजा गमकमां शरीरनुं प्रमाण जघन्य काइक अधिक पांचसो धनुष अने उत्कृष्ट त्रण गाउनुं छे. त्रीजा गमकमा शरीरनी उंचाई जघन्य कांइक न्यून बे गाउ अने उत्कृष्ट प्रण गाउनी छे. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू (३). नाव मसंख्यात १४. जो ते पोते जघन्य काळनी स्थितिवाळो होय तो तेने पण त्रणे गमकोमा असुरकुमारमा उत्पन्न थवाने योग्य असंख्याता. सं० मनुष्यनी नाग- वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्यनी पेठे बधी हकीकत कहेवी (६). कुमारमा उत्पत्ति. उत्कृष्ट असंख्यात. १५. जो ते पोते उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळो होय तो ते संबंधे पण त्रणे गमकोमा असुरकुमारोमा उत्पन्न थवाने योग्य उत्कृष्ट मनुष्यनी नागकु- 'काळनी स्थितिवाळा संज्ञी असंख्यातवर्षीय मनुष्यनी पेठे जाणवू. पण विशेष ए के अहीं नागकुमारोनी स्थिति अने संवेध जाणवो, बाकी मारमा उत्पत्ति. बधुं तेज प्रमाणे समजवु (९). 1. मासा संख्यातवर्षीय १६. [प्र०] जो तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्ता संख्याता वर्षना आयुषवाळा सेवी मनुष्योनी संज्ञी मनुष्योथी के अपर्याप्ता संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ पर्याप्ता संख्याता 'नागकुमारमा उत्पत्ति वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न याय, पण अपर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी न उत्पन्न घाय. . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७. [प्र० पजत्तसंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववजित्तए से णं भंते 1 केवति। उ० गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सट्ठितिएसु, उक्कोसेणं देसूणदोपलिओवमद्वितिएसु उववजंति, एवं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स सच्चेव लद्धी निरवसेसा नवसु गमएसु, णवरं णागकुमारद्विति संवेहं च जाणेज्जा । 'सेवं भंते । सेवं भंते।' ति। ___ चउवीसतिमे सए ततिओ उद्देसो समत्तो । १७. [प्र०] हे भगवन् । पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्य जे नागकुमारोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा नागकुमारोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! ते कनिष्ठ दस हजार वर्षनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट काइक न्यून ने पल्योपमनी स्थितिवाळा नागकुमारोमां उत्पन्न थाय-इत्यादि जेम असुरकुमारोमां उत्पन्न थवाने योग्य मनुष्यनी वक्तव्यता कही छे तेम अहीं पण नवे गमकोमा बधी कहेवी. पण विशेष ए के अहींआं नागकुमारनी स्थिति अने संवेध जाणवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोवीशमां शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. चउत्थयाई उद्देसा । अवसेसा सुवन्नकुमाराई जाव-थणियकुमारा एए अट्ठ वि उद्देसगा जहेव नागकुमारा तहेव निरवसेसा भाणियवा । 'सेवं भंते! सेवं भंते ति । चउवीसतिमे सते चउत्थयाई उद्देसा समत्ता । ४-११ उद्देशको. सुवर्णकुमारथी मांडी स्तनितकुमार सुधीना बाकीना आठे उद्देशको नागकुमारोनी पेठे कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चोवीशमा शतकमा ४-११ उद्देशको समाप्त. दुवालसमो उद्देसो। १. [प्र०] पुढविवाइया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति, किं नेरइपहिंतो उववजंति, तिरिक्व०, मणुस्से०, देवेहितो उवषजंति ? [उ०] गोयमा ! णो णेरइएहितो उववजंति, तिरि०, मणु, देवेहितो वि उववजंति । . २. [प्र०] जइ तिरिक्खजोणिएहितो० किं एगिदियतिरिक्खजोणिए० एवं जहा वकंतीए उववाओ, जाव-[प्र०] जह बायरपुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति किं पजत्तवाद० जाव-उववजंति, अपजत्तपादरपुढवि० [उ०] गोयमा! पजत्तवाद्रपुढवि०, अपजत्तबादरपुढवि० जाव-उववजंति । बारमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे-शुं नैरयिकोथी, तिर्यंचोथी, मनुष्योथी के देवोथी आवी प्रथिवीकायिकोनो उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थता नथी, पण तिर्यंच, मनुष्य अने देवोथी आवी उत्पन्न थाय छे. उपपात. २. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ [पृथिवीकायिको] तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय, तो शुं एकेन्द्रिय तियंचयोनिकोथी तियेचोनी पृथिवीआवी उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेम *व्युत्क्रान्तिपदमां कडं छे ते प्रमाणे अहिं उपपात कहेवो, यावत्-'हे भगवन् । कायि जो तेओ बादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकथी के अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकथी आवी यावत्-उत्पन्न थाय छे ! हे गौतम! तेओ पर्याप्त अने अपर्याप्त बन्ने प्रकारना बादर पृथिवीकायिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे'. १* हे गौतम | एकेन्द्रिय तिर्यचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय छे, यावत्-पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आवी उत्पन थाय छे-इत्यादि संबंधे जुओ प्रज्ञा• पद ६ प० २१२-१ . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक १२. ३. [प्र०] पुढविक्काइए णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीपसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतीमुहुत्तट्ठितिएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सट्टितीएसु उववजेजा। ४.[३०] ते णं भंते ! जीवा एगसमपणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववजंति । छेवट्रसंघयणी। सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्ल असंखेजइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजहभागं । मसूरचंदसंठिया । चत्तारि लेस्साओ । णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । णो णाणी, अन्नाणी, दो.अन्नाणा नियमं । णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी। उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सन्नाओ । चत्तारि कसाया। एगे फासिदिए पन्नत्ते । तिन्नि समुग्घाया। वेदणा दुविहा । णो इत्थिवेदगा, णो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा । ठितीए जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । अज्झवसाणा पसत्था वि, अपसत्था वि । अणुबंधो जहा ठिती। ५. प्र० से भंते ! पुढविक्काइए पुणरवि 'पुढविकाइए'त्ति केवतियं कालं सेवेजा, केवतियं कालं गतिरागति करेजा [उ०] गोयमा! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेजाइं भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं असंखेजं कालं-एवतियं जाव-करेजा १ । ६. सो चेव जहन्नकाद्वितीएसु उववन्नो जहन्नेणं अंतोमुहुत्तठितीएसु, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तट्टितीएसु-एवं चेव वत्तच्वया निरवसेसा २। ७. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं बावीसवाससहस्सद्वितीपसु, उक्कोसेण वि बावीसवाससहस्सद्वितीएसु, सेसं तं चेव, जाव-'अणुबंधो'त्ति । णवरं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजिजा । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावत्तरिंवाससहस्सुत्तरं सयसहस्सं-एवतियं कालं-जाव-करेजा ३ । ३. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] गौतम ! ते जघन्य अन्तर्मुहर्तनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायि कमां उत्पन्न थाय. परिमाणादि. ४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ समये समये निरंतर असंख्याता उत्पन्न थाय. तेओ छेवट्ठ संघयणवाळा होय छे. तेओर्नु शरीर जघन्य अने उत्कृष्ट पण अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाण होय छे. तेओर्नु संस्थान-आकार मसुरनी दाळ जेवू छे. तेओने चार लेश्याओ होय छे. ते सम्यग्दृष्टि के मिश्रदृष्टि नथी होता, पण मिध्यादृष्टि होय छे. ज्ञानी नथी होता पण अज्ञानी होय छे, तेओने अवश्य मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान ए बे अज्ञान होय छे. तेओ मनोयोगी के वचनयोगी नथी, पण काययोगी छे. उपयोग साकार अने निराकार बन्ने प्रकारनो छे, चार संज्ञाओ अने चारे कषायो होय छे. इन्द्रियोमा एक स्पर्शेन्द्रिय होय छे. आदिना त्रण समुद्घातो अने वेदना बन्ने प्रकारनी होय छे. तेओने स्त्रीवेद के पुरुषवेद होतो नथी, पण नपुंसकवेद होय छे. स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्तनी अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्षनी होय छे. अध्यवसायो प्रशस्त अने अप्रशस्त बन्ने प्रकारनां होय छे. अनुबंध स्थिति प्रमाणे जाणवो. कायसंवेध. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते पृथिवीकायिक मरीने पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थाय, पुनः पृथिवीकायिक थाय-एम केटला काळ सुधी सेवे-केटला काळ सुधी गमनागमन करे ? [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट संख्याता भवो, काळनी अपेक्षाए जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट असंख्याता वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (१). पृथिवीकायिकनी ६. जो ते पृथिवीकायिक जघन्यकाळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्महर्तनी जघ० पृथिवीका- स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे बधी वक्तव्यता कहेवी (२). यिकमा उत्पत्ति. पृथिवीकायिकनी . ७. जो ते पृथिवीकायिक उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट बावीश हजार उत्कृष्ट पृथिवीका- वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थाय. बाकी बधुं अनुबंध सुधी पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. पण विशेष ए के जघन्य एक, बे यिकमा उत्पत्ति. के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव तथा काळनी अपेक्षाएं जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक लाखने छोतेर हजार ( १७६०००) वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (३). * जे संवेधा बे पक्षमांना कोइ पण पक्षमा उत्कृष्ट स्थिति होय त्यां वधारेमा वधारे आठ भवनी कायस्थिति होय छे भने ते सिवाय पीजे असंख्यात भवो जाणवा. तेथी बावीश हजारने आठे गुणता एक लाख अने छोतेर हजार वर्ष थाय छे. . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ देश १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत मगवतीसूत्र. १६५ ८. सो चैव अप्यणा जनकालद्वितीयो जाओ, सो वेद पढमिहओ गमभो भागियो। नवरे सेस्साओ विधि । डिती जणं अंतोमु, उद्योसेण वि तोमुडुतं । अप्यसत्या अावसाणा अणुबंधो जदा डिसी सेसं तं चैव ४ । ९. सो चेव जहन्नकालट्ठितिपसु उववन्नो स चैव चउत्थगमगवत्तचया भाणियष्ठा ५ । 1 I १०. सो चेच कोसकालद्वितीयसु उववन्नो, एस चे बताया नवरं जणं एक या दो या तिथि था, उफोसेणं संजा वा संजाया जाय-भवादेसेणं जदभेषं दो भवग्गहणारं, उक्कोसेणं भट्ट भवाहणाई, कालादेसेणं जणं बाबीसंवाससहस्साई अंतोमुडुत्तमम्भहियाएं, उद्योसेणं अट्ठासी वाससहस्वारं पठदि अंतोमुडुतेहि अमहियाई - एवतियं ० ६ । १२. सो चे अपणा कोसकालद्वितियो जाओ एवं सहयगमगसरिसो निरवसेसो भागियो । नवरं अपणा से ठिई जहणं पापी वाससहरसाई, उमोसेण वि बाबीसं बाससदस्साई ७ । 1 १२. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो जहनेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त । एवं जहा सत्तमगमगो जाव - 'भवादेसो' । कालादेसेणं जहनेणं बावीसं वासससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भंहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीइं वाससहस्साएं चअिंतमुदि अमहियाई पचतियं० ८ । १२. सो बेव उकोसकालद्वितीय उपयोजनेणं बाबीसंवाससहस्सद्वितीयसु, उफोसेण वि बावीसवासदस्स द्वितीयसु, एस चेव सत्तमगमगवत्तधयां भाणियष्वा जाव - 'भवादेसो 'ति । कालादेसेणं जहन्नेणं चोयालीसं वाससद्दस्साईं, उकोसेणं छात्तरिवाससहरसुत्तरं सदसदस्एवतियं ९ । - १४. [प्र०] जइ आउक्काइयएर्गिदियतिरिषखजोणिएहिंतो उववजंति किं सुहुमआउ०, बादरआउ० । [ उ०] एवं चउयो भेदो भाजियो जदा पुढविकाइयाणं । १५. [२०] आकार णं भंते जे भविष पुढविकाइन्स डववजित्तर से भंते! केवहकालद्वितीय उपखेखा ? [४०] गोयमा ! जहणं अंतोमुडुत्तद्वितीय, उक्कोसेणं यादीसंयाससद्दस्सद्वितिपसु उपचखेखा । एवं पुढविकाइयग ८. जो ते पृथिवीकायिक पोते जघन्य काळनी स्थितिवाळो होथ अने पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो ते संबंधे पूर्वोक्त प्रथम गमक कहेवो. विशेष ए के अहीं त्रण लेश्याओ होय छे. स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तनी होय छे. अध्यवसायो अप्रशस्त होय छे. अनुबंध स्थिति समान जाणवो. बाकी बधुं पूर्वे कथा प्रमाणे कहेतुं ( ४ ). ९. जो ते पृथिवीकायिक जघन्य काळनी स्थितियाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो तेने पूर्वोक्त चोथा गमकमां कहेली वक्तव्यत जघन्य० पृथिवीकाबिकनी जघन्य पृथि कहेवी (५). वीकायिकमांउत्पत्ति. जघन्य० पृथिवीका उत्कृष्ट पृथिवीकायिकमां १०. जो ते (जघन्य स्थितिवाळो ) पृथिवीकायिक उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो ते संबंधे ए वक्तव्यता कची. पण विशेष ए के जघन्य एक, ये अने प्रण अने उत्कृष्ट संख्याता के असंख्याता उत्पन्न पाय यावत् भयादेशची गिनी जघन्य बे भय अने उत्कृष्टयी आठ मय तया काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक यावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार अन्तमुहूर्त अधिक अव्याशी हजार वर्ष - एटलो काळ यावत्- गमनागमन करे (६). उत्पत्ति. जघन्य० पृथिवीका विकनी पृथिवीका विक्रमां उत्पत्ति. ११. जो ते पोते उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळो होय तो तेने ए प्रमाणे त्रीजा गमकना समान आखो गमक कहेवो. पण विशेष ए के उत्कृष्ट० पृथिवीकाविकनी पृथिवीका तेनी पोतानी स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट बालीश हजार वर्षंनी होय छे (७). यिकमां उत्पत्ति. १२. जो ते जीव जघन्यकाळनी स्थितियाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय, तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तनी स्थितिवा- उत्कृष्ट० पृथिवीकाकामां उत्पन्न थाय-ए प्रमाणे अहीं सातमा गमकनी वक्तव्यता यावत्-भवादेश सुधी कहेवी. कालादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बापी हजार वर्ष अने उष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक अन्याशी हजार वर्ष एटलो काळ यावत् गमनागमन करे (८) विकनी जधन्य० पृथिवी कायिक्रमां उत्पत्ति. १३. जो ते जीव उत्कृष्ट काळनी स्थिति पृथिवीयायिकमां उत्पन्न थाय तो जधन्य अने उत्कृष्ट बाधीश हजार वर्षंनी स्थिति पृथ्वीकार्य बाळा पृथिवीत्रायिकमां उत्पन्न याय. अहीं बधी सप्तम गमकनी वकम्यता यावत्-भवादेश सुधी कहेवी. काव्यादेशयी जघन्य चुम्मालीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक लाखने छोंतेर हजार वर्ष - एटलो काळ यावत्- गमनागमन करे (९ ). उत्कृष्ट० कनी उत्कृष्ट पृथ्वी कायिकमा उत्पत्ति. १४. [ प्र० ] जो ते (पृथिवीकायिक) अष्कायिक एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकथी आधी उत्पन्न थाय तो शुं सूक्ष्म अप्कायिकथी के अप्कायिकनी - बादर अकाषी उत्पन्न चाय इत्यादि पृथिवीकायिकनी पेठे सूक्ष्म, बादर, पर्याप्ता अने अपर्याप्ता-ए चार भेद कहेबा वीकयिकमा उत्पत्ति. - १५. [प्र०] हे भगवन् ! जे अध्याधिक पृथिवीकायियोगां उत्पन्न बनाने योग्य ते केटला काळनी स्थितियाळा पृथिवीकाविकमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट बावीरा हजार वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमा उत्पन्न याय / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक १२. मगसरिसा नव गमगा भाणियवा ९ । नवरं थिबुगबिंदुसंठिए । ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेणं सत्त वाससहस्साई। एवं अणुबंधो वि । एवं तिसु वि गमएसु । ठिती संवेहो तइयछट्ठसत्तमट्ठमणवमगमेसु-भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाएं, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, सेसेसु चउसु गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेजाई भवग्गहणाई। ततियगमए कालादेसेणं. जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्संएवतिय० । छट्टे गमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उकोसेणं अट्ठासीर्ति वाससहस्साई चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अम्भहियाई-पवतियं । सत्तमे गमए कालादेसेणं जहन्नेणं सत्त वाससहस्साई मंतोमहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं-एवतियं० । अट्ठमे गमए कालादेसेणं जहन्नेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं वाससहस्साई चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई-एवतियं० । णवमे गमए भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं एकूणतीसं वाससहस्साई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं-पवतियं० । एवं णवसु वि गमएसु आउकाइयठिई जाणियचा ९। १६. [प्र०] जइ तेउकाइएहिंतो उववज्जंति० ? [उ०] तेउक्काइयाण वि एस चेव वत्तष्धया । नवरं नवसु वि गमएसु तिन्नि लेस्साओ । तेउकाइया णं सुईकलावसंठिया । ठिई जाणियवा । तईयगमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तममहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई बारसहिं राइंदिपहिं अभहियाई-पवतियं । एवं संवेहो उवद्युजिऊण भाणियो । १७. [प्र०] जइ वाउक्काइपहितो? [उ०] वाउकाइयाण वि एवं चेव णव गमगा जहेव तेउकाइयाणं । णवरं पडागासंठिया पन्नत्ता । संवेहो वाससहस्सेहिं काययो । तइयगमर कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं एग वाससयसहस्सं । एवं संवेदो उवजुंजिऊण माणियो। १८. [प्र०] जइ वणस्सइकाइएहितो उववजंति० १ [उ०] वणस्सइकाइयाणं आउकाइयगमगसरिसा णव गमगा भाणियवा । नवरं जाणासंठिया । सरीरोगाहणा-पढमएसु पच्छिल्लएसु य तिसु गमएसु जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, ए प्रमाणे पृथिवीकायिकनी पेठे अहि अप्काय संबंधे पण नवे गमको कहेवा. पण विशेष ए के अप्कायिकना शरीरन संस्थान स्तिबुकपाणीना परपोटाना आकारे छे. स्थिति जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट सात हजार वर्षनी होय छे. अनुबंध पण ए प्रमाणे जाणवो. ए रीते त्रणे गममा जाणवं. त्रीजा, छट्ठा, सातमा, आठमा अने नवमा गममां संवेध भवादेशथी जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव होय छे, तथा बाकीना चारे गममा जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट असंख्याता भवो होय छे. त्रीजा गममा काळादेशथी जघन्य अन्तर्महर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्टथी एक लाख अने सोळ हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-मनागमन करे. छठा गममा काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. सातमा गममां कालादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सात हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक लाखने सोळ हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. आठमा गममा काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सात हजार वर्ष अने उत्कृष्ट अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. तथा नवमा गममां भवादेशथी जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भवो, तथा काळादेशथी जघन्य ओगणत्रीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक लाख सोळ हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे नवे गमोमां अकायिकनी स्थिति जाणवी (९). वेषःकायिकनी १६. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते तेउकायथी ( अग्निकायिकथी) आवी उपजे तो तेउकायिकने पण एज वक्तव्यता कहेबी. पण विशेष पृथिवीकायिकमा ए के नवे गममा त्रण लेश्याओ कहेवी. तेउकायर्नु संस्थान सोयना समूहना आकारे होय छे. अने स्थिति (त्रण अहोरात्रनी) जाणबी. उत्पत्ति. त्रीजा गममा काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट बार अहोरात्र (रात्रिदिवस ) अधिक अठ्याशी हजार वर्ष एटलो काळ-यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे संवैध ध्यान राखीने कहेवो (९). बाबकायिकनी पृथि- १७. जो तेओ वायुकायिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने तेजस्कायिकोनी पेठे नवे गमको कहेवा. पण विशेष ए के वायकावीकायिका यिकोना शरीरोनो आकार (संस्थान ) ध्वजाना आकारे होय छे. संवेध हजारो वर्षवडे करवो. त्रीजा गममां काळादेशथी जघन्य अन्तउत्पत्ति. र्मुहूर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक लाख वर्ष-ए प्रमाणे संवेध विचारीने कहेवो. वनस्पतिकायिकोनी १८. प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ वनस्पतिकायिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो-इत्यादि वनस्पतिकायिकना नवे गमको अष्कापृथिवीकायिका यिकनी पेठे कहेवा. पण विशेष ए के वनस्पलिना शरीरो अनेक प्रकारना संस्थान-आकृतिवाळा होय छे. पहेला अने छेल्ला त्रणे - उत्पत्ति. गमकोमा शरीरनुं प्रमाण जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटलं अने उत्कृष्ट एक हजार योजन करता अधिक होय छे. मध्यमना त्रणे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १६७ उकोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, मज्झिल्लएसु तिसु तहेव जहा पुढविकाइयाणं । संवेहो ठिती य जाणियवा । तइयगमे कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं बाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससयसहस्सं-एषतियं । एवं संवेहो उवजुंजिऊण भाणियो । १९. [प्र०] जब बेइंदिपहितो उववजंति किं पजत्तबेइंदिपहिंतो उववजंति, अपजत्तबेइंदिपहितो० १ [३०] गोयमा ! पंजत्तबेइंदिपहितो उववजंति, अपजत्तबेइंदिरहितो वि उववजंति । २०. [प्र०] बेइंदिए णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकाल० १ [उ०] गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्सद्वितीएसु। .. २१. [प्र०] ते णं भंते । जीवा एगसमरणं० [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दो या तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा उववजंति । छेवट्ठसंघयणी । ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजाभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। हुंडसंठिया । तिनि लेसाओ। सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो णाणा, दो अन्नाणा नियमं । णो मणजोगी, वयजोगी वि कायजोगी वि । उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सन्नाओ । चत्तारि कसाया। दो इंदिया पन्नत्ता, तं जहा-जिभिदिए य फार्सिदिए य । तिन्नि समुग्धाया । सेसं जहा पुढविक्काइयाणं । णवरं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई । एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चेव । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं संखेजाई भवग्गहणाई. कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ताई उक्कोसेणं संखेनं कालं-एवतियं०१। २२. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो एस चेव वत्तव्वया सवा २ । २३. सो चेव उक्कोसकालट्ठितिएसु उववन्नो एस चेव बेंदियस्स लद्धी । नवरं भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अमहियाई-एवतियं०३। गममां पृथिवीकायिकोनी पेठे जाणवु. संवेध अने स्थिति (भिन्न) जाणवी. त्रीजा गममां काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक लाखने अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे संवेध उपयोग पूर्वक कहेवो (९). १९. [प्र०] जो तेओ बेइन्द्रियथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्ता बेइन्द्रियथी के अपर्याप्ता बेइन्द्रियथी आवी उत्पन्न थाय ! इन्द्रियनी पृथिधी[३०] हे गौतम ! पर्याप्त अने अपर्याप्त बन्ने प्रकारना बेइन्द्रियोथी आवी उत्पन्न थाय. कायिकमा उत्पत्ति २० प्र०] हे भगवन् ! जे बेइन्द्रिय, पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायि. कमां उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहुर्तनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय. २१. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक, बे के त्रण, अने उत्कृष्ट परिमाणादि. संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय. तेओ छेवट्ठ संघयणवाळा होय छे. तेओना शरीरनुं प्रमाण जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाण अने उत्कृष्ट बार योजन होय छे, तेओना शरीर हुंडकसंस्थानवाळा होय छे. तेओने त्रण लेश्याओ होय छे. तेओ सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि होय छे, पण मिश्रदृष्टि होता नथी. तेओने बे ज्ञान अने बे अज्ञान अवश्य होय छे. तेओ मनोयोगी नथी, पण वचनयोगी अने काययोगी होय छे. उपयोग बन्ने प्रकारनो होय छे. चार संज्ञाओ, चार कषायो, बे इन्द्रियो-जीहेन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रिय अने त्रण समुद्घातो होय छे. बाकी बधुं पृथिवीकायिकोनी पेठे कहे. पण विशेष ए के स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्ट बार वर्षनी होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. भवादेशथी जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट संख्याता भवो तथा काळादेशथी जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट संख्यातो काळ-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. २२. जो ते बेइन्द्रिय जघन्य काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो तेने बधी ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी (२). वेन्द्रियनी जघन्य. पृपिवीकायिकर्मा उत्पत्ति २३. जो ते बेइन्द्रिय, उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय तो तेने पण आ ज वक्तव्यता कहेवी. विशेष बेइन्द्रियनी उत्कृष्ट एके भवादेशथी जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव, तथा कालादेशथी जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक वावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट अड पृथिवीकायिकमां तालीश वर्ष अधिक अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (३). उत्पत्ति. Jain Education international Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक १२. २४. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि एस चेव वत्तवया तिसु वि गमएसु । नवरं इमाई सत्त णाणताई-१ सरीरोगाहणा जहा पुढविकाइयाणं । २णो सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्टी, णो सम्मामिच्छादिट्टी।३ दो अन्नाणा णियमं। ४ णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी । ५ ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । ६ अझवसाणा अपं. सत्था । ७ अणुबंधो जहा ठिती । संवेहो तहेव आदिल्लेसु दोसु गमपसु, तइयगमए भवादेसो तहेव अट्ट भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उकोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई चडाई अंतोमहत्तेहि अब्भहियाई ६। २५. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ, एयस्स वि ओहियगमगसरिसा तिनि गमगा भाणियथा । नवरं तिसु वि गमएसु ठिती जहन्नेणं वारस संवच्छराई, उक्कोसेण वि बारस संवच्छराई । एवं अणुबंधो वि । भवादेसेणं जहनेणं दो भवग्गहणाई. उन्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई । कालादेसेणं उवजुंजिऊण भाणियवं, जाव-णवमे गमए जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई बारसहिं संवच्छरेहिं अमहियाई, उक्कोसेणं अट्रासीति वाससहस्साई अडयालीसाए संगच्छरेहिं थम्भहियाईएवतियं० ९। २६. [प्र०] जइ तेइंदिपाहिंतो उववजंति०१ [उ०] एवं चेव नव गमगा भाणियवा, नवरं आदिल्लेसु तिसु वि गमएलु सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई । तिन्नि इंदियाई । ठिती जहनेणं अंतोमुहत्तं. उक्कोसेणं एगूणपन्नं राइंदियाई । तइयगमए कालादेसणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अटासीति वाससहस्साई छन्नउई राइंदियसयमभहियाई-एवतियं । मज्झिमा तिनि गमगा तहेव, पच्छिमा वि तिन्नि गमगा तहेव । नवरं ठिती जहन्नेणं एगूणपन्नं राइंदियाई, उक्कोसेण वि एगूणपन्नं राइंदियाई। संवेहो उवखंजिऊण भाणियचो ९ । २७. [प्र०] जइ चरिदिपहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं चेव चउरिदियाण वि नव गमगा भाणियवा । नवरं एतेसु जघन्य बेइन्द्रियनी २४. जो ते बेइन्द्रिय जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय अने ते पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थाय तो तेने पण त्रणे गमकोमा पूर्वोक्त पृथिवीकायिकमां वक्तव्यता कहेवी. पण अहिं आ सात विशेषता छे-१ *शरीरनुं प्रमाण पृथिवीकायिकोनी पेठे ( अंगुलना असंख्यातमा भागर्नु ) उत्पत्ति. जाणवू, २ सम्यग्दृष्टि अने मिश्रदृष्टि नथी पण मिथ्यादृष्टि छे, ३ तेने अवश्य बे अज्ञान होय छे, ४ मनयोग के वचनयोग नथी, पण काययोग छ, ५ स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तनी होय छे, ६ अध्यवसायो अप्रशस्त होय छे. ७ अनुबंध स्थितिनी पेठे जाणवो. तथा बीजा त्रिकना प्रथमना बे गमकोमा संवेध पण ते ज प्रमाणे जाणवो. 'त्रीजा गमकमां भवादेश ते ज प्रमाणे आठ भव सुधीनो जाणवो. अने कालादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त अधिक अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (४-५-६). उत्कृष्ट बेइन्द्रियनी २५. जो ते बेइन्द्रिय पोते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाय होय अने पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थाय तेने औधिक गमक समान त्रण " गमक कहेवा. पण विशेष ए के ए त्रण गमोमां स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट बार वर्षनी होय छे, अनुबंध पण ए ज प्रमाणे छे. भवादेशथी उत्पत्ति. जघन्य वे भव अने उकृष्ट आठ भव तथा काळादेशथी विचारीने संवेध कहेवो. यावत्-नवमा गममा जघन्य बार वर्ष अधिक बावीश हजार वर्ष, अने उत्कृष्ट अडतालीश वर्ष अविक अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (९). तेन्द्रियनी पृथिवी- २६. जो ते पृथिवीकायिको तेइन्द्रियोथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने पण ए प्रमाणे नव गमको कहेवा. पण विशेष ए के प्रथकायिकमा उत्पत्ति. मना त्रणे गमकमां शरीरनुं प्रमाण जघन्य अंगुलना असंख्यातमां भागर्नु अने उत्कृष्ट त्रण गाउनु होय छे. त्रण इन्द्रियो होय छे. स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट ओगणपचास रात्रिदिवसनी छे. त्रीजा गमकमां काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एकसो छन्नुं रात्रिदिवस अधिक अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. बच्चेना त्रण गमको पण ते ज प्रमाणे जाणवा. छेल्ला त्रण गम पण एम ज जाणवा. पण विशेष ए के स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट ओगणपचास रात्रिदिवसनी छे अने संवेध विचारीने कहेवो (९). २७. जो ते पृथिवीकायिको चउरिन्द्रियथी आवी उपजे तो तेने पण एज प्रमाणे नवे गमो कहेवा. परन्तु आ नीचेनी विशेषता वी कायिका - उत्पत्ति. २४ * अहिं बेइन्द्रिय कनिष्ठ स्थितिवाळो होवाथी तेनुं शरीर अंगुलना असंख्यातमा भागनुं जाणवू. बळी तेओनी जघन्य स्थिति होवाथी तेमा साखादन सम्यग्दृष्टि उत्पन्न थतो नथी, तेथी त्यां सम्यग्दृष्टि नथी. तेम मिश्रदृष्टि पण नथी. केमके साखादन सम्यग्दृष्टि अजघन्य स्थितिवाळा बेइन्द्रियोमा उत्पन्न थाय छे. अहिं बे अज्ञान का छे अने पूर्व ज्ञान अने अज्ञान वने कहेला छे. .योगद्वारमा जघन्य स्थितिवाळो होवाथी तेओने वचन योग होतो नथी, अने पूर्वना गमकमां वचन योग पण कहेलो छे. स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी जाणवी, अने पूर्वना गममा बार बरसनी कही छे. पूर्वे प्रशस्त अने अप्रशस्त-एम बन्ने प्रकारना अध्यवसायो होय छे, पण अहिं अप्रशस्त अध्यवसायो होय छे. अनबन्ध तो स्थिति प्रमाणे जाणवो. . Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. .१६९ व ठाणेसु नाणता भाणियचा । सरीरोगाद्दणा जहनेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं चचारि गाउयाई । ठिती जद्दत्रेणं अंतोमुडुतं, उक्कोसेण य छम्मासा । एवं अणुबंधो वि । चत्तारि इंदियाएं, सेसं तं चेष जाव-नवमगमप 'कालादेसेणं जत्रेणं पावीसं वाससहस्साइं छहिं मासेहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साइं चउवीसाए मासेहिं अम्भहियाई' - एवतियं ० ९ । २८. [प्र० ] जह पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सन्निपचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, असनिपचिदियतिरिक्खजोणिए० १ [30] गोयमा ! सन्निपंचिदिय०, असन्निपंचिदिय० । २९. [०] ज असन्निपंचिंदिय० किं जलचरेहिंतो उववजंति जाव-किं पज्जत्तरहिंतो उववजंति, अपज्जत्तपहिंतो जंति ? [30] गोयमा ! जाव-पजत्तपहिंतो वि उववजंति, अपजत्तएहिंतो वि उववजंति । ३०. [ प्र० ] असन्निपचंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविष पुढविक्काइपसु उववजित्तप से णं भंते ! केवति० १ [30] गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । ३१. [प्र० ] ते णं भंते ! जीवा० [अ०] एवं जहेव बेइंदियस्स ओहियगमए लद्धी तहेव । नवरं सरीरोगाणा जहनेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभांगं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं । पंचिदिया । ठिती अणुबंधो (य) जहनेणं अंतोमुद्दत्तं, उक्कोसेणं पुचकोडी । सेसं तं चैव । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहनेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चारि पुचकोडीओ अट्ठासीतीए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ - एवतियं० । णवसु वि गमपसु कायसंवेहो - भवादेसेणं जनेणं दो भवग्गहणारं, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं उवजुंजिऊण भाणियवं । नवरं मज्झिमपसु तिसु गमपसु जब बेदियस पच्छिल तिसु गमएसु जहा एतस्स चेव पढमगमपसु । नवरं ठिती अणुबंधो (य) जहन्नेणं पुचकोडी, उक्कोसेण वि पुचकोडी, सेसं तं चैव जाव-नवमगमपसु - 'जहन्नेणं पुचकोडी बावीसाए वाससहस्सेहिं अन्महिया, उक्कोसेणं चत्तारि कोडीओ अट्ठासीतीए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ' - एवतियं कालं सेवेजा ९ । ३२. [प्र०] जह सन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखेजवासाउय०, असंखेज्जवासाउय ० १ [30] गोमा ! संखेजवासाय०, णो असंखेज्जवासाउय० । जाणवी - 'शरीरनी अवगाहना जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट चार गाउनी होय छे. स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट छ -मानी होय छे. अनुबंध पण एमज जाणवो. इन्द्रियो चार होय छे.' बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवुं यावत्-नवमा गमकमां काळादेशथी जघन्य -छ मास अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चोवीश मास अधिक अव्याशी हजार वर्ष - एटलो काळ सेवे - यावत् - गमनागमन करे ( ९ ). २८. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते पृथिवीकायिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय, तो शुं संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयो- पंचेन्द्रिय तिर्थनिकोथी आवी उत्पन्न थाय के असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! संज्ञी अने असंज्ञी बन्ने प्रकारना पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिकोथी आवी उत्पन्न थाय. पृथिवीका विक उत्पत्ति. २९. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं जलचरोथी आवी उत्पन्न थाय के असशी तिच यावत्-पर्याप्ता के अपर्याप्ताथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! पर्याप्ता अने यावत् - अपर्याप्ताथी पण आवी उत्पन्न थाय. ३०. [प्र० ] है. भगवन् ! असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला काळनी स्थितिबाळा पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट बाबीश हजार वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थाय. ३१. [प्र० ] हे भगवन् ! ते असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि जेम बेइन्द्रियना औधिक - सामान्य गमकमा जे वक्तव्यता कही छे ते वक्तव्यता अहिं कहेवी. पण विशेष ए के अहिं शरीरनी जघन्य अवगाहना अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हजार योजन जेटली छे. तेओने पांच इन्द्रियो छे. स्थिति अने अनुबंध जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनो छे. बाकी बधुं पूर्वेकह्या प्रमाणे जाणवुं. भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य वे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अठ्याशी हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटी-एटलो काळ यावत्- गतिआगति करे. नवे गमकोमां भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव होय छे. अने काळनी अपेक्षाए उपयोगपूर्वक कायसंवेध कहेवो. पण विशेष एके वच्चेना त्रणे गमकोमां बेइन्द्रियना वच्चेना गमको पेठे जाणवुं. अने छेला त्रणे गमकोमां आना प्रथमना ऋण गमकोनी पेठे समजवुं. पण विशेष ए के स्थिति अने अनुबंध जघन्य तथा उत्कष्ट पूर्वकोटी होय छे. बाकी वधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं यावत्-नवमा गमकमां जघन्य पूर्वकोटी अधिक बावीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक अव्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे ( ९ ). पृथिवीकायिका उत्पत्ति. ३२. [प्र० ] जो ते पृथिवीकायिक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा के असं संधी तिचनी १ ख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोधी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते संख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय पण असंख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न न थाय. पीकायिकमां उत्पत्ति.. २२ भ० सू० परिमाणादि Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसेनहे शतक २४.-उद्देशक १२. ३३. [प्र०] जइ संखेजवासाउय० किं जलयरोहितो० १ [उ०] सेसं जहा असन्नीणं, जाव ३४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजंति ? [उ०] एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स सन्निस्स तहेव इह वि । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्स; सेसं तहेव जाव-कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुच्चकोडीओ अट्ठासीतीए वाससहस्सेहिं अभहियाओ-एवतियं । एवं संवेहो णवसु वि गमएसु जहा असन्नीणं तहेव निरवसेसं । लद्धी से आदिल्लएसु तिसु वि गमएसु एस चेव मज्झिल्लएसु तिसु वि गमएसु एस चेव । नवरं इमाई नव णाणत्ताई-१ ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं । तिनि लेस्साओ। मिच्छादिट्ठी। दो अन्नाणा । कायज़ोगी। तिन्नि समुग्धाया । ठिती जहन्ने] अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अप्पसत्था अज्झवसाणा । अणुबंधो जहा ठिती, सेसं तं चेव । पच्छिल्लएसु तिसु घि गमएसु जहेव पढमगमए । णवरं ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुष्चकोडी, उक्कोसेण वि पुषकोडी, सेसं तं चेव ९। ३५. [प्र०] जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सन्निमणुस्सहिंतो उववजंति, असन्निमणुस्सेहिंतो० १ [उ०] गोयमा ! सन्निमणुस्सेहितो०, असन्निमणुस्सहिंतो वि उववजंति । ३६. [प्र०] असन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु से गं भंते ! केवतिकाल ? [उ०] एवं जहा असनिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जहन्नकालद्वितीयस्स तिन्नि गमगा तहा एयस्स वि ओहिया तिन्नि गमगा भाणियचा तहेव निरवसेसं, सेसा छ न भण्णंति ।। ___ ३७. [प्र०] जइ सन्निमणुस्सहिंतो उववजंति किं संखेजवासाउय०, असंखेजवासाउय० १ [उ०] गोयमा ! संखेजवासाउय०, णो असंखेजवासाउयः। ३८. [प्र०] जइ संखेजवासाउय० किं पजत्तः, अपज्जत्त० ? [उ०] गोयमा ! पजत्तसंखेजा, अपजत्तसंखेज्जवासाउय० जाव-उववजंति । ३३. [प्र०] जो संख्याता वर्षना आयुषवाळा सं० पं० तिर्यचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं जलचरोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि बाकीनी बधी वक्तव्यता असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियचंनी पेठे जाणवी. यावत् ३४. [प्र०] हे भगवन् ! ते (पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थवा योग्य संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो) एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जेम रत्नप्रभामा उपजवाने योग्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी वक्तव्यता कही छे तेम अहिं पण कहेवी. पण विशेष ए के शरीरनी अवगाहना जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हजार योजन होय छे. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू. यावत्-काळनी अपेक्षाए जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक अठ्याशी हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे. ए प्रमाणे नवे गमकोमा बधो संवेध असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचनी पेठे कहेवो. प्रथमना त्रणे अवे बच्चेना त्रणे गमकोमा पण ए जलब्धि-वक्तव्यता कहेवी. पण वच्चेना त्रणे गमकोमा आ नव विशेषताओ छे-१ 'शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट अंगुलनो असंख्यातमो भाग होय छे, २ तेओने त्रण लेश्याओ होय छे, ३ तेओ मिथ्यादृष्टि होय छे, ४ तेने वे अज्ञान छे, ५ तेओ काययोगवाळा छे, ६ तेओने त्रण समुद्घातो होय छे, ७ स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होय छे, ८ अध्यवसायो अप्रशस्त छे अने ९ अनुबंध स्थितिनी प्रमाणे जाणवो.' बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे कहेवू. तथा छेल्ला त्रणे आलापकमा प्रथम गमकनी पेठे वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के स्थिति अने अनुबंध जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनो होय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु (९). मनुष्योनी पृथिवी- ३५. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते पृथिवीकायिको मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय के असंही कायिकोमा उत्पत्ति. मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! संज्ञी अने असंज्ञी बन्ने प्रकारना मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय. असंही मनुष्योनी ३६. [प्र०] हे भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, जे पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीका । यिकमा उत्पन्न थाय! [उ०] जेम जघन्यकाळनी स्थितिवाळा असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक संबन्धे त्रण गमो कह्या छे तेम आ संबंधे पण ___ सामान्य त्रण गमको सम्पूर्ण कहेवा अने बाकीना छ गमको न कहेवा. संशी मनुष्योनी ३७. प्रि०] जो तेओ संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संझी पृथिवीकायिकमा मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय! [उ०] हे गौतम! तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंख्याता उत्पत्ति. वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. _____३८. [प्र०] जो तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्ता के अपर्याप्ता मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय! [१०] हे गौतम! पर्याप्ता अने अपर्याप्ता बन्ने प्रकारना संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय छे. उत्पत्ति. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७१ ३९. [प्र०] सन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविष पुढविकाइपसु उववज्जित्तप से णं भंते ! केवतिकाल० १ [४०] गोयमा ! जत्रेणं अंतो मुद्दत्तं०, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्सठितीपसु । ४०. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा० १ [30] एवं जहेव रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स तहेव तिसु वि गमपसु लद्धी । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोस्सेणं पंचधणुसयाई । ठिती जहनेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुष्ध-. कोडी । एवं अणुबंधो । संवेहो नवसु गमपसु जद्देव सन्निपंचिंदियस्स । मज्झिल्लपसु तिसु गमपसु लद्धी जद्देव सन्निपचिदियरस, सेसं तं चैव निरवसेसं, पच्छिल्ला तिन्नि गमगा जहा पयस्स चेव ओहिया गमगा । नवरं ओगाहणा जहन्त्रेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई । ठिती अणुबंधो जहनेणं पुचकोडी, उक्कोसेण वि पुचकोडी, सेसं तदेव । * ४१. [प्र० ] जर देवेर्हितो उववज्रंति किं भवणवासिदेवेर्हितो उववजंति, वाणमंतर०, जोइसियदेवे हिंतो०, वेमाणियदेवेर्हितो ववजंति ? [०] गोयमा ! भवणवासिदेवेर्हितो वि उववजंति, जाव - वेमाणियदेवेहिंतो वि उववजंति । ४२. [प्र०] जइ भवणवासिदेवेर्हितो उववजंति किं असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उवषजंति, जाव - थणियकुमारभवणवासिदेवेर्हितो ० १ [अ०] गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववजंति, जाव - थणियकुमारभवणवासिदेवे हिंतो उववजंति । ४३. [प्र०] असुरकुमारेणं भंते ! जे भविर पुढविक्काइपसु उववजितप से णं भंते! केवति० ? [30] गोयमा ! जनेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्सठिती० । ४४. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा० पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा उववजंति । ४५. [प्र० ] तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरगा किंसंघयणी पन्नत्ता ? [30] गोयमा ! छण्डं संघयणाणं असंघयणी, जाव-परिणमति । ३९. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळा पर्याप्त संज्ञी मनुष्य, जे पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य के ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थाय ! [उं०] हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थाय. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ? [उ०] रत्नप्रभामां उत्पन्न थवाने योग्य मनुष्यनी जे वक्तव्यता कही छे ते अहिं त्रणे आलापकमां कहेवी. पण विशेष ए के शरीरनी अवगाहना जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट पांचसो धनुष होय छे. स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. संवेध जेम संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनो कह्यो छे ते नवे गमोमां कहेवो. बच्चेना ऋण गमोमां संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्येचनी वक्तव्यता कहेवी. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. तथा छेला त्राण गमको आ औधिक - सामान्य गमनी पेठे कहेवा. विशेष ए के शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी होय छे. स्थिति अने अनुबंध जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनो होय छे. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवुं. ४१. [प्र०] जो ते पृथिवीकायिको देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं भवनपति देवोथी, वानव्यन्तर देवोथी, ज्योतिषिक देवोथी के देवोनी पृथिवी का - वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय: [ उ०] हे गौतम! भवनवासी देवोथी यावत् - वैमानिकोथी पण आवीने उत्पन्न थाय. विकोमां उत्पत्ति. ४२. [प्र०] जो ते भवनपति देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं असुरकुमारोथी आवी उत्पन्न थाय के यावत् - स्तनितकुमारोथी भवन पति देवोनी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम । ते असुरकुमार भवनवासी देवोथी यावत् - स्तनितकुमार भवनवासी देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. पृथिवी कायिकमां उत्पत्ति. ४३. [प्र० ] हे भगवन् ! असुरकुमार जे पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय ? [ उ० ] हे गौतम! ते जघन्य अन्तर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्ट बावीस हजार वर्षनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न याय. ४४. [प्र० ] हे भगवन् ! ते असुरकुमारो एक समये केटला उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ जघन्य एक, बे के ऋण अने उत्कृष्ट संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोनां शरीरो केटला संघयणवाळां होय छे.! [उ०] हे गौतम! तेओना शरीरो छ प्रकारना संघयण रहित होय छे [केमके तेने अस्थि, शिरा, स्नायु -इत्यादि नथी. परन्तु जे पुद्गलो इष्ट, कान्त अने मनोज्ञ छे ते शरीरसंघातरूपे ] यावत् - परिणमे छे. * 'नवरं पच्छिल सुगमएसु संखेज्जा उबवजंति, नो असंखेज्जा उववज्जंति' इति पाठो घ-पुस्तके एव उपलभ्यते, परं क-ग-ङ-पुस्तकेषु नास्ति, नच संभाव्यते । परिमाणादि. असुरकुमारनी पृथिवीकायिकमां उत्पत्ति. परिमाण. संघयण. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक १२. ४६.० तेसिणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाणा ? [उ०] गोयमा! दुविहा पत्रत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउधिया य । तत्थ गं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंस्नेजरभाग, उकोसेणं सत्त रयणीयो। तत्य णं जा सा उत्तरवेउश्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं । ४७. [प्र०] तेसिणंभंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंठिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता,तंजहा-भवधारणिजा य उत्तरवेउधिया य । तत्थ णं जे ते भवधारणिजा ते समचउरंससंठिया पन्नत्ता । तत्थ णं जे से उत्तरवेउविया ते णाणासंठाणसंठिया पन्नत्ता । लेस्साओ चत्वारि । दिट्ठी तिविहा वि । तिनि णाणा नियम, तिनि अन्नाणा भयणाए । जोगो तिविहो वि। उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सन्नाओ। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया । पंच समुग्धाया। वेयणा दुविहा वि । इत्थिवेदगा वि पुरिसवेयगा वि, णो णपुंसगवेयगा । ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं । अज्झवसाणा असंखेजा पसत्था वि अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहा ठिती। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, काला देसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अन्भहियं-एवतियः। एवं णव वि गमा णेयधा । नवरं मज्झिल्लएसु पच्छिल्लपसु तिसु गमएसु असुरकुमाराणं ठिइविसेसो जाणियधो, सेसा ओहिया चेव लद्धी कायसंवेहं च जाणेजा । सवत्थ दो भवग्गणाई, जाव-णवमगमए कालादेसणं जहनेणं सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहि अन्भहियं । उक्कोसेण वि सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहि-अमहियं-पवतियं.९। ४८. [प्र०] णागकुमारे गं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु० १ [उ०] एस चेव वत्तवया जाव-भवादसो'त्ति ! गवरं ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई बावीसाए वाससस्सेहिं अब्भहियाई । एवं णव वि गमगा मसुरकुमारगमगसरिसा, नवरं ठिति कालादेसं च जाणेजा, एवं जाव-थणियकुमाराणं । शरीरनी उंचाई ४६. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोनां शरीरोनी केटली मोटी अवगाहना कही छे? [उ०] हे गौतम ! तेओने भवधारणीय अने उत्तरवैक्रिय एम बे जातनी अवगाहना होय छे. तेमां जे भवधारणीय अवगाहना छे ते जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट सात हायनी छे, अने जे उत्तरवैक्रिय अवगाहना छे ते जघन्य अंगुलनो संख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक लाख योजन होय छे. संस्थान ४७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोनां शरीरो केटला संस्थानवाळां कह्यां छे [उ०] हे गौतम! तेओनां शरीरो भवधारणीय अने उत्तरवैक्रिय एम बे जातना कह्यां छे. तेमां जे भवधारणीय शरीर छे तेने समचतुरस्र संस्थान होय छे, अने जे उत्तरवैक्रिय छे तेने अनेक प्रकार संस्थान होय छे. लेश्याओ चार छे. दृष्टि त्रणे प्रकारनी होय छे. तेओने "त्रण ज्ञान अवश्य होय छे अने अज्ञान त्रण भजनाए होय छे. तेओने त्रण योग, बन्ने उपयोग, चार संज्ञाओ, चार कषायो, पांच इन्द्रियो अने पांच समुद्घात होय छे. वेदना बन्ने प्रकारनी होय छे. स्त्रीवेद अने पुरुषवेद होय छे पण नपुंसकवेद नथी होतो. स्थिति जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट काइक अधिक सागरोपम. होय छे. अध्यवसायो प्रशस्त अने अप्रशस्त एम बन्ने प्रकारना होय छे. अनुबंध स्थितिनी पेठे जाणवो. (संवेध-) भवनी अपेक्षाए बे भव अने काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्ष अधिक साधिक सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गति आगति करे. ए प्रमाणे नवे गमो जाणवा. पण विशेष ए के मध्यना त्रण अने छेल्ला त्रण गमोमा असुरकुमारोनी स्थितिसंबन्धे विशेषता होय छे, बाकी बधी औधिक वक्तव्यता अने कायसंवेध जाणवो. संवेधमां बधे ठेकाणे वे भव जाणवा. ए प्रमाणे यावत्नवमा गममां काळादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट साधिक सागरोपम सहित बावीश हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (९). नागकुमारनी पृथिमीकायिकमा उत्पत्ति ४८. [प्र०] हे भगवन् ! जे नागकुमार देव पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय? [उ०] अहिं पूर्वोक्त बधी असुरकुमारनी वक्तव्यता यावत्-भवादेश सुधी कहेवी. पण विशेष ए के स्थिति जघन्य दस. हजार वर्ष अने उत्कृष्ट काइक न्यून बे पल्योपमनी होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक. दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट काइक न्यून बे पल्योपम सहित बावीश हजार वर्ष-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे नवे आलापको असुरकुमारना आलापकनी पेठे जाणवा. पण विशेष ए के अहिं स्थिति अने काळादेश ( भिन्न) जाणवो. ए प्रमाणे यावत्स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ४७* जेओ सम्यग्दृष्टि छे तेओने त्रण ज्ञान अवश्य होय छे अने मिथ्यादृष्टिने त्रण अज्ञान होय छे. पण जेओ असंज्ञीथी आवीने उत्पन्न थाय छे. तेओने अपर्याप्तावस्थामा विभंग होतुं नथी, बाकीना जीवोने विभंग होय छे तेथी मिथ्यादृष्टिने प्रण अज्ञान भजनाए होय छे-एम कयुं छे. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १२.. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७३ ४९. [प्र०] जइ वाणमंतरेहिंतो उववनंति किं पिसायवाणमंतर० जाव-गंधधवाणमंतर० १ [उ०] गोयमा ! पिसायवाणमंतर०, जाव-गंधववाणमंतर० । ५०. [प्र०] वाणमंतरदेवे गं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु० १ [उ०] पतेसि पि असुरकुमारगमगसरिसा नव गमगा माणियवा । नवरं ठिति कालादेसं च जाणेजा । ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिमोवम, सेसं तहेव ।। ५१. [प्र०] जइ जोइसियदेवेहितो उववजंति किं चंदविमाणजोतिसियदेवेहिंतो उववजंति, जाव-ताराविमाणजोइसिय०१ [उ०] गोयमा! चंदविमाण, जाव-ताराविमाण । ५२. [प्र०] जोइसियदेवे गं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु० १ [उ०] लद्धी जहा असुरकुमाराणं । गवरं एगा तेउलेस्सा पन्नत्ता । तिन्नि णाणा, तिन्नि अन्नाणा णियमं । ठिती जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेण पलिओवमं वाससयसहस्सअन्भहियं । एवं अणुबंधो वि । कालादेसणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं पलिकोवमं वाससयसहस्सेणं बावीसाए वाससहस्सहिं अमहियं, एवतियं । एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियचा । नवरं ठिति कालादेसं च जाणेजा। ५३. [प्र०] जब वेमाणियदेवेहितो उववजंति किं कप्पोवगवेमाणिय०, कप्पातीयवेमाणिय० ? [उ०] गोयमा ! कप्पोवगवेमाणिय०, णो कप्पातीतवेमाणिय। ५४. [प्र०] जइ कप्पोवगवेमाणिय० किं सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय०, जाव-अचुयकप्पोवगवेमा० १ [उ०] गोयमा ! सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय०, ईसाणकप्पोवगवेमाणिय०, णो सणंकुमार०, जाव-णो अञ्चयकप्पोवगवेमाणियः । ५५. [प्र०] सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए, से गं भंते ! केवतिय०१ [उ०] एवं जहा मोइसियस्स गमगो। णवरं ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई। कालादेसणं जहन्नेणं पलि. ४९. [प्र०] जो तेओ वानव्यन्तरोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पिशाच वानव्यन्तरोथी, के यावत्-गांधर्वव्यानव्यन्तरोपी आवी वानव्यंतरोनी पृथि वीकायिकमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ पिशाच व्यानव्यंतरोथी यावत्-गांधर्वव्यानव्यन्तरोथी आवी उत्पन्न थाय. उत्पत्ति. ५०. [प्र०] हे भगवन्! वानव्यन्तरदेव जे पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न यवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकोमा आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] अहिं पण असुरकुमारोनी पेठे नवे गमको कहेवा. पण विशेष ए के अहिं स्थिति तथा काळादेश (भिन्न ) जाणवो. स्थिति जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट पल्योपमनी होय छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवं. ५१. [प्र०] जो तेओ ज्योतिष्क देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं चन्द्र विमान ज्योतिष्क देवोथी के यावत्-ताराविमान ज्योतिष्क देवोथी ज्योतिषक देवनी पृथिवीकायिकमां आवी उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! तेओ चन्द्रविमान ज्योतिष्क देवोथी, अने यावत्-ताराविमान ज्योतिष्क देवोथी आवी उत्पन्न थाय. उत्पत्ति ५२. [प्र०] हे भगवन् ! जे ज्योतिष्कदेव पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थाय ? [उ०] अहिं असुरकुमारोनी लब्धि-वक्तव्यतानी पेठे सघळी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के तेओने एक तेजोलेश्या होय छे. त्रण ज्ञान अथवा त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. स्थिति जघन्य पल्योपमनो आठमो भाग अने उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. (संवेध-) काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक पल्योपमनो आठमो भाग अने उत्कृष्ट एक लाख बावीश हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे बाकीना आठ गमो पण जाणवा. पण विशेष ए के अहिं स्थिति अने कालादेश (पूर्व करतां भिन्न) जाणवो. ५३. [प्र०] जो तेओ (पृथिवीकायिको) वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय, तो शुं कल्पोपपन्नक वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न वैमानिक देवोनी याय, के कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ कल्पोपपन्नक वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय, पण पुषिवीकायिकमा उत्पत्ति. कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न न थाय. ५४. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ कल्पोपपन्न वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय के यावत्-अच्युत कल्पोपपन्न वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम ! सौधर्म अने ईशान कल्पोपपन्न देवोथी आवी उत्पन्न थाय, पण सनत्कुमार, यावत्-अच्युतकल्पोपपन्न वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न न थाय. ५५. [प्र०] हे भगवन् ! जे सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिक देव पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थाय ? [उ०] अहिं ज्योतिषिकना गमकनी पेठे कहे. पण विशेष ए के स्थिति अने अनुबंध जघन्य पल्योपम Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्कायिक. तेजस्कायिक. १७४ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २४. - उद्देशक १४ - खोवमं अंतोमुहुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई बावीसाए वाससहस्सेहिं अम्भहियाई- एवतियं कालं० । एवं सा वि अट्ठ गमगा भाणियचा । णवरं ठितिं कालादेसं व जाणेज्जा । 1 ५६. [प्र०] ईसाणदेवे णं भंते ! जे भविष्० ? [उ०] एवं ईसाणदेवेण वि णव गमगा भाणिया । नवरं ठिती अणुबंधो जहनेणं सातिरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं सातिरेगाइं दो सागरोवमाई; सेसं तं चैव । 'सेवं भंते! सेवं भंते!" त्ति जावविहरति । चवीसतिमेस दुवालसमो उद्देसो समत्तो । अने उत्कृष्ट बे सागरोपम होय छे. (संवेध - ) काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम अने उत्कृष्ट बावीरा हजार वर्ष अघिक बे सागरोपम-एटलो काळ यावत्- गमनागमन करे. ए प्रमाणे बाकीना आठे गमो जाणवा. परन्तु विशेष ए के अहिं स्थिति अने काळादेश ( पूर्व करतां भिन्न) जाणवो. ५६. [प्र०] हे भगवन् ! जे ईशान देव, पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे- इत्यादि संबंधे पण नवे गमो कहेवा. पण विशेष ए के स्थिति, अनुबंध जघन्य साधिक पल्योपम, अने उत्कृष्ट सांघिक वे सागरोपम. अने बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते. एमजछे, हे भगवन् ! ते मज छे' - एम कही यावत् विहरे छे. चोवीशमा शतकमां बारमो उद्देशक समाप्त. तेरसमो उद्देसो । १. [प्र० ] आउक्काइया णं भंते । कओहिंतो उववजंति [30] एवं जहेव पुढविकाइयउद्देसए, जाव - [प्र० ] पुढविक्काइए भंते! जे भविए आउक्काइएसु उववजित्तए से णं भंते! केवति० १ [उ०] गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं सत्तवाससहस्सट्ठिइपसु उववज्जेजा एवं पुढविक्काइयउद्देसगसरिसो भाणियधो । णवरं ठिती (ति) संवेद्दं च जाणेजा. से तहेव | 'सेवं भंते । सेवं भंते । ति । चवीसतिमे सए तेरसमो उद्देसो समत्तो । तेरमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! अष्कायिको क्यांथी आवीने उत्पन्न थाय - इत्यादि जेम पृथिवीकायिकना उद्देशकमां कयुं छे तेम जाणवुं. यावत्-[प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिको अप्कायिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा अप्कायिकमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट सात हजार वर्षनी स्थितिवाळा अप्कायिकमां उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे पृथिवीका - कना उद्देशकनी पेठे आ उद्देशक कहेवो. परन्तु विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध जुदो जाणवो. बाकी बधुं पूर्वप्रमाणे कहे. 'ह 'भगवन् ! ते मज छे, हे भगवन्! ते एमज छे'. चोवीशमा शतकमां तेरमो उद्देशक समाप्त. चोदसमो उद्देसो । १. [प्र० ] उक्काइया णं भंते ! कओहिंतो. उववज्जंति ? [अ०] एवं जद्देव पुढविक्काइयउद्देसगसरिसो उद्देसो भाणियो | नवरं ठिर्ति संवेहं च जाणेजा, देवेहिंतो ण उववजंति, सेसं तं चैव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति जाव- विहरति । चवीसतिमे सए चोदसमो उद्देसो समतो । चउदमो उद्देशक. १. [ प्र० ] हे भगवन् ! तेजस्कायिको क्यांथी आवीने उत्पन्न थाय - इत्यादि पृथिवीकायिक उद्देशकनी पेठे आ उद्देशक पण कहेवो. पण विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध ( भिन्न) जाणवो - तथा तेजस्कायिको देवोथी आवी उत्पन्न थता नथी. बाकी बधुं पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही यावत्-विहरे छे. चोवीशमा शतकमां चउदमो उद्देशक समाप्त. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक १७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७५ पन्नरसमो उद्देसो । १. [प्र०] वाउक्काइया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं जहेव तेउकाइयउद्देसओ तहेव । नवरं ठिती(ति) संवेहं च जाणेजा। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । चउवीसतिमे सए पन्नरसमो उद्देसो समत्तो। पंदरमो उद्देशक. १. प्र०] हे भगवन् ! वायुकायिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे-इत्यादि जेम तेजस्कायिक उद्देशकमां कडं छे तेम कहे. पण विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध (भिन्न ) जाणवो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोवीशमा शतकमां पंदरमो उद्देशक समाप्त. वायुकायिकनो उपपात. सोलसमो उद्देसो। १. [प्र०] वणस्सइकाइया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं पुढविक्काइयसरिसो उद्देसो । नवरं जाहे वणस्सइकाइओ वणस्सइकाइएसु उववजति ताहे पढम-वितिय-चउत्थ-पंचमेसु गमएसु परिमाणं अणुसमयं अविरहियं अणंता उववजंति । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतं कालं-पवतियं० । सेसा पंच गमा अट्टभवग्गहणिया तहेव । नवरं ठिति संवेहं'च जाणेजा। 'सेवं भंते! सेवं भंते ! ति। चउवीसतिमे सए सोलसमो उद्देसो समत्तो । सोळमो उद्देशक. १. प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि पृथिवीकायिकना उद्देशकनी पेठे आ उद्देशक कहेवो. वनस्पतिकायिक. पण विशेष ए के ज्यारे वनस्पतिकायिक वनस्पतिकायिकोमा उत्पन्न थाय त्यारे पहेला, बीजा, चोथा अने पांचमा आलापकमा 'प्रतिसमय निरन्तर अनंत जीवो उत्पन्न थाय छे'-एम कहे. भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट अनंत भव तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य बे अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट अनंत काळ-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. बाकीना पांच आलापकोमा तेज रीते आठ भव जाणवा. पण विशेष ए के अहीं *स्थिति अने संवेध ए भिन्न भिन्न जाणवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोवीशमा शतकमां सोळमो उद्देशक समाप्त. सत्तरसमो उद्देसो। १. [प्र०] बेंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? जाव-पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए बेदिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति० १ [उ०] सञ्चेव पुढविकाइयस्स लद्धी, जाव-कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेजाई भवग्गणाई-पवतियं । एवं तेसु चेव चउसु गमएसु संवेहो, सेसेसु पंचसु तहेव अट्ट भवा । एवं जाव-चउरिदिएणं समं सत्तरमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे-इत्यादि यावत्-प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव बेइन्द्रियमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा बेइन्द्रियमा उत्पन्न थाय ! [उ०] अहिं पूर्वोक्त [पृथिवीकायिकमा उत्पन्न थवाने योग्य ] पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कहेवी, यावत्-काळनी अपेक्षाए जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट संख्याता भवो-एटलो काळ यावत्-गति आगति करे. जेम (पृथिवीकायिकनी साथे बेइन्द्रियनो संवेध कह्यो छे ) ते प्रमाणे पहेला, बीजा, चोथा अने पांचमा-ए चार १* सर्व गमोमां जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति प्रसिद्ध छे. संवेध-त्रीजा अने सातमां गममा जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अधिक दश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट आठ मवने आश्रयी एंशी हजार वर्ष. छठा अने आठमां गममा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चालीश हजार वर्ष, नवमा गममा जघन्य वीश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एंशी हजार वर्ष होय छे-टीका. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४-उदेशक १० चउसु संखेजा मवा, पंचसु अट्ठ भवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु समं तहेव अट्ठ भया । देवेसुन चेष उपवजंति, ठिती (ति) संवेहं च जाणेज्जा । 'सेवं भंते ! सेवं मंते, ति। चउवीसतिमे सए सत्तरसमो उद्देसो समत्तो। आलापकमां संवेध कहेवो अने बाकीना पांच आलापका पूर्वोक्त आठ भवो जाणवा. ए प्रमाणे अप्कायिकथी मांडी यावत्-चउरिन्द्रियो साथे चार आलापका संख्याता भवो अने बाकीना पांच आलापकर्मा आठ भवो जाणवा. पंचेन्द्रिय तिर्यचो अने मनुष्योनी साथे पूर्वोक आठ भवो जाणवा. तथा देवोमांथी आवी उत्पन्न थता नथी. अहिं स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोवीशमा शतकमां सत्तरमो उद्देशक समाप्त. अट्ठारसमो उद्देसो। १. [प्र०] तेइंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं तेइंदियाणं जहेव बेईदियाणं उद्देसो । नघरं ठिति संघेहं च जाणेज्जा । तेउकाइएसु समं ततियगमे उक्कोसेणं अटुत्तराई बेराइंदियसयाई, बेईदिएहि समं ततियगमे उक्कोसेणं अडयालीसं संवच्छराई छन्नउयराइंदियसतमम्भहियाई, तेइंदिपहिं समं ततियगमे उकोसेणं बाणउयाई तिमि राईदियसयाम् । एवं सम्पत्य जाणेजा जाव-'सन्निमणुस्सात्ति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । चउवीसतिमे सए अट्ठारसमो उद्देसो समत्तो। अष्टादश उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! तेइन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे-इत्यादि बेइन्द्रियना उद्देशकनी पेठे त्रीन्द्रियो संबंधे पण कहेवू. विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध ( भिन्न भिन्न ) जाणवो. तेजस्कायिकोनी साथे [ तेइन्द्रियोनो संवेध ] त्रीजा गममा उत्कृष्ट "बसोने आठ रात्रिदिवसोनो होय छे अने बेइन्द्रियोनी साथे त्रीजा गममा उत्कृष्ट एकसो छनु रात्रिदिवस अधिक अडतालीश वर्ष होय छे. तेइन्द्रियोनी साथे त्रीजा गममा उत्कृष्ट त्रणसोने बाणुं रात्रिदिवस जाणवो. ए प्रमाणे यावत्-संझी मनुष्य सुधी सर्वत्र जाणवू. हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोवीशमा शतकमा अढारमो उद्देशक समाप्त. तेन्द्रियनी उत्पत्ति एगूणवीसइमो उद्देसो। १. [प्र०] चरिदिया णं मंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] जहा तेइंदियाणं उद्देसमो तहेष चउरिदियाण वि । नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेति । चउवीसतिमे सए एगूणवीसतिमो उद्देसो समत्तो । ओगणीशमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! चउरिन्द्रिय जीवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] जेम तेइन्द्रियोनो उद्देशक कह्यो तेम चउरिन्द्रियो संबंधे पण कहेवो. परन्तु विशेष ए के स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोवीशमा शतकमां ओगणीशमो उद्देशक समाप्त. चरिन्द्रियनी सत्पत्ति . १* तेजस्कायिकनी उत्कृष्ट स्थिति प्रण रात्रि-दिवसनी छे. तेने चार भवनी स्थिति साथे गुणता बार रात्रि-दिवस थाय. तेइन्द्रियमी उत्कृष्ट स्थिति ओगण पचास दिवसनी छे, ते चार भवने आश्रयी १९६ रात्रि-दिवस थाय. बन्ने राशि मेळवता २०८ रात्रि-दिवस थाय के टीका.: ए प्रमाणे चउरिन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी तिर्यच अने मनुष्य साथे त्रीजा गमनो संवेध जाणवो. त्रीजा गमनो संवेध बतायवा घर छडा वगेरे गमनो संवेध सूचित थयेलो जाणवो. केमके तेमा पण आठ भवो होय छे. प्रथम वगेरे चार गमनो संवैध भवनी अपेक्षाए संख्याता भवरूप अने काळनी अपेक्षाए संख्यात काळ रूप जाणवो. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २०. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७७ वीसइमो उद्देसो। १. प्रि०ा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कओहितो उववजंति ? [उ०] किं नेरइएहितो०, तिरिक्ख०, मणुस्सेहितो देवेहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा ! नेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्ख०, मणुस्सेहितो वि०, देवेहितो वि उववजंति । २. [प्र०] जब नेरइएहितो उववजंति, कि रयणप्पभपुढविनेरहपहिंतो उववजंति, जाव-अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा! रयणप्पभपुढविनेरइएहितो उववजंति, जाव-अहेसत्तमपुढविनेरहपहिंतो० । ३.प्र०] रयणप्पभपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइकालद्वितिएसु उववजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुषकोडिआउपसु उववजेजा। ४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववंजंति ? [उ०] एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तवया । नवरं संघयणे पोग्गला अणिट्ठा अकंता जाव-परिणमंति। ओगाहणा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा उत्तरं उधिया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं सत्त धणूई तिन्नि रयणीओ छच्चंगुलाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उक्कोसेणं पन्नरस धणूई अड्डाइजाओ रयणीओ। ५. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंठिया पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! दुविहा पञ्चत्ता, तं जहा-भवधारणिजा य उत्तरवेउल्विया य । तत्थ णं जे ते भवधारणिजा ते इंडसंठिया पन्नत्ता । तत्थ णं जे ते उत्तरवेउधिया ते वि डंडसंठिता पन्नत्ता। एगा काउलेस्सा पन्नत्ता । समुग्घाया चत्तारि । णो इत्थिवेदगा, णो पुरिसवेदगा, णपुंसगवेदगा ।। जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं सागरोपमं । एवं अणुवंधो वि, सेसं तहेव । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उकोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चरहिं पुष्चकोडीहिं अब्भहियाई-एवतियं०।। ६. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तद्वितीएसु०, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तट्टितीएसु०, अवसेसं तहेव । नवरं कालादेसणं जहन्नेणं तहेव, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अभहियाई-पव वीशमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तियंचयोनिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी, तिर्यंचयोनिकोथी, मनुष्योथी के देवोथी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयो निकनी उत्पत्ति. आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम 1 तेओ नैरयिकोथी, तिथंचोथी, मनुष्योथी अने देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय छे... २. [प्र०] जो तेओ नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो अ॒ रत्नप्रभापृथिवीना नैरयिकोथी के यावत्-अधःसप्तम पृथिवीना नैरयिकोथी. नैरयिकोनी पंचेन्द्रिआवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम | तेओ रनप्रभापृथिवीना नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय, यावत्-अधःसप्तमपृथिवीना नैरयिकोथी पण आवी उत्पन्न थाय. ३. [प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथिवीनो नैरयिक जे पंचेन्द्रिय तियचयोनिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थिति- रक्षप्रमानैरयिकोनी पै.तियेचा उत्पत्ति. वाळा तियंचोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम 1 ते जघन्य अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोमा उत्पन्न थाय. ४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] जेम असुरकुमारनी वक्तव्यता कही छे तेम अहिं कहेवी. परिमाण. पण विशेष ए के [ रत्नप्रभाना नारकोने ] संघयणमा अनिष्ट अने अमनोज्ञ पुद्गलो यावत्-परिणमे छे. अवगाहना भवधारणीय अने उत्तरवैक्रिय-एम बे प्रकारनी छे. तेमां जे भवधारणीय शरीरनी अवगाहना छे ते [उत्पत्तिसमयनी अपेक्षाए] जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उत्कृष्ट सात धनुष, त्रण हाथ अने छ. अंगुलनी छे. तथा जे उत्तरवैक्रिय शरीरनी अवगाहना छे ते जघन्य अंगुलनो संख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट पंदर धनुष अने अढी हाथनी होय छे. ... ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोनां शरीरो केटलां संस्थानवाळां कह्यां छे ! उ०] हे गौतम! तेनां शरीरो बे प्रकारनां कह्या छे, शरीर. भवधारणीय अने उत्तरवैक्रिय. तेमां जे भवधारणीय शरीर छे, ते हुंडकसंस्थानवालं होय छे, अने जे उत्तरवैक्रिय छे ते पण हुंडकसंस्थानवाळु छे. तेने एक कापोतलेल्या छे. समुद्घात चार छे. स्त्रीवेद अने पुरुष वेद नथी, पण एक नपुंसक वेद छे. स्थिति जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट सागरोपम प्रमाण छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. बाकी बर्षा पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. भवनी अपेक्षाए जघन्य वे भव अने उत्कृष्ट आठ भव, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे. (१). ६. जो ते [ रत्नप्रभा नैरयिक ] जघन्य काळनी स्थितिवाळा पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पन्न थाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट पण अन्तर्मु- रमप्रभानरयिकनी जप० पचेंद्रिय तिर्यइंर्तनी स्थितिवाळा पंचेन्द्रिय तिर्यचमा उत्पन्न थाय. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे कहे. पण विशेष ए के काळनी अपेक्षाए जघन्य उपर मां उत्पत्ति २३ भ• सू. For Private Personal Use Only . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक २०. तियं कालं० २ । एवं सेसा वि सत्त गमगा भाणियचा जहेव नेरइयउद्देसए सन्निपंचिंदिपहिं समं । रइयाणं मज्झिमएसु य तिसु वि गमएसु पच्छिमएसु तिसु वि गमएसु ठितिणाणत्तं भवति, सेसं तं चेव । सवत्थ ठिति संवेहं च जाणेज्जा ९ । ७. [प्र०] सकरप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए० उ०] एवं जहा रयणप्पभाए णव गमगा तहेव सकरप्पभाए वि। नवरं सरीरोगाहणा जहा ओगाहणासंठाणे । तिन्नि णाणा तिन्नि अन्नाणा नियमं । ठिती अणुबंधा पुषभणिया। एवं णव वि गमगा उवजुंजिऊण भाणियधा, एवं जाव-छट्टपुढवी । नवरं ओगाहणा लेस्सा ठिति अणुबंधो संवेहो य जाणियधा। ८. [प्र०] अहेसत्तमपुढवीनेरइए णं भंते ! जे भविए. ? [उ०] एवं चेव णव गमगा । णवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठितिअणुबंधा जाणियचा । संवेहो भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छब्भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं पुच्चकोडीहिं अन्भहियाई-एवतियं । आदिल्लएसु छसु वि गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई, पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहन्ने दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई । लद्धी नवसु वि गमएसु जहा पढमगमए । नवरं ठितीविसेसो कालादेसो य वितियगमएसु जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावट्टि सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाईएवतियं कालं । तइयगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई पुचकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाई तिहिं पुष्चकोडीहिं अब्भहियाई । चउत्थगमे जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाई तिहिं पुषकोडीहिं अब्भहियाई । पंचमगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाई तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई । छट्ठगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं पुष्चकोडीहिं अमहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अभहियाई । सत्तमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं छावट्रि सागरोवमाइं दोहिं पुचकोडीहि अब्भहियाई । अझमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावहि सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अभहियाई । णवमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुषकोडीहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावहि सागरोवमाइं दोहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई-एवतियं०९। शर्कराप्रभानारकनी पं० तियेचा उत्पत्ति. सप्तमनरकना नैर- यिकनी पं० तिर्यंच मां उत्पत्ति. प्रमाणे अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (२). ए प्रमाणे बाकीना सात गमो जेम नैरयिकउद्देशकमां संज्ञी पंचेन्द्रियो साथे कह्या छे तेम अहिं पण जाणवा. वच्चेना त्रण गमको अने छेल्ला त्रण गमकोमा स्थितिनी विशेषता छे. बाकी वधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. बधे ठेकाणे स्थिति अने संवैध भिन्न भिन्न विचारीने कहेवो ९. ७. [प्र०] हे भगवन् ! शर्कराप्रभानो नैरयिक जे पंचेन्द्रिय तियंचोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि जेम रत्नप्रभा संबंधे नव गमको कह्या छे तेम शर्कराप्रभा संबंधे पण नव गमको कहेवा. परन्तु विशेष ए के शरीरनी अवगाहना *अवगाहना-संस्थानपदमां कह्या प्रमाणे जाणवी. तेने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. स्थिति अने अनुबंध पूर्वे कहेल छे. ए प्रमाणे नवे गमो विचारपूर्वक कहेवा. एम यावत्-छठी नरकपृथिवी सुधी जाणवू. पण विशेष ए के अहीं अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबंध अने संवेध भिन्न भिन्न जाणवा. ८. [प्र०] हे भगवन् ! अधःसप्तम नरक पृथिवीनो नैरयिक जे पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पंचेन्द्रिय तियचमा उत्पन्न थाय ? [उ०] पूर्व प्रमाणे नवे गमको कहेवा. विशेष ए के अहीं अवगाहना, लेझ्या, स्थिति अने अनुबंध भिन्न भिन्न जाणवा. संवेध-भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट छ भव, तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. पहेला छ ए गमकोमा जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट छ भव, तथा पाछळना त्रणे गमकोमा जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट चार भव जाणवा. नवे गमकोमा प्रथम गमकनी पेठे वक्तव्यता कहेवी. पण बीजा गममां स्थितिनी विशेषता छे. तथा काळनी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण अन्तर्मुहूर्त अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. त्रीजा गममां जघन्य पूर्वकोटी अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम, चोथा गममा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम; पांचमा गममा जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण अन्तर्मुहूर्त अधिक छासठ सागरोपम; छट्ठा गममां जघन्य पूर्वकोटी अधिक बावीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम; सातमा गममा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक तेत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्ट बे पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम, आठमा गममा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक तेत्रीश सागरोपम, अने उत्कृष्ट बे अन्तर्मुहूर्त अधिक छासठ सागरोपम; तथा नवमा गममा जघन्य पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम, अने उत्कृष्ट बे पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. . * प्रज्ञा० पद २११०४१७-१. Jain Education international Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक २०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७९ ९. [] जर तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जन्ति किं एर्गिदियतिरिक्खजोणिएर्हितो ० १ [30] एवं उबवाओ जहा पुढविकाइयउद्देसप, जाव भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु उववजित्तए से णं भंते! केवति० १ [उ०] गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तट्ठितिएस, उक्कोसेणं पुखकोडी आउपसु उववजंति । १०. [०] पुढविकाइ ११. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा० ? [अ०] एवं परिमाणादीया अणुबंधपज्जवसाणा जच्चेव अप्पणो सट्ठाणे वत्तधया सच्चैव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु वि उववज्जमाणस्स भाणियंधा । णवरं णवसु वि गमपसु परिमाणे जहनेणं एको वा दो वा तिन्निवा, उक्रोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । भवादेसेण वि णवसु वि गमपसु जहनेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, सेसं तं चेव । कालादेसेणं उभओ द्वितीय करेजा । 1 १२. [प्र०] जइ आउक्काइपहिंतो उववजंति० १ [३०] एवं आउक्काइयाण वि । एवं जाव - चउरिंदिया उववापयवा । नवरं सवत्थ अप्पणो लद्धी भाणियवा । णवसु वि गमपसु भवादेसेणं जहनेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भग्गहणाई । कालादेसेणं उभओ ठिर्ति करेजा सधेसि सन्वगमपसु । जहेव पुढविकाइपसु उववज्रमाणाणं लद्धी तद्देव सवत्थ ठिर्ति संवेद्दं च आणेजा । १३. [प्र०] जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्रंति किं सन्निपचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, असन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? [उ०] गोयमा ! सन्निपचिदिय०, असन्निपंचिदिय०, भेभो जद्देव पुढवि - काइएसु उववज्जमाणस्स, जाव १४. [प्र० ] असंन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते । जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिपसु उववजित्तप से णं भंते ! केवतिकाल० १ [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्टितीएसु उववज्रंति । १५. [प्र० ] ते णं भंते! ० १ [अ०] अवसेसं जद्देव पुढविक्काइपसु उववजमाणस्स असन्निस्स तहेव निरवसेसं, जाव'भवादेसो 'ति । कालादेसेणं जहनेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुधकोडिपुहुत्तमम्भद्दियं ९. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते ( संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि पृथिवीकायिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे अहीं उपपात कहेवो. यावत् १०. [प्र० ] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक, पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पृथिवीकायिकनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोमां उत्पन्न थाय ? [30] हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळामां उत्पन्न थाय. पंचेन्द्रिय तिर्यचमां उत्पत्ति. परिमाण. ११. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( पृथिवीकायिको ) एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि परिमाणथी मांडी अनुबंध सुधी जे पोताना स्वस्थानमां वक्तव्यता कही छे तेज प्रमाणे अहिं पण कहेवी. परन्तु विशेष ए नवे गमकोमां परिमाण जघन्य एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. संवेध-भवनी अपेक्षाए नवे गमोमां जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव जाणवा. बाकी धुं पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. काळनी अपेक्षाए बन्नेनी स्थिति एकठी करवावडे संवेध करवो. १२. जो ते ( पं० तिर्यंचो ) अष्कायिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो - इत्यादि पूर्व प्रमाणे अप्काय संबंधे पण कहेवुं. अने ए प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय सुधीनो उपपात कहेवो. परन्तु सर्व ठेकाणे पोतपोतानी वक्तव्यता कहेवी. नवे गमकोमां भवादेश जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव, तथा काळादेश बन्नेनी स्थिति जोडीने करवो. जे प्रमाणे पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थनारनी वक्तव्यता कही छे. तेज प्रमाणे बधा गमोमां बधा जीवो संबंधे कहेवी, अने बधे ठेकाणे स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. तिर्यचोमां उत्पत्ति. १३. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते ( पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको ) पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संज्ञी पंचेन्द्रिय- पं० तियँचोनी पं० तिर्यचयोनिकथी आवी उत्पन्न थाय के असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ बन्ने प्रकारना तिर्यंचोमांथी आवी उत्पन्न थाय - इत्यादि पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थनार तिर्यंचोना भेदो #कह्या छे तेम अहीं पण कहेवा. यावत् १४. [प्र०] हे भगवन् ! असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला असंची पं० तिर्यंचन काळनी स्थितिवाळा सं० पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाळा पंचेन्द्रिय तिर्यचमां उत्पन्न थाय. सं० पं० तिर्यचम उत्पत्ति. १५. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको ) एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि संबंधे पृथिवीका - यिकमां उत्पन्न थनार असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनी वक्तव्यता कही छे ते प्रमाणे यावत्-भवादेश सुधी कहेवी. काळनी अपेक्षाए जघन्य बे १३ * अष्कायिकोनी पं० तिर्यमा उत्प भग० खं० ४ श० २४ उ० १२ सू० २८. उत्पात परिमाण. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक २०. पवतियं०१ बितियगमए एस चेव लद्धी । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडियो चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ-एवतियं० २। १६. सो चेव उक्कोसकालट्टितीपसु उववन्नो जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागट्टिइएसु, उकोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागट्ठितिएसु उववजंति । [प्र.] ते णं भंते ! जीवा० ? [उ०] एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स असनिस्स तहेव निरवसेसं जाव-कालादेसोति । नवरं परिमाणे जहन्नेणं पक्को वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेज्जा उववजंति, सेसं तं चेव ३।। १७. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितीओ जाओ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तट्टितीएसु, उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु उववजंति । ते णं भंते !- अवसेसं जहा एयस्स पुढविक्काइएसु उववजमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु तहा इह वि मज्झिमेसु तिसु गमएसु जाव-अणुबंधो'त्ति । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहनेणं दो अंतोमहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुषकोडीओ चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ४।। १८. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो एस चेव वत्तवया । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अट्ट अंतोमुहुत्ता-एवतियं० ५। १९. सो चेव उक्कोसकालद्वितिएसु उववन्नो जहन्नेणं पुवकोडिआउएसु, उक्कोसेण वि पुषकोडिआउपसु उववजहएस चेव वत्तवया । नवरं कालादेसेणं जाणेज्जा ६। २०. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ सञ्चेव पढमगमगवत्तवया । नवरं ठिती जहन्नेणं पुष्पकोडी, उक्कोसेण वि पुचकोडी, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी अंतोमुहुत्तमम्भहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागं पुवकोडिपुहुत्तमभहियं-एवतियं० ७। २१. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववनो, एस चेव वत्तवया जहा सत्तमगमे । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी अंतोमुहुत्तमभहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुष्चकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ-एवतियं० ८ । अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (१). बीजा गममां पण एज वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के काळादेशथी जघन्य बे अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त अधिक चार पूर्वकोटी एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (२). असंशी पं० तिर्यंचनी १६. जो ते (असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक) उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच योनिकोमा उत्पन्न थाय तो उ० संशी पं० तिर्य जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय. हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि जेम रत्नप्रभा पृथिवीमा उत्पन्न थनार असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी वक्तव्यता कही छे तेम यावत्-काळादेश सुधी बधी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के परिमाण-जघन्य एक, बे, के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू (३). जघ० असंशी पं० १७. जो ते पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय तो जघन्य अन्तर्मुहर्तनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी स्थितिवाळा संज्ञी तिर्यंचनी संशी पं० पं० तियंचमां उत्पन्न थाय. हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थता जघन्य आयुषवाळा ..तिर्यंचमां उत्पत्ति. __ असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचने वच्चेना त्रण गममा जेम का छे तेम अहिं पण त्रणे गमकोमा यावत्- अनुबंध सुधी बधुं कहे. भवादेशथी जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव तथा काळादेश वडे जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटी वर्ष एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (४). . असंशी पं० तिर्यंचनी १८. जो ते (असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच) जघन्य काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोमा उत्पन्न थाय तो तेने जघ० संशी पं० तिय. पण एज वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के काळादेशथी जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट आठ अन्तर्मुहूर्त-एटलो काळ यावत्चमी उत्पत्ति. गतिआगति करे (५). असंशी पं० तिवचनी १९. जो तेज उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोमा उत्पन्न थाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वर्षनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय. अहीं एज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के अहीं काळादेश भिन्न जाणवो (६). पमा उत्पत्ति. उ० असंशी पं० तिर्य- २०. जो ते ज जीव पोते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळो होय तो तेने प्रशम गमकनी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के स्थिति चनी सं० ५० तिय- जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी होय छे. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं. काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक पूर्वकोटी अने चमा उत्पत्ति. उत्कृष्ट पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक पल्योपमनो असंख्यातमो भाग-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (७). उ० असंशी पं० तिय- २१. जो ते जीव जघन्यकाळनी स्थितिवाळा तिर्यंचमां उत्पन्न थाय तो तेने पण एज (सातमा गमकनी) वक्तव्यता कहेवी. चनी जघ० संशी पं० तियचमा उत्पति. पण * पण विशेष ए के काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त अधिक चार पूर्वकोटी-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (८). चमा उत्पत्ति. . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २०० भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२. सो चेव उकोसकालदिइएसु उववन्नो, जहनेणं पलिओवमस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजाभागं, एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स असन्निस्स नवमगमए तहेव निरवसेसं जाव-'कालादेसो'त्ति । नवरं परिमाणं जहा एयरसेव ततियगमे, सेसं तं चेव ९। २३. प्रि०ा जा सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं संखेजवासाउय०, असंखेजवासाउय [उ.] गोयमा! संखेज०, णो असंखेज। २४. [प्र०] जइ संखेज. जाव-किं पजत्तसंखेज, अपजत्तसंखेज.? [उ.] दोसु वि । २५. [प्र०] संखेजवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवति० १ [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्ठितिपसु उववजेजा। २६. [प्र०] ते णं भंते ! अवसेसं जहा एयस्स चेव सन्निस्स रयणप्पभाए उववजमाणस्स पढमगमए । नवरं ओगा. हणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तं चेव जाव-भवादेसोत्ति । कालादेसेणं जहनेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुचकोडीपुहुत्तमभहियाई-एवतियं० १ । २७. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो एस. चेव वत्तव्वया । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुषकोडीओ चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अभहियाओ २।। २८. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो जहन्नेणं तिपलिओवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्रितीएसु उववजति-एस चेव वत्तवया । नवरं परिमाणं जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति । ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तं चेव जाव-'अणुबंधो'त्ति । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुषकोडीए अब्भहियाई ३ । २२. जो ते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्या- उ० असंघी पं० तिर्य चनी उ० संशी पं०तमा भागनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां, उत्पन्न थाय-इत्यादि जेम रत्नप्रभामा उत्पन्न थनार असंज्ञी पंचेन्द्रियनी वक्तव्यता कही छे तेम यावत्-काळादेश सुधी बधी वक्तव्यता कहेवी. परन्तु आना त्रीजा गममां कह्या प्रमाणे परिमाण कहे. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु (९). २३. [प्र०] जो ते (संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच ) संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयु- १ संशी पं० तिर्यंचनी षवाळा के असंख्याता वर्षना आयुषवाळामांथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यचोमाथी उत्पत्ति. आवी उत्पन्न थाय, पण असंख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचोमांथी आवी न उत्पन्न थाय. २४. [प्र०] जो तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियेचमांथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा के अपर्याप्त संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमांथी आवी उत्पन्न थाय ? उ०] तेओ बन्नेमांथी आवी उत्पन्न थाय. २५. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंच मां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थाय. २६. [प्र०] हे भगवन् ! ते संज्ञी पंचेन्द्रिय तियचो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि रत्नप्रभामां उत्पन्न थनार आ संज्ञी परिमाणादि. पंचेन्द्रिय तिर्यंचना प्रथम गमकनी पेठे बधुं जाणवू. परन्तु शरीरप्रमाण जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हजार योजन होय छे. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे यावत्-भवादेश सुधी जाणवु. काळादेशथी जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावतू-गमनागमन करे (१). २७. जो ते ज जीव जघन्यकाळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचमां उत्पन्न थाय तो तेने एज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. २संशी पं० तिर्यचनी जघन्य संशी पं० परन्तु काळादेशथी जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त अधिक चार पूर्वकोटी-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. (२) तिबचमा उत्पत्ति २८. जो ते ज उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचा उत्पन्न थाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा संधी पं. तिथंचनी संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण परिमाण-जघन्य एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट "संख्याता जीवो. उत्कृष्ठ संशी ५० तिचा उत्पत्तिउत्पन्न थाय. तेनुं शरीर जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हजार योजन होय छे. बाकी बधुं पूर्व कह्या प्रमाणे यावत्अनुबंध सुधी जाणवू. भवादेशथी बे भव अने काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक त्रण पल्योपम तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (३). २८ * उत्कृष्ट स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यची असंख्यात वर्षना आयुषवाळा ज होय छे, अने ते संख्याता होवाथी उस्कृष्टपणे पण संख्याता ज उपजे छे. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जघन्य० संशी पं० तिर्यचनी संशी पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. ७ उत्कृष्ट० सं० पं० तिर्यचनी [सं० पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. ८ उत्कृष्ट० सं० पं० तिर्यचनी ज० सं० पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. उ० सं० पं० ति• चनी उ० सं० पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. मनुष्योनी सं० पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. असंही मनुष्योनी सं० पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २४.—उद्देशक २०. २९. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितीओ जातो, जहन्नेणं अंतोमुहुत०, उक्कोसेणं पुचकोडी आउपसु उववज्जति । लद्धी से जहा एयस्स चेव सन्निपंचिंदियस्स पुढविक्काइएसु उववजमाणस्स मज्झिल्लएसु तिसु गमपसु सच्चैव द्दह वि मज्झिमेसु तिसु गमपसु कायचा । संवेहो जहेव एत्थ चेव असन्निस्स मज्झिमेसु तिसु गमपसु ६ । १८२ ३०. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितीओ जाओ जहा पढमगमभ । णवरं ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुचकोडी, उक्कोसेण वि पुञ्चकोडी । कालादेसेणं जहनेणं पुचकोडी अंतोमुहुत्तमन्महिया, उक्कोसेणं तिनि पलिओ माई पुचकोडीपुहुत्तममहियाई ७ । ३१. सो चैव जहन्नकालट्ठितिएसु उववन्नो एस चैव वत्तष्वया । नवरं कालादेसेणं जनेणं पुचकोडी अंतोमुहुत्तमन्महिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुचकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहि अन्भहियाओ ८ । ३२. सो चेव उक्कोसकालट्ठितिएसु उववन्नो जन्नेणं तिपलिओवमट्ठितिएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्ठितिएसु, अवसेसं तं चेव । नवरं परिमाणं ओगाहणा य जहा एयस्सेव तइयगमए । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहनेणं तिनि पलिओ माई पुचकोडीए अन्भहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओ माई पुष्चकोडीए अम्महियाई- एवतियं ९ । १ ३३. [प्र०] जइ मणुस्सेहिंतो उववज्रंति किं सन्निमणु०, असन्निमणु० ? [अ०] गोयमा ! सन्निमणुस्सेर्हितो वि, असनिमणुस्सेर्हितो वि उववजंति । ३४. [प्र०] असन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तर से णं भंते! केवतिकाल० १ [30] गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं पुधकोडिआउपसु उववज्जति । लद्धी से तिसु वि गमपसु जद्देव पुढ विक्काइपसु उववज्जमाणस्स । संवेद्दो जहा एत्थ चेव असन्निपंचिदियस्स मज्झिमेसु तिसु गमपसु तद्देव निरवसेसो भाणियो । २९. जो ते ( संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) पोते ज जघन्य स्थितिवाळो होय [ अने ते संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न याय ] तो ते जघन्य अन्तर्मुहूर्त आयुषत्राळा अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकमां उत्पन्न थाय. तेने पृथिवीकायिकमां उत्पन्न थता आज संज्ञी पंचेन्द्रियनी जे वक्तव्यता कही छे ते आ उद्देशकमां मध्यना चोथा, पांचमा अने छट्ठा ए ऋण गमकमां कहेवी. अने [ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थता ] असंज्ञी पंचेन्द्रियने मध्यना ऋण गमकमां जे संवेध कह्यो छे ते प्रमाणे अहिं कहे वो (६). ३०. जो ते पोते उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळो होय तो तेने प्रथम गमकनी पेठे कहेतुं. परन्तु स्थिति अने अनुबंध जघन्य तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटी होय छे . काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक त्रण पल्योपमएटलो काळ यावत् - गमनागमन करे ( ७ ). ३१. जो ते ज जीव ( उ० संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) जघन्य स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकमां उत्पन्न थाय तो तेने एज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटी - एटलो काळ यावत् - गमनागमन करे (८). ३२. जो ते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा सं० पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. पण विशेष ए के परिमाण अने अवगाहना आना त्रीजा गमकमां कह्या प्रमाणे जाणवां. भवादेशथी बे भव अने काळादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (९). ३३. [प्र०] जो (सं० पं० तिर्यंचो ) मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न याय के असंज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! तेओ संज्ञी अने असंज्ञी ए बन्ने प्रकारना मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय. ३४. [प्र०] हे भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, जे पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यचमां उत्पन्न थाय ? [30] हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न था. पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थनार असंज्ञी मनुष्यनी प्रथमना ऋण गमकमां जे वक्तव्यता कही छे ते अहीं प्रथमनात्रणे गमकम कवी. अने संवेध असंज्ञी पंचेन्द्रियना मध्यम त्रेण गमकमां कह्यो छे ते प्रमाणे अहिं कहेवो. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक २०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १८३ ३५. [अ०] जद्द सनिमणुस्सेर्दितो० किं संखेजवासाउयसनिमणुस्खेहिंतो०, असंखेखपासाउयसन्निमस्सेर्हितो ० १ [अ०] गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाज्य० । ३६. [०] संवासाठय० किं पात०, अपक्षत० १ [४०] गोयमा ! पत्तसंसेजवासाठय०, अपजत्तसंखे जवासाउय० । ३७. [प्र०] सन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिपसु उववजित्तर से णं भंते ! केवति ० १ [30] गोयमा ! जहणं अंतोमुडुत्त०, उझोसेणं तिपलिओयमद्धितिरसु उपयज्जति । ३८. [प्र० ] ते णं भंते 1० [30] लद्धी से जहा एयस्सेव सन्निमणुस्सस्स पुढविक्काइएसु उववजमाणस्स पढमगमए जाय 'भवासो 'ति । कालादेसेणं जहणं दो अंतोमुडुत्ता, उद्योसेनं तिनि पलिओचमाई पुञ्चकोडिपुहत्तमम्भहियाई १ । ३९. सोचे जाट्ठतिरसु उवचनो एस चैव वत्तष्ठया नवरं कालादेसेणं जहणं दो अंतोमुत्ता, उद्योसेणं चारि पुष्कोडीओ चढाई अंतोहि अम्महियाओ २ । ४०. सो चैव उक्कोसकालट्ठितिरसु उबवन्नो जहणं तिपलिओोषमपिसु, उझोसेण वि तिपलिओवमट्ठिएसु-सचेव बसइया नवरं ओगाहणा जहस्रेणं अंगुलपुहतं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई । डिती जहन्त्रेणं मासपुहतं, उक्कोसेगं पुषकोडी । एवं अणुबंधो वि । मवादेसेणं दो भयम्महणारं, कालादेसेणं जहनेणं तिनि पलिभोयमाई मासपुदत्तमम्भदियाई, उकोलेणं तिनि पलिओ माई पुचकोडी अब्भहियाई - एवतियं ० ३ । पं० तिर्यचर्मा ३५. [प्र०] हे भगवन् ! जो ( संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा संधी मनुष्योनी संजी संज्ञी मनुष्योथी के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न घाय, पण असंख्याता वर्षना आयुषवाळा मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. उत्पत्ति. ३६. [प्र० ] जो तेओ (संज्ञी पं० तिर्यचो) संख्याता वर्षना आगुपवाळा मनुष्योधी आची उत्पन्न याय तो शुं पर्याप्ता मनुष्योथी के अपर्याप्ता मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ पर्याप्ता अने अपर्याप्ता बन्ने प्रकारना मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय. ३७. [प्र०] संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य, जे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केला काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी सितियाळा [सं० पं० तिर्यचमां उत्पन्न पाय ३८. [प्र०] हे भगवन् ! ते संज्ञी मनुष्यो एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थता ए ज संज्ञी मनुष्यनी प्रथम गमकमां कहेली "वक्तव्यता यावत्-मवादेश सुची अहीं कहेवी. काळादेशथी जघन्य वे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावत्- गतिआगति करे (१). ३९. जो ते संज्ञी मनुष्य जघन्य काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्येचयोनिकमां उत्पन्न थाय तो तेने ए ज पूर्वोक्त वक्त-संक्षी मनुष्यनी ज सं० पं० तिर्यंचमां व्यता कवी. परन्तु काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटी वर्ष-एटलो काळ यावत्उत्पत्ति. गमनागमन करे (२). सं० पं० तिर्यचम उत्पत्ति. ४०. जो तेज मनुष्य उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा तिचमां उत्पन्न धाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पत्योपमनी स्थितिवाळा ही मनुष्वनी ७० संज्ञी पं० तिर्यधमां उत्पन्न याय. (अहीं पण ) एज पूर्योक वक्तव्यता कहेगी. पण विशेष ए के शरीरप्रमाण जघन्य अंगुलपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पांचसो धनुष होय छे. आयुष जघन्य मासपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. भवादे - शधी वे भव तथा काव्यदेशची जघन्य मासपृथक्त्व अधिक जण पत्योपम अने उत्कृष्ट पूर्यकोटी अधिक त्रण पल्पोएम-एटलो फाळ यावत् गमनागमन करे (३). ३८-३९ * पृथिवीकायिकमां उत्पन्न यता संज्ञी मनुष्यनी प्रथम गममां कहेली वक्तव्यता आ प्रमाणे छे. परिमाण -- एक समये जघन्य एक, बे अने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. कारण के संज्ञी मनुष्यो हमेशां संख्याता ज होय छे. तेने छ संघयण होय छे. उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी अवगाहना, छ संस्थान, त्रण दृष्टि, विकल्पे चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान, त्रण योग, बे प्रकारनो उपयोग, चार संज्ञा, चार कषाय, पांच इन्द्रिय, छ समुद्घात, साता अने असाता, त्रण वेद, ज० अन्तर्मुहूर्तनुं आयुष, उ० पूर्वकोटिनुं आयुष, प्रशस्त अने अप्रशस्त अध्यवसाय, स्थितिना समान अनुबन्ध अने संवेध. जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव होय छे. बीजा गममां प्रथम गममां कहेली वक्तव्यता कहेवी. परन्तु काळनी अपेक्षाए ज० बे अन्तर्मुहूर्त अने उ० चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि संवेध जागो. टीका. परिमाणादि. ४० + श्रीजा गममां पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. परन्तु अवगाहना अंगुलपृथक्त्व — बे अंगुलथी नव अंगुल प्रमाण अने आयुष मासपृथक्त्व जाणवु. आ कथनथी एटलं जाणी शकाय छे के अंगुलपृथक्त्वथी न्यून शरीरवाळो तथा मासपृथक्त्वथी हीन आयुषवाळो मनुष्य उत्कृष्ट आयुषवाळा तिर्यचमां उत्पन्न थतो नथी. टीका. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक २०. ४१. सो चेव अप्पणा जहन्नकालटिइओ जाओ, जहा सनिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उपवजमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु वत्तवया भणिया एस चेव एयस्स वि मज्झिमेसु तिसु गमएसु निरवसेसा भाणियचा । नवरं परिमाणं उक्कोसेणं संखेजा उववजंति, सेसं तं चेव ६ । ४२. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितिओ जातो सच्चेव पढमगमगवत्तवया । नवरं ओगाहणा जहनेणं पंच धणुसयाई उकोसेणं पंच धणुसयाई । ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुष्चकोडी, उक्कोसेण वि पुषकोडी, सेसं तहेव जाव-भवादेसोति, कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी अंतोमुहुत्तमभहिया, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुष्वकोडिपुहत्तमभहियाई-एवतियं ७॥ ४३. सो चेव जहन्नकालट्ठितिएसु उववन्नो एस चेव वत्तवया । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं पुषकोडी अंतोमुत्तमम्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुचकोडीओ चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ ८। ४४. सो चेव उक्कोसकालट्ठितिपसु उववन्नो, जहन्नणं तिन्नि पलिओवमाई, उक्कोसेण वि तिन्नि पलिओवमाई, एस चैव लद्धी जहेव सत्तमगमे । भवादेसणं दो भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई पुषकोडीए अब्महियाई, उक्कोसेण वि तिन्नि पलिओवमाइं पुचकोडीए अब्भहियाई-पवतियं ९।। ४५. [प्र०] जइ देवेहितो उववजंति किं भवणवासिदेवेहितो उववजंति, वाणमंतर०, जोइसिय०, वेमाणियदेवेहितो. ? [10] गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि०, जाव-वेमाणियदेवेहितो वि० । ४६. [प्र.] जइ भवणवासि० किं असुरकुमारभवण, जाव-थणियकुमारभवण ? [उ०] गोयमा! असुरकुमार०, जाव-थणियकुमारभवणः । ४७. [प्र०] असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते! केवति०१० गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तहितिएसु, उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु उववज्जति। असुरकुमाराणं लद्धी णवसु वि गमएसु जहा पुढविक्काइएसु उववजमाणस्स, एवं जाव-ईसाणदेवस्स तहेव लद्धी । भवादेसेणं सवत्थ अट्ठ भवग्गहणाई, उक्कोसेणं जहन्नेणं दोन्नि भवग्गहणाई । ठिति संवेहं च सम्वत्थ जाणेजा ९ । उत्पत्ति. जघ संशी मनुष्यनी ४१. जो ते संज्ञी मनुष्य पोते जघन्यस्थितिवाळो होय तो तेने जेम पंचेन्द्रिय तियचमा उत्पन्न थता पंचेन्द्रिय तिर्यचनी मध्यम त्रण सं० पं० तियेचमा गमकोनी वक्तव्यता कही छे तेम आनी पण मध्यम त्रण गमकोनी बधी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के परिमाण 'उत्कृष्ट संख्याता उपजे' एम कहेवू, अने बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. (६) उत्कृष्ट० संशी मनुः ४२. जो ते (संज्ञी मनुष्य ) पोते उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळो होय तो तेने प्रथम गमकनी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के यनी सं०५०तियमा शरीरनी अवगाहना जघन्य अने उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी होय छे. स्थिति अने अनुबंध जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी होय छे. बाकी बधुं यावत्-भवादेश सुधी ते ज प्रमाणे जाणवं. काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (७). . उ० संशी मनुष्यनी ४३. जो ते ज मनुष्य जघन्य स्थितिवाळा तियंचमां उत्पन्न थाय तो तेने ए ज वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के काळादेशथी जघ०सं०५० तिर्य Hd जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त अधिक चार पूर्वकोटी-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (८). उ० संशी मनुष्यनी ४४. जो ते ज मनुष्य उत्कृष्टकाळनी स्थितिबाळा संज्ञी पं० तिर्यंचयोनिकमा उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्यो पमनी स्थितिवाळा संज्ञी० पं० तियंचमां उत्पन्न थाय. अहिं पूर्वोक्त सातमा गमकनी वक्तव्यता कहेवी. भवादेशथी बे भव अने काळादेचमा उत्पत्ति. शथी जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (९). देवोनी सं० ५० १५. जो ते (सं० पं० तिर्यंचो) देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं भवनवासी देवोथी, वानव्यन्तर देवोथी, ज्योतिषिक देवोथी तिर्यंचोमा उत्पत्ति. • के वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ भवनवासी देवोथी, अने यावत्-वैमानिक देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. असुरकुमार ४६. [प्र०] जो ते भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं असुरकुमार भवनवासीथी के यावत्-स्तनितकुमार भवनवासी भवनवासी देवोनो ही सं०६० तिर्यंचोमा देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ असुरकुमारोथी, यावत्-स्तनितकुमार भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय छे. उपपात. ४७. [प्र०] हे भगवन् ! जे असुरकुमार भवनवासी देव सं० पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय ? [उ. हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय. तेने नवे गमकमा जे वक्तव्यता पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थता असुरकुमारोनी कही छे तेम कहेवी. ए प्रमाणे यावत्-ईशानदेव लोक सुधी पण ते प्रमाणे वक्तव्यता कहेवी. भवादेश बधे ठेकाणे उत्कृष्ट आठ.भव अने जघन्य बे भव होय छे. अहीं सर्व ठेकाणे स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो (९). Jain Education international Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४. - उद्देशक २०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. १८५ ४८. [प्र०] नागकुमारे णं भंते ! जे भविष० १ [३०] एस चेव वत्तष्वया । नवरं ठिर्ति संवेदं च जाणेज्जा । एवं जाव - धणियकुमारे ९ । ४९. [प्र०] जइ वाणमंतरेर्हितो ० किं पिसाय० १ [अ०] तहेव । जाब ५०. [प्र० ] वाणमंतरे णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्ख० १ [30] एवं चेव । नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा ९ । ५१. [०] जोतिसि० १ [अ०] उववाओ तहेव । जाव ५२. [प्र० ] जोतिसिए णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्ख० १ [30] एस चैव वत्तवया । जहा पुढविकाश्यउद्देसप भवग्गणाई वसु वि गमपसु अट्ठ, जाव-कालादेसेणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तमन्महियं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओ माई चउहिं पुष्वकोडीहिं चउहि य वाससय सहस्सेहिं अम्भहियाइं - एवतियं० । एवं नवसु वि गमपसु, नवरं ठिति संवेह च जाणेजा ९ । ५३. [प्र० ] जर वेमाणियदेवेर्हितो ० किं कप्पोवगवेमाणिय०, कप्पातीत वेमाणिय० १ [३०] गोयमा ! कप्पोवगवेमाणिय०, नो कप्पातीतवेमाणिय० । जइ कप्पोवग० जाव - सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवेर्हितो वि उववजंति, नो आणय०, जावो अच्कप्पवगवेमाणिय० । ५४. [ प्र० ] सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविष पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति० १ [30] गोमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुत्त०, उक्कोसेणं पुचकोडीआउपसु, सेसं जहेव पुढविक्काइयउद्देसर नवसु वि गमपसु । नवरं नवसु विगमप जहनेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । ठिर्ति कालादेसं च जाणिजा, एवं ईसाणदेवे वि । एवं कमेणं अवसेसा वि जाव - सहस्सारदेवेसु उववापयष्वा । नवरं ओगाहणा जहा भोगाहणासंठाणे, लेस्सा- सणकुमार ४८. [प्र० ] हे भगवन् ! जे नागकुमार, पंचेन्द्रिय तिर्यैचयोनिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा सं० नागकुमारनी पं० तिर्यचमां उत्पन्न थाय ? [ उ०] हे गौतम! अहीं बधी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के स्थिति अने संवेध ( भिन्न ) जाणवो. ए प्रमाणे यावत् - स्तनितकुमारो सुधी जाणवुं. पं० तिर्यचम उत्पत्ति. ४९. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते ( संज्ञी पं० तिर्यंचो ) वानव्यन्तरोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं पिशाच वानव्यन्तरोथी आवी वानव्यंवी उत्पन्न थाय- इत्यादि बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं यावत् पं० तिर्यचम उत्पत्ति. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! जे वानव्यन्तर, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको मां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय ? [30] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. पण विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. ५१. [प्र० ] जो ते ( संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) ज्योतिषिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने पूर्वे कह्या प्रमाणे- पृथिवीकायिकम ज्योतिषिकोनी उत्पन्न थता संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचने का प्रमाणे उपपात कहेवो. यावत् पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. ५२. [प्र० ] हे भगवन् ! जे ज्योतिषिक, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको मां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा सं० पं० तिर्यंचमां उत्पन्न थाय ? [उ०] ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता जेम पृथिवीकायिक उद्देशकमां कहेली छे तेम कहेवी. नवे गमकमां आठ भवो जाणवा. यावत्-काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपमनो आठमो भाग अने उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी अधिक पल्योपमएटलो काळ यावत्-गतिआगति करे. ए प्रमाणे नवे गमकोमां जाणवुं. पण विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. (९) ५३. [प्र० ] जो तेओ वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं कल्पोपपन्न वैमानिक देवोथी के कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी वैमानिक देवोनी उत्पन्न थाय ? [ उ०] हे गौतम! तेओ कल्पोपपन्नक वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय, पण कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी न उत्पन्न थाय. जो कल्पोपपन्न वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो यावत् सहस्रार कल्पोपपत्रक वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय, पण आनत कल्पोपपन्नक, यावत्-अच्युतकल्पोपपन्नकथी आवी उत्पन्न न थाय. • पं० तिर्यचमां उत्पत्ति. ५४. [प्र० ] हे भगवन् ! जे सौधर्म देव, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा पंचेन्द्रिय तिर्यचमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी आयुषवाळा पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थाय. बाकी बधुं नवे गमकोने आश्रयी पृथिवीकायिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवुं. पण विशेष ए के नवे गमकोमां संवेध - भवनी अपेक्षाए जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भवनो होय छे. स्थिति अने काळादेश ( भिन्न भिन्न ) जाणवा. ए प्रमाणे ईशान देव संबंधे पण जाणवुं. २४ भ० सू० For Private Personal Use Only सौधर्मथी सहस्र पर्यंत देवोनी सं० तिर्यचमां उत्प Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक २१. माहिंद-बंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा, सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा । वेदे नो इत्थिवेदगा, पुरिसवेदगा, णो नपुंसगवेदगा । आउअंणुबंधा जहा ठितिपदे, सेसं जहेव ईसाणगाणं कायसंवेहं च जाणेजा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। चउवीसतिमे सए वीसतिमो उद्देसो समत्तो । तथा ए ज क्रमवडे बाकी बधाः देवोनो यावत्-सहस्रार देव सुधी उपपात कहेवो. परन्तु अवगाहना, *अवगाहनासंस्थानपदमां कह्या प्रमाणे जाणवी. लेश्या-सनत्कुमार, माहेन्द्र अने ब्रह्मलोकमां एक पद्मलेश्या अने बाकी बधाने एक शुक्ललेश्या जाणवी. वेदमा स्त्रीवेदवाळा अने नपुंसकवेदवाळा नथी, पण पुरुषवेदवाळा होय छे. 'स्थितिपदमां कह्या प्रमाणे आयुष अने अनुबंध जाणवो. बाकी बधुं ईशान देवोनी पेठे जाणवं, तेमज अहिं कायसंवेध जुदो कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चोवीशमा शतकमां वीशमो उद्देशक समाप्त. एगवीसतिमो उद्देसो । १. [३०] मणुस्सा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरइएहितो उववजंति ? जाव-देवहितो उववजंति ! [उ.1 गोयमा! णेरइएहितो वि उववजंति, जाव-देवेहितो वि उववजंति-एवं उववाओ जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिउहेसए जाव'तमापुढविनेरहपहितो वि उववजंति, णो अहेसत्तमपुढविनेरइएहिंतो उववजंति । . २. [प्र०] रयणप्पभपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल. ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं मासपुहत्तहितिएसु, उक्कोसेणं पुषकोडिआउपसु, अवसेसा वत्तवया जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंतस्स तहेव । नवरं परिमाणे जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति । जहा तहिं अंतोमुहुत्तेहिं तहा इहं मासपुहत्तेहिं संवेह करेजा, सेसं तं चेव ९ । जहा रयणप्पभाए वत्तवया तहा सकरप्पभाए वि । नवरं जनेणं वासपुहुत्तद्विइएसु, उक्कोसेणं पुष्चकोडी । ओगाहणा-लेस्सा-णाण-द्विति-अणुबंध-संवेहं णाणत्तं च जाणेजा जहेव तिरिक्खजोणियउद्देसए । एवं-जाव-तमापुढविनेरइए ९ । ३. [प्र०] जइ तिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति किं एगिदियतिरिक्खजोणिपहिंतो उववजंति जाव-पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिए. भेदो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिउहेसए। नवरं तेउ-वाऊ पडिसेहेयधा, सेसं तं चेव । जाव एकवीशमो उद्देशक. मनुष्योनो उपपात रसप्रभानैरयिकनो मनुष्यमा उपपात. १. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी, के यावत्-देवोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय, यावत्-देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे अहीं पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक उद्देशकमा कह्या प्रमाणे उपपात कहेवो. यावत्-छठी तमा पृथिवीना नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय, पण सातमी तमतमा पृथिवीना नैरयिकोथी आवी न उत्पन्न थाय. २. [प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथिवीनो नैरयिक जे मनुष्योमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्यमा उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य बे मासथी आरंभी नव मास सुधीनी अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमा उत्पन्न थाय. बाकी बधी वक्तव्यता पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकमा उत्पन्न थता रत्नप्रभानैरयिकनी पेठे कहेवी. परन्तु परिमाण-जघन्य एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. जेम त्यां अन्तर्मुहूर्तवडे संवेध कर्यो छे तेम अहीं मासपृथक्त्ववडे संवेध करवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू, रत्नप्रभानी वक्तव्यतानी पेठे शर्कराप्रभानी पण वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के जघन्य वर्षपृथक्त्वनी स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय. तथा अवगाहना, लेश्या, ज्ञान, स्थिति, अनुबंध अने संवेध अने तेनी विशेषता तिर्यंचयोनिकना उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. ए प्रमाणे यावत्-तमा पृथिवीना नैरयिक सुधी जाणवू. ३. [प्र०] जो तेओ तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी के यावत्-पंचेन्द्रिय तियचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! एकेन्द्रिय तियंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि वक्तव्यता पंचेन्द्रियतियंचयोनिक उद्देशकमां कृह्या प्रमाणे जाणवी. पण विशेष ए के, तेजस्काय अने वायुकायनो निषेध करवो. [ त्यांची आवी मनुष्यमा उत्पन्न न थाय.] बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत् तिर्यंचयोनिकनो मनुष्यमा उपपात. ५४ * जुओ प्रज्ञा० १६२१५०.४१३-१ .1 प्रज्ञा० पद ४५० १७३-१ Jain Education international Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. उद्देश २१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. v ४. [प्र० ] पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तर से णं भंते ! केवति० १ [अ०] गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुट्ठितिर उकोसेणं पुचकोडीबाउर उपबजिना । ५. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा ० १ [उ०] एवं जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्ज्रमाणस्स पुढविक्काइयस्स व या सा चैव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियन्वा णवसु वि' गमपसु । नवरं ततिय-छट्ट-णवमेसु गमपसु परिमाणं जहनेणं को वा दो वा तिनि बा, उद्योसेणं संखेजा उववजंति । जाहे अप्पणा जहस्रफालद्वितियो भवति ताहे पढमगमए बजसाणा सत्था व अप्पसत्था वि, वितियगमए अप्पसत्था, ततियगमए पसत्था भवंति, सेसं तं चैव निरवसेसं ९ । I ६. [ प्र० ] जइ आउक्काइए० १ [उ०] एवं आउकाइयाण वि । एवं वणस्सइकाइयाण वि । एवं जाव - चउरिंदियाण वि । असन्निपचिदियतिरिक्खजोणिय- सन्निपांच दियतिरिक्खजोणिय-असन्निमणुस्स - सन्निमणुस्सा य एते सधे वि जहा पंचिदियतिरिक्सजोणियउद्देसर तहेव माणिवंज्ञा नवरं एवाणि चैव परिमाण अज्झवसाण णाणताणि जाणिला पुढविकायस्स एत्थ चेव उद्देसए भणियाणि । सेसं तहेव निरवससं । 1 1 ७. [अ०] देवेति उपवनंति किं भणवासिदेवेदितो उचदजंति, वाणमंतर०, जोइसिय० वेमाणियदेवेहिंतो उपवनंति [४०] गोषमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि०, जाय वैमाणियदेवेहिंतो वि उचयति । ८. [प्र० ] जइ भवणवासि० कि असुर०, जाव थणिप० १ [४०] गोषमा ! असुरकुमार०, जाव - थनिय० । ९. [] असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तर से णं भंते ! केवति० १ [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं मासपुद्दतङ्कितिपसु उकोसेणं पुधकोडिमाउसु उबवजेला एवं जशेव पंचिदियतिरिक्खजोणिउद्देसर बताया सचेव पत्थ षि माणिक्षा नवरं जहा तर्हि जहनगं अंतोमुडुतद्वितिरसु तहा इहं मासपुहतद्विरपसु परिमाणं जहणं एको वा दो वा I 1 8. [ प्र० ] हे भगवन् | जे पृथिवीकायिक, मनुष्योमां उत्पन्न पचाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितियाळा मनुष्यमां उत्पन्न धाय ? [30] हे गौतम! ते जधन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न याय P ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! ते ( पृथिवीकायिको ) एक समये केटला उत्पन्न धाय - इत्यादि पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकमां उत्पन्ना पृथिवीकायिकनी पेठे अहीं मनुष्यमां उत्पन्न थनार पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता नवे गमकोमां कहेवी. विशेष एके श्रीजा, छट्टा, अने नवमा गमकर्मा परिमाण जघन्य एक, बे के त्रण भने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. ज्यारे ( पृथिवीकायिक) पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय त्यारे [ मध्यमना त्राण गमकमांना ] “प्रथम गमकमा अध्यवसायो प्रशस्त अने अप्रशस्त बन्ने प्रकारना होय छे. बीजा गमकमां अप्रशस्त अने श्रीजा गमकमा प्रशस्त होय छे. बाकी वधुं पूर्वे का प्रमाणे जाग. ष्यर्मा उपपात. ६. [प्र० ] हे भगवन्! जो तेओ (मनुष्यो ) अकाधिकोषी भावी उत्पन्न थाय तो अकायिकोने तथा वनस्पतिकायिकोने पूर्वोक माविको मनु वक्तव्यता कहेगी. ए प्रमाणे यावत्- चउरिन्द्रियो सुची जाण असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियैचयोनिक, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, असंज्ञी मनुष्य अने संज्ञी मनुष्य ए बधाने पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकउदेशकमां कह्या प्रमाणे कहेवुं. परन्तु विशेष ए के बधाने परिमाण अने अध्यवसायोनी 'भिन्नता पृथिवीकायिक आज उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. बाकी बधुं पूर्वोक्त जाणवुं. मनुष्यम उपपात. ७. [प्र० ] हे भगवन् ! जो तेओ ( मनुष्यो ) देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं भवनवासी, व्यानव्यन्तर, ज्योतिषिक के वैमानिक देवोनो मनुष्योम देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ भवनवासी देवोथी, यावत् - वैमानिक देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. उपपात. ८. [ प्र० ] हे भगवन् ! जो ते भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं असुरकुमारोधी आवी उत्पन्न थाय के यावत् स्तनित- भवनवासी देवोनो कुमारोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ असुरकुमारोथी, यावत् - स्तनितकुमारोथी पण आवी उत्पन्न था. मनुष्यमां उपपात. ९. [प्र० ] हे भगवन् ! असुरकुमारदेव, जे मनुष्यमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय ! [४०] हे गौतम से जधन्य मापृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वफोटीनी स्थितियाला मनुष्यम उत्पन्न धाय. ए प्रमाणे पंचेन्द्रिय तिर्पचयोगिकना उदेशकर्मा से वक्तव्यता कही छे से वक्तव्यता अहिं पण कड़ेगी. पण विशेष ए के जेम को जघन्य अन्तर्मुहुर्तनी स्थितियाच्या तिपंचमां उत्पन्न वानुं क तेम अहीं मासषक्त्वानी स्थितियाळामां उत्पन्न पचानुं करे परिमाणजयन्य एक, वे के त्रण अने अनुष्ट संख्याता उत्पन्न पाप है. बाकी वधुं पूर्वे कथा प्रमाणे जाण. ए प्रमाणे यावत्-ईशानदेवो सुची वक्तव्यता कहेवी. ए ज उपर कया ५ * मध्यमन्त्रिकना प्रथम गमकमां जघन्य • पृथिवीकायिकनो मनुष्यमां औधिक उपपात थाय छे. ज्यारे पृथिवीकायिक उ० मनुष्यमां उत्पन्न थवानो होय त्यारे तेना अध्यवसायो प्रशस्त होय छे, जघन्य मनुष्यमां उत्पन्न थवानो होय त्यारे अप्रशस्त अध्यवसायो होय छे. मध्यत्रिकना बीजा गमकमां जघन्य • पृथिवीकायिक जघन्य मनुष्यम उपजवानो होवाथी तेना अध्यवसायो अप्रशस्त होय छे, कारण के प्रशस्त अध्यवसायोथी जघन्य स्थितिपणे उपपात थतो नथी. श्रीजा गमकमां जघन्य० पृथिवीकायिक उ० मनुष्यमां उपजतो होवाथी तेना प्रशस्त अध्यवसायो होय छे. टीका. असुरकुमारादि देवोनो मनुष्यमा उपपात. : Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबद सहसार देवोनो मनुष्यम उपपात मानत देवोनो मनुष्यर्मा उपपात. परिमाणादि. कल्पातीत देवोनो मनुष्यमां उपपात. मैवेयक देवोनो मनुष्यम उपपात. १८८ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २४. - उद्देशक २१. 1 तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववजंति, सेसं तं चेव । एवं जाव - 'ईसाणदेवो'त्ति । एयाणि चेव णाणताणि । सर्णकुमारादीया जाव - 'सहस्सारो' त्ति जहेव पंचिदियतिरिक्खजोणिउद्देसए । नवरं परिमाणं जहनेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववजंति । उबवाओ जहन्नेणं वासपुहत्तट्ठितिएसु, उक्कोसेणं पुचकोडीभाउपसु उववज्जंति, सेसं तं चैव । संवेह वासपुहुत्तं पुचकोडीसु करेजा । सणकुमारे ठिती चउगुणिया अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति, माहिंदे ताणि चैव सातिरेगाणि, बम्हलोए चत्तालीस, लंतर छप्पन्नं, महासुके अट्ठसट्ठि, सहस्सारे बावन्तरि सागरोवमाई। एसा उक्कोसा ठिती भणिया । जहनट्टतिपि च गुणेजा ९ । १०. [प्र०] आणयदेवे णं भंते ! जे भविष मणुस्सेसु उववजित्तप से णं भंते ! केवति० १ [30] गोयमा ! जहनेणं वासपुत्तट्ठितिपसु, उक्कोसेणं पुछकोडीठितीपसु० । ११. [प्र० ] ते णं भंते 10 [30] एवं जहेब सहस्सारदेवाणं वत्तवया । नवरं ओगाहणा-ठिति- अणुबंधे य जाणेज्जा, सेसं तं चैव । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्त्रेणं अट्ठारस सागरोवमाई वासपुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं सत्तावन्नं सागरोवमाइं तिर्हि पुचकोडीहिं अमहियाई - एवतियं कालं० । एवं णव वि गमा, नवरं ठिर्ति अणुबंधं संवेहं च जाणेज्जा, एवं जाव - अच्चुयदेवो, नवरं ठिति अणुबंधं संवेहं च जाणेज्जा । पाणयदेवस्ल ठिती तिगुणिया साई सागरोवमाई, आरणगस्स तेवट्ठि सागरोवमाई, अच्चुयदेवस्स छावट्ठि सागरोवमाइं । १२. [प्र० ] जइ कप्पातीतवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं गेवेजकप्पातीत०, अणुत्तरोववातियकप्पातीत ० १ [अ०] गोयमा ! गेवेजकप्पातीत०, अणुत्तरोववातिय० । १३. [प्र०] जइ गेवेज ० किं हेट्टिम २ गेविज्जगकंप्पातीत० जाव उवरिम २ गेवेज ० १ [अ०] गोयमा ! हेट्ठिम २ गेवेज ०, जाव-उवरिम २० । १४. [प्र०] गेवेजदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तप से णं भंते ! केवतिकाल ? [४०] गोयमा ! जहनेणं प्रमाणे विशेषता पण जाणवी. जेम पंचेन्द्रियतियैचयोनिकउदेशकमां कह्युं छे तेम सनत्कुमारथी मांडी यावत् सहस्रारसुधीना देवो संबंधे कहेतुं. पण विशेष ए के परिमाण जघन्य एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. तेओ जघन्य वर्षपृथक्त्व स्थितिवाळा अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे कहेवुं. संवेध जघन्य वर्षपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी वडे करवो. सनत्कुमारमां पोताना आयुषनी स्थितिथी चारगुणी करतां अठ्यावीश सागरोपम थाय छे. माहेन्द्रमां कांइक अधिक अव्यावीश सागरोपम, ब्रह्मलोकमां चालीश, लांतकमां छप्पन्न, महाशुक्रमां अडसठ अने सहस्रारमां बहोंतेर सागरोपम थाय छे. ए प्रमाणे उत्कृष्ट स्थिति कहेवी. अने जघन्य स्थितिने पण चारगणी करवी. [एम कायसंवेध कहेवो. ] (९.) १०. [प्र०] हे भगवन् ! जे आनतदेव, मनुष्योमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्योमां उत्पन्न थाय [उ०] हे गौतम ! जघन्य वर्षपृथक्त्वनी अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय. पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी ११. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( मनुष्यो) एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि जेम सहस्रार देवनी वक्तव्यता कही छे तेम कवी. पण अवगाहना, स्थिति अने अनुबंधनी विशेषता जाणवी. बाकी बधुं भवादेशथी जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट छ भव तथा काळादेशथी जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम, अधिक सत्तावन सागरोपमएटलो काळ यावत्- गमनागमन करे. ए प्रमाणे नवे गमकोमां जाणवुं. परन्तु विशेष ए के स्थिति, अनुबंध अने संवेध भेदपूर्वक जाणवो. ९ प्रमाणे यावत्-अच्युत देव सुधी समजवुं. विशेष ए के स्थिति, अनुबंध अने संवेध भिन्न भिन्न जाणवा. प्राणत देवनी स्थिति त्रणगुणी करतां साठ सागरोपम, आरणनी त्रेसठ सागरोपम, अने अच्युतदेवनी छासठ सागरोपम स्थिति थाय छे. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते ( मनुष्यो ) कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय के अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ग्रैवेयक अने अनुत्तरौपपातिक बन्ने प्रकारना कल्पातीत देवोथी आवी उत्पन्न थाय. १३. [प्र०] जो ( मनुष्यो ) ग्रैवेयककल्पातीत देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं सौथी नीचेना के सौथी उपरना ग्रैवेयककल्पातीत देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [ उ० ] हे गौतम! तेओ साथी नीचेना यावत् - सौथी उपरना ग्रैवेयककल्पातीत देवोथी पण उत्पन्न थाय. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ग्रैवेयक देव, जे मनुष्यमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय ? Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १८९ पासपुहुचठितीएसु, उक्कोसेणं पुषकोडी०, अवसेसं जहा आणयदेवस्स वत्तधया। नवरं ओगाहणा-गोतमा। एगे भषधारणिजे सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइमागं उक्कोसेणं दो रयणीओ । संठाणं-एगे भवधारणिजे सरीरे, से समचउरंससं. ठिए पन्नत्ते । पंच समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्घाए, जाव-तेयगसमुग्याए, णो चेव णं वेउवियतेयगसमुग्धापहि समोहणिसु वा, समोहणंति वा, समोहणिस्संति वा । ठिती अणुबंधो जहन्नेणं वावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेणउति सागरोवमा तिहिं पुषकोडीहिं अमहियाई-एवतियं० । एवं सेसेसु वि अट्ठगमएसु । नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा ९ । १५. [प्र०] जब अणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणिय० किं विजयअणुत्तरोववाइय०, वेजयंतअणुत्तरोववातिय०, जावसट्टसिद्ध०.१ [उ.] गोयमा! विजयअणुत्तरोववातिय० जाव-सवटसिद्धअणुत्तरोववातियः। १६. [प्र. विजय-वैजयंत-जयंत-अपराजियदेवे गं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति० [उ०] एवं जहेव गेवेजदेवाणं । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइ भाग, उक्कोसेणं एगा रयणी । सम्मदिट्ठी, णो मिच्छदिट्ठी, णो सम्मामिच्छदिट्ठी। णाणी, णो अन्नाणी, नियमं तिन्नाणी, तं जहा-आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहि. पाणी । ठिती जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, सेसं तं चेव । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाई दोहिं पुषकोडीहि अमहियाई-एवतियं० । एवं सेसा वि अट्ट गमगा भाणियवा । नवरं ठिति अणुबंधं संवेधं च जाणेजा, सेसं एवं चेव । १७. [प्र०] सचट्ठसिद्धगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए० ! [उ०] सा चेव विजयादिदेववत्तष्चया भाणियवा । णवरं ठिती अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चेव । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुषकोडीए अभहियाई-पवतियं० १। [उ०] हे गौतम! ते जघन्य वर्षपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमा उत्पन्न थाय. बाकी बधी वक्तव्यता आनत देवनी पेठे कहेवी. परन्तु हे गौतम ! तेने एक भवधारणीय शरीर होय छे अने तेनी अवगाहना जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट बे हाथनी होय छे. तेने एक भवधारणीय शरीर समचतुरस्र संस्थानवालं होय छे. पांच समुद्घातो होय छे, ते आ प्रमाणे-१ वेदना समुद्घात अने यावत्-तैजस समुद्घात. पण तेओए वैक्रिय के तैजस समुद्घात करी नथी, करता नथी अने करशे पण नहि. स्थिति अने अनुबंध जघन्य बावीश सागरोपम तथा उत्कृष्ट एकत्रीश सागरोपम होय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. काळादेशथी जघन्य वर्षपृथक्त्व अविक त्राणुं सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक त्राणुं सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. बाकीना आठे गमकोमा पण ए प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के स्थिति अने संवेध ( भिन्न ) जाणवो. १५. जो तेओ (मनुष्यो) अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं विजय, वैजयंत के यावत्- अनुत्तरीपपातिक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! तेओ विजय अनुत्तरौपपातिकथी यावत्-सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरीपपातिकथी आवीने उत्पन्न थाय छे.. १६. [प्र०] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित देव, जे मनुष्यमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्यमा उत्पन्न थाय ? [उ०] इत्यादि जेम प्रैवेयक देवो संबंधे कह्यं तेम अहीं कहे. विशेष ए के अवगाहना जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हाथनी होय छे. ते सम्यग्दृष्टि होय छे पण मिथ्यादृष्टि के मिश्रदृष्टि नथी होता. ज्ञानी होय छे पण अज्ञानी नथी. तेने अवश्य मति, श्रुत अने अवधि-ए त्रण ज्ञान होय छे. तेओनी स्थिति जघन्य एकत्रीश सागरोपमनी अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. भवादेशथी जघन्य बे भव, अने उत्कृष्ट चार भव, तथा काळादेशथी जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एकत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्ट बे पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे. ए प्रमाणे बाकीना आठे गमको कहेवा. परन्तु विशेष ए के स्थिति, अनुबंध अने संवेध ( भिन्न भिन्न ) जाणवो. तथा बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. १७. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देव, जे मनुष्योमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्यमा उत्पन्न सर्वार्थसिद्ध देवोनों पाय ! [उ०] हे गौतम! तेओनी वक्तव्यता विजयादिदेवनी वक्तव्यता पेठे कहेवी. विशेष ए के अहीं जघन्य नहि तेम उत्कृष्ट नहि एवी एकज प्रकारे तत्रीश सागरोपमनी स्थिति होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. भवादेशथी बे भव तथा काळादेशथी जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक तेत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (१). . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तर देवोनो उपपति. संज्ञी. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४. - उद्देशक २२ १८. सो चेव जहन्नकालट्ठितीपसु उववन्नो एस चैव वत्तवया । नवरं कालादेसेणं जहवेणं तेतीसं सागरोषमाएं वासपुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीस सागरोवमाहं वासपुदतमग्नदिवाई एवतियं० २ । असंख्यात० सं० पं० तिर्यचनी ज० वान १९० सर्वार्थसिद्ध देवनो ० मनुष्यम उपपात. सर्वार्थसिद्धनो उ० १९. जो ते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाय मनुष्यम उत्पन्न वाय तो तेने पण ए ज वक्तव्यता कहेवी. परन्तु विशेष एके काळामनुष्यर्मा उपपात देशथी जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (३). अहींआ त्रण गमको ज कहे वाना छे, बाकीना गमको अहीं कहेवाना नथी. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे.' चोवीशमा शतकमा एकवीशमो उद्देशक समाप्त. १९. सो चेव उक्कोसकालद्वितीयसु उववन्नो एस चेव वत्तष्ठया । नवरं कालादेसेणं जहनेणं तेत्तीसं सागरोवमाएं पुष्ठकोडी अन्महियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई पुचकोडीए अन्भहियाई - एवतियं० ३ । एते चेव तिनि गमगा, सेसा न भण्णंति 'सेयं भंते । सेयं भंते ! चि । 1 चवीसति मे सए एकवीसतिमो उद्देसो समतो १८. जो ते (सर्वार्थसिद्ध देव ) जघन्यकाळनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय तो तेने ए ज वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के काळादेशची जघन्य अने उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व अधिक तेत्रीश सागरोपम-एटलो काळ या गतिभगति करे (२). बावीसतिमो उद्देसो । ० १. [प्र०] वाणमन्तरा णं भंते! कमोदितो उपयति किं नेरपातो उववति, तिरिक्स १ [४०] एवं अपेष नागकुमार उद्देसर असन्नी तहेव निरवसेसं । जइ सन्निपंचिदिय० जाव - असंखेज्जवासाउय० । २. [ प्र० ] सन्निपचिदिय० जे भविए वाणमंतरेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति० १ [उ०] गोयमा ! जहनेणं दसपाससहस्सटितीर, उक्कोसेणं पलिओचमडितिए, सेसं तं चैव जहा नागकुमारउद्देसए, जाव - कालादेखेणं जहणं सातिरेगा पुचकोडी दसा वाससहस्सेहिं अन्महिया, उक्कोसेणं चत्तारि पलिभोवमाई - एवतियं १ । ३. सो चेव जहन्नकालट्ठितिपसु उववन्नो जहेव णागकुमाराणं बितियगमे वत्तवया २ । असंख्याता० सं० २. [प्र० ] हे भगवन् ! असंख्याता वर्षंना आयुषाको संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे वानव्यन्तरोमा उत्पन्न धनाने योग्य छे ते विकेटला काळनी स्थितियाळा वानव्यन्तरोमां उत्पन्न पाय! [उ०] हे गौतम से जघन्य दस हजार वर्षनी भने उत्कृष्ट पत्योपमनी स्थिति ब्यन्तरमा उपपात. बाळा वानव्यंतरमां उत्पन्न याय. बाकी वधुं नागकुमारना उद्देशकमां कधुं छे तेम जाणवुं यावत् काळादेशधी जघन्य कांहक अधिक पूर्वकोटी सहित दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट चार पल्योपम-एटलो काळ यावत् - गमनागमन करे ( १ ). ३. जो से जघन्यकाळनी स्थितिवा बावीशमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! धानव्यन्तर देवो क्यांची आयी उत्पन्न चाय छेशुं नैरयिकोधी, तियंचयोनिकोपी, के देवोधी आनी उत्पन्न थाय छे! [उ०] इत्यादि जेम "नागकुमारना उद्देशक्रमांकयुं छे ते प्रमाणे असंज्ञी सुधी वधी वक्तव्यता कवी. जो ते ( वानव्यन्तर देव ) संज्ञी पंचेन्द्रियतिचयोनिकची आनी उत्पन्न धाय इत्यादि यावत् पूर्व प्रमाणे जाणवु. कवी (२) वानम्यन्तरमा उत्पन पाय तो ते संबंधे नागकुमारना वीजा गमकमां कहेली वक्तव्यता १ भग० श० २४ उ० ३ पृ० ११ + शुं संख्याता वरसना आयुषवाळा सं० पं० तिर्यंचोथी उत्पन्न याय के असंख्याता वरसना आयुषवाळा सं० पं० तिर्यंचोधी आवी उत्पन्न थाय ? हे गौतम ! बच्चे प्रकारना तिर्यंचोथी भवी उत्पन्न थाय छे. जुओ-सू० ३ २ + त्रण पल्योपमना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पत्योपमना आयुषवाळा व्यंतरमां उत्पन्न थाय. एटले उत्कृष्ट चार पल्योपमनो कायसंवेध थाय छे. ३ $ नागकुमारना बीजा गमनी वक्तव्यता प्रथम गम समान ज छे, परन्तु अहिं जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्षनी जाणवी. संवेध काळादेशथी जघन्य दश हजार वर्षं अधिक साधिक पूर्वकोटी अने उत्कृष्ट दश हजार वर्ष अधिक त्रण पल्योंपमनो जाणवो. त्रीजा गममां जघन्य स्थिति पल्योपमनी होय छे. जो के असंख्यात वर्षना आयुषवाळा सं० पं० तियंचोनी जघन्य स्थिति साधिक पूर्व कोटी वर्षेनी होय छे, तो पण अहिं पत्योपमनी कही तेनुं कारण एछे के तेने पत्योपमना आयुषवाळा व्यन्तरमां उपजवानुं छे अने असंख्यात वर्षंना आयुषवाळा पोताना आयुष करता अधिक आयुषबाळा देवोमां उपजता नदीदीचा. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४. सो चेव उकोसकालट्ठितिएसु उववन्नो जहन्नेणं पलिओवमट्टितीएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमद्वितिएसु एस चेष वत्तवया । नवरं ठिती से जहन्नेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई । संवेहो जहन्नेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेर्ण वत्सारि पलिओवमाई-एवतियं०३। मज्झिमगमगा तिन्नि वि जहेव नागकुमारेसु पच्छिमेसु तिसु गमएसुतं चेव जहा नागकुमारुहेसए । नवरं ठिति संवेहं च जाणेजा । संखेजवासाउय० तहेव, नवरं ठिती अणुबंधो संवेहं च उमओ ठितीए जाणेजा। ५. जइ मणुस्स. असंखेजवासाउयाणं जहेव नागकुमाराणं उद्देसे तहेव वत्तवया । नवरं तइयगमए ठिती जहन्ने] पलिओवमं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं । ओगाहणा जहन्नेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई, सेसं तहेव । संवेहो से जहा पत्थ चेव उद्देसए असंखेजवासाउयसन्निपंचिंदियाणं । संखेजवासाउयसचिमणुस्से जहेव नागकुमारुहेसए । नवरं पाणमंतरे ठिति संवेहं च जाणेजा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। चउवीसतिमे सए बावीसतिमो उद्देसो समत्तो । ४. जो ते ज उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा वानव्यन्तरमा उत्पन्न थाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमनी स्थितिवाळा वानव्यतरमा असंख्यात सं. उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के तेनी स्थिति जघन्य पल्योपमनी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी जाणवी. ५० तियेचनी र पानम्यंतरमा संवेध जघन्य बे पल्योपम अने उत्कृष्ट चार पल्योपमनो होय-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (३). मध्यमना त्रण गमको नाग- उत्पत्ति कुमारना मध्यम त्रण गमकोनी पेठे कहेवा. अने छेल्ला त्रण गमको नागकुमारना उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवा. परन्तु विशेष ए के स्थिति अने संवेध भिन्न भिन्न जाणवो. संख्याता वर्षना आयुषवाळा सं० पं० तिर्यंचोनी वक्तव्यता ते ज प्रमाणे जाणवी. पण विशेष ए के स्थिति अने अनुबंध भिन्न भिन्न जाणवो. तथा संवेध बन्नेनी स्थितिने एकठी करीने कहेवो. ५. [प्र०] जो तेओ (वानव्यन्तरो) मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने नागकुमारना उद्देशकमा कह्या प्रमाणे असंख्याता असंख्याता मनुवर्षना आयुषवाळा मनुष्योनी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के त्रीजा गमकमां स्थिति जघन्य पल्योपमनी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी या उपपातजाणवी. अवगाहना जघन्यथी एक गाउ अने उत्कृष्ट त्रण गाउनी होय छे. बाकी बधु पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवु. वळी तेनो संवेध आज उद्देशकमां जेम असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियेचनो कह्यो छे तेम कहेवो. तथा जेम नागकुमारना उद्देशकमां कह्यु के ते प्रमाणे संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योनी वक्तव्यता कहेवी. पण विशेष ए के वानव्यन्तरनी स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे.' चोवीशमा शतकमां चावीशमो उद्देशक समाप्त. तेवीसतिमो उद्देसो। १. [H०] जोइसिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरइए.? [उ०] भेदो जाव-सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उवषजंति, नो असन्निपंचिंदियतिरिक्खः । २. [प्र०] जइ सन्निः किं संखेजा, असंखेज० ? [उ०] गोयमा ! संखेजवासाउय० असंखेजवासाउय० । ३. [प्र०] असंखेजवासाउअसन्निपचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जोतिसिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति०१[उ०] गोयमा! जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमट्ठितिएसु, उक्कोसेणं पलिओवमवाससयसहस्सट्ठितिएसु उववजा, अवसेसं जहा असुरकुमारुहेसए । नवरं ठिती जहन्नणं अट्ठभागपलिओवम, उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई। एवं अणुबंधो त्रेवीशमो उद्देशक. १.प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिको क्यांची आवी उत्पन्न थाय !-शुं नैरयिकोथी-इत्यादि मेद कहेवो. यावत्-तेओ संज्ञी पंचे- ज्योतिषिकनो न्द्रिय तियंचोथी आवी उत्पन्न थाय, पण असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थता नथी. २. [प्र०] जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा सं०५० तिर्यचोथी के असं- सं० पं० तिर्यंचनो ख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! संख्याता के असंख्याता वर्षना आयु ___ ज्योतिषिकर्मा उपपात. पवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोथी आवी उत्पन्न थाय. ३. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते असंख्यात सं० पं. तिर्यंचोनो ज्योतिकेटला काळनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य पल्योपमना आठमा भागनी अने उत्कृष्ट एक लाख कमा उपपात. उपपात .| Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक २३. वि, सेसं तहेव । नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अट्ठमागपलिओवमाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई वाससयसहस्समभहियाई-पवतियं०१। ४. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमट्ठितिपसु, उक्कोसेणं वि अट्ठभागपलिओवमट्रितीएम एस चेव वत्तधया । नवरं कालादेसेणं जाणेजा २। ५. सो चेव उक्कोसकालठिइएसु उववन्नो, एस चेव वत्तधया । णवरं ठिती जहन्नेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं। एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओवमाई दोहि वाससयसहस्सेहि अम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई वाससयसहस्समभहियाई ३। ६. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितिओ जाओ, जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमट्टितीएसु, उक्कोसेण वि अटुभागपलिओवमद्वितिएसु उववजिजा ४। ७.प्रिल ते भंते ! जीवा०१[उ०] एस चेव वत्तधया। नवरं ओगाहणा जहन्नेणं धणुपहत्तं, उकोसेणं सातिरेगाई अट्ठारसधणुसयाई । ठिती जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिओवमं । एवं अणुबंधोऽवि, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहन्नेणं दो अट्ठभागपलिओवमाइं, उक्कोसेण वि दो अट्ठभागपलिओवमाई-एवतियं । जहन्नकालट्रितियस्स एस चेव एक्को गमो ६। ८. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितिओ जाओ, सा चेव ओहिया वत्तचया । नवरं ठिती जहन्नेणं तिन्नि पलिओयमाई, उक्कोसेण वि तिन्नि पलिओवमाइं । एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चेव । एवं पच्छिमा तिन्नि गमगा णेयधा । नवरं ठिति संवेहं च जाणेजा । एते सत्त गमगा। ९. [प्र. जइ संखेजवासाउयसनिपंचिदिय०१ [उ०] संखेजवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेव . नव वि गमा भाणियधा । नवरं जोतिसियठिति संवेहं च जाणेजा, सेसं तहेव निरवसेसं भाणियचं ९ । वर्ष अधिक एक पल्योपमनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थाय. बाकी बधुं असुरकुमारना उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के जघन्य स्थिति पल्योपमना आठमा भागनी अने उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपमनी होय छे. अनुबंध पण ए प्रमाणे जाणवो. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवू. परन्तु काळादेशथी जघन्य पल्योपमना बे आठमा भाग अने उत्कृष्ट लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (१). ४. जो ते (संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) जघन्यकाळनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकमा उत्पन्न थाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना आठमा भागनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकमां उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के अहीं काळादेश [ भिन्न ] जाणवो. (२). ५. जो ते ज जीव उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकमा उत्पन्न थाय तो तेने पण ए ज वक्तव्यता कहेवी. परन्तु स्थिति तिर्यचनो ज्योतिषि- जघन्य एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय छे. अनुबंध पण ए ज प्रमाणे जाणवो. काळादेशथी जघन्य बे का उपपात. लाख वर्ष अधिक बे पल्योपम अने उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे (३). जप असंख्यात. ६. जो ते (संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच ) पोते जघन्य काळनी स्थितिवाळो होय अने ज्योतिषिकमा उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने सं०५० तियेचोनो उत्कृष्ट पल्योपमना आठमा भागनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकमां उत्पन्न थाय (४). ज्योतिषिकमा उपपात. ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते. ( असंख्य वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचो) एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] पूर्वोक्त असंख्यात सं०५० चमी पपात वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के शरीरनुं प्रमाण जघन्य धनुषपृथक्त्व अने उत्कृष्ट अढारसो धनुष करतां कांइक अधिक होय छे. स्थिति संख्या. जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना आठमा भागनी अने अनुबंध पण ए ज प्रमाणे होय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. काळादे शथी जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमना बे आठमा भाग-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे. जघन्यकाळनी स्थितिवाळा माटे आ एक ज गम होय छे (६). असंख्यात० सं०६० ८. जो ते (असंख्यात० संज्ञी पं० तिर्यच) पोते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळो होय (अने ज्योतिषिकमा उत्पन्न थाय) तो तेने तिर्यंचोनो ज्योति सामान्य गमकनी जेम वक्तव्यता कहेवी. परन्तु स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी जाणवी. अनुबंध पण ए ज प्रमाणे छे. बाकी विकमा उपपात. बधुं ते ज प्रमाणे जाणदु. ए रीते छेल्ला त्रण गमको जाणवा. पण विशेष ए के, स्थिति अने संवेध भेदपूर्वक जाणवो. ए प्रमाणे ए सात गमको थया. (७). संख्यात० सं० ५० ९. जो तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पं० तिर्यचोथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने असुरकुमारोमा उत्पन्न थता संख्याता तेयचोनो ज्योतिषि- वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचनी पेठे नवे गमको कहेवा. विशेष ए के ज्योतिषिकनी स्थिति अने संवेध भेदपूर्वक जाणवो. तथा .कमा उपपात. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवु (९), Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९३ १०. [प्र०] जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति० ? [उ०] भेदो तहेव । जाव ११. [प्र०] असंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उववजित्तए से णं भंते ! ०१ [उ०] एवं जहा असंखेजवासाउयसन्निपंचिंदियस्स जोइसिएसु चेव उववजमाणस्स सत्त गमगा तहेव मणुस्साण वि । नवरं ओगाहणाविसेसो पढमेस तिसु गमएसु । ओगाहणा जहन्नेणं सातिरेगाई नव धणुसयाई, उक्कोसेणं तिनि गाउया। मज्झिमगमए जहलेणं सातिरेगाई नव धणुसयाई, उक्कोसेण वि सातिरेगाइं नव धणुसयाई । पच्छिमेसु तिसु गमएसु जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उकोसेण वि तिमि गाउया। सेसं तहेव निरवसेसं जाव-'संवेहोत्ति। १२. [प्र०] जइ संखेजवासाउयसन्निमणुस्से० १ [उ०] संखेजवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेव नक्ष गमगा भाणियवा । नवरं जोतिसियठिति संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव निरवसेसं। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । चउवीसतिमे सए तेवीसइमो उद्देसो समत्तो । १०. जो तेओ मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने बघी विशेषता पूर्वे कहेला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी पेठे कहेवी. यावत्- मनुष्योनो ज्योतिषि कमा उपपात११. प्र०] हे भगवन् । असंख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी मनुष्य जे ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थाय ! [उ०] जेम ज्योतिषिकोमा उत्पन्न यता असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचने सात गमको कह्या छे तेम ज मनुष्योने पण सात गमको कहेवा. परन्तु प्रथमना त्रण गमकोमा शरीरनी अवगाहनानो विशेष छे. अवगाहना जघन्य काइक अधिक नवसो धनुष अने उत्कृष्ट त्रण गाउनी होय छे. मध्यमना गमकमां जघन्य अने उत्कृष्ट काइक अधिक नवसो धनुष. अने छेल्ला त्रण गमकोमा जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण गाउनी छे. बाकी बधुं यावत्-संवेध सुधी ते ज प्रमाणे छे. १२. जो ते संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने असुरकुमारोमा उपजता संख्याता वर्षना संख्याता० सं० मनु आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योनी पेठे नवे गमको कहेवा. पण ज्योतिषिकनी स्थिति भने संवेध भिन्न जाणवो. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवं. योनो ज्योतिरिकमा उपपात. हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे.' चोवीशमा शतकमां त्रेवीशमो उद्देशक समाप्त. चउवीसतिमो उद्देसो। १. [प्र०] सोहम्मदेवा णं भंते! कोहिंतो उववजंति ? किं नेहपहिंतो उववजंति ? [३०] भेदो जहा जोसियउसप। २. [H०] असंखेजवासाउयसभिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सोहम्मगदेवेसु उववज्जित्तए से भंते ! फेवतिकाल०१ [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमट्ठितिएसु, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टितीएसु उववजेजा। ३. [प्र०] ते णं भंते! [उ०] अवसेसं जहा जोइसिएसु उववजमाणस्स । नवरं सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, णो चोवीशमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्मदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ? शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि. [उ०] त्रेवीशमा वैमानिकोनो ज्योतिषिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे भेद कहेवो. २. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, जे सौधर्मदेवलोकमां उत्पन्न थवाने योग्य छे भसंख्यात० १० १० ते केटला काळनी स्थितिवाळा सौधर्म देवमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य *पल्योपमनी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा तियेचनो सौधर्म ॥ देवलोकमा उपपात. सौधर्मदेवोमा उत्पन्न थाय. उपपात. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय-इत्यादि बाकीनी हकीकत ज्योतिषिकमा उत्पन्न थता असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी तिर्यंचनी पेठे कहेवी. परन्तु विशेष ए के ते सम्यग्दृष्टि पण होय अने मिथ्यादृष्टि पण होय, पण मिश्रदृष्टि न परिमाणादि. २* सौधर्म देवलोकमा जघन्य आयुष एक पल्योपमर्नु होय छे, तेथी तिर्यंचो जघन्य पल्योपमनी स्थितिवाळा देवोमा उत्पन्न थाय छ; अने उत्कृष्ट आयुष बे सागरोपमर्नु होय छे. पण तिर्यचो उत्कर्षथी त्रण पल्योपम आयुषवाळा ज होय छे, तेनाथी अधिक देवायुष बांधता नथी. माटे तिर्यचो उत्कृष्ट प्रण पल्योपमना आयुषवाळा सौधर्म देवोमा उत्पन्न पाय छ एम कर्दा छे. २५ भ० सू० . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४.-उद्देशक २४ सम्मामिच्छादिट्ठी । णाणी वि, अन्नाणी वि, दो णाणा दो अन्नाणा नियमं । ठिती जहन्नेणं पलिओवमं, उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई । एवं अणुबंधो वि, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं छप्पलिओवमाईपष-नियं० १ । ४. सो चेव जहन्नकालट्ठितिपसु उववन्नो एस चेव पत्तधया। नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओवमा, उनोसेणं चत्तारि पलिओवमाई-एवतियं० २। ५. सो चेव उक्कोसकालद्वितिएसु उववन्नो जहन्नणं तिपलिओवम०, उक्कोसेण वि तिपलिओवम०-एस चेव वसधया। नवरं ठिती जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई, उकोसेण वि तिन्नि पलिओवमाई, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहन्नेणं छप्पलिमोवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिओवमाई-एवतियं. ३ । ६. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितिओ जाओ, जहन्नेणं पलिओवमट्ठितिएसु, उक्कोसेण वि पलिओमट्टितिएसु०, एस चेव वत्तधया । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं दो गाउयाई । ठिती जहन्ने] पलिओवमं, उक्कोसेण वि पलिमोवम, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं पि दो पलिओवमाई-एवतियं०६। ७. सो चेव अप्पणा उकोसकालट्ठितिओ जाओ, आदिल्लगमगसरिसा तिन्नि गमगा णेयथा । नवरं ठिति कालादेसं च जाणेजा ९। ८. [प्र०] जइ संखेजवासाउयसन्निपंचिंदिय० १ [उ०] संखेजवासाउयस्स जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स तहेव नव वि गमा। नवरं ठिति संवेहं च जाणेजा । जाहे य अप्पणा जहन्नकालट्ठितिओ भवति ताहे तिसु वि गमएसु सम्मदिट्टी वि, मिच्छादिट्ठी वि, णो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो नाणा दो अन्नाणा नियम, सेसं तं चेव । ९. [०] जइ मणुस्सेहितो उववजंति० १ [३०] भेदो जहेव जोतिसिएसु उववजमाणस्स । जाव १०. [प्र०] असंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं मंते! जे भविए सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजित्तप०१ [उ०] एपं होय, ज्ञानी पण होय अने अज्ञानी पण होय. तेओने बे ज्ञान के बे अज्ञान अवश्य होय छे. तेओनी स्थिति जघन्य पल्योपमनी अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवू. काळादेशथी जघन्य बे पल्योपम अने उत्कृष्ट छ पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (१). पसंख्यात सं० १०४. हवे जो ते (असंख्यात वर्षना आयुषवाळो संज्ञी तिर्यंचयोनिक ) जघन्यकाळनी स्थितिवाळा सौधर्मदेवमा उत्पन्न थाय तो तिर्यंचयोनिकनो ज० तेने एज वक्तव्यता कहेवी. विशेष एके काळादेशथी जघन्य बे पल्योपम अने उत्कृष्ट चार पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गतिआसौधर्म देवलोका उपपात. गति करे (२). ५. जो ते ज जीव उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा सौधर्म देवमां उत्पन्न थाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा तिर्यचनी उ० सौधर्म सौधर्म देवलोकमां उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी जाणवी. देवलोका उत्पति. " बाकी बधू पूर्वे कह्या प्रमाणे कहे. कालादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट छ पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (३). समसंख्यात सं० ६ . जो ते पोते जघन्य स्थितिवाळो होय (अने. सौधर्म देवमां उत्पन्न ) थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमनी स्थितिवाळा ६० तियेचनो सौधर्म सौधर्म देवलोकमां उत्पन्न थाय. तेने पण ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के शरीरनुं प्रमाण जघन्य धनुषपृथक्त्व अने उत्कृष्ट ने देवलोकमा उपपात. गाउनु होय छे. स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पल्योपमनी होय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. कालादेशथी जघन्य भने उत्कृष्ट वे पल्योपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे (६). १० मसंख्यात सं० ७. जो ते पोते उत्कृष्ट स्थितिवाळो होय तो तेने प्रथम गमक जेवा प्रण गमको कहेवा. विशेष ए के स्थिति अने कालादेश पं० तिर्यचनो सौधर्म देवोकमा उपपात. भिन्न जाणवो (९). संख्यात० सं०५० ८. जो तेओ (सौधर्म देवो) संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोयी आवी उत्पन्न थाय तो तेने असुरकुमारोमा तिर्यंचनो सौधर्म उत्पन्न यता संख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यचनी पेठे नवे गमको कहेवा. विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध भिन्न भिन्न जाणवो. देवलोकमा उपपात. ज्यारे ते पोते जघन्य स्थितिवाळो होय त्यारे त्रणे गमकोमां सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि होय, पण मिश्रदृष्टि न होय. वे ज्ञान अने वे अज्ञान अवश्य होय. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. मनुष्योनो सौधर्म ९. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते (सौधर्म देवो) मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो--इत्यादि ज्योतिषिकमा उत्पन्न थता संज्ञी मनुष्यनी देवलोकमा उपपात. पेठे मेद कहेवो. यावत् १०. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्य वर्षना आयुषवाळो संज्ञी मनुष्य, जे सौधर्मकल्पमां देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उदेशक २४. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९५ अहेव असंखेजवासाउयस्स सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स सोहम्मे कप्पे उववजमाणस्स तहेव सत्त गमगा। नवरं आदिसपस दोस गमएस ओगाहणा जहण गांउयं, उकोसेणं तित्रि गाउयाई। ततियगमे जहनेणं तिनि गाउया. उकोसेण घि तिमि गाउयाई चउत्थगमए जहन्नेणं गाउयं, उकोसेण वि गाउयं । पच्छिमपसु तिसु गमएसु जहनेणं तिमि गाउयाई. उपो. सेण वि तिनि गाउया। सेसं तहेव निरवसेसं ९।। ११. [40] जइ संखेजवासाउयसन्निमणुस्सेहिंतो०१ [उ०] एवं संस्नेजवासाउयसनिमणुस्साणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेव णव गमगा भाणियचा । नवरं सोहम्मदेवट्ठिति संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव ९। . १२.०ईसाणदेवा गं भंते ! कोहितो उववजंति ? [उ०] ईसाणदेवाणं एस चेव सोहम्मगदेवसरिसा वत्तवया । नवरं असंखेजवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जेसु ठाणेसु सोहम्मे उववजमाणस्स पलिओवमठिती तेसु ठाणेस यह सातिरेगं पलिमोवमं कायधं । चउत्थगमे ओगाहणा-जहन्नेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो गाउयाई, सेसं तहेव । १३. असंखेजवासाउयसन्त्रिमणुसस्स वि तहेव ठिती जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स असंखेजवासाउयस्स । योगाहणा वि जेसु ठाणेसु गाउयं तेसु ठाणेसु इहं सातिरेगं गाउयं, सेसं तहेव ९ । १४. संखेजवासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहेव सोहम्मेसु उववजमाणाणं तहेव निरवसेसं णव वि गमगा। नवरं साणठिति संवेहं च जाणेजा ९ । १५. [३०] सणंकुमारदेवा णं भंते ! कओर्हितो उववजंति ? [उ०] उववाओ जहा सकरप्पमापुढविनेरइयाणं । जाव १६. [प्र०] पजत्तसंखेजवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सणंकुमारदेवेसु उववजित्तए०१ [उ.] अवसेसा परिमाणादीया भवादेसपजवसाणा सञ्चेव वत्तधया भाणियचा जहा सोहम्मे उववजमाणस्स । नवरं सणंफुमारहिति संवेहं च जाणेजा। जाहे य अप्पणा जहन्नकालट्ठितीओ भवति ताहे तिसु वि गमएसु पंच लेस्साओ आदिल्लाओ फायधाओ, सेसं तं चेव ९।। काळनी स्थितिवाळा सौधर्म देवोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] सौधर्मकल्पमा उत्पन्न थता असंख्यवर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकनी पेठे साते गमको कहेवा. विशेष ए के प्रथमना बे गमकमां शरीरनुं प्रमाण जघन्य एक गाउनु अने उत्कृष्ट त्रण गाउनु, जीजा गमकमा जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण गाउनु, चोथा गमकमां जघन्य अने उत्कृष्ट एक गाउनु, अने छेला त्रण गमकोमा जघन्य अने उत्कृष्ट • प्रण गाउनु होय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु (९). ११. प्र०] हे भगवन् ! जो ते संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि असुरकुमारोमा संख्यात. • मनु उत्पन्न थता संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योनी पेठे नवे गमको कहेवा. विशेष ए के अहीं सौधर्मदेवनी स्थिति अने संवैध भिन्न योनो सौधर्म देव लोकमा उपपाट जाणवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु (९). १२. प्र०न हे भगवन् ! ईशान देवो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] ईशानदेवोनी वक्तव्यता सौधर्मदेवनी पेठे कहेवी. परन्तु शान देवोनो जे स्थानोमा असंख्यात वर्षना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकनी पल्योपमनी स्थिति कही छे, ते स्थानोमा अहीं कांइक अधिक उपपातपल्योपमनी कहेवी. चोथा गमकमां शरीरनुं प्रमाण जघन्य धनुषपृथक्त्व अने उत्कृष्ट काइक अधिक बे गाउनु होय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाण, (९). १३. असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्यनी स्थिति तेमज जाणवी-एटले असंख्यातवर्षना आयुषवाळा पंचेन्द्रियतियंचयोनिकनी पेठे जाणवी. अने जे स्थानोमा शरीरनुं प्रमाण गाउनु कह्यु छे ते स्थानोमां अहीं साधिक गाउ कहे. बाकी बधं ते ज प्रमाणे जाणवू ९. ११. सौधर्ममा उत्पन्न थनार संख्याता वर्षना आयुषवाळा तिर्यंचयोनिको अने मनुष्यो संबंधे नवे गमको कह्या छे तेम ईशान देवो संख्यात संधी०५. संबंधे अहीं कहेवा. विशेष ए के अहीं ईशानदेवोनी स्थिति अने संवेध जाणवो (९). तिर्यंचो बने मनु योनो शिान देक १५. [प्र०] हे भगवन् ! सनत्कुमारदेवो क्यांची आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] शर्कराप्रभाना नैरयिको पेठे तेनो उपपात कहेवो. यावत्- समाधान लोकमा उपपात. उपपात१६. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक, जे सनत्कुमार देवोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा सनत्कुमार देवमां उत्पन्न थाय-इत्यादि परिमाणथी मांडी भवादेश सुधीनी बधी वक्तव्यता सौध- तियेचनो सनकुमा ममा उत्पन्न थनार संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी तियंचनी पेठे कहेवी. विशेष ए के अहीं सनत्कुमारोनी स्थिति अने संवेध जुदो रमागावजाणवो. ज्यारे ते पोते जघन्य स्थितिवाळो होय त्यारे त्रणे गमकोमा प्रथमनी पांचे लेश्याओ जाणवी. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे कहेवं (९). Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्योनो सनत्कु मारमा उपपात. माहेन्द्र देवोनो उपपात. मानत देवोनो उपपात. मैवेयकोसो उपपाद. विजयादियां उपपात. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २४. - उद्देशक २४. १७. [प्र० ] जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति ० १ [अ०] मणुस्साणं जद्देव सक्करप्पभाए उववजमाणाणं तहेव णव विगमा भाणिया । नवरं सणकुमारट्ठिति संवेहं च जाणेजा ९ । I १९६ १८. [प्र० ] माहिंदगदेवा णं मंते ! कओहिंतो उववजंति ? [30] जहा सणकुमारगदेवाणं वत्तचया तहा माहिंदगदेवार्ण भाणियचा । नवरं माहिंदगदेवाणं ठिती सातिरेगा भाणियष्वा स श्चैव । एवं बंभलोगदेवाण वि वत्तवया । नवरं बंभलोगट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा । एवं जाव - सहस्सारो। णवरं ठिति संवेद्दं च जाणेज्जा । लंतगादीणं जहन्नकालट्ठितियस्स तिरिक्खजो - णियस्स तिसु वि गमपसु छप्पि लेस्साओं कायचाओ । संघयणाई बंभलोग-लंतपसु पंच आदिल्लगाणि, महासुकसहस्सारेसु चारि । तिरिषखजोणियाण वि मणुस्साण वि, सेसं तं चैव ९ । १९. [प्र० ] आणयदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्रंति ? [उ०] उववाओ जहा सहस्सारदेवाणं । णवरं तिरिक्खजो - णिया खोडेयवा, जाव २०. [प्र०] पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए आणयदेवेसु उववजित्तए० १ [अ०] मणुस्साण य वत्तया जहेव सहस्सारेसु उववजमाणाणं । णवरं तिन्नि संघयणाणि, सेसं तहेव जाव - अणुबंधो। भवादेसेणं जहन्नेणं तिथि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहनेणं अट्ठारस सागरोवमाई दोहिं वासपुहन्तेहिं अन्भहियाई, उक्कोसेणं सत्तावन्नं सागरोवमाई चउहिं पुधकोडीहिं अब्भहियाई - एवतियं ० । एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियचा | नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा, सेसं तं चैव ९ । एवं जाव - अच्युयदेवा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा ९ । चउसु वि संघयणा तिन्नि आणयादीसु । २१. [प्र०] गेवेज्जगदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्रंति ? [उ०] एस चैव वत्तवया । नवरं दो संघयणा । ठिर्ति संवेहं च जाणेजा । २२. [प्र० ] विजय - जयंत - जयंत - अपराजितदेवा णं भंते ! कतोर्हितो उववज्जंति ? [30] एस चेव वतवया निर १७. [प्र०] जो मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो तेने शर्कराप्रभामां उपजता मनुष्योनी पेठे नवे गमको कहेवा. विशेष ए के अहीं सनत्कुमारनी स्थिति अने संवेध जुदो जाणवो (९). १८. [प्र०] हे भगवन् ! माहेन्द्र देवो क्यांथी आधी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] जेम सनत्कुमार देवनी वक्तव्यता कही छे तेम माहेन्द्रदेवोनी पण जाणवी. विशेष ए के, माहेन्द्र देवोनी स्थिति सनत्कुमार देवो करतां कांइक वधारे कहेवी. ए प्रमाणे ब्रह्मलोकना देवोनी पण वक्तव्यता कवी. विशेष ए के अहीं ब्रह्मलोकनी स्थिति अने संवेध जुदो जाणवो. ए प्रमाणे यावत् सहस्रार देवलोक सुधी जाणवुं. विशेष ए के अहीं स्थिति अने संवेध जुदो जाणवो. लांतक वगेरे देवलोकमा उत्पन्न थता जघन्यस्थितिवाळा तिर्यंचयोनिकने त्रणे गमकोमा छ ए लेश्याओ जाणवी. ब्रह्मलोक अने लांतकर्मा प्रथमना पांच संघयण होय छे, अर्थात् आदिना पांच सुधीना संघयणवाळा त्यां उत्पन्न थाय छे. महाशुक्र अने सहस्रारमां प्रथमना चार संघयणवाळा उपजे छे. आ वक्तव्यता तिर्यंचो अने मनुष्योने आश्रयी जाणवी. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे कहेवुं (९). १९. [प्र०] हे भगवन् ! आनत देवो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] सहस्रार देवोनी पेठे उपपात कहेवो. विशेष ए के अहीं तिर्यंचयोनिकोनो निषेध करवो. अर्थात् तेओ अहिं उपजता नथी. यावत् २०. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता वर्षना आयुषवाळो पर्याप्त संज्ञी मनुष्य, जे आनतदेवोमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा आनत देवोमां उत्पन्न थाय- इत्यादि प्रश्न. [उ०] सहस्रारदेवोमां उत्पन्न थनार मनुष्योनी वक्तव्यता अहीं कहेवी. विशेष ए के प्रथमना त्रण संघयणो अहिं कहेवा. अर्थात् प्रथमना त्रण संघयणवाळा अहिं उपजे छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् - अनुबंध सुधी जाणवुं. भवादेशथी जघन्य त्रण भव अने उत्कृष्ट सात भव तथा काळादेशथी जघन्य बे वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम अने उत्कृष्ट चारपूर्वकोटी अधिक सत्तावन सागरोपम - एटलो काळ यावत् - गतिआगति करे. ए प्रमाणे बाकीना आठ गमको कहेवा. विशेष ए के अह्नीं स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो तथा बाकी बधुं तेज प्रमाणे कहेतुं ( ९ ). ए प्रमाणे यावत्-अच्युतदेव सुधी जाण. पण विशेष ए के पोतपोतानी स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवा. आनतादि चारे स्वर्गेमां प्रथमना त्रण संघयणवाळा उपजे छे. २१. [प्र०] हे भगवन् | ग्रैवेयक देवो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय - इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के अहीं प्रथमना संघयणवाळा उपजे छे. तथा पोतानी स्थिति भने संवेध जुदो जाणवो. २२. [प्र०] हे भगवन् ! विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित देवो क्यांची आवी उत्पन्न थाय छे - इत्यादि पूर्वोक्त बधी . . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४.-उद्देशक २४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९७ वसेसा, जाव-'अणुबंधोत्ति । नंवर पढम संघयणं, सेसं तहेव । भवादेसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवगहणाई। कालादेसणं जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई दोहिं वासपुहत्तेहिं अब्भहियाई, उकोसेणं छावदि सागरोवमाई तिर्दि पचकोडीहिं अमहियाई-एवतियं । एवं सेसा वि अट्ट गमगा भाणियवा। नवरं ठिति संवेहं च जाणेजा। मणूसे लदी णवसु वि गमएसु जहा गेवेजेसु उववजमाणस्स । नवरं पढमसंघयणं । २३. [प्र०] सचट्टगसिद्धगदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ.] उववाओ जहेव विजयादीणं । जाव २४. [प्र. से भंते ! केवतिकालद्वितिएसु उववजेजा? [उ.] गोयमा ! जहन्नेणं तेत्तीसंसागरोवमट्टितिएसु, उक्कोसेण वि तेत्तीससागरोवमट्टितिपसु उववजंति, अवसेसा जहा विजयाईसु उववजंताणं । नवरं भवादेसेणं तिनि भगग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं वासपुहत्तेहिं अभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुषकोडीहिं अब्भहियाई-एवतियं०१।। २५. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितिओ जाओ एस वत्तष्ठया । नवरं ओगाहणाठितीओ रयणिपुहत्त-वासपुहत्ताणि, सेसं तहेव, संवेहं च जाणेजा २। २६. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितिओ जाओ, एस चेव वत्तवया । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्लोस्सेणं पंचधणसयाई । ठिती जहन्नेणं पुषकोडी, उक्कोसेण वि पुषकोडी, सेसं तहेव जाव-भवादेसो'त्ति। कालादेसेणं जहनेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुषकोडीहिं अभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई, दोहि वि पुषकोडीहिं अब्भहियाई -पवतियं कालं सेवेजा, एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा ३ । एते तिन्नि गमगा सधट्टसिद्धगदेवाणं । सेवं मंते ! सेवं भंते!त्ति भगवं गोयमे जाव-विहरह। चउवीसतिमे सए चउवीसइमो उद्देसो समत्तो। चउवीसतिमं सयं समत्तं । वक्तव्यता यावत्-अनुबंध सुधी कहेवी. विशेष ए के अहीं प्रथम संघयणवाळा उपजे छे, बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं. भवादेशपी जघन्य त्रण भव अने उत्कृष्ट पांच भव सुधी तथा काळादेशथी जघन्य बे वर्षपृथक्त्व अधिक एकत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्ट त्रण पूर्वकोटी अधिक छासठ सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गमनागमन करे. ए प्रमाणे बाकीना आठे गमको कहेवा. विशेष ए के पोतानी स्थिति अने संवेध भिन्न भिन्न जाणवो. मनुष्यने नवे गमकोमां अवेयकमां उत्पन्न थनार मनुष्यनी पेठे लब्धि-उत्पत्ति कहेवी. विशेष ए के त्यां [ विजयादिमां ] प्रथम संघयणवाळो उपजे छे. २३. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्धना देवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओनो उपपात विजयादिकनी सवार्थसिद्ध देवोमा पेठे कहेवो. अने ते यावत् उपपात. २४. [प्र०] हे भगवन् ! ते (संज्ञी मनुष्यो) केटला काळ सुधीनी स्थितिवाळा सर्वार्थसिद्ध देवोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्य अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थितिवाळा सर्वार्थसिद्ध देवोमा उत्पन्न थाय. ए संबंधे बीजी बधी वक्तव्यता विजयादिकमा उत्पन्न थता मनुष्यनी पेठे कहेवी. विशेष ए के भवादेशथी त्रण भव अने काळादेशथी जघन्य बे वर्षपृथक्त्व अधिक तेत्रीश सागरोपम तथा उत्कृष्ट बे पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम-एटलो काळ यावत्-गतिआगति करे. २५. जो ते (संज्ञी पं० मनुष्य ) पोते जघन्य काळनी स्थितिवाळो होय तो तेने पण ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. ज० संशी मनुष्यनो विशेष ए के शरीरनुं प्रमाण बेथी नव हाथ, अने स्थिति बेथी नव वर्ष सुधीनी जाणवी. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे कहे. तथा अहीं से उपपात. स्थिति अने संवेध भिन्न जाणवो. २६. जो ते (संज्ञी मनुष्य ) पोते उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळो होय तो तेने ए ज पूर्वोक्त वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए के उ० संघी मनुष्यनो शरीरनुं प्रमाण जघन्य अने उत्कृष्ट पांचसो धनुषनुं तथा स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी होय छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे यावत्- सर्वार्थसिकर्मा उपपात. भवादेश सुधी जाणवू. काळादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट बे पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम-एटलो काळ यावत्-मनागमन करे. सर्वासिद्ध देवोंने आत्रण गमको ज होय छे. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही भगवान् गौतम यावत्-विहरे छे. चोवीशमा शतकमां चोवीशमो उद्देशक समाप्त. चोवीशमुं शतक समाप्त. Jain Education international Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवीसतिमं सयं । १ लेसा य २ दव ३ संठाण ४ जुम्म ५ पजव ६ नियंठ, ७ समणा य । ८ ओहे ९-१० भवियाभविए ११ सम्मा १२ मिच्छे य उद्देसा ॥ पढमो उद्देसो। १. [प्र० तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव-एवं वयासी-कति णं भंते ! लेस्साओ पलताओ[.] गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नताओ, तंजहा-कण्हलेसा-जहा पढमसए बितिए उद्देसए तहेव लेस्साविभागो। अप्पाबदुगं च जाव-चउविहाणं देवाणं चउचिहाणं देवीणं. मीसग अप्पाबहुगंति । २. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! संसारसमावनगा जीवा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चोइसविहा संसारसमावन्नगा जीवा पत्रचा, तंजहा-१ सुहुमअप्पजत्तगा, २ सुहुमपज्जत्तगा, ३ बादरअपज्जत्तगा, ४ बादरपज्जत्तगा, ५ बेदिया अप्पज्जचगा, ६ बेइंदिया पजत्तगा, ७-८ एवं तेइंदिया, ९-१० एवं चउरिदिया, ११ असन्निपंचिंदिया अप्पजतगा, १२ असत्रिपंचिदिया पजतगा, १३ सन्निपंचिंदिया अपज्जत्तगा, १४ सनिपचिंदिया पजत्तगा। पचीशमुं शतक. उद्देशकार्यसंग्रह- १ लेश्या वगेरे संबन्धे प्रथम उद्देशक, २ द्रव्य विषे बीजो उद्देशक, ३ संस्थान वगेरे संबन्धे त्रीजो उद्देशक, ४ युग्म-कृतयुग्मादि राशि संबन्धे चोयो उद्देशक, ५ पर्यवादि संबन्धे पांचमो उद्देशक, ६ पुलाकादि निम्रन्थ विषे छटो उद्देशक, ७ श्रमणो संबंधे सातमो उद्देशक, ८ ओघ-सामान्य नारकादिनी उत्पत्ति विषे आठमो उद्देशक, ९ भव्य नारकादि संबन्धे नवमो उद्देशक, १० अभव्य नारकादि संबन्धे दशमो उद्देशक, ११ सम्यग्दृष्टि नारकादि संबन्धे अगियारमो उद्देशक अने १२ मिथ्यादृष्टि नारकादि संबन्धे बारमो उद्देशक-ए प्रमाणे पचीशमा शतकने विषे आ बार उद्देशको कहेवाना छे. प्रथम उद्देशक. १.प्र०] ते काळे अने ते समये राजगृह नगरमां [भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! केटली लेश्याओ कही छे! (उ०] हे गौतम ! छ लेश्याओ कहीं छे, ते आ प्रमाणे-कृष्णलेश्या-इत्यादि प्रथम शतकना बीजा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे लेश्याओनो विभाग अने तेनुं अल्पबहुत्व यावत्-चार प्रकारना देवो अने चार प्रकारनी देवीओना मिश्र अल्पबहुत्व सुधी कहेवं. - २. [प्र०] हे भगवन् ! संसारी जीवो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! संसारी जीवो चौद प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २ पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३ अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ४ पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ५ अपर्याप्त बेइन्द्रिय, ६ पर्याप्त बेइन्द्रिय, ७-८ ए प्रमाणे पर्याप्त अने अपर्याप्त तेइन्द्रिय, ९-१० पर्याप्त अने अपर्याप्त चउरिन्द्रिय, ११ अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १२ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १३ अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय अने १४ पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय. पया. मेद. १. भग. सं.१२.१३.२ पृ.१.४. जुओ-प्रज्ञा. पद १७ उ०२५.३४३-३४९. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९९ ३.प्र.ग पतेसिणं भंते ! चोइसविहाणं संसारसमावनगाणं जीवाणं जहन्नुक्कोसगस्स जोगस्स कयरे कयरे जावविसेसाहिया वा १ [उ०] गोयमा! सवत्थोवे सुहमस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए १, बादरस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे २, बेंदियस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेनगुणे ३, एवं तेइंदियस्स ४, एवं चरिंदियस्स ५, असनिस्स पंचिंदियस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ६, सन्निस्स पंचिंदियस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ७, सुहुमस्स पजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ८, बादरस्स पजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ९, सुहुमस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १०, बादरस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे ११, सुटुमस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १२, बादरस्स पजतगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १३, बेंदियस्स पजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे १४, एवं तेंदियस्स० १५, एवं जाव-सन्निपंचिंदियस्स पजत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे १८, बेंदियस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १९, एवं तेंदियस्स वि २०, एवं चउरिदियस्स वि २१, एवं जावसन्निपंचिंदियस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २३, बेदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २४, एवं तेइंदियस्स वि पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २५, चउरिदियस्स पजत्तगस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे २६, असनिपंचिदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसप जोए असंखेजगुणे २७, पवं सन्निपंचिदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे२८॥ ३. [प्र०] हे भगवन् ! ए चौद प्रकारना संसारी जीवोना जघन्य अने उत्कृष्ट योगने *आश्रयी कया जीवो कोनाथी यावत्- योग मालपशुत्व. विशेषाधिक छे! उ०] हे गौतम | सूक्ष्म अपर्याप्त जीवनो जघन्य योग सौथी थोडो छे १. तेथी बादर अपर्याप्त जीवनो जघन्य योग असंख्य गुण छे २. तेथी बेइन्द्रिय अपर्याप्तनो जघन्य योग असंख्यातगुण छे ३. तेथी तेइन्द्रिय अपर्याप्तनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे. तेथी चउरिन्द्रिय अपर्याप्तनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे ५. तेथी अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रियनो जघन्य योग असंख्यातगुण छे ६. तेथी अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे ७. तेथी पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे ८. तेथी पर्याप्त बादर एकेन्द्रियनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे ९. तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे १०. तेथी अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे. ११. तेथी पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे १२. तेथी पर्याप्त बादर एकेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे १३. तेथी पर्याप्त बेइन्द्रियनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे १४. ए प्रमाणे पर्याप्त तेइन्द्रिय, यावत्-पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियनो जघन्य योग ( उत्तरोत्तर) असंख्यात गुण छे १५-१८. तेथी अपर्याप्त बेइन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे १९. ए प्रमाणे अपर्याप्त तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, यावत्-संज्ञी पंचेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे २०-२३. तेथी पर्याप्त बेइन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे २४. ए प्रमाणे अपर्याप्त तेइन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे २५. तेथी पर्याप्त चउरिन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे २६. तेथी पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे २७. अने तेथी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे २८. * आत्मप्रदेशना परिस्पन्दन के कंपनने योग कहे छे. ते योग 'वीर्यान्तरायकर्मना क्षयोपशमादिनी विचित्रताथी अनेकविध होय छे. कोइ जीवने श्राश्रयी अल्प योग होय छे अने तेज बीजा जीवनी अपेक्षाए उत्कृष्ट होय छे. तेना चौद जीवस्थानकोने आश्रयी प्रत्येकना जघन्य अने उत्कृष्ट मेद गणता अव्यावीश प्रकार थाय छे. आ सूत्रमा तेना अल्पबहुवर्नु कथन छे. तेमां सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रियनो जघन्य योग सौथी अल्प होय छे. कारण के तेओनुं शरीर सूक्ष्म होवाथी अने अपर्याप्त होवाने लीधे अपूर्ण होवाथी बीजा बधा योगो करतां तेनो योग सौथी थोडो छे अने ते कार्मणशरीर द्वारा औदारिक पुद्गलो ग्रहण करवाना प्रथम समये होय छे अने पछी समये समये योगनी धृद्धि थाय छे अने ते उत्कृष्ट योगपर्यन्त वधे छे. जघन्य अने उत्कृष्ट योगर्नु अल्पबहुत्व. सूक्ष्म एके- सूक्ष्म एके-बादर एके-बादर एके- बेइन्द्रिय | बेइन्द्रिय | तेइन्द्रिय | तेइन्द्रिय |चउरिन्द्रिय चउरिन्द्रिय असंज्ञी | असंज्ञी संज्ञी पंचे- संज्ञी न्द्रिय अप- न्द्रिय न्द्रिय अप- न्द्रिय | अपर्याप्त | पर्याप्त | अपर्याप्त | पर्याप्त | अपर्याप्त | पर्याप्त पंचेन्द्रिय | पंचेन्द्रिय | न्द्रिय पंचेन्द्रिय र्याप्त । पर्याप्त । र्याप्त । पर्याप्त अपर्याप्त / पर्याप्त | अपर्याप्त पर्याप्त जघन्य | जघन्य जघन्य जघन्य जघन्य जघन्य जघन्य जघन्य | जघन्य जघन्य जघन्य | जघन्य जघन्य जघन्य १८ १६ १७ उत्कृष्ट । उत्कृष्ट १. | १२ उत्कृष्ट ११ उत्कृष्ट १३ उत्कृष्ट १९ उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट । | उत्कृष्ट २. उत्कृष्ट २२ २७ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगना प्रकार श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे - शतक २५. – उद्देशक १. ४. [प्र० ] दो भंते ! नैरतिया पढमसमयोववन्नगा किं समजोगी, किं विसमज़ोगी ? [30] गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी । [ प्र०] से केणद्वेणं भंते ! एवं वुश्चति - ' सिय समजोगी, सिय विसमजोगी' ? [30] गोयमा ! आहारयाओ वा से अणाहारप, अणाहारयाओ वा से आहारए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अन्भहिए । जइ हीणे असंखेजभागही वा, संखेजइभागहीणे वा, असंखेजगुणहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा । अह अन्भहिए असंखेजइभागमम्भहिए वा, संखेजइभागमब्भहिए वा, संखेजगुणमन्भहिए वा, असंखेजगुणमन्भहिए वा, से तेणट्टेणं जाव- सिय 'विसमजोगी' । एवं जाव-वेमाणियाणं । बोगनुं वप २०० ५. [प्र० ] कतिविद्दे णं भंते! जोए पत्ते १ [उ०] गोयमा ! पन्नरसविहे जोए पश्नत्ते, तंजहा - सच्चमणजोए १, मोसमणजोए २, सच्चा मोसमणजोए ३, असश्चामोसमणजोए ४, सचवइजोप ५, मोसवइजोप ६, सभ्यामोसवइजोए ७, असच्चामोसजोए ८, ओरालियसरीरकायजोप ९, ओरालियमीसासरीरकायजोए १०, वेउष्ठियसरीरकायजोए ११, वेउचियमीसासरीरकायजोगे १२, आहारगसरीरकायजोगे १३, आहारगमीसासरीरका यजोगे १४, कम्मासरीरकायजोगे १५ । प्रथम समयम ४. [प्र० ] हे भगवन् ! प्रथम समये उत्पन्न थयेला बे नैरयिको समान योगवाळा होय के विषम योगवाळा होय ? [30] चिकने माश्रयी योग. हे गौतम! तेओ कदाच समान योगवाळा होय अने कदाच विषम योगवाळा पण होय. [प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी म नैर छे के तेओ कदाच समान योगवाळा होय अने कदाच विषम योगवाळा होय ! [उ०] हे गौतम! #आहारक नारकथी अनाहारक नारक अने अनाहारकथी आहारक नारक कदाच हीन योगवाळो, कदाच तुल्य योगवाळो अने कदाच अधिक योगवाळो होय. अर्थात् आहारक नारकथी अनाहारक नारक हीन योगवाळो, अनाहारकथी आहारक नारक अधिक योगवाळो, भने बन्ने आहारक के बने अनाहारक नारको परस्पर तुल्य योगवाळा होय. जो हीनयोगवाळो होय तो ते असंख्यातमा भाग हीन, संख्यातमा भाग हीन, संख्यातगुण हीन के असंख्यात गुण हीन होय. जो अधिक योगवाळो होय तो असंख्यातमा भाग अधिक, संख्यातमा भाग अधिक, संख्यात गुण अधिक के असंख्यात गुण अधिक होय छे. ते कारणथी यावत्-ते कदाच विषम योगवाळो पण होय. ए प्रमाणे वैमानिको सुची जाणवुं. ते ६. [अ०] यस्स णं भंते! पन्नरसविहस्स जहन्नुकोसगस्स कयरे कयरे० जाव-विसेसाहिया वा ? [ उ०] गोयमा ! सवत्थोवे कम्मगसरी रगस्स जहन्नएजोए १, ओरालियमीसगस्स जहन्नए जोप असंखेजगुणे २, वेडवियमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे ३, ओरालियसरीरगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ४, वेउधियसरीरस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ५, कम्मगसरीरस्स उक्कोसप जोए असंखेज्जगुणे ६, आहारगमीसस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ७, तस्स चेव उक्कोसप जोए असंखेजगुणे ८, ओरालियमीसगस्स, वेउच्चियमीसगस्स य एएसि णं उक्कोसए जोप दोण्हवि तुल्ले असंखेजगुणे ९-१०, असश्चामोसमणजोगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ११, आहारगसरीरस्स जहन्नए जोए अंसेखज्जगुणे १२, तिविहस्स मणजोगस्स चउ ५. [प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारनो योग कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! पंदर प्रकारनो योग कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ सत्य मनोयोग, २ मृषा मनोयोग, ३ सत्यमृषा मनोयोग, ४ असत्यामृषा मनोयोग, ५ सत्य वचनयोग, ६ असत्य वचनयोग, ७ सत्यमृषा वचनयोग, ८ असत्यामृषा वचनयोग, ९ औदारिकशरीर काययोग, १० औदारिकमिश्रशरीरकाययोग, ११ वैक्रिय शरीरकाययोग, १२ वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग, १३ आहारकशरीरकाययोग, १४ आहारकमिश्रशरीरकाययोग अने १५ कार्मणशरीरकाययोग. ६. [प्र०] हे भगवन् ! जघन्य अने उत्कृष्ट पंदर प्रकारना योगमां कयो योग कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम! कार्मण शरीरनो जघन्य योग सौथी अल्प छे १, तेथी औदारिकमिश्रनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे २, तेथी वैक्रियमिश्रनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे ३, तेथी औदारिक शरीरनो जघन्य योग असंख्यात गुण छे ४, तेथी वैक्रिय शरीरनो जघन्य योग असंख्यात गुण के ५, तेथी कार्मण शरीरनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे ६, तेथी आहारकमिश्रनो जघन्य योग्य असंख्यातगुण छे ७, तेथी आहारकशरीरनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण छे ८, तेथी औदारिकमिश्र अने वैक्रियमिश्रनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण अने परस्पर समान छे ९–१०, तेथी असल्यामृषा मनोयोगनो जघन्य योग असंख्यातगुण छे ११, तेथी आहारक शरीरनो जघन्य योग असंख्यातगुण छे, ४ * आहारक नारकनी अपेक्षाए अनाहारक नारक हीन योगवाळो होय छे, कारण के जे नारक ऋजु गतिथी आवीने आहारकपणे उत्पन्न थाय छे, ते निरन्तर आहारक होवाने लीघे पुद्गलोथी उपचित होय छे तेथी ते अधिक योगवाळो होय छे. जे नारक विग्रह गतिवडे अनाहारक पणे उत्पन्न भाय छे ते अनाहारक होवाथी पुद्गलोथी अनुपचित होबाने लीघे हीन योगवाळो होय छे. जेओ समान समयनी विग्रह गतिथी अनाहारकपणे उत्पन्न थाय, अथवा जुगतिथी आवीने आहारकपणे उत्पन्न थाय ते बने एक बीजानी अपेक्षाए समानयोगवाळा होय छे. टीका. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक २. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०१ खिस्स वयजोगस्स-एएसिणं सत्तण्ह वि तुल्ले जहन्नए जोए असंखेजगुणे १३-१९, आहारगसरीरस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे २०, ओरालियसरीरस्स, वेउधियसरीरस्स, चउस्विहस्स य मणजोगस्स, चउधिहस्स य वइजोगस्स-एएसि गं दसह वि तुल्ले उकोसए जोए असंखेजगुणे २१-३० । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । पणवीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो। १२, तेथी त्रण प्रकारना मनोयोग अने चार प्रकारना वचनयोग-ए सातनो जघन्य योग असंख्यातगुण अने परस्पर तुल्य होय छे १३-१९, तेथी आहारक शरीरनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण होय छे २०, तेथी औदारिक शरीर, वैक्रियशरीर, चार प्रकारना मनोयोग अने चार प्रकारना वचनयोग-ए दसनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण अने परस्पर तुल्य होय छे २१-३०. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ.। पचीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. बीओ उद्देसो। १. [प्र०] कतिविहा गं भंते ! दधा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा दधा पन्नता, तंजहा-जीवदधा य अजीवदवा य। ___२. [प्र०] अजीवदया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूविअजीवदधा य अरूविमजीवदधा य । एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपजवा, जाव-से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुञ्चइ-'ते णं नो संस्त्रेजा, नो असंखेजा, अणंता'। ३. [प्र०] जीवदया णं भंते ! किं संखेजा, असंखेजा, अणंता ? [उ०] गोयमा ! नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता । [प्र०] केणटेणं भंते । एवं वुच्चइ-'जीवदया णं नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता'? [उ०] गोयमा! असंखेजा नेरइया, जाप-असंखेजा वाउकाइया, अणंता वणस्सइकाइया, असंखेज्जा बेदिया, एवं जाव-वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से तेणटेणं नाव-'अणंता'। ४.प्र०] जीवदघाणं भंते ! अजीवदवा परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, अजीवदधाणं जीवदधा परिभोगत्ताए हवमागछंति ? [उ०] गोयमा! जीवदधाणं अजीवचा परिभोगत्ताए हन्धमागच्छंति, नो अजीवदवाणं जीवदया परिभोगत्ताए हवमागच्छंति । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव-'हत्वमागच्छंति' ? [उ०] गोयमा! जीवदया णं अजीवदचे परियादि द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यो केटलां प्रकारनां कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! द्रव्यो बे प्रकारनां कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-जीवद्रव्य द्रव्यना प्रकार. अने अजीवद्रव्य. २. प्रि०] हे भगवन् ! अजीवद्रव्यो केटलां प्रकारना कह्यां छे! [उ०] हे गौतम | ते बे प्रकारना कह्यां छे. ते आ प्रमाणे- अजीव द्रव्योना प्रकार. रूपी अजीवद्रव्यो अने अरूपी अजीवद्रव्यो, ए प्रमाणे ए सूत्रपाठवडे जेम [*प्रज्ञापना सूत्रना विशेष नामना पांचमा] पदमां अजीवपर्यवो संबन्धे का छे तेम अहिं अजीव द्रव्यसंबंधे यावत्- हे गौतम! ते कारणथी एम का छे के, ते [अजीव द्रव्य ] संख्याता नथी, असंख्याता नथी, पण अनंत छे' त्यां सुधी कहे. ३. प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवद्रव्यो संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवो संख्याता नथी, जीवद्रव्यनी संख्या. जीवद्रव्यो अनंत असंख्याता नथी, पण अनंत छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के 'जीवद्रव्यो संख्याता नथी, असंख्याता नथी, पण या अनंत छे' ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिको असंख्य छे, यावत्-वायुकायिक असंख्य छे, वनस्पतिकायिको अनंत छे, बेइंद्रियो अने र प्रमाणे यावत्-वैमानिको असंख्याता छे, तथा सिद्धो अनंत छे. माटे ते हेतुथी जीवो यावत्-अनंत छे. १. [प्र०] हे भगवन् ! अजीवद्रव्यो जीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवे के जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवे! अजीवद्रव्योनो परिभोग. [उ०] हे गौतम ! अजीवद्रव्यो जीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवे पण जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवतां नथी [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के यावत्-'जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमां यावत्-तुरत आवता नथी' ! [उ०] हे गौतम ! ३* जुओ-प्रज्ञा० पद ५५० १९६. + जीवद्रव्यो सचेतन होवाथी अजीवद्रव्योने ग्रहण करी तेनो शरीरादिरूपे परिभोग करे छे, माटे ते परिभोक्का छे, अने अजीवद्रव्यो अचेतन होवाथी प्रण योग्य छे माटे ते भोग्य छे. २६ म. सू. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक २. पंति. अजीवदचे परियादिइत्ता ओरालियं घेउधियं आहारगं तेयगं कम्मगं, सोइंदियं जाव-फासिदियं, मणजोगं वहजोगं फायजोगं, आणापाणुत्तं च निवत्तयंति, से तेणटेणं जाव-हवमागच्छंति' । ५.प्र०] नेरतियाणं भंते ! अजीवदया परिभोगत्ताए हन्धमागच्छंति, अजीवदवाणं नेरतिया परिभोगत्ताए? उ1 गोयमा! नेरतियाणं अजीवदया जाव-हवमागच्छंति, नो अजीवदचाणं नेरतिया हवमागच्छंति । [प्र.] से केणटेणं०१० गोयमा ! नेरतिया अजीवदवे परियादियंति, अ० २ परियादिहत्ता वेउविय-तेयग-कम्मगं सोइंदियं० जाव-फासिंदियं भाणापाणत्तं च निश्चत्तयंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चर-एवं जाव-वेमाणिया । नवरं सरीरइंदियजोगा भाणियधा जस्स जे अस्थि । __६. [प्र०] से नूणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणंताई दवाई आगासे भइयवाई ? [उ०] हंता गोयमा ! असंखेजे लोए आष-भइयवाई। ७.० लोगस्सणं भंते ! एगंमि आगासपएसे कतिदिसि पोग्गला चिजंति उ०] गोयमा! निवाघाएणं छहिसिं. पाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि । ८. [प्र०] लोगस्स णं भंते ! एगंमि मागासपएसे कतिदिसि पोग्गला छिजंति ? [उ०] एवं चेव, एवं उवचिजंति, एवं अवचिजंति । ९. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाई भोरालियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाई गेण्हह, अठियाई गेहा? [30] गोयमा ! ठियाई पि गेहइ, अठियाई पि गेण्हह। १०प्र०] ताई भंते ! किं दवओ गेण्हइ, खेत्तओ गेण्हइ, कालओ गेण्हइ, भावओ गेण्हइ ? [उ०] गोयमा! दपओ विगेहह, खेत्तो वि गेण्हइ, कालओ वि गेण्हइ, भावओ वि गेण्हइ । ताई दखओ अणंतपएसियाई दवाई, खेत्तओ असं जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योने ग्रहण करे छे अने ग्रहण करी तेने औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, अने कार्मण-ए पांच शरीररूपे, श्रोत्रंद्रिय, यावत्-स्पर्शेन्द्रिय-ए पांच इन्द्रियपणे, मनोयोग, वचनयोग अने काययोग तथा श्वासोच्छ्वासपणे परिणमावे, ते कारणथी अजीवद्रव्यो जीवद्रव्योना परिभोगमा यावत्-तुरत आवे छे, पण जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवतां नथी. नैरयिकोने अजीव ५. [प्र०] हे भगवन् ! अजीवद्रव्यो नैरयिकोना परिभोगमा तुरत आवे के नैरयिको अजीवद्रव्योना परिभोगमां तुरत आवे? म्योनो परिभोग. उ० हे गौतम | अजीवद्रव्यो नैरयिकोना परिभोगमां शीघ्र आवे छे, पण नैरयिको अजीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवतां नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको अजीवद्रव्योने ग्रहण करे छे अने ग्रहण करीने वैक्रिय, तेजस, अने कार्मणशरीररूपे, श्रोत्रंद्रिय यावत्-स्पर्शेन्द्रियरूपे तथा श्वासोच्छ्रासरूपे परिणमावे छे. ते हेतुथी हे गौतम ! एम कर्तुं छे, . ए रीते यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. परन्तु जेने जेटलां शरीर, इन्द्रिय अने योग होय तेटलां तेने कहेवा. असंख्य लोकाका ६. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्य लोकाकाशमां अनंत द्रव्यो रही शके ? [उ०] हे गौतम ! हा, असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाशमा शमा अनन्त द्रव्यो नी स्थिति. अनन्त द्रव्यो रही शके. एक आकाश प्रदे ७. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना एक आकाशप्रदेशमा केटली दिशाओथी (आवीने ) पुद्गलो एकठां थाय ! (उ०] हे गौतम ! शमां पुद्गलोनो व्याघात (प्रतिबंध ) न होय तो छए दिशामांथी आवीने अने जो प्रतिबंध होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, कदाच चार दिशामाथी चयापचय. अने कदाच पांच दिशामांथी आवी पुद्गलो एकठां थाय छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना एक आकाशप्रदेशमा केटली दिशाओमाथी आवी पुद्गलो छेदाय-छूटा थाय ? [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे स्कन्धरूपे पुद्गलो [अन्य पुद्गलोना मळवाथी ] उपचित थाय भने (जुदा पडवाथी) अपचित थाय. औदारिकादि शरीर- ९. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे पुदगल द्रव्योने औदारिकशरीरपणे ग्रहण करे ते "स्थित द्रव्योने ग्रहण करे के अस्थित वन्यो ग्रहण " द्रव्योने प्रहण करे ! [उ०] हे गौतम ! ते स्थित द्रव्योने ग्रहण करे अने अस्थित द्रव्योने पण ग्रहण करे. कराय! द्रव्य, क्षेत्र, काळ १०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते द्रव्योने द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी अने भावथी ग्रहण करे ? [उ०] हे गौतम ! ते द्रव्योने द्रव्यथी, भने भावधी द्रव्य- क्षेत्रथी, काळथी अने भावथी ग्रहण करें छे. द्रव्यथी अनंतप्रदेशिक द्रव्यने प्रहण करे छे. क्षेत्रथी असंख्य प्रदेशाश्रित द्रव्यने प्रहण करे छे. ग्रहण *जेटला आकाशक्षेत्रमा जीव रहेलो छ तेनी अंदर रहेला जे पुद्गलद्रव्यो ते स्थित द्रव्यो कहेवाय छे अने तेनी बहारना क्षेत्रमा रहेला पुद्गलद्रव्यो ते भस्थित द्रव्यो कहेवाय छे, तेने त्यांची खेंचीने ग्रहण करे छे. ते संबन्धे अन्य आचार्य एम कहे छे के गति रहित द्रव्यो ते स्थितन्या अन गतिसहित न्यो ते अस्थित द्रव्यो कहेवाय छे-टीका. Jain Education international Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०३ खेजपएसोगाढाई-एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए, जाव-निधाधारणं छदिसि, वाघायं पडुश्च सिय तिदिसि सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसि । ११. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाई वेउधियसरीरत्ताए गेहह ताई किं ठियाई गेण्हा, अठियाएं गेहा ! [०] एवं चेव, नवरं नियम छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरत्ताए वि । १२. प्र. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं तेयगसरीरत्ताए गिण्हा-पुच्छा। उ०] गोयमा! ठियाई गेण्डर, नो अठियाई गेण्डइ, सेसं जहा ओरालियसरीरस्स । कम्मगसरीरे एवं चेव । एवं जाव-भावो वि गिहा। १३. [प्र०] जाई दवाई दघओ गेण्हा ताई कि एगपएसियाई गेण्हर, दुपएसियाई गेहराउ.] पर्व जहा भासापदे, जाव-'आणुपुष्विं गेण्हर, नो अणाणुपुधिं गेण्हह ।। १४. [प्र०] ताई भंते ! कतिदिसि गेण्हइ ? [उ०] गोयमा ! निवाघाएणं०, जहा ओरालियस्स । १५. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाइं सोइंदियत्ताए गेण्हइ०१ [उ०] जहा वेडषियसरीरं, एवं जाव-जिभिदियत्ताए, फासिदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं, मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं । नवरं नियम छहिसिं, एवं वाजोगत्ताए वि, कायजोगत्ताए वि जहा ओरालियसरीरस्स । १६. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाइं आणापाणुत्ताए गेहह जहेव ओरालियसरीरत्ताए, जाव-सिय पंचदिसि । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! [त्ति] केइ चउबीसदंडएणं एयाणि पदाणि भन्नंति-'जस्स जं अत्थि' पणवीसइमे सए वीओ उद्देसो समत्तो। ए प्रमाणे *प्रज्ञापनासूत्रना प्रथम आहारोद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'प्रतिबंध सिवाय छए दिशाओमांथी- अने प्रतिबंध होय तो कदाच त्रण दिशामाथी, कदाच चार दिशामाथी अने कदाच पांच दिशामांथी आवेला पुद्गलोने ग्रहण करें'-त्या सुधी कहे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे पुद्गल द्रव्योने वैक्रियशरीरपणे ग्रहण करे ते स्थित द्रव्यो होय छे के अस्थित द्रव्यो होय छे! [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के वैक्रियशरीरपणे जे द्रव्योने ग्रहण करे छे ते अवश्य छिए दिशामांथी आवेला होय छे. ए प्रमाणे आहारकशरीर संबंधे पण जाणवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे द्रव्योने तैजसशरीरपणे ग्रहण करे छे, ते स्थित द्रव्यो होय तो ग्रहण करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | ते द्रव्यो स्थित होय तो ग्रहण करे छे, पण अस्थित होय तो ग्रहण करतो नथी. बाकी बधुं औदारिक शरीरनी पेठे जाणवु. तथा कार्मण शरीर संबंधे पण एमज समजवू, ए प्रमाणे यावत्-'भावथी पण ग्रहण करे छे' त्यां सुधी कहे. १३. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यथी जे द्रव्योने ग्रहण करे छे, ते द्रव्यो शुं (द्रव्यथी ) एक प्रदेशवाळा ग्रहण करे, बे प्रदेशवाळा ग्रहण करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] ए प्रमाणे भाषापदमां कह्या प्रमाणे यावत्-क्रमपूर्वक ग्रहण करे छे, पण क्रम सिवाय ग्रहण करतो नथी' त्यां सुधी जाणवू. ____१४. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटली दिशामांथी आवेला पुद्गलोने ग्रहण करे छे ! [उ०] हे गौतम ! प्रतिबंध सिवाय-[ छए दिशाथी आवेला स्कन्धो ग्रहण करे-इत्यादि ] औदारिक शरीरनी पेठे (स०८) जाणवं. १५. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव जे द्रव्योने श्रोत्रंद्रियपणे ग्रहण करे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! वैक्रिय शरीरनी पेठे [सू०९] यावत्-जिहेंद्रिय सुधी जाणवू, अने स्पर्शेद्रिय संबंधे औदारिक शरीरनी पेठे समजवू. मनोयोग संबंधे कार्मण शरीरनी पेठे जाणवू. पण विशेष एके अवश्य छए दिशामांथी आवेलां पुद्गलो ग्रहण करे छे. ए प्रमाणे वचनयोग संबंधे पण जाणवू. काययोग संबंधे औदारिक शरीरनी पेठे समजवू. १६. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे द्रव्योने श्वासोच्छासपणे ग्रहण करे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] औदारिक शरीरनी पेठे जाणवू, यावत्-कदाच त्रण दिशा, चार दिशा, के पांच दिशामाथी आवेलां पुद्गलो ग्रहण करे छे. कोई आचार्यो 'जेने जे होय तेने ते कहेवू'ए पदोने चोवीस दंडके कहे छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. पचीशमा शतकमा द्वितीय उद्देशक समाप्त. १.* प्रज्ञा. पद [ ] ११+ 'वैक्रियशरीरप्रायोग्य द्रव्यो छए दिशामाथी आवेला ग्रहण करे छे'-ते कहेवानो एवो अमिप्राय छे के उपयोगपूर्वक वैक्रिय शरीर करनार पंचेन्द्रिय ज होय छे भने ते त्रसनादीना मध्यभागमा होवाथी तेने अवश्य छ दिशाना आहारमो संभव छ. यद्यपि वायुकायिकने वैक्रिय शरीर होवाथी तेनी अपेक्षाए वैक्रिय शरीरने आश्रयी लोकान्त निष्कुटने विषे पांच दिशादिना आहारनो संभव छे, परन्तु तेओ उपयोगपूर्वक वैक्रिय शरीर करता नथी, तेमज तेने सातिशय वैक्रिय शरीर नथी, तेथी तेनी विवक्षा कर्या सिवाय कधुं छे. १३ यावत्-अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध प्रहण करे ! हे गौतम ! एक प्रदेशिक, यावत्-असंख्य प्रदेशिक स्कन्धो न प्रहण करे, पण अनन्त प्रदेशिक स्कन्धो ग्रहण करे.-जुओ प्रज्ञा पद १५० २६१-१. . Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रीरायचद्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ३. तईओ उद्देसो। १.प्र०] कति णं भंते ! संठाणा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा। छ संठाणा पन्नत्ता, तं जहा- परिमंडले, २ बढे, ३ तंसे, ४ चउरंसे, ५ आयते, ६ अणित्थंथे। २. [प्र०] परिमंडला गं भंते ! संठाणा दधट्टयाए कि संखेजा, असंखेजा, अणंता ? [उ०] गोयमा ! नो संस्नेजा, नो असंखेजा, अणंता। ३. [प्र०] वटा गं भंते ! संठाणा० ? [.] एवं चेव, एवं जाव-अणित्थंथा, एवं पएसट्टयाए वि, एवं बधटुपएसट्टयाए वि। ४.[प्र० एएसि णं भंते ! परिमंडल-व-तंस-चउरंस-आयत-अणित्यंथाणं संठाणाणं दधट्टयाए पएसट्टयाए दषटुपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो जाव-विसेसाहिया वा! [उ०] गोयमा! सवयोवा परिमंडलसंठाणा दट्टयाए, वहा संठाणा दघट्टयाए संखेजगुणा, चउरंसा संठाणा दघट्टयाए संखेजगुणा, तंसा संठाणा दचट्ठयाए संखेजगुणा, आयतसंठाणा दघट्टयाए संखेजगुणा, अणित्थंथा संठाणा दधट्टयाए असंखेजगुणा । पएसट्टयाए-सव्वत्थोवा परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए, वहा संठाणा पदेसट्टयाए संखेजगुणा; जहा दवट्ठयाए तहा पएसट्टयाए वि, जाव-अणित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा। दघट्टपएसट्टयाए-सवत्थोवा परिमंडला संठाणा दधट्टयाए, सो चेव गमओ भाणियचो, जाव-अणित्थंथा संठाणा दखट्टयाए पसंख्नेजगुणा, अणित्थंथेहितो संठाणेहितो देवढयाए परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए असंखेगुणा, वहा संठाणा पएसट्टयाए संखेजगुणा-सो चेव पएसट्टयाए गमओ भाणियव्वो, जाव-अणित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा । ५. [प्र०] कति णं भंते ! संठाणा पन्नत्ता ! [उ०] गोयमा! पंच संठाणा पन्नत्ता, तं जहा-परिमंडले, जाव-आयते । तृतीय उद्देशक. संस्थान. १. [प्र०] हे भगवन् ! संस्थानो-पौद्गलिक स्कंधना आकारो केटला कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! छ संस्थानो कयां छे, ते आ प्रमाणे-१ परिमंडल-वलयाकार, २ वृत्त-गोळ, ३ व्यस्र-त्रिकोण, ४ चतुस्र-चतुष्कोण, ५ आयत-दीर्घ अने ६ अनित्यंस्थ परिमंडलादिथी भिन्न आकारवाळु. परिमंगलनी संख्या. २. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थान द्रव्यार्थरूपे \ संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे ! [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता नथी, असंख्याता नथी, पण अनंत छे. वृत्तादिनी संख्या. ३. [प्र०] हे भगवन् ! वृत्त संस्थान द्रव्यार्थरूपे शुं संख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवं. एम यावत्-अनित्यंस्थ संस्थान सुधी जाणवू. ए प्रमाणे प्रदेशार्थपणे अने द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थपणे पण समजवू. मत्सबकुत्त्व. ४. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल, वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र, आयत अने अनित्यंस्थ संस्थानोमा द्रव्यार्थरूपे, प्रदेशार्थरूपे भने द्रव्यार्थप्रदेशार्थरूपे कयां संस्थानो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम | द्रव्यार्थरूपे *परिमंडल संस्थानो सौथी थोडां छे, तेथी वृत्त संस्थानो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणां छे. तेथी चतुरस्र संस्थानो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणां छे, तेथी व्यस्रसंस्थानो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणां छे, तेथी आयत संस्थानो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणां छे, अने तेथी अनित्यंस्थ संस्थानो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुणां छे. प्रदेशार्थरूपे परिमंडल संस्थानो सौथी थोडां छे, तेथी वृत्त संस्थानो प्रदेशार्थरूपे संख्यातगुणां छे-इत्यादि जेम द्रव्यार्थरूपे कयुं छे तेम प्रदेशार्थरूपे पण यावत्-'प्रदेशार्थरूपे अनित्यस्थ संस्थानो असंख्यातगुणां छेत्यां सुधी कहे. द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूपे-परिमंडल संस्थानो सौथी थोडां म्याधरूपे. छे-इत्यादि द्रव्यार्थ संबन्धी पूर्वोक्त गमक-पाठ कहेवो, यावत्-'अनित्थंस्थ संस्थानो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुणां छे.' द्रव्यार्थरूपे अनित्थंस्थ संस्थानो करतां परिमंडल संस्थानो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुण छे, तेथी वृत्त संस्थानो प्रदेशार्थरूपे संख्यातगुणां छे-इत्यादि पूर्वोक्त प्रदेशार्थपणानो पाठ यावत्-'अनित्थंस्थ संस्थानो असंख्यात गुण छे' त्यां सुधी कहेवो. संसान. ५. [प्र०] हे भगवन् ! केटला सिंस्थानो कयां छे । उ०] हे गौतम ! पांच संस्थानो का छे, ते आ प्रमाणे-१ परिमंडल, यावत्-५ आयत. 'दग्वट्ठयाए हिंतो'ग-छ। *४ अहिं संस्थानोनी जघन्य अवगाहनानो विचार कर्यो छे. जे संस्थानो जे संस्थाननी अपेक्षाए बहुप्रदेशावगाही छे ते खाभाविक रीते थोडा छे. परिमंडल संस्थान जघन्यथी वीश प्रदेशनी अवगाहनावाळु होय छे, अने वृत्त, चतुरस्र, व्यस्र अने आयत संस्थान जघन्यथी अनुक्रमे पांच, चार, त्रण अने ये प्रदेशावगाही छे. माटे परिमंडल बहुतरप्रदेशावगाही होवाथी सर्वथी थोडा छे, तेथी वृत्तादि संस्थानो अल्प अल्प प्रदेशावगाही होवाथी संख्यातगुणा अधिक अधिक होय छे. ५ संस्थाननी सामान्य प्ररूपणा करी. हवे रमप्रभादिने विषे प्ररूपणा करवानी इच्छाथी पुनः संस्थान संबन्धी प्रश्न करे छे. भही अन्य संस्थानोना संयोगजन्य होवाथी छठा अनित्थंस्थ संस्थाननी विवक्षा करी नथी, तेथी पांच ज संस्थान कयां छे-टीका. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६. [प्र०] परिमंडला णं मंते ! संढाणा किं संखेजा, असंखेजा, अणंता ? [उ०] गोयमा ! नो संस्नेजा, नो असंखेजा, अणंता। ७. [प्र०] वटा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा० १ [उ०] एवं चेव । एवं जाव-आयता । प्रि० इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला संठाणा किं संखेजा, असंखेजा, अणंता? [10] गोयमा! नो संखेजा, नो असंख्नेजा, अणंता । ९. [प्र०] वटा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा, असंखेजा० १ [उ०] एवं चेव, एवं जाव-आयया। १०. [प्र०] सक्करप्पभाए गं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणा० १ [उ०] एवं चेव, एवं जाव-आयया । एवं जावअहेसत्तमाए। ११. [प्र०] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा० . [उ०] एवं चेव, एवं जाव-अचुए। १२. [प्र०] गेवेजविमाणाणं भंते ! परिमंडलसंठाणा० ? [उ०] एवं चेव, एवं अणुत्तरविमाणेसु वि, एवं ईसिपभाराए वि। १३. [प्र०] जत्थ णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा किं संस्खेजा, असंत्रेजा, वर्णता [उ.] गोयमा। नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता। १४. [प्र०] वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा, असंखेजा० १ [उ०] एवं चेव, जाव-आयता। ६. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थानो अ॒ संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे ! [उ०] हे गौतम ! संख्याता नथी, असं- परिमंडलनी संख्या. ख्याता नथी, पण अनंत छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! वृत्त संस्थान शुं संख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे समजवू. ए प्रमाणे यावत्-आयत संस्थान वृत्तनी संख्या. सुधी जाणवू. ८. [प्र०] हे भगवन् ! आ रनप्रभा पृथिवीमां परिमंडल संस्थानो शुं संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे! [उ.] हे गौतम ! रखप्रभामा परिमंडल ते संख्याता नथी, असंख्याता नथी, पण अनंत छे. संस्थानो. ९. [प्र०] हे भगवन् ! वृत्त संस्थानो शुं संख्याता छे, असंख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे. यावत्-आयत संस्थान वृत्तसंस्थान. मुधी समजवू. १०. [प्र०] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथिवीमा परिमंडल संस्थानो \ संख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. शर्कराप्रभामा परिमंडल संस्थानए प्रमाणे यावत्-आयत संस्थान सुधी समजवू. यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी ए प्रमाणे जाणवू. ११. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म कल्पमा परिमंडल संस्थानो शुं संख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवू. एम सौधर्मादि कल्पमा परिमंडल संस्थान यावत्-अच्युतकल्प सुधी जाणवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! प्रैवेयक विमानोमां शुं परिमंडल संस्थानो संख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. एम अवेयक विमानमा यावत्-अनुत्तर विमानो तथा ईषयाग्भाराने विषे पण समजवु. १३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यिां एक यवाकार परिमंडलसंस्थानसमुदाय छे त्यां यवाकार परिमंडलसमुदाय सिवाय बीजां परि- यवमध्यक्षेत्रमा बीजा मंडल संस्थानो संख्याता, असंख्याता के अनंत छ ? [उ०] हे गौतम ! संख्याता नथी, असंख्याता नथी पण अनंत छे. परिमंडल संस्थानो. १४. [प्र०] हे भगवन् ! त्यां वृत्त संस्थानो अ॒ संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. एम यावत्- वृत्त संस्थानो. आयत संस्थान सुधी समजवू. परिमंडल संस्थान. ११* सर्व लोक परिमंडलसंस्थानवाळा पुद्गलस्कन्धोवडे निरंतर भरेलो छे. तेमा तुल्यप्रदेशवाळा, तुल्यप्रदेशावगाही अने तुल्य वर्णादि पर्यायवाळा जे जे परिमंडल द्रव्यो होय ते वधाने कल्पनाथी एक एक पंक्तिमा स्थापित करवा. अने तेना उपर अने नीचे एक एक जातिवाळा परिमंडल द्रव्यो एक एक पंतिमा स्थापित करवा. तेथी तेमां अल्पबहुत्व थवाथी परिमंडल संस्थाननो समुदाय यवना आकारवाळो थाय छे. तेमा जघन्य प्रदेविक द्रव्यो खभावथी अल्प होवाची प्रथम पंकि नानी होय छे अने त्यार पछी बाकीनी पंक्ति अधिक अधिकतर प्रदेशवाळी होवाथी अनुक्रमे मोटी अने वधारे मोटी थाय छे. त्यार पछी क्रमशः घटतां छेवटे उत्कृष्ट प्रदेशवाळां द्रव्यो अत्यंत अल्प होवाथी छली पंक्ति अत्यन्त नानी होय छे. ए प्रमाणे तुल्य प्रदेशवाळा भने तेथी अन्य परिमंडल द्रव्यो वडे यवाकार क्षेत्र थाय छे. १३ ज्यां एक यवाकृतिनिष्पादक परिमंडलसंस्थानसमुदाय होय छे ते क्षेत्रमा यवाकारनिष्पादक परिमंडल सिवाय बीजा केटला परिमंडळ संस्थानो होय हे-ए प्रश्न छे. तेनो उत्तर अनंत परिमंडल संस्थानो होय छे. ए प्रमाणे वृत्तादि संस्थानो संबन्धे पण जाणवू.-टीका. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत संस्थान साथै परिमंडलादिनो संबन्ध. रतप्रभामां परिमं लादि संस्थानो. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंप्रहे शतक २५. - उद्देशक ३. १५. [प्र० ] जत्थणं मंते 1 एगे बट्टे संठाने जवमज्झे तत्थ परिमंडला संडाणा ० १ [30] एवं चैव, बट्टा संठाणा एवं वेध एवं जायभायता एवं एकेकेणं संडाणेणं पंच वि चारेयष्ठा । २०६ १६. [प्र० ] जत्थणं ते! इमीले रयणप्पभाष पुढबीए एगे परिमंडले संठाने जवमज्झे तत्व नं परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा- पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो संखेजा, नो असंखेज्जा, अनंता । [ प्र० ] बट्टा णं भंते! संठाणा कि संखेज्जी - १ [३०] एवं चेव, एवं जाव- आयता । १७. [प्र०] जत्थ णं भंते! इमीसे रयणप्पभार पुढवीए एगे वट्टे संठाणे जवमज्झे तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संजा० - पुच्छा। [४०] गोयमा जो संसेजा, नो असंलेजा, अनंता । वट्टा संठाणा एवं चेव, एवं जाव आयता एवं पुणरवि एक्केक्केणं संठाणेणं पंच वि चारेयचा जहेव हेट्ठिल्ला, जाव- आयतेणं, एवं जाव - अहेसत्तमाप, एवं कप्पेसु वि, जाव- ईसीपम्भारा पुढवीण । १८. [अ०] बट्टे णं भंते! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे पन्नत्ते ? [30] गोयमा ! वट्टे संठाणे दुविहे पनचे, तं जहा - घणवट्टे य पयरवट्टे य । तत्थ णं जे से पयरवट्टे से दुविहे पन्नत्ते, तंजहा - ओयपरसिए य जुम्मपपसिए य । तत्थ णं जे से ओयपरसिए से जहणं पंचपरखिए, पंचपरसोगाडे, उकोलेणं अनंतपपलिए, असंखेजपरसोमाटे । तत्थ णं जे से जु म्मपरसिए से जहणं वारसपरसिए, बारसपरसोगाढे; उक्कोसेणं अणतपयसिप, असंखेनपरसोगा। तस्य णं जे से घणबट्टे से दुबिहे पनते, संजदा-ओवपरसिए व तुम्मपणसिए य तत्थ णं जे से ओयपपसिए से जणं सत्तपयसिप सप्तपपसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणतपरसिए असंखेजपरसोगाढे पन्नत्ते । तत्थ णं जे से जुम्मपरसिए से जहनेणं बत्तीसपपसिए बत्तीसपरसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणतपएसिए असंखेजपरसोगाढे । १५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां (यवाकृति निष्पादक ) एक वृत्त संस्थान छे त्यां परिमंडल संस्थानो केटलां छे ! [उ०] पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं त्वां वृत्त संस्थानो पण एज प्रमाणे अनन्त समजवा. ए प्रमाणे यावत् आगत संस्थान सुधी जाणवुं. एक एक संस्थान साथै पांचे संस्थानोनो संबन्ध विचारखो. १६. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां ज्यां यवाकारनिष्पादक एक परिमंडल संस्थान समुदाय छे त्यां बीजा परिमंडल संस्थानो झुं संख्याता इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गौतम! संख्याता नयी, पण अनंत छे. [प्र०] हे भगवन् ! वृत्त संस्थानो शुं संख्याता छे- इत्यादि प्रश्न. [उ० ] ए प्रमाणे ( अनंत ) छे. एम यावत्-आयत सुधी जाणवुं. १७. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां ज्यां एक ( यवाकृतिनिष्पादक ) वृत्तसंस्थानसमुदाय होय छे त्यां परिमंडल संस्थानो शुं संख्याता - इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गौतम! संख्याता नथी, असंख्याता नयी, पण अनंत छे. वृत्त संस्थानो पण एज प्रमाणे जाणवा. एम आयत संस्थान सुधी समजवुं. वळी ए प्रमाणे पूर्वे का प्रमाणे अहिं फरीने पण एक एक संस्थान साथै पांचे संस्थानो संस्थान सुधी विचार करवो, तथा यावत् — अधःसप्तम पृथिवी, कल्पो अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीने विषे पण समजवुं. वृत्तसंस्थान केटा १८. [१०] हे भगवन् ! वृत्त संस्थान केटा प्रदेशवालुं छे अने केटला आकाश प्रदेशमां अवगाढ रहे छे! [उ०] है गौतम 1 प्रदेशवाकुं अने वृत्त संस्थान बे प्रकारनुं कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे- * घनवृत्त अने प्रतरवृत्त. तेमां जे प्रतरवृत्त छे, ते बे प्रकारनुं कह्युं छे, ते आ प्रमाणेकेटला प्रदेशमां अवगाढ होय ! ओजप्रदेशवाळु - एकीसंख्यावाळु अने युग्मसंख्याप्रदेशवाळु - बेकी संख्यावाकुं. तेमां जे ओजप्रदेशवाळु प्रतरवृत्त छे ते जघन्यथी पांच प्रदेशमा अने पांच आकाश प्रदेशमां अपगाट छे, तथा उत्कृष्ट अनंत प्रदेशचालु अने असंख्यात आकाशप्रदेशमां अवगाढ छे. तेमां जे युग्मप्रदेशवा प्रतरवृत्त के ते जघन्य बार प्रदेशवालुं भने चार आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे, तथा उत्कृष्ट अनंत प्रदेशमा अने असंख्यात आकाशप्रदेशमां अवगाड छे. तेमां जे धनवृत्त छे ते वे प्रकारनं कनुं छे, ते आ प्रमाणे ओजप्रदेशिक एकसंख्यावा अने युग्मप्रदेशिक—बेकी संख्यावाळु. तेमां जे ओजप्रदेशिक घनवृत्त छे ते जघन्य सात प्रदेशवाळु अने सात आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे, भने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवा अने असंख्यात आकाश प्रदेशमां अयगाढ छे. तेमां जे युग्मप्रदेशिक घनवृत्त के ते जघन्य बत्रीश प्रदेशया अने बीश आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, अने उत्कृष्टची अनंत प्रदेशवाळु अने असंख्य आकाश प्रदेशमां अवगाट छे. १ 'पुच्छा गोथमा ! नो संखेजा, नो असंखेज्जा, अनंता' - इति घपुस्तके । १८ * दडानी पेठे सर्व बाजु समप्रमाण ते घनवृत्त अने मांडानी पेठे मात्र जाडाइमां ओधुं होय ते प्रतरवृत्त. ओजप्रदेशिक प्रतरवृत्त :: आ प्रमाणे पांच प्रदेश भने युग्मप्रदेशिक प्रतरक्त आ प्रमाणे वार प्रवेशोनुं होय छे. ओज प्रवेशिक धनवृत्त एक मध्य परमाणुनी नीचे एक परमाणु अने उपर एक परमाणु, तथा तेनी चारे बाजु चार परमाणुओ एम ए जघन्य सात प्रदेशोनुं छे. ते आ प्रमाणे. - ० ० + युग्मप्रदेशिक पनत बीश प्रदेशोनुं होय . सेम प्रथम आ प्रमाणे बार प्रदेशोनो प्रतर स्थापनो, सेना उपर एक रीठे बीजों बार प्रदेशोनो प्रतर मूकवो अने बन्ने प्रतरना मध्य भागना चार चार अणुओनी उपर बीजा चार अणुओ मूकवा. ए रीते बत्रीश प्रदेशोनो युग्मप्रदेशिक घनवृत थाय छे. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामित्रणीत भगवतीसूत्र. २०७ १९. [२०] से मंते ! संढाणे कतिपदेखिए कतिपदेसोगाडे पद्मते ? [४०] गोयमा ! तंसे णं संठाने दुविद्दे पत्रते । तंजा - घणसे व पचरतंसे व तत्थ णं जे से पपरतंसे से दुबिछे पनते, तंजदा-भोपपयसिप प तुम्मपपसिए व तत्थ जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं तिपएसिए तिपरसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणतपपलिए असंखेजपपसोगाढे पत्ते । तत्थ जे से जुम्मपरसिए से जहनेणं छप्परसिए छप्परसोगादे पनते, उकोसेणं अणतपरसिए असंसेजपरसोगाढ़े पनसे । तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे पन्नत्ते, तंजा - ओयपपलिए य जुम्मपरसिप य । तत्थ णं जे से ओयपरसिए से जहनेणं पणतीसपपसिए पणतीसपएलोगाढे, उक्कोसेणं अनंतपए लिए-तं चेव । तत्थ णं जे से जुम्मपपसिए से जहस्रेणं चउप्पपलिए चउप्पएसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणतपपसिए - तं चैव । २०. [प्र०] चउरंसे णं भंते! संठाणे कतिपदेसिए - पुच्छा । [उ०] गोयमा ! चउरंसे संठाणे दुविहे पन्नत्ते, भेदो जहेव वट्टस्स, जाव-तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहनेणं नवपपलिए नवपपसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणतपपसिए असंखेजपरसोगाढे पन्नत्ते । तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहनेणं चउपपसिए चउपपसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणतपपसिए-तं चैव । तत्थ णं जे से घणचउरसे से दुबिहे पनचे, तंजा-त्रयपयसिए व जुम्मपरसिए व तत्व में जे से ओयपरसिए से जहन्त्रेणं सत्तावीसह परसिप सत्तावीसतिपरसोगाडे, उकोसेणं अनंतपपसिए तहेब तत्थ णं जे से जुम्मपरसिप से जणं अट्ठपपसिए अट्ठपरसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अनंतपपसिए तहेव । २१. [प्र०] आयए णं भंते! संठाणे कतिपदेसिए कतिपएसोगाढे पन्नत्ते ? [30] गोयमा ! आयए णं संठाणे तिविदे पनते । तंजहा - सेढिआयते, पयरायते, घणायते । तत्थ णं जे से सेढिआयते से दुविहे पन्नत्ते, तंजहा - ओयपपसिए य जुम्म १९. [प्र० ] हे भगवन् ! यस संस्थान केटला प्रदेशवाळु अने केटला आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे ? [उ०] हे गौतम! त्र्यस्त्र संस्थान व्यस्तसंस्थान केटला बे प्रकारनुं क ुं छे. ते आ प्रमाणे- धन त्रयत्र अने प्रतरत्र्यत्र. तेमां जे प्रतर त्र्यत्र छे ते बे प्रकारनुं कह्युं छे ते आ प्रमाणे- ओजशिक अने युग्मप्रदेशिक, तेमां जे ओजप्रदेशिक प्रतर त्र्यन छे ते जघन्य त्रण प्रदेशवालुं अने त्रण आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे, तथा उत्कृष्टथी अनंतप्रदेशबाळु अने असंख्य आकाशप्रदेशमां अवगाढ छे. तेमां जे युग्म प्रदेशिक प्रतर पन छे ते जघन्य छ प्रदेशयातुं अनेछ आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, बने उत्कृष्टधी अनंत प्रदेश अने असंख्य आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे. तेमां जे धन त्रयस्त्र छेते वे प्रकार कहुं छे, ते आ प्रमाणे ओजप्रदेशिक अने युग्मप्रदेशिक, तेमां जे ओजप्रदेशिक "धन पक्ष के ते जघन्य पात्रीश प्रदेशवाळु अने पत्रिीश आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळं अने असंख्य प्रदेशमां अवगाढ छे. तेमां ज़े युग्मप्रदेशिक धन प्रपत्र के ते जघन्य चार प्रदेशवालुं अने चार आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, तथा उत्कृष्टषी अनंत प्रदेशवा अने असंख्य प्रदेशमा अवगाढ छे. प्रदेशवाकुं अने फेटला प्रदेशमां अवगाढ होय ? २०. [प्र०] हे भगवन् ! चतुरस्र संस्थान केटला प्रदेशवाळु छे अने केटला आकाश प्रदेशमां अवगाढ होय छे ? [उ०] हे गौतम! चतुरस्र सं० केटा चतुरस्र - चतुष्कोण संस्थान बे प्रकारनुं छे, तेना वृत्त संस्थाननी पेठे घन चतुरस्र भने प्रतर चतुरस्र भेद कहेवा. यावत्-तेमा जे ओज प्रदेशिक प्रतर चतुरस्र के ते जघन्य नव प्रदेशमा अने नव आकाश प्रदेशमां अयगाढ के अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवालुं अने असक्षम आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे. अने जे गुम्म प्रदेशिक प्रतर चतुरस छे ते जघन्य चार प्रदेशवा अने चार आकाश प्रदेशमां अपगाढ छे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवालुं अने असंख्य आकाशप्रदेशमां अवगाढ छे. तेमां जे घन चतुरस्र छे ते बे प्रकारनं कधुं छे, ते आ प्रमाणे- ओमप्रदेशिक अने युग्मप्रदेशिक, तेमां जे ओजप्रदेशिक धन चतुरख छे ते जघन्य सत्तापीश प्रदेशवा अने सत्तावीश आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे, तथा उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवालुं अने असंख्य आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे. अने जे युग्म प्रदेशिक धन चतुरख ते जघन्य आठ प्रदेशमा अने आठ आकाश प्रदेशमां अवगाढ डे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवा अने असंख्य आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे. २१. [प्र० ] हे भगवन् ! आयत संस्थान केटला प्रदेशवाळु छे अने केटला आकाशप्रदेशमां अवगाढ छे [उ०] हे गौतम ! भायत सं० केटला आयत संस्थान त्रण प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे- १ श्रेणिआयत, प्रतरायत अने घनायत. तेमां जे श्रेणि आयत छे ते बे प्रकारनुं छे, ते आ ! प्रदेशवाकुं अने १९ * ओजप्रदेशिक घन त्र्यत्र जघन्य पांत्रीश प्रदेशोनुं थाय छे. तेमां प्रथम शोना प्रतर उपर बीजो दश प्रदेशोनो प्रतर, तेना उपर त्रीजो छ प्रवेशोनो प्रतर, शोनो प्रतर अने तेना उपर एक परमाणु मूकवो. ए प्रमाणे पांत्रीश प्रदेशो थाय छे. २०मा नवप्रदेशिक प्रहरी उपर तेवा मौजा के भार का एटले सत्तानी प्रदेश आ प्रमाणे प्रथम पंदर प्रदेतेना उपर चोथो त्रण प्रदे ॥ चतुःप्रदेशिक प्रतरनी उपर बीजुं चतुष्प्रदेशिक प्रतर मुकवाथी आठ प्रदेशनुं युग्मप्रदेशिक घन चतुरस्र थाय छे. २१ $ प्रदेशनी श्रेणिरूप श्रेण्यायत कहेवाय छे. तेमां जघन्य ओजप्रदेशिक श्रेण्यायत त्रणप्रदेशात्मक होय छे. ००० युग्मप्रदेशिक श्रेण्यायत वे प्रदेशनुं होय छे: प्रदेशिक पन र भाग . 611 वे -- इत्यादि विष्कम्भ श्रेणिरूप प्रतरायत कद्देवाय छे. जाडाइ भने विष्कम्भ सहित अनेक श्रेणिओने घनायत कछे छे. ओजप्रदेशिक श्रेण्यायत जघन्य त्रिप्रदेशिक होय छेः- ००० अने युग्म प्रदेशिक श्रेण्यायत द्विप्रदेशिक छे: केटला आकाश प्रदेशमा अवगाढ होय ? केटला आकाश प्रदेशमा अवगाढ होय १ : Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ३. पएसिए य । तत्थ णं जे ओयपएसिए से जहन्नेणं तिपएसिए तिपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए-तं चेव । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं दुपएसिए दुपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव । तत्थ णं जे से पयरायते से दुविहे पन्नत्ते तंजहाओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ गंजे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पन्नरसपएसिए पन्नरसपएसोगाढे, उकोसेणं अणंत. तहेव । तत्थ पंजे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव । तत्थ णं जे से घणायते से दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पणयालीसपएसिए पणयालीसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव । तत्य जे जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बारसपएसिए वारसपएसोगाढे, उकोसेणं अणंत तहेव । २२. [प्र०] परिमंडले णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-घणपरिमंडले य पयरपरिमंडले य । तत्थ गंजे से पयरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसतिपदेसिए वीसइपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपदेसिए तहेव । तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहन्नेणं चत्तालीसतिपदेसिए चत्तालीसपएसोगाढे पन्नत्ते, उनोसे णं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पन्नत्ते । २३. [प्र०] परिमंडले णं भंते ! संठाणे दवट्ठयाए किं कडजुम्मे, तेओए, दावरजुम्मे, कलियोए ? [उ०] गोयमा! नो कडजुम्मे, णो तेयोए, णो दावरजुम्मे, कलियोए । वट्टे णं मंते ! संठाणे दखट्टयाए०१ [उ०] एवं चेव, एवं जाव-आयते । प्रमाणे-ओजप्रदेशिक अने युग्मप्रदेशिक. तेमां जे ओजप्रदेशिक श्रेणि आयत छे ते जघन्य त्रण प्रदेशवाळु अने त्रण आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळू अने असंख्य आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे. जे युग्मप्रदेशिक श्रेणि आयत छे ते जघन्य बे प्रदेशवाळु अने बे आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे, तथा उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळु अने असंख्य आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे. तेमां जे प्रतरायत छे ते बे प्रकारचें कडं छे, ते आ प्रमाणे-ओजप्रदेशिक अने युग्मप्रदेशिक. जे *ओजप्रदेशिक प्रतरायत छे ते जघन्य पंदर प्रदेशवाळु अने पंदर आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळु अने असंख्य आकाश प्रदेशमां अवगाढ छे. तेमां जे युग्मप्रदेशिक प्रतरायत ते जघन्य छ प्रदेशवाळू अने छ आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळं अने असंख्यात आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे. तेमां जे घनायत छे ते बे प्रकारनुं कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-ओजप्रदेशिक अने युग्मप्रदेशिक. तेमां जे ओजप्रदेशिक घनायत छे ते जघन्य पिस्ताळीश प्रदेशवाळू अने पिस्ताळीश आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाडं अने असंख्यात आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे. तेमां जे युग्मप्रदेशिक घनायत छे ते जघन्य बार प्रदेशवाळु अने बार आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, तथा उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळु अने असंख्य आकाशप्रदेशमा अवगाढ छे. परिमंडल सं० फेटला प्रदेशवासन केटला आकाश प्रदेशमा अवगाढ होय। २२. [प्र०] हे भगवान् । परिमंडल संस्थान केटला प्रदेशवाळु, अने केटला आकाशप्रदेशमां अवगाढ होय! [उ०] हे गौतम परिमंडल संस्थान बे प्रकारचें कयुं छे, ते आ प्रमाणे-धन परिमंडल अने प्रतर परिमंडल. तेमा जे प्रतर परिमंडल छे ते जघन्य वीश प्रदेपरिमंडल संस्थान के प्रकारनु का छ, त आजमाया प्रदेशमा अवगाढ छे. तेमां जे शवाळु अने वीश आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, अने उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळु अने असंख्यात आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे. तेमां जे घन परिमंडल छे ते जघन्य चाळीस प्रदेशवाळु अने चाळीस आकाश प्रदेशमा अवगाढ छे, तथा उत्कृष्ट अनंत प्रदेशवाळु अने असंख्य प्रदेशमा अवगाढ छे. परिमंडलादि संस्थाननी कृतयुग्मादि रूपता. २३. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थान द्रव्यार्थरूपे शुं कृतयुग्म छे, त्र्योज छे, द्वापरयुग्म छे के कल्योज छे! [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म नथी, त्र्योज नथी, द्वापरयुग्म नथी, पण कल्योजरूप छे. [प्र०] हे भगवन् ! वृत्तसंस्थान द्रव्यार्थपणे शुं कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] उत्तर पूर्व प्रमाणे जाणवो. ए प्रमाणे यावत्-आयत संस्थान सुधी समजवु. २१ * ओजप्रदेशिक प्रतरायत जघन्य पंदर प्रदेश- होय छ:- , अने युग्मप्रदेशिक प्रतरायत छ प्रदेश- होय छ:- .एम पंदर प्रदेशना प्रतरायत उपर बीजा बे तेवा प्रतरायतो मूकवाथी जघन्य पीस्तालीश प्रदेश- ओजप्रदेशिक घनायत थाय छे, अने छ प्रदेशना युग्म प्रदेशिक प्रतरायत उपर वीजें तेज प्रतरायत मूकवाथी बार प्रदेश- युग्मप्रदेशिक घनायत थाय छे. २२ ॥ परिमंडल संस्थान मात्र युग्मप्रदेशिक छे, तेमा प्रतर परिमंडल जघन्य वीश प्रदेशवाळू छे, तेना बीजं प्रतर परिमंडल मूकवाथी अघन्य चाळीश प्रदेशचें घन परिमंडल थाय छे. २३१ परिमंडल संस्थान द्रव्यरूपे एक छ, भने एक वस्तुनो चार चारथी अपहार धतो नथी, तेथी एकज बाकी रहे छे माटे ते कल्योजरूप छे. ए प्रमाणे वृत्तादि संस्थान माटे जाणवू. परन्तु सामान्य रीते बधा परिमंडल संस्थाननो विचार करीए त्यारे तेनो चार चारथी अपहार करता कोइ वखते काइ पण पाकी न रहे, कदाचित् त्रण, कदाचित् बे अने कदाचित् एक पण बाकी रहे, माटे कदाचित् कृतयुग्मरूप होय अने यावत्-कदाचित् कल्योजरूप पण होय. ज्यारे विशेष दृथ्थिी एक एक संस्थाननो विचार करीए त्यारे चारथी अपहार न यतो होवाथी एकज बाकी रहे तेथी कल्योजरूपज होय. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ - उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०९ २४. [प्र० ] परिमंडला णं भंते ! संठाणा दधट्टयाए कि कडजुम्मा, तेयोयो पुच्छा । [30] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, सिय तेभोगा, सिय दावरजुम्मा, सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं नो कउजुम्मा, नो तेओगा, नो दावरजुम्मा, कलिमोगा, एवं जाव - आयता । २५. [प्र० ] परिमंडले णं भंते! संठाणे परसट्टयाए कि कंडजुम्मे - पुच्छा । [३०] गोयमा ! सिय कडजुम्मे, लिय तेयोगे, सिय दावरजुम्मे, सिय कलियोप । एवं जाव - आयते । २६. [प्र०] परिमंडला णं भंते ! संठाणा परसट्टयाए कि कड़जुम्मा - पुच्छा। [30] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव- सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, तओगा वि, दावरजुम्मा वि, कलियोगा वि । एवं जाब आयता ।. २७. [प्र० ] परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मपएसोगाढे, जाव- कलियोगपएसोगाढे ? [उं०] गोयमा ! कउजुम्मपरसोगाढे, णो तेयोगपएसोगाढे, नो दावरजुम्मपएसोगाढे, नो कलियोगपएसो गाढे । २८. [प्र० ] षट्टे णं भंते! संठाणे किं कडजुम्मे-पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे, सिय तेयोगपरसोगाढे, नो दावरजुम्मपरसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे । २९. [प्र० ] तसे णं भंते! संठाणे० - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! सिय कडजुम्मपरसोगाढे, सिय तेयोगपरसोगाढे, लिय दावरजुम्मपदेसोगाढे, नो कलिओगपएसो गाढे । ३०. [प्र० ] चउरंसे णं भंते । संठाणे ० १ [अ०] जहा वट्टे तहा चउरंसे वि । ३१. [प्र० ] आयए णं भंते !०- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! सिय कडजुम्मपरसोगाढे, जाव - सिय कर्लियोगपरसोगा । २४. [प्र०] हे भगवन्! परिमंडल संस्थानो द्रव्यार्थपणे शुं कृतयुग्म छे, त्र्योज छे, द्वापरयुग्म छे के कलियोग छे ? [उ० ] परिमंडलादिसंस्थाहे गौतम! ओघादेश - सामान्यतः सर्वसमुदितरूपे कदाच कृतयुग्म, कदाच त्र्योज, कदाच द्वापरयुग्म, अने कदाच कल्योजरूप होय छे. तथा विधानादेश - प्रत्येकनी अपेक्षाए कृतयुग्म रूप नथी, त्र्योज नथी, द्वापरयुग्म नथी, पण कल्योजरूप छे. ए प्रमाणे यावत् - आयत ननी कृतयुग्मादि रूपता. संस्थान सुधी जाण. २५. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थान प्रदेशार्थपणे शुं कृतयुग्म छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कदाच कृतयुग्म होय, परिमंडलादिसंस्थाकंदाच त्र्योज, कदाच द्वापरयुग्म अने कदाच कल्योजरूप होय छे. ए प्रमाणे यावत्-आयत संस्थान सुधी जाणवुं. नोनी प्रदेशरूपे कृ तयुग्मादिरूपता. २६. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थानो प्रदेशार्थपणे शुं कृतयुग्म छे - इत्यादि प्रश्न. [30] हे गौतम! ओघादेश - सामान्यरूपे कदाच कृतयुग्म होय, यावत्-कदाच कल्योजरूप पण होय. विधानादेश - एक एकनी अपेक्षाए कृतयुग्म होय, त्र्योज पण होय, द्वापरयुग्म पण होय अने कल्योजरूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-आयत संस्थानो सुखी जाणवुं. २७. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थान शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे के यावत्- कल्योजप्रदेशावगाढ छे ! [उ०] हे गौतम ! कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे, पण त्र्योज प्रदेशावगाढ नथी, द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ नथी, तेम कल्योजप्रदेशावगाढ पण नथी. २८. [प्र० ] हे भगवन् ! वृत्त संस्थान शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे- इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गौतम 1 ते कदाच कृतयुग्म प्रदेशावगाढ होय, कदाच त्र्योजप्रदेशावगाढ होय, कदाच कल्योजप्रदेशावगाढ होय, पण द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ न होय. २९. [प्र०] हे भगवन् ! त्र्यस्त्र संस्थान शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ होय - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच कृतयुग्मप्रदेशावगाढ होय, कदाच योजप्रदेशावगाढ होय, कदाच द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ होय, पण कल्योजप्रदेशावगाढ न होय. ३०. [प्र० ] हे भगवन् ! चतुरस्र-चोरस संस्थान शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] वृत्तसंस्थाननी पेठे चतुरस्र संस्थान जाणवु. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! आयतसंस्थान संबन्धे प्रश्न. [ उ०] हे गौतम ! ते कदाच कृतयुग्मप्रदेशावगाढ होय अने यावत्कदाच कल्योज़प्रदेशावगाढ पण होय. १-या दावरजुम्मा कलियोगा पु-ग-ध । २७ भ० सू० परिमंडलादिसंस्थानो प्रदेशरूपे शुं कृत युग्मादिरूपे के परिमंडलसंस्थान फेटला प्रवेशा वगाढ होय. वृत्तसंस्थान. व्यवसंस्थान. चतुरखसंस्थान. जायतसंखान. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमंडलसंस्थानो. वृत्तसंस्थानो. व्यवसंस्थानो. परिमंडलसंस्थाननी स्थिति. परिमंडल संस्थानोनी स्थिति. परिमंडलादि संस्थानना वर्णादि पर्यायो. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक २५. - उद्देशक ३. ३२. [प्र० ] परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मपपसोगाढा, तेयोगपएसोगाढा - पुच्छा । [३०] गोयमा ! ओघादेसेण वि विद्वाणादेसेण वि कडजुम्मपरसोगाढा, णो तेयोगपरसोगाढा, नो दावरजुम्मपरसोगाढा, नो कलियोगपएसोगाढा । २१० ३३. [०] बट्टा णं भंते! संठाणा किं कडजुम्मपएसोगाढा - पुच्छा । [ उ० ] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा, नो तेयोगपएसोगाढा, नो दावरजुम्मपरसोगाढा, नो कलियोगपएसोगाढा । विहाणादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा वि, 'तेयोगपरसोगाढा वि, नो दावरजुम्मपरसोगाढा, कलियोगपएसोगाढा वि । ३४. [प्र० ] तंसा णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्म० - पुच्छा । [अ०] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा, नो तेयोगपरसोगाढा, नो दावरजुम्मपरसोगाढा, नो कलियोगपरसोगाढा । विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि, तेयोगपएसोगाढा वि, नो दावरजुम्मपरसोगाढा, कैलियोगपएसोगाढा । चउरंसा जहा वट्टा । I ३५. [प्र० ] आयया णं भंते! संठाणा - पुच्छा । [ड०] गोयमा ! ओधादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा, नो वेयोगपरसोगाढा, नो दावरजुम्मपरसोगाढा, नो कलिओगपएसोगाढा । विहाणादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा वि, जाव-कलिओगपएसोगाढा वि । ३४. [प्र० ] हे भगवन् यत्र संस्थानो शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सामान्य विवक्षाए कृतयुग्म प्रदेशावगाढ छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज प्रदेशावगाढ नथी. विशेषनी अपेक्षाए कृतयुग्मप्रदेशावगाढ पण छे, त्र्योजप्रदेशावगाढ पण चतुरस्रसंस्थानो. छे, पण द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ नथी, कल्योज प्रदेशावगाढ छे. चतुरस्र - चोरससंस्थानो वृत्त संस्थाननी पेठे जाणवां. आयतसंस्थानो. ३६. [प्र० ] परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मसमयठितीए, तेयोगसमयठितीए, दावरजुम्मसमयद्वितीए, कलियोगसमयठिती ? [30] गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयठितीए, जाव- सिय कलिओगसमयठितीप एवं जाव - आयते । ३७. [प्र० ] परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मसमयठितीया - पुच्छा । [अ०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयद्वितीया, जाव - सिय कलियोगसमयद्वितीया । विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयठितीया वि, जाव- कलियोगसमयतीया वि । एवं जाव- आयता । ३८. [प्र० ] परिमंडले णं भंते ! संठाणे कालवन्नपज्जवेहिं किं कडजुम्मे, जाव- कलियोगे ? [३०] गोयमा ! सिय कडजुम्मे एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ठितीए, एवं नीलवनपज्जवेहिं, एवं पंचहि वन्नेहिं, दोहिं गंधेहिं, पंचहि रसेहिं अट्ठहिं फासेहिं, जाव- लुक्खफासपज्जवेहिं । ३२. [प्र० ] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थानो शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ होय, ज्योजप्रदेशावगाढ होय - इत्यादि प्रश्न. [उ०] दे गौतम ! ते सामान्यतः बधां मळीने तथा विधानादेश-एक एकनी अपेक्षाए कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे, पण त्रयोजप्रदेशावगाढ नथी, द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ नथी, तेम कल्योजप्रदेशावगाढ पण नथी. ३३. [प्र० ] हे भगवन् ! वृत्त संस्थानो शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते सामान्यतः बधां मळीने कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे, पण त्र्योजप्रदेशावगाढ नथी, द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ नथी, तेम कल्योजप्रदेशावगाढ पण नथी. विधानादेश वडे कृतयुग्मप्रदेशावगाढ पण छे, त्र्योजप्रदेशावगाढ पण छे, द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ नथी, पण कल्यो प्रदेशावगाढ छे. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! आयत संस्थानो शुं कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम । ते ओघादेशवडे कृतयुग्म प्रदेशावगाढ छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योंजप्रदेशावगाढ नथी. विधानादेशवडे कृतयुग्मप्रदेशावगाढ पण छे अने यावत्- कल्योज - प्रदेशावगाढ पण छे. ३६. [ प्र० ] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थान शुं कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळु छे, त्र्योज समयनी स्थितिवाळु छे, द्वापर समयनी स्थितिवाळु छे के कल्योजसमयनी स्थितिवालुं छे ? [उ०] हे गौतम ! कदाच कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळु छे, अने यावत् कदाच कल्योजसमयनी स्थितिवाळु पण छे. ए प्रमाणे यावत् - आयत संस्थान सुधी जाणवुं. ३७. [प्र० ] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थानो शुं कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळां छे- इत्यादि प्रश्न [ उ०] हे गौतम! ओघादेशवडे कदाच कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळां छे, यावत्-कदाच कल्योजसमयनी स्थितिवाळां पण छे. विधानादेशवडे कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळां पण छे, यावत्- कल्योज समयनी स्थितिवाळां पण छे. ए प्रमाणे यावत् - आयत संस्थानो सुधी समजवुं. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! परिमंडल संस्थानना काळावर्णना पर्यायो शुं कृतयुग्म छे के यावत्- कल्यो जरूप छे ? [ उ०] हे गौतम! कदाच कृतयुग्मरूप होय - इत्यादि पूर्वोक्त पाठवडे जेम स्थिति संबन्धे कह्युं छे तेम कहे. एम लीला वगेरे पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, अने आठ स्पर्श संबन्धे यावत् - रुक्ष स्पर्शपर्यवो सुधी कहेवुं. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. . २११ ३९. [प्र०] सेढीओ णं भंते ! दधट्टयाए कि संखेजाओ, असंखेजाओ, अणंताओ? [उ०] गोयमा ! नो संखेजाओ, नो मसंखेज्जाओ, अणंताओ। ___४०. [प्र०] पाईणपडीणायताओ णं भंते ! सेढीओ दधट्टयाए कि संखेजाओ० ? [उ०] एवं चेव । एवं दाहिणुत्तरायताओ वि; एवं उदुमहायताओ वि । ४१. [प्र०] लोगागाससेढीओ णं भंते ! दवट्टयाए कि संखेजाओ, असंखेजाओ, अणंताओ १ [उ०] गोयमा! नो संखेजाओ, असंखेजाओ, नो अणंताओ। ४२. [प्र०] पाईणपडीणायताओ गं भंते ! लोगागाससेढीओ दधट्टयाए कि संखेजाओ० १ [उ.] एवं चेव, एवं दाहिणुत्तराययाओ वि; एवं उढमहायताओ वि। ___४३. [प्र०] अलोयागाससेढीओ णं भंते ! दधट्टयाए कि संखेजाओ, असंखेजाओ, अणंताओ ? [उ०] गोयमा ! नो संखेजाओ, नो असंखेजाओ, अणंताओ। एवं पाईणपडीणाययाओ वि, एवं दाहिणुत्तराययाओ वि, एवं उड्डमहायताओ वि। ४४. [प्र०] सेढीओ णं भंते ! पएसट्ठयाए कि संखेजाओ० १ [उ०] जहा दधट्ठयाए तहा परसट्ठयाए वि, जाव-उड्डमहाययाओ वि, सधाओ अणंताओ। ४५. [प्र०] लोयागाससेढीओ भंते ! पएसट्टयाए कि संखेजाओ-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय संखेजाओ, सिय असंखेजाओ, नो अणंताओ । एवं पाईणपडीणायताओ वि, दाहिणुत्तरायताओ वि एवं चेव, उड्डमहायताओ विनो संखेजाओ, असंखेजाओ, नो अणंताओ। ३९. [प्र०] हे भगवन् । (आकाशप्रदेशनी) श्रेणिओ द्रव्यरूपे शुं संख्याती छे, असंख्याती छे, के अनंत छे ! [उ० हे गौतम। द्रव्यरूपे आकाश ते संख्याती नथी, असंख्याती नथी, पण अनंत छे. प्रदेशनी श्रेणिोनी ४०. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्व अने पश्चिम लांबी श्रेणिओ द्रव्यरूपे शुं संख्याती छे, असंख्याती छे के अनंत छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे (अनंत ) जाणवी. एज प्रमाणे दक्षिण अने उत्तर लांबी तथा ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओ संबंधे पण जाणवू. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाशनी श्रेणिओ द्रव्यरूपे शु संख्याती छे, असंख्याती के अनंत छे? उ०] हे गौतम | ते लोकाकाशनी मेणिओ. संख्याती नथी, तेम अनंत नथी, पण असंख्याती छे. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्व अने पश्चिम लांबी लोकाकाशनी श्रेणिओ द्रव्यरूपे शुं संख्याती छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पूर्व प्रमाणे (असंख्याती) जाणवी. दक्षिण अने उत्तर लांबी तथा ऊर्ध्व अने अधो लांबी लोकाकाशनी श्रेणिओ संबंधे पण ए प्रमाणे जाणवू. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! अलोकाकाशनी श्रेणिओ द्रव्यरूपे शुं संख्याती छे, असंख्याती छे के अनंत छे ! [उ.] हे गौतम | अलोकाकाशनी मणिमो. ते संख्याती नथी, असंख्याती नथी, पण अनंत छ. ए प्रमाणे पूर्व अने पश्चिम लांबी, दक्षिण अने उत्तरमा लांबी तथा उंचे अने नीचे लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ संबन्धे पण जाणवू. १४. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशनी श्रेणिओ प्रदेशरूपे शुं संख्याती छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेम द्रव्यरूपे कयुं छे तेम प्रदेशरूपे पण कहेवू. ए प्रमाणे यावत्-ऊर्ध्व अने अधो लांबी बधी श्रेणिओ अनंत जाणवी. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाशनी श्रेणिओ प्रदेशरूपे शुं संख्याती छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | कोई *संख्यात प्रदेशरूप छे, कोई असंख्यात प्रदेशरूप छे, पण अनंतप्रदेश रूप नथी. ए प्रमाणे पूर्व अने पश्चिम, दक्षिण अने उत्तर लांबी श्रेणिओ प्रदेशरूपे संख्या. जाणवी. तथा ऊर्ध्व अने अधो लांबी लोकाकाशनी श्रेणिओ संख्यात प्रदेशरूप नथी, पण असंख्यात प्रदेशात्मक छे. [3] सनातन का तमात आकाशमणिनी ४५ * लोकाकाशनी पूर्व-पश्चिम अने उत्तर-दक्षिण श्रेणिओ संख्याता प्रदेशरूपे शी रीते होय? आ संवन्धे टीकामां नीचे प्रमाणे चूर्णिकार अने प्राचीन टीकाकारना उल्लेखो टांकी समाधान करे छे-अहिं चूर्णिकार जणावे छे के वृत्ताकार लोकना दन्तक जे अलोकमा गयेला छे तेनी श्रेणिओ संख्यातप्रदेशात्मक भने बाकीनी श्रेणिओ असंख्यात प्रदेशात्मक होय छे. प्राचीन टीकाकार कहेछे के लोकाकाश वृत्ताकार होवाथी पर्यन्तवर्ती श्रेणिओ संख्यात प्रदेशनी होय छे. लोकाकाशनी ऊर्ध्व लोकथी आरंभी अधोलोक पर्यन्त ऊर्ध्व-अधो लांबी श्रेणि असंख्यात प्रदेशनी छे, पण संख्यात के अनन्त प्रदेशनी नथी, अधोलोकना खुणाथी के ब्रह्मदेव लोकना तीरछा प्रान्त भागथी जे श्रेणिओ नीकळे छे ते पण आ सूत्रना कथनथी संख्यात प्रदेशनी नथी होती, पण असंख्यात प्रदेशनीज होय छे. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ३. . ४६. [प्र०] अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय संखेजाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ। ४७: [प्र०] पाईणपडीणाययाओ गं भंते ! अलोया०-पुच्छा। [३०] गोयमा ! नो संखेजाओ, नो असंखेजाओ, अणंताओ । एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। ४८. [प्र०] उडमहायताओ-पुच्छा । [२०] गोयमा ! सिय संखेजाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ। ४९. [प्र०] सेढीओ भंते ! किं साइयाओ सपजवसियाओ १, साईयाओ अपजवसियाओ २, अणादीयाओ सपजवसियाओ ३, अणादीयाओ अपजवसियाओ ४१ [उ.] गोयमा! नो सादीयाओ सपजवसियाओ, नो सादीयाओ अपजवसियाओ, णो अणादीयाओ सपजवसियाओ, अणादीयाओ अपजवसियाओ । एवं जाव-उड्डमहायताओ। ५०. [प्र०] लोयागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ सपजवसियाओ-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सादीयाओ सपजवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ, नो अणादीयाओ सपन्जवसियाओ, नो अणादीयाओ अपजवसियाओ । एवं जाव-उडमहायताओ। ५१. [प्र०] अलोयागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ०-पुच्छा। [उ.] गोयमा ! सिय साइयाओ सपजवसियाओ १, सिय साईयाओ अपजवसियाओ २, सिय अणादीयाओ सपजवसियाओ ३, सिय अणाइयाओ अपजवसियाओ ४। पाईणपडीणाययाओ दाहिणुत्तरायताओ य एवं चेव । नवरं नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय साईयाओ अपजवसियाओ, सेसं तं चेव । उहुमहायताओ जहा ओहियाओ तहेव चउभंगो। मोकनी मेणि. ४६. [प्र०] हे भगवन् ! अलोकाकाशनी श्रेणिओ शुं संख्यातप्रदेशरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कोईक *संख्यात प्रदेशरूप होय, कोई असंख्यात प्रदेशरूप होय अने कोई अनंतप्रदेशात्मक पण होय. ४७. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्व अने पश्चिम लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ शुं संख्यात प्रदेशनी होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! संख्यात प्रदेशनी नथी, पण अनंत प्रदेशनी होय छे. ए प्रमाणे दक्षिण अने उत्तर लांबी श्रेणिओ संबंधे पण जाणवु. ४८. [प्र०] हे भगवन् ! उंचे अने नीचे लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कदाच ते संख्यात प्रदेशनी होय, कदाच असंख्यात प्रदेशनी होय, अने कदाच अनंत प्रदेशनी होय. ४९. [प्र०] हे भगवन् ! श्रेणिओ शु १ सादि-आदिवाळी अने सपर्यवसित-सान्त छे, २ सादि अने अन्तरहित छे, ३ अनादि त छे के ४ अनादि अने अनन्त (अन्तरहित) छे ? [उ०] हे गौतम ! १ सादि अने सान्त नथी, २ सादि अने अनंत नथी, ३ अनादि अने सान्त नथी, पण ४ अनादि अने अनन्त छे. ए प्रमाणे यावत्-ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओ संबंधे समजवू. नोकाकासणिको ५०. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाशनी श्रेणिओ शुं सादि अने सान्त छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम | ते सादि अने सान्त भने सादि सप- छे, पण सादि अने अनन्त नथी, अनादि अने सान्त नथी, तेम अनादि अने अनन्त पण नथी. ए प्रमाणे यावत्-ऊर्ध्व अने अधो यवसित भंग. लांबी श्रेणिओ संबंधे पण जाणवू. ५१. प्र०] हे भगवन् ! अलोकाकाशनी श्रेणिओ शुं सादि अने सान्त छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! कोइक सादि अने णिओ संबंधे सादि सान्त होय, कोइक सादि अने अनन्त होय, कोइक अनादि अने सान्त होय, तथा कोइक अनादि अने अनन्त होय. ए प्रमाणे पूर्वसपर्यवसितादि भांगा. पश्चिम लांबी अने दक्षिण-उत्तर लांबी श्रेणिओ संबंधे जाणवू. परन्तु ते सादि अने सांत नथी, पण कोइक सादि अने अनन्त छे-इत्यादि बाकी बधुं पूर्वोक्त कहेवू. तथा सामान्य श्रेणिओनी पेठे ऊर्ध्व-अधो लांबी श्रेणिओ संबंधे पण पूर्व प्रमाणे चार भांगा करवा. ४६ * अलोकाकाशनी संख्यात अने असंख्यात प्रदेशनी श्रेणिओ कही छे ते लोकमध्यवर्ती क्षुल्लक प्रतरनी नजीकमां आवेली ऊर्ध्व-अधो लोधी अधो लोकनी श्रेणिओने आश्रयी समजवू. तेमां जे प्रारंभमा आवेली श्रेणिओ छे ते संख्यात प्रदेशनी छे, अने त्यार पछी आवेली श्रेणिओ असंख्यात प्रदेशनी छे. तिरछी लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ तो अवश्य अनंत प्रदेशरूप होय छे. ५१ + मध्यलोकवर्ती क्षुल्लक प्रतरनी नजीक आवेली ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओने आश्रयी प्रथम सादि सान्त भोगो जाणवो. लोकान्तथी आरंभी चोतरफ जती श्रेणिओने आश्रयी बीजो सादि अनन्त भंग जाणवो. लोकान्तनी पासे बधी श्रेणिओनो अन्त थतो होवाथी तेने आश्रयी त्रीजो अनादि सान्त भांगो जाणवो. लोकने छोडीने जे श्रेणिओ आवेली छे ते आश्रयी चोथो अनादि अनन्त भागो थाय छे. __ अलोकने विषे पूर्व-पश्चिम अने उत्तर-दक्षिण श्रेणिओनी आदि छे, पण तेनो अन्त नथी तेथी प्रथम सादि सान्त भांगो घटी शकतो नथी. ते सिवायना बाकीना त्रण भांगाओ संभवे छे.. Jain Education international Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१३ ५२. [प्र०] सेढीओ णं भंते ! दचट्ठयाए कि कडजुम्माओ, तेओयाओ-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! कडजुम्माओ, नो तेओयाओ, नो दावरजुम्माओ, नो कलियोगाओ। एवं जाव-उहमहायताओ । लोगागाससेढीओ एवं चेव । एवं अलोगागाससेढीओ वि। ५३. [प्र०] सेढीओ णं भंते ! पएसट्ठयाए कि कडजुम्माओ०-पुच्छा । [३०] एवं चेव, एवं जाव-उद्दमहायतायो । ५४. [३०] लोयागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय कडजुम्माओ, नो तेओयामओ, सिय दावरजुम्माओ, नो कलिओगाओ । एवं पाईणपडीणायताओ घि, दाहिणुत्तरायतामओ वि। ५५. [प्र०] उद्दमहाययाओ पं०-पुच्छा । [उ०] गोयमा! कडजुम्माओ, नो तेओगाओ, नो दावरजुम्माओ, नो कलियोगाओ। ५६. [प्र०] अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय कडजुम्माओ, जाव-सिय कलिप्रोगाओ । एवं पाईणपडीणायताओ वि एवं दाहिणुत्तरायताओ वि; उडमहायताओ वि एवं चेव । नवरं नो कलिओगायो, सेसं तं चेव। ५७. [प्र०] कति णं भंते ! सेढीओ पनत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! सत्त सेढीओ पनत्ताओ, तंजहा-१ उज्जुयता, २ एगओवंका, ३ दुहओवंका, ४ एगओखहा, ५ दुहओखहा, ६ चकवाला, ७ अखचक्कवाला। ५२. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशनी श्रेणिओ द्रव्यार्थपणे-द्रव्यरूपे शुं कृतयुग्म छे, व्योज छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम! आकाशनी श्रेणिओ द्रव्यरूपे कृतयुग्माते कृतयुग्मरूप छे. पण योज, द्वापरयुग्म के कल्योजरूप नथी. ए प्रमाणे यावत्-ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओ संबन्धे पण जाणवं. ' मा तथा लोकाकाशनी अने अलोकाकाशनी श्रेणिओ पण ए प्रमाणे कृतयुग्मरूप जाणवी. ५३. [प्र०] हे भगवान् ! श्रेणिओ प्रदेशार्थपणे-प्रदेशरूपे शुं कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवी. ए प्रबेशरूपे कृतयु रमादि। प्रमाणे यावत्-ऊर्च अने अधो लांबी श्रेणिओ जाणवी. ५४. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाशनी श्रेणिओ प्रदेशरूपे शुं कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कदाच कृतयुग्म लोकाकाशनी . मेणिमओ. छ, त्र्योज नथी, कदाच द्वापरयुग्म छे, पण कल्योजरूप नथी. ए प्रमाणे पूर्व-पश्चिम अने दक्षिण-उत्तर लांबी श्रेणिओ संबंधे जाणवू. ५५. [प्र०] ऊर्ध्व अने अधो लांबी लोकाकाशनी श्रेणिओ संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म रूप छ, पण त्र्योज, कवं अने भयो बांबी श्रेणिओ. द्वापरयुग्म अने कल्योजरूप नथी. ५६. प्र०] हे भगवन् ! अलोकाकाशनी श्रेणिओ प्रदेशरूपे कृतयुग्म होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कोई कृतयुग्म रूप अलोकाकाशनी बेणियो. होय, यावत्-कोई कल्योज रूप पण होय. एम पूर्व अने पश्चिम लांबी तथा दक्षिण अने उत्तर लांबी श्रेणिओ संबन्धे जाणq. ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओ संबन्धे पण एमज समजवू, परन्तु ते कल्योजरूप नथी. बाकी बधुं पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवू.. ५७. प्रि०ा हे भगवन् ! केटली श्रेणिओ कही छे ! [उ०] हे गौतम ! सात श्रेणिओ कही छे. ते आ प्रमाणे १*ऋग्वायत-सीधी मेणिना सात प्रकार. लांबी श्रेणि, २ एकतः वक्रा-एक तरफ वांकी, ३ उभयतः वक्रा-बे तरफ वांकी, ४ एकतः खा-एक तरफ लोकनाडी सिवायना आकाशवाळी. ५ उभयताखा-बे तरफ लोकनाडी सिवायना आकाशवाळी, ६ चक्रवाळ-मंडलाकार गतिवाळी, तथा ७ अर्धचक्रवाल-अर्धमंडलाकार गतिवाळी. ५७ * श्रेणि-ज्या जीव अने पुद्गलोनी गति थाय ते आकाश प्रदेशनी पंक्ति, तेना सात प्रकार छे. १ जीव अने पुद्गलो जे श्रेणिद्वारा ऊर्ध्व लोकादिथी अधोलोकादिमा सीधा जाय छे ते ऋग्वायत श्रेणि कहेवाय छे. (२) जे श्रेणिद्वारा ऋजु-सीधा जइने वक्रगति करे अर्थात् बीजी श्रेणिमा प्रवेश करे ते एकतः वक्रवेणि कहेवाय छे. (१) जे श्रेणिद्वारा जईने बे वार वक्रगति करे एटले बे वार बीजी श्रेणिमा प्रवेश करे ते उभयतः वक्रश्रेणि कहेवाय छे. आ श्रेणि ऊर्ध्व लोकनी आमेयी दिशाथी अधोलोकनी वायवी दिशामा जे उत्पन्न थाय तेने होय छे. प्रथम समये आग्नेयी दिशामाथी तीरछो नैर्ऋती दिशामा जाय, त्यांथी बीजा समये तीरछो वायवी दिशामा जाय, भने त्यांची त्रीजा समये अधो-नीचे वायवी दिशामा जाय. आ त्रण समयनी गति असनाटीमा अथवा तेनी बहारना भागमां थाय छे. (४) जे श्रेणिद्वारा जीव अने पुद्गल त्रसनाडीना वाम पार्थादि भागथी प्रसनाडीमा प्रवेश करे अने पुनः ते प्रसनादीद्वारा जईने तेना वाम पार्धादि भागमा उत्पन्न थाय ते एकतःखा श्रेणि कहेवाय छे, कारण के तेनी एक दिशामा ख-लोकनादी सिवायनो आकाश-आवेलो छ. आ श्रेणि बे, त्रण अने चार समयनी वक्रगति सहित होवा छतां क्षेत्रनी विशेषताथी जुदी कही छे. (५) सनाडीनी बहार तेना वाम पाादि भागथी प्रवेश करीने ते त्रसनाढीद्वारा जइने तेना ज दक्षिण पार्धादि भागमा उत्पन्न थाय ते उभयतःखा श्रेणि कहेवाय छे. केमके तेने प्रसनाढीनी बद्दारना वाम अने दक्षिण आकाशनी बाजुनो स्पर्श थाय छे. (6) जे श्रेणिद्वारा परमाण्वादि गोळ भमीने उत्पन थाय ते चकवाल, (७) अने अर्ध गोळ भमीने उत्पन्न थाय ते अर्धचक्रवाल. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ३. ५८. [प्र०] परमाणुपोग्गलाणं भंते ! किं अणुसेढी गती पवत्तति, विसेढिं गती पवत्तति ? [उ०] गोयमा ! अणुसेढी गति पवत्तति, नो विसेढी गती पवत्तति । ५९. [प्र०] दुपएसियाणं मंते ! खंधाणं अणुसेढी गती पवत्तति, विसेढी गती पवत्तति ? [उ०] एवं चेव, एवं जावअणंतपएसियाणं खंधाणं। ६०.०नेरइयाणं भंते ! किं अणुसेढी गती पवत्तति, विसेढी गती पवत्तति ? [उ०] एवं चैव, एवं जाव-वेमाणियाणं । ६१. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता, एवं जहा पढमसते पंचमुद्देसगे जाव-'अणुत्तरविमाण' ति। ६२. [प्र०] कइविहे णं भंते ! गणिपिडए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! दुवालसंगे गणिपिडए पन्नत्ते; तंजहा-आयारो, जाव-दिठिवाओ। ६३. [प्र०] से किं तं आया? [उ०] आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आयार-गोयर०-एवं अंगपरूवणा भाणियवा जहा नंदीए, जाव-"सुत्तत्थो खलु पढमो वीओ निज़त्तिमीसओ भणिओ। तइओय निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे"। ६४. [प्र०] एएसि णं भंते ! नेरतियाणं, जाव-देवाणं, सिद्धाण य पंचगतिसमासेणं कयरे कयरे०-पुच्छा । गोयमा । अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तवयाए, अट्ठगइसमासअप्पाबहुगं च । ६५. [प्र०] एएसि णं भंते ! सइंदियाणं, एगिदियाणं, जाव-अणिदियाण य कयरे कयरे० १ [उ०] एयं पि जहा बहुवत्तचयाए तहेव ओहियं पयं भाणियचं, सकाइयअप्पाबहुगं तहेव ओहियं भाणियवं । परमाणुनी गति. ५८. [प्र०] हे भगवन् । परमाणुपुद्गलनी गति *अनुश्रेणि-आकाशप्रदेशनी श्रेणिने अनुसारे-थाय छे के विश्रेणि-श्रेणि विना गति थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! परमाणु पुद्गलनी गति अनुश्रेणि-श्रेणिने अनुसारे थाय छे, पण विश्रेणि-श्रेणि सिवाय थती नथीं. विप्रदेशिक स्कन्ध. ५९. [प्र०] हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्धनी गति श्रेणिने अनुसारे थाय छे के श्रेणि विना थाय छे ! [उ.] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणq. एम यावत्-अनंत प्रदेशिक स्कंध संबंधे पण समजq. नैरयिकोनी गति. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोनी गति श्रेणिने अनुसारे थाय छे के श्रेणि सिवाय थाय छे ? [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ___एम यावत्-वैमानिको सुधी समजवु. नरकावास. .६१. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा केटला लाख नरकावासो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! तेमा त्रीश लाख नरका. वासो कह्या छे-इत्यादि प्रिथम शतकना पांचमां उद्देशका कह्या प्रमाणे यावत्-अनुत्तर विमान सुघी कहे. ६२. [प्र०] हे भगवन् ! गणिपिटक-आगम केटला प्रकराचें कह्यु छे? [उ०] हे गौतम ! बार अंगवालु गणिपिटक कयुं छे. ते आ रीते-१ आचारांग यावत्-१२ दृष्टिवाद. आचारांगादि. ६३. [प्र०] हे भगवन् ! आचारांग ए शुं छे? [उ०] हे गौतम ! आचारांगमां श्रमण निग्रंथोनो आचार, गोचर-भिक्षाविधि इत्यादि चारित्र धर्मनी प्ररूपणा कराय छे. ए प्रमाणे नंदीसूत्रमा कह्या प्रमाणे बधा अंगोनी प्ररूपणा करवी. यावत्-"प्रथम सूत्रार्थ मात्र कहेवो, बीजो नियुक्तिमिश्र अर्थ कहेवो, अने त्रीजु सर्व अर्थर्नु कथन क. आ अनुयोग संबंधे विधि छे. पांच गतिनु अप- ६४. [प्र०] हे भगवन् ! ए नैरयिको, यावत्-देवोः अने सिद्धो-ए पांच गतिना समुदायमा कया जीवो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक बहुत्व. आठ गतिन अप- होय छे ? [उ०] हे गौतम ! "प्रज्ञापना सूत्रना बहुवक्तव्यता पदा कह्या प्रमाणे अल्पबहुत्व जाणवू. तथा आठ गतिना समुदायतुं पण बहुत्व. अल्पबहुत्व जाणवू. सेन्द्रियादि जीवोनुं ६५. [प्र०] हे भगवन् ! सेन्द्रिय, एकेन्द्रिय यावत्-अनिन्द्रिय-इन्द्रियना उपयोग रहित जीवोमां कया जीवो कोनाथी यावत्अश्पबडुत्व. विशेषाधिक छे ! [उ०] ए संबन्धे पण प्रज्ञापनाना बहुवक्तव्यता पदमा कहेल सामान्य पद कहे. सकायिकोर्नु पण तेज प्रमाणे सामान्य अल्पबहुत्व कहे. ५८ * पूर्वादि दिशाना अभिमुख आकाशप्रदेशनी श्रेणि ते अनुश्रेणि, अने विदिशाने आश्रित जे श्रेणि ते विश्रेणि. ६१ भग• खं० १श. १ उ०५पृ० १४१. ६३ १ जुओ नंदीसूत्र प. २१२. ६४ जुओ-प्रज्ञा० पद.३१० ११९. ६५ सर्वथी थोडा पंचेन्द्रिय जीवो छे, तेथी चउरिन्द्रिय विशेषाधिक छे. तेथी तेइन्द्रिय विशेषाधिक छे, तेथी बेइन्द्रिय विशेषाधिक छे, तेथी अनिन्द्रिय अनन्तगुण छे, तेथी एकेन्द्रिय अनन्तगुण छे, अने तेथी सेन्द्रिय विशेषाधिक छे. जुओ प्रज्ञा० पद ३५० १२०. अहिं सकायिक, पृथिवीकायिकादि अने अकायिकर्नु अल्पबहुत्व कहेवार्नु छे. सर्व करता थोडा त्रसकायिको छे, तेथी सकायिक जीवो असंख्यात गुण छे, तेथी पृथिवीकायिक, अफायिक, अने वायुकायिक उत्तरोत्तर विशेषाधिक छे. तेथी अकायिक अनन्तगुण छे. तेथी वनस्पतिकायिक अनन्तगुण छे भने तेथी सकायिक विशेषाधिक छे. जुओ प्रज्ञा० पद ३५० १२२. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६६.०] पएसिणं भंते जीवाणं, पोग्गलाणं, जाव-सवपजवाण य कयरे कयरे जाव-बहुवत्तचयाए । ६७. [प्र०] एएसिणं भंते ! जीवाणं, आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं-१ [10] जहा बहुबत्तखयाए जावमाउयस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया । 'सेवं भंते ! सेवं मंते ति।। . पणवीसइमे सए तईओ उद्देसो समचो। ६६. [प्र०] है भगवन् ! ए जीव अने पुद्गल यावत्-सर्व पर्यायोमा कया कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे-इत्यादि-उ०] यावत् जीव, पुद्गलोना सर्व पर्यायोतुं *बहुवक्तव्यतामां कह्या प्रमाणे अल्पबहुत्व कहे. मरुपबहुत्व. ६७. [प्र०] हे भगवन् ! ए आयुष कर्मना बंधक अने अबंधक इत्यादि जीवोमा कया जीवो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे! आयुषकर्मवन्धत [उ०] बहुवक्तव्यतामा कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत्--आयुष कर्मना अबंधक जीवो विशेषाधिक छे. 'हे भगवन् । ते एमज के, भवन्धक इत्यादि हे भगवन् ! ते एमज छे.' पचवीशमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. चउत्थो उद्देसो। १.म०] कति णं भंते। जुम्मा पनता? [उ०] गोयमा! चत्तारि जुम्मा पन्नता, तं जहा-काजुम्मे, जावकलिओगे। [H०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'चत्तारि जुम्मा, पन्नत्ता-कडजुम्मे जाव-कलिओगे? [उ०] एवं जहा अट्ठारसमसते चउत्थे उद्देसप तहेव जाव-से तेणटेणं गोयमा! एवं वुखह । २. [प्र.] नेरइयाणं भंते ! कति जुम्मा पन्नत्ता ! [उ०] गोयमा! चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा-कङजुम्मे, जावकलिओए । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चइ-'नेरहयाणं चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा-कडजुम्मे ? [७०] भट्ठो तहेष । एवं जाव-वाउकाइयाणं। ३. [प्र०] वणस्सइकाइयाणं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा! वणस्सइकाइया सिय कडजुम्मा, सिय तेयोया, सिप चतुर्थ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् । केटला युग्मो-राशिओ कह्यां छे! [उ०] हे गौतम ! चार युग्मो का छे, ते आ प्रमाणे-कृतयुग्म युग्गना प्रकार. अने यावत्-कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छे के 'चार युग्मो कयां छे-कृतयुग्म, यावत्-कल्योज'! [30] अढारमा शतकना चोथा उद्देशकमा कह्या प्रमाणे अहिं जाणवू, यावत्-'ते कारणथी हे गौतम | ए प्रमाणे कयुं छे.' २. [प्र०] हे भगवन् । नैरयिकोने विषे केटला युग्मो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने विषे चार युग्मो कह्या छे, ते आ रीते- नैरथिकोमा केटला कृतयुग्म, अने यावत्-कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के 'नैरयिकोने विषे चार युग्मो छे, ते आ प्रमाणे-कृतयुग्म'-इत्यादि पूर्वोक्त अर्थ कहेवो, ए प्रमाणे यावत्-वायुकायिक सुधी जाणवू. ३. [प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिकोमा केटला युग्मो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम! वनस्पतिकायिको कदाचित् कृतयुग्म होय, वनस्पतिकायिका कृतयुग्मादिनुं कदाचित् त्र्योज होय, कदाचित् द्वापरयुग्म होय, अने कदाचित् कल्योज होय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'वनस्पतिकायिको यावत्-कल्योजरूप होय ! [उ०] हे गौतम ! उपपातनी अपेक्षाए ए प्रमाणे कर्तुं छे, ते हेतुथी यावत्-पूर्वोक्त रूपे वनस्पति अवतरण. ६६ *जीव, पुल, अद्धासमय, सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेशो भने सर्व पर्यायोना अल्पबहुत्व संबन्धे प्रश्न छ, तेनो उत्तर आ प्रमाणे छे-सर्व करता थोडा जीवो छ, तेथी पुद्गल अनन्तगुण छे, तेथी अद्धासमय अनन्तगुण छे, तेथी सर्व द्रव्यो विशेषाधिक छ, तेथी सर्व प्रदेशो अनन्तगुण छे, तेथी सर्व पर्यायो अनन्त गुण छे. जुओ प्रज्ञा० पद ३ प० १४३-२. ६७ + अहिं आयुष कर्मना बन्धक, अबन्धक, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुतेला, जागृत, समुद्धातने प्राप्त थयेला, समुद्धातने नहि पामेला, साता वेदक, असातावेदक, इन्द्रियना उपयोगवाळा, नोइन्द्रियना उपयोगवाळा, साकार उपयोगवाळा भने अनाकार उपयोगवाळाओगें अल्पयहुत्व कहेलं छे. जुओ प्रज्ञा पद ३ प० १५२. १ जे राशिमाथी चार चार नो अपहार करतां छेवटे चार बाकी रहे ते राशिने कृतयुग्म कहे छे, त्रण बाकी रहे तेने त्र्योज कहे छे, बे बाकी रहे तेने द्वापरयुग्म अने एक बाकी रहे तेने कल्योज कहे छे. जुओ-भग० खं०३ श० १८ उ०४ पृ०५९. ३३ यद्यपि वनस्पतिकायिको अनन्त होवाथी स्वाभाविक रीते कृतयुग्म रूप ज होय छे, तो पण तेमां बीजी गतिथी आवीने एक बे इत्यादि जीवोनो उपपात थतो होवाथी ते जीवो चारे राशिरूप होय छे. जेम उपपातने आश्रयी कल्यं तेम उद्वर्तना-मरणने आश्रयीने पण वनस्पतिकायिको चारे राशिरूप होई शके, परन्तु अहिं तेनी विवक्षा नथी. टीका. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्पना प्रकार जीवास्तिकाय द्रव्यरूपे शुं होय ! पुद्गलास्तिकायम मारि अवतरण. धर्मास्तिकायना प्रदेशो. धर्मास्तिकायादिनु अल्पबहुत्व. धर्मास्तिकाय अव गाढ के के बन बगाड १ लोकाकाशमा अव गाढता. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २५ देशक ४. [अ०] से केणणं भंते । एवं सुबह 'पणस्सइकाइया जाव कलियोगा' १ [४०] गोपमा । दिवाणं जहा नेरहयाणं एवं जब बेमानियाणं सिद्धाणं जहा वणस्सइकाइयाणं । सङ्घदवा पन्नता ? [अ०] गोयमा ! छधिहा सवदधा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए, I २१६ दावरम्मा, सिय कलियोगा उपचार्य पथ से तेणद्वेणं तं चैव पहुच 1 ४. [ प्र० ] कतिविहा णं भंते! अधम्मत्थिकाए, जाव - अद्धासमए । ५. [प्र० ] धम्मत्धिकार णं भंते! दुधडुयाए कि कम्मे, जाव-कलिभोगे । [४०] गोषमा नो कमेनो सेयोप, नो दावरजुम्मे कलिमोट एवं सम्मत्विकार वि एवं आगासत्यिकार वि 1 1 " ६. [प्र० ] जीवत्थिकाप णं भंते ! - पुच्छा [अ०] गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोये, नो दावरजुम्मे, नो कलियोये । ७. [प्र० ] पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! - पुच्छा । [ उ०] गोयमा । सिय कडजुम्मे, जाव- सिय कलियोगे । भद्धासमये शहा जीवत्यिकार | ४. [प्र० ] हे भगवन् ! सबै द्रव्यो केटा प्रकारनां कहां है? [30] हे गौतम | सर्व द्रव्यो छ प्रकारन कहाँ छे, ते आ प्रमाणे१ धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्तिकाय भने यावत्-६ अद्धा समय ( काल ). धर्मास्तिकायादि - ५. [प्र० ] हे भगवन् 1 धर्मास्तिकाय द्रव्यार्यरूपे कृतयुग्म छे के यावद-कल्पोज छे [उ०] हे गौतम से कृतयुग्म नथीव्यम कृतयुग्मादिनं प्रयोजनथी, द्वापरयुग्म नथी, पण *कल्योज छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय संबंधे पण जाणवुं. अवतरण. ६. [प्र० ] हे भगवन् ! जीवास्तिकाय दम्यार्थरूपे झुं कृतयुग्म छे इत्यादि प्रश्न. [30] हे गौतम! जीवास्तिकाय द्रव्यरूपे कृतयुग्मरूप छे, पण प्रयोज, द्वापर के कल्योजरूप नथी. ८. [ प्र० ] धम्मत्थिकारणं भंते ! परसट्टयाए कि कडजुम्मे-पुच्छा । गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे एवं जाय भद्धासमद । 1 ९. [] पसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय - अधम्मत्थिकाय० जाव - अद्धासमयाणं दधट्टयाए० १ [ उ०] पपसि णं अप्पापटुगं जहा बहुवत्तचयाप तहेव निरवसेसं । 1 १०. [प्र० ] धम्मत्थिकाप णं भंते । किं ओगाढे, अणोगाढे १ [उ०] गोयमा ! ओगाढे, नो अणोगाढे। ११. [०] ओगाटे किं संसेजपरसोगाडे, असंखेजपरसोगाटे, अणंतपरसोगाडे ? [४०] गोषमा ! नो संखेन, परसोगाटे, संखेजपरसोगाडे, जो अनंत परसोगाडे । कायिको कहाा छे. नैरपिकोनी पेठे येईदियो विषे समज तथा ए प्रमाणे यावद्वैमानिको सुधी जाणयुं सिद्धो बनस्पतिकाधिकोनी पेठे जाणवा. ७. [प्र० ] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय संबन्धे प्रश्न [ उ०] हे गौतम! ते कदाच कृतयुग्म होय अने यावत्-कदाच कल्योज, रूप पण होय. जीवास्तिकायनी पेठे अद्धासमय पण [ कृतयुग्मरूप ] जाणो. ८. [प्र०] हे भगवन् | धर्मास्तिकाय प्रदेशार्थरूपे शुं कृतयुग्म छे - इत्यादि प्रश्न . [ उ०] हे गौतम | [ तेना अवस्थित अनन्त प्रदेश होवाथी ] ते कृतयुग्म छे, पण त्रयोद, द्वापरयुग्म के कल्योन नथी. ए प्रमाणे यावत् अद्धा समय सुधी जाग. ९. [अ०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत्- अद्धासमयोनुं द्रव्यार्थरूपे अल्पवद्दल केवी रीते छे! [30] ए ववव्यता का प्रमाणे एमोनुं वधुं अल्पबहुत्व कहेई. १०. [प्र० ] हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय शुं अवगाढ- आश्रित छे के अनवगाढ- अनाश्रित छे ? [ उ०] हे गौतम! ते अवगाढ छे, पण अनवगाढ नथी. ११. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते अवगाढ छे तो शुं संख्यात प्रदेशमा अवगाढ- आश्रित छे, असंख्यात प्रदेशमा आश्रित छे के अनंत प्रदेशमा आश्रित छे [उ०] हे गौतम! ते खोकाकाशना संख्यात प्रदेश के अनंत प्रदेशमा आश्रित नयी पण असंख्यात प्रदेशमाँ आश्रित है. ५ * धर्मास्तिकाय एक द्रव्यरूप होवाथी तेनो चारथी अपहार करतां एक ज बाकी रहे छे तेथी ते कल्योज रूप छे. ६+ जीवास्तिकाय अनन्त होवाथी ते कृतयुग्म रूप ज छे. काय अनन्त के तो पण तेना संघात अने मेदवी तेनुं अनन्त अनवस्थित होवाची ते पारे राशिरूप होय छे, ९ $ धर्मास्तिकायादि त्रणे एक एक द्रव्यरूप होवाथी द्रव्यरूपे तुल्य छे अने बीजा द्रव्य करतां थोडा छे, तेथी जीवास्तिकाय अनन्तगुण छे, तेथी पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमय उत्तरोत्तर अनन्तगुण छे. प्रदेशरूपे धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना असंख्यात प्रदेश होवाथी परस्पर तुल्य छे अने for वधा द्रव्यथी थोडा छे, तेथी जीव, पुठ्ठल, श्रद्धासमय अने आकाशास्तिकाय उत्तरोत्तर अनन्तगुण छे. जुओ प्रज्ञा० पद ३ १० १४०-१. . Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. उद्देश ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१७ १२. [अ०] जर असंलेखपरसोगाढे कि कडजुम्मपरसोगाडे - पुच्छा । [ ड०] गोयमा ! कडजुम्मपरसोगाडे, नो ते योग०, जो दायरम०, जो कलियोगपरसोगाडे एवं अधम्मत्विकावे वि एवं आगासत्यिकाचे वि जीवत्यिकाये, पुमा त्विकावे, बद्धासमए एवं चेय १३. [अ०] हम भंते! यणप्यभा पुढवी कि ओगाढा, अणोगाढा १ [४०] जदेव धम्मत्थिका एवं जाब-मईसत्तमा, सोहम्मे एवं चेव; एवं जाव- ईसिप भारा पुढवी । १४. [प्र० ] जीवे णं भंते! दधट्टयाए कि फउजुम्मे-पुच्छा। [३०] गोयमा नो कयजुम्मे, नो तेयोगे, नो दारजुम्मे, कलिओए । एवं नेरइय वि; एवं जाव- सिद्धे । १५. [प्र० ] जीवा णं भंते! दधट्टयाए किं कडजुम्मा-पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलिओगा । विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा । १६. [म०] नेरयाणं भंते! दधट्टयाए- पुच्छा। [४०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाब-लिय कलियोगा । विहाणादेखेणं णो कडजुम्मा, णो तेयोगा, जो दावरम्मा, कलिओोगा। एवं जाब- सिद्धा । I । 1 I १७. [ प्र० ] जीवे णं भंते! पपसट्टयाए किं कडजुम्मे- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! जीवपपसे पहुच्च कडजुम्मे, नो रोयोगे, तो दावरजुम्मे, जो कठियोगे सरीरपपसे पच सिय कडजुम्मे, जाब सिय कंलियोगे एवं जाव-बेमाणिए । १८. [०] सिद्धे भंते! परसट्टयाप किं कउजुम्मे-पुच्छा। [४०] गोयमा ! कडजुम्मे, जो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, नो कलिभोए । १२. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते असंख्याता आकाशप्रदेशमां आश्रित छे तो शुं कृतयुग्म राशिवाळा प्रदेशोमा आश्रित छे - इत्यादि असंख्यातप्रदेशम प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म राशिवाळा प्रदेशमां आश्रित छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज राशिवाळा प्रदेशमा आश्रित नथी. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमय संबंधे पण जाणवुं. 'अवगाडता. १३. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी कोइने आश्रित छे के अनाश्रित छे ! [उ०] गौतम ! धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवुं. प्रभानी ९ प्रमाणे यावत् अधः सम पृथिवी सुची जाण तथा सौधर्म अने यावत्-ईपव्याग्भारा पृथिवी संबंधे पण एमज समज. गावता. १४. [प्र०] हे भगवन् जीव द्रव्यार्थरूपे शुं कृतयुग्म - इत्यादि प्रम. [उ०] हे गौतम! ते कृतयुग्म प्रयोज के द्वापरयुग्म रूप म नथी, पण * कल्योज रूप छे. ए प्रमाणे नैरयिक यावत्-सिद्ध सुधी जाणवुं . ग्मादिनी प्ररूपणा. १५. [प्र० ] हे भगवन् ! जीवो द्रव्यार्थपणे शुं कृतयुग्म छे- इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गौतम! जीवो सामान्यतः -बधा मळीने कृतयुग्म छे, पण योज, द्वापर के कल्पोज रूप नथी. अने विशेष एक एकनी अपेक्षाए कृतयुग्म प्रयोग के द्वापरयुग्म नषी, पण कल्यो जरूप छे. १६. [२०] हे भगवन् । नैरविको संवन्धे द्रव्यार्थरूपे प्रश्न. [४०] हे गौतम नैरथिको सामान्यतः कदाच कृतयुग्म अने यावत्कदाच कल्योज पण होय, अने विशेष-व्यक्तिनी अपेक्षाए कृतयुग्म, त्र्योज के द्वापरयुग्म नथी, पण कल्योज रूप छे. ए प्रमाणे यावत्सिद्धो सुघी जाणवुं. १७. [प्र०] हे भगवन् जीव प्रदेशार्थरूपे झुं कृतयुग्म छे- इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गौतम जीवप्रदेशनी अपेक्षाए जीव कृतयुग्म छे, पण योज, द्वापर के कल्योज नथी, अने शरीरप्रदेशनी अपेक्षाए कदाच कृतयुग्म होय अने यावत्-कदाच कल्पोज पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुची जाण * १४ जीव द्रव्यरूपे एक ज व्यक्ति होवाथी मात्र कल्योज रूप छे, अने जीवो द्रव्यरूपे अनन्ता अवस्थित होवाथी सामान्यरूपे तेओ कृतयुग्म रूपय होय छे. १७ जीवप्रदेशनी अपेक्षाए समस्त जीवोना प्रदेशो अवस्थित अनन्तरूपे होवाथी अने एक एक जीवना प्रदेशो अवस्थित असंख्याता होवाची चार चारनो अपहार करतां छेवटे चार बाकी रहे छे, माटे कृतयुग्म रूपज होय छे. शरीरप्रदेशनी अपेक्षाए सामान्यरूपे सर्व जीवना शरीरप्रदेशो संघात अने मेदथी अनवस्थित अनन्त रूपे होवाथी भिच भिन्न समये तेमां चतुर्विध राशिनो समवतार यई शके छे. विशेषरूपे एक एक जीवशरीरना प्रदेशोमां एक समये पण चतुर्विध राशिनो समवतार थाय छे. कारण के कोइक जीवशरीरना प्रदेशो कृतयुग्म रूप होय छे, तो अन्य जीवशरीरना प्रदेशो वीजी राशिरूप होय छे. २० म० सू० १८. [प्र० ] हे भगवन् ! सिद्ध प्रदेशार्थपणे शुं कृतयुग्म छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कृतयुग्म छे, पण त्र्योज, द्वापरयुग्म सियोमां कृतयुग्मा दि के योगरूप नषी. नो समवतार. जीबोमां कृतयुग्मादि राशियोनुं अवतरण. नैरनिकोमा कृतयु ग्मादि राशिमोनुं अवतरण. युग्मादि राशिमो. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ४. १९. प्रि० जीवा गं भंते। पपसट्टयाए कि कडजुम्मा० पुच्छा। [उ०] गोयमा । जीवपएसे पडच मोघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलिओगा। सरीरपएसे पडुश्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव-कलियोगा वि । पर्व नेरइया वि; एवं जाव-बेमाणिया। प्रसिद्धा गं भंते!-पुच्छा। उ०] गोयमा! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा. नो दावरजम्मा. नो कलिमोगा। २०.० जीवे भंते ! कि कडजुम्मपएसोगाढे-पुच्छा । [उ०] गोयमा सिय कडजुम्मपएसोगाढे, जाध-सिय कलिओगपएसोगाढे । एवं जाव-सिद्धे। २१. जीवाणं भंते ! किं कडजुम्मपएसोगाढा-पुच्छा। [उ०] गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोग० । विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि, जाव-कलियोगपएसोगाढा वि। २२. [प्र०] नेरइयाणं-पुच्छा [उ.] गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मपएसोगाढा, जाव-सिय कलियोगपएसोगाढा । विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि, जाव-कलियोगपएसोगाढा वि । एवं एगिदिय-सिद्धवजा सधे विसिद्धा एगिदिया य जहा जीवा। ____२३. [प्र०] जीवे णं भंते ! किं कडजुम्मसमयट्ठितीए-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! कडजुम्मसमयहितीए, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोगसमयट्टितीए । २४. [प्र०] नेरहए णं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयद्वितीय, जाव-सिय कलियोगसमयट्टितीए । एवं जाव-वेमाणिए; सिद्धे जहा जीवे । ___ २५. [प्र०] जीवा णं भंते !-पुच्छा। [३०] गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मसमयद्वितीया, नो तेओग०, नो दावर०, नो कलिओग०। जीवोमा प्रदेशापेक्षा १९. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो प्रदेशार्थरूपे शुं कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! जीवप्रदेशोनी अपेक्षाए जीवो थी कृतयुग्मादि. सामान्य अने विशेषरूपे कृतयुग्म छे, पण त्र्योज, द्वापरयुग्म के कल्योज नथी. अने शरीरप्रदेशोनी अपेक्षाए सामान्यतः कदाच कृतसिद्धोमा प्रदेशनी सामान्य.अन विशषरूप कृतयुग्म छ, अपेक्षाए कृत युग्म होय अने यावत्-कदाच कल्योज पण होय. विशेषनी अपेक्षाए कृतयुग्म पण होय अने यावत्-कल्योज पण होय. ए प्रमाणे नैरयुग्मादि. यिकोथी आरंभी यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् | सिद्धो (जीवप्रदेशनी अपेक्षाए) शुं कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सामान्य अने विशेषने आश्रयी सिद्धो कृतयुग्म छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज रूप नथी. एकजीवाश्रित आ- . २०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीव आकाशना कृतयुग्म संख्यावाळा प्रदेशोने आश्रयी रहेलो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कदाच काशप्रदेशमा कृतयमादि राशिओ. कृतयुग्म प्रदेशोने आश्रयी रहेलो होय अने यावत्-कदाच कल्योज प्रदेशोने आश्रयी रहेलो होय छे. ए प्रमाणे यावत्-सिद्ध सुधी जाणवू. अनेक जीवो संवन्धे . २१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो आकाशना कृतयुग्म प्रदेशोने आश्रयी रहेला छे-इत्यादि प्रश्न. [उ० हे गौतम | सामान्य रूपे प्रश्न. कृतयुग्म प्रदेशोने आश्रयी रहेला छे, पण व्योज, द्वापर के कल्योज प्रदेशोने आश्रयी रहेला नथी. अने विशेषरूपे कृतयुग्म प्रदेशोने आश्रयी रहेला छे, यावत्-कल्योज प्रदेशोने आश्रयी रहेला छे. चैरयिकादि दंडको २२. प्र०ा हे भगवन् । शुं नैरयिको कृतयुग्म संख्यावाळा आकाश प्रदेशोने आश्रयी रहेला छे- इत्यादि प्रश्न. [उ० हे गौतम | अने सिद्धो. सामान्य रूपे कदाच कृतयुग्म प्रदेशोने आश्रयी रहेला होय अने यावत्-कदाच कल्योज प्रदेशोने आश्रयी रहेला होय. विशेषरूपे कृतयुग्म प्रदेशावगाढ पण होय यावत्-कल्योज प्रदेशावगाढ पण होय. एकेन्द्रिय अने सिद्ध सिवाय बाकीना बधा जीवो माटे एज प्रमाणे जाणवं. सिद्धो अने एकेन्द्रियो सामान्य जीवोनी पेठे जाणवा.. जीवना स्थितिकाळ- २३. [प्र०] हे भगवन् । शुं जीव कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! *कृतयुग्म समयनी स्थितिना समयोमा कृतTो . वाळो छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज समयनी स्थितिवाळो नथी. नैरयिकादि. २४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिक कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कदाच कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळो होय अने कदाच कल्योज समयनी स्थितिवाळो होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. सिद्धने जीवनी पेठे जाणतुं. जीवोनी स्थितिकाळ- २५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा होय छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | तेओ सामान्यादेश मा समयोमा कृत- .. अने विशेषादेशनी अपेक्षाए कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा होय छे, पण योज, द्वापर के कल्योज समयनी स्थितिवाळा होता नथी. युग्मादि राशिओ. २३ * सामान्य जीवनी स्थिति सर्व काळमां शाश्वत होवाथी अने सर्वकाळ नियत अनन्त समयात्मक होवाथी जीव कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळो कहेवाय छे. अने नारकादिनी भिन्न भिन्न स्थिति होवाथी कोईवार ते कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळो होय छे, तो कोई वार यावत्-कल्योज समयनी स्थितिवाळो होय छे. २५ + सामान्यादेश भने विशेषादेशथी जीवोनी स्थिति अनाद्यनन्त काळनी होवाथी तेओ कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा छे. Jain Education international Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१९ २६. [प्र. नेरइयाणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमद्वितीया, जाव-सिय कलियोगसमयटितीया वि। विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयद्वितीया वि, जाव-कलियोगसमयट्टितीया वि । एवं जाव-वेमाणिया। सिद्धा जहा जीवा। २७. [प्र०] जीवे णं भंते ! कालवन्नपजवेहिं किं कडजुम्मे पुच्छा। [उ०] गोयमा! जीवपएसे पडुश्च णो कडजुम्मे, जाव-णो कलियोगे । सरीरपएसे पडुश्च सिय कडजुम्मे, जाव-सिय कलियोगे । एवं जाव-वेमाणिए । सिखो ण चेष पुच्छिजति । २८. [प्र०] जीवा गं भंते ! कालवनपज्जवेहि-पुच्छा। [उ.] गोयमा! जीवपएसे पडुश्च ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि णो कडजुम्मा, जाव-णो कलिओगा । सरीरपएसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव-कलिओगा वि । एवं जाव-वेमाणिया । एवं नीलवनपज्जवेहि दंडओ भाणियो। पगत्तपुहत्तेणं, एवं जाव-लुक्खफासपजवेहिं। ___२९. [प्र०] जीवे गं भंते ! आभिणियोहियणाणपजवेहिं किं कडजुम्मे-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सिय कडजुम्मे, जाव-सिय कलियोगे । एवं एगिदियवजं जाव-वेमाणिए । ३०. [प्र०न जीवा. णं भंते ! आभिणियोहियणाणपजवहि-पुच्छा। [उ०] गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव-कलियोगा वि । एवं एगिदियवजं जाव-वेमाणिया। एवं २६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळा छे–इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ सामान्यादेशनी नैरयिकादि दंडको . अपेक्षाए कदाच *कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा होय, यावत् कदाच कल्योज समयनी स्थितिवाळा पण होय. तथा विशेषादेशनी अपेक्षाए कृतयुग्म समयनी अने यावत्-काल्योज समयनी स्थितिवाळा पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु. सामान्य जीवोनी पेठे सिद्धोने पण समजवु. २७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवना काळावर्णना पर्यायो कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जीवप्रदेशोनी जीवना कालावर्णना अपेक्षाए ते कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापर के कल्योज रूप नथी; पण शरीर प्रदेशोनी अपेक्षाए ते कदाच कृतयुग्म रूप होय, यावत्-कल्योज पर्यापो.. रूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू तथा सिद्ध संबन्धे आ विषय बाबत कांइ न पूछq. २८. [प्र०हे भगवन् ! शुं जीवोना काळा वर्णपर्यायो कृतयुग्मराशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ० हे गौतम ! जीव प्रदेशोने आश्रयी सामान्यादेशथी अने विशेषादेशथी कृतयुग्म रूप नथी, अने यावत्-कल्योज रूप पण नथी. शरीरप्रदेशोनी अपेक्षाए सामान्यादेशथी कदाच कृतयुग्म अने यावत्-कदाच कल्योज रूप पण होय, विशेषादेशथी कृतयुग्म, यावत्-कल्योजराशिरूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. तथा ए प्रमाणे एक वचन अने बहुवचनवडे लीला वर्णना पर्यायोनो पण दंडक कहेवो. एम यावत्-रुक्ष स्पर्श पर्यायो सुधी जाणवू. . २९. [अ०] हे भगवन् शुं जीवना आभिनिबोधिकज्ञानपर्यायो कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कदाच जीवना आभिनिकृतयुग्म रूप होय अने यावत्-कदाच कल्योज रूप पण होय. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवायना जीवोने यावत्-वैमानिक मुधी जाणवा. गोधिक पर्यायो. ___३०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो आभिनिबोधिक ज्ञान पर्यायो वडे कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते "सामान्या- जीवोना आभिनि बोधिकादिशानना देशथी कदाच कृतयुग्म अने कदाच कल्योज रूप पण होय, तथा विशेषादेशथी कृतयुग्म, यावत्-कल्योज रूप पण होय. ए प्रमाणे पर्यायो. एकेन्द्रिय सिवायना जीवोने यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. श्रुतज्ञानना पर्यायो अने अवधिज्ञानना पर्यायो संबन्धे एमज समजवु. पण __ २६ * बधा नारकादिनी स्थितिना समयो मेळवता भने चारथी अपहार करता बधा नैरयिको सामान्यादेशथी कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा, यावत्कल्योज समयनी स्थितिवाळा होय छे. अने विशेषादेशथी एक समये चारे प्रकारना होय छे.-टीका. २७ + अहिं जीवप्रदेशो अमूर्त होवाथी तेने आश्रयी काळादिवर्णना पर्यायो होता नथी, पण शरीरविशिष्ट जीवनुं ग्रहण होवाथी शरीरना वर्णनी अपेक्षाए क्रमशः चारे राशिनो व्यवहार थइ शके छे.. ___ २९ आवरणना क्षयोपशमनी विचित्रताथी आभिनिबोधिक ज्ञाननी विशेषताओ अने तेना सूक्ष्म अविभाज्य अंशोने आमिनिबोधिक ज्ञानना पर्यायो कहे छे. ते अनन्त छे, पण क्षयोपशमनी विचित्रताथी तेनुं अनन्तपणुं चोकस नथी, तेथी ते भिन्न भिन्न समयने आश्रयी चारे राशिरूप होय छे. एकेन्द्रिय जीवने सम्यक्त्व नहि होवाथी आभिनिबोधिक होतुं नथी, माटे एकेन्द्रिय सिवायना जीवोने कयुं छे. ३. बधा जीवोने आश्रयी सर्व आभिनिबोधिक ज्ञानना पर्यायो एकठा करीए तो सामान्यादेशथी भिन्न भिन्न काळनी अपेक्षाए चारे राशिरूप थाय, कारण के क्षयोपशमनी विचित्रताथी तेना पर्यायो अनवस्थितपणे अनन्ता होय छे. विशेषादेशथी एक काळे पण चारे राशिरूप थाय. केवल ज्ञानना पर्यायोगें अनन्तपर्ण अवस्थित होवाथी ते कृतयुग्मराविरूपज होय छे-टीका. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ४. सुयणाणपजवेहि वि । ओहिणाणपज्जवेहि वि एवं चेव । नवरं विकलिंदियाणं नस्थि ओहिनाणं । मणपजवनाणं पि एवं चेष; नघरं जीवाणं मणुस्साण य, सेसाणं नत्थि । ३१. [सं०] जीवे णं भंते ! केवलनाणपजवेहिं किं कडजुम्मे-पुच्छा। [उ०] गोयमा! कडजुम्मे, णो तेयोगे, णो दावरजुम्मे, णो कलियोगे । एवं मणुस्से वि; एवं सिद्धे वि। ३२. जीवा णं भंते ! केवलनाण-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणावेसेण वि कडजुम्मा, नो तेोगा, नो दावरजुम्मा, णो कलियोगा। एवं मणुस्सा वि एवं सिद्धा वि । ३३. [प्र०] जीवे णं भंते ! मइअन्नाणपजवेहिं किं कडजुम्मे० १ [उ०] जहा आभिणियोहियणाणपजवेहिं तहेव दो दंडगा । एवं सुयन्नाणपजवेहि वि; एवं विभंगनाणपजवेहि वि । चक्खुदंसण-अचपखुदंसण-ओहिंदसणपजवेहि वि एवं चेव, नवरं जस्स जं अत्थि तं भाणियवं । केवलदसणपजवेहिं जहा केवलनाणपजवेहि । ३४. [प्र०] कति णं भंते ! सरीरगा पन्नत्ता! [उ०] गोयमा ! पंच सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए, जापकम्मए । एत्थ सरीरगपदं निरवसेसं भाणियधं जहा पनवणाए । ३५. [प्र०] जीवा णं भंते ! कि सेया णिरेया ? [उ०] गोयमा ! जीवा सेया वि, निरेया वि । [प्र०] से केणटेणं मंते ! एवं धुञ्चति-'जीवा सेया वि निरेया वि' ? [उ०] गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संसारसमावनगा य असंसारसमावनगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा। सिद्धा णं दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अणंतरसिद्धा य परंपरसिद्धा य । तत्थ णं जे ते परंपरसिद्धा ते णं निरेया; तत्थ णं जे ते अणंतरसिद्धा ते णं सेया। ३६. [प्र०] ते णं भंते ! कि देसेया सोया? [उ०] गोयमा! णो देसेया, सधेया। तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सेलेसिपडिवनगा य असेलेसिपडिवनगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवनगा ते णं निरेया, विशेष ए के, विकलेंद्रिय जीवोने अवधिज्ञान होतुं नथी. एम मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो संबन्धे पण जाणतुं, पण विशेष ए के, ते सामान्य जीवो अने मनुष्योने होय छे, पण बाकीना दंडकोमा होत नथी. जीवना केवलज्ञान- ३१. [प्र०] हे भगवन् ! जीवना केवलज्ञानना पर्यायो शुं कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्मरूप छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज रूप नथी. ए प्रमाणे मनुष्य तथा सिद्ध संबंधे पण समजq. जीवोना केबल- ३२. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना केवलज्ञानना पर्यायो शुं कृतयुग्म रूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते सामान्य अने शानना पर्यायो. विशेषादेशवडे कृतयुग्म रूप छे, परंतु त्र्योज, द्वापर के कल्योजरूप नथी. ए प्रमाणे मनुष्यो अने सिद्धो संबंधे पण जाणवू. जीवना मतिअशा- ३३. प्रि०ा हे भगवन ! जीव मतिअज्ञानना पर्यायोवडे शं कृतयग्म रूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०ी हे गौतम 1 जेम आभिनिबोधिक नना पर्यायो. ज्ञानना पर्यायो संबन्धे बे दंडको कह्या छे तेमज अहिं पण बे दंडको कहेवा. श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शन भने अवधिदर्शनना पर्यायो संबन्धे पण ए ज प्रमाणे कहे. विशेष ए के, श्रुतअज्ञानादिमांथी जेने जे होय ते तेने कहे. तथा केवलदर्शनना पर्यायो संबन्धे केवलज्ञानना पर्यायोनी पेठे समजq. शरीरना प्रकार. ३४. [प्र०] हे भगवन् ! केटलां शरीरो कहाँ छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच शरीरो कहाँ छे, ते आ प्रमाणे-औदारिक, यावत् कार्मण. अहिं *प्रज्ञापनासूत्रनुं बधु शरीरपद कहे. सकंप अने निष्कम्प. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो सकंप होय छे के निष्कंप होय छे ! [उ०] हे गौतम! जीवो सकंप पण छे अने निष्कंप पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के 'जीवो सकंप पण छे अने निष्कंप पण छे' ! [उ०] हे गौतम ! जीवो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-संसारसमापन-संसारी अने असंसारसमापन्नक-मुक्त, तेमा जे असंसारसमापन्न जीवो छे ते सिद्ध जीवो छे. ते सिद्धो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-अनंतर सिद्ध अने परंपर सिद्ध. तेमा जे जीवो परंपर सिद्ध छे ते निष्कंप छे, अने जे जीवो अनंतर सिद्ध छे ते सिकंप छे. देशथी के सर्वथी ३६. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अनन्तर सिद्धो) शं अमुक अंशे सकंप छे के सर्वाशे सकंप छे! [उ०] हे गौतम! ते अमुक अंशे सकम्प। सकंप नथी, पण सर्वाशे सकंप छे. तेमा जे संसारने प्राप्त थयेला जीवो छे ते बे प्रकारे करा छे, ते आ प्रमाणे-शैलेशीने प्राप्त थयेला ३४ * जुओ प्रज्ञा० पद १२ प० २६८. ३५ + सिद्धत्वनी प्राप्तिना प्रथम समये अनन्तर सिद्ध कहेवाय छे, कारण के त्यारे एक समयनुं पण अन्तर नथी. जेओ सिद्धत्वने प्रथम समये वर्तमान सिद्ध जीवो छ तेओमा कंपन छे, कारण के सिद्धिगमनसमय अने सिद्धत्वप्राप्तिनो समय एक ज होवाथी अने सिद्धिगमनसमये गमन क्रिया थती होवाथी ते वखते तेओ सकंप होय छे. जेने सिद्धत्व प्राप्ति थया पछी समयादिनु अन्तर पढे छे ते परम्पर सिद्ध कहेवाय छे भने तेश्रो निष्कंप होय छे. . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ४ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२१ सत्य णं जे ते असेलेसीपडिवनगा ते णं सेया । [प्र०] ते णं भंते ! कि देसेया सधेया ? [उ०] गोयमा ! देसेया वि, सोया वि. से तेणट्रेणं जाव-निरेया वि।। ३७. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं देसेया सोया ? [उ०] गायमा! देसेया वि, सोया वि । [प्र०] से केणटेणं जाषसोया वि[उ०] गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावनगा य. अविग्गहगतिसमावनगा य । तत्थ गंजे ते विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं सोया, तत्थ णं जे ते अविग्गहगतिसमावनगा ते णं देसया, से तेणट्रेणं जाव-'सोया वि'। एवं जाव-वेमाणिया। ३८. [प्र०] परमाणुपोग्गला गं मंते! कि संखेजा असंखेजा अणता? [उ.] गोयमा! नो संखेजा, नो असंखेज्जा, अणंता । एवं जाव-अणंतपएसिया खंधा। ३९. [प्र०] एगपएसोगाढा णं भंते ! पोग्गला किं संखेजा, असंखेज्जा, अणंता ? [उ०] एवं चेव । एवं जाय-असंखेजपएसोगाढा। ४०. [प्र०] एगसमयठितीया णं भंते ! पोग्गला किं संखेजा० ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-असंखेजसमयद्वितीया । . ४१. [प्र०] एगगुणकालगा णं भंते ! पोग्गला किं संखेजा० ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-अणंतगुणकालगा, एवं अवसेसा वि वण्णगंधरसफासा णेयधा जाव-'अणंतगुणलुक्ख'त्ति। - ४२. [प्र०] एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, दुपएसियाण य खंधाणं दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा, यहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! दुपएसिपहिंतो खंधेहिंतो परमाणुपोग्गला दबटुयाए बहुगा । भने शैलेशीने अप्राप्त. तेमा जे* शैलेशीने प्राप्त जीवो छे ते निष्कंप छे अने जे शैलेशीने प्राप्त थयेला नथी ते सकंप छे. [प्र० हे भगवन् ! जेओ शैलेशीने प्राप्त थयेला नथी ते जीवो शुं अंशत: सकंप छे के सर्वाशे सकंप छे ! [उ०] हे गौतम! ते अंशतः सकंप के अने सर्वाशे पण सकंप छे. ते हेतुथी यावत्-ते निष्कंप पण छे. ३७. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको शुं अंशतः सकंप छे के सर्वाशे सकंप छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ अंशतः सकंप छे अने सर्वाशे पण सकंप छे. [प्र०] शा हेतुथी एम कहो छो के ते यावत्-सर्वाशे पण सकंप छे! [उ०] हे गौतम | नैरयिको बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला अने विग्रह गतिने नहि प्राप्त थयेला. तेमां जे विग्रह गतिने प्राप्त थयेला छे ते सर्वाशे सकंप छे. अने जे विग्रहगतिने प्राप्त थयेला नथी ते अमुक अंशे सकंप छे. ते हेतुथी यावत्-तेओ सर्वाशे पण सकंप छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गलो संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे! [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता नथी, परमाणु. . असंख्याता नथी, पण अनंत छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंधो सुधी जाणवू. ३९. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशना एक प्रदेशमा रहेला पुद्गलो शुं संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे ? [उ०] पूर्वे कह्या एक आकाशप्रदेशर्मा रहेका पुद्गलो. प्रमाणे जाणवु. ए रीते यावत्-असंख्यात प्रदेशमा रहेलां पुद्गलो विषे पण समजवू. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! एक समयनी स्थितिवाळां पुद्गलो शुं संख्याता छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ए एकसमयनी स्थितिप्रमाणे यावत्-असंख्याता समयनी स्थितिबाळां पुद्गलो संबंधे पण जाणवू. वाळा पुद्गलो. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! एकगुण काळां पुद्गलो शुं संख्याता होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे ____एकगुण काळायावत्-अनंतगुण काळा पुद्गलो संबन्धे पण समजवु. एम एज रीते बाकीना वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श संबंधे यावत्-अनंत गुण रुक्ष सुधी समजवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल अने द्विप्रदेशिक स्कंध, एमां द्रव्यार्थरूपे कोण कोनाथी अल्प, अधिक, तुल्य अने परमाणु अने दिप देशिक स्वन्धन विशेषाधिक छे! [उ०] हे गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कंधो करतां परमाणु पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे घणां छे. अपबहुत्व. पद्गगे. ३६ * जेओ मोक्षगमनसमय पहेलां शैलेशीने प्राप्त थयेला छे तेओने योगनो रोध सर्वथा होवाथी ते निष्कंप छे. + ईलिका गतिथी उत्पत्तिस्थाने जता जीवो देशतः सकम्प छे, कारण के तैनो पूर्वना शरीरमा रहेलो अंश गतिक्रियारहित होवाथी ते निश्चल छे... ३७ 1 विग्रहगतिने प्राप्त थयेला एटले जेओ मरीने विग्रह गतिवडे उत्पत्ति स्थाने जाय छे तेओ दडानी गतिथी सर्वात्मरूपे उपजे छ, माटे ते सर्वरूपे सकम्प छे. अने जेओ विग्रहगतिने प्राप्त थयेला नथी ते ऋजुगतिवाळा अने अवस्थित ए वे प्रकारना छे. तेमा अहिं मात्र अवस्थित ग्रहण करेला होय तेम संभवे छे. तेओ शरीरमा रहीने मरणसमुद्धात करी ईलिंका गतिवडे उत्पत्ति क्षेत्रनो अंशतः स्पर्श करे छे, माटे ते देशथी सकंप छे. अथवा खक्षेत्रमा रहेला जीवो हस्तपादादि अवयवोने चलाववा द्वारा देशथी सकंप छ,-टीका. जीवो हस्तपादादि अवधारहीने मरणसमुद्रात करी इलिका गावाला अने अवस्थित ए वे प्रका Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक २५.-उद्देशक ४.. ४३. [प्र० एपसि णं भंते ! दुपएसियाणं तिप्पएसियाण य खंधाणं दखट्टयाए कयरे कयरेहितो बहुया १० गोयमा ! तिपएसिपदितो खंधेदितो दुपएसिया खंधा दषट्टयाए बहुया, एवं एएणं गमएणं जाव-दसपएसिपहितो खंधे. हिंतो नवपएसिया खंधा दवट्याए बहुया। ४४. [प्र०] एएसि णं भंते ! दसपएसिए०-पुच्छा [उ०] गोयमा! दसपएसिपहिंतो खंधेहितो संखेजपएसिया खंधा दवट्ठयाए बहुया। ४५. [प्र०] एएसि णं भंते ! संखेज-पुच्छा । [उ०] गोयमा! संखेजपएसिपहिंतो खंधेहितो असंलेजपएसिया खंधा दछट्टयाए बहुया। ४६. एएसि णं भंते ! असंखेज-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अणंतपएसिएहिंतो खंधेहिंतो असंखेजपएसिया खंधा दट्टयाए बहुया। ___४७. [प्र०] एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपएसियाण य खंधाणं पएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो बहुया ? [उ.] गोयमा! परमाणुपोग्गलहितो दुपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया । एवं एएणं गमएणं जाव-नवपएसिपहितो खंधेहितो दसपएसिया खंधा पपसट्टयाए बहुया; एवं सम्वत्थ पुच्छियत्वं । दसपपसिएहिंतो खंधेहिंतो संखेजपएसिया खंधा पएस. ट्रयाए बहुया । संखेजपएसिएहितो खंधेहितो असंखेजपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया। ४८. [प्र०] एएसि णं भंते ! असंखेजपएसियाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अणंतपएसिएहिंतो खंधेहितो असंखेजपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया । ४९. एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दचट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो जाव-विसेसाहिया वा ? [उ.] गोयमा! दुपएसोगाढेहितो पोग्गलहितो एगपएसोगाढा पोग्गला दट्टयाए विसेसाहिया । एवं एएणं गमएणं द्विप्रदेशिक अने त्रि- ४३. [प्र० हे भगवन् ! ए द्विप्रदेशिक स्कंध अने त्रिप्रदेशिक स्कंध एमां द्रव्यार्थपणे कया पुद्गलस्कन्धो कोनाथी यावत्-विशेपा धिक छे ! [उ०] हे गौतम 1 त्रिप्रदेशिक स्कंधो करता *द्विप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे घणा छे. ए प्रमाणे ए गमक-पाठ वडे यावत्-दश अल्पबहुस्व. प्रदेशवाळा स्कंधो करतां नव प्रदेशवाळा स्कंधो द्रव्यार्थपणे घणा छे. दशप्रदेशिक अने सं: ४४. [प्र०] हे भगवन् ! दश प्रदेशवाळा स्कंधो संबंधे पूर्व प्रश्न, [उ०] हे गौतम ! दश प्रदेशवाळा स्कंधो करतां संख्यात ख्यात प्रदेशिकर्नु र अल्पबहुत्व प्रदेशवाळा स्कंधो द्रव्यार्थरूपे घणा छे. संख्यात प्रदेशिक अ- ४५. [प्र०] हे भगवन् ! ए संख्यात प्रदेशवाळा स्कंधो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! संख्यात प्रदेशिक स्कंधो करतां असंख्यात ने असंख्यात प्रदेशिक स्कन्धर्नु प्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे घणा छे. अल्पबहुत्व. असंख्यात प्रदेशिक ४६. [प्र०] हे भगवन् ! ए असंख्यात प्रदेशिक स्कंधो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! द्रव्यार्थ रूपे अनंत प्रदेशिक स्कंधो भने अनन्त प्रदेशिक । करता असंख्यात प्रदेशिक स्कंधो घणा छे. बहुत्व. परमाणु मने विप्रदे- ४७. [प्र०] हे भगवन् । परमाणु पुद्गल अने द्विप्रदेशिक स्कंधमा प्रदेशार्थरूपे कया कया शाथी यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] शिक स्कन्धन प्रदे. हे गौतम ! प्रदेशार्थरूपे परमाणुपुद्गलो करतां द्विप्रदेशिक स्कंधो घणा छे. एम आ पाठ वडे यावत्-नव प्रदेशिक स्कंधो करतां दश शार्थरूपे अल्प " प्रदेशिक स्कंधो प्रदेशार्थरूपे घणा छे. ए रीते सर्वत्र प्रश्न करवो. दश प्रदेशिक स्कंधो करतां संख्यात प्रदेशवाळा स्कंधो प्रदेशार्थरूपे घणा छे. संख्यात प्रदेशवाळा स्कंधो करतां असंख्यात प्रदेशिक स्कंधो प्रदेशार्थरूपे घणा छे. असंख्यात प्रदेशिक ४८. [प्र०] हे भगवन् ! ए असंख्यात प्रदेशिक स्कंधो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अनंत प्रदेशिक स्कंधो करतां असंख्य अने अनन्तप्रदेशि- स प नार्थपणे पणा के. कर्नु अल्पबदुत्व. प्रदेशावगाढ पुद्ग- ४९. [प्र०] हे भगवन् ! एक प्रदेशमा रहेला अने बे प्रदेशमा रहेला पुद्गलोमां द्रव्यार्थरूपे कया कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छ ? नु द्रव्यरूपे उ० हे गौतम ! बे प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां एक प्रदेशमा रहेला पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे विशेषाधिक छे. ए प्रमाणे ए पाठवडे त्रण अल्पबदुत्व. ४३ * ह्यणुक करता परमाणुओ सूक्ष्मपणाथी अने एक होवाथी घणा छे, द्विप्रदेशिक स्कन्धो परमाणु करता स्थूल होवाथी थोडा छे. एम पछीना सूत्र माटे जाणवू. पूर्व पूर्वनी संख्या बहु छे अने पछी पछीनी थोडी छे. पण दशप्रदेशिक स्कन्धो करता संख्यात प्रदेशिक स्कन्धो घणा छे. कारण के संख्यातना घणा स्थानो होय छे. संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध करता असंख्यात प्रदेशिक स्कन्धो घणा छे, कारण के, संख्यातप्रदेशिक करतां असंख्यातना घणा स्थानो होय छे. परंतु असंख्यात प्रदेशिक स्कन्धो करता अनन्त प्रदेशिक स्कन्धो थोडा छे. कारण के तेनो तथाविध सूक्ष्म परिणाम थाय छे.-टीका. ४९ । परमाणुथी मांटी अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध सुधी एक प्रदेशावगाढ होय छे अने पणुकथी मांडी अनन्ताणु स्कन्ध सुधी बे प्रदेशावगाढ होय छ. एम त्रिप्रदेशिक स्कन्धथी आरंभी अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध सुधी त्रिप्रदेशावगाढ होय छे. ए प्रमाणे चतुःप्रदेशावगाढ, यावत्-असंख्य प्रदेशावगाढ स्कन्धो जाणवा. . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२३ तिपएसोगाढेहितो पोग्गलहितो दुपएसोगाढा पोग्गला दधट्टयाए विसेसाहिया, जाव-दसपएसोगाढेहितो पोग्गलहितो नवपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए विसेसाहिया। दसपएसोगाढेहिंतो पोग्गलहितो संखेजपएसोगाढा पोग्गला दखट्टयाए बहयाः संखेजपएसोगाढेहितो पोग्गलहितो असंखेजपएसोगाढा पोग्गला दवट्टयाए बहुया। पुच्छा सवत्थ भाणियथा । ५०. [प्र०] एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपएसोगाढाण य पोग्गलाणं पएसट्टयाए कयरे कयरहितो जावविसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! एगपएसोगाढेहितो पोग्गलेहिंतो दुपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए विसेसाहिया, एवं जाव-नवपएसोगाढेहितो पोग्गलेहितो दसपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए विसेसाहिया; दसपएसोगाढेहिंतो पोग्गलेहितो संखेजपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए बहुया, संखेजपएसोगादेहितो पोग्गलहितो असंखेजपएसोगाढा पोग्गलापएसट्टयाए बहुया। ___ ५१. [४०] एएसि णं भंते ! एगसमयट्ठितीयाणं दुसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं दधट्टयाए० ? [उ०] जहा ओगाहणाए वत्तवया एवं ठितीए वि । ५२. [प्र०] एएसि णं भंते ! एगगुणकालयाणं दुगुणकालयाण य पोग्गलाणं दचट्ठयाए० १ [उ०] एएसि णं जहां परमाणुपोग्गलादीणं तहेव वत्तचया निरवसेसा एवं सवेसि वन-गंध-रसाणं । ५३. [प्र०] एएसि णं भंते ! एगगुणकक्खडाणं दुगुणकक्खडाण य पोग्गलाणं दखट्टयाए कयरे कयरोहितो जावसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! एगगुणकक्खडेहितो पोग्गलहितो दुगुणकक्खडा पोग्गला दबट्टयाए विसेसाहिया, एवं जाव-नवगुणकक्खडेहिंतो पोग्गलेहिंतो दसगुणकक्खडा पोग्गला दट्टयाए विसेसाहिया, दसगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहिंतो संखेजगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए बहुया, संखेजगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहितो असंखेजगुणकक्खडा पोग्गला दवट्टयाए बहुया; असंखेजगुणकक्खडेहितो पोग्गलहितो अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दचट्ठयाए बहुया । एवं पएसट्टयाए । सम्वत्थ पुच्छा भाणियवा । जहा कक्खडा एवं मउय-गरुय-लहुया वि । सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वन्ना । प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां बे प्रदेशमा रहेला पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे विशेषाधिक छे. यावत्-दश प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां नव प्रदेशमा रहेला पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे विशेषाधिक छे. दश प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां संख्याता प्रदेशमा रहेला पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे घणां छे. संख्याता प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां असंख्याता प्रदेशमा रहेला पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे घणां छे. सर्वत्र प्रश्न करवा. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! एक प्रदेशमा रहेला अने बे प्रदेशमा रहेला ए पुद्गलोमा प्रदेशार्थरूपे कया पुद्गलो कोनाथी यावत्- प्रदेशावगाढ पुद्गविशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! एक प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां बे प्रदेशमा रहेला पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे विशेषाधिक छे. ए प्रमाणे लोनुं प्रदेशरूपे अस्पबहुत्व. यावत्-नव. प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां दश प्रदेशमा रहेला पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे विशेषाधिक छे. दश प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करतां संख्याता प्रदेशमा रहेला पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे घणां छे. संख्याता प्रदेशमा रहेला पुद्गलो करता असंख्याता प्रदेशमा रहेला पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे घणां छे. ५१. [प्र०] हे भगवन् ! एक समयनी स्थितिवाळां अने बे समयनी स्थितिवाळां पुद्गलोमा द्रव्यार्थरूपे कयां पुद्गलो कोनाथी यावत्- समयस्थितिवाला पु. विशेषाधिक छे ! [उ०] जेम अवगाहनानी वक्तव्यता कही छे (सू०४८-४९) तेम स्थितिनी पण वक्तव्यता कहेवी. द्गलोर्नु अल्पबहुत्व ५२. [प्र०] हे भगवन् ! एक गुण काळा अने द्विगुण काळा पुद्गलोमां द्रव्यार्थरूपे कया पुद्गलो कोनाथी विशेषाधिक छे-इत्यादि वर्ण, गन्ध अने रस परमाणुपुद्गलादिनी वक्तव्यतानी पेठे बधी वक्तव्यता कहेवी. ए प्रमाणे बधा वर्ण, गंध अने रस संबंधे पण वक्तव्यता कहेवी. विशिष्ट पुद्गलोर्नु अल्पबहुत्व. ५३. [प्र०] हे भगवन् ! एकगुण कर्कश अने द्विगुण कर्कश पुद्गलोमां द्रव्यार्थरूपे कया पुद्गलो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक स्पर्शविशिष्ट पुद्ग लोनुं भरूपबहुत्व छे! [उ०] हे गौतम ! एकगुण कर्कश पुद्गलो करतां द्विगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे विशेषाधिक छे. ए प्रमाणे यावत्-नवगुण कर्कश पुद्गलो करतां दशगुण कर्कश पुद्गलो व्यार्थरूपे विशेषाधिक छे. दशगुण कर्कश पगलो करतां संख्यातगुण कर्कश द्रव्यार्थपणे घेणां छे. संख्यातगुण कर्कश पुद्गलो करतां असंख्यातगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे धणां छे. असंख्यातगुण कर्कश पुद्गलो करतां अनंतगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थपणे घणां छे. ए प्रमाणे प्रदेशार्थपणे पण सर्वत्र प्रश्न करवो. जेम कर्कश स्पर्श संबंधे कह्यु छे तेम मृदु, गुरु अने लघु स्पर्श विशे पण कहे. तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध अने रुक्ष स्पर्श संबन्धे वर्णनी पेठे कहेQ. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणुथी आरंभी अनन्त प्रदेशिक सन्धोनुं अल्पबहुत्व. प्रदेशावगाढ पुगटोनुं अल्पबहुत्व. एक समयादि स्थि तियाळा पुद्गलोनुं अल्पबहुत्व. श्रीरायचन्द्र - जिनागम संग्रहे - शतक २५. - उद्देशक ४. ५४. [ प्र० ] एसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपरसियाणं, असंखेजपर सियाणं, अनंतपएसियाण य खंधाणं दधट्टयाए परसट्टयाए घट्टपरसट्टयाए कयरे कयरे० जाव-विसेसाहिया वा ? [ उ०] गोयमा ! सवत्थोवा अणतपपलिया खंधा दचट्टयाए, परमाणुपोग्गला दघट्टयाए अनंतगुणा, संखेजपपसिया खंधा दधट्टयाए संखेजगुणा, असंखेज्जपरसिया खंधा दष्वट्टयाए असंखेज्जगुणा; पएसट्टयाए - सवत्थोवा अणतपएसिया खंधा परसट्टयाए, परमाणुपोग्गला अपपसट्टयाए अनंतगुणा, संखेजपरसिया खंधा परसट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजपरसिया खंधा परसट्टयाए असंखेज्जगुणाः दधट्टपरसट्टयाए - सधत्थोवा अणतपसिया खंधा दधट्टयाए, ते चैव परसट्टयाए अनंतगुणा, परमाणुपोग्गला दधट्ठपएसट्टयाए अनंतगुणा, संखेजपरसिया संधा दट्टयाए संखेजगुणा, ते चेव परसट्टयाए संबेज्जगुणा, असंखेजपरसिया संधा दष्वट्टयाए असंखे जगुणा, ते चेव परसट्टयाए असंखेजगुणा । २२४ ५५. [प्र० ] एसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं, संखेजपरसोगाढाणं, असंखेजपरसोगाढाण य पोग्गलाणं दधट्टयाए पएसट्टयाए दष्धट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? [ उ०] गोयमा ! सवत्थोवा एगपरसोगाढा पोग्गला दवट्टयाए, संखेजपरसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजपरसोगाढा पोग्गला दवट्टयाए असंखेजगुणा, पपसट्टयाएसत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला अपएसट्टयाए, संखेजपरसोगाढा पोग्गला परसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेजपरसोगाढा पोग्गला पसट्टयाए असंखेजगुणा; दघट्टपरसट्टयाए - सवत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दैट्ठअपदेसट्टयाए, संखेजपरसोगाढा पोग्गला दट्टयाए संखेजगुणा, ते चेव परसट्टयाए संखेजगुणा, असंखेज परसोगाढा पोग्गला दधट्टयाए असंखेजगुणा, ते चैव पपट्टयाए असंखेजगुणा । ५६. [ प्र० ] एसि णं भंते । एगसमयद्वितीयाणं, संखेजसमयद्वितीयाणं, असंखेजसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं० १ [30] जहा भोगाद्दणाए तथा ठितीए वि भाणियां अप्पा बहुगं । ५४. [प्र० ] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलो संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक अने अनंतप्रदेशिक स्कंधोमां द्रव्यार्थरूपे, प्रदेशार्थरूपे अने द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूपे कयां पुद्गलस्कन्धो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! द्रव्यार्थरूपे सौथी थोडा अनंतप्रदेशिक स्कंधो छे. तेथी परमाणु पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे अनंतगुण छे, तेथी संख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुण छे, तेथी असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुण छे. प्रदेशार्थरूपे - अनंतप्रदेशवाळा स्कंधो प्रदेशार्थरूपे सौथी थोडा छे, तेथी परमाणुपुद्गलो * अप्रदेशार्थरूपे अनंतगुण छे, तेथी संख्यातप्रदेशिक स्कंधो प्रदेशार्थरूपे संख्यातगुण छे, तेथी असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुण छे, द्रव्यार्थरूपे - अनंतप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थरूपे सौथी थोडा छे, अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थरूपे अनंतगुण छे; तेथी परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थ - अप्रदेशार्थरूपे अनंतगुण छे, तेथी संख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुण छे, अने तेथी तेज स्कंधो प्रदेशार्थरूपे संख्यातगुण छे, तेथी असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थरूपे असंख्यात गुण छे, अने तेथी ते ज स्कंधो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुण छे. ५५. [ प्र० ] हे भगवन् ! एक प्रदेशमां रही शके तेवा, संख्यात प्रदेशमां रही शके तेवा अने असंख्यात प्रदेशमां रही शके तेवा ए पुद्गलोमां द्रव्यार्थपणे, प्रदेशार्थपणे अने द्रव्यार्थ - प्रदेशार्थपणे कया पुगलो कोनाथी यावत्- विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! एक प्रदेशमां रही शके तेवा पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे सौथी थोडां छे, तेथी संख्यात प्रदेशमां रही शके तेवा पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुण छे, तेथी असंख्यात प्रदेशमां रही शके तेवा पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुण छे. प्रदेशार्थरूपे - एक प्रदेशमां रही शके तेवा पुद्गलो अप्रदे शार्थपणे सौथी थोडां छे, तेथी संख्याता प्रदेशमा रही शके तेवा पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे संख्यातगुण छे, तेथी असंख्यात प्रदेशमा रहेला पुलो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुण छे. द्रव्यार्थ - प्रदेशार्थरूपे - एक प्रदेशमां रही शके तेथा पुद्गलो द्रव्यार्थ - अप्रदेशार्थरूपे सौथी थोडां छे, तेथी संख्याता प्रदेशमां रही शके तेवा पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुण छे, अने तेज पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे संख्यातगुण छे, तेथी असंख्यात प्रदेशमां रही शके तेवा पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुण छे अने ते तेथी तेज पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुण छे. ५६. [प्र०] हे भगवन् ! एक समयनी स्थितिवाळा, संख्यात समयनी स्थितिवाळा अने असंख्यात समयनी स्थितिवाळा ए पुद्रलोमा कयां कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ? [ उ० ] जेम अवगाहना संबंधे अल्पबहुत्व कहां छे, तेम स्थिति संबन्धे पण अल्पबहुत्व कहे . १ पएसहयाए गङ। २ असंखेज छ । ३ दुब्वट्टप्पएस ङ । ७४ * परमाणु अप्रदेशी होवाथी एटले तेने प्रदेश नहि होवाथी अप्रदेशार्थरूपे अनन्तगुण कह्या छे. + परमाणुओ द्रव्यनी विवक्षामां द्रव्यरूप छे अने प्रदेशविवक्षामां तेने प्रदेशो नहि होवाथी द्रव्यार्थ - अप्रदेशार्थरूपे अनन्तगुण कथा छे. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. . २२५ ५७. [प्र०] पएसि णं भंते ! एगगुणकालगाणं, संखेजगुणकालगाणं, असंखेजगुणकालगाणं, अणंतगुणकालगाण य पोग्गलाणं दखट्टयाए, पएसट्टयाए, दघट्टपएसट्टयाए०१ [उ.] एएसि जहा परमाणुपोग्गलाणं अप्पाबरगं तहा एपसि पि अप्पाबहुगं; एवं सेसाण वि वन्न-गंध-रसाणं । ५८. [प्र०] एएसि णं भंते ! एगगुणकफ्खडाणं, संखेजगुणकक्खडाणं, असंखेजगुणकक्खडाणं, अणंतगुणकक्खडाण य पोग्गलाणं दखट्टयाए, पएसट्टयाए, दचट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे जाव-विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्योवा पगगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए, संखेजगुणकक्खडा पोग्गला दवट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए असंखेजगुणा, अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए अणंतगुणा, पएसट्टयाए एवं चेव, नवरं संखेजगुणकक्खडा पोग्गला पएसट्टयाए असंखेजगुणा, सेसं तं चेव । दवट्ठपएसट्टयाए-सवत्थोवा एगगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठपएसट्टयाए, संखेजगुणकक्खडा पोग्गला दचट्ठयाए संखेजगुणा; ते चेव पएसट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजगुणकक्खडा दट्टयाए असंखेजगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा; अणंतगुणकक्खडा दवट्ठयाए अणंतगुणा, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा । एवं मउय-गरुयलहुयाण वि अप्पाबहुयं । सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खाणं जहा वन्नाणं तहेव । ५९. [३०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! दवट्ठयाए कि कडजुम्मे, तेयोए, दावरजुम्मे, कलियोगे? [उ०] गोयमा! नो कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, कलियोगे । एवं जाव-अणंतपएसिए खंधे। १०.०ी परमाणपोग्गला णं भंते ! दखट्याए कि कडजम्मा-पच्छा। [उ.1 गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। एवं जाव-अणंतपएसिया खंधा। ६१. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! पएसट्ठयाए कि कडजुम्मे० पुच्छा। [उ०] गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, कलियोगे। ५७. [प्र०] हे भगवन् ! एकगुण काळा, संख्यातगुण काळा, असंख्यातगुण काळा अने अनंतगुण काळा ए पुद्गलोमा द्रव्या- वर्णविविशिष्ट पुदर्थरूपे, प्रदेशार्थरूपे अने द्रव्यार्थप्रदेशार्थरूपे कया पुद्गलो कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे? [उ०] जेम परमाणुपुद्गलोर्नु अल्प- " गलोनें अपबहुवः बहुत्व का छे (सू० ५३) तेम एओर्नु पण अल्पबहुत्व कहे. एम काळा सिवायना बाकीना वर्ण, गंध अने रस संबंधे पण जाणवू. ५८. [प्र०] हे भगवन् ! एकगुण कर्कश, संख्यातगुण कर्कश, असंख्यातगुण कर्कश अने अनंतगुण कर्कश ए पुद्गलोमां द्रव्यार्थरूपे, प्रदेशार्थरूपे तथा द्रव्यार्थप्रदेशार्थरूपे कया पुद्गलो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे! [उ०] हे गौतम ! एकगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे सौथी थोडां छे, तेथी संख्यातगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणा छे, तेथी असंख्यातगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुण छे, तेथी अनंतगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे अनंतगुण छे. प्रदेशार्थरूपे पण ए ज रीते जाणवू. परन्तु विशेष ए के, संख्यातगुण कर्कश पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुणा छे. बाकी बर्षा पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. द्रव्यार्थप्रदेशार्थरूपे-एकगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थपणे सौथी थोडा छे; तेथी संख्यातगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणां छे, अने तेज पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे तेथी संख्यातगुणां छे, तेथी असंख्यातगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे असंख्यातगुण छे, अने तेथी तेज पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुण छे, अनंतगुण कर्कश पुद्गलो द्रव्यार्थरूपे तेथी अनंतगुण छे, अने तेज पुद्गलो प्रदेशार्थरूपे तेथी अनंतगुण छे. एज रीते मृदु, गुरु अने लघु स्पर्शोनुं पण अल्पबहुत्व कहे. शीत, उष्ण, स्निग्ध अने रुक्ष स्पर्शोनुं अल्पबहुत्व वर्णोनी पेठे जाणवू. ५९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गल द्रव्यार्थरूपे कृतयुग्म छे, त्र्योज छे, द्वापरयुग्म छे के कल्योज छे! [उ०] हे गौतम ! कृतयुग्म नथी, त्र्योज नथी, द्वापरयुग्म नथी, पण *कल्योजरूप छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवू. परमाणुमां कृतयुग्मादि राशिनो समवतार. परमाणुओ. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थपणे कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कदाच सामान्यादेशथी कृतयुग्म होय, यावत्-कदाच कल्योज रूप होय. अने विशेषादेशथी कृतयुग्म, त्र्योज के द्वापरयुग्म नधी, पण कल्योजरूप होय छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशिक स्कंधो सुधी जाणवू. ६१. [प्र०] हे भगवन् । शुं परमाणुपुद्गल प्रदेशार्थरूपे कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म नथी, त्र्योज परमाणु प्रदेशरूपे. नथी, तेम द्वापरयुग्म नथी, पण कल्योजरूप छे. ५९ * विधानादेशथी एक परमाणुपुदलने चार संख्याधी अपहार करता एक बाकी रहे माटे ते हमेशा कल्पोजरूप होय छे. २९ भ. सू. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक४. .६२. [प्र०] दुपएसिए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो कडजुम्मे, नो तेयोये, दावरजुम्मे, नो कलियोगे। ६३. [प्र०] तिपएसिए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो कङजुम्मे, तेयोए, नो दावरजुम्मे, नो फलियोए । ६४. [प्र०] चउप्पएसिए-पुच्छा। उ०] गोयमा! कडजुम्मे, नो तेओए, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे। पंचपएसिए जहा परमाणुपोग्गले । छप्पएसिए जहा दुप्पएसिए । सत्तपएसिए जहा तिपएसिए । अट्ठपएसिए जहा चउप्पएसिए । नवपएसिए जहा परमाणुपोग्गले । दसपएसिए जहा दुप्पएसिए । ६५. [प्र.] संखेजपएसिए णं भंते ! पोग्गले-पुच्छा। [उ०] गोयमा। सिय कडजुम्मे, जाव-सिय कलियोए। एवं असंखेजपएसिए वि, अणंतपएसिए वि। ६६. [प्र०] परमाणुपोग्गला णं भंते ! पएसट्टयाए किं कडजुम्मा-पुच्छा। [उ०] गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोया, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। ६७. [प्र.] दुप्पएसिया णं पुच्छा । उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, नो तेयोया, सिय दावरजुम्मा, नो कलियोगा। विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोया, दावरजुम्मा, नो कलियोगा। ६८. [प्र०] तिपएसिया णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। ६९. [प्र०] चउप्पएसिया णं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। पंचपएसिया जहा परमाणुपोग्गला । छप्पएसिया जहा दुप्पएसिया। सत्तपएसिया जहा तिपएसिया । अट्ठपएसिया जहा चउपएसिया । नवपएसिया जहा परमाणुपोग्गला । दसपएसिया जहा दुपएसिया । ७०. [प्र०] संखेजपएसिया णं-पुछा । [उ.] गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव-कलियोगा वि । एवं असंखेजपएसिया वि, अणंतपएसिया वि।। राशिओ. द्विप्रदेशिक स्कन्धः ६२. [प्र०] द्विप्रदेशिक स्कंध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म, त्र्योज के कल्योज रूप नथी, पण द्वापरयुग्म छे. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध ६३. [प्र०] त्रिप्रदेशिक स्कंध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म, द्वापर के कल्योज नथी, पण त्र्योज छे. चतुःप्रदेशिकादि ६४. [प्र०] चार प्रदेशवाळा स्कंध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कृतयुग्म छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज नथी. परमाणुपुद्गस्कन्ध. लनी पेठे पांच प्रदेशवाळो स्कंध, द्विप्रदेशिक स्कन्धनी पेठे षट्प्रदेशिक स्कंध, त्रिप्रदेशिक स्कन्धनी पेठे सप्त प्रदेशिक स्कंध, चतु: प्रदेशिकनी पेठे आठ प्रदेशवाळो स्कंध, परमाणुपुद्गलनी पेठे नव प्रदेशिक स्कंध अने द्विप्रदेशिक स्कन्धनी पेठे दशप्रदेशिक स्कंध जाणवो. संख्यातप्रदेशिक ६५. प्रि०] हे भगवन् ! शुं संख्यातप्रदेशिक स्कंध कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच कृतयुग्म होय भने यावत्-कदाच कल्योजरूप होय. ए प्रमाणे असंख्यात प्रदेशिक तथा अनंतप्रदेशिक स्कंध संबंधे जाणवू. परमाणुओमा प्रदेश- ६६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गलो प्रदेशार्थपणे कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सामान्यादेशथी कदाच रूपे कृतयुग्मादि ६ कृतयुग्म छे, अने यावत्-कदाच कल्योज छे. तथा विशेषादेशनी अपेक्षाए कृतयुग्म, त्र्योज के द्वापरयुग्म नथी, पण कल्योज छे. दिप्रदेशिक स्कन्धो. ६७. [प्र०] द्विप्रदेशिक स्कंधो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सामान्यादेशनी अपेक्षाए कदाच कृतयुग्म होय अने कदाच . द्वापरयुग्म होय, पण त्र्योज के कल्योजराशि रूप न होय. विशेषनी अपेक्षाए कृतयुग्म, त्र्योज के कल्योजरूप न होय, पण द्वापरयुग्म राशिरूप होय. त्रिप्रदेशिक स्कन्धो.. .६८. [प्र०] त्रिप्रदेशिक स्कंधो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सामान्यादेशथी कदाच कृतयुग्म, यावत्-कदाच कल्योज हीय, विशेषादेशथी कृतयुग्म, द्वापरयुग्म के कल्योज न होय, पण म्योज होय. चतुष्प्रवेशिकादि ६९. [प्र०] शुं चतुष्प्रदेशिक स्कन्धो कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सामान्यादेश अने विशेषादेशनी अपेक्षाए. स्कन्धो. कृतयुग्मरूप छे, पण त्र्योज, द्वापरयुग्म अने कल्योजरूप नथी. पंचप्रदेशिक स्कन्धो परमाणुपुद्गलनी पेठे (सू० ६०-६१) जाणवा. छप्रदेशिक स्कन्धोने द्विप्रदेशिक स्कन्धोनी पेठे (सू०६७) जाणवू. सप्तप्रदेशिक स्कन्धो त्रिप्रदेशिक स्कन्धोनी पेठे (सू०६८), अष्टप्रदेशिक स्कन्धो चतुष्प्रदेशिकनी पेठे, नवप्रदेशिक स्कन्धो परमाणुपुद्गलोनी जेम (सू० ६०-६१) अने दशप्रदेशिक स्कन्धो द्विप्रदे शिक स्कन्धोनी पेठे (सू०६१) जाणवा. संख्यातप्रदेशिकादि ७०. [प्र०] शुं संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो कृतयुग्मराशि रूप होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] सामान्यादेशथी कदाच कृतयुग्मरूप होय, स्कन्धो. यावत्-कदाच कल्योजरूप पण होय. विशेषादेशथी पण कदाच कृतयुग्मरूप होय, यावत्-कदाच कल्योजरूप पण होय. एम असंख्यात प्रदेशिक अने अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो जाणवा. Jain Education international Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५. - उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२७ ७१. [प्र० ] परमाणुपोग्गले णं भंते । किं कडजुम्मपरसोगाढे - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! नो कडजुम्मपरसोगाढे, नो तेयोग०, नो दावरजुम्म०, कलियोगपरसोगाढे । ७२. [प्र०] दुपएसिए णं-पुच्छा। [30] गोयमा ! नो कडजुम्मपरसोगाढे, णो तेयोग०, सिय दावरजुम्मपरसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे । ७३. [०] तिपयसिप णं - पुच्छा। [30] गोयमा ! णो कडजुम्मपरसोगाढे, सिय तेयोगपरसोगाढे, सिय दावरजुम्मपरसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे ३ । ७४. [प्र० ] चउप्पयसिप णं पुच्छा । [30] गोयमा ! सिय कडजुम्मपरसोगाढे, जाव- सिय कलियोगपरसोगाढे ४ । एवं जाव - अनंतपएसिए । ७५. [०] परमाणुपोग्गला णं भंते । किं कडजुम्म- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा, णो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोग० । विहाणादेसेणं नो कडजुम्मपपसोगाढा, णो तेयोग०, नो दावर०, कलिभोगपपसोगाढा । ७६. [०] दुप्पसिया णं- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलिओग० । विहाणादेसेणं नो कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोगपएसोगाढा, दावरजुम्मपएसोगाढा वि, कलियोगपएसोगाढा वि । ७७. [प्र० ] तिप्पएसिया णं- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलि० । विहाणादेसेणं नो कडजुम्मपरसोगाढा, तेओगपएसोगाढा वि, दावरजुम्मपरसोगाढा वि, कलिओगपएसोगाढा वि३ । ७८. [प्र० ] चप्पसिया णं पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलिओग० । विहाणादेसेणं कडजुम्मपरसोगाढा वि, जाव- कलिओगपएसोगाढा वि ४ । एवं जाव- अणतपरसिया । ७९. [प्र० ] परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं कडजुम्मसमयद्वितीय - पुच्छा। [30] गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयद्वितीय, जाव - सिय कलिओगसमयद्वितीए । एवं जाव- अणतपएसिए । ७१. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल कृतयुग्मप्रदेशावगाढ होय - इत्यादि प्रश्न . [ उ० ] हे गौतम! कृतयुग्मप्रदेशावगाढ, त्र्योज परमाणुनी प्रदेश • प्रदेशावगाढ अने द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ न होय, पण कल्यो प्रदेशावगाढ होय. वगाढता. ७२. [प्र०] द्विप्रदेशिक स्कंध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्म के त्र्योज प्रदेशाश्रित नथी, पण कदाच द्वापरयुग्म के कदाच कल्योज प्रदेशाश्रित छे. ७३. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं त्रिप्रदेशिक स्कंध कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कृतयुग्मप्रदेशाश्रित नथी, पण कदाच त्र्योज, कदाच द्वापरयुग्म के कदाच कल्योजप्रदेशाश्रित होय छे. ७४. [प्र०] चतुःप्रदेशिक स्कंध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच कृतयुग्मप्रदेशाश्रित होय छे अने यावत् - कदाच कल्योजप्रदेशाश्रित होय छे. ए प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवुं. चतुःप्रदेशिक ७५. [प्र०] हे भगवन्! शुं परमाणुपुद्गलो कृतयुग्मप्रदेशाश्रित होय छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सामान्यादेशथी कृतयुग्म परमाणुपुद्गलो. प्रदेशाश्रित होय छे, पण त्रयोज, द्वापर के कल्योजप्रदेशाश्रित नथी. तथा विशेषादेशथी कृतयुग्म, त्र्योज के द्वापरयुग्मप्रदेशाश्रित नथी, पण कल्योजप्रदेशाश्रित होय छे. ७६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं द्विप्रदेशिक स्कंधो कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे - इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गौतम ! सामान्यादेशथी द्विप्रदेशिक स्कन्धोकृतयुग्मप्रदेशावगाढ पण त्रयोज, द्वापर के कल्योजप्रदेशावगाढ नथी, अने विशेषादेशथी कृतयुग्म प्रदेशमां रहेल नथी, त्र्योज प्रदेशमां रहेल नथी, पण द्वापरयुग्म प्रदेशाश्रित अने कल्योजप्रदेशाश्रित छे. ७८. [प्र०] चतुःप्रदेशिक स्कंधो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सामान्यादेशथी कृतयुग्मप्रदेशाश्रित होय छे, पण त्रयोज, द्वापरयुग्म के कल्योजप्रदेशाश्रित नथी, तथा विशेषादेशथी कृतयुग्मप्रदेशाश्रित होय छे, यावत्- कल्योजप्रदेशाश्रित पण होय छे. ९ प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंधो सुधी जाणवुं. द्विप्रदेशिक ७७. [प्र०] हे भगवन् ! त्रिप्रदेशिक स्कन्ध कृतयुग्मप्रदेशावगाढ छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सामान्यादेशथी कृतयुग्म- त्रिप्रदेशिक स्कन्धोप्रदेशाश्रित छे, पण त्र्यो, द्वापर के कल्योज प्रदेशाश्रित नथी. तथा विशेषादेशथी कृतयुग्मप्रदेशाश्रित नथी, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योजप्रदेशाश्रित होय छे. ७९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गल कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळु छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कदाच कृत समयनी स्थितिवाकुं होय छे, यावत्-कदाच कल्योज समयनी स्थितिवाकुं होय छे. ए प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवुं. त्रिप्रदेशिक. चतुःप्रदेशिक स्कन्धो. अनन्तप्रदेशिक परमाण्वादिनी कृत स्थिति. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णादि पर्यायोनी कृतयुग्मादिरूपता. परमाणु सार्धं के अनर्थ द्विप्रदेशिका दि स्कन्ध. २२८ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे शतक २५. - उद्देशक ४. ८०. [प्र० ] परमाणुपोग्गला णं भंते । किं कडजुम्म० - पुच्छा । [४०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयठि - तीया, जाव - सिय कलियोगसमयद्वितीया ४ । विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयद्वितीया वि, जाघ- कलियोगसमयद्वितीया वि ४ । एवं जाव - अणतपरसिया । ८१. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालवन्नपजवेहिं किं कडजुम्मे, तेओगे - १ [अ०] जहा ठितीप वत्तया एवं नेसु वि सधेसु, गंधेसु वि एवं चेव, [एवं ] रसेसु वि जाव - 'महुरो रसो' ति । ८२. [प्र० ] अणतपसि णं भंते ! खंधे कक्खडफासपजवेहिं किं कडजुम्मे- पुच्छा। [30] गोयमा ! सिय कडजुम्मे, जाव - सिय कलिओगे । ८३. [प्र०] अणंतपरसिया णं भंते! खंधा कक्खडफासपज्जवेहिं किं कडजुम्मा-पुच्छा । [३०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव - सिय कलियोगा ४ । विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव - कलियोगा वि ४ । एवं मउय - गरुय - लहुया वि भाणियचा । सीय-उसिण- निद्ध-लुक्खा जहा वन्ना । ८४. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सड्डे अंणडे ? [उ०] गोयमा ! नो सढे, अणडे । ८५. [प्र०] दुपए सिए - पुच्छा। [30] गोयमा ! सडे, नो अणढे । तिपएसिए जहा परमाणुपोग्गले । चउपपसिए जहा दुपपसिए । पंचपएसिए जहा तिपएसिए । छप्पपसिए जहा दुपपसिए । सत्तपएसिए जहा तिपएसिए । अट्ठपपसिए जहा दुपपलिए । नवपएसिए जहा तिपपसिए । दसपपसिए जहा दुपपसिए । ८६. [प्र०] संखेजपपसिए णं भंते ! खंधे - पुच्छा । [ उ० ] गोयमा ! सिय सहे, लिय अणडे । एवं असंखेज्जपपलिए वि । एवं अणतपपसिए वि । ८०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गलो कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळां छे - इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गौतम ! सामान्यादेशथी कदाच कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळां होय अने यावत् कदाच कल्योज समयनी स्थितिवाळां होय. तथा विशेषादेशथी कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळां पण होय अने यावत्-कल्योज समयनी स्थितिवाळां पण होय. ए प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंधो सुधी जाणवुं. ८१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गलना काळा वर्णपर्यायो कृतयुग्मरूप छे, त्र्योज छे - इत्यादि प्रश्न. [ उ० ] जेम स्थितिनी कक्तव्यता कही तेम सर्व वर्णनी वक्तव्यता कहेवी. एम बधा गंधो अने रसोने विषे पण यावत् - मधुर रस सुधी एज प्रमाणे जाणवुं. ८२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अनंतप्रदेशिक स्कंधना कर्कशस्पर्शपर्यायो कृतयुग्म छे - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच कृतयुग्म छे अने यावत्-कदाच कल्योजरूप छे. ८३. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं अनंत प्रदेशवाळा स्कंधोना कर्कशस्पर्शपर्यायो कृतयुग्म छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सामान्या"देशथी कदाच कृतयुग्म अने यावत्-कदाच कल्योज रूप पण होय छे. विशेषादेशथी कृतयुग्म पण छे अने यावत् - कल्यो जरूप पण छे. एप्रमाणे मृदु- कोमळ, गुरु-भारे अने लघु-हळवो-ए स्पर्श कहेवा. अने शीत-ठंडो, उष्ण-उनो, स्निग्ध-चिकणो अने रुक्ष-लुखोए स्पर्शो वर्णोनी पेठे कहेवा. ८४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गल सार्ध (जेनो अरधो भाग थह शके तेतुं ) छे, के अनर्ध (जेनो अरधो भाग न यह श) छे ! [उ०] हे गौतम! ते सार्ध नथी, पण अनर्ध छे. 1 ८५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं बे प्रदेशवाळो स्कंध सार्ध छे के अनर्ध छे ! [उ०] हे गौतम ! ते * सार्ध छे, पण अनर्ध नथी. ए रीते परमाणुपुद्गलनी पेठे त्रण प्रदेशवाळो स्कंध, बे प्रदेशवाळा स्कंधनी पेठे चार प्रदेशवाळो स्कंध, त्रण प्रदेशवाळानी पेठे पांच प्रदेशवाळो स्कंध, बे प्रदेशवाळानी पेठे छ प्रदेशवाळो स्कंध, त्रण प्रदेशवाळानी पेठे सात प्रदेशवाळो स्कंध, बे प्रदेशवाळानी पेठे आठ प्रदेशवाळो स्कंध, त्रण प्रदेशवाळानी पेठे नव प्रदेशवाळो स्कंध अने बे प्रदेशवाळानी पेठे दश प्रदेशवाळो स्कंध समजवो. ८६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं संख्यातप्रदेशवाळो स्कंध सार्ध छे के अनर्ध छे ! [ उ०] हे गौतम! ते कदाच सार्धं छे अने कदाच अर्ध छे. ए प्रमाणे असंख्यांत प्रदेशवाळा तथा अनंत प्रदेशवाळा स्कंध संबंचे पण समजवुं. ८५ * सम-बेकी संख्याबाळा प्रदेशोना जे स्कन्धो छे ते सार्धं छे, कारण के तेना सरखा वे अर्ध भाग थइ शके छे. अने विषम-एकी संख्यावाळा प्रदेशोना जे स्कन्धो छे ते अनर्थ छे, कारण के तेना सरखा वे अर्थ भाग ग्रह शकता नथी. For Private Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५. उरेक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२९ ८७. [प्र०] परमाणुपोग्गला णं भंते! किं सड्डा, अणड्डा ? [उ०] गोयमा ! सड्डा वा अणड्डा वा । एवं जावअणतपपसिया । ८८. [२०] परमाणुपोगले भंते किं सेए, निरेष [४०] गोयमा सिय सेप, सिव निरेष पर्व जाय-अत 1 पपसिए । ८९. [प्र०] परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि सेया, निरेया ? [30] गोयमा ! सेया वि, निरेया वि । एवं जाव- अणतप 1 परिया। ९०. [प्र०] परमाणुयुग्गले णं भंते ! सेए कालओ केवचिरं होइ ? [अ०] गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं । ९१. [प्र० ] परमाणुपोग्गले णं भंते ! निरेए कालओ केवचिरं होइ ? [३०] गोयमा ! जहनेणं एवं समयं, उक्कोसेणं असं कालं एवं जान-अनंतपयसिप । 1 ९२. [प्र० ] परमाणुपोग्गला णं भंते ! सेया कालओ केवचिरं होन्ति ? [उ०] गोयमा ! सङ्घद्धं । ९३. [प्र० ] परमाणुपोग्गला णं भंते ! निरेया कालओ केवचिरं होंति ? [उ०] गोयमा ! सङ्घद्धं । एवं जाव- अनंतपपलिया । ९४. [१०] परमाणुपोग्गलस्स णं भंते! सेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? [०] गोयमा सङ्काणंतरं पच ज नणं एकं समयं उकोसेणं असंखेनं कार्य परट्ठाणंतरं पहुच जणं एकं समयं उफोसेणं असलेलं कालं । 3 ८७. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गलो सार्ध छे के अनर्ध छे ! [उ०] हे गौतम! ते सार्ध पण छे अने अनर्ध पण छे. एप्रमाणे यावत् अनंत प्रदेशवाळा स्कंधो सुधी समज. ८८. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गल सकंप छे के निष्कंप छे ! [उ०] हे गौतम! ते कदाच सकंप छे अने कदाच सकंप अने निष्कंप निष्कंप पण छे. ए प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवुं. ८९. [प्र० ] हे भगवन् ! धुं परमाणुपुङ्गको सकंप के के निष्कंप छे ! [४०] हे गौतम! ते सकंप पण छे अने निष्कंप पण छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशवाल स्कंध सुधी समज. स्थानो काळ. ९० [०] हे भगवन् ! परमाणुपुल केटला काळ सुधी सकंप रहे [ उ०] हे गौतम! ते ( परमाणुपुल) जघन्य एक परम समय सुधी अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्यातमा भाग सुधी सकंप रहे. ९१. [प्र० ] हे भगवन् । परमाणुपुरु केला काळ सुधी निष्कंप रहे ! [उ०] हे गौतम! परमाणुपुङ्ग जघन्य एक समय परमानन अने उत्कृष्ट असंख्याता काळ सुधी निष्कंप रहे. ए प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवुं. तानो काळ. ९२. [अ०] हे भगवन् ! परमाणुपुङ्गो केटला काळ सुधी कंपायमान रहे [ड०] हे गौतम! परमाणुपुङ्गको सदा काळ कंपा यमान रहे. पतानो काळ. ९३. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुङ्गलो केटलो काळ निष्कंप रहे [उ०] हे गौतम! सदा काळ निष्कंप रहे. ए प्रमाणे यावत्- परमाणुमोनी अनंतप्रदेशवाळा स्कंधो सुधी जाणवुं. ८७ * ज्यारे घणा परमाणुओ समसंख्यावाळा होय छे त्यारे ते सार्ध अने विषमसंख्यावाळा होय छे त्यारे अनर्ध कहेवाय छे, कारण के संघातपरस्पर मळवाथी अने मेद-जुदा पडवाथी तेनी संख्या अवस्थित होती नथी, तेथी ते बने रूपे छे. पाव ९४. [प्र० ] हे भगवन् ! संकप परमाणुपुद्गलने केटला काळनुं अंतर होय ? अर्थात् पोतानी कंपायमान अवस्थाथी बंध सकंप परमाणुनुं पडी पाछो केटले काळे कंपे ? [ उ०] हे गौतम! स्वस्थानने आश्रयी जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट असंख्य काळनुं अंतर होय. परस्थानने आश्रयी जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट असंख्य काळनुं अंतर होय. अंतर. + ', ९४ परमाणु परमास्थानां स्कन्धमी नियुक्तावस्थामां होय लारे खरयान कद्देवाय छे भने ज्यारे स्कन्धावस्थामा दोय के खारे परस्थान कहेवाय छे. तेमां एक परमाणु एकसमय पर्यन्त चलनक्रियाथी बन्ध पढी फरी चाले त्यारे स्वस्थानने आश्रयी जघन्यथी एक समयनुं अंतर होय छे भने उत्कृष्टथी ते परमाणु असंख्यात काळ पर्यन्त कोइ स्थळे स्थिर रहीने पुनः चाले त्यारे असंख्यात काळनुं अन्तर होय छे. ज्यारे परमाणु द्विप्रदेशादिक स्कन्धना अन्तर्गत होय अने जघन्यथी एक समय चलनकियाथी निवृत्त थईने पुनः चाले त्यारे परस्थानने आश्रयी जघन्य एक समयनुं अन्तर होय पण ज्यारे ते परमाणु असंख्यात काळ पर्यन्त द्विप्रदेशादिक स्कन्धरूपे रहीने पुनः ते स्कन्धथी जुदो पढीने चाले त्यारे परस्थानने आश्रयी उत्कृष्ट असंख्यात काळनुं अन्तर होय छे. निष्कं / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक २५.-उद्देशक ४. ९५. [प्र. निरेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? [उ०] गोयमा ! सट्टाणंतरं पडुश्च जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभाग; परढाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एकं समयं उकोसेणं असंखेजं कालं। ९६. [प्र०] दुपएसियस्स णं भंते ! खंधस्स सेयस्स पुच्छा। [उ०] गोयमा! सट्टाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक समयं, उकोसेणं असंखेज़ कालं, परट्टाणंतरं पडुच जहन्नेणं एकं समयं, उकोसेणं अणंतं कालं। [प्र०] निरेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? [उ०] गोयमा ! सटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं, परदाणंतरं पडष्य जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं । एवं जाव-अणंतपएसियस्स । __९७. [प्र०] परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सेयाणं केवतियं कालं अंतर होइ ? [उ०] गोयमा ! नत्थि अंतरं । [प्र०] निरेयाणं केवतियं कालं अंतर होइ? [उ०] गोयमा ! नत्थि अंतरं । एवं जाव-अणंतपएसियाणं खंधाणं । ९८. [प्र०] एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सेयाणं, निरेयाण य कयरे कयरेहिंतो जाव-विसेसाहिया वाउ. गोयमा! सवत्थोवा परमाणुपोग्गला सेया, निरेया असंखेजगुणा, एवं जाव-असंखिजपएसियाणं खंधाणं । ९९. [प्र०] एएसि णं भंते ! अणंतपएसियाणं खंधाणं सेयाणं, निरेयाण य कयरे कयरे जाव-विसेसाहिया वा? [उ.] गोयमा ! सवत्थोवा अणंतपएसिया खंधा निरेया, सेया अणंतगुणा । १००. [प्र०] एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपएसियाणं, असंखेजपएसियाणं, अणंतपएसियाण य खंधाणं सेयाणं निरेयाण य दधट्टयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे० जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा निष्कम्प परमाणु ९५. [प्र०] हे भगवन् ! निष्कंप परमाणुपुद्गलनु केटळा काळनुं अंतर होय !-निष्कंप परमाणुपुद्गल कंपीने पाछो केटले अन्तर. काळे निष्कंप थाय ! [उ०] हे गौतम ! खस्थानने आश्रयी जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्य भागनुं तथा परस्था नने आश्रयी जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट असंख्य काळजें अंतर होय. सकम्प अने निष्कम्प ९६. [प्र०] हे भगवन् ! सकम्प बे प्रदेशवाळा स्कंधने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! विस्थाननी अपेक्षाए दिप्रदेशिकादि स्कधनुं अन्तर. जघन्य एक समयनु अने उत्कृष्ट असंख्यात काळनु तथा परस्थाननी अपेक्षाए जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट अनंत काळजें अंतर होय. निष्कम्प विप्रदेशि [प्र०] हे भगवन् ! बे प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! स्वस्थाननी अपेक्षाए जघन्य एक कादि स्कन्धर्नु अन्तर. समयनुं अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्य भागर्नु तथा परस्थाननी अपेक्षाए जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट अनंत काळजें अंतर होय. ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवु. ९७. [प्र०] हे भगवन् ! सकम्प परमाणुपुद्गलोर्नु केटला काळy अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! तिओनुं अंतर नथी. [प्र०] निष्कंप परमाणुपुद्गलोर्नु केटलं अंतर होय ? [उ०] हे गौतम! अंतर नथी. ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंधो सुधी जाणवू. सकंप अने निष्कंप ९८. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्वोक्त सकंप अने निष्कंप परमाणुपुद्गलोमां कया परमाणुपुद्गलो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक होय परमाणुओनु अल्प "बहुत्व. छे! [उ०] हे गौतम ! सकम्प परमाणुपुद्गलो सौथी थोडां छे, अने निष्कंप परमाणुपुद्गलो असंख्यातगुणां छे. ए प्रमाणे यावत्-असंख्यात असंख्यात प्रदेशिक प्रदेशवाळा स्कंधो सुधी जाणवू. सकम्प अने निष्कम्प ९९. [प्र०] हे भगवन् ! ए पूर्वोक्त सकम्प अने निष्कंप अनंत प्रदेशवाळा स्कंधोमां कया स्कन्धो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक अनन्त प्रदेशिक " छे ! [उ०] हे गौतम ! अनंत प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो सौथी थोडा छे, अने तेथी अनंत प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो अनंतगुण छे. बहुत्व. १००. [प्र०] हे भगवन् ! ए सकंप अने निष्कंप परमाणुपुद्गलो, संख्यात प्रदेशवाळा स्कंधो, असंख्यात प्रदेशवाळा स्कंधो अने अल्पबहुत्व. अनंत प्रदेशवाळा स्कंधोमां द्रव्यार्थपणे, प्रदेशार्थपणे तथा द्रव्यार्थप्रदेशार्थपणे कया पुद्गलो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! १ "अनंत प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे सौथी थोडा छे. २ तेथी अनंत प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनं ९५. * च्यारे परमाणु निश्चल-स्थिर थईने जघन्य एक समय पर्यन्त परिभ्रमण करी पुनः स्थिर थाय अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्यातमा भागरूप असंख्य समय पर्यन्त परिभ्रमण करी पुनः स्थिर थाय त्यारे खस्थानने आश्रयी जघन्य समय अने उत्कृष्ट आवलिकानो असंख्यातमो भाग अन्तर होय. परमाणु निश्चल थई पोताना स्थानथी चलित थाय अने जघन्य एक समय पर्यन्त द्विप्रदेशादि स्कन्धरूपे रहीने पुनः निश्चल थाय अने उत्कृष्ट असं. ख्यात काळ सुधी द्विप्रदेशादि स्कन्धरूपे रही तेथी जुदो थईने स्थिर थाय त्यारे परस्थानने आश्रयी जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर होय. द्विप्रदेशिक स्कन्ध चलित थईने अनन्त काळपर्यन्त उत्तरोत्तर वीजा अनन्त पुद्गलोनी साथे संबन्ध करतो पुनः तेज परमाणुनी साथे संबद्ध थईने पुनः चाले त्यारे परस्थानने आश्रयी उत्कृष्ट अनन्त काळजें अन्तर होय.-टीका.' ९७१ सकम्प परमाणुपुद्गलो लोकमा सर्वदा विद्यमान होवाथी तेने विषे अन्तर होतुं नथी. १०० ॥ परमाणुपुद्गलो, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक अने अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोना सकंप भने निष्कम्प पक्षना द्रव्यार्थरूपे आठ विकल्प थाय छ, ए प्रमाणे प्रदेशार्थरूपे पण आठ विकल्प थाय छे. उभयार्थरूपे चौद विकल्पो थाय छे, कारण के सकम्प भने निष्कम्प परमाणुओना द्रव्यार्थता अने प्रदेशार्थता पदने बदळे द्रव्यार्थाप्रदेशार्थता रूप एकज पद कहे. एटळे सोळ विकल्पना बदले चौद विकल्पो थाय छे. . Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३१ अणंतपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए १, अणंतपएसिया खंधा सेया दवट्ठयाए अणंतगुणा २, परमाणुपोग्गला सेया दधट्ठयाए अणंतगुणा ३, संखेजपएसिया खंधा सेया दचट्ठयाए असंखेजगुणा ४, असंखेजपएसिया खंधा सेया दट्टयाए असंखे. जगुणा ५, परमाणुपोग्गला निरेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा ६, संखेजपएसिया खंधा निरेया दट्टयाए संखेजगुणा ७, असंखेजपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा ८। पएसट्टयाए एवं चेव । नवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए माणियवा । संखेजपएसिया खंधा निरेया पएसट्टयाए असंखेजगुणा; सेसं तं चेव । दधटुपएसट्टयाए-सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा निरेया दचट्टयाए १, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा २, अणंतपएसिया खंधा सेया दवट्टयाए अणंतगुणा ३ ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा ४, परमाणुपोग्गला सेया दचट्ठअपएसट्ठयाए अणंतगुणा ५, संखेजपएसिया खंधा सेया दवट्याए असंखेजगुणा ६, ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा ७, असंखेजपएसिया खंधा सेया दचट्ठयाए असंखेजगुणा ८, ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा ९, परमाणुपोग्गला निरेया दवट्ठअपएसट्टयाए असंखेजगुणा १०, संखेजपएसिया खंधा निरेया दचट्टयाए असंखेजगुणा ११, ते चेव पएसट्टयाए असंखिजगुणा १२, असंखेजपएसिया खंधा निरेया दवट्याए असंखेजगुणा १३, ते चेव पएसट्ठयाए संखेजगुणा १४ । १०१. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं देसेए, सोए, निरेए ? [उ०] गोयमा ! नो देसेए, सिय सोए, सिय निरेए। १०२. [प्र०] दुपएसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा । [उ.] गोयमा ! सिय देसेए, सिय सवेर, सिय निरेए । एवं.जावअणंतपएसिए। १०३. [प्र०] परमाणुपोग्गला गं भंते ! किं देसेया, सोया, निरेया ? [उ०] गोयमा ! नो देसेया, सख्या वि निरेया वि। १०४. [म०] दुपएसिया णं भंते ! खंधा-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! देसेया वि, सोया वि, निरेया वि । एवं जावअणंतपएसिया। तगुणा छे. ३ तेथी सकंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणां छे. ४ तेथी संख्यात प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणां छे. ५ तेथी असंख्यात प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणां छे. ६ तेथी निष्कंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणां छे. ७ तेथी संख्यात प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे संख्यातगुणां छे. ८ तेथी असंख्यात प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणां छे. प्रदेशार्थपणे पण एज रीते आठ विकल्पो जाणवा. विशेष ए के, परमाणुपुद्गलो (प्रदेशार्थने बदले ) अप्रदेशार्थपणे कहेवा. संख्यात प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे समजवु. द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थपणे-१ अनंतप्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे सौथी थोडा छे. २ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे अनंतगुणां छे. ३ अनंत प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणा छे. ४ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे अनंतगुणा छे. ५ सकंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थअप्रदेशार्थपणे अनंतगुणा छे. ६ संख्यात प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ७ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे' असंख्यातगुणा छे. ८ असंख्यात प्रदेशवाळा सकंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ९ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यात गुणा छे. १० निष्कंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणां छे. ११ संख्यात प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १२ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे *असंख्यातगुणा छे. १३ असंख्य प्रदेशवाळा निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १४ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १०१. [प्र०] हे भगवन् । शं परमाणुपुद्गल अमुक अंशे कंपे छे, सर्व अंशे कंपे छे, के निष्कंप छे! [उ० हे गौतम 1 ते परमाणुनो कम्प. अमुक अंशे कंपतो नथी, पण कदाच सर्व अंशे कंपे छे अने कदाच निष्कंप रहे छे. १०२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं द्विप्रदेशिक स्कंध अमुक अंशे कंपे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कदाच अमुक अंशे विप्रदेशिकादि रू. कंपे छे, कदाच सर्व अंशे कंपे छे अने कदाच निष्कंप पण रहे छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंध सुधी जाणवू. श्वनो कम्प १०३. [प्र०] हे भगवन् । शुं परमाणुपंद्गलो अमुक अंशे कंपे छे, सर्व अंशे कंपे छे के निष्कंप रहे छे १ [उ.] हे गौतम | परमाणुभोनो कम्प. तेओ अमुक अंशे कंपता नथी, पण सर्व अंशे कंपे छे भने निष्कंप पण रहे छे. १०४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं द्विप्रदेशिक स्कंधो अमुक अंशे कंपे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ अमुक अंशे विप्रदेशिकादि स्क कंपे छे, सर्व अंशे पण कंपे छे अने निष्कंप पण रहे छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंध सुधी जाणवू. मोनो कम्प. १०. * द्रव्यार्थतासूत्रने विषे संख्यातप्रदेशिक निष्कंप स्कन्धो निष्कम्प परमाणुओथी संख्यातगुणा कह्या, अने प्रदेशार्थतासूत्रमा ते परमाणुओ करता ते स्कन्धो असंख्यात गुणा कह्या, तेनुं कारण ए छे के निष्कम्प परमाणुओथी निष्कम्प संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो द्रव्यार्थरूपे संख्यातगुणा होय छे, अने तेमांना घणा स्कन्धोमा उत्कृष्ट संख्यावाळा प्रदेशो होवाथी निष्कम्प परमाणुओथी प्रदेशार्थरूपे असंख्यातगुणा होय छे. केमके उत्कृष्ट संख्यामा एक संख्या उमेरता असंख्यात थाय छे. . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणुना कंपननो काळ. परमाणुना अकंपननो काळ. द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध नो देशकंपनकाळ. सर्वकंपनकाळ. निष्कंपन काळ. परमाशुमोनी बंधन काळ. निष्कंपन काळ. द्विप्रदेशिकादि स्कन्धोनो देशकंपन काळ. सर्वकंपन काळ. अकंपन काळ. सर्वोशे सकंप पर माअंतर निष्कंप परमाणुनुं अंतर. २३२ श्रीरामचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २५ - उद्देशक ४. १०५. [प्र०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! सङ्क्षेप कालओ केवचिरं छोइ ? [अ०] गोयमा ! जहन्त्रेणं एकं समयं, उक्कोसेणं - आवलियाए असंखेज भागं । १०६. [२०] निरेये कालओ केवधिरं होह १०७. [प्र०] दुपएसिए णं भंते! संधे देसे आवलियाए असंखेजइभागं । १०८. [प्र० ] स काल केवचिरं होइ ? [४०] गोयमा ! जहनेणं एकं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेभागं । १०९. [प्र०] निरेए कालओ केवचिरं होइ ? [३०] गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं । एवं जाय अनंतपरखिए । [४०] गोषमा ! जहगं एकं समयं उझोसेणं असं काळं । कालम के चिरं होद ? [४०] गोयमा ! जणं एवं समर्थ, उकोलेणं - ११०. [प्र० ] परमाणुपोग्गला णं भंते ! सच्चेया कालओ केवचिरं होंति ? [उ०] गोयमा ! सङ्घद्धं । १११. [०] निरेया कालओ केवचिरं होंति ? [अ०] सङ्घद्धं । ११२. [प्र० ] दुप्पसिया णं भंते ! खंधा देतेया कालओ केवचिरं० १ [30] सङ्घद्धं । ११३. [२०] सज्ञेया कालओ केवचिरं० १ [४०] सङ्घद्धं । ११४. [प्र०] निरेया कालओ केवचिरं० १ [30] सङ्घद्धं । एवं जाव - अणतपपसिया । ? ११५. [०] परमाणुपोग्गलस्स णं भंते! सज्ञेयस्स केवतियं कालं अंतरं छोइ ? [30] गोयमा ! सङ्काणंतरं पहुंच जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं; परट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं एवं चेव । ११६. [प्र० ] निरेयस्स केवतियं अंतरं होइ ? [३०] सङ्घातरं पहुच जणं एकं समयं उक्कोसेणं आवलियाए मसंखेजइभागं परद्वाणंतरं पडुच्च जहत्रेणं एकं समयं उक्कोसेणं असंखेजं कालं । 3 १०५. [प्र० ] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल केटला वखत सुधी सर्व अंशे कंपे ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्यातमा भाग सुधी सकंप होय. १०६. [प्र० ] ते केटला वखत सुधी निष्कंप रहे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक समय सुधी अने उत्कृष्ट असंख्यात काळ सुधी निष्कंप रहे. १०७. [प्र० ] हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंध केटला काळ सुधी देशथी-अमुक अंशे कंपे ! [उ०] हे गौतम! ते जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्यातमा भाग सुधी देशथी कंपे. १०८. [प्र० ] हे भगवन् ! ते केटला बखत सुधी सर्व अंशे कंपे ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट आव ठिकाना असंख्यातमा भाग सुधी सर्व अंगे कंपे. १०९. [प्र० ] हे भगवन् ! ते केटला काळ सुधी निष्कंप रहे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट असंख्य काळ सुधी निष्कंप रहे. ए प्रमाणे यावत् - अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवुं. ११०. [प्र०] हे भगवन् | परमाणुपुङ्गलो केला काळ सुधी सर्व अंगे कंपे [उ०] हे गौतम! तेओ सदा काळ कंपे. १११. [प्र०] हे भगवन् ! तेओ केटला काळ सुधी निष्कंप रहे ? [उ०] हे गौतम! तेओ बधो काळ निष्कंप रहे. ११२. [प्र०] हे भगवन् ! बे प्रदेशवाळा स्कंधो केटला वखत सुधी देशथी कंपे ? [उ०] हे गौतम! तेओ बधो काळ देशथी कंपे. ११३. [प्र०] तेओ केला बखत सुधी सर्व अंधे कंपे [उ०] हे गौतम! तेओ बधो काळ सर्व अंधे कंपे. ११४. [प्र०] तेओ केटला वखत सुधी निष्कंप रहे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ बधो काळ निष्कंप रहे. ए प्रमाणे यावत् - अनंत प्रदेशवाळा स्कंधो सुधी जाणवुं. ११५. [अ०] हे भगवन् ! सर्वांशे सर्वाप परमाणुपुङ्गलनु केटला का अंतर होय! [उ०] हे गौतम | स्वस्थानने आश्रयी जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट नसंख्यात काळनुं अंतर होय. तथा परस्थाननी अपेक्षाए जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट असंख्य काळं अंतर होय. - ११६. [प्र० ] हे भगवन् ! निष्कंप परमाणुपुद्गलनुं केटला काळनुं अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! स्वस्थानने आश्रयी जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्यातमा भागनुं अंतर होय. तथा परस्थानने आश्रयी जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट असंख्यात काळ अंतर होय. १ संखेजगुणा ग-घ. . Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११७. [प्र०] दुपएसियस्स णं भंते ! खंधस्स देसेयस्स केवतियं कालं अंतर होइ ? [उ०] सट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एवं समयं, उकोसेणं असंखेज कालं; परट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एवं समय, उक्कोसेणं अणंतं कालं । ११८. [प्र०] सव्वेयस्स केवतियं कालं० १ [उ०] एवं चेव जहा देसेयस्स। ११९. प्र०निरेयस्स केवतियं.? [उ.] सटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजहभाग, परटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं । एवं जाव-अणंतपएसियस्स। १२०. [प्र०] परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सवेयाणं केवतियं कालं अंतरं होइ ? [उ०] नत्थि अंतरं । १२१. [प्र०] निरेयाणं केवतियं० ? [उ०] नत्थि अंतरं । १२२. [प्र०] दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं देसेयाणं केवतियं कालं० १ [उ०] नत्थि अंतरं । १२३. [प्र०] सव्वेयाणं केवतियं कालं० १ [उ०] नत्थि अंतरं । १२४. [प्र०] निरेयाणं केवतियं कालं.१ [उ० नत्थि अंतरं । एवं जाव-अणंतपएसियाणं । १२५. प्रि०] एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सोयाणं निरेयाण य कयरे कयरे जाव-विसेसाहिया वा ? [उ.] गोयमा! सम्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सवेया, निरेया असंखेजगुणा । १२६. [प्र०] एएसि णं भंते ! दुपएसियाणं खंधाणं देसेयाणं, सवेयाणं, निरेयाण य कयरे कयरे जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा दुपएसिया खंधा सन्वेया, देसेया असंखेजगुणा, निरेया असंखेजगुणा । एवं आवअसंखेजपएसियाणं खंधाणं । ११७. [प्र०] हे भगवन् ! अंशतः सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! स्वस्थाननी अपे देशथी सकंप : दिप्रदेशिक स्कन्धर्नु क्षाए जघन्य एक समयनु, अने उत्कृष्ट असंख्यात काळनुं अंतर होय; तथा परस्थाननी अपेक्षाए जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट अनंत अंतर. काळनुं अंतर होय. ११८. [प्र०] हे भगवन् ! सर्व अंशे सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! देशथी-अमुक सर्वसकंप द्विप्रदेशिक स्कन्धन अंतर. अंशे सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधनी पेठे तेनुं अंतर जाणवू. अन्तर. ११९. [प्र०] हे भगवन् ! निष्कंप द्विप्रदेशिक स्कंधने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! स्वस्थाननी अपेक्षाए निष्कंप दिप्रदेशिकर्नु जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्यातमा भागर्नु; तथा परस्थाननी अपेक्षाए जघन्य एक समयनुं अने उत्कृष्ट अनंत काळजें अंतर होय. ए प्रमाणे यावत्-अनंतप्रदेशिक स्कंध सुधी जाणवं. १२०. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वाशे सकंप परमाणुपुद्गलोने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओने अंतर नथी. सकंप परमाणुओर्नु १२१. [प्र०] हे भगवन् ! निष्कंप परमाणुपुद्गलोने केटला काळजें अंतर होय ? [उ०] हे गौतम ! तेओनुं अंतर नथी. अकंप परमाणुओर्नु अंतर. . १२२. [प्र०] हे भगवन् ! अमुक अंशे सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधोने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओने अंशतः सफंप दिनअंतर नथी. देशिक स्कन्धोर्नु अंतर. १२३. [१०] हे भगवन् ! सर्वाशे सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधोने केटला काळनुं अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओने सर्वतः सकंप दिप्रदे शिक स्कन्धोर्नु अंतर नथी. अंतर. १२४. [प्र०] हे भगवन् ! निष्कंप द्विप्रदेशिक स्कंधोने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओने अंतर नथी, निष्कंप दिप्रदेशिक ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंधो सुची समजवु. स्कन्ध अन्तर. १२५. [प्र०] हे भगवन् ! सकंप अने निष्कंप ए परमाणुपुद्गलोमां कया परमाणुपुद्गलो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक होय! सकंप अने निष्कंप [उ.०] हे गौतम | सकंप परमाणुपुद्गलो सौथी थोडा छे, अने तेथी निष्कंप परमाणुपुद्गलो असंख्यातगुणां छे. परमाणुओर्नु अल्प बहुत्व. १२६. [प्र०] हे भगवन् ! ९ अंशतः सकंप, सर्वांश सकंप अने अकंप द्विप्रदेशिक स्कन्धोमां कया स्कन्धो कोनाथी यावत्- सर्व.प अने निष्कंप विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम ! सर्वाश सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधो सौथी थोडा छे, तेथी अंशतः सकंप द्विप्रदेशिक स्कंधो असंख्यात ' अल्पबदुत्व. गुणा छे अने तेथी अकंप द्विप्रदेशिक स्कंधो असंख्यातगुणा छे. ए प्रमाणे यावत्-असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो सुधी जाणवू. ३० भ० सू० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ४. १२७. [प्र०] एएसि णं भंते ! अणंतपएसियाणं खंधाणं देसेयाणं, सोयाणं, निरेयाण य कयरे कयरे० जाव-विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा अणंतपएसिया खंधा सचेया, निरेया अणंतगुणा, देसेया अणंतगुणा। १२८. प्र० एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपएसियाणं, असंखेजपएसियाणं, अणंतपएसियाण य खंधाणं देसेयाणं, सोयाणं, निरेयाणं दबट्टयाए, पएसट्टयाए, दचट्ठपएसठ्ठयाए कयरे कयरे-जाव-विसेसाहिया वा[उ.] गोयमा। सच्चत्थोवा अणंतपएसिया खंधा सच्चेया दखट्टयाए १, अणंतपएसिया खंधा निरेया दचट्टयाए अणंतगुणा २, अणंतपएसिया खंधा देसेया दवट्ठयाए अणंतगुणा ३, असंखेजपएसिया खंधा सव्वेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा ४, संखेजपएसिया खंधा सोया दचट्ठयाए असंखेजगुणा ५, परमाणुपोग्गला सच्चेया दधट्टयाए असंखेजगुणा ६, संखेजपएसिया खंधा देसेया दधट्रयाए असंखेजगुणा ७, असंखेजपएसिया खंधा देसेया दबट्टयाए असंखेजगुणा ८, परमाणुपोग्गला निरेया दखट्टयाए असंखेजगुणा ९, संखेजपएसिया खंधा निरेया दवट्टयाए संखेजगुणा १०, असंखेजपएसिया खंधा निरेया दट्टयाए असंखेजगुणा ११ । पदेसट्टयाए-सवत्थोवा अणंतपदेसिया० । एवं पएसट्टयाए वि । नवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए भाणिया। संखेजपएसिया खंधा निरेया पएसट्टयाए असंखेजगुणा; सेसं तं चेव । दवट्ठपएसट्टयाए-सवत्थोवा अणंतपएसिया खंधा सोया दचट्ठयाए १, ते चेव पएसटुयाए अणंतगुणा २, अणंतपएसिया खंधा निरेया दट्टयाए अणंतगुणा ३, ते चेव पएसट्ठयाए अणंतगुणा ४, अणंतपएसिया खंधा देसेया दचट्ठयाए अणंतगुणा ५, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा ६, असंखेजपएसिया खंधा सोया दचट्ठयाए अणंतगुणा ७, ते चेव पएसट्ठयाए असंखेजगुणा ८, संखेजपएसिया खंधा सधेया दधट्टयाए असंखेजगुणा ९, ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा १०, परमाणुपोग्गला सवेया दचट्ठअपएसट्टयाए असंखेजगुणा ११, संखेजपएसिया खंधा देसेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा १२, ते चेव पएसट्टयाए संखेजगुणा १३, असंखेजपएसिया खंधा देसेया दचट्ठयाए असंखेजगुणा १४, ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा १५, परमाणुपोग्गला निरेया दट्टअपदेसट्टयाए असंखे अनन्तप्रदेशिकर्नु अल्पबहुत्व. १२७. [प्र०] हे भगवन् ! अंशत: सकंप, सर्वांश सकंप अने अकंप अनंत प्रदेशिक स्कंधोमां कया स्कन्धो कोनाथी यावत्विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! सर्वांश सकंप अनंतप्रदेशिकं स्कंधो सौथी थोडा छे, तेथी निष्कंप अनंत प्रदेशिक स्कंधो अनंतगुणा छे, अने तेथी अंशतः सकंप अनंतप्रदेशिक स्कंधो पण अनंतगुणा छे. द्रव्यार्थादिरूपे पर- १२८. [प्र०] हे भगवन् ! अंशतः सकंप, सर्वाश सकंप अने निष्कंप परमाणुपुद्गलोना संख्यात प्रदेशिक स्कंधो, असंख्यात माणु वगैरेनु अल्प- प्रदेशिक स्कंधो तथा अनंतप्रदेशिक स्कंधोमां द्रव्यार्थपणे, प्रदेशार्थपणे अने द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थपणे कया स्कन्धो कोनाथी यावत्बहुत्व. विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! १ सर्वांश सकंप अनंतप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे सौथी थोडा छे. २ निष्कंप अनंतप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणा छे. ३ अंशतः सकंप अनंत प्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणा छे. ४ सर्वांश सकंप असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुण छे. ५ सर्वाशे सकंप संख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ६ सर्वांशे सकंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ७ अंशतः सकंप संख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ८ अंशतः सकंप असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ९ निष्कंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १० निष्कंप संख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे संख्यातगुणा छे. ११ निष्कंप असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. प्रदेशार्थपणे-सर्वाशे सकंप अनंतप्रदेशिक स्कंधो प्रदेशार्थपणे सौथी थोडा छे. ए प्रमाणे प्रदेशार्थपणे पण जाणवू. विशेष ए के, परमाणुपुद्गलो अप्रदेशार्थपणे कहेवां. संख्यातप्रदेशिक निष्कंप स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. द्रव्यार्थप्रदेशार्थपणे-१ सर्वाशे सकंप अनंतप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे सौथी थोडा छे. २ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे अनंतगुणा छे. ३ अनंतप्रदेशिक निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणा छे. अने ४ तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे अनंतगुणा छे. ५ अंशतः सकंप अनंतप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणा छे. ६ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे अनंतगुणा छे. ७ सर्वाशे सकंप असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे अनंतगुणा छे. ८ अने तेज प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. ९ सर्वाशे सकंप संख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १० अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे संख्यातगुणा छे. ११ सर्वाशे सकंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १२ अंशतः सकंप संख्यात प्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १३ अने तेज कंधो प्रदेशार्थपणे संख्यातगुणा छे. १४ अंशतः सकंप असंख्यातप्रदेशिक स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १५ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १६ निष्कंप परमाणुपुद्गलो द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १७ संख्यातप्रदेशिक निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे संख्यातगुणा संखेजगुणा घ-छ। २ असंखेज-घ। Jain Education international Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३५ जगुणा १६, संखेजपएसिया खंधा निरेया दधट्टयाए संखेजगुणा १७, ते चेव पएसट्टयाए संखेजगुणा १८, असंखेजपएसिया निरेया घट्टयाए असंखेजगुणा १९, ते चेव पएसट्टयाए असंख्नेजगुणा २०। ' __१२९. [प्र०] कति णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता ! [उ०] गोयमा ! अट्ठ धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता। १३०. [प्र०] कति णं भंते ! अधम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता ? [उ०] एवं चेव । १३१. [प्र०] कति गं भंते ! आगासस्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता? [उ०] एवं चेव । १३२. [प्र०] कति णं भंते ! जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पनत्ता ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता। १३३. [प्र०] एए णं भंते ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा कतिसु आगासपएसेसु ओगाहंति ? [उ०] गोयमा ! जहनेणं एकसि वा दोहि वा तीहि वा चउहि वा पंचहिं वा छहिं वा उक्कोसेणं असु, नो चेव णं सत्तसु । 'सेवं भंते सेवं मंते! ति। पणवीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो। छे. १८ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे संख्यातगुणा छे. १९ असंख्यात प्रदेशिक निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. २० अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे. १२९. [प्र०] *हे भगवन् ! धर्मास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे! [उ० हे गौतम ! धर्मास्तिकायना *आठ मध्य प्रदेशो धर्मास्तिकायना कह्या छे. मध्य प्रदेशो. १३०. [प्र०] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू. अधर्मास्तिकायना मध्य प्रदेशो. १३१. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू. प्रदेशो. १३२. [प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवास्तिकायना आठ मध्य जीवना मध्य प्रदेशो. प्रदेशो कह्या छे. १३३. [प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायना ए आठ मध्य प्रदेशो आकाशास्तिकायना केटला प्रदेशोमा समाइ शके: उ०] हे जीवना मध्य प्रदे शोनी भवगाना. गौतम! ते जघन्य एक, बे, त्रण, चार, पांच, अने छ प्रदेशमा समाय तथा उत्कृष्ट आठ प्रदेशमा समाय, पण सात प्रदेशमा न समाय...' 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. पचीशमां शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. माकाशना मध्य पंचमो उद्देसो। १. [प्र०] कतिविहा गं भंते ! पजवा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पजवा पनत्ता, तंजहा-जीवपजवा य अजीवपजवा य । पजवपदं निरवसेसं भाणियचं जहा पन्नवणाए । पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! पर्यवो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उन हे गौतम ! पर्यवो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणेजीवपर्यवो अने अजीवपर्यवो. अहिं प्रज्ञापनासूत्रनुं समन पर्यवपद कहे. १ ओगाढा होति छ। १२९. * 'धर्मास्तिकायना आठ मध्य प्रदेशो आठ रुचकप्रदेशवर्ती होय छे, 'एम चूर्णिकार कहे छ, भने ते रुचकप्रदेशो मेरुना मूळभागना मध्यवर्ती छ. यद्यपि धर्मास्तिकायादि लोकप्रमाण होवाथी तेनो मध्य भाग रुचकथी असंख्य योजन दूर रत्नप्रभाना आकाशनी अंदर आवेलो छ, रुचकवर्ती नथी, तो पण दिशा अने विदिशानी उत्पत्तिस्थान रुचक होवाथी धर्मास्तिकायादिना मध्य तरीके तेनी विवक्षा करी होय एम संभवे छे.-टीका. १३३ + जीवप्रदेशोनो संकोच अने विकास धर्म होवाथी तेना मध्यवर्ती आठ प्रदेशो जघन्यथी एक आकाशप्रदेशथी मांडी छ आकाशप्रदेशमा रही . शके छे अने उत्कृष्ट आठ आकाश प्रदेशमा रहे छे, पण वस्तुखभावथी सात आकाशप्रदेशने आश्रयी रहेता नथीं.-टीका. . १ पर्यव-गुण, धर्म, विशेष. जीवपर्यव-जीवधर्म, अजीवपर्यव-अजीवधर्म. ते धर्मो अनन्त होय छे. जुओ प्रज्ञा० पद ५५० १७९-२०॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवलिका श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ५. २. प्र० आवलिया णं भंते ! कि संखेजा समया, असंखेजा समया, अणंता समया? [उ०] गोयमा! नो संखेजा समया, असंखेजा समया, नो अणंता समया । ३. प्र०] आणापाणू णं भंते ! किं संखेजा.? [उ.] एवं चेव । ४. [प्र०] थोवे णं भंते ! कि संजा० ? [उ.] एवं चेव । एवं लवे वि; मुहुत्ते वि; एवं अहोरत्ते, एवं पक्ने, मासे, उऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससये, वाससहस्से, वाससयसहस्से, पुवंगे, पुवे, तुडियंगे, तुडिप, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अववे, हुयंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, नलिणंगे, नलिणे, अच्छणिपूरंगे, अच्छणिपूरे, अउयंगे, भउये, नउयंगे, नउए, पउयंगे, पउए, चूलियंगे, चूलिए, सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, एवं उस्सप्पिणी वि । ५. [प्र०] पोग्गलपरियट्टे णं भंते ! किं संखेज़ा समया, असंखेजा समया, अणंता समया-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो संखेजा समया, नो असंखेजा समया, अणंता समया। एवं तीयद्धा, अणागयद्धा, सधद्धा । ६. [प्र०] आवलियाओ णं भंते ! किं संखेजा समया-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! नो संस्त्रेजा समया, सिय असंत्रेजा. समया, सिय अणंता समया। ७. [प्र०] आणापाणू णं भंते ! किं संखेजा समया ३ ? [उ०] एवं चेव । ८. [प्र०] थोवा णं भंते ! किं संखेजा समया ३ ? [उ०] एवं चेव । एवं जाव-'ओसप्पिणीओ' त्ति । ९. [प्र०] पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! किं संखेजा समया-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो संखेजा समया, णो असंत्रेजा समया, अणंता समया। १०. [प्र०] आणापाणू णं भंते ! किं संखेजाओ आवलियाओ-पुच्छा। [उ०] गोयमा! संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखेजाओ आवलियाओ, नो अणंताओ आवलियाओ । एवं थोवे वि, एवं जाव-'सीसपहेलिय' ति। . २. [प्र०] हे भगवन् ! आवलिका संख्याता समयरूप छे, असंख्याता समयरूप छे के अनंत समयरूप छे ? [उ०] हे गौतम ! आवलिका संख्याता समयरूप नथी, तेम अनंत समयरूप पण नथी, परंतु असंख्याता समयरूप छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! आनप्राण-श्वासोच्छ्रास ए शुं संख्याता समयरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. ४. [प्र०] हे भगवन् ! स्तोक संख्याता समयरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू. अने ए प्रमाणे लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन , संवत्सर, युग, सो वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वीग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट; अवांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अच्छनिपूरांग, अच्छनिपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणीना समयो संबंधे पण जाणवू. अर्थात्-एमांना प्रत्येकना असंख्याता समयो छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्त ए शुं संख्याता समयरूप छे, असंख्याता समयरूप छे के अनंत समयरूप छे! [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता समयरूप नथी, असंख्याता समयरूप नथी, पण अनंत समयरूप छे. ए प्रमाणे भूतकाळ, भविष्यत्काळ तथा सर्वकाळ विषे पण जाणवु. ६. [प्र०] हे भगवन् ! आवलिकाओ \ संख्याता समयरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | आवलिकाओ संख्याता समयरूप नथी, पण कदाच असंख्याता समयरूप होय, अने कदाच अनंत समयरूप होय. ७. [प्र०] हे भगवन् ! आनप्राणो अ॒ संख्याता समयरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवं. ८. [प्र०] हे भगवन् ! स्तोको शुं संख्याता समयरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. अने ए प्रमाणे यावत्-अवसर्पिणीओ सुधी समजवू. ९. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तो ए शुं संख्याता समयरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! संख्याता समयरूप नथी, असंख्याता समयरूप नथी, पण अनंत समयरूप छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! आनप्राण ए शुं संख्याती आवलिकारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याती आवलिकारूप. छे, पण असंख्याती के अनंत आवलिकारूप नथी. ए प्रमाणे स्तोक संबंधे पण जाणवू. यावत्-शीर्षप्रहेलिका सुधी पण एम जाणवू. । अश्छिणितपूरंगे अपिछणिउपूरे ग, अच्छिणिपूरंगे अस्किणिपूरे छ । भानप्राणादि. पुगटपरिवर्त. भावलिकाओ. भानप्राणो. स्त्रोको. पुछपरिवतो. मानप्राण. Jain Education international Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ शंसक २५.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११. [प्र०] पलिओवमे णं भंते ! किं संस्नेजा ३-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, असंडेजाओ आवलियाओ, नो अणंताओ आवलियाओ । एवं सागरोवमे वि; एवं ओसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि। १२.प्र. पोग्गलपरियट्टे-पुच्छा। [उ.] गोयमा! नो संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखेजाओ भावलियामो. अणंताओ आवलियाओ। एवं जाव-सव्वद्धा। १३. [प्र०] आणापाणू णं भंते ! किं संखेजाओ आवलियाओ-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय संखेजाओ आवलियाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ । एवं जाव-सीसपहेलियाओ। १४.०] पलिओवमा णं-पुच्छा। उ०] गोयमा! णो संखेजाओ आवलियाओ, सिय असंखेजाओ आवलियाओ, सिय अणंताओ आवलियाओ। एवं जाव-उस्सप्पिणीओ। १५. [प्र०] पोग्गलपरियहाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखेजाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ। १६. [प्र०] थोवे णं भंते ! किं संखेजाओ आणापाणूओ, असंखेजाओ० ? [उ०] जहा आवलियाए वत्तवया एवं आणापाणूओ वि निरवसेसा । एवं एतेणं गमएणं जाव-सीसपहेलिया भाणियचा । १७. [प्र०] सागरोवमे गं भंते ! किं संखेजा पलिओवमा?-पुच्छा! [उ.] गोयमा! संखेजा पलिओवमा, णो असंखेजा पलिओवमा, णो अणंता पलिओवमा । एवं ओसप्पिणीए कि, उस्सप्पिणीए वि । १८. [प्र०] पोग्गलपरियट्टे णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो संखेजा पलिओवमा, णो असंखेजा पलिओवमा, अणंता पलिओवमा । एवं जाव-सव्वद्धा । १९. [प्र०] सागरोवमा णं भंते ! किं संखेजा पलिओवमा-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सिय संखेजा पलिओवमा, सिय असंखेजा पलिओवमा, सिय अणंता पलिओवमा । एवं जाव-ओसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि । ११. [प्र०] हे भगवन् । पल्योपम शुं संख्याती आवलिकारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते संख्याती आवलिकारूप पल्योपम. नथी, तेम अनंत आवलिकारूप नथी, पण असंख्याती आवलिकारूप छे. ए प्रमाणे सागरोपम, अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणी संबंधे पण जाणवू. १२. [प्र०] पुद्गलपरिवर्त केटली आवलिकारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याती आवलिकारूप नथी, असंख्याती पुद्गलपरिवर्त. आवलिकारूप नथी, पण अनंत आवलिकारूप छे. ए प्रमाणे यावत्-सर्वाद्धा सुधी जाणवू. १३. [प्र०] हे भगवन् ! आनप्राणो अ॒ संख्याती आवलिकारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कदाच संख्याती आव- आनप्राणो. लिकारूप होय, कदाच असंख्याती आवलिकारूप पण होय अने कदाच अनंत आवलिकारूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-शीर्षप्रहेलिका सुधी जाणवू. १४. [प्र०] हे भगवन् ! पल्योपमो शुं संख्याती आवलिकारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याती आवलिकारूप नथी, पण कदाच असंख्याती अने कदाच अनंत आवलिकारूप छे. ए प्रमाणे यावत्-उत्सर्पिणीओ सुधी जाणवू. १५. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तो शुं संख्याती आवलिकारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! संख्याती आवलिकारूप पुद्गलपरिवर्तो. नथी, असंख्याती आवलिकारूप नथी, पण अनंत आवलिकारूप छे. १६. [प्र०] हे भगवन् ! स्तोक शुं संख्याता आनप्राणरूप छे के असंख्याता आनप्राणरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम आवलिका स्तोकसंबंधे वक्तव्यता कही तेम बधी आनप्राण संबधे पण जाणवी. ए प्रमाणे ए पूर्वोक्त गम-पाठवडे यावत्-शीर्षप्रहेलिका सुधी समजवु. . . १७. [प्र०] हे भगवन् ! सागरोपम शुं संख्याता पल्योपमरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता पल्योपमरूप छे, सागरोपमपण असंख्याता के अनंत पल्योपमरूप नथी. ए प्रमाणे अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणी संबन्धे पण जाणवं. १८. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिषर्त शुं संख्याता पल्योपमरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! संख्याता के असंख्याता पुद्गलपरिवर्त. पल्योपमरूप नथी, पण अनंत पल्योपमरूप छे. ए प्रमाणे यावत्-सर्वाद्धा सुधी जाणवू. .. १९. [प्र०] हे भगवन् ! सागरोपमो शुं संख्याता पल्योपमरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कदाच संख्याता पल्योपम- सागरोपमो. रूप होय छे, कदाच असंख्याता पल्योपमरूप होय छे अने कदाच अनंत पल्योपमरूप पण होय छे. ए प्रमाणे यावत्-अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी संबंधे पण जाणवू. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रीरायचद्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ५. २०. [प्र०] पोग्गलपरियट्टा णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो संखेजा पलिओवमा, णो असंखेजा पलिओवमा, अणंता पलिओवमा। ___. २१. [प्र०] ओसप्पिणी णं भंते ! किं संखेजा सागरोवमा० ? [उ०] जहा पलिओवमस्स वत्तवया तहा सागरोवमस्स वि। २२. [प्र. पोग्गलपरियट्टे णं भंते । किं संखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ-पुच्छा । [उ०] गोयमा । णो संखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, णो असंखेजाओ, अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । एवं जाव-सधद्धा । २३. प्रि० पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि संखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ-पुच्छा । [उ०] गोयमा णो संखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, णो असंखेजाओ, अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। २४. [प्र०] तीतद्धा णं भंते! किं संखेजा पोग्गलपरियट्टा-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो संखेजा पोग्गलपरियट्टा, नो असंखेजा, अणंता पोग्गलपरियट्टा । एवं अणागयद्धा वि; एवं सचद्धा वि। २५. [प्र०] अणागयाधा णं भंते ! किं संखेजाओ तीतद्धाओ, असंखेजाओ, अणंताओ? [उ०] गोयमा ! णो संखेजाओ तीतद्धाओ, णो असंखेजाओ तीतद्धाओ, णो अणंताओ तीतद्धाओ। अणागयद्धा णं तीतद्धाओ समयाहिया, तीतद्धा णं अणागयद्धाओ समयूणा । २६. [प्र०] सधद्धा णं भंते ! कि संखेजाओ तीतद्धाओ-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! णो संखेजाओ तीतद्धाओ, णो असंखेजाओ, णो अणंताओ तीयद्धाओ। सवद्धाणं तीयद्धाओ सातिरेगदुगुणा, तीतद्धा णं सवद्धाओ थोवूणए अद्धे । पुद्गलपरिवतों. अवसर्पिणी. पुद्गलपरिवर्त. पुद्गलपरिवतो. २०. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तो शुं संख्याता पल्योपमरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता पल्योपमरूप नथी, असंख्याता पल्योपमरूप नथी, पण अनंत पल्योपमरूप छे. २१. [प्र०] हे भगवन् ! अवसर्पिणी शुं संख्याता सागरोपमो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेम पल्योपमनी वक्तव्यता कही तेम सागरोपमनी पण वक्तव्यता कहेवी. २२. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्त शुं संख्याती उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याती के असंख्याती उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीरूप नथी, पण अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीरूप छे. ए प्रमाणे यावत्-सर्वाद्धा सुधी जाणवू. २३. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तो शुं संख्याती उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओ छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याती के असंख्याती उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओ नथी, पण अनंत उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओ छे. २४. [प्र०] हे भगवन् ! अतीताद्धा-भूतकाळ ए शुं संख्याता पुद्गलपरितों छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता के असंख्याता पुद्गलपरिवर्ती नथी, पण अनंत पुद्गलपरिवर्तो छे. ए प्रमाणे अनागत काळ अने सर्वाद्धा विषे पण जाणवू. २५. [प्र०] हे भगवन् ! अनागताद्धा-भविष्यत्काळ शुं संख्याता *अतीताद्धारूप छे, असंख्याता अतीताद्धारूप छे के अनंत अतीताद्धारूप छे ! [उ०] हे गौतम ! भविष्यत्काळ संख्याता अतीताद्धा, असंख्याता, के अनंत अतीताद्धारूप नथी, पण अतीताद्धा-भूतकाळयी अनागताद्धा-भविष्यत्काळ एक समय अधिक छे अने भविष्य काळ करतां भूतकाळ एक समय न्यून छे.. २६. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वाद्धा संख्याता अतीताद्धारूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! संख्याता, असंख्याता के अनंत अतीताद्धारूप नथी, किंतु अतीताद्धा-भूतकाळ करतां सर्वाद्धा काईक अधिक बमणो छे, अने अतीताद्धा-भूतकाळ सर्वाद्धा करता काइक न्यून अर्धभागरूप छे. अतीताद्धा. अनागताद्धा. सर्वात. २५ * अतीताद्धाथी अनागताद्धा समयाधिक छे, कारण के अतीतकाळ अने अनागत काळ अनादिपणाथी अने अनन्तपणाथी समान छे, ते बन्नेनी बच्चे भगवंतनो प्रश्न समय छे अने ते अविनष्ट होवाथी अतीतकाळमां तेनो समावेश थतो नथी, पण अविनष्टत्व धर्मना साधर्म्यथी तेनो अनागत काळा समावेश थाय छे. माटे अतीतकाळथी अनागतकाळ समयाधिक छे, अने अनागत काळथी अतीतकाळ समय न्यून छे. २६ । सर्वाद्धा अतीतकाळ करतां वर्तमान समय अधिक बमणो छे, अने अतीतकाळ सर्वाद्धा करता समय न्यून अर्ध भागरूप छे. अहिं कोइ आचार्य कहे छे के अतीतकाळथी अनागतकाळ अनन्त गुण छे, "तेणता तीअद्धा अणागयद्धा अनन्तगुणा" । अनन्त पुद्गल परावर्तरूप अतीताद्धा छे, तेथी अनन्तगुण अनागताद्धा छे. जो वर्तमान समये अतीतकाळ अने अनागत काळ सरखा होय तो वर्तमान समयनो अतिक्रम थतां अनागतकाळ एक समय न्यून थशे, अने पछी बे, त्रण, चार इत्यादि समयो घटता तेनुं सरखापणुं रहेशे नहि, माटे बन्ने काळ समान नधी, पण अतीतकाळथी अनागत काळ अनन्तगुण छे. तेथी अनन्त काळनो अतिक्रम थवा छतां तेनो क्षय यतो नथी." तेनो उत्तर ए छे के अतीतकाळ अने अनागत काळर्नु समानपणुं कहेवामां आवे छे ते अनादित्व अने अनन्तत्ववडे विवक्षित छे. जेम अतीतकाळनी आदि नथी, तेम अनागत काळनो अन्त नथी, माटे बन्नेनुं सरखापणुं छे.-टीका.. .. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३९ २७. [प्र०] सचद्धा णं भन्ते ! कि संखेजाओ अणागयद्धाओ-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो संखेजाओ अणागयद्धाओ, णो असंखेजाओ अणागयद्धाओ, णो अणंताओ अणागयद्धाओ । सम्बद्धा णं अणागयद्धाओ थोवूणगदुगुणा, अणागयद्धा णं सधद्धाओ सातिरेगे अद्धे । ___२८. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! णिओदा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा णिओदा पन्नत्ता। तंजहा-णिओयगा य णिओयगजीवा य। २९. [प्र०] णिओदा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा पनत्ता, तंजहा-सुटुमनिगोदा य थायरनिओगा य, एवं निओगा भाणियधा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं । ३०. [प्र०] कतिविहे गं भंते ! णामे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! छबिहे णामे पन्नत्ते, तंजहा-१ओदइए, जाव-६सन्निवाइए । [प्र०] से किं तं उदइए णामे ? [30] उदइए णामे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-उदए य उदयनिष्फन्ने य-एवं जहा सत्तरसमसए पढमे उद्देसए भावो तहेव इह वि । नवरं इमं नामणाणतं, सेसं तहेव, जाव-सन्निवाइए । 'सेवं भंते! सेवं भंते !ति। पणवीसइमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो। २७. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वाद्धा शुं संख्याता अनागताद्धा-भविष्यत्काळ रूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते संख्याता, सर्वाचा अने भविष्यकाळ. असंख्याता के अनंत अनागताद्धारूप नथी, किंतु भविष्यत्काळ करतां सर्वाद्धा कांईक न्यून बमणो छे, अने अनागताद्धा सर्वाद्धा करतां कांइक अधिक अरधो छे. २८. [प्र०] हे भगवन् ! निगोदो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! निगोदो वे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे- . निगोदना प्रकार. *निगोदो अने निगोदजीवो. २९. [प्र०] हे भगवन् । निगोदो केटला प्रकारना कह्या छे ! (उ०] हे गौतम ! निगोदो बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे- निगोदोना प्रकार. सूक्ष्मनिगोद अने बादरनिगोद. ए प्रमाणे जिीवाभिगम सूत्रमा कह्या प्रमाणे बधा निगोदो कहेवा. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! नाम-भाव केटला प्रकारचं का छे ! [उ०] हे गौतम ! नाम-भाव छ प्रकारचें कयुं छे. ते आ नामना प्रकार. प्रमाणे-१ औदयिक, यावत्-६ सांनिपातिक. [प्र०] हे भगवन् ! औदयिक नाम-भाव केटला प्रकारनुं छे? [उ०] हे गौतम ! औदयिक नाम बे प्रकारचें कर्तुं छे. ते आ प्रमाणे-उदय अने उदयनिष्पन्न. ए प्रमाणे बधुं सत्तरमा शतकना प्रथम उद्देशकमां भाव संबन्धे कयुं छे ते प्रमाणे अहिं पण कहे. पण तेमां विशेष आ प्रमाणे छे-त्यां भाव संबन्धे कयुं छे अने अहीं नाम संबंधे यावत्-सांनिपातिक सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे. छे. पचीशमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. छट्टओ उद्देसो। पन्नवण १ वेद २ रागे ३ कप्प ४ चरित्त ५ पडिसेवणा ६ णाणे ७। तित्थे ८ लिंग ९ सरीरे १० खेत्ते ११ काल १२ गइ १३ संजम १४ निगासे १५ ॥१॥ जोगु १६ वओग १७ कसाए १८ लेसा १९ परिणाम २० बंध २१ वेदे २२ य । कम्मोदीरण २३ उवसंपजहन्न २४ सन्ना २५ य आहारे २६ ॥२॥ भव २७ आगरिसे २८ कालं २९ तरे ३० य समुग्धाय ३१ खेत्त ३२ फुसणा य ३३ । भावे ३४ परिमाणे ३५ वि य अप्पाबहुयं ३६ नियंठाणं ॥३॥ छटो उद्देशक. आ उद्देशकमां निम्रन्थोने विषे नीचे दर्शावेला छत्रीश विषयो कहेवाना छे-१ प्रज्ञापन, २ वेद, ३ राग, ४ कल्प, ५ चारित्र; ६ प्रतिसेवना, ७ ज्ञान, ८ तीर्थ, ९ लिंग, १० शरीर, ११ क्षेत्र, १२ काळ. १३ गति. १४ संयम. १५ निकाश-संनिकर्ष. १६ योग, १७ उपयोग, १८ कषाय, १९ लेश्या, २० परिणाम, २१ बन्ध, २२ वेद-कर्म- वेदन, २३ उदीरणा, २४ उपसंपद्-हान (खीकार अने त्याग), २५ संज्ञा, २६ आहार, २७ भव, २८ आकर्ष, २९ काळमान, ३० अन्तर, ३१ समुद्धात, ३२ क्षेत्र ३३ स्पर्शना, ३४ भाव, ३५ परिमाण, अने ३६ अल्पबहुत्व. २९* अनन्तकायिक जीवना शरीरने निगोद कहेवामां आवे छे भने अनन्तकायिक जीवोने निगोदना जीवो कहे छे. चर्मचक्षुथी जे शरीरो देखी शकाय ते वादर निगोद भने जे देखी न शकाय तेने सूक्ष्म निगोद कहे छे. २९ जीवा० प्रति०५ उ०प०४२३-२१३० जुओ भगश.१७उ०१पृ. ३२. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रशापननिर्धन्थना प्रकार पुलाकना प्रकार. बकुशना प्रकार. कुशीलना प्रकार. प्रतिसेवना कुशीलना प्रकार. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २५. - उद्देशक ६. - १. [प्र०] रायगि जाय एवं वयासी कति मं भंते! वियंडा पक्षता १ [30] गोवमा ! पंच णियंडा पद्मत्ता, तंजा१ पुलाए, २ बउसे ३ कुसीले ४ नियंडे, सिणाए । 1 २४० २. [अ०] पुला भंते! कतिविधे पद्मते [४०] गोयमा 1 पंचविहे पनते, संजदा १ नाणपुलाप, २ दंसणपुलाए, ३ चरित्तपुलाए, ४ लिंगपुलाए, ५ अहासुद्दुमपुलाए णामं पंचमे । ३. [प्र०] वउसे णं भंते ! कतिविहे पत्ते ? [अ०] गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा - १ आभोगबउसे, २ अणाभो गवसे, ३ संबुडपडसे, ४ असंयुडपउसे ५ अहासुमउसे नामं पंचमे । I , दुविदे पत्ते, तंजा-पडिसेवणाकुसीले य कसाय ४. [प्र० ] कुसीले णं भंते! कतिविहे पद्मते ? [४०] गोषमा कुसीले प ५. [प्र०] पडिलेवणाकुसीले मं भंते! कतिविहे पचते ? [४०] गोयमा पंचविहे पचते, तंजदा-१ नाणपडिसेबणाकुसीले २ दंसणपडिलेवणाकुसीले ३ परितपडिसेवणाकुसीले ४ लिंगपडिसेयणाकुलीले ५ अहासुमपडिसेवणाकुसीले णामं पंचमे । १. [प्र०] राजगृह नगरमां [ भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! निर्ग्रन्थो केटला कह्या छे ! [ उ० ] हे गौतम! निर्ग्रन्थो पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे- * १ पुलाक, २ बकुश, ३ कुशील, ४ निर्ग्रन्थ अने ५ स्नातक. २. [प्र० ] हे भगवन् ! पुलाकना केटला प्रकार का छे! [व] हे गौतम! पुढाकना पांच प्रकार का छे. ते आ प्रमाणे१ ज्ञानपुलाक, २ दर्शनाक, १ चारित्रपुलाक, ४ डिंगपुलाक भने ५ यथासूक्ष्मपुलाक. ३. [ प्र० ] हे भगवन् ! बकुशना केटला प्रकार कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! बकुशना पांच प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणे१ आभोगवकुश, २ अनाभोगवकुश, २ संवृतवकुश, ४ असंवृतवकुश अने ५ पांचो यथासूक्ष्मवकुवा. ४. [ प्र० ] हे भगवन्! कुशीलना केटला प्रकार कह्या छे ! [ उ०] हे गौतम ! कुशीलना बे प्रकार कक्षा छे, ते आ प्रमाणे " प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील. ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! प्रतिसेवनाकुशीलना केटला प्रकार कह्या छे ? [अ०] हे गौतम ! प्रतिसेवनाकुशीलना पांच प्रकार कक्षा छे, ते आ प्रमाणे- ३१ ज्ञानप्रतिसेवनाकुशी २ दर्शनप्रति सेवनाकुशील, ३ चारित्रप्रतिसेवनाकुशल, ४ लिंगप्रतिसेवनाकुशील अने ५ पांचमो यथासूक्ष्मप्रति सेयनाकुशील. १• बाह्य अने अभ्यन्मार ग्रन्थ-परिग्रहरहित निर्मन्थ का साधुओं कवाव से बचाने सर्वमिति चारित्र छतां चारित्रमोहनीय कर्मनासयोपशमाविशेषताकादि पांच मेदोछे. पुलाक निःसार धान्यनो कण, तेनी पेठे संगमसाररहित हवा. ते संगमया छत दोष के संवमने कईक असार करे छे. चित्र वर्ण, रोनुं चारित्र विचित्र होते वकुश कद्देवाय छे. दोषना संबन्धवी जेतुं शील कुलित मलिन के से कुशील. ग्रन्थ- मोहनीय रहित ते निर्मन्थ अने घाती कर्मनुं क्षालन करवाथी स्नात- शुद्ध थयेल ते स्नातक कहेवाय छे. पुलाकना ने प्रकार छे- लब्धिपुलाक अने प्रतिसेवालाला जे पोतानी सन्धिवी संपादिना कार्यनिमिते क्रर्तिनो पण नाश करे. अन्य आचार्यो का प्रमाणे कहे छे- 'प्रतिसेवनथी - विराधनाथी जे ज्ञानपुलाक छे तेने ज आवी लब्धि होय छे अने तेज लब्धिपुलाक कहेवाय छे. ते सिवाय बीजो कोइ लब्धिपुलाक नथी. t २ प्रतिसेवनापुलाकने आश्रयी पुलाकना पांच प्रकार छे. ज्ञाननी विराधना करनार ज्ञानपुलाक. एवी रीते दर्शनादिपुलाक पण जाणवा खानानने शंकादिदूषणसम्यक्त्वने बने अहिंसादि मूलगुण राया उत्तरगुणनी मिराधनाथी चारित्रने विराधे छेदूषित करे ते अनुक्रमे ज्ञानपुलाक, दर्शनपुलाक अने चारित्रपुलाक जाणवा. जे निष्कारण अन्य लिंग धारण करे ते लिंगपुलाक, अने जे मनथी अकल्पित-सेववा अयोग्य . दोषोने रोने से चाय छे. टीका. ३ बकुशना बे प्रकार छे - उपकरणबकुश अने शरीरबकुश. जे वस्त्रपात्रादि उपकरणनी विभूषा करवाना स्वभाववाळो होय ते उपकरण कुश अने जे हाथ, पण मोरे शरीरना अवयवने सुशोभित राखे ते शरीरश आ बजे प्रकारना बकुशना पांच प्रकार -१ शरीर उपकरणादिने सुशो मित करवा साधुओने अयोग्य छे एम जाणवा छतां तेवा प्रकारनो दोष सेवे ते आभोगबकुश अने अजाणतां दोष सेवे ते अनाभोगवकुश चारित्रना अहिंसादि मूळ गुणो ने उत्तरगुणवडे को होय ते अने तेथी नि ते असत. आंख भने मुखने साफ रखना यथासूक्ष्मदेवाय छे. प्रतिरोवनाशी अने ज्वलन योति चार ४प्रतिरोधना विराधना कवि उत्तर गुणेनी निराधनागडे कुपील- दूषित पारि श्रवाळो कषायकुशील. ५ $ प्रतिसेवनाकुशीलना पांच प्रकार छे. ज्ञानादिवडे उपजीविका करनार ज्ञानादिकुशील कहेवाय छे. अने 'भा तपखी छे'- एवी प्रशंसाथी जे खुश भाग से यथासूला शीला . Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६. [40] कसायकुसीले णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ नाणकसायकुसीले, २ दसणकसायकुसीले, ३ चरित्तकसायकुसीले, ४ लिंगकसायकुसीले, ५ अहासुहुमकसायकुसीले णाम पंचमे । ७. [प्र०] नियंठे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ पढमसमयनियंडे, २ अपढमसमयनियंठे, ३ चरमसमयनियंठे, ४ अचरमसमयनियंठे, ५ अहासुहुमनियंठे णाम पंचमे । ८. [प्र०] सिणाए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ अच्छवी, २ असबले, ३ अकम्मसे, ४ संसुद्धनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, ५ अपरिस्सावी १ . : ९.०] पुलाए णं भंते ! किं सवेयए होजा, अवेदए होजा ? [उ०] गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेयए होजा'। १०. [प्र०] जइ सवेयए होजा किं इत्थिवेदए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसनपुंसगवेदए होजा? [उ.] गोयमा! नो इथिवेदए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसनपुंसगवेयए वा होजा। . ११. [प्र०] बउसे णं भंते ! किं सवेदए होजा, अवेदए होजा? [उ०] गोयमा ! सवेदए होजा, णो अवेदए होजा। १२. [प्र०] जइ सवेदए होजा किं इत्थिवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसनपुंसगवेदए होजा ? [उ०] गोयमा ! इत्थिवेयए वा होजा, पुरिसवेयए वा होजा, पुरिसनपुंसगवेयए वा होजा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। ६.प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशीलना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! *कषायकुशीलना पांच प्रकार कह्या छे. कषायकुशीलना ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानकषायकुशील, २ दर्शनकषायकुशील, ३ चारित्रकषायकुशील, ४ लिंगकषायकुशील अने पांचमो ५ यथासूक्ष्म प्रकार. कषायकुशील. ७. प्र० हे भगवन् ! निग्रंथना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ० हे गौतम | निग्रंथना पांच प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ निर्ग्रन्थना प्रकार. प्रिथमसमयवर्ती निग्रंथ, २ अप्रथमसमयवर्ती (प्रथम समय सिवायना समयोमा वर्तमान ) निग्रंथ, ३ चरमसमयवर्ती निग्रंथ, ४ अचरमसमयवर्ती (चरम समय सिवायना समयोमा वर्तमान) निग्रंथ अने पांचमो ५ यथासूक्ष्म निग्रंथ. ८. प्र०] हे भगवन् ! स्नातकना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! स्नातकना पांच प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ लातकना प्रकार. अच्छवी (शरीररहित, काययोगरहित ) २ अशबल-दोषरहित विशुद्ध चारित्रवाळो, ३ अकांश (घाती कर्मरहित ), ४ संशुद्ध ज्ञान अने दर्शनने धरनार-अरिहंत-जिन-केवली अने ५ पांचमो अपरिस्रावी (कर्मबन्धरहित ). ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक निम्रन्थ वेदसहित छे के वेदरहित छे ? [उ०] हे गौतम ! 'पुलाक वेदसहित छे, पण २ घेदद्वारवेदरहित नथी. पुलाकने वेद१०. [प्र०] हे भगवन् ! जो पुलाक वेदसहित छे तो शुं ते स्त्रीवेदवाळो छे, पुरुषवेदवाळो छे के पुरुषनपुंसकवेदवाळो छ ! [उ०] हे गौतम! ते स्त्रीवेदवाळो नथी, पण पुरुषवेदवाळो अने पुरुषनपुंसकवेदवाळो छे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! शुं बकुश वेदसहित छे के वेदरहित छ ? [उ०] हे गौतम ! बकुश वेदसहित छे, पण वेदरहित नथी. बकुश सवेद के वेदरहित! १२. [प्र०] हे भगवन् ! जो वकुश वेदसहित छे तो शुं ते स्त्रीवेदवाळो छ, पुरुषवेदवाळो छे के पुरुषनपुंसकवेदवाळो छ ! (उ०] हे गौतम! ते स्त्रीवेदवाळो, पुरुषवेदवाळो अने पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय छे. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. ६ * ज्ञान, दर्शन अने लिंग-वेशनो क्रोधमानादि कषायमा उपयोग करे ते अनुक्रमे ज्ञानकषायकुशील, दर्शनकषायकुशील अने लिंगकषायकुशील कहेवाय छे. कषायथी जे शाप आपे ते चारित्रकषायकुशील अने जे मात्र मनथी क्रोधादिने सेवे ते यथासूक्ष्मकषायकुशील कहेवाय छे. अथवा कपायोवडे ज्ञानादिनो विराधक ते ज्ञानादिकषायकुशील कहेवाय छे. + उपशांतमोह अने क्षीणमोह छद्मस्थनो काळ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण छ, तेना प्रथम समयमा वर्तमान प्रथमसमय निर्ग्रन्थ अने बाकीना समयमा वर्तमान अप्रथमसमय निर्घन्ध कहेवाय छे. एम उपशांतमोह अने क्षीणमोहना चरम समयमा वर्तमान चरम समयनिर्ग्रन्थ अने बाकीना समयमा वर्तमान अचरमसमयनिर्ग्रन्थ कहेवाय छे. सामान्यतः प्रथमादि समयनी विवक्षा सिवायनो निम्रन्थ यथासूक्ष्म निम्रन्थ कहेवाय छे. 41 कोइपण टीकाकारे अहिं के अन्यत्र स्नातकना अवस्थाकृत भेदोनी व्याख्या करी नथी, माटे शक-पुरन्दरादिनी पेठे तेओनो शब्दनयकृत भेद होय एम संभवे छे-टीका. ९ ॥ अहिं पुलाक, वकुश अने प्रतिसेवाकुशीलने उपशमणि अने क्षपकश्रेणिनो अभाव होवाथी तेओ अवेदक नथी. १. स्त्रीने पुलाकलब्धि होती नथी, पण पुलाकलब्धिवाळो पुरुष के पुरुष-नपुंसक होय छे. अहिं पुरुष छतां लिंगझेदादिवडे कृत्रिमनपुंसक होय ते पुरुषनपुंसक जाणवो, पण खरूपतः नपुंसकवेदवाळो न होय. ३१ भ. सू. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. १३. [प्र०] कसायकुसीले गं भंते ! किं सवेदए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सवेदए वा होजा, अवेदए वा होजा । १४. [प्र०] जइ अवेदए कि उवसंतवेदए, खीणवेदए होजा? [उ०] गोयमा! उवसंतवेदए वा खीणवेदए वा होजा। १५. [प्र०] जइ सवेयए होजा किं इत्थिवेदए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! तिसु वि जहा बउसो।। १६. [प्र०] णियंठे गं भंते ! किं सवेदए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! णो सवेयए होजा, अवेयर होजा। १७. [प्र०] जह अवेयए होजा कि उवसंत-पुच्छा । [उ०] गोयमा! उवसंतवेयए वा होजा, खीणवेयए वा होजा । १८. [प्र०] सिणाए णं भंते । किं सवेयए होजा.' [उ.] जहा नियंठे तहा सिणाए वि। नवरं णो उवसंतवेयए होजा, स्त्रीणवेयए होजा। १९. [प्र०] पुलाए णं भंते ! कि सरागे होजा, वीयरागे होजा ! [उ०] गोयमा ! सरागे होजा, णो बीयरागे होजा, पवं जाव-कसायकुसीले। २०. [प्र०] णियंठे णं भंते ! किं सरागे होजा-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो सरागे होजा, वीयरागे होजा । २१. [प्र०] जइ वीयरागे होजा किं उवसंतकसायवीयरागे होजा, खीणकसायवीयरागे होजा? [उ०] गोयमा। उवसंतकसायवीयरागे वा होजा, वीणकसायवीयरागे वा होजा । सिणाए एवं चेव । नवरं णो उवसंतकसायवीयरागे होजा, वीणकसायवीयरागे होजा ३। २२. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं ठियकप्पे होजा, अट्ठियकप्पे होजा? [उ०] गोयमा ! ठियकप्पे पा होजा, अट्ठियकप्पे वा होजा । एवं जाव-सिणाए। २३. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, कप्पातीते होजा ! [उ०] गोयमा ! नो जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, णो कप्पातीते होजा। कषायकुशील सदे- १३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कषायकुशील वेदसहित छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कषायकुशील 'वेदसहित पण होय दी के अवेदी? अने वेदरहित पण होय. १४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते वेदरहित होय तो शुं ते उपशांतवेदवाळो होय के क्षीणवेदवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते उपशांतवेदवाळो पण होय अने क्षीणवेदवाळो पण होय. . १५. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते वेदसहित छ तो शुं ते स्त्रीवेदसहित होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते बकुशनी पेठे त्रणे वेदमा होय. निर्मन्थ वेदसहित के १६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं निग्रंथ वेदसहित छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! निग्रंथ वेदसहित नथी, पण वेदरहित छे. घेदरहित। १७. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते वेदरहित होय तो शुं ते उपशांतवेद होय-इत्यादि पृच्छा. उ०] हे गौतम ! ते उपशांतवेद पण होय अने क्षीणवेद पण होय. सातक सवेद के १८. [प्र०] हे भगवन् ! शुं स्नातक वेदसहित होय-इत्यादि प्रच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते निग्रंथनी पेठे वेदरहित होय. पण निद? विशेष ए के, स्नातक उपशांतवेद न होय, पण क्षीणवेद होय. ३ रागदार- १९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक रागसहित होय के वीतराग होय ! उ०] हे गौतम | पुलाक रागसहित होय, पण वीतराग पुलाक, बकुश भने . न होय. ए प्रमाणे यावत्-कषायकुशील सुधी जाणवू. कुशील सराग के के .. न वीतराग! २०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं निग्रंथ सराग होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | ते सराग नथी, पण वीतराग होय छे. निम्रन्थ सराग के २१. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते वीतराग होय तो शुं उपशांतकषाय वीतराग होय के क्षीणकषाय वीतराग होय. [उ०] हे गौतम ! वीतराग! ते उपशांतकषाय वीतराग होय अने क्षीणकषाय वीतराग पण होय. ए प्रमाणे स्नातक पण जाणवो. विशेष ए के स्नातक उपशांतकषाय वीतराग न होय, पण क्षीणकषाय वीतराग होय. ४ कल्पद्वार- २२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक स्थितकल्पमा होय के अस्थितकल्पमा होय ! [उ०] हे गौतम ! ते स्थितकल्पमा पण स्थित भने अस्थित- होय अने अस्थितकल्पमा पण होय. ए प्रमाणे यावत्-स्नातक सुधी जाणवु. पुलाक भने कल्प. २३. [प्र०] हे भगवन् । शुं पुलाक जिनकल्पमा होय, स्थविरकल्पमा होय के कल्पातीत होय ! [उ०] हे गौतम | ते जिनकल्पमा न होय, कल्पातीत न होय, पण स्थविरकल्पमा होय. कल्प. १४ * कषायकुशील सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक सुधी होय छे, ते प्रमत्त, अप्रमत्त अने अपूर्वकरणने विषे सवेद होय अने अनिवृत्तिबादर अने सूक्ष्मसंपरायने विषे उपशांत के क्षीणवेद थाय त्यारे अवेदक होय.-टीका. २२ । पहेला अने छल्ला तीर्थकरना साधुओ आचेलक्यादि दश कल्पमा स्थित छे, कारण के तेनु पालन तेओने आवश्यक छ, माटे सेओनो स्थित. कल्प कहेवाय छे, अने तेमा पुलाक होय छे. मध्यम बावीश तीर्थकरना साधुओ ते कल्पमा कदाच स्थित होय के अस्थित होय, कारण के तेभोनुं पालन तेमने आवश्यक नथी, माटे तेओनो अस्थित कल्प छ, भने तेा पण पुलाक होय छे. एम सातक सुधी जाणवू. . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४३ २४. [प्र०] यउसे गं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! जिणकप्पे वा होजा, थेरकप्पे वा होजा, नो कप्पातीते होजा। एवं पडिसेवणाकुसीले वि।। २५. [प्र०] कसायकुसीले णं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होजा, कप्पातीते पा होजा। २६. [प्र०] नियंठे णं-पुच्छा । [३०] गोयमा! नो जिणकप्पे होजा, नो थेरकप्पे होजा, कप्पातीते होजा । एवं सिणाए वि। २७. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं सामाइयसंजमे होजा, छेओवट्ठावणियसंजमे होजा, परिहारविसुद्धियसंजमे होजा, सुहमसंपरागसंजमे होजा, अहक्खायसंजमे होजा? [उ०] गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होजा, छेओवट्ठावणियसंजमे वा होजा, णो परिहारविसुद्धियसंजमे होजा, णो सुहमसंपरागसंजमे होजा, णो अहक्खायसंजमे होजा । एवं बउसे वि. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। २८. [प्र०] कसायकुसीले णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होजा, जाव-सुष्टुमसंपरागसंजमे षा होजा, णो अहफ्खायसंजमे होजा। २९ [प्र०] नियंठे णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो सामाइयसंजमे होजा, जाव-णो सुहुमसंपरागसंजमे होजा, अहवायसंजमे होजा । एवं सिणाए वि ५ । ___ ३०. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा? [उ०] गोयमा ! पडिसेवए होजा, णो अपडिसेवए होजा। ___३१. [प्र०] जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा? [उ०] गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होजा, उत्तरगुणपडिसेवए वा होजा । मूलगुणपडिसेवमाणे पंचण्डं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेजा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चपखाणस्स अन्नयरं पडिसेवेजा। २४. [प्र०] हे भगवन् ! | बकुश जिनकल्पमा होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते जिनकल्पमा होय अने स्थविरकल्पमा बकुश भने कल्प. होय, पण कल्पातीत न होय. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील विषे पण समजवू. २५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कषायकुशील जिनकल्पमा होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम 1 ते जिनकल्पमा होय, स्थविरक- कषायकुशीक ल्पा होय, अने *कल्पातीत पण होय. अने कल्प. २६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं निग्रंथ जिनकल्पमा होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते जिनकल्पमा अने स्थविरकल्पमा न निम्रन्थ अने कल्प. होय, पण 'कल्पातीत होय. ए प्रमाणे स्नातक संबंधे पण जाणवू. २७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक सामायिक संयममा होय, छेदोपस्थानीय संयममां होय, परिहारविशुद्ध संयमा होय, सूक्ष्म- ५ चारित्रसंपराय संयममा होय के यथाख्यात संयममा होय ! [उ०] हे गौतम ! ते सामायिक संयममा अने छेदोपस्थापनीय संयममा होय, पण पुलाक अने चारित्र. परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय के यथाख्यात संयममा न होय. ए प्रमाणे बकुश अने प्रतिसेवनाकुशील पण समजवो. २८. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील कया संयममा होय ! [उ०] हे गौतम ! सामायिक संयम, अने यावत्-सूक्ष्मसंपराय कषायकुशील अने संयममा होय, पण यथाख्यात संयममा न होय. चारित्र. २९. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ कया संयमा होय ! [उ०] हे गौतम ! सामायिक के यावत्-सूक्ष्मसंपराय संयममां न होय, पण निर्मन्थने चारित्र. यथाख्यात संयममा होय. ए प्रमाणे स्नातक विषे पण समजवु. ३०. [प्र०] हे भगवन्! शुं पुलाक चारित्री प्रतिसेवक (संयमविराधक) होय के अप्रतिसेवक (अविराधक) संयमाराधक ६ प्रतिसेवनाहोय! [उ०] हे गौतम | ते प्रतिसेवक होय, पण अप्रतिसेवक न होय. पुलाक भने प्रति सेवना. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते प्रतिसेवक होय, तो शुं प्राणातिपातविरमणादि मूलगुणनो प्रतिसेवक-विराधक होय के प्रत्याख्यानादि उत्तरगुणनो प्रतिसेवक होय ! [उ०] हे गौतम ! ते मूलगुणनो प्रतिसेवक-विराधक होय अने उत्तरगुणनो पण प्रतिसेवक होय. मूलगुणनी विराधना करतो पांच आस्रवोमांना कोइ एक आस्रवने सेवे. तथा उत्तरगुणंनी विराधना करतो दश प्रकारना प्रत्याख्यानमाथी कोई एक प्रत्याख्यानने विराधे. समज. २५ * कल्पातीत छद्मस्थ तीर्थकर सकषायी होवाथी ते अपेक्षाए कल्पातीतमा पण कषायकुशील होय. २६ निर्ग्रन्थ कल्पातीत ज होय छे, कारण के तेने जिनकल्प अने स्थविरकल्पना धर्मों होता नथी. एम स्नातक पण कल्पातीत ज होय छे.-टीका. ३. 1 संज्वलन कषायना उदयथी संयमविरुद्ध आचरण करे ते प्रतिसेवक-संयमविराधक कहेवाय छे. . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. ३२. [प्र०] बउसे गं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! पडिसेवए होजा, णो अपडिसेवए होजा। ३३. [प्र०] जा पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवर होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा! [उ०] गोयमा! णो मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा । उत्तरगुणपडिसेवमाणे सविहस्स पथक्खाणस्स अचयरं पडिसेषेजा। पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए । ३४. [प्र०] कसायफुसीले णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो पडिसेवर होज्जा, अपडिसेवए होजा । एवं निग्गंथे वि एवं सिणाए वि६।। ३५. [प्र०] पुलाए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होजा ? [उ०] गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होजा। दोसु होजमाणे दोसु आभिणियोहियनाणे सुयनाणे होजा; तिसु होमाणे तिसु आभिणियोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे होजा । एवं बउसे वि एवं पडिसेवणाकुसीले वि। ३६. [प्र०] कसायकुसीले णं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! दोसु वा तिसु वा चउसु पा होजा । दोसु होमाणे दोसु आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे होजा; तिसु होमाणे तिसु आभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिणियोहियनाण-सुयनाण-मणपज्जवंनाणेसु होजा; चउसु होमाणे चउसु आभिणियोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाण-मणपजवनाणेसु होजा । एवं नियंठे वि। ___३७. [प्र०] सिणाए णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पगंमि केवलनाणे होजा। ____३८. [प्र०] पुलाए णं भंते ! केवतियं सुयं अहिजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्स पुषस्स ततियं यारवत्थु, उक्कोसेणं नव पुखाई अहिजेजा। ___३९. [प्र०] बउसे-पुच्छा । [३०] गोयमा ! जहनेणं अट्ठ पवयणमायाभो, उक्कोसेणं इस पुधाई अहिजेजा। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। बकुश भने प्रति- ___ ३२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं बकुश प्रतिसेवक-विराधक होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते विराधक होय, पण सेवना. ___ अविराधक न होय. ३३. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते विराधक होय तो शुं मूलगुणनो विराधक होय के उत्तरगुणनो विराधक होय ! [उ०] हे गौतम | ते मूलगुणनो विराधक न होय, पण उत्तरगुणनो विराधक होय. उत्तरगुणने विराधतो दश प्रकारना प्रत्याख्यानमाथी कोई . एक प्रत्याख्यानने विराधे. पुलाकनी पेठे प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो.. कषायकुशील अने ३४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कषायकुशील संयमविराधक होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते विराधक न होय, पण प्रतिसेवना. आराधक होय. ए प्रमाणे निग्रंथ अने स्नातक विषे पण समजवु. ७शानदार ३५. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक केटला ज्ञानोमा वर्ते! [उ०] हे गौतम ! बे ज्ञानोमां होय के प्रण ज्ञानोमा होय. ज्यारे ते पुलाकने शन. बे ज्ञानोमा होय त्यारे मति अने श्रुतज्ञानमा होय. ज्यारे ते त्रण ज्ञानोमा होय त्यारे मति, श्रुत अने अवधिज्ञानमा होय. ए प्रमाणे बकुश अने प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. कषायकुशील अने ३६. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील केटला ज्ञानोमां वर्तमान होय ! [उ०] हे गौतम ! वे ज्ञानोमा होय, पण ज्ञानोमा होय, -निर्ग्रन्थोने शान. अथवा चार ज्ञानोमां पण होय. ज्यारे ते बे ज्ञानोमा होय त्यारे मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानमा होय. ज्यारे ते त्रण ज्ञानमा होय त्यारे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानमा होय, अथवा मति, श्रुत अने मनःपर्यवज्ञानमा होय, अने ज्यारे ते चार ज्ञाना होय त्यारे मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्यवज्ञानमा होय. ए प्रमाणे निग्रंथविषे पण जाणवू. सातकने शान. ३७. [पं०] हे भगवन् ! स्नातक केटला ज्ञानमा वर्तमान होय ! [उ०] हे गौतम ! स्नातक एक केवलज्ञानमा होय. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक केटलं श्रुत भणे ! [उ०] हे गौतम ! पुलाक जघन्य नवमा पूर्यनी त्रीजी आचार वस्तु सुधी भणे ८भुतदारपुलाकने भुत. अने उत्कृष्ट संपूर्ण नव पूर्वोने भणे. बकुशने धत. ३९. [प्र०] हे भगवन् । बकुश केटलु श्रुत भणे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य *आठ प्रवचन माता सुधी अने उत्कृष्ट दश पूर्वो भणे. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. चोदस-क। ३.* पांच समिति अने प्रण गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन मातानु पालन करवारूप चारित्र होय छे, माटे चारित्रवाळाने अष्ट प्रवचन मातार्नु परिज्ञान आवश्यक छ, कारण के चारित्र ज्ञानपूर्वक होय छे. माटे वकुशने एटलं जघन्य भुत आय छे. . Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५. - उद्देशक ६. भगवत्सु धर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. २४५ ४०. [प्र०] कसायकुसीले–पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं चोइस पुवाई अद्दिजेजा । एवं नियंठे वि 1 ४१. [प्र० ] सिणा - पुच्छा। [30] गोयमा ! सुयवतिरित्ते होजा ७ । ४२. [०] पुलाएणं भंते! किं तित्थे होज्जा, अतित्थे होला ? [30] गोयमा ! तित्थे होजा, णो अतित्थे होजा । एवं उसे वि; एवं पडिसेवणाकुसीले वि । ४३. [प्र० ] कसायकुसीले पुच्छा । [उ०] गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होजा । ४४. [प्र०] जइ अतित्थे होज्जा किं तित्थयरे होज्जा; पत्तेयबुद्धे होला ? [ उ०] गोयमा ! तित्थगरे वा होज्जा, पत्तेबुद्धे वा होजा । एवं नियंठे वि; एवं सिणाए वि ८ । ४५. [प्र०] पुलाए णं भंते! किं सलिंगे होजा, अन्नलिंगे होजा, गिहिलिंगे होजा १ [उ०] गोयमा ! दवलिंगं पडुच्च सलिंगे वा होजा, अन्नलिंगे वा होजा, गिहिलिंगे वा होजा, भावलिंगं पडुच्च नियमा सलिंगे होजा, एवं जाव- सिणा ९ । ४६. [प्र०] पुलाए णं भंते ! कइसु सरीरेंसु होजा ? [उ०] गोयमा ! तिसु ओरालिय- तेया- कम्मरसु होजा । ४७. [प्र०] बउसे णं भंते !- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होजा; तिसु होमाणे तिसु ओरालियतेया- कम्मसु होजा, चउसु होमाणे चउसु ओरालिय- वेउचिय- तेया- कम्मपसु होजा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। ४८. [प्र०] कसायकुसीले - पुच्छा। [30] गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा होज्जा । तिसु होमाणे तिसु ओरा• लिय- तेया- कम्मरसु होजा, चउसु होमाणे चउसु ओरालिय- वेडघिय तेया- कम्मपसु होजा; पंचसु होमाणे पंचसु ओरालिय-वेउद्द्विय- आहारग- तेया- कम्मरसु होजा । णियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ । ४०. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील केटलं श्रुत भणे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन माता भणे अने उत्कृष्ट चौद कषायकुशीलने श्रुत. पूर्वो भणे. ए प्रमाणे निग्रंथ विषे पण जाणवुं. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक केटलं श्रुत भणे ! [उ०] हे गौतम ! स्नातक श्रुतरहित होय. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक तीर्थमां होय के तीर्थना अभावमां होय ! [उ०] हे गौतम! ते तीर्थमां होय, पण तीर्थना अभावमां न होय. ए प्रमाणे बकुश अने प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कषायकुशील तीर्थमां होय के * अतीर्थमां होय ! [उ०] हे गौतम ! कषायकुशील तीर्थमां होय अनेका अतीर्थम पण होय. ४४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते ( कषायकुशील) अतीर्थमां होय तो शुं ते तीर्थकर होय के प्रत्येकबुद्ध होय ! [उ० ] हे गौतम ! तीर्थंकरण होय के प्रत्येकबुद्ध पण होय. ए प्रमाणे निग्रंथ अने स्नातक विषे पण जाणवुं. ४६. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक केटला शरीरोमां होय ? [उ०] हे गौतम ! औदारिक, तैजस अने कार्मण - एत्रण शरीरोमां होय. ४७. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश केटला शरीरोमां होय ? [उ०] हे गौतम ! बकुरा त्रण शरीर के चार शरीरमां होय. ज्यारे ते श्रण शरीरमां होय त्यारे औदारिक, तैजस अने कार्मण शरीरमां होय. ज्यारे ते चार शरीरमां होय त्यारे औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मण शरीरमां होय. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. १० लिंगद्वार ४५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक स्वलिंगमां होय, अन्यलिंगमां होय के गृहस्थलिंगमा होय ? [उ०] हे गौतम ! द्रव्यलिंगने आश्रयी खलिंगमां होय, अन्यलिंगमां होय के गृहस्थलिंगमां पण होय. भावलिंगने आश्रयी अवश्य स्वलिंगमां होय. ए प्रमाणे यावत्-पुलाक अलिंग स्नातक सुधी जाणवुं. ४८. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील केटला शरीरोमां होय ? [उ०] हे गौतम ! त्रण, चार के पांच शरीरमां होय. ज्यारे ते त्रण शरीरमां होय त्यारे औदारिक, तैजस अने कार्मण शरीरमां होय. ज्यारे ते चार शरीरमां होय त्यारे औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मण शरीरमां होय, अने ज्यारे ते पांच शरीरमां होय त्यारे औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मण शरीरमां होय. निर्ग्रथ भने स्नातकने पुलाकनी पेठे जाणवा. ९ तीर्थद्वार पुछाक भने तीर्थ. * ४३ छद्मथावस्थामा तीर्थंकर कषायकुशील होय ते अपेक्षाए ते अतीर्थमां पण होय, अथवा तीर्थंनो विच्छेद थया पछी अन्य चारित्री कपायकुशील होय तेनी अपेक्षाए पण अतीर्थमां होय. टीका. ४५ + द्रव्य अने भावने आश्रयी लिंग बे प्रकारनुं छे. तेमां ज्ञानादि भावलिंग छे अने ते ज्ञानादि भाव आर्हतोने होवाथी ए ज स्वलिंग कहेवाय छे. अव्यलिंग खलिंग अने परलिंगना भेदथी बे प्रकारनुं छे. तेमां रजोहरणादि द्रव्यथी स्वलिंग छे. परलिंग बे प्रकारनुं छे--कुतीर्थिकलिंग अने गृहस्थलिंग, पुलाने श्रणे प्रकार द्रव्य लिंग होय छे, कारण के चारित्रनो परिणाम कोइ पण एक द्रव्यलिंगनी अपेक्षा राखतो नथी. टीका. : तीर्थ. ११ शरीरद्वार पुलाकने शरीर. कुशने शरीर. कषायकुशील शरीर.. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. ४९. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं कम्मभूमीए होजा, अकम्मभूमीए होजा? [उ०] गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पदुष्प कम्मभूमीएहोजा, णो अकम्मभूमीए होजा । ५०. [प्र०] वउसे णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुश्च कम्मभूमीए होजा, णो अकम्मभूमीए होजा; साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होजा, अकम्मभूमीए वा होजा । एवं जाव-सिणाए । ५१.० पुलाए णं भंते ! कि ओसप्पिणिकाले होजा, उस्सप्पिणिकाले होजा, णोओसप्पिणि-णोउस्सप्पिणिकाले वा होजा? [उ०] गोयमा! ओसप्पिणिकाले वा होजा, उस्सप्पिणिकाले वा होजा, नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले वा होजा। ५२. प्रा जइ ओसप्पिणिकाले होजा किं सुसमसुसमाकाले होजा १, सुसमाकाले होजा २, सुसमदूसमाकाले होजा ३, दूसमसुसमाकाले होजा ४, दूसमाकाले होजा ५, दूसमदूसमाकाले होजा ६१ [उ०] गोयमा! जमणं पडुश्च जो सुसमसुसमाकाले होजा १, णो सुसमाकाले होजा २, सुसमदूसमाकाले वा होजा ३, दूसमसुसमाकाले वा होजा है. णो दूसमाकाले होजा ५, णो दूसमदूसमाकाले होजा ६ । संतिभावं पहुश्च णो सुसमसुसमाकाले होजा, णो सुसमाकाले पोजा, सुसमदूसमाकाले वा होजा, दूसमसुसमाकाले वा होजा, दूसमाकाले वा होजा, णो दूसमदूसमाकाले होजा। ५३. [प्र०] जइ उस्सप्पिणिकाले होजा किं दूसमदूसमाकाले होजा १, 'दूसमाकाले होजा २, दूसमसुसमाकाले होजा ३, सुसमदूसमाकाले होजा ४, सुसमाकाले होजा ५, सुसमसुसमाकाले होजा ६१ [उ०] गोयमा ! जमणं पडुच्च णो दूसमसमाकाले होजा १, दूसमाकाले पा होजा २, दूसमसुसमाकाले वा होजा ३, सुसमसमाकाले वा होजा ४, णो सुसमाकाले होजा ५, णो सुसमसुसमाकाले होजा ६ । संतिभावं पडुच णो दूसमसमाकाले होजा १, णो दूसमाकाले होजा २, दूसमसुसमाकाले वा होजा ३, सुसमदूसमाकाले वा होजा ४, णो सुसमाकाले होजा ५, णो सुसमसुसमाकाले होजा ६ । १२ क्षेत्रवारपुलाक अने क्षेत्र. बकुश अने क्षेत्र. १३ कामदार- पुलाकनो काळ. ४९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक कर्मभूमिमां होय के अकर्मभूमिमां होय ! [उ०] हे गौतम ! *जन्म अने सद्भावने अपेक्षी कर्मभूमिमा होय, पण अकर्मभूमिमां न होय. । ५०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं बकुश कर्मभूमिमां होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | जन्म अने सद्भावने आश्रयी कर्मभूमिमा होय, पण अकर्मभूमिमा न होय, अने संहरणने अपेक्षी कर्मभूमिमां पण होय भने अकर्मभूमिमां पण होय. ए प्रमाणे यावत्-सातक सुधी जाणवू. ५१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक अवसर्पिणी काळमा होय, उत्सर्पिणी काळमा होय के नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणी काळे होय ! [उ०] हे गौतम! अवसर्पिणी काळमां होय, उत्सर्पिणी काळमां होय अने नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणी काळे पण होय. ५२. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते (पुलाक ) अवसर्पिणी काळमां होय तो शुं १ सुषमसुषमा काळे (पहेला आरामां ) होय, २ सुषमाकाळे (बीजा आरामां) होय, ३ सुषमदुःषमा काळे (त्रीजा आरामां) होय, ४ दुःषमसुषमा (चोथा आरामां) होय, ५ दुःषमा काळे (पांचमा आरामां) होय के ६ दुःषमदुःषमा काळे (छट्ठा आरामां) होय ! [उ०] हे गौतम ! जन्मनी अपेक्षाए सुषमसुषमा अने सुषमा काळे न होय, पण सुषमदुःषमा काळे होय, दुःषमसुषमा काळे होय, दुःषमा काळे न होय अने दुःषमदुःषमा काळे पण न होय. तथा सद्भावनी अपेक्षाए सुषमसुषमा काळे, सुषमाकाळे अने दुःपमदुःषमाकाळे न होय, पण सुषमदुपमा काळे होय, दुःषमसुषमाकाळे होय अने दुःषमा काळे होय. ५३. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते (पुलाक) उत्सर्पिणी काळे होय तो शुं १ दुःषमदुःषमा काळे होय, २ दुःषमा काळे होय, ३ दुःषमसुषमा काळे होय, ४ सुषमदुःपमा काळे होय, ५ सुपमा काळे होय के ६ सुषमसुषमा काळे होय ! [उ०] हे गौतम! जन्मने आश्रयी दुःपमदुःषमा काळे न होय, दुःपमा काळे होय, दुःपमसुषमा काळे होय, सुषमदुःषमा काळे होय, पण सुषमा काळे अने सुषमसुपमा काळे न होय. सद्भावने आश्रयी दुःषमदुःषमा काळे न होय, दुःषमा काळे न होय, दुःषमसुषमा काळे होय, सुषमदुःषमा काळे होय, पण सुषमा तथा सुषमसुषमा काळे न होय. ४९* जन्म-उत्पत्ति अने सद्भाव-चारित्रभाव-थी अस्तित्व. जन्म अने सद्भावनी अपेक्षाए पुलाक कर्मभूमिमां होय. एटले त्यां जन्मे अने त्यां विहरे, पण भकर्मभूमिमा उत्पन्न न थाय, केमके त्यां जन्मेलाने चारित्र न होय. तेम संहरणथी अकर्मभूमिमां न होय, कारण के देवादि पुलाकलब्धिवाळाने संहरी न शके. ५१ + काळ त्रण प्रकारनो छे-उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी अने नोउत्सर्पिणी-नोअवसर्पिणी. तेमा भरत अने एरावत क्षेत्रमा पहेला बे प्रकारनो काळ छै, भने त्रीजा प्रकारनो काळ महाविदेह अने हैमवतादि क्षेत्रोमा छे. ५२-५३ पुलाक जन्मनी अपेक्षाए त्रीजा अने चोथा आरामा होय, अने सद्भावनी अपेक्षाए त्रीजा, चोथा अने पांचमा आरामां पण होय. तेमां जे चोथा आरामा जन्म्यो होय तेनो पांचमा आरामा सद्भाव होय. त्रीजा अने चोथा भारामा जन्म अने सद्भाव बन्ने होय. उत्सर्पिणीमां बीजा, त्रीजा अने चोथा भारे जन्मथी होय. तेमां बीजा आराने अन्ते जन्मे अने त्रीजा आरामां चारित्रनो स्वीकार करे, श्रीजा भने चोथा आरामा जन्म अने चारित्र बजे होय सद्भावने आश्रयी श्रीजा अने चोथा आरामा ज होय. केमके तेज भारामां चारित्रनी प्रतिपत्ति होय छे.-टीका. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४७ ५४. [प्र०] जइ णोओसप्पिणि-नोउस्ससप्पिणिकाले होजा किं सुसमसुसमापलिभागे होजा, सुसमापलिभागे होजा, सुसमदूसमापलिभागे होजा, दूसमसुसमापलिभागे होजा? [उ०] गोयमा ! जंमण-संतिभावं पडुच णो सुसमसुसमापलिभागे होजा, णो सुसमापलिभागे०, णो सुसमदूसमापलिभागे होजा, दूसमसुसमापलिभागे होजा। ५५. [प्र०] बउसे णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होजा, उस्सप्पिणिकाले पा होजा, नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले वा होजा। ५६. [प्र०] जइ ओसप्पिणिकाले होजा किं सुसमसुसमाकाले होजा-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! जमण-संतिभावं पडुश्च णो सुसमसुसमाकाले होजा, णो सुसमाकाले होजा, सुसमदूसमाकाले वा होजा, दूसमसुसमाकाले वा होज्जा, दूसमाकाले वा होजा, णो दूसमदूसमाकाले होजा; साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होजा । ५७. [प्र०] जइ उस्सप्पिणिकाले होजा किं दूसमदूसमाकाले होजा ६-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! जम्मणं पडुश्च णो दूसमदूसमाकाले होजा जहेव पुलाए । संतिभावं पडुच्च णो दूसमदूसमाकाले होजा, णो दूसमाकाले होजा, एवं संति. भावेण वि जहा पुलाए जाव-णो सुसमसुसमाकाले होजा । साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होजा। ५८. [प्र०] जइ नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले होजा-पुच्छा। [उ०] गोयमा! जम्मण-संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमापलिभागे होजा जहेब पुलाए जाव-दूसमसुसमापलिभागे होजा । साहरणं पडच अन्नयरे पलिभागे होजा। जहा बउसे । एवं पडिसेवणाकुसीले वि; एवं कसायकुसीले वि । नियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ । नवरं पतेसिं अभहियं साहरणं भाणियचं, सेसं तं चेव १२।। ५९. [प्र०] पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे किं (क) गतिं गच्छति ? [उ०] गोयमा ! देवगति गच्छति । [प्र०] देवगति गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववजेजा, वाणमंतरेसु उववजेजा, जोइसि०, वेमाणिएसु उववजेजा ? [उ.] गोयमा! णो ५४. [प्र०] जो ते (पुलाको) नोउत्सर्पिणी-नोअवसर्पिणी काळे होय तो शुं सुषमसुषमा समान काळे होय, सुषमासमान काळे होय, सुषमदुःषमासमान काळे होय के दुःषमसुपमासमान काळे होय! [उ०] हे गौतम! जन्म अने सद्भावने आ समान काळने विषे न होय, सुपमासमान काळे न होय, सुषमदुःषमासमान काळे न होय, पण दुःषमसुषमासमान काळे होय. __ ५५. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश कये काळे होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! अवसर्पिणी काळे होय, उत्सर्पिणी काळे बकुशनो काळ. होय, पण नोउत्सर्पिणी-नोअवसर्पिणी काळे न होय. ५६. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते बकुश अवसर्पिणी काळे होय, तो शुं सुपमसुपमा काळे होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जन्म अने सद्भावने अपेक्षी सुषमसुपमा काळे न होय, सुषमा काळे न होय, सुषमदुःषमा काळे होय, दुःपमसुषमा काळे होय के दुःषमाकाळे होय, पण दुःषमदुःषमा काळे न होय. संहरणने अपेक्षी कोइ पण काळे होय. ५७. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते बकुश उत्सर्पिणी काळे होय, तो शुं दुःषमदुःपमा काळे होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जन्मने आश्रयी दुःषमदुःपमा काळे न होय-इत्यादि बधुं पुलाकनी पेठे जाणवू. सद्भावने आश्रयी दुःपमदुःपमा काळे न होय, दुःषमा काळे न होय, ए प्रमाणे बधुं सद्भावने आश्रयी पण पुलाकनी पेठे जाणवू. यावत्-सुषमसुषमा काळे न होय. संहरणने अपेक्षी कोइ पण काळे होय. ५८. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते बकुश नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणी काळे होय तो-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जन्म अने सद्भावने आश्रयी सुषमसुषमासमान काळे न होय--इत्यादि बधु पुलाकनी पेठे जाणवं, यावत्-दुःषमसुपमासमान काळे होय. संहरणने अपेक्षी कोइ पण काळे होय. जेम बकुश संबन्धे कर्तुं तेम प्रतिसेवनाकुशील संबन्धे पण कहेवू. एम कपायकुशील पण जाणवो. निग्रंथ अने स्नातक पण पुलाकनी पेठे समजवा. विशेष ए के निग्रंथ अने स्नातकने संहरण अधिक कहे. एटले संहरणने आश्रयी सर्व काळे होय-एम कहे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. ५९. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक मरण पामीने कइ गतिमां जाय ! [उ०] हे गौतम | देवगतिमा जाय. [प्र०] देवगतिमा जतो १४ गतिद्वार पुलाकनी गति. शुं भवनवासिमा, वानव्यंतरमा, ज्योतिष्कमां के वैमानिकोमा उपजे ! [उ०] भवनवासीमा न उपजे, वानव्यंतरमा न उपजे, ज्योतिषिकमा न ५४ * सुषमसुषमानो समान काळ देवकुरु अने उत्तरकुरुमां होय छे. सुषमासमान काळ हरिवर्ष भने रम्यक क्षेत्रमा होय छे, सुषमदुःषमासमान काळ हिमवत अने ऐरण्यवत क्षेत्रमा अने दुःषमसुषमा समान काळ महाविदेहमां होय छे.-टीका. ५८ 1 निम्रन्थ अने स्नातकनो संहरण भाश्रयी सर्व काळे सद्भाव कह्यो ते पूर्व संहरेलाने निग्रन्थपणा भने स्नातकपणानी प्राप्ति थाय ते अपेक्षाए समजवू, कारण के वेदरहित मुनिओर्नु संहरण थतुं नथी. कहुं छे के "श्रमणी-साध्वी, वेदरहित, परिहारविशुद्धि, पुलाकलब्धिवाळा, अप्रमत्त, चौद पूर्वधर अने आहारक'लब्धिवाळानं संढरण थतं नथी.-टीका. . Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. भवणवासीसु, णो वाण, णो जोइ०, वेमाणिएसु उववजेजा । वेमाणिपसु उववजमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववजेजा । बउसे गं एवं चेव । नवरं उक्कोसेणं अचए कप्पे । पडिसेवणाकुसीले जहा बउसे । कसा. यकुसीले जहा पुलाए । नवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववजेजा। ६०. [प्र०] णियंठे गं भंते !० १ [उ०] एवं चेव, जाव-वेमाणिएसु उववजमाणे अजहन्नमणुकोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववजेजा। ६१. [प्र०] सिणाए णं भंते ! कालगए समाणे किं (क) गतिं गच्छइ ? [उ०] गोयमा ! सिद्धिगति गच्छद । ६२. [प्र०] पुलाए णं भंते ! देवेसु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववजेजा, सामाणियत्ताए उववजेजा, तायत्तीसाए उववजेजा, लोगपालत्ताए उववजेजा, अमिंदत्ताए वा उववजेजा? [30] गोयमा ! अविराहणं पडच इंदत्ताए उववजेजा, सामाणियत्ताए उववजेजा, तायत्तीसाए उववजेजा, लोगपालत्ताए उववजेजा, नो अहमिंदत्ताए उववजेजा । विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववजेजा । एवं बउसे वि; एवं पडिसेवणाकुसीले वि। ६३. [प्र०] कसायकुसीले-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए वा उववजेजा, जाव-अहमिंदत्ताए बा उवजेजा, विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववजेजा। ६४. [प्र०] नियंठे-पुच्छा [उ०] गोयमा ! अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उववजेजा, जाव-णो लोगपालत्ताए उववजेजा; अहमिंदत्ताए उववजेजा । विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववजेजा। ६५. [प्र०] पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ.] गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमपुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई । ६६. [प्र०] बउसस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमपुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। उपजे, पण वैमानिकमा उपजे. वैमानिकमा उत्पन्न थतो पुलाक जघन्यथी सौधर्म कल्पमा अने उत्कृष्ट सहस्रार कल्पमा उत्पन्न थाय. बकुश विषे पण एज प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के ते उत्कृष्ट अच्युत कल्पमा उत्पन्न थाय. बकुशनी पेठे प्रतिसेवनाकुशील विषे पण समजवू. अने पुलाकनी पेठे कषायकुशीलने पण जाणवू. विशेष ए के, कषायकुशील उत्कृष्ट अनुत्तरविमानमा उत्पन्न थाय. निर्गन्थनी गति. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ मरण पामीने कइ गतिमां जाय ? [उ०] ए प्रमाणे जाणवू. यावत्-वैमानिकोमा उत्पन्न थतो जघन्य अने उत्कृष्ट सिवाय एक अनुत्तर विमानमा उत्पन्न थाय. सातकनी गति. ६१. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक मरण पामीने कइ गतिमां जाय ? [उ०] हे गौतम ! ते एक सिद्धगतिमां जाय. पुलाक क्या देवपणे ६२. [प्र०] हे भगवन् ! देवोमां उत्पन्न थतो पुलाक शुं इंद्रपणे उत्पन्न थाय, सामानिकपणे उत्पन्न थाय, त्रायस्त्रिंशदेवपणे उत्पन्न उपजे? थाय, लोकपालपणे उत्पन्न थाय के अहमिंद्रपणे उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! अविराधनाने आश्रयी इंद्रपणे उत्पन्न थाय, सामानिकपणे उत्पन्न थाय, त्रायस्त्रिंशदेवपणे उत्पन्न थाय अने लोकपालपणे उत्पन्न थाय, पण अहमिंद्रपणे न उत्पन्न थाय. अने विराधना करीने भवनपति वगेरे कोइ पण देवमां उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे बकुश अने प्रतिसेवनाकुशील जाणवो. कषायकुशील कया ६३. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील कया देवपणे उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम ! संयमनी विराधना न करी होय तो ते देवपणे उपजे ? इंद्रपणे, यावत्-अहमिंद्रपणे उत्पन्न थाय, अने संयम विराधना करी होय तो ते भवनपति वगेरे कोइ पण देवमा उत्पन्न थाय. निर्मन्थ कया देवपणे . ६४. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ कया देवमां उपजे ? [उ०] हे गौतम ! संयमनी अविराधनाने आश्रयी इंद्रपणे यावत् लोकपालपणे न थाय, पण अहमिंद्रपणे थाय, अने संयमनी विराधनाने आश्रयी भवनवासी वगेरे कोइ पण देवपणे उत्पन्न थाय. पलानी देवलोकी ६५. [प्र०) हे भगवन् ! देवलोकोमा उत्पन्न थता पुलाकनी केटला काळ सुधीनी स्थिति कही छे ? [उ०] हे गौतम | जघन्य स्थिति. पल्योपमपृथक्त्व-बेथी नव पल्योपम सुधीनी अने उत्कृष्ट अढार सागरोपमनी स्थिति कही छे. ६६. [प्र०] हे भगवन् ! देवलोकोमा उत्पन्न थता बकुशनी केटला काळ सुधीनी स्थिति कही छे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य बेथी नव पल्योपम सुधीनी अने उत्कृष्ट बावीस सागरोपम सुधीनी स्थिति कही छे. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील विषे पण समजवू. ६१ * ज्ञानादिनी अविराधना के लब्धिनो प्रयोग कर्या सिवाय इन्द्रादि रूपे उपजे, अने विराधना करीने भवनपत्यादि कोइ पण देवमा उपजे. पुलाकनो मात्र वैमानिकमा उत्पाद कयो ते संयमनी अविराधनानी अपेक्षाए जाणवू.-टीका. . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५. - उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४९ ६७. [प्र०] कसायकुसीलस्स - पुच्छा । [४०] गोयमा ! जहनेणं पलिओवमपुदुक्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाहं । ६८. [प्र०] णियंठस्स- पुच्छा । [अ०] गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं १३ । ६९. [०] पुलागस्स णं भंते! केवतिया संयमट्ठाणा पत्ता ? [अ०] गोयमा ! असंखेजा संयमट्टाणा पन्नत्ता । एवं जाव- कसायकुसीलस्स । ७०. [प्र०] नियंठस्स णं भंते! केवइया संजमट्टाणा पन्नत्ता ? [ उ०] गोयमा ! एगे अजद्दन्नमणुकोसए संजमट्ठाणे, ७१. [ प्र० ] एतेसि णं भंते ! पुलाग - बउस-पडिसेवणा- कसायकुसील - नियंठ - सिणायाणं संजमट्टाणाणं कयरे करे० जाव - विसेसाहिया वा ? [30] गोयमा ! सवत्थोवे नियंठस्स सिणायस्स य एगे अजहन्नमणुक्कोसप संजमट्ठाणे, पुलागस्स णं संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, बउसस्स संजमट्टाणा असंखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसीलस्स संजमट्टाणा असंखेजगुणा; कसायकुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा १४ । एवं सिणायस्स वि । ७२. [०] पुलागस्स णं भंते ! केवतिया चरित्तपजवा पन्नत्ता ? [अ०] गोयमा ! अनंता चरित्तपजवा पन्नत्ता, एवं जाव - सिणायस्स । ७३. [प्र०] पुलाए णं भंते! पुलागस्स सट्टाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? [अ०] गोयमा ! सिय हीणे १, सिय तुले २, सिय अन्भहिए ३ । जइ हीणे अनंतभागहीणे वा, असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेजइभागहीणे वा, संखेजगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, अनंतगुणहीणे वा । अह अन्भहिए अनंतभागमन्भहिए वा, असंखेज्जरभागमन्भहिए वा संखेज्जइभागमध्भहिए वा, संखेजगुणमन्भहिए वा, असंखेजगुणमन्भहिए वा, अनंतगुणमन्भहिए वा । ६७. [प्र०] हे भगवन् ! देवलोकमां उत्पन्न थता कषायकुशीलनी केटला काळ सुधीनी स्थिति कही छे ? [उ०] हे गौतम! कषायकुशीलनी देवजघन्य बेथी नव पल्योपम सुधीनी अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. लोकमां स्थिति. ६८. [प्र०] देवलोकमां उत्पन्न थता निग्रंथनी केटला काळनी स्थिति कही छे ! [ उ०] हे गौतम ! जघन्य अने उत्कृष्ट सिवाय निर्ग्रन्नी देवलोतेश सागरोपमनी स्थिति कही छे. कमां स्थिति. ६९. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटलां संयमस्थानो कहेलां छे ? [अ०] हे गौतम! *असंख्याता संयमस्थानो कयां छे. ए प्रमाणे यावत् - कषायकुशील सुधी जाणवुं. ७०. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथने केटलां संयमस्थानो कहेलां छे ? [उ०] हे गौतम ! तेने जघन्य अने उत्कृष्ट सिवाय एक संयमस्थान कह्युं छे. ए प्रमाणे स्नातक विषे पण जाणवुं. बहुत्व. ७१. [प्र० ] भगवन् ! पूर्वोक्त पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निग्रंथ अने स्नातकना संयमस्थानोमां कयां कोनाथी संयमस्थानोनुं अस्प यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! निर्ग्रथ अने स्नातकने सर्वं करतां अल्प अजघन्य अनुत्कृष्ट एकज संयमस्थान छे. तेथी पुलाकने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे, तेथी बकुशने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे, तेथी प्रतिसेवनाकुशीलने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे, तेथी कषायकुशीलने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे. ७२. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटला चारित्रपर्यवो होय ! [उ०] हे गौतम! पुलाकने अनन्त चारित्रपर्यवो होय. ए प्रमाणे पुलाकादिने चारित्र यावत् - स्नातक सुधी जाणवुं. पर्याय. ७३. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक स्वस्थानसंनिकर्ष - पोताना सजातीय चारित्रपर्यायोनी अर्थात् एक पुलाक चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन होय, तुल्य होय के अधिक होय ? [उ०] हे गौतम! कदाच हीन होय, कदाच कदाच अधिक होय. जो हीन होय तो अनंतभाग हीन होय, असंख्यभाग हीन होय, संख्यातभाग हीन होय, होय, असंख्यातगुण हीन होय अने अनंतगुण हीन होय. जो अधिक होय तो अनंतभाग अधिक होय, असंख्यभाग अधिक होय, संख्यातभाग अधिक होय, संख्यातगुण अधिक होय, असंख्यातगुण अधिक होय अने अनंतगुण अधिक होय. बीजा पुलाकना तुल्य होय, अने संख्यातगुण हीन ६९ * संयम चारित्रना शुद्धि - अशुद्धिना वत्ता ओछापणाने लीधे थयेला मेदो ते संयमस्थान. ते असंख्याता होय छे. तेमां प्रत्येक संयमस्थानना सर्वाकाशप्रदेश गुणित सर्वाकाश प्रदेश प्रमाण ( अनन्तानन्त) पर्यायो ( अंशो ) होय छे. ते संयमस्थानो पुलाकने असंख्यात होय छे. कारण के चारित्रमोहनीयनो क्षयोपशम विचित्र होय छे. एम यावत् — कषायकुशील सुधी जाणवुं निर्मन्थने एकज संयमस्थान होय छे, कारण के कषायनो क्षय के उपशम एक प्रकारनो होवाथी तेनी शुद्धि पण एकज प्रकारनी छे. ७३ + निकर्ष - संनिकर्ष, पुलाकादिनुं परस्पर संयोजन, ख- पोताना सजातीय, स्थान- पर्यवोनुं आश्रय, अर्थात् पुलाकादिने पुलाकादिनुं संनिकर्षसंयोजन ते स्वस्थान संनिकर्ष कहेवाय छे. विशुद्ध संयमस्थानना संबन्धी होवाथी विशुद्धतर पर्यायनी अपेक्षाए अविशुद्ध संयमस्थानना संबन्धी होवाथी अविशुद्धतर पर्यवो द्वीन कहेवाय छे अने ते पर्यववाळा साधु पण हीन कहेवाय छे. समान एवा शुद्ध पर्यवोना संबन्धथी तुल्य अने विशुद्धतर पर्यंवना योगथी अधिक कहेवाय छे. - टीका. ३२ भ० सू० १४ संयमद्वारपुलाकने संयमस्थानो. निर्ग्रन्थने संयम स्थान. १५ संनिकर्षदारपुलाको स्वस्थान संनिकर्ष. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. ७४. [प्र०] पुलाए गंभंते ! बउसस्स परढाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अन्भहिए! [उ.] गोयमा ! हीणे. नो तल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि। कसायकुसीलेणं समं छटाणवडिए जडेव सट्ठाणे । नियंठस्स जहा बउसस्स; एवं सिणायस्स वि। ७५. [प्र०] बउसे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुले, अब्भहिए ? [उ.] गोयमा! णो हीणे, णो तुल्ले, अन्भहिए, अणंतगुणमब्भहिए। ७६. [प्र०] बउसे णं भंते ! बउसस्स सट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अभहिए । जइ हीणे छट्ठाणवडिए।। ७७. [प्र०] बउसे णं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे० १ [उ०] छट्ठाणवडिए; एवं कसायकुसीलस्स वि । ७८. [प्र०] बउसे णं भंते ! नियंठस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेटिं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! हीणे, णो तुल्ले, जो अब्भहिए; अणंतगुणहीणे; एवं सिणायस्स वि। पडिसेवणाकुसीलस्स एवं चेव बउसवत्तचया भाणियचा । कसायकुसीलस्स एस चेव बउसवत्तवया । नवरं पुलाएण वि समं छट्ठाणवडिए । ___७९. [प्र०] णियंठे गं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहि-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो होणे, णो तुल्ले, अभहिए; अणंतगुणमन्भहिए; एवं जाव-कसायकुसीलस्स । पुलाकनो बकुशनी ७४. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक (पोताना चारित्रपर्यायोवडे) बकुशना परस्थानसंनिकर्ष-विजातीय चारित्रपर्यायोनी अपेक्षाए शं अपेक्षाए परस्थान- हीन छे, तुल्य छे के अधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! हीन छे, पण तुल्य के अधिक नथी, अने ते अनंतगुण हीन छे. ए प्रमाणे प्रतिसंनिकर्ष. सेवनाकुशीलना चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए *पुलाक अनन्तगुण हीन छे. पुलाक जेम खस्थान-सजातीय पर्यायनी अपेक्षाए छ स्थानपतित कह्यो छे तेम कषायकुशीलनी साथे पण छ स्थानपतित जाणवो. बकुशनी पेठे निम्रन्थनी साथे जाणवू. एम स्नातकनी साथे पण समजवू. बकुशना पुलाकनी ७५. [प्र०] हे भगवन् । 'बकुश पुलाकना परस्थान-विजातीय चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन छे, तुल्य छे के अधिक छे ? अपेक्षाए चारित्र " [उ०] हे गौतम ! हीन नथी, तुल्य नथी, पण अधिक छे, अने ते अनंतगुण अधिक छे. बकुशना स्वस्थाननी ७६. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश बकुशना सजातीय चारित्रपर्यायने आश्रयी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कदाच अपेक्षाए चारित्र न हीन होय, कदाच तुल्य होय, अने कदाच अधिक होय. जो हीन होय तो ते छस्थानक पतित होय. बकुशना प्रतिसेवना- ७७. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश प्रतिसेवनाकुशीलना विजातीय चारित्रपर्यवोथी शुं हीन छे? [उ०] हे गौतम ! छस्थानकपतित कुशीलनी अपेक्षाए चारित्र पर्यायो होय. ए प्रमाणे कषायकुशीलनी अपेक्षाए पण जाणवू. बकुशना निग्रन्थनी ७८. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश निर्ग्रथना विजातीय चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! - हीन छे, तुल्य नथी अने अधिक पण नथी. अने ते अनंतगुण हीन छे. ए प्रमाणे स्नातकनी अपेक्षाए पण समजवू. तथा प्रतिसेवनाकु शीलने एज प्रमाणे बिकुशनी वक्तव्यता (सू० ७६-७९) कहेवी. कषायकुशीलने एज प्रमाणे जाणवू. परन्तु पुलाकनी अपेक्षाए अने कषायकुशी • कषायकुशील छस्थानपतित होय छे. लना चारित्रपर्यायो.. ७९. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ पुलाकना परस्थानसंनिकर्ष-विजातीय चारित्रपर्यवोथी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! पुलाकनी अपेक्षाए निग्रन्थना चारित्र. ते हीन नथी, तुल्य नथी पण अधिक छे, अने ते अनंतगुण अधिक छे. ए प्रमाणे यावत्-कषायकुशीलना संबंधनी अपेक्षाए पण जाणवू. . पर्यायो. ७४ * पुलाक खस्थाननी अपेक्षाए जेम षट्स्थानपतित कह्यो तेम कषायकुशीलनी अपेक्षाए पण षट्स्थानपतित कहेवो. पुलाक अने कषायकुशीलना सर्व जघन्य संयमस्थान सोथी नीचे छे. त्यांथी ते बन्ने साथे असंख्य संयमस्थान सुधी जाय छे. कारण के त्यां सुधी बच्नेना तुल्य अध्यवसायो होय छे. त्याथी पुलाक हीन परिणाम होवाथी संयमस्थानमा वधतो अटकी जाय छे, अने त्यार पछी कषायकुशील एकाकी असंख्य संयमस्थान सुधी थाय छे. त्याथी कषायकुशील प्रतिसेवनाकुशील अने बकुश साथे असंख्य संयमस्थान सुधी जाय छे. त्यां बकुश अटके छे. पछी प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील बन्ने असंख्य संयमस्थान सुधी जाय छे. त्या प्रतिसेवनाकुशील अटके छे. पछी कषायकुशील असंख्य संयमस्थान सुधी जीय छे, अने ते त्या अटके छे. त्यार पछी आगळ निम्रन्थ अने स्नातक एकज संयम स्थानने प्राप्त करे छे. माटे पुलाक निर्ग्रथना चारित्रपर्यायोथी अनन्तगुणहीन छे. ७५ + बकुश पुलाकथी अनन्तगुण अधिक छे, अने पुलाक बकुशथी हीन, तुल्य के अधिक छे. बकुश प्रतिसेवाकुशील अने कषायकुशीलथी पण हीनादि छे, निम्रन्थ अने स्नातकथी तो हीन ज छे. ७८ प्रतिसेवाकुशील अने कषायकुशील बकुशनी पेठे जाणवा. परन्तु त्या पुलाकथी बकुश अधिक कह्यो छे अने अहीं पुलाकथी कषायफुशील षट्स्थान पतित जाणवो. केमके तेना परिणाम पुलाकनी अपेक्षाए हीन, सम अने अधिक छे.-टीका. . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८०. [प्र०] णियंठे थे भंते ! णियंठस्स सट्ठाणसन्निगासेणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! नो हीणे, तुल्ले, णो अब्भहिए। एवं सिणायस्स वि। ८१. [प्र०] सिणाए णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं० १ [उ०] एवं जहा नियंठस्स वत्तव्वया तहा सिणायस्स वि भाणियवा । जाव-सिणाए णं भंते ! सिणायस्स सट्ठाणसन्निगासेणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! णो हीणे, तुल्ले, णो अन्भहिए। ८२. [प्र०] एएसि णं भंते ! पुलाग-बकुस-पडिसेवणाकुसील-कसायकुसील-नियंठ-सिणायाणं जहन्नकोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरे-जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! १ पुलागस्स कसायकुसीलस्स य एएसिणं जहन्नगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला सवत्थोवा । २ पुलागस्स उक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा । ३ बउसस्स पडिसेवणाकुसीलस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा । ४ बउसस्स उक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा । ५ पडिसेवणाकुसीलस्स उक्कोसंगा चरित्तपज्जवा अर्णतगुणा । ६ कसायकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अर्णतगुणा। ७णियंठस्स सिणायस्स य एतेंसि णं अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा १५ । ८३. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं सयोगी होजा, अजोगी होजा ? [उ०] गोयमा ! सयोगी होजा, नो अयोगी होजा। [प्र०] जइ सयोगी होजा किं मणजोगी होजा, वइजोगी होजा, कायजोगी होजा ? [उ०] गोयमा ! मणजोगी वा होजा, वयजोगी वा होजा, कायजोगी वा होजा । एवं जाव-नियंठे । ८४. [प्र०] सिणाए णं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सयोगी वा होजा, अयोगी वा होजा। जइ सयोगी होजा किं मणजोगी होजा-सेसं जहा पुलागस्स १६ ।। ८५. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते होजा ? [उ०] गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होजा, अणागारोवउत्ते वा होजा । एवं जाव-सिणाए १७। ८०. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ निग्रंथना सजातीय चारित्रपर्यवोथी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते हीन निर्यन्धना सजातीय नी अपेक्षाए चारित्रनथी अने अधिक नथी, पण तुल्य छे. ए प्रमाणे स्नातकनी अपेक्षाए पण समजq. . पर्यायो. ८१. [प्र० हे भगवन् । स्नातक पुलाकना विजातीय चारित्रपर्यवोथी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! जेम स्नातकना पुलाकनी अपेक्षाए चारित्रनिग्रंथ संबन्धे वक्तव्यता कही तेम स्नातक संबन्धे पण वक्तव्यता कहेवी. यावत्-[प्र०] हे भगवन् ! स्नातक स्नातकना सजातीय चारित्रप पर्याय. र्यवोथी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते हीन नथी, अधिक नथी, पण तुल्य छे. ८२. [प्र०] हे भगवन् ! ए पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निग्रंथ अने स्नातकना जघन्य अने उत्कृष्ट चारित्र अल्पबहुत्व. पर्यवो कोना कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे! [उ०] हे गौतम ! १ पुलाक अने कषायकुशीलना जघन्य चारित्रपर्यवो परस्पर तुल्य छे अने सौथी थोडा छे. २ तेथी पुलाकना उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुण छे. ३ तेथी बकुश अने प्रतिसेवनाकुशीलना जघन्य चारित्रपर्यवो अनंतगुण अने परस्पर तुल्य छे. ४ तेथी बकुशना उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुण छे. ५ तेथी प्रतिसेवनाकुशीलना उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुण छे. ६ तेथी कषायकुशीलना उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुण छे. ७ तेथी निग्रंथ अने स्नातक ए बन्नेना अजघन्य तथा अनुत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुण अने परस्पर तुल्य छे.* ८३. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक सयोगी होय के अयोगी होय ? [उ०] हे गौतम ! सयोगी होय, पण अयोगी न होय. [प्र०] १६ योगदारजो सयोगी होय तो शुं मनयोगी होय, वचनयोगी होय के काययोगी होय? [उ०हे गौतम! ते मनयोगी होय, वचनयोगी होय अने योगकाययोगी पण होय. ए प्रमाणे यावत्-निग्रंथ सुधी जाणवू. ८४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं स्नातक सयोगी होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते सयोगी पण होय अने अयोगी पण होय. स्नातक अने योग. जो ते सयोगी होय तो शुं मनयोगी होय, वचनयोगी होय के काययोगी होय-इत्यादि बधु पुलाकनी पेठे जाणवं. ८५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक साकार उपयोगवाळो छे के अनाकार उपयोगवाळो छ ? [उ०] हे गौतम ! ते साकार १७ उपयोगदारउपयोगवाळो अने अनाकार उपयोगवाळो छे. ए प्रमाणे यावत्-स्नातक सुधी समजवू. पुलाक भने उपयोग ८२ * १ पुलाक जघन्य. २ कषायकुशील परस्पर तुल्य जघन्य अने उत्कृष्ट चारित्रपर्यायोनुं अल्पबहुत्वदर्शक यन्त्र. ३ पुलाक उ• अनन्तगुण ६ बकुश उ०७ प्रतिसेवना कु० उ. ४ बकुश । निर्ग्रन्थ । ८ कषायकु० उ० १० स्नातक परस्पर तुल्य ५ प्रतिसेवना कु./ज. परस्पर तुल्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. ६.०] पुलाए णं भंते ! सकसायी अकसायी होजा? [उ०] गोयमा ! सकसायी होजा, णो अकसायी होजा। [प्र०] जब सकसाई से गं भंते ! कतिसु कसाएसु होजा ? [उ०] गोयमा ! चउसु कोह-माण-माया-लोभेसु होजा। एवं बउसे वि; एवं पडिसेवणाकुसीले वि । ८७. प्र०] कसायकुसीले णं-पुच्छा [उ०] गोयमा सकसायी होजा, णो अकसायी होजा । प्रि० जह सकसायी होजा से णं भंते! कतिसु कसाएसु होजा? [उ०] गोयमा! चउसु वा तिसु वा दोसु वा पगंमि वा होजा। चउसु होमाणे चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोमेसु होजा, तिसु होमाणे तिसु संजलणमाण-माया-लोभेस होजा. दोसु होमाणे संजलणमाया-लोभेसु होजा, एगंमि होमाणे संजलणलोभे होजा । ८. [प्र०] नियंठे णं-पुच्छा [उ०] गोयमा ! णो सकसायी होजा, अकसायी होजा। [प्र०] जब अकसायी होजा किं उवसंतकसायी होजा, खीणकसायी होजा? [उ.] गोयमा! उवसंतकसायी वा होजा, खीणकसायी वा होजा। सिणाए एवं चेव नवरं णो उवसंतकसायी होजा; खीणकसायी होजा १८ । ८९. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं सलेस्से होजा, अलेस्से होजा ? [उ०] गोयमा ! सलेस्से होजा, णो अलेस्से होजा। [प्र०] जइ सलेस्से होजा, से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा? [उ.] गोयमा! तिसु विसद्धलेस्सास होजाः तंजहा-तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए । एवं बउसस्स वि; एवं पडिसेवणाकुसीले वि। ९०. [प्र०] कसायकुसीले-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सलेस्से होजा, णो अलेस्से होजा; । [प्र०] जइ सलेस्से होजा, से णं भंते ! कतिसु लेसासु होजा? [उ०] गोयमा! छसु लेसासु होजा, तंजहा-कण्हलेस्साए, जाव-सुक्कलेस्साए । ____९१. [प्र०] नियंठे णं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सलेस्से होजा, णो अलेस्से होजा । [प्र०] जब सलेसे होजा से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा ? [उ०] गोयमा ! एकाए सुक्कलेस्साए होजा। १८ कषायद्वार पुलाकने कषायो. कषायकुशीलने कषायो. निर्ग्रन्थने कषाय. ८६. प्रि०] हे भगवन् ! पुलाक सकषायी होय के कमायरहित होय ! [उ०] हे गौतम | ते *सकषायी होय, पण कषायरहित न होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते कषायवाळो छे तो तेने केटला कषायो होय ! [उ०] हे गौतम ! तेने क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार कषाय होय. ए प्रमाणे बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. ८७. प्र०] हे भगवन् । कषायकुशील कषायवाळो होय के कषाय विनानो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते कषायवाळो होय, पण कषाय विनानो न होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते सकषायी होय तो तेने केटला कषायो होय ? [उ.] हे गौतम । तेने चिार, त्रण, बे अने एक कषाय होय. जो तेने चार कषायो होय तो संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार कषाय होय. जो तेने त्रण कषायो. होय तो संज्वलन मान, माया अने लोभ ए त्रण कषाय होय. जो तेने बे कषायो होय तो संज्वलन माया अने लोभ होय. अने जो तेने एक कषाय होय तो एक संज्वलन लोभ होय. .८८. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ कषायवाळो होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते कषायवाळो न होय, पण कषायरहित होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते कषायरहित होय तो शुं ते उपशांतकषाय होय के क्षीणकषाय होय ! [उ०] हे गौतम! ते उपशांतकषाय होय अने क्षीणकषाय पण होय. ए प्रमाणे स्नातक संबन्धे पण समजवु. परन्तु स्नातक क्षीणकषाय ज होय, पण उपशातकषाय न होय. ८९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक लेश्यावाळो होय के लेश्यारहित होय ! [उ०] हे गौतम! लेश्यावाळो होय, पण लेश्यारहितः न होय. जो ते लेश्यावाळो होय तो तेने केटली लेश्या होय : उ०हे गौतम ! तेने त्रण विशुद्ध लेश्या होय. ते आ प्रमाणे-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या. ए प्रमाणे बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशीलसंबन्धे पण समजवू. ९०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कषायकुशील लेश्यावाळो होय-इत्यादि पृच्छा. उ०] हे गौतम ! ते लेश्यावाळो होय, पण लेश्यारहित न होय. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते लेश्यावाळो होय तो तेने केटली लेश्या होय ? [उ०] हे गौतम ! तेने छ लेश्या होय. ते आप्रमाणे-९ कृष्णलेश्या अने यावत्-६ शुक्ललेश्या. ९१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं निग्रंथ लेश्यावाळो होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते लेश्यावाळो होय, पण लेश्या विनानो न होय. [प्र०] जो ते लेश्यावाळो होय तो तेने केटली लेश्या होय ! [उ०] हे गौतम ! तेने एक शुक्ललेश्या होय. १९ लेण्यादारपुलाकने लेश्या. कषायकुशीलने लेश्या. सातकने लेश्या. ८६ * पुलाकने कषायोनो क्षय के उपशम होतो नथी एटले ते सकषायी ज होय छे. ७. उपशमश्रेणि के क्षपकश्रेणिमा संज्वलन क्रोधनो उपशम के क्षय थयो होय त्यारे ऋण कषायो, माननो क्षय के उपशम थाय त्यारे बे अने 'माया जाय त्यारे सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानके एक संज्वलन लोभ होय.-टीका. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ९२. [प्र०] सिणाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सलेस्से वा होजा, अलेस्से वा होजा । [प्र०] जइ सलेस्से होजा, से गं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा ? [उ०] गोयमा ! एगाए परमसुकलेस्साए होज्जा १९ ।। ९३. प्र०पुलाए णं भंते ! किं वड्डमाणपरिणामे होजा, हीयमाणपरिणामे होजा, अवट्टियपरिणामे होजाउ०] गोयमा! वड्डमाणपरिणामे वा होजा, हीयमाणपरिणामे वा होजा, अवट्ठियपरिणामे वा होजा । एवं जाव-कसायकुसीले । ९४. [प्र०] णियंठे णं-पुच्छा [उ०] गोयमा! वहृमाणपरिणामे होजा, णो हीयमाणपरिणामे होजा, अवट्टियपरिणामे वा होजा । एवं सिणाए वि। ९५. [प्र०] पुलाए णं भंते ! केवइयं कालं बहमाणपरिणामे होजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ९६. [प्र०] केवतियं कालं हीयमाणपरिणामे होजा? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ९७. [प्र०] केवइयं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं सत्त समया । एवं जाव-कसायकुसीले। ९८. [प्र०] नियंठे णं भंते ! केवतियं कालं वहमाणपरिणामे होजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को. सेण वि अंतोमुहुत्तं । ९९. [प्र०] केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ९२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं स्नातक लेश्यावाळो होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते लेश्यावाळो होय अने लेश्यारहित पण होय. [प्र०] जो ते लेश्यावाळो होय तो ते केटली लेश्यावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! तेने एक परमशुक्ल लेश्या होय. ९३. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक वधता परिणामवाळो होय, घटता परिणामवाळो होय के स्थिर परिणामवाळो होय ? [उ०] २० परिणामद्वारहे गौतम ! वधता परिणामवाळो होय, हीयमान-घटता परिणामवाळो होय अने स्थिर परिणामवाळो पण होय. ए प्रमाणे यावतू-कषाय- पुलाक भने परिणाम. कुशील सुधी जाणवू. ९४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं निग्रंथ वधता परिणामवाळो होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते वधता परिणामवाळो होय, निर्धन्य भने परिणाम. स्थिरपरिणामवाळो होय, पण हीयमान परिणामवाळो न होय. ए प्रमाणे स्नातक संबन्धे पण जाणवू. ९५. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक केटला काळ सुधी वधता परिणामवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट पुलाकना परिणा मनो काळ. अंतर्मुहूर्त सुधी वधता परिणामवाळो होय. __९६. [प्र०] हे भगवन् ! (पुलाक) केटला काळ सुधी हीयमान परिणामवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय भने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी हीयमानपरिणामवाळो होय. - . ९७. [प्र०] केटला काळ सुधी स्थिर परिणामवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट सात समय सुधी स्थिर परिणामवाळो होय. ए प्रमाणे यावत्-कषायकुशील संबन्धे पण समज. ९८. [प्र०] हे भगवन् ! निपंथ केटला काळ सुधी वधता परिणामवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! जंघन्य अंतर्मुहर्त अने उत्कृष्ट निर्मन्थना परिणाम. पण अंतर्मुहूर्त सुधी वधता परिणामवाळो होय. ९९. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटला काळ सुधी स्थिर परिणामवाळो होय? [उ०] हे गौतम! जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी स्थिर परिणामवाळो होय. . ९२ * शुक्लध्यानना त्रीजा भेद समये एक परमशुक्र लेश्या होय अने अन्यदा शुक्ललेल्या होय, अने ते पण इतर जीवनी शुक्ललेश्यानी अपेक्षाए तो परमशुक्ल लेश्या होय. ___९४ निम्रन्थ हीयमान परिणामवाळो न होय, जो तेना परिणामनी हानि थाय तो ते कषायकुशील कहेवाय. नातकने तो परिणामनी हानिनुं कारण नहि होवाथी ते हीयमान परिणामवाळो न होय. ९५ 1 पुलाकना परिणाम ज्यारे वधता होय अने कषायवडे बाधित थाय त्यारे एकादि समय वर्धमान परिणामनो अनुभव करे, तेथी तेनो काळ जघन्यथी एक समय होय अने उत्कर्षथी अन्तर्मुहूर्त होय. एम बकुश, प्रतिसेवाकुशील अने कषायकुशीलने विषे पण जाणवू. परन्तु बकुशादिने जघन्यथी एक समय वर्धमान परिणाम मरणथी पण घटे छे. अने पुलाकपणामां मरण न यतुं होवाथी पुलाकने मरणथी एक समय घटी शकतो नथी, ते मरणसमये कषायकुशीलत्वादिरूपे परिणमे छे. पुलाकने मरण कयुं ते भूतभावनी अपेक्षाए जाणवू. ९८-९९ । निम्रन्थ जघन्य अने उत्कर्षथी अन्तर्मुहूर्त सुधी वर्धमानपरिणामवाळो होय, अने ज्यारे केवलज्ञान उपजे त्यारे तेना परिणामान्तर थाय. निर्मन्थने अवस्थित परिणाम जघन्यतः एक समय मरणथी घटी शके. समय वर्धमान परिणाम मरणथी पण यो अन्तर्मुहूर्त होय. एम बकुश, प्रतिसवार एकादि समय वर्धमान परिणामनो अन Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ बन्धद्वारपुलाकने कर्मप्रकृतिओनो बंध. कुकर्मकृत ओनो बन्ध. कषायकुशीलने प्रकृ तिओनो बन्ध. निने कर्मकृति ओनो बंध. स्नातकने कर्मप्रकृ तिभोनो बंध. २२ वेदद्वार वेदन. W श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २५.- उदेशक ६. १००. [प्र०] सिणार णं भंते! केवदयं कालं वहमाणपरिणामे दोखा ? [४०] गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुडुचं, कोसेण वि तोमुडुचं । २५४ १०१. [०] केवयं का अवडियपरिणामे होला ? [४०] गोयमा ! जत्रेण अंतोमुडुचं, उफोसेणं देणा पुत्रकोटी २० । कालं १०२. [अ०] पुलाए भंते! कति कम्मपगडीओ बंधति ? [४०] गोयमा ! आउयपजाओ सत्त कम्मप्यगडीओ बंधति । १०२. [२०] उसे पुच्छा [४०] गोयमा सत्तविहबंध या अट्ठदिबंध या सत्त बंधमाणे आढययजाभो सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति अट्ठ बंधमाणे परिपुनायो अट्ठ कम्मप्पगडीओ बंधद एवं पडिसेवणाकुसीले वि । । १०४. [प्र०] कसायकुसीले पुच्छा [30] गोयमा ! सत्तविहबंध था, अबिर या छविदधर या सत्त पंधमाणे आयवनाओ सत्त कम्मपगडीयो बंध, अट्ठ बंधमाणे पढिपुचाओ बट्ट कम्मप्पगडीओ बंध, छ बंधमाणे भाडय मोहणिञ्जयजाओ छकम्मप्पगडीओ बंध । १०५. [प्र०] नियंठे णं - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! एगं वेयणिजं कस्मं बंध | १०६. [प्र० ] सिणाए - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! एगविहबंधए वा, अबंधप वा । एगं बंधमाणे एगं वेयणिजं कम्मं २१ । १०७. [ प्र० ] पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेद ? [उ०] गोयमा ! नियमं अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेह । एवं जाव- कसायकुसीले । १००. [प्र० ] हे भगवन्! खातक केटला काळ सुची वधता परिणामवाळ होय! [उ०] हे गौतम | जघन्य अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पण अंतर्मुहूर्त सुधी वधता परिणामवाळो होय. काळ सुधी स्थिर परिणामवाळो होय ! [४०] हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त भने उष्ट कांइक ( आठ वरस ) न्यून पूर्वकोटी वर्ष सुधी ते स्थिर परिणामवाळो होय. १०१. [२०] तक १०२. [१०] हे भगवन् ! पुलाक केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ! [उ०] हे गौतम! ते एक आयुष सिवायनी * सात कर्मप्रकृओने बांघे. १०३. [प्र० ] हे भगवन् ! बकुश केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ? [ उ०] हे गौतम! ते सात कर्मप्रकृतिओने के आठ कर्मप्रकृतिओने बांधे. जो सात कर्मने बांधे तो आयुष सिवायना सात कर्मने बांधे, अने जो आठ प्रकृतिओ बांधे तो संपूर्ण आठ प्रकृतिओ बांचे. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील पण जाणवो. १०४. [ प्र० ] हे भगवन् ! कषायकुशील केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ? [उ०] हे गौतम! ते सात कर्मप्रकृतिओ, आठ कर्मप्रकृतिओ के छ कर्मप्रकृतिओने बांधे, जो सातने बांधे तो आयुष सिवायनी सात बांधे, आठने बांधे तो प्रतिपूर्ण आठ प्रकृतिओने बांधे, अने छने बाचि तो आयुप अने मोहनीय सिवायनी छ कर्मप्रकृतिओने बांध. १०५. [१०] हे भगवन् नि केटली कर्मप्रकृतिओने बांचे! [उ०] हे गौतम! ते मात्र एक वेदनीय कर्मने बांचे. १०६. [प्र० ] हे भगवन् ! स्नातक केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! ते एक कर्मप्रकृतिने बांधे, अथवा न बांधे. जो एकने बांधे तो एक वेदनीयकर्मने बांधे . १०७ [प्र० ] हे भगवन् ! पुलाक केटली कर्मप्रकृतिने वेदे - अनुभवे ? [ उ०] हे गौतम ! ते अवश्य आठे कर्मप्रकृतिओने वेदे . ए प्रमाणे यावत् कषायकुशील संबन्धे जाणवुं. १०8 तक वन्य भने उत्कृष्ट पर्यन्त वर्धमान परिणामवाली होय, केमके शैलेशी अवस्थामा वर्धमान परिणाम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होय. तेने अवस्थित परिणामनो काळ पण अपयशी अन्तर्मुहपर्यन्त होय ज्ञान उत्पन्न थया पछी अन्र्त सुधी अवस्थित परिणामवा थईने शैलेशने स्वीकारे वेनी अपेक्षाए जायो उत्कर्षथी कोइम्यून पूर्वकोटिवर्ष काळ होय. कारण के पूर्वछोटी आयुष्याला पुरुषने जन्मजयन बरस गया पहीन उपने तेथी से नवरस न्यून पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त अवस्थित परिणाममाको पईने शैलेशी सुधी हिरे अने बैठेडीयां वर्धमान दोन १०२* आयुषनो बन्य थतो नवी कारण के रोने आयुपयन्ययोग्य अध्यवसायस्थानको नी १०४ + कषायकुशील सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानके आयुष न बांधे, कारण के आयुषनो बन्ध अप्रमत्त गुणस्थानक सुधी होय छे, अने मोहनीय बादरक पायोदयता अशाभीनबध, माटे सोहनीय अने आयुष सिवाय बानी छ प्रकृतिको बि १०५ योगनिमित एक वेदनीय कर्म बांधे, कारण के लेने बन्धहेतुओयां मात्र योगनोज सद्भाव होय छे. १०६ ॥ स्नातक अयोगी गुणस्थानके बन्धहेतुना अभावथी अबन्धक छे. / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.- उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.. १०८. [प्र० ] नियंठे णं - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! मोहणिजवजाओ सत्त कम्पप्पगडीओ वेदे | १०९. [ प्र० ] सिणाए णं - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! वेयणिज आउय-नाम-गोयाओ चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेद्द २२ । ११०. [प्र० ] पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ उदीरेति ? [30] गोयमा ! आउय-वेयणिजवजाओ छ कम्म प्पगडीओ उदीरेs | २५५ १११. [प्र०] वउसे-पुच्छा । [३०] गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा अट्ठविहउदीरए वा, छविहउदीरप वा । सत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ उदीरेति अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुन्नाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ उदीरेति, छ उदीरेमाणे आउय-वेयणिजवजाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेति । पडिलेवणाकुसीले एवं चैव । ११२. [प्र०] कसायकुसीले - पुच्छा । [30] गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा अट्ठविहउदीरए वा, छव्धिहउदीरण वा, पंचविहउदीरए वा । सत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ उदीरेति; अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुन्नाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ उदीरेति, छ उदीरेमाणे आउय-वेयणिज्जवज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेति, पंच उदीरेमाणे आउय-वेयणिजमोहणिजवजाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेति । ११२. [ प्र० ] नियंठे - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! पंचविहउदीरण वा, दुविहउदीरए वा । पंच उदीरेमाणे आउयवेयणिज - मोहणिजवजाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेति; दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेति । ११४. [प्र० ] सिणा - पुच्छा। [30] गोयमा ! दुविहउदीरए वा अणुदीरप वा । दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेति २३ । ११५. [प्र० ] पुलाए णं भंते! पुलायत्तं जहमाणे किं जहति, किं उवसंपजति ? [ उ० ] गोयमा ! पुलायत्तं जहति, कसायकुसीलं वा अस्संजमं वा उवसंपजति । ११६. [प्र०] बउसे णं भंते ! बउसत्तं जहमाणे किं जहति किं उवसंपजति ? | [30] गोयमा ! बसतं जहति, पडि सेवणाकुसीलं वा कसायकुसीलं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपजति । निर्मन्थने कर्मवेदन. १०८. [प्र० ] हे भगवन् ! निर्प्रथ केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ! [उ०] हे गौतम ! मोहनीय सिवायनी सात कर्मप्रकृतिओने वेदे . १०९. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ? [अ०] हे गौतम ! वेदनीय, आयुष, नाम अने गोत्र - ए चार स्नातकमे कर्मवेदन. कर्मप्रकृतिओने दे.. ११०. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [ उ० ] हे गौतम! * आयुष अने वेदनीय सिवाय छ कर्मप्रकृतिओने उदीरे. १११. [प्र०] बकुश केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [उ०] हे गौतम! सात, आठ के छ कर्मप्रकृतिओने उदीरे. जो ते सातने बकुशने उदीरणाउदीरे तो आयुष सिवायनी सात कर्मप्रकृतिओने उदीरे, जो आठ प्रकृतिओने उदीरे तो संपूर्ण आठे कर्मप्रकृतिओने उदीरे, अने जो छने उदीरे तो आयुष अने वेदनीय सिवायनी छ कर्मप्रकृतिओने उदीरे. प्रतिसेवनाकुशील पण एज प्रमाणे समजावो. उदीरणा. ११२. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ! [उ०] हे गौतम! ते सात, आठ, छ के पांच कर्मप्रकृ- कषायकुशील तिओने उदीरे. सातने उदीरतो आयुष सिवायनी सात कर्मप्रकृतिओने उदीरे, आठने उदीरतो संपूर्ण आठ कर्मप्रकृतिने उदीरे, छने उदीरतो आयुष अने वेदनीय सिवायनी छ प्रकृतिओने उदीरे, अने पांचने उदीरतो आयुष, वेदनीय तथा मोहनीय सिवायनी पांच कर्मप्रकृतिओने उदीरे. १९१३. [प्र० ] हे भगवन् । निग्रंथ केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [उ०] हे गौतम! ते पांच के बे कर्मप्रकृतिओने उदीरे. पांचने खातकने उदीरणा. उदीरतो आयुष, वेदनीय अने मोहनीय सिवायनी पांच कर्मप्रकृतिओने उदीरे, अने बेने उदीरतो नाम अने गोत्र ए बे कर्मप्रकृतिओ उदीरे. ११४. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [30] हे गौतम! ते बे कर्मने उदीरे अथवा न उदीरे. बेने उदीरतो नाम अने गोत्र कर्मने उदीरे छे. ११५. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक पुलाकपणानो त्याग करतो शेनो त्याग करे अने शुं प्राप्त करे ! [उ०] हे गौतम! पुलाकपणानो त्याग करे अने कषायकुशीलपणुं पामे के असंयतपणुं पामे. २३ उदीरणापुलाकने उदीरणा. ११६. [प्र०] हे भगवन् ! बकुरा बकुशपणाने छोडतो शुं छोडे अने शुं पामे ? [उ०] हे गौतम! बकुशपणुं छोडे अने प्रतिसेवाकुशीलपणुं, कषायकुशीलपणुं, असंयम के संयमासंयमने पा. ११०-११३ * पुलाक आयुष अने वेदनीय कर्मने उदीरतो नथी, कारण के तेने तथाविध अध्यवसायस्थानको नथी. परन्तु ते पूर्वे उदीरीने पुलाकपणाने पामे छे. एम आगळना सूत्रमां पण जे जे प्रकृतिओने उदीरतो नथी ते ते प्रकृतिओने पूर्वे उदीरतो बकुशादिपणाने पामे छे. स्नातक सयोगी अवस्थामां नामगोत्र कर्मनो उदीरक छे अने आयुष अने वेदनीय कर्मनी पूर्वे उदीरणा कहेली छे. २४ उपसंपद् हानद्वारपुलाकनो उप संप हान वकुशनी उपसंपद् अने हान. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ६. ११७. [प्र०] पडिसेवणाकुसीले णं भंते ! पडि०-पुच्छा । गोयमा! पडिसेवणाकुसीलत्तं जहति, बउसं वा, कसायकुसीलं वा, अस्संजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपजति। ११८. [प्र०] कसायकुसीले-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! कसायकुसीलत्तं जहति, पुलायं वा, बउसं वा पडिसेवणाकुसीलं वा, णियंठं वा, अस्संजमं वा, संयमासंयम वा उवसंपजति । ११९. [प्र०] णियंठे-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नियंठत्तं जहति, कसायकुसीलं वा, सिणायं वा, अस्संजमं वा उवसंपन्जति । १२०. [प्र०] सिणाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिणायत्तं जहति, सिद्धिगति उवसंपजति २४ । १२१. [प्र०] पुलाए णं भंते! किं सन्नोवउत्ते होजा, नोसन्नोवउत्ते होजा? [उ०] गोयमा! णोसन्नोवउत्ते होजा। १२२. प्रि०] बउसे गं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सन्नोवउत्ते वा होजा, नोसन्नोवउत्ते वा होजा । एवं पतिसेवणाकुसीले वि एवं कसायकुसीले वि । नियंठे सिणाए य जहा पुलाए २५।। १२३. [प्र०] पुलाए णं भंते ! किं आहारए होजा, अणाहारए होजा ? [उ०] गोयमा ! आहारए होजा, णो अणाहारए होज्जा । एवं जाव-नियंठे । १२४. [प्र०] सिणाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! आहारए वा होजा, अणाहारए वा होजा २६ । १२५. [प्र०] पुलाए णं भंते ! कति भवग्गहणाई होजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक, उक्कोसेणं तिन्नि । प्रतिसेवनाकुशीलनी ११७. [प्र०] हे भगवन् ! प्रतिसेवनाकुशील प्रतिसेवनाकुशीलपणुं छोडतो शुं छोडे अने शुं पामे ! [उ०] हे गौतम ! प्रतिसेवउपसंपद् अने हान " नाकुशीलपणुं छोडे अने बकुशपणुं, कषायकुशीलपणुं, असंयम के संयमासंयम पामे. कषायकुशीलनी ११८. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशील कषायकुशीलपणुं छोडतो शुं छोडे अने शुं पामे ! [उ०] हे गौतम ! कषायकुशीलपणुं जहाना छोडे अने पुलाकपणुं, बकुशपणुं, प्रतिसेवनाकुशीलपणुं, निग्रंथपणुं, असंयम के संयमासंयमने पामे. निम्रन्थ शुं छोडे अने ११९. [प्र०ा हे भगवन् ! निग्रंथ निग्रंथपणुं छोडतो शुं छोडे अने शुं पामे? [उ०] हे गौतम ! *निग्रंथपणुं छोडे अने कषायकु शं पामे! " शीलपणुं, स्नातकपणुं के असंयम पामे. स्नातक V छोडे भने १२०. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक स्नातकपणुं छोडतो शुं छोडे अने शुं पामे ? [उ०] हे गौतम ! स्नातकपणुं छोडे अने . शुं पामे. सिद्धिगतिने पामे. २५ संशाद्वार १२१. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक सिंज्ञोपयुक्त-आहारादिनी आसक्ति युक्त छे के नोसंज्ञोपयुक्त आहारादिनी अनासक्ति युक्त छे ! पुलाक अने संशा. [उ०] हे गौतम ! संज्ञोपयुक्त नथी, पण नोसंज्ञोपयुक्त छे. बकुश अने संज्ञा- १२२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं बकुश संज्ञोपयुक्त छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! संज्ञोपयुक्त छे अने नोसंज्ञोपयुक्त पण छे. एप्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील पण जाणवा. स्नातक अने निग्रंथ पुलाकनी पेठे (नोसंज्ञोपयुक्त) जाणवा. २६ आहारद्वार- १२३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पुलाक आहारक होय के अनाहारक होय ? [उ०] हे गौतम ! आहारक होय, पण अनाहारक न पुलाक अने आहार. होय. ए प्रमाणे यावत्-निग्रंथ सुधी जाणवू. स्नातक अने आहारः १२४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं स्नातक आहारक होय के अनाहारक होय ! [उ०] हे गौतम ! आहारक पण होय अने अनाहारक पण होय. २७ भवद्वार १२५. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटलां भवग्रहण थाय ! [उ०] हे गौतम! जघन्य एक अने उत्कृष्ट त्रण भवग्रहण थाय. पुलाकने भव. ११९ * उपशमनिर्ग्रन्थ श्रेणिथी पडतो सकषाय-कषायकुशील थाय, अने श्रेणिना शिखरे मरण पामी देवपणे उत्पन्न धतो असंयत थाय, पण देशविरति न थाय. कारण के देवपणामां देशविरति नथी. यद्यपि श्रेणिथी पढीने देशविरति पण थाय छतां ते अहिं न कह्यो, कारण के श्रेणिधी पडीने तुरत ज देशविरति थतो नथी, पण कषायकुशील थईने पछी देशविरति थाय छै. १२१ + आहारादि संज्ञामा उपयुक्त आहारादिना अभिलाषवाळो संज्ञोपयुक्त कहेवाय छे. आहारादिनो उपभोग करवा छतां तेने विषे आसक्तिरहित नोसंज्ञो पयुक्त कहेवाय छे. तेमा आहारादिने विषे आसक्ति रहित होवाथी पुलाक, निम्रन्थ अने स्नातक नोसंज्ञोपयुक्त होय छे. यद्यपि निम्रन्थ अने स्नातक तो वीतराग होवाथी नोसंज्ञोपयोगयुक्त छे, पण सरागी होवाथी पुलाक नोसंज्ञोपयुक्त केम होइ शके-ए शंका न करवी, केमके सरागपणामां सर्वथा आसक्तिरहितपणु नथी एम न कही शकाय. बकुशादि सराग होवा छतां पण निःसंग छे एम प्रतिपादन करेलुं छे. चूर्णिकार कहे छ के-नोसंज्ञा-ज्ञानसंज्ञा, तेमां पुलाक, निर्मन्य अने स्नातक नोसंज्ञोपयोग सहित होय छे एटले ज्ञानप्रधान उपयोगवाळा होय छे, पण आहारादि संज्ञाना उपयोगवाळा होता नथी. बकुशादि तो नोसंज्ञा अने संज्ञा वन्नेना उपयोगवाळा होय छे. १२३ 1 पुलाकथी आरंभी निर्गन्ध सुधीना मुनिने विग्रहगत्यादि रूप अनाहारकपणाना कारणनो अभाव होवाथी आहारकपणु ज छे. सातक केवलिसमुद्धातना त्रीजा चोथा अने पांचमा समयमा अने अयोगी अवस्थामा अनाहारक छे अने ते सिवाय अन्यत्र आहारक छे. १२५ १ जघन्यतः एक भवमा पुलाक थइने कषायकुशीलपणादि अन्य कोइ पण संयतपणाने एक वार के अनेक वार ते भवमां के अन्य भवर्मा पामीने सिद्ध थाय छे अने उत्कृष्ट देवादिभव वडे अंतरित त्रण भव सुधी पुलाकपणुं पामे छे. . . For Private & Personal use only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५७ १२६. [प्र०] बउसे-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेण एकं, उक्कोसेणं अट्ठ । एवं पडिसेवणाकुसीले वि एवं कसा. यकुसीले वि । नियंठे जहा पुलाए । १२७. [प्र०] सिणाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पक्कं २७ । १२८. [प्र०] पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! जहनेणं एको, उकोसेणं तिन्नि । १२९. [प्र०] बउसस्स णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं सतग्गसो । एवं पडिसेवणाकुसीले वि, एवं कसायकुसीले वि। १३०. [प्र०] णियंठस्स णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एको, उक्कोसेणं दोन्नि । १३१. [प्र०] सिणायस्स णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! एको । १३२. [प्र०] पुलागस्स णं भंते ! नाणाभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पन्नता? [उ०] गोयमा ! जहन्त्रेणं दोनि, उकोसेणं सत्त। १३३. [प्र०] यउसस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो; एवं जाव-कसायकुसीलस्स। १३४. [प्र०] नियंठस्स णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं पंच । १२६. [प्र०] हे भगवन् ! बकुशने केटलां भवग्रहण थाय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य *एक अने उत्कृष्ट आठ भवग्रहण याय. ए कुशने भकप्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील संबन्धे पण जाणवू. तथा पुलाकनी पेठे निग्रंथने पण जाणवो. १२७. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातकने केटलां भवग्रहण थाय ? [उ०] हे गौतम ! एक भवग्रहण थाय.. सातकने भव१२८. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने एक भवमा केटला आकर्ष (चारित्रप्राप्ति ) कहेला छे! [उ०] हे गौतम! जघन्य एक २८ आकर्षभने उत्कृष्ट त्रण आकर्ष थाय. पुलाकने भाकर्ष. १२९. [प्र०] हे भगवन् ! बकुशने एक भवमां केटला आकर्ष थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक अने उत्कृष्ट शतपृथक्त्व- पकुशने आकर्ष. बसोथी मांडी नवसो सुधी आकर्ष थाय. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील संबन्धे पण जाणवं. १३०. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रन्थने एक भवमा केटला आकर्ष थाय ? [उ०] हे गौतम! तेने जघन्य एक अने उत्कृष्ट बे निर्गन्यने बाकर्ष. भाकर्ष थाय. . १३१. प्र०] हे भगवन् ! स्नातकने एक भवमा केटला आकर्ष थाय ! [उ०] हे गौतम ! एक आकर्ष थाय. चातकने भाकर्ष. १३२. [प्र०] हे भगवन् । पुलाकने अनेक भवमा केटला आकर्ष थाय ! [उ०] हे गौतम! तेने जघन्य बि अने उत्कृष्ट सात पुगकने अनेक आकर्ष याय. भवा भाकर्ष. १३३. [प्र०] हे भगवन् ! बकुशने अनेक भवमा केटला आकर्ष थाय? [उ०] हे गौतम ! तेने जघन्य बे अने उत्कृष्ट बे हजारथी पकुछने भनेक भर नव हजार सुधी आकर्ष होय. ए प्रमाणे यावत्-कषायकुशील संबंधे पण जाणवू. १३४. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथने अनेक भवमा केटला आकर्ष थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य $बे अने उत्कृष्ट पांच निर्मन्थने आकर्ष आकर्ष थाय. पाप. मामा १२६ * अहीं कोई एक भवमां बकुशपणु अने कषायकुशीलपणुं पामीने सिद्ध थाय, अने कोई एक भवमा बकुशपणुं पामी भवान्तरे बकुशपणुं पाम्या सिवाय सिद्ध थाय, माटे बकुशने जघन्य एक भव कह्यो छे, अने उत्कृष्ट आठ भवो कह्या छे, कारण के उत्कृष्टपणे आठ भवसुधी चारित्रनी प्राप्ति थाय छे. तेमा कोइक ते आठं भवो बकुशपणावडे अने तेमा छेल्लो भव सकषायत्वादि युक्त बकुशपणावडे पूरो करे छे, अने कोइ तो दरेक भव प्रतिसेवाकुशीलत्वादियुक बकुशपणावडे पूर्ण करे छे. १२८ + आकर्ष-चारित्रना परिणाम, तेवा आकर्ष पुलाकने जघन्यतः एक अने उत्कर्षथी त्रण होय छे, अने बकुशने जघन्यथी अने उत्कर्षथी शतपृथक्त्व (बसोथी नव सो सुधी) होय छे. १३० 1 निम्रन्थने एक भवमा जघन्यथी एक अने बे वार उपशमश्रेणि करवाथी उत्कृष्ट बे आकर्ष होय छे. . १३२ । पुलाकने एक भवमा एक अने अन्य भवमा बीजो-एम अनेक भवने आश्रयी जघन्यथी बे आकर्ष होय छे अने उत्कृष्टथी सात आकर्ष होय छे. पुलाकपणु उत्कृष्ट त्रण भवमा होय, तेमां एक भवमा उत्कर्षतःत्रण वार होय. प्रथम भवमा एक आकर्ष अने बीजा बे भवोमा त्रण त्रण आकर्ष होय. इत्यादि विकल्पथी सात आकर्ष होय. १३३ १ बकुशने उत्कर्षथी आठ भव होय छे, अने तेमांना प्रत्येक भवमा उत्कर्षथी शतपृथक्त्व आकर्ष होय. ज्यारे आठे भवोमा उत्कर्षथी प्रत्येक नवसो नवसो आकर्ष होय-एटले नवसोने आठे गुणता सात हजार ने बसो थाय. ए प्रमाणे बकुशने अनेक भवने आश्रयी सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होय.-टीका. .. १३४ ६ निर्ग्रन्थने उत्कृष्ट प्रण भव होय. तेमांना प्रथम भवमां बे आकर्ष, बीजा भवमां बे अने जीजा भवमा एक. क्षपक निम्रन्थपणानो आकर्ष करी सिद्ध पाय. एम अनेक भवमा निर्ग्रन्थने पांच आकर्ष होय. ३३ भ० सू० . Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खातकने भाकर्ष. २५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.--उद्देशक ६. १३५. [प्र०] सिणायरस-पुच्छा। [उ०] गोयमा! नत्थि एको वि २८ । १३६. [प्र०] पुलाए णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । १३७. [प्र०] बउसे-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहनेणं एक समयं, उकोसेणं देसूणा पुषकोडी । एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि। १३८. [प्र०] नियंठे-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । १३९. [प्र०] सिणाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुषकोडी। १४०. [प्र०] पुलाया गं भंते ! कालओ केवचिरं होति ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं । १४१. [प्र०] बउसे गं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सघद्धं; एवं जाव-कसायकुसीला । नियंठा जहा पुलागा, सिणाया, जहा बउसा २९ । १४२. [प्र०] पुलागरस णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं फालं, अणंताओ ओसप्पिणि-उरसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवद्धपोग्गलपरियढें देसूणं । एवं जाय-नियंठस्स। १४३. [प्र०] सिणायस्स-पुच्छा । [उ.] गोयमा! नत्थि अंतरं। १३५. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातकने अनेक भवमा केटला आकर्ष थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेने एक पण आकर्ष न थाय. १३६. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक काळनी अपेक्षाए केटला काळ सुधी रहे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य अने उत्कृष्ट *अंतमुहूर्त सुधी रहे. १३७. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश केटला काळ सुची रहे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट कइंक न्यून पूर्वकोटि वर्ष सुधी रहे. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील विषे पण समजबुं. १३८. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ केटला काळ सुघी रहे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी रहे. १३९. [प्र०] स्नातक केटला काळ सुधी रहे ? [उ०] हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट कंइक न्यून पूर्वकोटि वर्ष सुधी रहे. १४०. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाको काळनी अपेक्षाए केटला काळ सुधी रहे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी रहे. १४१. [प्र०] बकुशो केटला काळ सुघी रहे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ सर्व काळ रहे. ए प्रमाणे यावत्-कषायकुशीलो सुधी जाणवुनिग्रंथो पुलाकोनी पेठे जाणवा, अने स्नातको बकुशोनी पेठे जाणवा. १४२. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटला काळ सुधीनुं अंतर होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अनंत काळजें अंतर होय. काळथी अनंत अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीनु, अने क्षेत्रथी कंइक न्यून अपार्ध पुद्गलपरावर्तनुं अंतर होय छे. ए प्रमाणे यावत्-निग्रंथ सुधी जाणवू. १४३. [प्र०] स्नातकने केटला काळजें अंतर होय ? [उ०] हे गौतम! अंतर नथी. २९ काळदारपुलाकनो काळ. बकुशनो काळ. निर्गन्थनो काळ. सातकनो काळ. पुलाकोनो काळ. बकुशोनो काळ. ३. अंतरद्वारपुलाकादिनुं अंतर. खातकर्नु अंतर. १३६ * पुलाकपणाने प्राप्त थयेलो ज्यां सुधी अन्तर्मुहूर्त पूरुं न थाय त्या सुधी मरे नहि, तेम पडे पण नहि. तेथी जघन्यथी तेनो काळ अन्तर्मुहूर्तनो होय अने उत्कृष्टथी पण अन्तर्मुहूर्त होय. १३. १ बकुशने चारित्र प्राप्त थया पछी तुरत ज मरणनो संभव होवाथी जघन्य एक समय भने पूर्वकोटी वर्षना आयुषवाळो आठ वरसने अंते चारित्र प्रहण करे ते अपेक्षाए कईक न्यून पूर्वकोटी वर्ष उत्कृष्ट काळ होय.-टीका. १४. एक पुलाक पोताना अन्तर्मुहूर्तना अन्त्य समये वर्तमान होय ते वखते बीजो पुलाकपणुं पामे त्यारे बने पुलाकोनो एक समये सद्भाव थाय भने वे होवाथी अनेक पुलाकोनो जघन्य काळ एक समय होय. अने तेओनो उत्कृष्ट काळ अन्तर्मुहूर्त होय. केमके पुलाको एक समये उत्कृष्टथी सहस्रपृथक्त्व होय, अने तेओ घणा होवा छता तेओनो काळ अन्तर्मुहूर्त छे. केवळ अनेक पुलाकोनी स्थितिनुं अन्तर्मुहूर्त एक पुलाकनी स्थितिना अन्तर्मुहूर्तथी मोटुं छे. .. १४२ प पुद्गलपरावर्तनुं खरूप प्रमाणे २-कोइ प्राणी आकाशना प्रत्येक प्रदेशे मरण पामतो मरणवडे जेटला काळे समस्त लोक व्याप्त करे वेटला काळे क्षेत्रथी पुद्गलपरावर्त थाय. Jain Education international Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४४. [प्र०] पुलायाणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेमं संखेजाई वासाई। १४५. [प्र०] बउसाणं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा! नत्थि अंतरं; एवं जाव-कसायकुसीलाणं । १४६. [प्र०] नियंठाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा । सिणायाणं जहा बउसाणं ३०। १४७. [प्र०] पुलागस्स णं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता? [उ.] गोयमा ! तिन्नि समुग्घाया पन्नता, तंजहायणासमुग्घाए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्धाए । १४८. [प्र०] बउसस्स णं भंते!-पुच्छा। [उ०] गोयमा! पंच समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए, जावतयासमुग्घाए । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। १४९. [प्र०] कसायकुसीलस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! छ समुग्धाया पन्नत्ता; तंजहा-वेयणासमुग्घाए, जावआहारगसमुग्घाए । १५०. [प्र०] नियंठस्स णं-पुच्छा । [उ.] गोयमा! नत्थि एको वि। १५१. [प्र०] सिणायस्स-पुच्छा । [उ.] गोयमा ! पगे केवलिसमुग्धाए पन्नत्ते ३१ । १५२. [प्र०] पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं संखेजहभागे होजा १, असंखेजइभागे होजा २, संखेजेसु भागेसु होजा ३, असंखेजेसु भागेसु होजा ४, सवलोए होजा ५१ [उ०] गोयमा! णो संखेजइभाग होजा, असंखेजहभागे होजा, णो संस्नेजेसु भागेसु होजा, णो असंखेजेसु भागेसु होजा, णो सवलोए होजा । एवं जाव-नियंठे । १५३. [प्र०सिणाए णं-पुच्छा । उ० गोयमा! णो संखेजइभागे होजा, असंखेजइभागे होजा, णो संखेजेसु भागेसु होजा, असंखेजेसु भागेसु होजा, सवलोए वा होजा ३२ । १४४. [प्र०] हे भगवन्! पुलाकोने केटला काळ सुधीनुं अंतर होय ? [उ०] हे गौतम! जघन्य एक समय, अने उत्कृष्ट पुलाकोनुं अंतर. संख्याता वर्षानुं अंतर होय. १४५. [प्र०] हे भगवन् ! बकुशोने केटला काळ सुधीनुं अंतर होय? [उ०] हे गौतम ! अंतर नथी. ए प्रमाणे यावत्-कषाय- बकुशोने अंतर. कुशीलो सुधी जाणवु. १४६. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथोने केटला काळजें अंतर होय ! [उ०] हे गौतम! तेओने जघन्य एक समय, अने उत्कृष्ट छ निम्रन्थोनुं अंतर. मासवें अंतर होय. स्नातको बकुशोनी पेठे जाणवा. १४७. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटला "समुद्धातो कह्या छे ? (उ०] हे गौतम ! त्रण समुद्धातो कह्या छे. ते आ प्रमाणे- ३१ समुद्धातवेदनासमुद्भात, कषायसमुद्धात अने मारणांतिकसमुद्धात. पुलाकने समुद्रात. १४८. [प्र०] हे भगवन् ! बकुशने केटला समुद्धातो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच समुद्धातो कह्या छे, ते आ प्रमाणे- बकुशने समुद्धातो. वेदनासमुद्घात अने यावत्-तैजसमुद्घात. ए प्रमाणे प्रतिसेवनाकुशीलने पण जाणवु. १४९. [प्र०] हे भगवन् ! कषायकुशीलने केटला समुद्धातो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! छ समुद्घातो कह्या छे. ते आ कषायकुशीलने समुदातो. प्रमाणे-वेदनासमुद्घात अने यावत्-आहारकसमुद्धात. १५०. [प्र०] निग्रंथने केटला समुद्घातो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! तेने एक पण समुद्घात नथी. निर्ग्रन्थने समुदातो. १५१. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातकने केटला समुद्घातो होय ? [उ०] हे गौतम ! एक केवलिसमुद्घात होय. सातकने समुद्रात. १५२. [अ०] हे भगवन् ! पुलाक लोकना संख्यातमा भागमा रहे, असंख्यातमा भागमा रहे, संख्याता भागोमां रहे, असंख्याता २२ क्षेत्रदारभागोमा रहे के सर्व लोकमा रहे ? [उ०] हे गौतम ! संख्यातमा भागमां न रहे, संख्याता भागोमां न रहे, असंख्याता भागोमा न रहे। अने आखा लोकमां पण न रहे, किंतु लोकना असंख्यातमा भागमा रहे. ए प्रमाणे यावत्-निग्रंथ सुधी समजवू. १५३. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक लोकना संख्यातमा भागमा रहे-इत्यादि प्रश्न. उ० हे. गौतम ! लोकना संख्यातमा भागमा सातक क्षेत्र न रहे, संख्याता भागोमां न रहे, पण असंख्यातमा भागमा रहे, असंख्याता भागोमा रहे अने संपूर्ण लोकमां पण रहे. १४७ * पुलाकने संज्वलन कषायनो उदय होवाथी कषायसमुद्रात संभवे छे. यद्यपि पुलाकने मरण नथी तो पण मारणांतिक समुद्रात होय छे, कारण के मरणसमुद्भातथी निवृत्त थया पछी कपाय कशीलत्वादिरूप परिणामना सद्भावमा तेनु मरण थाय छे. १५२ 1 केवलिसमुद्धातावस्थामा स्नातक शरीरस्थ होय के दंडकाटावस्थामां होय त्यारे ते लोकना असंख्यातमा भागमा रहे छे. मन्यानावस्थामा तेणे लोकनो घणो भाग व्याप्त करेलो होवाथी अने थोडो भाग अव्याप्त होवाथी लोकना असंख्याता भागोमां वर्ने छे, अने ज्यारे समग्र लोक व्याप्त करे सारे संपूर्ण लोकमां होय छे.-टीका. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक १५.-उदेशक ६. ५४.० पलाए णं भंते ! लोगस्स किं संस्जदमागं फुसद, असंखेजइभागं फुसर? [उ० एवं जहा योगाहणा मणिया तहा फुसणा वि भाणियचा जाव-सिणाए ३३ । १५५. [प्र०] पुलाए गं भंते ! कतरंमि भावे होजा? [उ०] गोयमा! स्नओवसमिए भावे होजा । एवं जावपसायकुसीले। १५६. [प्र०] नियंठे-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! उवसमिए वा भावे होजा, नइए वा भावे होजा । १५७. [प्र०] सिणाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! खाइए भावे होजा ३४ । १५८. प्र० पुलाया णं भंते! एगसमपणं केवतिया होजा? [उ०] गोयमा! पडिवजमाणए पद्धप सिय अत्थि, सिय नथि । जह अत्थि जहमेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । पुषपडिवनए पाप सिय त्थि, सिय नत्थि । जइ अस्थि जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं । १५९. [प्र०] बउसा णं भंते ! एगसमपणं-पुच्छा। [उ.] गोयमा! पडिवजमाणए पडुश सिय अत्यि सिय नत्थि। जए अत्थि जहनेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं । पुषपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिसयपुहुत्तं, उकोसेण वि कोडिसयपुहुत्तं । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । १६०. [प्र०] कसायकुसीलाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पडिवजमाणए पडुश्च सिय अत्यि, सिय नत्थि। आप अस्थि बहनेणं एको वा दो वा तिनि वा, उकोसेणं सहस्सपुहत्तं । पुषपडिवनए पडुश जहन्नेणं कोडिसहस्सपुए, उकोसेण वि कोडिसहस्सपुहुत्तं। १५१. [प्र०] नियंठाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पडिवजमाणए पडुश्च सिय अस्थि, सिय नत्थि; जद्द अस्थि जहणं एस्पर्शनाद्वार- १५४. [४०] हे भगवन् ! शुं पुलाक लोकना संख्यातमा भागने स्पर्श के असंख्यातमा भागने स्पर्श ! [३०] जेम "अवगाहना कही तेम स्पर्शना पण जाणवी. ए प्रमाणे यावत्-स्नातक सुधी समजबु. ३४ भावद्वार- १५५. [प्र०] हे भगवन् । पुलाक कया भावमा होय! [उ०] हे गौतम । क्षायोपशमिक भावमा होय. ए प्रमाणे यावतूपुलाकवे भाव. कषायकुशील सुधी जाणवू. निन्थने भाव. १५६. [प्र०] हे भगवन् ! निर्मथ कया भावमा होय ! [उ०] हे गौतम! ते औपशमिक भावमा होय, अथवा क्षायिक भावमा पण होय. पातकने भाव १५७. [प्र०] हे भगवन् ! स्नातक कया भावमां होय ! [उ०] हे गौतम ! ते क्षायिक भावमा होय. २५ परिमाणद्वार १५८. [प्र०] हे भगवन् ! एक समये केटला पुलाको होय ! [उ०] हे गौतम ! प्रतिपधमान (तत्काळ पुलाकपणाने प्राप्त थता) पुलाकोनी संस्था पुलाकने आश्रयी कदाच होय अने कदाच न होय. प्रतिपद्यमान-पुलाकत्वने प्राप्त थता पुलाक होय तो जघन्य एक, बे के प्रण उत्कृष्ट शतपृथक्त्व-बसोथी नवसो सुधी पुलाको होय. तथा पूर्वप्रतिपन्न (पूर्वे पुलाकपणाने पामेला) पुलाकोनी अपेक्षाए कदाच पुलाको होय भने न होय. जो होय तो जघन्य एक, वे के त्रण होय अने उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व-बे हजारथी नव हजार सुधी होय. एकुशीनी संख्या. १५९. [प्र०] हे भगवन् ! एक समये केटला बकुशो होय ! [उ०] हे गौतम ! प्रतिपधमान (वर्तमान समये बकुशत्वने प्राप्त यता) बकुशोने आश्रयी कदाच होय अने कदाच न होय. जो होय तो जघन्य एक, बे अने त्रण होय. तथा उत्कृष्ट शतपृथक्व-बसोथी नव सो सुची बकुशो होय. पूर्वप्रतिपन (बकुशत्वने पूर्व प्राप्त थएला) बकुशो जघन्य भने उत्कृष्ट बे कोडथी नव कोड सुधी होय. कवायकुशीकोनी .१६०. [प्र०] हे भगवन् ! एक समये केटला कषायकुशीलो होय. [उ०] हे गौतम ! प्रतिपद्यमान (वर्तमान समये कषायकुसंख्या शीलत्वने प्राप्त पता ) कषायकुशीलो कदाच होय अने कदाच न होय. जो होय तो जघन्य एक, बे अने त्रण होय, अने उस्कृष्ट पे हजारथी नव हजार सुधी होय. पूर्वप्रतिपन्न कषायकुशीलोने आश्रयी जघन्य अने उत्कृष्ट 'बे कोडथी नव क्रोड सुधी होय. नियोनी संख्या. १६१. [प्र०] हे भगवन् ! एक समये केटला निग्रंथो होय ! [उ० हे गौतम ! प्रतिपद्यमान (वर्तमान समये निर्ग्रन्थत्वने प्राप्त थता) निर्ग्रन्थो कदाच होय अने कदाच न होय. जो होय तो जघन्य एक बे अने त्रण होय अने उत्कृष्ट एकसोने आठ क्षपकश्रेणिवाळा अने १५४ * स्पर्शना क्षेत्रनी पेठे जाणवी, परन्तु जेटलो भाग अवगाह-आश्रित होय ते क्षेत्रनी अवगाहना, अने अवगाढ क्षेत्र भने तेना पार्श्ववर्ती क्षेत्रनी सर्शना होय छे.-टीका. ६. सर्व संयतोनुं प्रमाण कोटीसहस्रपृथक्त्व छ, भने अहीं तेटल प्रमाण तो केवळ कषायकुशीलोनू की, अने तेमो पुलाकादिनी संख्या उमेरता अधिक संख्या थइ जाय तो विरोध केम न आवे ए शंका न करवी, कारण के कषायकुशीलनु कोटीसहस्रपृथक्त्व प्रमाण काही छे ते वे श्रण कोटी सहसरूप करपीने तेमा पुलाक-बकुशादिनी संख्या उमेरवी तेथी सर्व संयतनुं प्रमाण कम्युं छे तेथी अधिक संख्या नहि थाय.- टीका. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३१ पको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं यावद्वं सतं-अट्ठसयं खवगाणं, चउप्पन्नं उवसामगाणं । पुष्वपडिपन्नए पहुच सिय मयि सिय नस्थि । जइ अत्थि, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं सयपुहुतं । १६२. [प्र० सिणायाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! पडिवजमाणए पडुश्च सिय अस्थि सिय नत्थिा जइ अत्यि जहजेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं अट्ठसतं । पुषपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तं ३५। १६३. [प्र०] एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणाकुसील-कसायकुसील-नियंठ-सिणायाणं कयरे कयरे-जावविसेसाहिया वा[उ.] गोयमा! सपत्थोवा नियंठा, पुलागा संखेजगुणा, सिणाया संखेजगुणा, बउसा संस्खेजगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखेजगुणा, कसायकुसीला संखेजगुणा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'!त्ति जाव-विहरति । ___पणवीसइमे सए छट्ठो उद्देसओ समत्तो । चोपन उपशम श्रेणिवाळा मळीने एकसोने बासठ होय. पूर्वप्रतिपन्न निग्रंथो कदाच होय अने कदाच न होय. जो होय तो जघन्य एक वे के त्रण निग्रंथो होय अने उत्कृष्ट बसोथी नवसो सुधी होय. १६२. [प्र०] एक समये स्नातको केटला होय? [उ०] हे गौतम ! प्रतिपद्यमान स्नातको कदाच होय अने कदाच न होय. सातकोनी संख्य जो होय तो जघन्य एक, बे अने त्रण होय अने उत्कृष्ट आठसो होय. पूर्वप्रतिपन्न स्नातको जघन्य अने उत्कृष्ट बे क्रोडथी नव क्रोड सुधी होय. १६३. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निग्रंथ अने स्नातक, ए बधामा कया कोनाथी ९ अस्पबहुत्वयावत्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! निग्रंथो सौथी थोडा छे, ते करतां पुलाको संख्यातगुण छे. तेथी स्नातको संख्यातगुण छे, तेथी बकुशो संख्यातगुण छे, तेथी *प्रतिसेवनाकुशीलो संख्यातगुण छे भने तेथी कषायकुशीलो संख्यातगुण छे. "हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमजं छे"-एम कही यावत्-विहरे छे. पचीशमा शतकमां षष्ठ उद्देशक समाप्त. सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] कति णं भंते ! संजया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंच संजया पन्नत्ता, तंजहा-१ सामाइयसंजए, २ छेदोबट्ठावणियसंजए, ३ परिहारविसुद्धियसंजए, ४ सुहुमसंपरायसंजए, ५ अहक्खायसंजए । २. [प्र०] सामाइयसंजए. णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-इत्तरिए य आवकहिए य। ३. [अ०] छेओवट्ठावणियसंजए णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सातियारे य निरतियारे य । सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! केटला संयतो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम पांच संयतो कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ सामायिकसंयत, २ १ प्रथापनाछेदोपस्थापनीयसंयत, ३ परिहारविशुद्धिकसंयत, ४ सूक्ष्मसंपरायसंयत अने ५ यथाख्यातसंयत. . संयतना प्रकार २. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिकसंयतना केटला प्रकार कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तेना बे प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणे- सामायिक मैं १ इत्वरिक ( अल्पकालीक ) अने २ यावत्कथिक (जीवनपर्यंत ). ३. [प्र०] हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयतना केटला प्रकार कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! तेना बे प्रकार कह्या छे, ते आ छेदोपस्थापनीव से प्रमाणे-सातिचार अने निरतिचार. यवना प्रकार. प्रकार १६३ * बकुश अने प्रतिसेवनाकुशीलनुं प्रमाण कोटीशतपृथक्त्व को छे तो बकुश करतां प्रतिसेवनाकुशील संख्यातगुणा केम घटी शके ? ए शंकानुं समाधान आ प्रमाणे ठे-बकुशनु कोटीशतपृथक्त्व प्रमाण कयुं छे ते बेत्रण कोटीशतरूप जाणवू अने प्रतिसेवाकुशीलनु कोटीशतपृथक्त्व प्रमाण चार छ कोटीशतरूप जाणवू,-टीका. 1 जे सामायिक संयतने चारित्र प्रहण कर्या पछी भविष्यमा छेदोपस्थानीय संयतपणानो व्यपदेश-व्यवहार थाय ते इत्वरिक-अल्पकालिक सामायिक संयत कहेवाय छे अने जेने सामायिक चारित्र लीधा पछी बीजो व्यपदेश न थाय ते यावत्कथिक सामायिक संयत' कहेवाय छे. ३१ अतिचारयुक्त साधुने दीक्षापर्याय छेदी फरी महाव्रत आपवा ते सातिचार छेदोपस्थापनीय कहेवाय अने प्रथम दीक्षित साधुने तथा पार्श्वनाथना तीर्थयी महावीरना तीर्थमा प्रवेश करनार साधुने फरी महानत आपवा ते निरतिचार छेदोपस्थापनीय कहेवाय छे. छेदोपस्थापनीय साधु प्रथम तीर्थकर अने पश्चिम तीर्थकरना तीर्थमा ज होय छे. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धिकना प्रकार. सूक्ष्मसंपरायना प्रकार. यथाख्यात संयतना प्रकार. सामायिक संयत. छेदोपखापनीय. परिहार विशुद्धिक. सूक्ष्मसंपराय. २ वेदसामायिक संयतने वेद. ३ रागसामायिक संयत अने राग. ४ कल्प सामायिक संयतने कल्प. छेदोपस्थापनीयने कल्प. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २५.उद्देशक ७. ४. [प्र० ] परिहारविसुद्धियसंजर - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजदा- णिधिसमाणण य निधिटुकाइए य । ५. [२०] सुदुमपराग पुच्छा [४०] गोयमा दुबिछे पनते, संजदा- संकिलिस्समाण व विसुद्माण प ६. [ प्र० ] अहफ्खायसंजर - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुविहे पत्रत्ते, तंजहा - छउमत्थे य केवली य । सामाइयंमि उ कप चाउजामं अणुत्तरं धम्मं । तिविहेणं फासयंतो सामाइयसंजओ स खलु ॥ १ ॥ छेतून उ परियागं पोराणं जो उवेद अप्पाणं धम्मंमि पंचामे छेदोवडायो स खलु ॥ २ ॥ परिहरइ जो विसुद्धं तु पंचयामं अणुत्तरं धम्मं । तिविहेणं फासयंतो परिहारियसंजओ स खलु ॥ ३ ॥ लोभाणू वेययतो जो खलु उपसामनो व खपओ वा सो सुतुमसंपराओ बहलाया ऊणओ किंचि ॥ ४ ॥ उवसंते खीणंमि व जो खलु कम्मंमि मोहणिजंमि । छउमत्थो व जिणो वा अहवाओ संजओ स खलु ॥ ५ ॥ (१) ७. [0] सामाइयसंजर णं भंते! किं सवेदर होना अवेद दोला ? [४०] गोयमा ! सवेदन वा होजा, अवेदए चा होजा । जइ सवेद एवं जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं । एवं छेदोवट्ठावणियसंजय वि । परिहारविसुद्धियसंजओ जहा पुलाओ । सुहुमसंपरायसंजओ अहक्खायसंजओ य जहा नियंठो (२) । २६२ ८. [प्र० ] सामादयसंजय णं भंते किं खरागे होला पीपरागे दोखा [ड०] गोयमा ! सरागे दोना, नो पीपरा होजा एवं जाय सुडुमसंपरायसंजर अहसावसंजय जहा नियंडे (३) । 1 ९. [प्र० ] सामाइयसंजर णं भंते । किं ठियकप्पे होजा, अट्ठियकप्पे होला ? [ उ०] गोयमा ! ठियकप्पे वा होजा, विकप्पे या होजा । १०. [१०] छेदोवायणियसंजय पुण्छा [४०] गोवमा ! ठिबकण्ये होना, जो अट्ठियकप्पे होला । एवं परिहारविसुद्धिय संजय वि । सेसा जहा सामाइयसंजए । ४. [ प्र० ] हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयतना केटला प्रकार कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! तेना वे प्रकार का छे. ते आ प्रमाणे- निर्विशमानक ( तप करनार ) अने निर्विष्टकाविक (वैयावृत्य करनार ). ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयतना केटला प्रकार कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! बे प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणेसंक्लिश्यमानक (उपश्रेणिधी पडतो) अने विशुध्यमानक ( उपशमश्रेणि के क्षपकश्रेणि पर चढतो ). ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! यथाख्यात संयतना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! बे प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणे-छास्थ अने केवळी. सामायिक स्त्री कार्या पछी चार महाव्रतरूप प्रधान धर्मने मन, वचन अने कायाथी त्रिलिचे जे पाळे ते 'सामायिकसंवत' कहेवाय. पूर्वना पर्यायनो छेद करी जे पोताना आत्माने पांच महाव्रतरूप धर्ममां स्थापे ते 'छेदोपस्थापनीयसंयत' कहेवाय छे. जे पांच महाव्रतरूप अने उत्तमोत्तम धर्मने त्रिविधे मन वचन अने कायाची पाळतो अमुक प्रकार तप करे वे 'परिहारविशुद्धिकसंयत' कद्देवाय छे. मना अणुओने दो चारित्रमोहने उपशमाने के क्षय करे ते 'सूक्ष्मसंपराय' कहेवाय छे अने ते यथारूपात संपथी कक न्यून होय छे. मोहनीय कर्म उपशान्त के क्षीण थया पछी जे छद्मस्थ होय के जिन होय ते 'यथाख्यातसंयत' कहेवाय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत वेदवाळो होय के वेदविरहित होय! [उ०] हे गौतम! ते *वेदवाळो होय अने वेदविरहित पण होय. जो वेदवाळो सामायिकसंयत होय तो तेने बधी हकीकत कषायकुशीलनी पेठे जाणवी. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीयसंयत पण समजवो. परिहारविशुद्धिक संयत संबंधी हकीकत पुलाकनी पेठे जाणवी सूक्ष्मपराय संयत अने यथाख्यात संयत निर्बंधनी पेठे (अवेदक ) जाणवा. ८. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत रागवाळो होय के वीतराग होय ? [उ०] हे गौतम! ते रागवाळो होय, पण वीतराग न होय. ए प्रमाणे सूक्ष्मसंपराप संवत संबंधे पण जाणतुं यथाख्याता संवतने निर्बंधनी पेठे जाण. ९. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत स्थितकल्पमां होय के अस्थितकल्पमां होय ! [उ०] हे गौतम । स्थितकल्पमा पण होय अने अस्थितकल्पमां पण होय. १०. [प्र०] हे भगवन्। शुं छेदोपस्थापनीय संवत स्थितरुपमा होय के अस्थितकल्पमा होय! [उ०] हे गौतम! स्थितकल्पमा होय, पण अस्थितकल्पमां न होय. ए प्रमाणे परिहारविशुद्धिक संयतने पण जाणवुं. अने बाकीना बधा सामायिक संयतनी पेठे जाणवा. १ लोभमणुं वेदतो क । नवमा गुणस्थानक सुधी सामायिक संयत कहेवाय छे. नवमा गुणस्थानके वेदनो उपशम अथवा क्षय थाय छे, माटे त्यां सामायिक संयत अवेदक होय छे अने तेना पूर्ववर्ती गुणस्थाने सवेदक होय छे. जो ते सवेदक होय तो ते त्रण वेदवाळो होय छे अने अवेदक होय तो ते क्षीगवेद होय के उपशान्तवेद होय. परिहारविशुद्धिक संयत पुलाकनी पेठे पुरुषवेदवाळी के पुरुषनपुंसक वेदवाळी ( कृत्रिमनपुंसक ) होय छे. १० + अस्थितकल्प मध्यम बावीश जिनना तीर्थमां अने महाविदेह जिनना तीर्थमां होय छे, अने त्यां छेदोपस्थापनीय चारित्र नथी. तेथी छेदोपस्थापनीयसंयतने अस्थितकल्प न होय. ७ * Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११. [प्र० सामाइयसंजए णं भंते । किं जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, कप्पातीते होजा? [उ० गोयमा! जिणकप्पे वा होजा, जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं । छेदोवट्ठावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो, सेसा जहा नियंठे (४)। १२. प्र० सामाइयसंजएं णं भंते! किं पुलाए होजा, बउसे, जाव-सिणाए होजा? [उ.1 गोयमा! पुलाए वा होजा, बउसे, जाव-कसायकुसीले वा होजा, नो नियंठे होजा, नो सिणाए होजा । एवं छेदोवट्ठावणिए वि। १३. परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो पुलाए, नो बउसे, नो पडिसेवणाकुसीले होजा, कसायकुसीले होजा, नो नियंठे होजा, नो सिणाए होजा । एवं सुहमसंपराए वि। १४. [प्र०] अहफ्खायसंजए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो पुलाए होजा, जाव-नो कसायकुसीले होजा, नियंठे वा होजा, सिणाए वा होजा (५)। १५. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! किं पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा ? [उ०] गोयमा! पडिसेवए वा होजा, अपडिसेवए वा होजा । जइ पडिसेवए होजा, किं मूलगुणपडिसेवए होजा, सेसं जहा पुलागस्स । जहा सामाइयसंजए एवं छेदोवट्ठावणिए वि। १६. [प्र०] परिहारविसुद्धियसंजए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा । एवं जाव-अहक्खायसंजए (६)। १७. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होजा? [उ०] गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होजा, एवं जहा कसायकुसीलस्स तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए, एवं जाव-सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजयस्स पंच नाणाई भयणाए जहा नाणुद्देसए। १८. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! केवतियं सुयं अहिजेजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ, जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि। ११. [१०] हे भगवन् ! शुं सामायिकसंयत जिनकल्पमा होय, स्थविरकल्पमा होय के कल्पातीत होय ! [उ०] हे गौतम | ते जिनकल्पमा होय-इत्यादि बाकी बधु कषायकुशीलनी पेठे जाणवू.छेदोपस्थापनीय अने परिहारविशुद्धिकनी हकीकत बकुशनी पेठे जाणवी अने बाकी बधा निग्रंथनी पेठे समजवा. १२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिकसंयत पुलाक होय, बकुश होय के यावत्-स्नातक होय ! [उ.] हे गौतम | ते पुलाक सामायिक बने पण होय, बकुश पण होय, यावत्-कषायकुशील होय, पण निग्रंथ के स्नातक न होय. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीयसंयत संबंधे पण जाणवं १३. [प्र०] हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत शुं पुलाक होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पुलाक न होय, बकुश न होय, परिहारविशुद्ध बने प्रतिसेवनाकुशील न होय, निग्रंथ न होय अने स्नातक न होय, पण कषायकुशील होय. ए प्रमाणे सूक्ष्मसंपराय संयत पण जाणवो. पुलाकादि. १४. [प्र०] यथाख्यातसंयत शुं पुलाक होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पुलाक न होय अने यावत्-कषायकुशील न होय, यथाख्यात अने पण निग्रंथ होय अथवा स्नातक होय. पुलाकादि. १५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिकसयत प्रतिसेवक-चारित्रविराधक होय के अप्रतिसेवक-आराधक होय! [उ. हे ५प्रतिसेवागौतम ! प्रतिसेवक पण होय अने अप्रतिसेवक पण होयः [प्र.] हे भगवन् ! जो ते प्रतिसेवक होय.तो शुं अहिंसादि मूलगुणनो सामायिक संवत भने प्रतिसेवकप्रतिसेवक होय के प्रत्याख्यानरूप उत्तरगुणनो प्रतिसेवक होय ? [उ०] बाकी बधुं पुलाकनी पेठे जाणवू. सामायिकसंयतनी पेठे छेदोपस्थापनीय संयत पण जाणवो. १६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परिहारविशुद्धिक संयत प्रतिसेवक छे के अप्रतिसेवक छे ! [उ०] हे गौतम ! ते प्रतिसेवक नथी, परिवार विशुविक पण अप्रतिसेवक छे. ए प्रमाणे यावत्-यथाख्यात संयत सुधी जाणवू. अने प्रतिसेवक १७. [प्र०] हे भगवन् । सामायिकसंयतने केटला ज्ञान होय ! [उ०] हे गौतम | तेने बे, त्रण के चार ज्ञान होय. ए प्रमाणे शानदारकषायकुशीलनी पेठे चार ज्ञान भजनाए होय छे. ए प्रमाणे यावत्-सूक्ष्मसंपराय संयत सुधी जाणवू. तथा *ज्ञानोद्देशकमां कह्या प्रमाणे यथाख्यात संयतने पांच ज्ञान *भजनाए होय छे. १८. [प्र०] हे भगवन् । सामायिकसंयत केटलं श्रुत भणे? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य आठ प्रवचनमाता रूप श्रुतनुं श्रुतदारअध्ययन करे-इत्यादि बधी हकीकत कषायकुशीलनी पेठे जाणवी. तथा एज रीते छेदोपस्थायनीयसंयतने पण समजवू. सामायिक संयतने श्रव. 'सुहुमसंपराइए अङ। १७ * जुभो भग० ख०३ श०८१०२ पृ०६९. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार विशुद्धि कने श्रुत. यथाख्यातने श्रुत. ८ तीर्थद्वार ९ लिंगद्वार १० शरीरद्वार ११ क्षेत्रद्वार १२ काळद्वार श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे शतक २५. - उदेशक ४. १९. [प्र०] परिहारविसुद्धियसंजर - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्स पुवस्ल ततियं आयारवत्युं, उकोसेणं असं पुन्नाई दस पुवाई अहिज्जेजा । सुहुमसंपरायसंजय जहा सामाइयसंजए । २६४ २०. [प्र०] अहक्त्रायसंजए- पुच्छा । [३०] गोयमा ! जहनेणं अट्ठ पवयगमायाओ, उकोलेणं चोदस पुवाई अहिजेज्जा, सुयवतिरिते वा होजा (७) । २१. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते! किं तित्थे होजा, अतित्थे होजा ? [उ०] गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा, जहा कसायकुसीले । छेदोवट्ठावणिए परिहारबिसुद्धिए य जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइयसंजय (८) । २२. [प्र० ] सामाइयसंजय णं भंते! किं सलिंगे होजा, अन्नलिंगे होजा, गिहिलिंगे होजा [30] जहा पुलाए । एवं छेदोवट्टावणिए वि । २३. [प्र०] परिहारविसुद्धियसंजय णं भंते! होजा, नो अन्नलिंगे होजा, नो गिहिलिंगे होजा । किं पुच्छा [अ०] गोयमा ! दधलिंगं पि भावलिंगं पि पहुच सलिंगे सेसा जहा सामाइयसंजर ( ९ ) । २४. [०] सामाइयसंजणं भंते ! कतिसु सरीरेसु होजा ? [30] गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा-जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि, सेसा जहा पुलाए (१०) । २५. [अ०] सामाइयसंजय णं भंते! किं कम्मभूमीए होजा, अकम्मभूमीप होजा १ [उ०] गोयमा ! जम्मणं संतिभाषचं पहुच कम्मभूमीए, जो अकस्मभूमीप - जहा बउसे । एवं छेदोवट्टावणिए वि । परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइयसंजय (११) २६. [प्र० ] सामाइयसंजय णं भंते! किं ओसप्पिणीकाले होजा, उस्सप्पिणिकाले होज्जा, नोओसप्पिणि- नोडस्सप्पि १९. [प्र०] हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत केटलं श्रुत भणे ! . [ उ०] हे गौतम ! ते जघन्य नवमा पूर्वनी त्रीजी आचारवस्तु सुधी, अने उत्कृष्ट अपूर्ण दस पूर्वो भणे. तथा सूक्ष्मसंपराय संयत सामायिकसंयतनी पेठे जाणवो. २०. [प्र० ] हे भगवन् ! यथाख्यातसंयत केटलं श्रुत भणे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य आठ प्रवचनमाता रूप श्रुत भणे अने उत्कृष्ट चौद पूर्व भणे अथवा श्रुतरहित ( केवली ) होय. २१. [प्र०] हे भगवन्! शुं सामायिक संयत तीर्थमां होय के तीर्थना अभावमां होय ! [उ०] हे गौतम । तीर्थमां पण होय अने तीर्थना अभावमां पण होय - इत्यादि बधी हकीकत कषायकुशीलनी पेठे जाणवी. छेदोपस्थापनीय अने परिहारविशुद्धिक पुलाकनी पेठे जाणवा, अने बाकी बधा सामायिकसंयतनी पेठे जाणवा. २२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत खलिंग-साधुना लिंगमां होय, अन्य-तापसादिना लिंगमा होय के गृहस्थना लिंगम होय? [उ०] ते संबंधी बधी हकीकत पुलाकनी पेठे जाणवी. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय संयत माटे पण जाणवु. २३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परिहारविशुद्धिक संयत स्वलिंगे होय, अन्यलिंगे होय के गृहस्थलिंगे होय ! [उ० ] हे गौतम ! ते द्रव्यलिंग अने भावलिंग आश्रयी स्खलिंगम होय, पण अन्यलिंगे के गृहस्थलिंगे न होय. बाकी बधुं सामायिकसंय - तनी पेठे जाणवुं. २४. [प्र० ] हे भगवन् । सामायिक संयतने केटला शरीर होय ! [उ०] हे गौतम! तेने त्रण, चार, के पांच शरीर होयइत्यादि बधुं कषायकुशीलनी पेठे जाणवुं. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय संयत विषे पण जाणवुं. बाकीना बधा संयतो पुलाकनी पेठे समजवा. २५. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत कर्मभूमिमां थाय के बनेनी अपेक्षाए कर्मभूमिमां थाय, पण अकर्मभूमिमां न थाय - इत्यादि बधुं समज. परिहारविशुद्धिकने पुलाकनी पेठे जाणवुं अने बाकी बधा संयतो अकर्मभूमिमां थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जन्म अने सद्भाव बकुरानी पेठे जाणवुं. ए रीते छेदोपस्थापनीय संयतने पण सामायिकसंयतनी पेठे जाणवा. २६. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं सामायिकसंयत उत्सर्पिणीकाळे काळे थाय ! [उ०] हे गौतम! ते उत्सर्पिणी काळे थाय - इत्यादि बधुं छेदोपस्थापनीय संयत पण जाणवो. पण विशेष ए के जन्म अने सद्भावनी अपेक्षाए चारे परिभागमां- सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमा थाय, अवसर्पिणीकाळे थाय के नोउत्सर्पिणी - नोअवसर्पिणी बकुरानी पेठे ( पृ० २४७, सू० ५५ ) जाणवुं. ए प्रमाणे २६ * नोउत्सर्पिणी - नोअवसर्पिणी ना सुषमादि समान त्रण प्रकारना काळमां ( देवकुर्बादिमां ) बकुशनो जन्म भने सद्भावधी निषेध कर्यो छे, अने दुःषमसुषमा समान काळमां ( महाविदेहमां ) तेनुं अस्तित्व छे, परन्तु छेदोपस्थापनीय संयतनुं त्यां पण अस्तित्ल नथी. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. ' भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २६५ णिकाले होजा? [उ०] गोयमा! ओसप्पिणिकाले-जहा बउसे । एवं छेदोवद्रावणिए वि । नवरं जम्मण-संतिभावं पडुच चउसु वि पलिभागेसु नत्थि, साहरणं पडुच्च अन्नयरे पडिभागे होजा, सेसं तं चेव । २७. [प्र० परिहारविसुद्धिए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! ओसप्पिणिकाले वा होजा, उस्सप्पिणिकाले वा होजा, नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले नो होजा । जइ ओसप्पिणिकाले होजा-जहा पुलाओ। उस्सप्पिणिकाले वि जहा पुलाओ। सुहमसंपराइओ जहा नियंठो । एवं अहक्खाओ वि (१२)। २८. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! कालगए समाणे किं(क)गतिं गच्छति ? [उ०] गोयमा! देवगतिं गच्छति ।[प्र०] देवगति गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववजेजा, वाणमंतरेसु उववजेजा, जोइसिएसु उववजेजा, वेमाणिएसु उववजेजा? [उ०] गोयमा! णो भवणवासीसु उववजेजा-जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । सुहुमसंपराए जहा नियंठे । २९. [प्र०] अहक्खाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! एवं अहक्खायसंजए वि जाव-अजहन्नमणुकोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववजेजा; अत्थेगतिए सिज्झति, जाव-अंतं करेति। ३०. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववजति-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अविराहणं पडुच्च, एवं जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । सेसा जहा नियंठे। ३१. [प्र०] सामाइयसंजयस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । एवं छेदोवट्ठावणिए वि। ___३२. [प्र०] परिहारविसुद्धियस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई, सेसाणं जहा नियंठस्स (१३) । ३३. [प्र०] सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! असंखेजा संजमट्ठाणा पन्नत्ता, एवं जाव-परिहारविसुद्धियस्स। दुःषमा, अने दुःषमासुषमाना समान काळे न होय. अने संहरणनी अपेक्षाए चारमाथी कोई पण एक परिभागमा होय. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. २७. [प्र.] हे भगवन् ! शुं परिहारविशुद्धिक संयत अवसर्पिणीकाळे होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! अवसर्पिणीकाळे होय अने उत्सर्पिणीकाळे पण होय, पण नोउत्सर्पिणी-नोअवसर्पिणी काळे न होय. जो ते अवसर्पिणी के उत्सर्पिणीकाळे होय तो, ते संबंधे पुलाकनी पेठे (उ०६ सू० ५२) समजवू. सूक्ष्मसंपराय संयत निग्रंथनी पेठे ( उ०६ सू० ५८) जाणवो. ए प्रमाणे यथाख्यात संयत पण जाणवो. २८. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिकसंयत काळगत थया पछी कइ गतिमां जाय ? [उ०] हे गौतम ! देवगतिमां जाय. [प्र०] देवगतिमा १३ गतिद्वार:जतो सामायिकसंयत शुं भवनवासी देवोमां उत्पन्न थाय, वानन्यंतरोमां उत्पन्न थाय, ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थाय के वैमानिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! भवनवासीमां न उत्पन्न थाय-इत्यादि बधी वक्तव्यता कषायकुशीलनी पेठे (उ० ६ सू० ५९) जाणवी. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय संयत संबंधे पण जाणवू. परिहारविशुद्धिक संयत पुलाकनी पेठे अने सूक्ष्मसंपराय निग्रंथनी पेठे (उ०६सू०६०) जाणवा. २९. [प्र०] यथाख्यात संयत कइ गतिमां जाय ? [उ०] हे गौतम ! यथाख्यात संयत पण पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत्जघन्य अने उत्कृष्ट सिवाय अनुत्तरविमानमा उत्पन्न थाय अने केटलाक तो सिद्ध थाय यावत्-सर्व दुःखनो अन्त करनार थाय. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिकसंयत देवलोकोमा उत्पन्न थतो शुं इंद्रपणे उपजे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! संयमनी अविराधनाने अपेक्षी-इत्यादि बधुं कषायकुशीलनी पेठे ( उ० ६ सू० ६३ ) जाणवू. छेदोपस्थापनीय संयतने पण ए प्रमाणे समजवु. पुलाकनी पेठे ( उ० ६ सू० ६२) परिहारविशुद्धिक अने बाकी बधा निग्रंथनी पेठे ( उ० ६ सू० ६४ ) जाणवा. ३१. [प्र०] हे भगवन् । देवलोकमा उत्पन्न थता सामायिकसंयतनी केटली स्थिति कही छे ? [उ०] हे गौतम । तेनी जघन्य सामायिक संयतनी बे पल्योपमनी अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय संयत विषे पण समजवू. स्थिति. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! देवलोकमां उत्पन्न थता परिहारविशुद्धिक संयतनी केटली स्थिति कही छे ? [उ०] हे गौतम । तेनी परिहार विशुद्धि कनी स्थिति. जघन्य दे पल्योपमनी अने उत्कृष्ट अढार सागरोपमनी स्थिति कही छे. बाकीना बधा संयतो संबंधे निग्रंथनी पेठे जाणवू. ३३. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिकसंयतनां केटलां संयमस्थानो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! असंख्य संयमस्थानो कह्यां छे. १४ संयमसान सामायिक संयतना ए प्रमाणे यावत्-परिहारविशुद्धिक सुधी जाणवु. संयमस्थान. ३४ भ. सू. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ७ ३४. [प्र०] सुहुमसंपरायसंजयस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! असंखेजा अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा पन्नत्ता। ३५.प्रअहक्खायसंजयस्स-पुच्छा। [उ०] गोयमा! एगे अजहन्नमणुकोसए संजमठाणे पन्नत्ते। ३६. प्र०] एएसिणं भंते! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराग-अहक्खायसंजयाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरे-जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सम्वत्थोवे अहक्खायसंजमस्स एगे अजहन्नमणुकोसए संजमट्ठाणे, सुहुमसंपरागसंजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, परिहारविसुद्धियसंजयस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, सामाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं संजमट्ठाणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेजगुणा (१४)। ३७. [प्र०] सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइया चरित्तपजवा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! अणंता चरित्तपजवा पन्नत्ता, एवं जाव-अहक्खायसंजयस्स ।। ३८. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अमहिए ? [उ०] गोयमा! सिय हीणे-छट्ठाणवडिए । ३९. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! छेदोवट्ठावणियसंजयस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय हीणे, छट्ठाणवडिए । एवं परिहारविसुद्धियस्स वि । ४०. प्र०] सामाइयसंजए णं भंते! सुहुमसंपरागसंजयस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं-पुच्छा । [उ.] गोयमा! हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । एवं अहक्खायसंजयस्स वि । एवं छेदोवट्ठावणिए वि हेट्ठिलेसु तिसु वि समं छट्ठाणवडिए, उवरिलेसु दोसु तहेव हीणे । जहा छेदोवट्ठावणिए तहा परिहारविसुद्धिए वि। ४१. [प्र०] सुहुमसंपरागसंजए णं भंते ! सामाश्यसंजयस्स परट्ठाण-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए, अणंतगुणमन्महिए । एवं छेओवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिएसु वि समं । सट्टाणे सिय हीणे; नो तुल्ले, सिय अभहिए । जइ होणे अणंतगुणहीणे, अह अब्भहिए अणंतगुणमभहिए । सूक्ष्मसंपरायना ३४. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयतना केटलां संयमस्थानो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम ! तेनां असंख्य संयमस्थानो संयमस्थान के अने तेनी अंतर्मुहतेनी स्थिति छे. यथाख्यातना संय- ३५. [प्र०] हे भगवन् ! यथाख्यातसंयतनां केटलां संयमस्थानो कह्यां छे ? [उ.] हे गौतम! तेओर्नु जघन्य अने उत्कृष्ट मस्थान. सिवाय एक संयमस्थान कयुं छे. संयमस्थानोनुं ३६. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनीयसंयत, परिहारविशुद्धिकसंयत, सूक्ष्मसंपरायसंयत अने यथाख्यातअल्पबदुत्व. संयत, एओना संयमस्थानोमां कोना संयमस्थानो कोना संयमस्थानोथी यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम | यथाख्यात संयतनुं अजघन्य अनुत्कृष्ट एक संयमस्थान होवाथी सौथी अल्प छे, तेथी सूक्ष्मसंपराय संयतनां अंतर्मुहूर्त सुधी रहेनारा संयमस्थानो असंख्यगुणां छे, तेथी परिहार विशुद्धिकनां संयमस्थानो असंख्यगुणां छे, तेथी सामायिकसंयत अने छेदोपस्थापनीयसंयतना संयमस्थानो असंख्य गुणां छे अने परस्पर सरखां छे. १५ संनिकर्षद्वार- ३७. [40] हे भगवन् ! सामायिकसंयतना केटला चारित्रपर्यवो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम । तेना अनंत चारित्रपर्यवो कह्या सामायिकसयतना के.ए प्रमाणे यावत्-यथाख्यातसंयत सुधी जाणवु. चारित्रपर्यवो. सामायिक संयतर्नु ३८. [प्र०] हे भगवन् । सामायिकसंयत बीजा सामायिकसंयतना सजातीय चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन होय, तुल्य होय के अधिक होय ! [उ०] हे गौतम ! कदाच हीन होय, तुल्य होय अने अधिक होय अने तेमां-हीनाधिकपणामा छ स्थान पतित होय. अपेक्षाए अल्पबहुत्व. ९ सामायिक अने छे. ३९. [प्र०] हे भगवन् ! एक सामायिकसंयत छेदोपस्थापनीयसंयतना विजातीय चारित्रपर्यायना संबन्धनी अपेक्षाए शुं हीन होयदोपस्थापनीयतुं पर्या - इत्यादि पृच्छा. उ०] हे गौतम ! कदाच हीन होय-इत्यादि छ स्थान पतित होय. ए प्रमाणे परिहारविशुद्धिक संबंधे पण समजवु. यापेक्षाए भरूपबहुत्व. सामायिकना सूक्ष्म ४०. [प्र०] हे भगवन् ! एक सामायिकसंयत सूक्ष्मसंपरायसंयतना विजातीय चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए हीन होय-इत्यादि पृच्छा. संपरायनी अपे (उ०] हे गौतम ! हीन होय, तुल्य न होय, तेम अधिक पण न होय. तेमां पण अनंतगुण हीन छे. ए प्रमाणे यथाख्यातसंयत क्षार पर्यायो. संबंधे पण जाणवू. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय पण नीचेना त्रणे चारित्रनी अपेक्षाए छ स्थानपतित छे अने उपरना बे चारित्रथी तेज प्रमाणे अनन्तगुण हीन छे. जेम छेदोपस्थापनीयसंयत विषे कह्यं तेम परिहारविशुद्धिक संबंधे पण जाणवू. सूक्ष्मसंपरायना सा- ४१. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपरायसंयत सामायिकसंयतना विजातीय पर्यायोनी अपेक्षाए शुं हीन छे-- इत्यादि पृच्छा. मायिकनी अपेक्षाए [उ०] हे गौतम ! ते हीन नथी, सरखो नथी, पण अधिक छे अने ते अनंत गुण अधिक छे. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय अने परिहारपर्यायो. विशुद्धिकनी साथे जाणवू. पोताना सजातीय पर्यायनी अपेक्षाए कदाच हीन होय, कदाच तुल्य होय अने कदाच अधिक होय. जो हीन होय तो अनंतगुण हीन होय, जो अधिक होय तो अनंतगुण अधिक होय. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४२. [प्र०] सुहुमसंपरायसंजयस्स अहक्खायसंजयस्स परट्ठाण-पुच्छा । [उ.] गोयमा! हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । अहक्खाए. हेट्ठिल्लाणं चउण्ह वि नो हीणे, नो तुल्ले, अन्भहिए, अणंतगुणमभहिए । सटाणे नो हीणे, तुल्ले, नो अब्भहिए। ४३. प्र०] एएसि णं भंते ! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय-अहक्खायसंजयाणं जहन्नकोसगाणं चरित्तपन्जवाणं कयरे कयरे-जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा, परिहारविसुद्धियसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं उक्कोसगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला अनंतगुणा,- सुहुमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, तस्स चेव उकोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा अहक्खायसंजयस्स अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा (१५)। ४४. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा? [उ०] गोयमा ! सजोगी-जहा पुलाए । एवं जाव-सुहुमसंपरायसंजए । अहक्खाए जहा सिणाए (१६)। ४५. प्र० सामाइयसंजए णं भंते! किं सागारोवउत्ते होजा अणागारोवउत्ते होजा? [उ०] गोयमा! सागारोवउत्ते-जहा पुलाए । एवं जाव-अहक्खाए । नवरं सुहुमसंपराए सागारोवउत्ते होजा, नो अणागारोवउत्ते होजा (१७) । ४६. प्र० सामाइयसंजए णं भंते ! कि सकसायी होजा, अकसायी होजा? [उ०] गोयमा सकसायी होजा, नो अकसायी होजा-जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवढावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । ४७. [प्र०] सुहुमसंपरागसंजए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सकसायी होजा, नो अकसायी होजा । ४८. [प्र०] जइ सकसायी होजा, से णं भंते ! कतिसु कसायेसु होजा? [उ० गोयमा! एगंमि संजलणलोभे होजा। • अहक्खायसंजए जहा नियंठे (१८)। १२. प्रि०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपरायसंयत यथाख्यातसंयतना विजातीय चारित्रपर्यायोनी अपेक्षाए हीन होय-इत्यादि प्रच्छा. [उ०] हे गौतम । तेओ हीन छे, सरखा नथी अने तुल्य पण नथी, पण अधिक छे. अने ते अनंतगुण हीन छे. यथाख्यात संयत नीचेना चारेनी अपेक्षाए हीन नथी, तुल्य नथी, पण अधिक छे अने ते अनंतगुण अधिक छे. पोताना स्थानमा हीन अने अधिक नथी पण सरखा छे. १३. प्र०न हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्मसंपराय संयत अने यथाख्यात सामायिक संयतासंयत, एओना जघन्य अने उत्कृष्ट चारित्रपर्यवोमां कोना कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! सामायिक संयत दिनु अल्पबहुत्व. अने छेदोपस्थापनीय संयत-ए बन्नेना जघन्य चारित्रपर्यवो परस्पर सरखा अने सौथी थोडा छे, तेथी परिहारविशुद्धिक संयतना जघन्य चारित्र पर्यवो अनंत गुणा छे, अने तेथी तेनाज उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंत गुणा छे, तेथी सामायिक संयत अने छेदोपस्थापनीय संयतना उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुणा अने परस्पर सरखा छे, तेथी सूक्ष्मसंपराय संयतना जघन्य चारित्रपर्यवो अनंतगुणा छे अने तेथी तेनाज उत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुणा छे, अने तेथी यथाख्यात संयतना अजघन्य अने अनुत्कृष्ट चारित्रपर्यवो अनंतगुणा छे. १४. प्रि०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत सयोगी. होय के अयोगी होय ! [उ.] हे गौतम ! ते सयोगी होय-इत्यादि १६ योगद्वारबधं पलाकनी पेठे (उ०६ सू०८३) जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-सूक्ष्मसंपराय संयत संबंधे समजवू. अने यथाख्यात संयत संबंधे स्नातकनी पेठे ( उ० ६ सू० ८४ ) जाणवू. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिकसंयत साकार-ज्ञानउपयोगवाळो होय के अनाकार-दर्शन उपयोगवाळो होय ? [उ०] १७ उपयोगदारहे गौतम ! साकारउपयोगवाळो होय-इत्यादि बधुं पुलाकनी पेठे ( उ० ६ सू० ८५) जाणवू. ए रीते यावत्-यथाख्यात संयत संबंधे समजवं. विशेष ए के सूक्ष्मसंपराय संयत साकार उपयोगवाळो होय, पण अनाकार उपयोगवाळो न होय. ४६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत कषायवाळो होय के कषायरहित होय ? [उ०] हे गौतम ! ते कषायवाळो होय, १८ कषायद्वारपण कषायरहित न होय-इत्यादि कषायकुशीलनी पेठे ( उ०६ सू०८६) जाणवू. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय पण जाणवो. परिहारविशुद्धिक संयतने पुलाकनी पेठे ( उ० ६ सू० ८७ ) जाणवू. ४७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सूक्ष्मसंपराय संयत कपायवाळो होय के कषायरहित होय ? [उ०] हे गौतम! कपायवाळो होय, पण कषायरहित न होय. ४८. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते (सूक्ष्मसंपराय संयत ) कषायवाळो होय तो ते केटला कषायवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! तेने मात्र एक संज्वलन लोभ होय. यथाख्यात संयत संबंधे निग्रंथनी पेठे ( उ० ६ सू० ८८) जाणवू. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ वेश्याद्वार २६८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ७. ४९. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! किं सलेस्से होजा, अलेस्से होजा? [उ०] गोयमा ! सलेस्से होजा-जहा कसायफुसीले । एवं छेदोषट्ठावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । सुहुमसंपराए जहा नियंठे । महक्खाए जहा सिणाए । नवरं जइ सलेस्से होजा, एगाए सुक्कलेस्साए होजा (१९)। ___५०. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! किं वहृमाणपरिणामे होजा, हीयमाणपरिणामे, अवट्टियपरिणामे ? [उ.] गोयमा ! वहमाणपरिणामे-जहा पुलाए । एवं जाव-परिहारविसुद्धिए । ५१. [प्र०] सुहुमसंपराए-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! वहमाणपरिणामे वा होजा, हीयमाणपरिणामे वा होजा, नो अवट्टियपरिणामे होजा । अहक्खाए जहा नियंठे। ५२. प्र० सामाइयसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वडमाणपरिणामे होजा [उ.1 गोयमा! जहन्नेणं पकं समयजहा पुलाए । एवं जाव-परिहारविसुद्धिए। ५३. [प्र०] सुहुमसंपरागसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वहृमाणपरिणामे होजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । [प्र०] केवतियं कालं हीयमाणपरिणामे ? [उ०] एवं चेव । ५४. [प्र०] अहक्खायसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणामे होजा? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । [प्र०] केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुष्चकोडी (२०)। ५५. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ? [उ०] गोयमा ! सत्तविबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा-एवं जहा बउसे । एवं जाव-परिहारविसुद्धिए । ५६. [प्र०] सुहुमसंपरागसंजए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! आउय-मोहणिजवजाओ छ कम्मप्पगडीओ बंधति । अहक्खाएसंजए जहा सिणाए (२१)। ४९. प्रि०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत लेश्यासहित होय के लेश्यारहित होय ! [उ०] हे गौतम | ते लेश्यासहित होयइत्यादि बधुं कषायकुशीलनी पेठे (उ०६ सू०९०) जाणवू. छेदोपस्थापनीयने पण ए प्रमाणे जाणवू. पुलाकनी पेठे (उ०६ सू०८१) परिहारविशुद्धिकने समजवू. सूक्ष्मसंपराय संयत निग्रंथनी पेठे (उ०६सू०९१) जाणवो. अने स्नातकनी पेठे यथाख्यात संयत विषे जाणवं. परन्तु जो लेश्यासहित होय तो ते एक शुक्ललेश्यावाळो होय. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं *सामायिक संयत चढता परिणामवाळो होय, हीयमान-पडता परिणामवाळो होय के स्थिर परिणामवाळो होय ! [उ०] हे गौतम! ते चढता परिणामवाळो होय-इत्यादि बधु पुलाकनी पेठे (उ० ६ सू० ९३) जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-परिहारविशुद्धिक संयत सुधी समजवु. ५१. प्र०] हे भगवन् ! शुं सूक्ष्मसंपराय संयत चढता परिणामवाळो होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम । ते चढता परिणामवाळो होय, पडता परिणामवाळो होय, पण स्थिर परिणामवाळो न होय. यथाख्यात संयतने निग्रंथनी पेठे (उ०६सू०९४) जाणवं. ५२. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत केटला काळ सुधी चढता परिणामवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य एक समय सुधी चढता परिणामवाळो होय-इत्यादि बधु पुलाकनी पेठे (उ०सू०९५) जाणवू तथा ए प्रमाणे यावत्-परिहार विशुद्धिक संबंधे पण समजवं ५३. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयत केटला काळ सुधी चढता परिणामवाळो होय ! [उ०] हे गौतम | ते जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी चढता परिणामवाळो होय. [प्र०] ते केटला काळ सुधी पडता परिणामवाळो होय ! [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवु. ५४. [प्र०] हे भगवन् ! यथाख्यात संयत केटला काळ सुधी चढता परिणामवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते जघन्य अने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी चढता परिणामवाळो होय. [प्र०] ते केटला काळ सुधी स्थिर परिणामवाळो होय ? [उ०] हे गौतम । ते जघन्य एक समय, अने उत्कृष्ट अंशतः न्यून पूर्वकोटि सुधी स्थिर परिणामवाळो होय. ५५. [प्र०) हे भगवन् ! सामायिक संयत केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! ते सात कर्म प्रकृतिओ के आठ कर्म प्रकृतिओने बांधे-इत्यादि बधुं बकुशनी पेठे (उ० ६ सू० १०२) जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-परिहारविशुद्धिक संयत सुधी समजवू. ५६. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयत केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ? [उ०] हे गौतम । ते आयुष अने मोहनीय सिवाय छ कर्मप्रकृतिओने बांधे. यथाख्यात संयत संबंधे स्नातकनी पेठे ( उ० ६ सू०१०६ ) जाणवू. २० परिणामदार परिणामो काल ११बन्धद्वार - ५१ * सूक्ष्मसंपराय ज्यारे श्रेणि उपर चढतो होय त्यारे वर्धमान परिणामवाळो अने श्रेणिथी पडतो होय त्यारे हीयमान परिणामवाळो होय, पण खाभाविक रीते स्थिर परिणामवाळो न होय. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५. - उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २६९ ५७. [प्र०] सामाइयुसंजय णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? [ड०] गोयमा । नियमं अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेति । एवं जाव - सुहुमसंपराए । ५८. [ प्र० ] अक्खाए - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! सत्तविहवेयर वा चउधिहवेयप वा । सत्त वेदेमाणे मोहणिजवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेति, चत्तारि वेदेमाणे वेयणिज्जा - उय - नाम - गोयाओ चत्तारि कम्पप्पगडीओ वेदेति (२२) । ५९. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ उदीरेति ? [ उ० ] गोयमा ! सत्तविह-जहा बउसो । एवं जाव - परिहारविसुद्धिए । ६०. [प्र०] सुहुमसंपराए- पुच्छा । [30] आय - वेयणिजवजाओ छ कम्म पगडीओ उदीरे डीओ उदीरेह । ६१. [प्र०] अहक्खायसंजए - पुच्छा । [ उ० ] गोयमा ! पंचविहउदीरए वा दुविहउदीरए वा अणुदीरप वा । पंच उदीरेमाणे आउय० - सेसं जहा नियंठस्स ( २३ ) । ६२. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे किं जहति, किं उवसंपजति ? [उ०] गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहति, छेदोवट्ठावणियसंजयं वा, सुहुम संपरागसंजयं वा, असंजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपजति । ६३. [ प्र० ] छेओवावणिए - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! छेभवट्ठावणियसंजयत्तं जहति, सामाइयसंजमं वा, परिहारविसुद्धियसंजमं वा, सुहुमसंपरागसंजमं वा असंजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपज्जति । ६४. [प्र०] परिहारविसुद्धिए - पुच्छा । [ उ० ] गोयमा ! परिहारविसुद्धियसंजयत्तं जहति, छेदोवट्ठावणियसंजयत्तं वा असंजमं वा उवसंपज्जति । गोयमा ! छधिहउदीरण वा पंचविहउदीरप वा । छ उदीरेमाणे पंच उदीरेमाणे आउय - वेयणिज - मोहणिज्जवज्जाओ पंच कम्मप्पग ५७. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे - अनुभवे ? [उ०] हे गौतम ! ते अवश्य आठ कर्मप्रकृतिओने वेदे . ए प्रमाणे यावत्-सूक्ष्मसंपराय सुधी जाणवुं. ५८. [प्र०] हे भगवन् ! यथाख्यात संयत केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ? [उ०] हे गौतम ! ते सात कर्मप्रकृतिओने वेदे के चार कर्मप्रकृतिओने वेदे. ज्यारे ते सात कर्मने वेदतो होय त्यारे मोहनीय सिवायना सात कर्मने वेदे, अने ज्यारे ते चार प्रकारनां कर्मने वेदतो होय त्यारे वेदनीय, आयुष, नाम अने गोत्र- ए चार कर्मप्रकृतिओने वेदे . ५९. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [उ०] हे गौतम ! ते सात कर्मप्रकृतिओने उदीरेइत्यादि बधुं बकुरानी पेठे (उ० ६ सू० १११ ) जाणवुं यावत् - परिहारविशुद्धिक ए प्रमाणे जाणवो. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [उ०] हे गौतम! छ कर्मप्रकृतिओनी अथवा पांच कर्मप्रकृतिओनी उदीरणा करे. जो छ कर्मनी उदीरणा करे तो आयुष अने वेदनीय सिवाय बाकीनां छ कर्मनी उदीरणा करे. जो पांच कर्मनी उदीरणा करे तो आयुष, वेदनीय अने मोहनीय कर्म सिवाय बाकीनां पांच कर्मनी उदीरणा करे. A ६१. [०] हे भगवन् ! यथाख्यात संयत केटली कर्मप्रकृतिओने उदीरे ? [उ०] हे गौतम! ते पांच कर्मप्रकृतिओने उदीरे के बे कर्मप्रकृतिओने उदीरे, अथवा कोइ पण प्रकारना कर्मनी उदीरणा न करे. जो पांच कर्मनी उदीरणा करे तो आयुष, वेदनीय अने मोहनीय कर्म सिवाय बाकीनां पांच कर्मनी उदीरणा करे - इत्यादि बधुं निर्ग्रथनी पेठे ( उ० ६ सू० ११३ ) जाणवुं.' ६२, [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत सामायिकसंयतपणानो त्याग करतो शुं छोडे, शुं प्राप्त करे ? [उ०] हे गौतम ! सामायिकसंयतपणानो त्याग करे अने छेदोपस्थापनीयसंयतपणं, सूक्ष्मसंपरायसंयतपणं, असंयम के संयमासंयम - देशविर तिपणुं प्राप्त करे. ६३. [प्र०] हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत शुं छोडे अने शुं प्राप्त करे ! [उ०] हे गौतम! *छेदोपस्थापनीय संयतपणानो त्याग करे अने सामायिक संयतपणुं, परिहारविशुद्धिकसंयतपणुं, सूक्ष्मसंपरायसंयतपणुं, असंयम के देशविरतिपणुं प्राप्त करे. ६४. [प्र०] परिहारविशुद्धिक संबंधे पृच्छा. [ उ०] हे गौतम! ते परिहारविशुद्धिकसंयतपणानो त्याग करे अने छेदोपस्थापनीयसंयतपणुं के असंयम प्राप्त करे. ६३ * जेम प्रथम तीर्थंकरना तीर्थना साधु अजितजिनना तीर्थमां प्रवेश करे त्यारे छेदोपस्थापनीय चारित्र छोडी सामायिक चारित्र अंगीकार करे. ए रीते छेदोपस्थापनीय संयत तेनो त्याग करतो सामायिकसंयतपणं स्वीकारे. ६४ परिहारविशुद्धिक संयत परिहारविशुद्धिकसंयतपणानो त्याग करी गच्छमां प्रवेश करे त्यारे छेदोपस्थापनीयसंयतपणं पामे, अने देवगतिमां जाय तो असंयतपणुं पामे. २२ वेदनद्वार २३ उदीरणाद्वार २४ उपसंपदानछोडे भने सामायिकसंयत शुं स्वीकारे. छेदोपस्थापनीय शुं छोडे अने शुं प्राप्त करे ? Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ७. ६५. [प्र. सुहमसंपराए-पुच्छा। उ०] गोयमा! सुहुमसंपरायसंजयत्तं जहति, सामाइयसंजयं वा. छेओवटावणियसंजयं वा, अहक्खायसंजयं वा, असंजमं वा उवसंपजइ । ६६. [प्र०] अहवखायसंजए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अहक्खायसंजयत्तं जहति, सुहुमसंपरागसंजयं वा, असंजमं वा, सिद्धिगति वा उवसंपजति (२४)। ६७. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! किं सन्नोवउत्ते होजा, नोसन्नोवउत्ते होजा ? [उ०] गोयमा ! सन्नोवउत्ते-जहा बउसो । एवं नाव-परिहारविसुद्धिप । सुहमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए (२५)। ६८. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! किं आहारए होजा, अणाहारए होजा । [उ०] जहा पुलाए । एवं जावसुहुमसंपराए । अहक्खायसंजए जहा सिणाए (२६) । ६९. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! कति भवग्गहणाई होजा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एकं, उक्कोसेणं अट्ठ । एवं छेदोवट्ठावणिए वि। ७०. [प्र०] परिहारविसुद्धिए-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एकं, उक्कोसेणं तिन्नि । एवं जाव-अहफ्खाए (२७) । ७१. [प्र०] सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणंजहा बउसस्स। ७२. [प्र०] छेदोवट्ठावणियस्स पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एको, उक्कोसेणं वीसपुहुतं । ७३. [प्र०] परिहारविसुद्धियस्सपुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं ऐक्को, उक्कोसेणं तिन्नि । २५ संज्ञाद्वार २६ आहारकद्वार ६५. [प्र०] सूक्ष्मसंपराय संबंधे पूर्ववत् पृच्छा. (उ०] हे गौतम ! ते "सूक्ष्मसंपरायसंयतपणानो त्याग करे अने सामायिक संयतपणु, छेदोपस्थापनीयसंयतपणुं, यथाख्यातसंयतपणु के असंयम प्राप्त करे.. ६६. [प्र०] यथाख्यातसंयत संबन्धे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! ते यथाख्यातसंयतपणानो त्याग करे अने सूक्ष्मसंपराय संयम, असंयम के सिद्धिगतिने प्राप्त करे. ६७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत संज्ञोपयुक्त आहारादिमा आसक्त होय के नोसंज्ञोपयुक्त-आहारादिमा आसक्तिरहित होय ! [उ०] हे गौतम ! ते संज्ञोपयुक्त होय-इत्यादि बधुं बकुशनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-परिहारविशुद्धिक संयत सुधी' जाणवू. सूक्ष्मसंपराय अने यथाख्यात संबन्धे पुलाकनी पेठे ( उ० ६ सू० १२२ ) जाणवू. ६८. [प्र०] हे भगवन् । शुं सामायिक संयत आहारक होय के अनाहारक होय १ [उ०] हे गौतम ! पुलाकनी पेठे ( उ०६ सू० १२३) जाणवु. ए रीते यावत्-सूक्ष्मसंपराय सुधी समजवं. यथाख्यात संयत स्नातकनी पेठे ( उ० ६ सू० १२४ ) जाणवो. ६९. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत केटलां भवग्रहण करे [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक भव अने उत्कृष्ट आठ भवग्रहण करे. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय विषे पण जाणवू. ७०. [प्र०] हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक केटला भव ग्रहण करे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक भव अने उत्कृष्ट त्रण भवग्रहण करे ए प्रमाणे यावत्-यथाख्यात संयत संबंधे जाणवू. ७१. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयतने एक भवमा ग्रहण करी शकाय तेवा केटला आकर्ष कह्या छे-अर्थात् एक भवर्मा केटली बार सामायिक संयम प्राप्त थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य [एक अने उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होय ]-इत्यादि बधुं बकुशनी पेठे (उ० ६ सू० १३०) समजवु. ७२. [प्र०] हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयतने एक भवमा ग्रहण करी शकाय तेवा केटला आकर्ष कह्या छे ! [उ०] हे गौतम | तेने जघन्य एक अने उत्कृष्ट वीशपृथक्त्व-बेथी नव वीश आकर्ष का छे. ७३. [प्र०] परिहारविशुद्धिक संबन्धे पृच्छा. [उ०] हे गौतम! तेने जघन्य एक अने उत्कृष्ट त्रण आकर्ष कह्या छे. २७ भवदार २८ आकर्षद्वार परिहारविशुद्धिकने भाकरे १ सर्वत्र ‘एवं' इति पाठ ग-घ-पुस्तके उपलभ्यते, परं क-ङपुस्तके 'एको' इति पाठः । ६५ * सूक्ष्मसंपरायसंयत श्रेणिथी पडतो सूक्ष्मसंपरायसंयतपणानो त्याग करी जो पूर्व सामायिक संयत होय तो सामायिकसंयतपणु प्राप्त करे अने पूर्वे छेदोपस्थापनीय संयत होय तो छेदोपस्थापनीयसंयतपणुं पामे. जो श्रेणि उपर चढे तो यथाख्यातसंयतपणुं पामे. ६६ ॥ यथाख्यात संयत श्रेणिथी पडवाथी यथाख्यातसंयतपणानो त्याग करतो सूक्ष्मसंपरायसंयतपणुं पामे अने उपशांतमोहावस्थामां मरण पागे तो देवगतिमा असंयतपणुं पामे, अने जो स्नातक होय तो सिद्धिगति पामे. ७३ * परिहारविशुद्धिकपणुं एक भवमा व्रण वार प्राप्त थाय छे. . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २७१ ७४. [प्र०] सुहमसंपरायस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एको, उक्कोसेणं चत्तारि। ७५. [प्र०] अहक्खायस्स-पुच्छा । [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उकोसेणं दोन्नि । ७६: प्र० सामाइयसंजयस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! जहा घउसे। ७७. [प्र.] छेदोवट्ठावणियस्स-पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं उरि नवण्हं सयाणं अंतो सहस्सस्स । परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं सत्त । सुहुमसंपरागस्स जहन्नेणं दोन्नि, उकोसेणं नव । अहक्खायस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं पंच । ७८. [प्र०] सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एकं समयं, उकोसेणं देसूणयहि नवहिं वासेहिं ऊणिया पुवकोडी । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एकं. समयं, उक्कोसेणं देसूणएहिं एकूणतीसाए वासेहिं ऊणिया पुचकोडी । सुहुमसंपराए जहा नियंठे । अहक्खाए जहा सामाइयसंजए। . ७९. [प्र०] सामाइयसंजया णं भंते! कालओ केवचिरं होंति ? [उ०] गोयमा! सबद्धं । . ८०. [प्र०] छेदोवट्ठावणिएसु पुच्छा । [उ.] गोयमा! जहन्नेणं अड्डाइजाई वाससयाई, उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई। सूक्ष्मसंपरायसंय तने आकर्ष. यथाख्यातसंयतने भाकर्ष. सामायिक संयतने अनेक भवमा आकर्ष. ७४. [प्र०] सूक्ष्मसंपराय संबंधे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेने जघन्य *एक अने उत्कृष्ट चार आकर्ष कह्या छे. ७५. [प्र०] यथाख्यात संबन्धे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेने 'जघन्य एक अने उत्कृष्ट बे आकर्ष होय छे. .७६. प्रि०] हे भगवन् ! सामायिक संयतने अनेक भवमा ग्रहण करी शकाय तेवा केटला आकर्ष कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! -इत्यादि बधुं बकुशनी पेठे ( उ० ६ सू० १३४ ) जाणवू. ७७. प्र०) छेदोपस्थापनीय संयत संबन्धे पृच्छा. [उ०] हे गौतम | तेने जघन्य बे अने उत्कृष्ट नवसो उपर अने हजारनी अंदर आकर्षा कह्या छे.परिहारविशुद्धिकने जघन्य बे अने उत्कृष्ट सात, सूक्ष्मसंपरायने जघन्य बे अने उत्कृष्ट नव तथा यथाख्यातने जघन्य बे अने उत्कृष्ट पांच आकर्षो कह्या छे. ७८. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत काळथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट काइक ऊणा-नव वरस न्यून पूर्वकोटि वर्ष सुधी होय. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय संबंधे पण समजवू.-परिहारविशुद्धिक जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट काइक न्यून ओगणत्रीश वर्ष ऊणी पूर्वकोटि वर्ष सुधी होय. सूक्ष्मसंपराय संबंधे निग्रंथनी पेठे (उ०६ सू० १३९) जाणवू. यथाख्यातने सामायिक संयतनी जेम समजवु. ७९. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयतो काळथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओ सर्व काळे होय. ८०. प्र०] हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयतो काळथी क्यांसुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्य अढीसो वर्ष सुधी अने उत्कृष्ट पचासलाख क्रोड सागरोपम सुधी होय. २९ काळदार सामायिकादि संयः तोनो काळ.. - ७४ * सूक्ष्मसंपराय संयतने एक भवमां बे वार उपशमश्रेणिनो संभव होवाथी अने प्रत्येक श्रेणिमा संक्लिश्यमान अने विशुध्यमान एम बे प्रकारना सूक्ष्मसंपराय होवाथी चार वार सूक्ष्मसंपरायपणानी प्राप्ति थाय छे. . ५ + यथाख्यात संयतने बे वार उपशमश्रेणिनो संभव होवाथी बे आकर्ष होय छे. - परिहारविशुद्धिक संयतने एक भवमा उत्कृष्ट त्रण वार परिहारविशुद्धिचारित्र प्राप्त थाय छे अने ते तेने त्रण भवमा होय छे. एक भवमा त्रण वार, बीजा भवमां बे वार अने त्रीजा भवमां बे वार-इत्यादि विकल्पथी तेने अनेक भवमा सात आकर्ष थाय छे. सूक्ष्मसंपरायने एक भवमा चार आकर्ष होय छे भने त्रण भवमा सूक्ष्मसंपराय होय छे. तेने एक भवमा चार, बीजा भवमा चार अने एक भवमा एक-एम अनेक भवमां नव भाकर्ष थाय छे. यथाख्यात संयतने एक भवमां बे आकर्ष, बीजा भवमां बे अने त्रीजा भवमा एक-एम त्रण भवमा बधा मळीने पांच आकर्ष होय छे.. ७४ | सामायिक चारित्रनी प्राप्तिना समय पछी तुरत ज मरण थाय ते अपेक्षाए सामायिक संयतनो काळ जघन्य एक समय छे, अने उत्कृष्ट नव वर्ष न्यून पूर्वकोटीवर्ष छे ते गर्भसमयथी आरंभीने तेनी गणना जाणवी. जन्मदिवसथी गणना करीए तो आठ वरस न्यून पूर्वकोटी वर्ष काळ होय. परिहारविशुद्धिकने जघन्य एक समय मरणनी अपेक्षाए होय अने उत्कृष्ट काइक न्यून ओगणत्रीश वरस ओछी पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होय. पूर्वकोटि वर्षना आयुषवाळो कोइ मनुष्य कंइक न्यून नव वरसनी उमरे दीक्षा ग्रहण करे, तेने वीश वरसनो दीक्षापर्याय थाय त्यारे दृष्टिवादना अध्ययननी अनुज्ञा मळे, त्यार पछी ते परिहारविशुद्धिचारित्र स्वीकारे अने तेनुं अढार मासर्नु प्रमाण छतां अविच्छिन्न तेज परिणामे जीवनपर्यन्त पाळे-एम ओगणत्रीश वर्ष न्यून पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त परिहारविशुद्धिक संयत रहे. यथाख्यात संयतने उपशमावस्थामां मरणनी अपेक्षाए जघन्यथी एक समय होय अने स्नातकने यथाख्यात संयतनी अपेक्षाए देश न्यून पूर्वकोटि वर्ष होय. - ७९ उत्सर्पिणीमां आदि तीर्थकरना तीर्थ सुधी छेदोपस्थापनीय चारित्र होय अने तेनुं तीर्थ अढीसो वरस सुधी होय, तेथी छेदोपस्थापनीय संयतोनो काळ जघन्यथी अढीसो वरस होय. अवसर्पिणी काळमा प्रथम तीर्थकरना तीर्थ सुधी छेदोपस्थापनीय होय अने ते पचासकोड लाख सागरोपम सुधी होय, माटे उत्कृष्टथी तेटलो काळ छद्मस्थ संयतोनो होय छे. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक २५.-उद्देशक ७ '८१.[प्र०]परिहारविसुद्धीएसु-पुच्छा ।[उ०]गोयमा! जहन्नेणं देसूणाई दो वाससयाई, उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुष्चकोडीओ। ८२. [प्र०] सुहुमसंपरागसंजया णं भंते! पुच्छा । गोयमा! जहन्नेणं एकं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुतं । महक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया (२९)। ८३. [प्र० सामाइयसंजयस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतर होह[उ०] गोयमा। जहनेणं जहा पुलागस्स । एवं जाव-अहक्खायसंजयस्स। ४.प्र० सामाइयसंजयाणं भंते ! पुच्छा। [उ०] गोयमा! नत्थि अंतरं। ८५. [प्र०] छेदोवट्ठावणिय-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं तेवढि वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। ८६. [प्र०] परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं चउरासीइं वाससहस्साई, उकोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ । सुहुमसंपरायाणं जहा नियंठाणं । अहक्खायाणं जहा सामाइयसंजयाणं (३०)। ८७. [प्र०] सामाइयसंजयस्स णं भंते! कति समुग्धाया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा!छ समुग्घाया पन्नत्ता-जहा कसायकुसीलस्स । एवं छेदोवट्ठावणियस्स वि । परिहारविसुद्धियस्स जहा पुलागस्स । सुहुमसंपरागस्स जहा नियंठस्स । अहक्खायस्स जहा सिणायस्स (३१)। ८१. [प्र०] हे भगवन् ! *परिहारविशुद्धिक संयतो काळथी क्यांसुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्य काइक ऊणा बसो वर्ष सुधी अने उत्कृष्ट कांइक न्यून बे पूर्वकोटि वर्ष सुधी होय. ८२. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयतो संबंधे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त सुधी होय. यथाख्यात संयतो सामायिक संयतोनी पेठे जाणवा. ३० अन्तरद्वार- ८३. [प्र०] 'हे भगवन् ! सामायिक संयतने केटला काळजें अंतर होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य [ एक समय ]-इत्यादि सामायिकापि संय- बधुं पुलाकनी पेठे ( उ० ६ सू०१४५) जाणवू. ए रीते यावत्-यथाख्यात संयत सुधी समजवू. तर्नु अन्तर. सामायिकादि संय- ८४. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयतोने केटला काळजें अंतर होय ? [उ०] हे गौतम ! तेओने अंतर नथी. तोर्नु अन्तर. ८५. [प्र०] छेदोपस्थापनीय संयतो संबंधे पृच्छा. [उ०] हे गौतम! तेओने जघन्य त्रेसठ हजार वर्ष अने उत्कृष्ट अढार कोडाकोडि सागरोपमनुं अंतर होय छे. ८६. [प्र०] परिहारविशुद्धिक संयतो संबंधे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओने जघन्य चोराशी हजार वर्ष अने उत्कृष्ट अढार कोडाकोडि सागरोपमनुं अंतर होय. सूक्ष्मसंपरायो निग्रंथोनी पेठे (उ० ६सू० १४७) जाणवा. अने यथाख्यात संयतो सामायिक संयतोनी जेम समजवा.. ८७. [प्र०] 'हे भगवन् ! सामायिक संयतने केटला समुद्घातो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! तेने छ समुद्घातो कह्या छे. ते ३१ समुद्धात कषायकुशीलनी पेठे (उ०६सू०१५०) जाणवा. ए प्रमाणे छेदोपस्थापनीय संयत संबंधे पण समजवू. पुलाकनी पेठे (उ०६ सू०१४८) परिहारविशुद्धिकने जाणवू. निग्रंथनी पेठे (उ०६ सू०१५१) सूक्ष्मसंपराय संबंधे जाणवू, अने स्नातकनी पेठे (उ० ६ सू० १५२) यथाख्यात संयत संबंधे पण समजवू. ८१ * परिहारविशुद्धिक संयतोनो काळ कांइक (अट्ठावन वरस) न्यून बसो वर्ष होय छे. जेम के उत्सर्पिणीमा प्रथम तीर्थकरनी पासे सो वरसना आयुषवाळो मनुष्य परिहारविशुद्धि चारित्र ग्रहण करे अने तेना जीवितना अन्ते तेनी पासे सो वरसना आयुषवाळो बीजो कोइ मनुष्य परिहारविशुद्धि चारित्र खीकारे, त्यार पछी तेनी पासे यीजो कोइ चारित्र न ग्रहण करी शके. एम बसो वर्ष थाय. परन्तु प्रत्येकने ओगणत्रीश वरस गया बाद चारित्रप्रतिपत्ति होय एटले अठ्ठावन वरस न्यून यसो वरस जघन्य काळ होय. चूर्णिकारनी व्याख्या पण एमज छे, परन्तु ते अवसर्पिणीना अन्तिम जिननी अपेक्षाए छे. उत्कृष्ट काळ देशन्यून बे पूर्वकोटि वर्ष छे. जेमके अवसर्पिणीमा प्रथम तीर्थकरनी पासे पूर्वकोटि आयुषवाळो मनुष्य परिहारविशुद्धि चारित्र प्रहण करे अने तेना जीवितना अन्ते तेनी पासे तेटलाज आयुषवाळो परिहारविशुद्धिचारित्र ले. तेमाथी प्रत्येकना ओगणत्रीश वरस बाद करता देश (अट्ठावन वर्ष) न्यून बे पूर्वकोटि वर्ष होय. . ८३. अवसर्पिणीमा दुष्षमा काळसुधी छेदोपस्थापनीय चारित्र होय छे. अने त्यार पछी एकवीश हजार वर्ष प्रमाण छट्ठा आरामा अने उत्सर्पिणीना तेटला प्रमाणवाळा पहेला अने बीजा आरामा छेदोपस्थापनीयचारित्रनो अभाव होय छे. एम वेसठ हजार वरस प्रमाण छेदोपस्थापनीय संयतोर्नु जघन्य अन्तर अने उत्कृष्ट अढार कोटाकोटी सागरोपमर्नु अन्तर होय छे. ते आ प्रमाणे-उत्सर्पिणीना चोवीशमा जिनना तीर्थसुधी छेदोपस्थापनीय चारित्र होय छे. त्यार पछी बे कोटाकोटी प्रमाण चोथा आरामां, त्रण कोटाकोटी प्रमाण पांचमा आरामा अने चार कोटाकोटी प्रमाण छट्ठा आरामा तथा अवसार्पणीना अनुक्रमे चार, प्रण अने बे कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण पहेला, बीजा अने त्रीजा आरामा छेदोपस्थापनीय चारित्र होतुं नथी, पण त्यार पछी अव. सर्पिणीना चोथा आरामा प्रथम जिनना तीर्थमा छेदोपस्थापनीय चारित्र होय छे, माटे उपर कहेलं छेदोपस्थापनीय संयतोनुं उत्कृष्ट अंतर छे. अहीं थोडो काळ ओछो रहेछे अने जघन्य अंतरमां थोडो काळ बधे छे ते अल्प होवाथी विवक्षित नथी. ८६ अवसर्पिणीना पांचमो अने छहो आरो तथा उत्सर्पिणीनो पहेलो अने बीजो आरो प्रत्येक एकवीश हजार वर्ष प्रमाणना छे अने तेमा परिहारविशुद्विक चारित्र होतुं नथी, तेथी चोराशी हजार वर्ष परिहारविशुद्धिक संयतोनुं जघन्य अन्तर छे. अहीं छल्ला तीर्थकरनी पछी पांचमा-आरामा परिहारविशुद्धिक चारित्रनो काळ, अने उत्सर्पिणीना श्रीजा आरामा परिहारविशुद्धिचारित्रनो खीकार कर्या पूर्वनो काळ अल्प होवाथी तेनी विवक्षा करी नथी. तथा उत्कृष्ट अन्तर अढार कोटाकोटी सागरोपमर्नु छे ते छेदोपस्थापनीय चारित्रनी पेठे जाणवू,-टीका. . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८.०] सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स कि संखेजइभागे होजा, असंखेजाभागे-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो संखेजर-जहा पुलाए । एवं जाव-सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजए जहा सिणाए ३२ । ८९ मा सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स किं संखेजहभागं फुसइ०१ [उ०] जहेव होजा तहेव फुसह (३३)। ९०.०] सामाइयसंजए णं भंते! कयरंमि भावे होजा? [उ०] गोयमा ! खओवसमिए भावे होजा । एवं जावसुहुमसंपराए। ९१. प्र०] अहक्खायसंजए-पुच्छा। [उ०] गोयमा! उवसमिए वा खइए वा भावे होजा (३४)। ९२. [प्र०] सामाइयसंजया गं भंते ! एगसमएणं केवतिया होजा? [उ०] गोयमा! पडिवजमाणए य पडुच्च जहा फसायकुसीला तहेव निरवसेसं। ९३. [प्र०] छेदोवट्ठावणिया-पुच्छा । [उ०] गोयमा! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयपुहुत्तं । पुष्वपडिवन्नए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि; जइ अत्थि जहानेणं कोडिसयपुहुत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहुत्तं । परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा । सुहुमसंपराया जहा नियंठा । ९४. [प्र०] अहक्खायसंजया णं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं बावट्ठसयं-अट्टत्तरसयं खवगाणं, चउप्पन्नं उवसामगाणं । पुचपडिवन्नए पडुप. जहन्नेणं कोडिपुहुत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहुत्तं । .९५. प्र०] एएसि गं भंते। सामाइय-छेओवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय-अहक्खायसंजयाणं कयरे ८८. [प्र०] हे भगवन् | शुं सामायिक संयत लोकना संख्यातमा भागे होय के असंख्यातमा भागे होय ? [उ०] हे गौतम। ३२ क्षेत्रदारलोकना संख्यातमा भागे न होय-इत्यादि पुलाकनी पेठे ( उ० ६ सू० १५४ ) जाणवू. ए रीते यावत्-सूक्ष्मसंपराय सुधी जाणवू. तथा स्नातकनी पेठे (उ०६ सू०१५४) यथाख्यात संयतने विषे समजवू. ८९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सामायिक संयत लोकना संख्यातमा भागने स्पर्शे ! [उ०] हे गौतम! जेटला भागमा होय तेटला ५३ स्पर्शनासारभागनो स्पर्श करे, अर्थात् जेटला क्षेत्रनी अवगाहना कही तेटला क्षेत्रनी स्पर्शना जाणवी. ९०. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयत कया भावमा होय ? [उ०] हे गौतम ! क्षायोपशमिक भावमा होय. ए रीते यावत्-. १४ भावदारसूक्ष्मसंपराय सुधी जाणवू. ९१. [प्र०] हे भगवन् ! यथाख्यात संयत कया भावमा होय ? [उ०] हे गौतम ! औपशमिक के क्षायिक भावमा होय. ९२. [प्र०] हे भगवन् ! सामायिक संयतो एक समये केटला होय ? [उ०] हे गौतम ! प्रतिपद्यमान ( वर्तमान समये सामायिक- ३५ परिमाणदारसंयतपणाने प्राप्त थता ) सामायिक संयतोनी अपेक्षाए-इत्यादि बधुं कषायकुशीलनी पेठे (उ०६.सू०-१६०) जाणवू. ९३. [प्र०] हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयतो एक समये केटला होय ? [उ०] हे गौतम ! *प्रतिपद्यमानने आश्रयी छेदोपस्थापनीय संयतो कदाच होय अने कदाच न होय. जो होय तो जघन्य एक, बे के त्रण अने उत्कृष्ट बसोथी नवसो सुधी होय. पूर्वप्रतिपन्नने आश्रयीजेओ पूर्वे छेदोपस्थानीय चारित्रने प्राप्त थयेला छे तेओनी अपेक्षाए-कदाच होय अने न होय. जो होय तो जघन्य अने उत्कृष्ट बसोथी नवसो क्रोड सुधी होय. परिहारविशुद्धिको पुलाकोनी पेठे (उ०६ सू०१५८) अने सूक्ष्मसंपरायो निग्रंथोनी पेठे (उ०६सू० १६१) जाणवा. - ९४. [प्र०] हे भगवन् ! यथाख्यात संयतो एक समये केटला होय ! [उ०] हे गौतम ! प्रतिपद्यमान यथाख्यात संयतोनी अपेक्षाए कदाच होय भने कदाच न होय. जो होय तो जघन्य एक, बे अने त्रण तथा उत्कृष्ट एकसो बासठ होय. तेमां एकसो आठ क्षपको भने चोपन उपशमको होय. पूर्वप्रतिपन्नने आश्रयी जघन्य अने उत्कृष्ट बे क्रोडथी नव क्रोड सुधी होय. • ९५. [प्र०] हे भगवन् ! ए पूर्वोक्त सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्मसंपराय संयत अने ३६ भल्पपदुत्वयथाख्यात संयतमां कया कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! सूक्ष्मसंपरायसंयतो सौथी थोडा छे, तेथी परिहारविशु ९३ * छेदोपस्थापनीय संयतनुं उत्कृष्ट परिमाण प्रथम जिनना तीर्थने आश्रयी संभवे छे. पण जघन्य परिमाण बरोबर समजातुं नथी. कारण के पांचमा आराने अन्ते भरतादि दश क्षेत्रोमा प्रत्येक क्षेत्रे बब्बे संयतो होवाथी जघन्य वीश छेदोपस्थापनीय संयत होय. कोइ आचार्यो एम कहे छे के जघन्य परिमाण पण प्रथम जिनना तीर्थने आश्रयी जाणवू. जघन्य कोटिशतपृथक्त्व अल्प अने उत्कृष्ट कोटिशतपृथक्त्व अधिक जाणवू-टीका. ९५f सौथी थोडा सूक्ष्मसंपराय संयतो छे, कारण के तेनो काळ थोडो छे. अने ते निम्रन्थना तुल्य होवाथी एक समये शतपृथक्त्व-बसोथी नवसो सुधी होय छे. तेथी परिहारविशुद्धिक संयतो संख्यातगुणा छे, कारण के तेनो काल तेथी अधिक छे, अने तेओ पुलाकनी पेठे सहस्रपृथक्त्व होय छे. तेथी यथाख्यात संयतो संख्यातगुणा छे, कारण के तेनुं प्रमाण कोटिपृथक्त्व छे. तेथी छेदोपस्थापनीय संयतो कोटिशतपृथक्त्व प्रमाण होवाथी संख्यातगुणा छे. तेथी सामायिक संयतो कषायकुशीलना तुल्य कोटीसहस्रपृथक्त्व प्रमाण होवाथी संख्यातगुणा छे.-टीका. ३५ भ. सू. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवनाना प्रकार. आलोचनानादस दोष आलोचना करना योग्य साधु. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे २७४ शतक २५७. करे - जाय-विसेसादिया या १ [30] गोयमा ! सहत्वोवा हुमसंपरायसंज्ञया, परिहारविसुद्धियसंजया संवेगुणा, अहफ्लायसंजया संसेजगुणा, छेमोषद्वावणियसंजया संसेजगुणा, सामाइयसंजया संखेनगुणा (३६) । ९६. पेडिसेबण 'दोसाऽऽलीयणा व आलोयणारिहे चेव । तत्तो सामोयारी पापच्छिते तंवे चैव । ९७. [अ०] कदविहानं भंते! पडिसेषणा पन्नता ? [४०] गोयमा इसविहा पडिलेवणा पत्रता से जहाप्पप्यंमादऽणाभोगे उरे भवतीति य। 'संकि सहसकारे भययेमोसा व "वीमंसा । १ तं ९८. दस आलोयणादोसा पत्ता, तंजा कंपदा अणुमाता जं दिहं वायरं च मं वा उदाउलयं बहुजण श्रेयस संस्सेवी । २९. दस ठाणे संप अणगारे अरिहति अतदोसं आलोइसर, संजदा जतिसंपन्ने, कुलसंपत्रे, 'णियसंपते, माणसंपन्ने, दंसणपत्रे, रित्तपत्रे, 'संते, 'दंते, मायी, अपच्छातावी। द्धिक संयतो संख्यातगुणा छे, तेथी यथाख्यात संयतो संख्यातगुणा छे, तेथी छेदोपस्थापनीय संयतो संख्यातगुणा छे अने तेथी सामायिक संपतो संपातगुणा के. ९६. १ प्रतिसेवना, २ आलोचनाना दोषो ३ दोषोनी आलोचना, ४ आलोचना आपया योग्य गुरु, ५ सामाचारी, ६ प्रायश्चित्त अने ७ तप-ए सात विषयो संबन्धे कहेवानुं छे. ९७. [प्र० ] हे भगवन् ! प्रतिसेवना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! दस प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे१ *दर्पप्रतिसेवना अहंकारची पती प्रतिसेवना संयमनी विराधना, २ प्रमादधी पती प्रतिसेवना, ३ अनाभोगणी पती प्रतिसेवना ४ आतुरपणाथी थती प्रतिसेवना, ५ आपदाथी थती प्रतिसेवना, ६ संकीर्णता - संकडाशथी थती प्रतिसेवना, ७ सहसाकार - आकस्मिक क्रियाथी थती प्रतिसेवना, ८ भयथी थती प्रतिसेवना, ९ प्रद्वेष- क्रोध वगेरे कषायोथी थती प्रतिसेवना अने १० विमर्श - शैक्षकादिनी परीक्षा करवाथी थती प्रतिसेवना - ए रीते प्रतिसेवनाना दस प्रकार छे. ९८. आलोचनाना दस दोषो कथा छे, ते आ प्रमाणे १ प्रसन्न थयेला गुरु थोडुं प्रायश्चित्त आपशे माटे तेने सेवादिधी प्रसन्न करी तेनी पासे दोषनी आलोचना करवी, २ तद्दन नानो अपराध जणाववाथी आचार्य थोडुं प्रायश्चित्त आपशे एम अनुमान करी पोताना अपराधनुं स्वतः आलोचन करयुं, ३ जे अपराध आचार्य - दिके जोयो होय तेनुं ज आलोचन कर्खु, ४ मात्र मोटा अतिचारोनुं ज आलोचन कर, ५ जे सूक्ष्म अतिचारोनुं आलोचन करे ते स्थूल अतिचारो आलोचन केम न करे एवो आचार्यनो विश्वास उत्पन्न करवा सूक्ष्म अतिचारोनुंज आलोचन कर, ५ घणी शरम आववाने लीधे प्रच्छन्न ( कोइ न सांभळे तेम ) आलोचन करयुं, ७ बीजाने संभळाववा खूब जोरथी बोलीने आलोचन कर, ८ एकज अतिचारनी घणा गुरु पासे आलोचना करनी, ९ अगीतार्थनी मासे आलोचना करवी अने १० जे दोषनं आलोचन करवाने के दोषने सेवनार आचार्य पासे तेनुं आलोचन करवुं. , , ९९. दस गुणोपी युक्त अनगार पोताना दोषनी आलोचना करवाने योग्य छे–१ उत्तम जातिवाळो २ उत्तम कुछवाळ, ३ विनयवान्, ४ ज्ञानवान्, ५ दर्शनसंपन्न श्रद्धालु ६ चारित्रसंपन्न, ७ क्षमायाये, ८ दान्त-इंद्रियोने यश राखनार, ९ अमायीकपटरहित, सरळ अने १० अपश्चात्तापी - आलोचना लीधा पछी पस्तावो नहीं करनार. ९७. * दर्पादि दश हेतुथी प्रतिसेवना-संयम विराधना थाय छे. ते दश हेतु आ प्रमाणे - १ दर्प - अभिमान, २ मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा अने विकथारूप प्रमाद, ३ अनाभोग अज्ञान, ४ आतुर भुख, तरसनी पीडाथी व्याकुलपणुं, ५ आपद्ना चार प्रकार छे - ( १ ) द्रव्यापत् - प्रासुकादि द्रव्यनी अप्राप्ति, (२) वां आयी पठ, (३) काल अने (४) पत्नी ने परपक्षभीती क्षेत्रभीतादिदोषी आहार, अपच 'तितिष' एवो निधन पाठ खीकारीए तो 'आहारादिनी अप्राप्तिमा केदपूर्वक वचन एवो अर्थ थाय छे, ८ सहसाकार आकस्मिक क्रिया करवी. जेमके पूर्वे जोया सिवाय पग मूकी पछी जुए तो ते पगने पाछो वाळी न शके ९ भय-प्रद्वेषसिंहादिनो भय अने क्रोधादि, १० विमर्श - शैक्षकादिनी परीक्षा. ए प्रमाणे दश प्रकारना कारणथी दश प्रतिसेवना थाय छे. टीका. ९९ + आलोचनाने योग्य साधुमां दश गुण होवा जोइए. ( १ ) जातिसंपन्न प्रायः अकृत्य न करे, अने कर्तुं होय तो तेनी सम्यक् आलोचना करे. (२) कुलसंपन्न अंगीकृत प्रायश्चित्तने बरोबर करे. ( ३ ) विनयसंपन्न वंदनादि आलोचना सामाचारी करे. (४) ज्ञानसंपन्न कृत्याकृत्यना विभागने जाणे. (५) दर्शन संपन्न प्रायश्चित्तथी थती शुद्धिनी श्रद्धा करे. (६) चारित्रसंपन्न प्रायश्चित्तनो स्वीकार करे. (७) क्षान्त-गुरुए उपको आप्यो होय तो ते गुस्से न थाय. (८) दान्त-इन्द्रियोनुं दमन करेलुं होवाथी शुद्धि धारण करे. (१) अमावी अपराधने छुपाव्या सिवाय आलोचना करे. अने १० अपश्चात्तापी - आलोचना सीधा पछी तेनो पश्चात्ताप न करे. -- Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक. २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १००. अहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तंजहा-आयारवं, आहारवं, वैवहारवं, उधीलए, पैकुचए, अपरिस्सावी, निजवए, अवायदंसी। १०१. दसविहा सामायारी पन्नत्ता, तंजहाईच्छा मिच्छा तहकारे आवस्सिया य "निसीहिया । आपुच्छणा य पंडिपुच्छा छंदणा य 'निमंतणा । उवसंपया य काले सामायारी भवे दसहा । १०२. दसविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे, पंडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, 'विवेगारिहे, "विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवठ्ठप्पारिहे, पारंचियारिहे । १०३. दुविहे तवे पन्नत्ते, तंजहा-बाहिरए य अभितरए य । १००. आठ गुणोथी युक्त साधु आलोचना आपवाने योग्य छे-१ आचारवान्-ज्ञानादि आचारवाळो, २ आधारवान्- आलोचना आप जणावेल अतिचारोने मनमा धारण करनार, ३ व्यवहारवान्-आगम-श्रुतादि पांच प्रकारना व्यवहारवाळो, ४ अपनीडक-शरमथी पोताना नारना गुण. अतिचारोने छुपावता शिष्यने मीठा वचनोथी समजावी शरमनो त्याग करावी सारी रीते आलोचना करावनार, ५ प्रकुर्वक अपराधन प्रायश्चित्त आपीने अतिचारोनी शुद्धि कराववाने समर्थ, ६ अपरिनावी-जणावेल अतिचारोने बीजाने नहीं संभळावनार, ७ निर्यापक-असमर्थ एवा प्रायश्चित्त लेनार शिष्यने थोडे थोडे प्रायश्चित्त आपीने निर्वाह करनार अने ८ अपायदर्शी-आलोचना नहीं लेवामां परलोकनो भय देखाडनार. १०१. सामाचारी दस प्रकारनी कही छे-*१ "इच्छाकार, २ मिध्याकार, ३ तथाकार, ४ आवश्यकी, ५ नैषेधिकी, ६ आपृ. सामाचारीना च्छना, ७ प्रतिपृच्छना, ८ छंदना, ९ निमंत्रणा अने १० उपसंपदा-ए रीते काळे आचरवा योग्य दस प्रकारनी सामाचारी छे." दश प्रकार. १०२. प्रायश्चित्तना दस प्रकार कह्या छे-१ आलोचनाने योग्य, २ प्रतिक्रमणने योग्य, ३ आलोचना अने प्रतिक्रमण प्रायश्चित्तमा बन्नेने योग्य, ४ विवेक-अशुद्ध भक्तादिना त्यागने योग्य, ५ कायोत्सर्गने योग्य, ६ तपने योग्य, ७ दीक्षापर्यायना छेदने योग्य, ८ मूळने । दश प्रकार योग्य-फरीथी महाव्रत लेवा योग्य, ९ अनवस्थाप्याई-तप करीने फरी महाव्रत लेवा योग्य, १० पारांचिक-गच्छथी बहार करवा योग्य, जु, लिंग धारण करवा योग्य. १०३. तपना बे प्रकार छे-बाह्य अने अभ्यन्तर. . तपना प्रकार १०१ * (१) साधु अन्य साधुनी कोइपण कार्यमाटे अभ्यर्थना करे अने ते साधु तेनुं इच्छित कार्य करे तो ते प्रार्थना करनार अने कार्य करनार बन्नेए बलात्कार न थाय माटे 'इच्छाकार' कहेवो जोइए. एटले मारुं कार्य तमारी इच्छा होय तो करो; अथवा आ कार्य तमे इच्छो तो हुं करूं. (२) मिच्छाकारसंयमयोगमा तत्पर साधुए विपरीत आचरण कर्यु होय तो ए मारुं दुष्कृत मिथ्या थाओ-एम समजी "मिच्छाकार' कहेवो जोइए. (३) तथाकार-सूत्रादिविषयक प्रश्न करतां गुरु उत्तर आपे त्यारे 'तमे कहो छो ते बरोबर छ-ए अर्थनो सूचक तथाकार शब्द कहेवो जोइए. (४) आवश्यिका-उपाश्रयथी आवश्यक कार्य निमित्ते बहार गमनं करता साधुए 'आवस्सिया' कहेवी. (५) नैषेधिकी-बहारथी पाछा उपाश्रयादिमा प्रवेश करतां 'निसीहीया-नषेधिकी कहेवी. (६) आपृच्छना-अभीष्ट कार्यमा प्रवृत्ति करता शिष्ये गुरुने पूछयूँ के, हे भगवन् ! आ कार्य करूं? (७) प्रतिपृच्छना-गुरुए पूर्व निषिद्ध करेल कार्यमा प्रयोजनवशथी प्रवृत्ति करवी पडे तो फरी पूछ के आपे पूर्व आ कार्यनी ना कही छ, पण मारे ते कार्य, प्रयोजन छे, जो आप फरमावो तो करु. (८) छंदना-पूर्वे लावेला आहारादिवडे बाकीना साधुने आमन्त्रण करवं के आ आहारनो उपयोग होय तो आप ग्रहण करो. (९) निमन्त्रणा आहार लाववा माटे साधुओने निमन्त्रण करवू के तमारा माटे आहारादि लावू ? (१०) उपसंपद्-ज्ञानादि निमित्ते खगच्छादिनो त्याग करी विशिष्टश्रुतादियुक्त गुरुनो आश्रय करवो. १०२ + (१) आलोचना-संयममा लागेला दोषने गुरुसमक्ष वचनवडे प्रकट करवा ते आलोचना, जे प्रायश्चित्त आलोचनामात्रथी शुद्ध थाय ते आलोचनाने योग्य होवाथी कारणने विषे कार्यनो उपचार करवाथी ते आलोचनाप्रायश्चित्त कहेवाय छे. (२) प्रतिक्रमण-दोषथी पाछु जवू, अने फरी नहि करवा रूपे मिथ्यादुष्कृत आप, तेने योग्य प्रायश्चित्त पण प्रतिक्रमण कहेवाय छे. जे प्रायश्चित्त मिथ्यादुष्कृत मात्रथी शुद्ध थाय, पण गुरुसमक्ष प्रकट करवानी जरुर न होय ते मात्र प्रतिक्रमणने योग्य होवाथी प्रतिक्रमण कहेवाय छे. (३) मिश्र-जे प्रायश्चित्त आलोचना भने प्रतिक्रमण उभयथी शुद्ध थाय ते उभयने योग्य होवाथी मिश्रप्रायश्चित्त कहेवाय छे. (४) विवेक-जे प्रायश्चित्त आधाकर्मिकादि आहारनो विवेक-त्याग करवाथी शुद्ध थाय ते विवेकने योग्य होवाथी विवेकप्रायश्चित्त कहेवाय छे. (५) व्युत्सर्ग-कायचेष्टानो रोध करी ध्येय वस्तुमा उपयोग राखवाथी जे दोष शुद्ध थाय ते व्युत्सर्गने योग्य होवाथी व्युत्सर्गप्रायश्चित्त. (६) तप-जे प्रायश्चित्त निर्विकृतिकादि तपथी शुद्ध थाय ते तपने योग्य होवाथी तपप्रायश्चित्त. (७) छेद-जे प्रायश्चित्त चारित्रना पर्यायना छेद करवा मात्रथी शुद्ध थाय ते छेदने योग्य होवाथी छेदप्रायश्चित्त. (4) मूल-जे प्रायश्चित सर्वव्रतपर्यायनो छेद करी फरी महाव्रत लेवाथी शुद्ध थाय ते मूलने योग्य होवाथी मूलप्रायश्चित्त. (१) अनवस्थाप्य-ज्यां सुधी अमुक प्रकारनो विशिष्ट तप . न करे त्यां सुधी महाव्रत के वेषमा स्थापी न शकाय माटे अनवस्थाने योग्य होवाथी अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहेवाय छे. अने (१०) पारांचितक-साध्वी, राज्ञी-इत्यादिना शीलभंगरूप महादोष करवा वडे वेष अने खक्षेत्रनो त्याग करी जिनकल्पिकनी जेम महा तप करता महासत्त्वशाली आचार्यने ज छ मासथी ते बार वर्षसुधी आ प्रायश्चित्त होय छे. उपाध्यायने नवमा प्रायश्चित्त सुधी होय छे. अने सामान्य साधुने मूलप्रायश्चित्त पर्यन्त प्रायश्चित्त होय छे. ज्यां सुधी चतुर्दश पूर्वधर अने प्रथमसंघयणवाळा होय छे त्या सुधी दशे प्रायश्चित्त होय छे अने तेनो विच्छेद गया पछी मूल सुधीना आठ प्रायश्चित्तो दुप्पसह सूरि सुधी छे. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक २५.-उद्देशक .. १०४. [प्र०] से किं तं बाहिरए तवे ? [उ०] बाहिरए तवे छविहे पन्नत्ते, तंजहा-अणसणं, ओमोदेरिया, मिक्वायरिया, रेसपरिचाओ, कायकिलेसो, पैडिसलीणता । १०५. [प्र०] से किं तं अणसणे ? [उ०] अणसणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-इत्तरिए य आवकहिए य । १०६. [प्र०] से किं तं इत्तरिए ? [उ०] इत्तरिए अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-चउत्थे भत्ते, छठे भत्ते, अट्ठमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोइसमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते, तेमासिए भत्ते, जाव-छम्मासिए भत्ते । सेत्तं दत्तरिए। १०७. [प्र०] से किं तं आवकहिए ? [उ०] आवकहिए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पाओवगमणे य भत्तपञ्चपखाणे य । १०८. [प्र०] से किं तं पाओवगमणे ? [उ०] पाओवगमणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-नीहारिमे य .अणीहारिमे य, नियम अपडिकम्मे । सेत्तं पाओवगमणे । १०९. [प्र०] से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे ? [उ०] भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-नीहारिमे य अनीहारिमे य, नियमं सपडिकम्मे । सेत्तं भत्तपञ्चक्खाणे । सेत्तं आवकहिए । सेत्तं अणसणे । ११०. [प्र०] से किं तं ओमोदरिया ? [उ०] ओमोदरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-दधोमोयरिया य भावोमोयरिया य। १११. [प्र०] से किं तं दधोमोयरिया ? [उ०] दयोमोयरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-उवगरणदरोमोयरिया य भत्तपाणदधोमोयरिया य । ___ ११२. [प्र०] से किं तं उवगरणदच्चोमोयरिया ? [उ०] उवगरणदधोमोयरिया तिविहा पन्नत्ता, (तंजहा-) पगे वत्थे, एगे पादे, चियत्तोवगरणसातिजणया । सेत्तं उवकरणदधोमोयरिया । अमशनना प्रकार. इत्वरिक भनानना प्रकार. यावत्कथिक अनशनना प्रकार. पादपोपगमनना प्रकार. १०४. [प्र०] बाह्य तपना केटला प्रकार छे! [उ०] बाह्य तपना छ प्रकार छे–१ अनशन-आहारत्याग, २ ऊनोदरीकंइक ओछो आहार करवो, ३ भिक्षाचर्या, ४ रसनो त्याग करवो, ५ कायक्लेश-शरीरने कष्ट आप, अने ६ प्रतिसंलीनता-इन्द्रियकषायादिनो निग्रह करवो. १०५. [प्र०] अनशनना केटला प्रकार छे! [उ०] अनशनना बे प्रकार छे, ते आ प्रमाणे-इत्वरिक-अमुक काळ सुधी आहार त्याग अने यावत्कथिक-जीवनपर्यन्त आहारत्याग. १०६. [प्र०] इत्वरिक अनशनना केटला प्रकार छे! [उ०] इत्वरिक अनशन अनेक प्रकारचें कह्यं छे, ते आ प्रमाणेचतुर्थ भक्त-एक उपवास, षष्ठ भक्त-बे उपवास, अष्टम भक्त-त्रण उपवास, दशम भक्त-चार उपवास, द्वादश भक्त-पांच उपवास, चतुर्दश भक्त-छ उपवास, अर्धमासिक भक्त-पक्षना उपवास, मासिक भक्त-मासना उपवास, द्विमासिक भक्त-बेमासना उपवास, त्रिमासिक भक्त-त्रण महीनाना उपवास, यावत्-षट्मासिक भक्त-छ महीनाना उपवास. ए प्रमाणे इत्वरिक अनशन कर्यु. १०७. [प्र०] यावत्कथिक अनशनना केटला प्रकार छे ! [उ०] यावत्कथिक अनशनना बे प्रकार छे.-पादपोपगमन अने भक्तप्रत्याख्यान. १०८. [प्र०] पादपोपगमनना केटला प्रकार छे! (उ०] पादपोपगमनना बे प्रकार छे, ते आ प्रमाणे-निर्हारिम (जेमा मृत शरीर उपाश्रयादिथी बहार काढवानुं होय ते) अने अनिएरिम (जेमां मृत शरीर बहार काढवानुं न होय ते). तेमा अनिर्झरिम अनशन अवश्य सेवादि प्रतिकर्मरहित छे. ए रीते पादपोपगमन अनशन संबन्धे कह्यु. . १०९. [प्र०] भक्तप्रत्याख्यान केटला प्रकारचें छे! [उ०] भक्तप्रत्याख्यानना बे प्रकार छ-निर्झरिम अने अनिहरिम. ते बन्ने अवश्य सेवादि प्रतिकर्मवाळां छे. ए प्रमाणे भक्तप्रत्याख्यान कह्यु. एम यावत्कथिक अनशन कह्यु, अने ए रीते अनशन पण कद्यु. ११०. [प्र०] ऊनोदरिकाना केटला प्रकार छे ! [उ०] ऊनोदरिकाना बे प्रकार छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यऊनोदरिका अने भावऊनोदरिका. १११. [प्र०] द्रव्यऊनोदरिकाना केटला प्रकार छे ! [उ०] द्रव्यऊनोदरिकाना बे प्रकार छे, ते आ प्रमाणे-उपकरणद्रव्यऊनोदरिका अने भक्तपानद्रव्यऊनोदरिका. ११२. [प्र०] उपकरण द्रव्यऊनोदरिकाना केटला प्रकार छे! [उ०] उपकरणद्रव्यऊनोदरिकाना त्रण प्रकार छे, (ते आ प्रमाणे-) एक वस्त्र, एक पात्र, चियत्तोपकरणखदनता-संयतोए त्याग करेला वस्त्र पात्र सिवायना उपकरणोनो उपभोग करवो. ए रीते उपकरणद्रव्यऊनोदरिका कही छे. भक्तप्रत्याख्यान- ना प्रकार. ऊनोदरिकाना प्रकार. द्रव्यऊनोदरिका ना प्रकार. उपकरण द्रव्य नोदरिकाना प्रकार . Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवसुधर्मस्खामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २७७ ११३. [प्र०] से किं तं भत्तपाणदयोमोयरिया ? [उ०] भत्त० २ अटकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस० जहा सत्तमसए पढमोहेसए जाव-नो 'पकामरसभोजी'ति वत्त, सिया । सेत्तं भत्तपाणदरोमो. यरिया । सेत्तं दधोमोयरिया। ११४. [प्र०] से किं तं भावोमोयरिया ? [उ०] भावोमोयरिया अणेगविहा पनत्ता, तंजहा-अप्पकोहे, जाव-अप्पलोभे, अप्पसहे, अप्पझञ्झे, अप्पतुमंतुमे । सेत्तं भावोमोदरिया । सेत्तं ओमोयरिया। ११५. [प्र०] से किं तं भिक्खायरिया ? [उ०] भिक्खायरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-दधाभिग्गहचरए-जहा उववाइए, जाव-सुद्धसणिए, संखादत्तिए । सेत्तं भिक्खायरिया। ११६. [प्र०] से किं तं रसपरिच्चाए ? [उ०] रसपरिचाए अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-निधिगितिए, पणीयरसवि. वजए-जहा उववाइए जाव-लूहाहारे । सेत्तं रसपरिचाए । ११७. [प्र०] से किं तं कायकिलेसे ? [उ०] कायकिलेसे अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-ठाणादीए, उकुडुयासणिए, जहाउववाइए जाव-सव्वगायपरिकम्म-विभूसविप्पमुक्के । सेत्तं कायकिलेसे। ११८. [प्र०] से किं तं पडिसलीणया ? [उ०] पडिसंलीणया चउचिहा पन्नत्ता, तंजहा-इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसलीणया, जोगपडिसंलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया । ११९. [प्र०] से किं तं इंदियपडिसलीणया ? [उ०] इंदिय० २ पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-सोइंदियविसयप्पयारणिरोहो वा, सोइंदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो, चक्खिदियविसय०, एवं जाव-फासिंदियविसयपयारणि रोहो वा फासिदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। सेत्तं इंदियपडिसलीणया। प्रकार. ११३. [प्र०] भक्तपानद्रव्यऊनोदरिकाना केटला प्रकार छे! [उ०] कुकडीना इंडा प्रमाण आठ कोळिया आहार ले ते मक्तपान द्रव्यअल्पाहारी कहेवाय अने जे बार कोळिया आहार ले-इत्यादि बधुं *सातमा शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'ते प्रकाम सनोदरिका रसनो भोजी न कहेवाय'-त्यां सुधी कहेQ. ए प्रमाणे भक्तपानद्रव्यऊनोदरिका कही अने ए रीते द्रव्यऊनोदरिका पण कही. ११४. [प्र०] भावऊनोदरिकाना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] भावऊनोदरिका अनेक प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे- भावऊनोदरिका क्रोध ओछो करवो, यावत्-लोभ ओछो करवो; अल्प बोलवू, धीमे बोलवू, गुस्सामां निरर्थक बहु प्रलाप न करवो, हृदयस्थ कोप ओछो ना प्रकार. करवो.-ए रीते भाव ऊनोदरिकासंबंधे कयुं अने एम ऊनोदरिकासंबंधे पण कडं. ११५. [प्र०] भिक्षाचर्या केटला प्रकारनी छे ! [उ०] भिक्षाचर्या अनेक प्रकारनी छे. ते आ प्रमाणे-द्रव्याभिग्रहचर- भिक्षाचर्याना भिक्षामां अमुक चीजोने ज ग्रहण करवाना नियमपूर्वक भिक्षा करे, अमुक क्षेत्रना अभिग्रह पूर्वक भिक्षा करे-इत्यादि जेम 'औपपातिक सूत्रमा का छे तेम जाणवू. यावत्-शुद्ध निर्दोष भिक्षा करवी, दत्तिनी संख्या करवी. ए प्रमाणे भिक्षाचर्या संबंधे हकीकत कही. ११६. [प्र०] रसपरित्यागना केटला प्रकार छे ! [उ०] रसपरित्यागना अनेक प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-घृतादि विकृति रसपरित्याग ना प्रकार. . (विगइ ) नो त्याग करवो, स्निग्ध रसवाळू भोजन न करवू-इत्यादि जेम औपपातिक सूत्रमा कां छे तेम जाणवं, यावत्-लुखो आहार करवो. ए प्रमाणे रसपरित्याग विषे कह्यु.. ११७. [प्र०] कायक्लेशना केटला प्रकार छे! [उ०] कायक्लेश अनेक प्रकारनो छे. ते आ प्रमाणे-कायोत्सर्गादि आसने कायकेशना प्रकार. रहेवं, उत्कटासने रहेवू-इत्यादि औपपातिक सूत्रमा कयुं छे तेम जाणवू. यावत्-शरीरना सर्व प्रकारना संस्कार अने शोभानो त्याग करवो. ए प्रमाणे कायक्लेश संबंधे कडुं. ११८. [प्र०] प्रतिसंलीनताना केटला प्रकार छे ! [उ०] प्रतिसंलीनता चार प्रकारनी छे. ते आ प्रमाणे-१ इन्द्रियप्रतिसं. प्रतिसंलीनतालीनता-इंदियोनो निग्रह करवो, २ कषायप्रतिसंलीनता-कषायोनो निग्रह करवो, योगसंलीनता-मन, वचन कायाना व्यापारनो निग्रह ना प्रकार. करवो, अने विविक्तशयनासनसेवन, स्त्री-पशु अने नपुंसक रहित वसतिमां निर्दोष शयनादि उपकरणोनो स्वीकार करी रहे. ११९. [प्र०] इंद्रियप्रतिसंलीनता केटला प्रकारनी छे! [उ०] इंद्रियप्रतिसंलीनताना पांच प्रकार छे-१ श्रोत्रेन्द्रियना विषय इन्द्रियप्रतिसलीप्रचारने रोकवो के श्रोत्रेन्द्रियद्वारा प्राप्त थयेल विषयमा रागद्वेषनो निरोध करवो, २ चक्षुना विषयप्रचारनो रोध करवो, के चक्षुद्वारा नताना प्रकार. प्राप्त विषयमा राग द्वेष न करवो. ए प्रमाणे यावत्-५ स्पर्शनेन्द्रियना विषय प्रचारनो निरोध करवो अने स्पर्शनेन्द्रियद्वारा अनुभवेल पदार्थोने विषे रागद्वेषनो निग्रह करवो. ए रीते इंद्रियप्रतिसंलीनता कही. ११३ * भग० खं०३ श०७ उ०१पृ. ६ सू० २२. ११५ । औप० पृ. ३८-२. आहारादिनो पात्रमा एक वार क्षेप ते दत्ति, अभिग्रहमा दत्तिनी संख्यानो नियम होय छे. ११६ 1 औप. पृ. ३९-२. ११७ 1 औप०प०३९-२. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक ७. १२०. [प्र० से कि तं कसायपडिसलीणया[उ०] कसायपडिसंलीणया चउधिहा पन्नत्ता । तंजहा-कोहोदयनिरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, एवं जाव-लोभोदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोभस्स विफलीकरणं। सेत्तं कसायपडिसंलीणया। १२१. [प्र० से किं तं जोगपडिसंलीणया [उ०] जोगपडिसलीणया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-१ अकुसलमणनिरोहो वा, २ कुसलमणउदीरणं वा, ३ मणस्स वा एगत्तीभावकरणं, १ अकुसलवइनिरोहो वा, २ कुसलवइउदीरणं वा, ३ वइए वा, एगत्तीभावकरणं। १२२. [प्र०] से किं तं कायपडिसंलीणया ? [उ०] कायपडिसंलीणया जन्नं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाए कुम्मो इव गुतिदिए अल्लीणे पल्लीणे चिट्ठति; सेत्तं कायपडिसंलीणया । सेत्तं जोगपडिसंलीणया। १२३. [प्र०] से किं तं विवित्तसयणासणसेवणया ? [उ०] विवित्तसयणासणसेवणया जन्नं आरामेसु वा उजाणेसु वाजहा सोमिलुद्देसए जाव-सेजासंथारगं उवसंपजित्ता णं विहरइ । सेत्तं विवित्तसयणासणसेवणया । सेत्तं पडिसलीणया । सेत्तं बाहिरए तवे ।। १२४. [प्र०] से किं तं अभितरए तवे ? [उ०] अभितरए तवे छबिहे पन्नत्ते, तंजहा-१ पायच्छित्तं, २ विणओ, ३ वेयावच्चं, ४ सज्झाओ, ५ झाणं, ६ विउसग्गो। १२५. [प्र०] से किं तं पायच्छित्ते ? [उ०] पायच्छित्ते दसविहे पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे, जाव-पारंचियारिहे। सेत्तं पायच्छित्ते। १२६. [प्र.] से किं तं विणए ? [उ०] विणए सत्तविहे पन्नत्ते । तं जहा-१ नाणविणए, २ दसणविणए, ३ चरित्तविणए, ४ मणविणए, ५ वयविणए, ६ कायविणए, ७ लोगोवयारविणए। १२७. [प्र०] से किं तं नाणविणए ? [उ०] नाणविणए पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ आभिणियोहियनाणविणए, जाव-५ केवलनाणविणए । सेत्तं नाणविणए । कषायप्रतिसतीन १२० [अ०] कषायप्रतिसंलीनताना केटला प्रकार छे ! [उ०] कषायप्रतिसंलीनताना चार प्रकार छे-१ क्रोधना उदयनो ताना प्रकार. हो, अथवा उदय प्राप्त क्रोधने निष्फळ करवो. ए प्रमाणे यावत्-५ लोभना उदयनो निरोध करवो के उदय प्राप्त लोभने निष्फळ करवो. ए रीते कषायप्रतिसंलीनता कही. योगसलीनताना १२१. प्र०] योगसंलीनताना केटला प्रकार छे? [उ०] योगसंलीनताना त्रण प्रकार छे-१ अकुशल मननो निरोध करवो प्रकार. - २ कुशल मननी प्रवृत्ति करवी अने ३ मनने एकाग्र-स्थिर करवू. १ अकुशल वचननो निरोध करवो, २ कुशल वचन बोलवू अने ३ वचनने स्थिर करवू. कायसंलीनताना १२२. प्र०] कायसंलीनता केवा प्रकारनी छे ! [उ०] सारी रीते समाधिपूर्वक प्रशांत थई हाथ पगने संकोची काचबानी पेठे प्रकार. गुप्तेन्द्रिय थई आलीन अने प्रलीन-स्थिर रहेQ ते कायसंलीनता कहेवाय छे. ए रीते कायसंलीनता कही. १२३. [प्र०] विविक्तशयनासनसेवना केवा प्रकारनी छे? [उ०] जे आरामोमां, उद्यानोमां-इत्यादि *सोमिलना उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-शय्या अने संथाराने लइने विहरे ते विविक्तशयनासनसेवना छे. ए रीते विविक्तशयनासनसेवना कही. एम प्रतिसंलीनता संबंधे हकीकत पण कही. ए रीते बाह्य तपसंबंधे पण कडुं. अभ्यन्तर तपना १२४. [प्र०] अभ्यंतर तप केटला प्रकारे छे ! [उ०] अभ्यंतर तप छ प्रकारचं छे. ते आ प्रमाणे-१ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ प्रकार. वैयावृत्त्य, ४ खाध्याय, ५ ध्यान अने ६ व्युत्सर्ग. प्रायश्चित्तना १२५. [प्र०] प्रायश्चित्त केटला प्रकारे छे ? [उ०] प्रायश्चित्त दस प्रकारनुं छे. ते आ प्रमाणे-१ आलोचनाने योग्य अने यावत्प्रकार. १० पारांचितकने योग्य. ए रीते प्रायश्चित्त कह्यु. विनयना प्रकार. १२६. प्र०] विनय केटला प्रकारनो छे? [उ०] विनयना सात प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञाननो विनय, २ दर्शननो विनय, ३ चारित्रविनय, ४ मनरूप विनय, ५ वचनरूप विनय, ६ कायरूप विनय अने ७ लोकोपचार विनय. शानविनयना १२७. [प्र०] ज्ञाननो विनय केटला प्रकारे छे ? [उ०] ज्ञाननो विनय पांच प्रकारनो छे-१ आभिनिबोधिक-मतिज्ञाननो विनय, प्रकार यावत्-५ केवलज्ञाननो विनय. ए रीते ज्ञाननो विनय कह्यो. १२३ * भग० ख०४ १० १८ उ. १. पृ०६७ सू. १४ . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्खामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २७९ __१२८. [४०] से किं तं दसणविणए ? [उ०] दंसणविणए दुविहे पन्नत्ते तंजहा-सुस्सूसणाषिणए य अणञ्चासादणाविणए य। १२९. [प्र०] से किं तं सुस्सूसणाविणए ? [उ०] सुस्सूसणाविणए अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-सक्कारे इ, वा सम्माणे । वा-जहा चोहसमसए ततिए उहेसए जाव-पडिसंसाहणया । सेत्तं सुस्सुसणाविणए । १३०.प्र० से किं तं अणञ्चासायणाविणए ? [उ०] अणञ्चासायणाविणए पणयालीसइविहे पन्नते। तंजहा-१ अरहंताणं अणचासादणया, २ अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अणञ्चासादणया, ३ आयरियाणं अणञ्चासादणया, ४ उवज्झायाणं अणच्चासादणया, ५ थेराणं अणञ्चासादणया, ६ कुलस्स अणच्यासादणया, ७ गणस्स अणञ्चासादणया, ८ संघस्स अणञ्चासादणया, ९ किरियाए अणञ्चासादणया, १० संभोगस्स अणञ्चासायणया, ११ आभिणिबोहियनाणस्स अणचासायणया, जाव-१५ केवलनाणस्स अणञ्चासादणया, ३० एपर्सि चेव भत्ति-बहुमाणेणं, ४५ एएसिं चेव वन्नसंजलणया । सेत्तं अण. यासायणयाविणए । सेत्तं दंसणविणए । १३१.[प्रग से किं तं चरित्तविणए ? [उ०] चरित्तविणए पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ सामाइयचरित्तविणए, जाव५ अहक्खायचरित्तविणए । सेत्तं चरित्तविणए । १३२. [प्र०] से किं तं मणविणए ? [उ०] मणविणए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पसत्थमणविणए, अपसत्थमणविणए य । १३३. [प्र०] से किं तं पसत्थमणविणए ? [उ०] पसत्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ अपावए, २ असावजे, ३ अकिरिए, ४ निरुवक्केसे, ५ अणण्हवकरे, ६ अच्छविकरे, ७ अभूयाभिसंकणे । सेत्तं पसत्थमणविणए । १३४. [प्र० से किं तं अपसत्थमणविणए ? [उ.] अप्पसत्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ पावए, २ सावजे, ३ सकिरिए, ४ सउवक्केसे, ५ अण्हवयकरे, ६ छविकरे, ७ भूयाभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थमणविणए । सेत्तं मणविणए । १३५. [प्र०] से किं तं वइविणए ? [उ०] वइविणए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पसत्थवइविणए य अप्पसत्थवइविणए य । १२८. [प्र०] दर्शननो विनय केटला प्रकारे छे ! [उ०] दर्शननो विनय बे प्रकारनो छे. ते आ प्रमाणे-शुश्रूषाविनय अने दर्शनविनयना प्रकार. अनाशातनारूप विनय. १२९. [प्र०] शुश्रूषाविनयना केटला प्रकार छ ? [उ०] शुश्रूषा विनय अनेक प्रकारनो छे. ते आ प्रमाणे-सत्कार करवो, सन्मान शुश्रूषाविनयना करवू वगेरे-*चौदमा शतकना त्रीजा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-प्रतिसंसाधनता सुधी जाणवू. ए प्रमाणे शुश्रूषाविनय कह्यो. प्रकार. १३०. [प्र०] अनाशातना विनय केटला प्रकारे छे ? [उ०] अनाशातना विनयना पिस्ताळीश भेद छे. ते आ प्रमाणे-१ अरिहंतोनी अनाशातना, २ अरिहंतोए कहेल धर्मनी अनाशातना, ३ आचार्योनी अनाशातना, ४ उपाध्यायोनी अनाशातना, ५ स्थविरोनी अनाशातना, ६ कुळनी अनाशातना, ७ गणनी अनाशातना, ८ संघनी अनाशातना, ९ क्रियानी अनाशातना, १० समानधार्मिकनी अनाशातना, ११ मतिज्ञाननी अनाशातना अने यावत्-१५ केवळ ज्ञाननी अनाशातना, अने एज रीते ३० अरिहंतादि पंदरनी भक्ति भने बहुमान, तथा ४५ एओना गुणोना कीर्तनवडे तेनी कीर्ति करवी. ए. रीते अनाशातना विनयना पिस्ताळीश प्रकार छे. ए रीते अनाशातनारूप विनय कह्यो अने एम दर्शनविनय पण कह्यो. १३१. [प्र०] चारित्रविनय केटला प्रकारनो छे? [उ०] चारित्रविनय पांच प्रकारनो छे. ते आ प्रमाणे-१ सामायिकचारित्रविनय, चारित्रविनयना अने यावत्-५ यथाख्यातचारित्रविनय. एम चारित्रविनय कह्यो.. प्रकार. १३२. [प्र०] मनविनय केटला प्रकारनो छे उ०] मनविनयना बे प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-प्रशस्तमनविनय अने अप्रशस्तमनविनय. मनविनयना प्रकार. १३३. [प्र०] प्रशस्त मनविनय केटला प्रकारनो छे ? [उ०] प्रशस्त मनविनयना सात प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-१ पापरहित, २ प्रशस्त मनविनयना क्रोधादि अवध रहित, ३ कायिक्यादि क्रियामां आसक्तिरहित, ४ शोकादि उपक्लेशरहित, ५ आश्रवरहित, ६ स्वपरने आयास करवा . प्रका रहित, अने ७ जीवोने भय न उत्पन्न करवो. एम प्रशस्त मनविनय कह्यो. १३४. [प्र०] अप्रशस्त मनविनयना केटला प्रकार छ ? [उ.] अप्रशस्त मनविनयना सात प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-१ पापरूप, २ अप्रशस्तविनयना अवधवाळो, ३ कायिक्यादि क्रियामां आसक्तिसहित, ४ शोकादिउपक्लेशयुक्त, ५ आश्रवसहित, ६ ख-परने आयास उत्पन्न करनार प्रकार. अने ७ जीवोने भय उपजावनार. एम अप्रशस्त मनविनय कह्यो. अने ए रीते मनविनय पण कह्यो. - १३५. [प्र०] वचनविनयना केटला प्रकार छे? [उ०] वचनविनयना बे प्रकार छे-प्रशस्त वचनविनय अने अप्रशस्त वचनविनय. पचन विनवना प्रकार. १२९ * भग• खं. ३ श० १४ उ. ३ पृ. ३४५ सू०३ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्त वचनविन बना प्रकार. भप्रशस्त वचनवि नयना प्रकार. प्रशस्त कायविन यना प्रकार. अप्रशस्त कायविनयना प्रकार. लोकोपचार विन बना प्रकार. वैयावृत्त्याना प्रकार. स्वाध्यायना प्रकार. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २५. – उद्देशक ७ १३६. [०] से किं तं सत्थवदविणए ? [उ०] पसंत्थवद्दविणए सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ अपावर, २ असाधजे, जाव - ७ अभूयाभिसंकणे । सेत्तं पसत्थवइविणए । २८० १३७. [0] से किं तं अप्पसत्थवइविणए ? [30] अप्पसत्थवदविणए सत्तविहे पन्नत्ते तंजहा - १ पावर, २ सावजे, जाव - ७ भूयाभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थवइविणए । सेत्तं वइविणए । १३८. [प्र० ] से किं तं कायविणए ? [उ०] कार्याविण‍ दुविहे पन्नत्ते, तंजहा - पसत्थकायविणए य अप्पसत्थकायविणए य । १३९. [प्र०] से किं तं सत्थकायविणए ? [अ०] पसत्थकायचिणए सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा - १ आउतं गमनं २ आत्तं ठाणं, ३ आउत्तं निसीयणं, ४ आउत्तं तुयट्टणं, ५ आउत्तं उल्लंघणं, ६ आउत्तं पल्लंघणं, ७ आउत्तं सविंदियजोगजुंजणया । सेत्तं पत्थकायविणए । १४० [प्र०] से किं तं अप्पसत्थकायविणए ? [अ०] अप्पसत्थकायविणए सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा- १ अणाउत्तं गमणं नाव - ७ अण उत्तं सविंदियजोगजुंजणया । सेत्तं अप्पसत्थकायविणए । सेत्तं कायविणएं । १४१. [प्र० ] से किं तं लोगोवयारविणए ? [३०] लोगोवयारविणए सत्तविहे पन्नन्ते, तंजहा- १ अब्भासवत्तियं, २ परच्छंदानुवत्तियं, ३ कज्जहेउ, ४ कयपडिकतिया ५ अत्तगवेसणया, ६ देसकालण्णया, ७ सवत्थेसु अप्पडिलोमया । सेत्तं गोवयारविणए । सेत्तं विणए । १४२. [प्र० ] से किं तं वेयावच्चे ? [अ०] वेयावच्चे दसविहे पन्नत्ते, तंजहा - १ आयरियवेयावश्चे, २ उवज्झायवेयावच्चे, ३ थेरवेयावच्चे, ४ तवस्सिवेयावच्चे, ५ गिलाणवेयावच्चे, ६ सेहवेयावच्चे, ७ कुलवेयावच्चे, ८ गणवेयावच्चे, ९ संघवेयावेच्च, १० साहम्मियवेयावश्चे । सेत्तं वेयावच्चे । १४३. [प्र० ] से किं तं सज्झाए ? [अ०] सज्झाए पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा - १ वायणा, २ पडिपुच्छणा, ३ परियट्टणा, ४ अणुहा, ५ धम्मका । सेत्तं सज्झाए । १३६. [ प्र० ] प्रशस्त वचनविनय केटला प्रकारे छे ? [उ०] प्रशस्त वचनविनयना सात प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे- १ पापरहित, २ असावद्य, यावत् - ७ जीवोने भय न उपजाववो. ए रीते प्रशस्त वचनविनय को. १३७. [प्र०] अप्रशस्त वचनविनय केटला प्रकारे छे ? [ उ०] अप्रशस्त वचनविनयना सात प्रकार छे से आ प्रमाणे - १ पापसहित, २ सावध अने यावत् जीवोने भय उपजाववो ए रीते अप्रशस्त वचनविनय को अने ए रीते वचनविनय पण को. १३८. [प्र० ] कायविनय केटला प्रकारे छे ? [उ०] कायविनयना बे प्रकार छे. ते आ प्रमाणे - प्रशस्त कायविनय अने अप्रशस्त कायविनय. १३९. [प्र० ] प्रशस्त काय विनय केटला प्रकारे छे ? [अ०] प्रशस्त कायविनयना सात प्रकार छे. ते आ प्रमाणे- १ सावधानता - पूर्वक जनुं, २ सावधानतापूर्वक स्थिति करवी, ३ सावधानतापूर्वक बेसवुं ४ सावधानतापूर्वक ( पथारीमां) आळोटवुं, ५ सावधानतापूर्वक उल्लंघन कर, ६ सावधानतापूर्वक वधारे उल्लंघन करवुं अने ७ सावधानतापूर्वक बधी इंद्रियोनी प्रवृत्ति करवी. ए प्रमाणे प्रशस्त कायविनय को छे. १४०. [प्र०] अप्रशस्त कायविनय केटला प्रकारनो छे ? [उ०] अप्रशस्तकायरूप विनयना सात प्रकार छे. ते आप्रमाणे- सावधानता सिवाय जनुं, यावत् - सावधानता सिवाय बधी इंद्रियोना प्रवृत्ति करवी. ए प्रमाणे अप्रशस्त कायविनय कह्यो. एम कायरूप विनय पण कह्यो. १४१. [ प्र० ] लोकोपचारविनय केटला प्रकारे छे ! [उ०] लोकोपचारविनयना सात प्रकार छे. ते आ प्रमाणे- १ गुर्वादि वडिलवर्गनी पासे रहेवुं, २ तेओनी इच्छाप्रमाणे वर्तयुं, ३ कार्यनी सिद्धि माटे हेतुओनी सवड करी आपवी, ४ करेला उपकारनो बदलो देवो, ५ रोगीओनी संभाळ राखवी, ६ देशकालज्ञता - अवसरोचित प्रवृत्ति करवी अने ७ सर्व कार्योंमां अनुकूलपणे वर्तवुं. एम लोकोपचार विनय को. अनेए रीते त्रिनयसंबंधे कां. १४२. [प्र०] वैयावृत्त्य केटला प्रकारनुं छे ! [उ०] वैयावृत्त्यना दस प्रकार छे. ते आ प्रमाणे - १ आचार्यनुं वैयावृत्त्य, २ उपा ध्यायनुं वैयावृत्त्य, ३ स्थविरनुं वैयावृत्य, ४ तपखीनुं वैयावृत्य, ५ रोगीनुं वैयावृत्त्य, ६ शैक्ष- प्राथमिक शिष्योनुं वैयावृत्त्य, ७ कुल - एक आचार्यना शिष्योना परिवारनं वैयावृत्य, ८ गण-साथे अध्ययन करता साधुओना समूह-नुं वैयावृत्त्य, ९ संघनुं वैयावृत्त्य, अने १० साधर्मि - कनुं वैयावृत्त्य. ए रीते वैयावृत्य क. ! १४३. [प्र० ] स्वाध्याय केटला प्रकारनुं छे पृच्छना, ३ पुनरावर्तन कर, ४ चिंतन कर अने ५ [उ०] स्वाध्यायना पांच प्रकार छे. ते आ प्रमाणे- १ वाचना - अध्ययन, २ धर्मकथा. ए रीते खाध्याय संबंधे कर्छु. . Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८१ १४४. [प्र०] से किं तं झाणे ? [उ०] झाणे चउष्टिहे पन्नत्ते, तंजहा-१ अट्टे झाणे, २ रोहे झाणे, ३ धम्मे झाणे, ४ सुके झाणे। १४५. [प्र०] अट्टे झाणे चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा-१ अमणुन्नसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, २ मणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, ३ आयंकसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, ४ परिजसियकामभोगसंपयोगसंपउत्तें तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवद । अदृस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहा-१ कंदणया, २ सोयणया, ३ तिप्पणया, ४ परिदेवणया। १४६. [प्र०] रोहे झाणे चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ हिंसाणुबंधी, २ मोसाणुबंधी, ३ तेयाणुबंधी, ४ सारक्खणाणुबंधी । रोहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहा-१ ओस्सन्नदोसे, २ बहुलदोसे, ३ अण्णाणदोसे ४ आमरणांतदोसे। १४७. [प्र०] धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पन्नत्ते, तंजहा-१ आणाविजए, २ अवायविजए, ३ विवागविजए, ४ संठाणविजए । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहा-१ आणारुयी, २ निसग्गरुयी, ३ सुत्तरुयी, ४ ओगादरुयी । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पन्नत्ता, तंजहा-१ वायणा, २ पडिपुच्छणा, ३ परियट्टणा, ४ धम्मकहा। धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ एगत्ताणुप्पहा, २ अणिचाणुप्पेहा, ३ असरणाणुप्पेहा, ४ संसाराणुप्पेहा। . १४८. [प्र०] सुक्के झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पन्नत्ते, तंजहा-२ पुहुत्तवियक्के सवियारी, २ एगंतवियक्के अवियारी, ३ सुहमकिरिए अनियट्टी, ४ समोच्छिन्नकिरिए अप्पडिवायी । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहा-१ । १४४. [प्र०] ध्यान केटला प्रकारे छे ! [उ०] ध्यानना चार प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-१ आर्तध्यान, २ रौद्रध्यान, ३ धर्मध्यान ध्यानना प्रकार. अने ४ शुक्लध्यान. १४५. आर्तध्यानना चार प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-१ अनिष्ट वस्तुओनी प्राप्ति थतां तेना वियोगर्नु चिन्तन करवं, २ इष्ट वस्तु- आर्तध्यानना प्रकार. आर्वध्यानना लक्षणओनी प्राप्ति थतां तेना अवियोगनुं चिंतन करवू, ३ रोगादि कष्ट प्राप्त थतां तेना वियोगर्नु चिंतन कर, अने ४ प्रीति उत्पन्न करनार कामभोगादिकनी प्राप्तिमा तेना अवियोगर्नु चिंतन करवू. आर्तध्यानना चार लक्षण कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-१ आक्रंदन-मोटेथी रोवू, २ दीनता, ३ आंसुओ पाडवा अने ४ वारंवार क्लेशयुक्त बोलq. १४६. रौद्रध्यानना चार प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ हिंसानुबन्धी-हिंसा संबंधी निरंतर चिन्तन, २ मृषानुबन्धी-खोटं राद्रध्यानना प्रकार. बोलवा संबंधी निरंतर चिन्तन, ३ स्तेयानुबन्धी-चोरी करवा संबन्धे निरंतर चिन्तन अने ४ संरक्षणानुबंधी-धन वगेरेना संरक्षण संबन्धे निरंतर चिन्तन. रौद्र ध्याननां चार लक्षण कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-१ ओसन्नदोष-जेमां हिंसा वगेरेथी नहीं अटकवां रूप घणा दोष छे ते, २ बहुलदोष-जेमा हिंसा वगेरेमा प्रवृत्ति करवारूप घणा दोष छे ते, ३ अज्ञानदोष-हिंसादि अधर्ममा धर्मबुद्धिथी प्रवृत्ति करवा रूप दोष अने ४ आमरणान्तदोष-मरण पर्यन्त पापनो पश्चात्ताप नहि थवा रूप दोष. १४७. धर्मध्यानना चार प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-१ आज्ञाविचय-जेमां जिन प्रवचननो निर्णय छे एवं चिन्तन, २ अपायवि- धर्मध्यानना प्रकार. चय-रागद्वेषादिजन्य अनर्थो संबंधे चिन्तन, ३ विपाकविचय-कर्मनां फळ संबंधे चिंतन अने ४ संस्थानविचय-लोकना-द्वीप समुद्रादिना - धर्मध्यानना लक्षण. आकार संबन्धे चिन्तन. धर्मध्याननां चार लक्षणो कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-१ आज्ञारुचि-जिनोपदेशमां रुचि, २ निसर्गरुचि-खभावथी .भालंबन. धर्मध्याननी चार तत्त्वरुचि, ३ सूत्ररुचि-आगमथी तत्त्वरुचि थवी अने ४ अवगाढरुचि-द्वादशांगना सविस्तर अवगाहनथी रुचि थवी. धर्मध्याननां चार आलंबनो कयां छे. ते आ प्रमाणे-१ वाचना, २ प्रतिपृच्छना, ३ परिवर्तना-पुनरावर्तन क अने ४ धर्मकथा करवी. धर्मध्याननी चार भावनाओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ एकत्वभावना, २ अनित्यभावना, ३ अशरणभावना अने ४ संसारभावना. १४८. शुक्लध्यानना चार प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ *पृथक्त्ववितर्क सविचार, २ एकत्ववितर्क अविचार, ३ सूक्ष्मक्रिय शुक्लध्यानना प्रकार. अनिवृत्ति अने ४ समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति. शुक्लध्याननां चार लक्षणो कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-१ क्षमा, २ निःस्पृहता, ३ आर्जव द्रध्यानना लक्षण. भावना. १४८ * १ पृथक्त्व-एक द्रव्यने आश्रित उत्पादादि पर्यायोना भेद वडे वितर्क-पूर्वगत श्रुतानुसारी अथवा नानानयानुसारी सविचार-अर्थथी शब्दमा भने शब्दथी अर्थमा मनप्रमुख योगोमांना कोइपण एक योगथी बीजा योगा उपयोगपूर्वक संक्रान्तियुक्त चिन्तन ते पृथक्त्ववितर्क सविचार. २ एकत्व-उत्पादादि पर्यायोना अभेदथी कोइ पण एक पर्यायद्वारा वितर्क-पूर्वगतश्रुताश्रित व्यंजनरूप के अर्थरूप अविचार-अर्थ, व्यंजन अने योगनी संक्रान्तिरहित चिन्तन ते एकत्ववितर्कअविचार. ३ मन अने वचनयोगनो सर्वथा रोध करवाथी अने काययोगमा बादरकाययोगनो रोध करेलो होवाथी सूक्ष्म क्रियावाळ पार्छ न पडे ते सूक्ष्मक्रियअनिवृत्तिशुक्लध्यान. आ ध्यान निर्वाणगमनसमये केवलीने होय छे. ४ ज्या योगनो सर्वथा रोध करेलो होवाथी कायिक्यादि क्रियानो सर्वथा उच्छेद थयो छे एवं समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान कहेवाय छे-टीका. ३६ भ. सू० Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुरुध्यानना चार लक्षण. शुक्रभ्यानना चार आलंबन. शुकुध्याननी चार भावना. म्युत्सर्गना प्रकार. द्रव्ययुत्सर्गना प्रकार. भावव्युत्सर्गना प्रकार. कषायन्युत्सर्गना प्रकार. संसारव्युत्सर्गना प्रकार. कर्मभ्युत्सर्गना प्रकार. नारकोनी उत्पत्ति. २८२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५. - उद्देशक ८. संती, २ मुत्ती, ३ अजवे, ४ मद्दवे । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पन्नत्ता, तंजहा-१ अवहे, २ असंमोहे, ३ विवेगे, ४ विसग्गे । सुक्कस्स சு 'झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - १ अणंतवत्तियाणुप्पेहा, २ विप्परिणामाणुप्पेहा, ३ असुभाणुप्पेहा, ४ अवायाणुप्पेहा । सेत्तं झाणे । १४९. [प्र०] से किं तं विउसग्गे ? [उ०] विउसग्गे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा - १ दविसग्गे य भावविसग्गे य । १५०. [प्र० ] से किं तं दधविउसग्गे [अ०] दधविसग्गे चउचिहे पन्नत्ते, तंजहा - गणविसग्गे, सरीरविसग्गे, उवहिविउसग्गे, भत्तपाणविउसग्गे । सेत्तं दधविसग्गे । १५१. [प्र० ] से किं तं भावविउसग्गे ? [अ०] भावविउसग्गे तिविहे पन्नत्ते, तंजहा - कसायविउसग्गे, संसारविउसग्गे, कम्मविसग्गे । १५२. [प्र०] से किं तं कसायविसग्गे ? [उ०] कसायविसग्गे चउष्विहे पन्नत्ते, तंजहा- कोहविउसग्गे, माणविउसग्गे, मायाविउसग्गे, लोभविसग्गे । सेत्तं कसायविसग्गे । १५३. [प्र० ] से किं तं संसारविसग्गे ? [30] संसारविसग्गे चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा - नेरइयसंसारविसग्गे, जावदेवसंसारविसग्गे । सेत्तं संसारविसग्गे । १५४. [प्र० ] से किं तं कम्मविसग्गे ? [अ०] कम्मविसग्गे अट्ठविहे पन्नत्ते, तंजहा - णाणावरणिजकम्मविउ सग्गे, जाव - अंतराइयकम्मविउसग्गे । सेत्तं कम्मविसग्गे । सेत्तं भावविउसग्गे । सेत्तं अभितरप तवे । 'सेवं भंते । सेवं भंते' ! ति । पणविसतिमेस सत्तमो उद्देसओ समत्तो । सरलता अन४ मादव - मानना त्याग. शुक्लध्याननां चार आलंबन कह्यां छे. ते आ प्रमाणे- १ अव्यथा - भयनो अभाव, २ असंमोह - भ्रान्तिन अभाव, ३ विवेक-शरीरथी आत्मानी भिन्नता अने ४ व्युत्सर्ग- असंगपणुं, त्याग. शुक्लध्याननी चार भावनाओ छे, ते आ प्रमाणे - १ संसारना अनंतवृत्तिपणा संबन्धे विचार, २ प्रत्येक क्षणे वस्तुओमां थता विपरिणाम संबंधे विचार, ३ संसारना अशुभपणा संबंधे चिंतन अने ४ हिंसादि जन्य अनर्थोनो विचार. ए रीते ध्यान संबंधे कयुं. १४९. [प्र० ] व्युत्सर्ग केटला प्रकारे छे ? [उ०] व्युत्सर्गना बे प्रकार छे. ते आ प्रमाणे - द्रव्यव्युत्सर्ग अने भावव्युत्सर्ग. १५०. [प्र०] द्रव्यव्युत्सर्ग केटला प्रकारे छे ? [उ०] द्रव्यव्युत्सर्गना चार प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे- १ गणव्युत्सर्ग, २ शरीरव्युत्सर्ग, ३ उपधिव्युत्सर्ग अने ४ आहार- पाणीनो व्युत्सर्ग. ( व्युत्सर्ग - असंगपणुं, त्याग. ) ए रीते द्रव्यव्युत्सर्ग कह्यो. १५१. [प्र० ] भावव्युत्सर्ग केटला प्रकारे छे ? [उ० ] भावव्युत्सर्गना त्रण प्रकार छे. ते आ प्रमाणे - १ कषायव्युत्सर्ग, २ संसारव्युत्सर्ग अने ३ कर्मव्युत्सर्ग. १५२. [ प्र० ] कषायव्युत्सर्गना केटला प्रकार छे ! [उ०] कषायव्युत्सर्गना चार प्रकार छे. ते आ प्रमाणे- १ क्रोधव्युत्सर्ग, २ मानव्युत्सर्ग, ३ मायाव्युत्सर्ग अने ४ लोभव्युत्सर्ग. एम कषायव्युत्सर्ग कह्यो. १५३. [प्र० ] संसारव्युत्सर्गना केटला प्रकार छे ? [उ०] संसारव्युत्सर्गना चार प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे - २ नैरयिकसंसारव्युत्सर्ग, अने यावत् - ४ देवसंसारव्युत्सर्ग. ए रीते संसारव्युत्सर्ग कह्यो. १५४. [ प्र० ] कर्मव्युत्सना केटला प्रकार छे ! [उ०] कर्मव्युत्सर्गना आठ प्रकार कह्या छे. ते आ प्रमाणे- १ ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्सर्ग अने यावत्-८ अंतरायकर्मव्युत्सर्ग. ए प्रमाणे कर्मव्युत्सर्ग कह्यो . ए रीते भावव्युत्सर्ग विषे पण कयुं, अने ए प्रमाणे अभ्यंतर तप संबंधे कह्युं. 'हे भगवन् ! ते एमज हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही यावत् - विहरे छे. पचीशमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त. अमोउसो . १. [ प्र० ] रायगि जाव - एवं वयासी - नेरइया णं भंते ! कहं उववजंति ? [३०] से जहानामए पवए पवमाणे अज्झवसाणनिश्वत्तिपणं करणोवारणं सेयकाले तं ठाणं विप्पजहित्ता पुरिमं ठाणं उचसंपजित्ता णं विहरइ, एवामेव एए वि जीवा पवओ विव पवमाणा अज्झवसाण निष्वत्तिपणं करणोवारणं सेयकाले तं भवं विप्पजहित्ता पुरिमं भवं उवसंपजित्ता णं विहरन्ति । अष्टम उद्देश. १. [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् - [ भगवान् गौतम ] आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! नैरयिको केवी रीते उत्पन्न थाय छे ! [उ०] जेम कोइ एक कूदनारो कूदतो कूदतो अध्यवसाय - इच्छाजन्य करण - क्रियाना साधन- वडे ते स्थळने तजीने भविष्यमां आगळना बीजा स्थानने मेळवीने विहरे छे एज रीते ए जीवो पण कूदनारानी पेठे कूदता कूदता अध्यवसाय - परिणाम जन्य ( कर्मरूप ) क्रियाना साधनथी ते भवने छोडी दइने भविष्यमां मेळवावा योग्य आगळना भवने मेळवीने विहरे छे.. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८३ २.प्र० तेसि गं भंते ! जीवाणं कह सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! से जहानामए केह पुरिसे तरुणे बलवं-एवं जहा चोइसमसए पढमुद्देसए जाव-तिसमएण वा विग्गहेणं उववजंति, तेसि णं जीवाणं तहा सीहा गई, तहा सीहे गतिविसए पन्नत्ते । ३. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा कहं परभवियाउयं पकरेंति ? [उ०] गोयमा! अज्झवसाणजोगनिधत्तिएणं करणोवारणं एवं खलु ते जीवा परभवियाउयं पकरेन्ति । ४. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कहं गती पवत्तइ ? [उ०] गोयमा ! आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं, एवं खलु तेर्सि जीवाणं गती पवत्तति । ___५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं आयडीए उववजंति, परिडीए उववजंति ? [उ०] गोयमा ! आइडीए उववजति, नो परिड्डीए उववजंति। ६. [प्र०] ते गं भंते ! जीवा किं आयकम्मुणा उववजंति, परकम्मुणा उववजंति ? [उ०] गोयमा! आयकम्मुणा उववजंति, नो परकम्मुणा उववजंति । ७. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं आयप्पयोगेणं उववजंति, परप्पयोगेणं उववजंति ? [उ०] गोयमा ! आयप्पयोगेणं उववजंति, नो परप्पयोगेणं उववजंति । ८. [प्र०] असुरकुमारा गं भंते ! कह उववजंति ? [उ०] जहा नेरतिया तहेव निरवसेसं, जाव-नो परप्पयोगेण उववजति । एवं एगिदियवजा जाव-वेमाणिया । एगिदिया एवं चेव । नवरं चउसमइओ विग्गहो. सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव-विहरइ । पणवीसइमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो । २. प्र०] हे भगवन् ! ते नारकोनी गति केवी शीघ्र होय छे अने तेओनो गतिविषय केवो शीघ्र होय छे ! [उ०] हे गौतम! नारकोनी गति. जेम कोइ पुरुष तरुण अने बलवान् होय-इत्यादि *चौदमा शतकना पहेला उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत्-ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय छे, तेम ते जीवोनी तेवी शीघ्रगति छे अने ते प्रकारे ते जीवोनो शीघ्र गतिविषय छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो कया प्रकारे परभवनुं आयुष बांधे ! [उ०] हे गौतम! ते जीवो पोताना परिणामरूप अने परभवायुषर्षपर्नु मन वगेरेना व्यापाररूप करणोपाय-कर्मबंधना हेतु-द्वारा परभवनुं आयुष बांधे छे. ४. प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोनी गति शाथी प्रवर्ते छे? [उ०] हे गौतम । ते जीवोना आयुषनो क्षय थवाथी, ते जीवोना भवनो ते जीवोनी गतिर्नु क्षय थवाथी अने ते जीवोनी स्थितिनो नाश थवाथी ते जीवोनी गति प्रवर्ते छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो शुं पोतानी ऋद्धिथी-शक्तिथी उपजे छे के पारकी ऋद्धिथी उपजे छे! [उ०] हे गौतम! ते जीवो पोतानी ऋद्धिथी उपजे छे, पण परनी ऋद्धिथी उपजता नथी. ६. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो शुं पोताना कर्मथी उपजे छे के पारका कर्मथी उपजे छे! [उ०] हे गौतम ! ते जीवो पोताना उत्पत्तिनु कारण कर्मथी उपजे छे, पण पारका कर्मथी नथी उपजता. स्वीय कर्म के पर कीय कर्म. ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो शुं पोताना प्रयोग-व्यापारथी उपजे छे के पारका प्रयोगथी उपजे छे ! [उ०] हे गौतम ! ते उत्पचिन कारण जीवो पोताना प्रयोगथी उपजे छे, पण पारका प्रयोगथी उपजता नथी. स्वपयोग के पर प्रयोग। ८. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो केवी रीते उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम | जेम नैरयिक विषे का तेम बधुं असुरकुमार अमुरकुमारनी उत्पसंबंधे पण जाणवं, यावत्-'तेओ पोताना प्रयोगथी उत्पन्न थाय छे, पण परप्रयोगथी उत्पन्न थता नथी'. ए प्रमाणे एकेंद्रिय सिवाय यावत् . ति केम थाय! वैमानिक सुधी बधा जीवो संबंधे समजq. एकेंद्रियो विषे पण तेज प्रकारे जाणवं, मात्र विशेष ए के, तओनी विग्रहगति चार समयनी होय. छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. 'हे भगवन् ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-एम कही यावत्-विहरे छे. पचीशमा शतकमा आठमो उद्देशक समाप्त. कारण. कारण. २* जुओ भग० ख०३ श०१४ उ०१पृ० ३४०.. प्र. Jan Education international गुजा भग० ख०३२०१४ उ. For Private & Personal use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २५.-उद्देशक १२. नवमो उद्देसो। १. [प्र०] भवसिद्धियनेरइया णं भंते ! कहं उववजंति ? [उ०] गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे-अवसेसं तं चेव, जाव-वेमाणिए । 'सेवं भंते! सेवं भंतेत्ति । पणवीसइमे सए नवमो उद्देसो समत्तो। नवमो उद्देशक. भवसिद्धिक नैरयि- १. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक नैरयिको केवी रीते उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! 'जेम कोइ एक कूदनारो कूदतो कूदतो'कनी उत्पत्ति. इत्यादि पूर्वोक्त समजवू. बाकी बधू ते ज रीते यावत्-वैमानिक सुधी समजवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छएम कही यावत्-विहरे छे. पचीशमा शतकमां नवमो उद्देशक समाप्त. दसमो उद्देसओ। १. [प्र०] अभवसिद्धियनेरइया णं भंते ! कहं उववजंति ? [उ०] गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे-अवसेसं तं चेव, एवं जाव-वेमाणिए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । पणवीसइमे सए दसमो उद्देसो समत्तो । दसमो उद्देशक. अभवसिद्धिक नैरयिः १. [प्र०] हे भगवन् ! अभवसिद्धिक नैरयिको केवी रीते उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! 'जेम कोइ एक कूदनारो कूदतो कनी उत्पत्ति कूदतो'-इत्यादि बाकी- बधुं पूर्वोक्त जाणवू, अने ए रीते यावत्-वैमानिक सुधी समजवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पचीशमा शतकमां दसमो उद्देशक समाप्त. एक्कारसमो उद्देसो । १. [प्र०] सम्मदिट्ठिनेरइया णं भंते ! कहं उववजंति ? [उ०] गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे-अवसेसं तं चेव, एवं एगिदियवजं जाव-वेमाणिया। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । पणवीसइमे सए एकारसमो उद्देसो समत्तो । ____ अगियारमो उद्देशक. सम्यग्दृष्टि नैरयिकनी १. प्र०] हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि नैरयिको केवी रीते उपजे ? [उ०] हे गौतम! जेम कोई कूदनार कूदतो कूदतो-इत्यादि बाकीन उत्पत्ति बधुं पूर्वोक्त जाणवू. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवाय यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पचीशमा शतकमां अगियारमो उद्देशक समाप्त. बारसमो उद्देसो। १. [प्र०] मिच्छदिट्टिनेरइया णं भंते ! कहं उववजंति ? [उ०] गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे-अवसेसं तं चेव, एवं जाव-वेमाणिए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति।। पणवीसतिमे सए वारसमो उद्देसो समत्तो। पणवीसइमं सयं समत्तं । बारमो उद्देशक. मिथ्यादृष्टि नैरयिको १. [प्र०] मिथ्यादृष्टि नैरयिको केवी रीते उपजे ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोई कूदनार कूदतो कूदतो-इत्यादि बाकी- बधुं वैमाफेम उपजे! " निक सुधी जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पचीशमा शतकमां बारमो उद्देशक समाप्त पचीशमुं शतक समाप्त. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवीसतिमं सयं । नमो सुयदेवयाए भगवईए। १जीवा य २ लेस्स ३ पक्खिय ४ दिद्वि ५ अन्नाण ६ नाण ७ सन्नाओ। ८ वेय ९. कसाए १० उवओग ११ जोग १२ एकारस वि ठाणा ॥ पढमो. उद्देसो। १. [प्र.] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव-एवं वयासी-जीवे गं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधा बंधिस्सह १ बंधी बंधइण बंधिस्सइ २, बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३, बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४१ [उ०] गोयमा! अत्थेगतिए बंधी 'बंधड बंधिस्सइ १, अत्थेगतिए बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ २, अत्थेगतिए बंधीण बंधइ बंधिस्सइ ३, अत्थेगतिए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सई ४ (१)। २. [प्र०] सलेस्से.णं भते.! जीवे पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ १, बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ २-पुच्छा। [उ.] गोयमा! अत्यंगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ १, अत्थेगतिए-एवं चउभंगो। छवीशमुं शतक - आ शतकमा अगियार उद्देशको छे अने तेमा प्रत्येक उद्देशके (१) जीवो, (२) लेश्याओ, (३) पाक्षिको (शुक्लपाक्षिको अने कृष्णपाक्षिको), (४) दृष्टि, (५) अज्ञान, (६) ज्ञान, (७) संज्ञा, (८) वेद, (९) कषाय, (१०) योग अने (११) उपयोग-एम अगियार स्थानो-विषयोने आश्रयी बन्धवक्तव्यता कहेवानी छे. प्रथम उद्देशक. [सामान्य जीव अने नैरयिकादि चोवीश दंडकने आश्रयी उपर कहेला अगियार द्वारवड़े पापकर्म अने ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मनी बन्धवक्तव्यता-] १. प्र०] ते काले, ते समये राजगृह नामना नगरमा [भगवान् गौतम] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! शुं जीवे जीवद्वारपापकर्म बांध्युं, बांधे.छे अने बांधशे ? २ अथवा शुं जीवे पापकर्म बांध्यू, बांधे छे अने नहीं बांधशे ? ३ अथवा शुं जीवे पापकर्म सामान्य जीवने १ .२ मा जान पापका आश्रयी पापकर्मनी बांध्यु, नथी बांधतो अने बांधशे ? अथवा ४ शुं जीवे पापकर्म बांध्ये नथी बांधतो अने नहीं बांधशे ? [उ.] हे गौतम ! १ *कोइ - बन्धवक्तव्यता. जीवे पापकर्म बांध्युं छे, बांधे छे अने बांधशे, २ कोइ जीवे पापकर्म बांध्युं छे, बांधे छे अने बांधशे नहीं, ३ कोइ जीवे पाप कर्म बांध्यं छे, नथी बांधतो अने बांधशे तथा ४ कोइ जीवे पाप कर्म बांध्यु छे, नथी बांधतो अने बांधशे. नहीं. २. प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा. जीवे पापकर्म बांध्यु छे, बांधे छे अने बांधशे ? अथवा शुं तेणे पाप कर्म बांध्यु छे, बांधे २ लेश्याद्वारछे अने बांधशे नहीं-इत्यादि प्रश्न. उ०] हे गौतम ! कोइ लेश्यावाळो जीव पाप कर्म बांधतो हतो, बांधे छे अने बांधशे-इत्यादि चार सलेश्य जीवने आषयी बन्ध. भांगा जाणवा. १ * तेमा प्रथम भंग अभव्यने आश्रयी छे. जे क्षपकत्वने प्राप्त थवानो छ एवा भव्य जीवने आश्रयी बीजो भंग छे. जेणे मोहनो उपशम कर्यो छे एवा जीवने आश्रयी त्रीजो भंग छे अने चोथो भंग क्षीणमोहनी अपेक्षाए छे. Jain Education international Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २६.-उद्देशक १. ३. [प्र०] कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधा बंधिस्सर, अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं जाव-पम्हलेस्से । सम्वत्थ पढम-बितियभंगा। सुक्कलेस्से जहा सलेस्से तहेव चउभंगो। ४. [प्र०] अलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा । [उ०] गोयमा! बंधी न बंधा न बंधिस्सइ (२)। ५. [प्र०] कण्हपक्खिए णं भंते ! जीवे पावं कम्मं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! अत्यंगतिए बंधी० पढम-बितिया भंगा । ६. [प्र०] सुक्कपक्खिए णं भंते ! जीवे-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! चउभंगो भाणियधो (३)। ७. सम्मइिट्ठीणं चत्तारि भंगा, मिच्छादिट्ठीणं पढम-बितिया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव (४)। ८. नाणीणं चत्तारि भंगा, आभिणिबोहियणाणीणं जाव-मणपजवणाणीणं चत्तारि भंगा; केवलनाणीणं चरमो भंगो जहा अलेस्साणं (५)। अन्नाणीणं पढम-बितिया, एवं मइअन्नाणीणं, सुयअन्नाणीणं विभंगणाणीण वि (६)। ९. आहारसन्नोवउत्ताणं जाव-परिग्गहसन्नोवउत्ताणं पढम-बितिया, नोसन्नोवउत्ताणं चत्तारि (७)। ३. प्र०] हे भगवन् ! शुं कृष्णलेश्यावाळो जीव पूर्वे पापकर्म बांधतो हतो बांधे छे अने बांधशे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | कोइ जीव पापकर्म बांधतो हतो, बांधे छे अने बांधशे अने कोइ जीव पाप कर्म बांधतो हतो, बांधे छे अने बांधशे नहि. ए प्रमाणे यावतपद्मलेश्यावाळा जीव सुधी समजवु. बधे स्थळे पहेलो अने बीजो-एम बे भांगा जाणवा. शुक्ललेश्यावाळाने लेश्यावाळा जीव संबन्धे जेम *कयुं छे तेम चारे भांगा कहेवा. लेश्यारहित जीवने ४. प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यारहित जीवे पाप कर्म बांध्यु हतु-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते जीव पूर्वे पाप कर्म बन्ध. बांधतो हतो, अत्यारे नथी बांधतो अने बांधशे नहीं. ३ पाक्षिकद्वार- ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कृष्णपाक्षिक जीव पूर्वे पाप कर्म बांधतो हतो-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कृष्णपाक्षिक कोई कृष्ण पाक्षिकने आश्रयी बन्ध जीव पूर्वे पाप कर्म बांधतो हतो, बांधे छे अने बांधशे-ए रीते पहेलो अने बीजो भागो जाणवो. शुलपाक्षिकने आ. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं शुक्लपाक्षिक जीव पाप कर्म बांधतो हतो-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! पूर्वोक्त चारे भांगा कहेवा. ४ दृष्टिद्वार ७. सम्यग्दृष्टि जीवोने चारे भांगा अने 'मिध्यादृष्टिजीवोने पहेलो अने बीजो-एम बे भांगा कहेवा. तथा सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोने विषे पण एमज जाणवु. ५-६ शान भने ८. ज्ञानीने चार भांगा, आभिनिबोधिक-मतिज्ञानी अने यावत्-मनःपर्यवज्ञानीने चार भांगा कहेवा, केवळज्ञानीने लेश्यारहित मशान जीवनी पेठे एक छेल्लो भांगो कहेवो. अज्ञानी संबंधे पहेला बे भांगा, अने ए रीते मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी तथा विभंगज्ञानीने पण बे भांगा जाणवा. ७ संशादार ९. ||आहारसंज्ञाथी मांडी यावत्-परिग्रहसंज्ञामां उपयुक्त जीवोने प्रथम अने बीजो भांगो समजवो. नोसंज्ञामा उपयुक्त जीवोने चारे भांगा जाणवा. ३ * सलेश्य जीवने चारे भांगा होय छे, कारण के शुक्ललेश्यावाळा जीवो पापकर्मना बन्धक पण होय छे. कृष्णादि पांच लेश्यावाळाने प्रथमना बेज भांगा होय छे, कारण के तेने वर्तमानकाळे मोहनीयरूप पापकर्मनो क्षय के उपशम नथी, तेथी तेने छेल्ला बे भांगा नथी होता. ५ जे जीवोने अर्धपुद्गलपरावर्तकाळथी अधिक संसार बाकी छे ते कृष्णपाक्षिक अने जेने अर्धपुद्गलपरावर्तथी अधिक संसार बाकी नथी पण तेनी अंदर जे मोक्षे जवाना छे ते शुक्लपाक्षिक कहेवाय छे. तेमां कृष्णपाक्षिकने आदिना बे भांगा होय छे. केमके वर्तमानकाळे तेनामां पापकर्मर्नु अबन्धकपणुं नथी. शुक्लपाक्षिकने चारे भांगा होय छ-१ पापकर्म बांध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे-आ प्रथम भंग प्रश्नसमयनी अपेक्षाए अनन्तर (तुरतना) भविष्य समयने आश्रयी छे. २ बांध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे नहिं-आ बीजो भंग पछीना भविष्य समयमा क्षपकपणानी प्राप्तिनी अपेक्षाए जाणवो. ३ बांध्यु हतुं, बांधतो नथी पण बांधशे-आ त्रीजो भंग जे मोहनीय कर्मनो उपशम करी पछी पडवानो होय तेनी अपेक्षाए छे, अने ४ 'बांध्य हतं बांधतो नथी अने बांधशे नहि'-आ चोथो भंग क्षपकपणानी अपेक्षाए होय छे. कृष्णपाक्षिकने 'बांधशे नहि' ए अंशनो असंभव होवा छता पण बीजो भांगो मानेलो छे तो शुक्लपाक्षिकने उपर कहेल 'बांधशे नहि'-ए अंशनो अवश्य संभव होवाथी 'बांधशे' ए अंशघटित प्रथम भांगो केम घटे? आ प्रश्नना उत्तरमा शुक्लपाक्षिकने प्रश्नसमयना अनन्तर (पछीना) समयनी अपेक्षाए प्रथम भांगो, अने कृष्णपाक्षिकने बाकीना समयनी अपेक्षाए बीजो भांगो होय छे. १ सम्यग्दृष्टि जीवोने शुक्लपाक्षिकनी पेठे चारे भांगा होय छे, अने मिथ्यादृष्टि तथा मिश्रदृष्टिने आदिना बेज भांगा होय छे. कारण के तेओने मोहनो बन्ध होवाथी छेल्ला बे भांगा होता नथी. - ८ केवलज्ञानीने वर्तमान अने भविष्यत्काळमां बन्ध थतो नथी तेथी तेने एक छेल्लो भागो होय छे. अज्ञानीने मोहनीय कर्मनो क्षय अने उपशम नहि होवाथी पहेलो अने बीजो भांगो होय छे. ९|| आहारादिनी संज्ञा-आसक्तिवाळा जीवोने क्षपकपणुं अने उपशमकपणुं नहि होवाथी पहेलो अने बीजो भांगो होय छे. नोसंज्ञामां-आहारादिनी अनासक्तिमा उपयोगवाळा जीवोने मोहनीयनो क्षय तथा उपशमनो संभव होवाथी चारे भांगाओ संभवे छे. . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६. - उद्देशक १. भगवत्सुधर्म स्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. 1 १०. सद्गाणं पढम वितिया एवं इत्यिवेदमा पुरिसवेद्गा, नपुंसगवेद्गा वि अवेदगाणं चत्तारि (८) । ११. [२०] सकसाई चत्तारि, कोदकसाई पदम वितिया भंगा, एवं माणकसावित्स वि, मायाकसायिस्स वि । लोभकसाथिस्स चत्तारि भंगा। २८७ १२. [प्र०] अकसायी णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी न बंधर बंधि - स्सर ३, अत्थेगतिए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सर ४ ( ९ ) । 1 १२. [२०] सजोगिस्स चढभंगो, एवं मणजोगिस्स वि, पहजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि अजोगिस्स चरिमो (१०) । सागारोवउत्ते चत्तारि, अणागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा (११) । १४. [प्र० ] नेरइणं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधर बंधिस्सइ १ [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी० पढम - बितिया । 1 १५. [२०] सलेस्से णं भंते! नेरतिए पार्थ कम्मं-१ [ड०] एवं चेव एवं कण्डलेस्से वि, नीललेरसे वि, काउलेल्खे वि । एवं कण्हपक्खिए, सुक्कपक्खिप, सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, नाणी, आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिणाणी, अन्नाणी, मइअन्नाणी, सुयअन्नाणी विभंगनाणी, आहारसन्नोवउत्ते जाव - परिग्गहसन्नोवउत्ते, सवेदए, नपुंसक वेद‍, सकसाथी जाव-लोभकसायी, सजोगी, मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी, सागरोवउत्ते, अणागारोवउत्ते - एएसु ससु पदेसु पढम- बितिया भंगा भाणियच्वा । एवं असुरकुमारस्स वि वत्तष्वया भाणियचा, नवरं तेउलेस्सा, इस्थिवेयग - पुरिसवेयगा य अम्भ १०. * वेदवाळा जीवोने पहेलो अने बीजो - एम बे भांगा जाणवा. अने ए रीते स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा तथा नपुंसक वेदवाळाने पण जाणवुं. वेद विनाना जीवोने चारे भांगा जाणवा. ११. किषायवाळा जीवोने चारे भांगा जाणवा, क्रोधकषायवाळा जीवोने पहेला बे भांगा जाणवा. ए रीते मानकषायवाळा अने मायाकषायवाळाने पण समजवु. लोभकषायवाळाने चार भांगा समजवा. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं अकषायी जीवे पूर्वे पाप कर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कोइ अकषायी जीव पूर्वे पाप कर्म बांधतो हतो, अत्यारे बांधतो नथी अने बांधशे. अथवा कोइ अकषायी जीव पाप कर्म बांधतो हतो, बांधतो नथी अने बांध पण नहीं.. १३. "सयोगी जीवने चार भांगा जाणवा. ए रीते मनयोगवाळा, वचनयोगवाळा अने काययोगवाळा जीवने पण समजवुं. अयोगीने १०-११ योग अने उपयोग'छेल्लो भांगो कहेवो. साकार उपयोग अने अनाकार उपयोगवाळाने चारे भांगा जाणवा. 1 १५. [अ०] हे भगवन् शुं यया नैरपिक पाप कर्म बांधतो हतो- इल्यादि पृच्छा. उ०] हे गीतम एज रीते पूर्वोक्त प्रथमना बे भांगा जाणवा. ए प्रमाणे कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा, कापोतलेश्यावाळा, कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आहारसंज्ञामां उपयोगवाळा, यावत्परिग्रहसंज्ञाम उपयोगवाळा, वेदवाळा, नपुंसक वेदनाळा, फपायचा, यावत्-खोमकपाययाळा, सयोगी, मनोयोगी, बचनयोगी, काययोगी, १४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिक जीव पापकर्म बांधतो हतो, बांधे छे अने बांधशे ? [उ०] हे गौतम! कोइ नैरयिक पाप नैरयिकादि दंडक कर्म बांधतो हतो - इत्यादि पहेलो अने बीजो भांगो जाणवो. आश्रयी पापकर्मनी बन्धवक्तव्यता. १० वेदनो उदय होय त्यां सुधी जीवने मोहनीयनो क्षय अने उपशम नहि थतो होवाथी प्रथमना बे भांगा होय छे. वेदरहितने पोतानो वेद उपशान्त थाय त्यारे मोहनीयरूप पाप कर्मने सूक्ष्मसंपराय प्राप्त न थाय सुधी बांधे छे अने बांधशे, अथवा त्यांथी पढीने पण बधिशे १. वेद क्षीण थया पछी पाप कर्म बांधे छे पण सूक्ष्मसंपरायादि अवस्थामां बांधतो नथी २. उपशान्तवेद सूक्ष्मसंपरायादि अवस्थामां पाप कर्म बांधतो नथी, पण त्यांथी पडीने २. दीपा पछी सूक्ष्मसंपरावादिगुणस्थानके बांधतो नयी अने पछी बांधले पण नहि ४. ११ सकषायीने चार भांगा होय छे. तेमां प्रथम भंग अभव्यने अने बीजो भंग जेने मोहनीयकर्मनो क्षय थवानो छे एवा भव्यने आश्रयी छे. उपशमक सूक्ष्मपरायने अपेक्षी प्रीयो मंग अनेक सूक्ष्मपरावने अपेक्षीतुर्थ भंग होय . एम लोभकपादीने पण सम पहेलो अने बीजो ए बे भंग ज होय छे. तेमां प्रथम भंग अभव्यने अने बीजो भंग भव्यविशेषने आश्रयी छे तेने त्रीजो अने चोथो भांगो नथी, कारण के क्रोधनो उदय होय त्यारे अबन्धकपणं होतुं नथी. १२ दांत भी अने बांए भांगो अकषायीने उपशमक आधी हो भने वांद बांधतो नमी अनेकांपनद्दिए भंग क्षपक आश्रयी जाणवो. १३ १ सयोगी अभव्य, भव्यविशेष, उपशमक अने क्षपकने आश्रयी क्रमशः चारे भांगा जाणवा अयोगीने पापकर्म बंधातुं नथी तेम बंधावानुं पण नवी माटे एक हेलो भांगो होय. १४ $ नारकने उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणि नहि होवाथी प्रथमना बे भांगा होय छे. एम सलेश्य इत्यादि विशेषण युक्त नारकपद जाणवुं. ए रीते कासुरकुमारादिने पण लागी - ८ वेदद्वार - ९ कषायद्वार - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २६.-उद्देशक १. हिया, नपुंसगवेदगा न भन्नति, सेसं तं चेव, सवत्थ पढम-बितिया भंगा । एवं जाव-थणियकुमारस्स । एवं पुढविकाइयस्स वि, आउकाइयस्स वि, जाव-पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि सम्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा, नवरं जस्स जा लेस्सा। दिट्टी, णाणं, अन्नाणं, वेदो, जोगो य अत्थि तं तस्स भाणियचं, सेसं तहेव । मणूसस्स जश्व जीवपदे वत्तष्ठया स चेव निरवसेसा भाणियथा । वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स । जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव, नवरं लेस्साओ जाणियचाओ, सेसं तहेव भाणियछ । १६.प्र. जीवे णं भंते । नाणावरणिजं कम्मं किं बंधी बंधड बंधिस्सइ-१ [उ०] एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तधया तहेव नाणावरणिजस्स वि भाणियधा, नवरं जीवपदे मणुस्सपदे य सकसाई, जाव-लोभकसाइंमि य पढम-बितिया भंगा, अवसेसं तं चेव जाव-वेमाणिया । एवं दरिसणावरणिजेण वि दंडगो भाणियधो निरवसेसो। १७. [प्र०] जीवे णं भंते ! वेयणिजं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सह १, अत्यंगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, अत्यंगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४, सलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव-पम्हलेस्से पढम-वितिया भंगा, सुक्कलेस्से ततियविहूणा भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो । कण्हपक्खिए पढम शानावरणीयनो वन्ध. साकार उपयोगवाळा अने अनाकार उपयोगवाळा-ए बधां पदोमां पहेलो अने बीजो-ए बे भांगा कहेवा. अर्थात् ए बधा प्रकारना नैरयिक जीवोने प्रथमना बे भांगा कहेवा. असुरकुमारने पण ए प्रमाणे वक्तव्यता कहेवी. परन्तु विशेष ए के तेओने तेजोलेश्या, स्त्रीवेद अने पुरुषवेद, अधिक कहेवो अने नपुंसकवेद न कहेवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं. बधे पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो. ए रीते यावत्स्तनितकुमार सुधी जाणवू. एम पृथिवीकायिक, अप्कायिक अने यावत्-पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकने पण सर्वत्र पहेलो अने बीजो-ए बे भांगा जाणवा. परन्तु विशेष ए के, जे जीवने जे लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद अने योग होय ते तेने कहेवो, अने बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. मनुष्यने जीवपद संबंधे जे वक्तव्यता कही छे ते बधी वक्तव्यता कहेवी. असुरकुमारनी पेठे वानव्यंतरने जाणवू. तथा ज्योतिषिक अने वैमानिक संबंधे पण एज रीते समजवं. परन्तु विशेष ए के अहीं लेश्याओ कहेवी अने बाकी बधुं ते ज प्रमाणे कहेवू. १६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवे ज्ञानावरणीय कर्म बांध्यु हतुं बांधे छे अने बांधशे ? [उ०] हे गौतम ! जेम पाप कर्म संबंधे वक्तव्यता कही ते प्रमाणे ज्ञानावरणीय कर्म संबंधे पण कहेवी. परन्तु विशेष ए के, जीवपद अने मनुष्यपदमा सकषायी यावत्-लोभकषायीने आश्रयी *पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो. बाकी बधुं तेमज कहे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. ज्ञानावरणीय कर्मनी पेठे दर्शनावरणीय कर्मनो पण संपूर्ण दंडक कहेवो. १७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवे वेदनीय कर्म बांध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! १ कोइ जीवे बांध्यु हतुं, बांधे छे अने, बांधशे, २ कोइ जीवे बांध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे नहीं. ४ कोइ जीवे बांध्यु हतुं, नथी बांधतो अने बांधशे नहीं. लेश्यावाळा जीवने पण एज रीते त्रीजा भंग सिवाय बाकीना त्रणे भांगा जाणवा. कृष्णलेश्यावाळा यावत्-पद्मलेश्यावाळा जीवोने पहेलो अने बीजो भांगो अने शुक्ललेश्यावाळा जीवोने त्रीजा भांगा सिवायना बाकीना (त्रणे) भांगा जाणवा. लेश्यारहित जीवोने छेल्लो भांगो जाणवो. कृष्णपाक्षिक जीवोने पहेलो अने बीजो अने शुक्लपक्षवाळा जीवोने त्रीजा भांगा सिवायना बाकीना त्रणे भांगा कहेवा. ए प्रमाणे सम्यग्दृष्टि जीवने विषे पण जाणवू. मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिथ्यादृष्टि संबंधे पहेला बे भांगा जाणवा. ज्ञानीने त्रीजा भांगा सिवाय बाकीना वेदनीयकर्म बन्ध. १६ * पापकर्मना दंडकमा जीवपद अने मनुष्यपद संबंधे सकषायी अने लोभकषायीनी अपेक्षाए सूक्ष्मसंपराय मोहनीयरूप पापकर्मनो अबंधक होवाथी चार भांगा कह्या हता, परन्तु ज्ञानावरणीयना दंडकमां प्रथमना बे ज भांगा जाणवा. कारण के सकषायी अवश्य ज्ञानावरणीय कर्मनो बंधक होय छे, पण अबन्धक होतो नथी. १७ + वेदनीय कर्मने विषे पहेलो भांगो अभव्यने आश्रयी छे, जे भव्य निर्वाण पामवानो छे तेनी अपेक्षाए बीजो भांगो छे. त्रीजा भांगानो संभव नथी, कारण के वेदनीयनो अबन्ध करनार पुनः तेनो बन्ध करतो नथी, अने चोथो भांगो अयोगी केवलीने आश्रयी होय छे. + सलेश्य जीवने पूर्वोक्त हेतुथी त्रीजा भंग सिवायना भांगा जाणवा. परन्तु तेमा 'पूर्वे बांध्यु हतुं, बांधतो नथी अने बांधशे नहि'-ए चोथो भंग घटी शकतो नथी. पण आ भंग लेश्यारहित अयोगीने ज घटे छे. केमके लेझ्या तेरमा गुणस्थानक पर्यन्त होय छे, अने त्या सुधी तेओ वेदनीय कर्मना बन्धक छे. कोइ आचार्य एवं समाधान करे छे के आज सूत्रना वचनथी अयोगिताना प्रथम समये घंटालाला न्यायथी परमशुक्ललेश्या संभवे छे, भने तेथी जसलेश्यने चोथो भांगो घटी शके छे. तत्त्व बहुश्रुतगम्य-टीका, | कृष्णादि पांच लेश्यावाळाने अयोगिपणानो अभाव होवाथी तेओ वेदनीय कर्मना अबंधक नथी माटे तेओने आदिना बे भांगा होय छे. शुक्ललेश्यावाळाने सलेश्यनी जेम त्रण भांगा होय छे. लेश्यारहित शैलेशीगत केवली अने सिद्ध, होय छे अने तेने 'पूर्वे बांध्यु हतुं, बांधतो नथी अने बांधशे नहि आ एकज भांगो होय छे. कृष्णपाक्षिकने अयोगिपणाना अभावधी प्रथमना बे भागा होय छे, अने शुक्लपाक्षिक अयोगी पण होय छे माटे तेने त्रीजा भांगा सिवायना बाकीना भांगा होय छे. सम्यग्दृष्टिने अयोगीपणानो संभव होवाथी बन्ध थतो नथी, तेथी त्रीजा सिवाय ना भांगा होय छे. मिध्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टिने अयोगिपणाना अभावथी वेदनीय, अबन्धकपणुं नथी तेथी प्रथमना बे ज भांगा होय छे. ज्ञानीने अने केवलज्ञानीने अयोगीपणामां छेल्लो भांगो होय छे, एटले त्रण भांगा जाणवा. आभिनिबोधिकादि ज्ञानवाळामा अयोगिपणानो अभाव होवाथी छेल्लो भांगो होतो नथी, मात्र तेने प्रथमना बे भांगा होय छे. Jain Education international Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६.- उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८९ बितिया । सुक्कपक्खिया ततियविहूणा । एवं सम्मदिट्ठिस्स वि; मिच्छादिट्ठिस्स सम्मामिच्छादिट्ठिस्स य पढम-बितिया । ाणिस्स ततियविह्नणा, आभिणिबोहियनाणी, जाव-मणपजवणाणी पढम- बितिया, केवलनाणी ततियविह्नणा । एवं नोसनोवते, अवेद, अकसायी । सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते एपसु ततियविहूणा । अजोगिम्मि य चरिमो, सेसेसु पढम- बितिया । 1 १८. [प्र० ] नेरइणं भंते! वेयणिज्जं कम्मं बंधी बंध- १ [अ०] एवं नेरतिया, जाव - वेमाणिय त्ति । जस्स जं अस्थि वि पढ - बितिया, नवरं मणुस्से जहा जीवे । १९. [०] जीवे णं भंते । मोहणिजं कम्मं किं बंधि बंध- १ [अ०] जहेव पावं कम्मं तद्देव मोहणिजं पि निरखसेसं जाव - वेमाणिए । २०. [प्र० ] जीवे णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी बंधइ - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी - चउभगो । सलेस्से, जाव- सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा; अलेस्से चरिमो भंगो । २१. [] प णं - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सर, अत्थेगतिए बंधी न बंधह बंधिस्सह । सुक्कपक्खिए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा। २२. [प्र० ] सम्मामिच्छादिट्ठी - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सर, अत्थेगतिए बंधी न बंधन बंधिस्स नाणी जाव-ओहिनाणी चत्तारि भंगा । २३. [प्र० ] मणपजवनाणी- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सर, अत्थेगतिर बंधी न बंधह बंधिस्er; अत्थेगतिर बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । केवलनाणे चरमो भंगो । एवं एएणं कमेणं नोसन्नोवउत्ते बितियविह्नणा जहेव मणपज्जवनाणे | अवेदए अकसाई य ततिय - चउत्था जहेव सम्मामिच्छत्ते । अजोगिम्मि चरिमो, सेसेसु पदेसु चत्तारि भंगा जाव - अणागारोवउत्ते I नणे भांगा कहेवा. आभिनिबोधिकज्ञानी अने यावत् मनः पर्यवज्ञानीने पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो, अने केवलज्ञानीने त्रीजा भांगा सिवाय बाकीना त्रणे भांगा कहेवा. ए प्रमाणे नोसंज्ञामां उपयुक्त, वेदरहित, अकषायी, साकार उपयोगवाळा अने अनाकार उपयोगवाळाए बधा जीवोने त्रीजा भांगा सिवाय बाकीना (त्रणे ) भांगा कहेवा. अयोगी जीवने छेल्लो भांगो अने बाकी बधे स्थले पहेलो भने बीजो - एम बे भांगा जाणवा. थी वेदनीय कर्मबन्ध. १८. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिक जीवे वेदनीय कर्म बांध्युं हतुं, बांधे छे- इत्यादि पृच्छा. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवु. ए रीते नैरविकादिने आश्र नैरयिकोथी मांडी यावत्-वैमानिक सुधी जेने जे होय तेने ते कहेतुं तथा बधे पहेलो अने बीजो भांगो समजवो. परन्तु विशेष ए के, जीवनी पेठे मनुष्य संबंधे कहे. १९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवे मोहनीय कर्म बांध्युं हतुं, बांधे छे अने बांधशे ? [उ०] जेम पापकर्म संबंधे कह्युं तेम मोह - मोहनीय कर्मबन्ध. नीय कर्म संबंधे पण जाणवुं. ए प्रमाणे यावत् - वैमानिक सुधी समजवु. २०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवे आयुष कर्म बाध्युं हतुं, बांधे छे- इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! इत्यादि चारे भांगा जाणवा. लेश्यावाळा जीवो अने यावत् - शुक्ललेश्यावाळा जीवोने चार भांगा जाणवा, अने भांगो जावो. कोइ जीवे बांध्युं हतुंलेश्यारहित जीवने छेल्लो २१. [प्र०] कृष्णपाक्षिक संबंधे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कोइ जीवे आयुष बांध्युं हतुं, बांधे छे अने बांध. अथवा कोइ जीवे आयुष बांध्युं हतुं, नथी बांधतो अने बांधशे. शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि जीवोने चारे भांगा जाणवा. २२. [०] सम्यग्मिथ्यादृष्टि संबन्धे पृच्छा. [ उ०] हे गौतम! कोइक मिध्यादृष्टि जीवे आयुष बांध्युं हतुं, बांधतो नथी अने बांधशे, कोइक जीवे बांध्युं हतुं, नथी बांधतो अने बांधशे नहीं. ज्ञानी, यावत् – अवधिज्ञानीने चारे भांगा कहेवा. २३ः [प्र०] मनःपर्यवज्ञानी संबन्धे पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कोइक मनः पर्यवज्ञानीए आयुष बांध्युं हतुं, बांधे छे अने बांध. कोइए बांध्युं हतुं, नथी बांधतो अने बांधशे नहीं. केवलज्ञानीने छेल्लो भांगो जाणवो. एज प्रकारे ए क्रमवडे नोसंज्ञामां उपयुक्त जीव संबंधे बीजा भांगा सिवाय बाकीना त्रणे भांगा मनःपर्यायज्ञानीनी पेठे जाणवा. वेदरहित अने अकषायी जीवने सम्यग्मिथ्यादृष्टिनी पेठे श्रीजो अने चोथो भांगो कहेवो, अयोगीने विषे छेल्लो भांगो कहेवो अने बाकीनां पदोने विषे चारे भांगा यावत् - अनाकार उपयोगवाळा जीव सुधी जाणवा ३७ भ० सू० आयुषकर्मबन्ध. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २६.-उद्देशक २. २४. प्र० नेरइए णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए चत्तारि भंगा, एवं सम्वत्थ वि नेरायाणं चत्तारि भंगा, नवरं कण्हलेस्से कण्हपक्खिए य पढम-ततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततिय-चउत्था । असुरकु. मारे एवं चेव, नवरं कण्हलेस्से वि चत्तारिभंगा भाणियचा, सेसं जहा नेरइयाणं, एवं जाव-थणियकुमाराणं पुढविकाइयाणं सवत्थ वि चत्तारि भंगा, नवरं कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा। २५. [प्र०] तेउलेस्से-पुच्छा। [उ०] गोयमा बंधी न बंधइ बंधिस्सइ सेसेसु सम्वत्थ चत्तारि भंगा। एवं आउक्काइयवणस्सइकाइयाण वि निरवसेसं । तेउकाइय-वाउकाइयाणं सवत्थ वि पढम-ततिया भंगा । बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं पि सम्वत्थ वि पढम-ततिया भंगा। नवरं सम्मत्ते, नाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे ततिओ भंगो। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततिय-चउत्थो भंगो, सम्मत्ते, नाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे एएसु पंचसु वि पदेसु बितियविहूणा भंगा, सेसेसु चत्तारि भंगा। मणुस्साणं जहा जीवाणं । नवरं सम्मते, मोहिए नाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे एएसु बितियविहूणा भंगा, सेसं तं चेव । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । नाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा नाणावरणिजं । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव-विहरति । छवीसतिमे बंधिसए पढमो उद्देसओ समत्तो । नैरयिकने मामयी मायुषवन्द २४. प्रि०] हे भगवन् ! शुं नैरयिक जीवे आयुष कर्म बांध्यु हतु-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! कोइक नैरयिक जीवे बांध्यु हतु-इत्यादि चार भांगा कहेवा. ए प्रमाणे बधे ठेकाणे पण नैरयिको संबंधे चार भांगा जाणवा. परन्तु विशेष ए के, कृष्णले. श्यावाळा अने कृष्णपाक्षिकने पहेलो अने त्रीजो भांगो जाणवो, सम्यग्मिथ्यादृष्टिमां त्रीजो अने चोथो भांगो कहेवो. असुरकुमारोमा एज रीते जाणवं, पण विशेष ए के कृष्णलेश्यावाळा जीवोने चार भांगा कहेवा. बाकी बधुं नैरयिकोनी पेठे समजबु. ए रीते यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवं. पृथिवीकायिकोने बधे ठेकाणे चारे भांगा कहेवा. पण विशेष ए के कृष्णपाक्षिकमां पहेलो अने त्रीजो भांगो कहेवो. २५. [प्र०] तेजोलेश्यावाळा संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेणे बांध्यु हतुं, बांधतो नथी अने बांधशे. बाकी बधे स्थले चार भांगा कहेवा. ए प्रमाणे अप्कायिक अने वनस्पतिकायिकने पण बधुं जाणवू. तेजस्कायिक अने वायुकायिकने विषे बधे पहेलो अने त्रीजो भांगो कहेवो. बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चरिंद्रियने बधे पहेलो भने त्रीजो भांगो जाणवो. पण विशेष ए के, सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान अने श्रुतज्ञान संबंधे त्रीजो भांगो कहेवो. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोने कृष्णपाक्षिक संबंधे पहेलो अने त्रीजो भांगो कहेवो. सम्यग्मिध्यात्वमां त्रीजो अने चोथो भांगो कहेवो. सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान-ए पांचे पदोमां बीजा भांगा सिवाय बाकीना त्रणे भांगा कहेवा, अने बाकीनां पदोमां चारे भांगा कहेवा. जेम जीवो संबन्धे कयुं छे तेम मनुष्योने पण कहे. पण विशेष ए के, सम्यक्त्व, औधिक-सामान्य ज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान-ए बधा पदोमां बीजा भांगा सिवाय बाकीना त्रणे भांगा कहेवा; अने बाकी बधुं पूर्वोक्त जाणवु. जेम असुरकुमारो संबंधे कयुं छे तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबंधे पण कहेवू. जेम ज्ञानावरणीय कर्म संबंधे कह्यु छे तेम नाम, गोत्र अने अंतराय संबंधे पण कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन्! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. छवीशमा बंधिशतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त । बीओ उद्देसो। १. [प्र०] अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा तहेव । [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधीपढम-बितिया भंगा। २. [प्र०] सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा [उ०] गोयमा ! पढम-बितिया भंगा, एवं खलु सवत्थ पढम-बितिया भंगा; नवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छिजइ । एवं जाव-थणियकुमाराणं । बेई. द्वितीय उद्देशक. अनन्तरोपपन्न नैरयि- [अनन्तरोपपन्न नैरयिकादि चोवीश दंडकोने आश्रयी उक्त अगियार द्वारोबडे पापकर्मादिनी बन्धवक्तव्यता-1 कने पापकर्मनो बन्ध. १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अनन्तरोपपन्न नैरयिके पाप कर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा. [उ.] हे गौतम ! कोइए बांध्यु हतु-इत्यादि पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो.. २. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा अनन्तरोपपन्न नैरयिके पापकर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! अहीं पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो. एम लेश्यादि बधा पदोमा पहेलो भने बीजो भांगो कहेवो. पण सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्रदृष्टि ) मनो . Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६. - उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २९१ दिय-तेइंदिय- चउरिंदियाणं वयजोगो न भन्नइ । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं, ओहिनाणं, विभंगनाणं, मणजोगो, वयजोगो-एयाणि पंच पदाणि ण भन्नंति । मणुस्साणं अलेस्स- सम्मामिच्छत्त-मणपजवणाण- केवलनाण- विभंगनाण-नोसनोवउत्त-अवेद्ग-अकसायी-मणजोग-वयजोग - अजोगि एयाणि एक्कारस पदाणि ण भन्नंति । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहां नेरइयाणं तहेव ते तिन्निन भन्नंति । सधेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सवत्थ पढम- बितिया भंगा। एगिंदियाणं सवत्थ पढम - बितिया भंगा। जहा पावे एवं नाणावरणिजेण वि दंडओ, एवं आउयवज्जेसु जाव-अंतराइए दंडओ । ३. [प्र०] अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए आउयं कम्मं किं बंधी - पुच्छा । [अ०] गोयमा ! बंधी न बंध बंधिस्सह । ४. [प्र० ] सलेस्से णं भंते! अणंतरोववन्नए नेरइए आउयं कम्मं किं बंधी - १ [ उ० ] एवं चैव ततिओ भंगो, एवं जावअणगारोवउत्ते । सवत्थ वि ततिओ भंगो । एवं मणुस्सवजं जाव-वेमाणियाणं । मणुस्साणं सवत्थ ततिय - चउत्था भंगा, नवरं कण्हपक्खिसु ततिओ भंगो, सधेसि नाणत्ताई ताई चेव । 'सेवं भंते । सेवं भंते' । त्ति । छवीसतिमे बंधिसए बीओ उद्देसो समत्तो । योग अने वचनयोग संबन्धे न * पूछवं. ए प्रमाणे यावत् - स्तनितकुमारो सुधी जाणवुं. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, अने चउरिन्द्रियने वचनयोग न कहेवो. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोने सम्यग्मिथ्यात्व, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनोयोग अने वचनयोग- ए पांच पदो न कहेवां. मनुष्योने अलेश्यपणुं, सम्यग्मिथ्यात्व, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयोग, अवेदक, अकषायित्व, मनोयोग, वचनयोग अने अयोगित्व - ए अगियार पदो न कहेवा. जेम नैरयिकोने कह्युं छे तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकने पण पूर्वोक्त त्रण पद न कहेवा. बाकीनां बधा स्थाने पहेलो अने बीजो भांगो जाणवो. एकेन्द्रियने सर्वत्र पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो. जेम पापकर्म संबन्धे क तेम ज्ञानावरणीय कर्म संबंधे पण दंडक कहेवो. ए रीते आयुष सिवाय यावत्- अंतराय कर्म सुधी पण दंडक कहेवो. ३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अनंतरोपपन्न नैरयिके आयुष्य कर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! तेणे पूर्वे आयुष कर्म आयुधनो बम्ध. बांध्युं हतुं, बांधतो नथी अने बांध. ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा अनन्तरोपपन्न नैरयिके आयुष कर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! पूर्व प्रमाणे श्रीजी भांगो जाणवो. ए प्रमाणे यावत् - अनाकार उपयोग सुधी बधे त्रीजो भांगो जाणवो. एम मनुष्य सिवाय यावत्-वैमानिको सुधी जाणवुं. मनुष्योने बधे त्रीजो अने चोथो भांगो जाणवो. परन्तु विशेष ए के, कृष्णपाक्षिकने त्रीजो भांगो कहेवो. बधामा पूर्व प्रमाणे भिन्नता जावी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. छवीशमा बंधिशतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. ईओ उद्देो । १.[प्र० ] परंपरोववन्नणं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए पढम - वितिया । एवं जहेव पढमो उद्देसओ तद्देव परंपरोववन्नपहि वि उद्देसओ भाणियचो नेरइयाइओ तहेव नवदंडगसद्दिओ । अट्ठण्ह वि कम्मप्पगडी जा जस्स कम्मस्स वत्तवया सा तस्स अहीणमतिरित्ता नेयध्वा जाव-वेमाणिया अणागारोवउत्ता | 'सेवं भंते ! सेवं भंते' । ति । छवीसतिमे बंधिस तईओ उद्देसो समत्तो । त्रीजो उद्देशक. [ परंपरोपपन्न नैरयिकादि चोवीश दंडकने आश्रयी पापकर्मादिनी बन्धवक्तव्यता - ] ने पापकर्मनो बन्ध १. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं परंपरोपपन्न नैरयिके पापकर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कोइके बांध्युं हतुं - इत्यादि परंपरोपपन्न नैरयिकपहेलो अने बीजो भांगो समजवो. जेम प्रथम उद्देशक कह्यो छे तेम परंपरोपपन्न नैरयिकादिसंबंधे पापकर्मादि नव दंडक सहित आ उद्देश कहेवो. आठ कर्म प्रकृतिओमां जेने जे कर्मनी वक्तव्यता कही छे तेने ते कर्मनी वक्तव्यता बराबर कहेवी. ए प्रमाणे यावत् - अनाकार उपयोगवाळा वैमानिको सुधी जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज 'छे.' छवीशमा वंधिशतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. २ अनन्तरोपपन नैरयिको अपर्याप्त होवाथी तेने मिश्र दृष्टि, मनोयोग अने वचनयोग होता नथी माटे ए त्रण बाबत न पूछवी. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तरावगाढ नैर चिकने आश्रयी कर्मबन्ध. परंपरावगाढ नैरयिकने आश्रयी कर्मबन्ध. अनन्तराशरकने कर्मबन्ध. परंपराहारक नैरयिकने कर्मबन्ध. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे - उत्थो उद्देसो । १. [प्र० ] अणंतरोगाढणं भंते! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी - पुच्छा । [अ०] गोयमा ! अत्थेगतिए - एवं जहेच अणंतरोववन्नएहिं नवदंडगसंगहिओ उद्देसो भणिओ तहेव अनंत रोगाढएहि वि अहीणमतिरित्तो भाणियचो नेरइयादीप जावमाणिए । 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! ति । २९२ छवीसतिमे बंधिसए चउत्थो उद्देसो समत्तो । चतुर्थ उद्देश. [ अनन्तरावगाढ नैरयिकादि चोवीश दंडकने आश्रयी पापकर्मादिनी बन्धवक्तव्यता ] १. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं * अनंतरावगाढ नैरयिके पाप कर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! जेम अनंत पन्न साथै पापकर्मादि नवदंडकसंगृहीत उद्देशक को तेम अनंतरावगाढ नैरयिकादि संबंधे पण वैमानिक सुधी उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् 'एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'. ते १. [प्र० ] परंपरोगाढणं भंते । . निरवसेसो भाणियचो । 'सेवं भंते! सेव शतक २६. - उद्देशक ७. छवीशमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो । नेरइए पावं कम्मं किं बंधी - १ [उ०] जहेव परंपरोववन्नपहिं उद्देसो सो चेक भंते' । त्ति । छवीसतिमे बंधिसए पंचमो उद्देसो समत्तो । पांचमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परंपरावगाढ नैरयिके पापकर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [उ० ] जेम परंपरोपपन्नक संबन्धे उद्देशक कह्यो तेम परंपरावगाढ संबंधे पण संपूर्ण उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. छवीशमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. छओ उद्देसो । १. [प्र० ] अनंतराहारण णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी - पुच्छा । [ उ०] एवं जहेव अणंतरोववन्नपहिं उद्देसो तदेव निरवसेसं । ' सेवं भंते ! सेवं भंते' । त्ति । छवीसति मे सए छट्टओ उद्देसो समत्तो । छो उद्देशक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं अनन्तराहारक ( आहारना प्रथमसमये वर्तमान) नैरयिके पापकर्म बांध्युं हतुं - इत्यादि पृच्छा. [ उ०] हे गौतम! जेम अनन्तरोपपन्न संबन्धे उद्देशक कह्यो तेम अनन्तराहारक संबंधे पण संपूर्ण उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! एमज छे. छवीशमा शतकमां छट्ठो उद्देशक समाप्त. सत्तमो उद्देसो । १. [ प्र० ] परंपराहारण णं भंते! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी - पुच्छा। [30] गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नपहिं उसो तद्देव निरवसेसो भाणियो । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । छवसति स सत्तम उद्देसो समत्तो । सप्तम उद्देशक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं परंपराहारक ( आहारना द्वितीयादि समये वर्तमान ) नैरयिके पापकर्म बांध्युं - इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जेम परंपरोपपन्नक संबंधे उद्देशक कह्यो छे ते ज रीते परंपराहारक संबंधे पण संपूर्ण उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. एमज छवीशमा शतकमा सातमो उद्देशक समाप्त. १ * जे जीव एक पण समयना अन्तर सिवाय उत्पत्तिस्थानने आश्रयी रहेलो होय ते अनन्तरावगाढ कहेवाय छे, परन्तु तेवो अर्थं करतां अनन्तरोपपन्न अने अनन्तरावगाढना अर्थमां भिन्नता थती नथी. तेथी उत्पत्तिना एक समय पछी एक पण समयना अंतर सिवाय उत्पत्तिस्थानने अवगाही रहेल होय ते अनन्तरावगाढ, अने एकादि समयनुं अन्तर होय ते परंपरावगाढ. अर्थात् — अनन्तरावगाढ उत्पत्तिना द्वितीय समयवर्ती होय छे अने परंपरावगाढ उत्पत्तिना तृतीयादिसमयवर्ती होय छे. टीका. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन्तरपासने शतक २६.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. अट्ठमो उद्देसो। १. [H०] अणंतरपजत्तए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। [30] गोयमा! जहेव मणंतरोन्नपार्ह उसो तहेव निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । छवीसतिमे सए अट्ठमो उद्देसो समतो। आठमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अनंतरपर्याप्त (पर्याप्तपणाना प्रथम समयवर्ती ) नैरयिके पाप कर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! जेम अनन्तरोपपन्न संबंधे उद्देशक कह्यो तेम अनंतरपर्याप्तक संबंधे पण संपूर्ण उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. छवीशमा शतकमा आठमो उद्देशक समाप्त. नवमो उद्देसो। १. [प्र०] परंपरपजत्तए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! एवं जहेव परंपरोक्वनहि उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियचो । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! त्ति । जाव-विहराए । छवीसतिमे बंधिसए नवमो उद्देसो समत्तो । नवमो उद्देशक. १.[प्र०] हे भगवन् ! शुं परंपरपर्याप्त (पर्याप्तपणाना द्वितीयादि समयवर्ती) नैरयिके पापकर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. उ०] हे गौतम ! जेम परंपरोपपन्नक संबंधे उद्देशक कह्यो छे तेम परंपरपर्याप्त संबंधे पण संपूर्ण उद्देशक कहेवो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. छवीशमा शतकमां नवमो उद्देशक समाप्त. परंपरुपयांप्सने कर्मबन्ध . दसमो उद्देसो। १. प्र० चरिमेणं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। उ०] गोयमा! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उहेसो तहेव चरिमेहिं निरवसेसो। 'सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति २ जाव-विहरति । छवीसतिमे बंधिसए दसमो उद्देसो समत्तो। दशमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं चरम (जेने नारकभव छेल्लो छे एवा) नैरयिके पापकर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जेम परंपरोपपन्नक संबंधे उद्देशक कह्यो तेम चरम नैरयिकादि संबंधे पण एज रीते *संपूर्ण उद्देशक कहेवो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. छवीशमा शतकमां दसमो उद्देशक समाप्त. एक्कारसमो उद्देसो। १. [प्र०] अचरिमे णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अत्यंगइए-एवं जहेव पढमोहेसए, पढम-बितिया भंगा भाणियवा सवत्थ जाव-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । अगियारमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् । शुं अचरम नैरयिके पापकर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०हे गौतम! प्रथम उद्देशकमा कह्या प्रमाणे पहेलो अने बीजो-एम बे भांगा बधे स्थळे यावत्-पंचेंद्रिय तियंचयोनिक सुधी कहेवा... १ * अहीं चरमोद्देशक परंपरोद्देशकनी पेठे कह्यो छे, अने परंपरोद्देशक प्रथम उद्देशकनी पेठे छे. छतां तेमा मनुष्यपदने आश्रयी आयुषकर्मना बन्धमा आ विशेषता छ-प्रथम उद्देशकमा आयुषकर्मने अपेक्षी सामान्यतः चार भांगा कह्या छ, पण चरम मनुष्यने आश्रयी मात्र चोथो भांगो घटी शके छे. जे चरम मनुष्य छे तेणे पूर्व आयुष बांध्युं छे, पण वर्तमान समये बांधतो नथी, तेम भविष्यकाळमां बांधशे पण नहि.-टीका. अचरम नैरयिकने कर्मवन्य. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २६.-उद्देशक ११. २. प्र०] अचरिमेणं भंते ! मणुस्से पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। [उ०] गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंध बंधिस्सइ, अत्यंगतिए बंधी बंधा न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ । ३. [प्र०] सलेस्से णं भंते ! अचरिमे मणूसे पावं कम्मं किं बंधी- [उ०] एवं चेव तिन्नि भंगा चरमविहूणा भाणियवा एवं जहेव पढमुद्देसे । नवरं जेसु तत्थ वीससु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिन्नि भंगा भाणियचा चरिमभंगवजा । अलेस्से केवलनाणी य अजोगी य एए तिन्नि विन पुच्छिजंति, सेसं तहेव । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा नेरइए। ४.प्र०] अचरिमेणं भंते ! नेरइए नाणावरणिजं कम्मं किं बंधी-पुच्छा । [उ.] गोयमा! एवं जहेव पावं। नवरं मणुस्सेसु सकसाईसु लोभकसाईसु य पढम-बितिया भंगा, सेसा अट्ठारस चरमविहूणा, सेसं तहेव जाव-वेमाणियाणं । दरिसणावरणिजं पि एवं चेव निरवसेसं । वेयणिजे सत्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा जाव-वेमाणियाणं, नवरं मणुस्सेसु अलेस्से, केवली अजोगी य नत्थि। ___५. [प्र०] अचरिमे णं भंते ! नेरइए मोहणिजं कम्मं किं बंधी-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहेव पावं तहेव निरवसेंस जाव-वेमाणिए। ६. [प्र०] अचरिमे णं भंते ! नेरइए आउयं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। [उ०] गोयमा! पढम-बितिया भंगा, एवं सवपदेसु वि । नेरइयाणं पढम-ततिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो, एवं जाव-थणियकुमाराणं । पुढविकाइय-आउकाइय-वणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए ततिओ भंगो, सेसेसु पदेसु सवत्थ पढम-ततिया भंगा, तेउकाइय-वाउकाइयाणं सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा, बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाणं एवं चेव, नवरं सम्मत्ते ओहिनाणे आभिणियोहियनाणे सुयनाणे एएसु चउसु वि ठाणेसु ततिओ भंगो।पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो, सेसेसु पदेसु सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा। मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइम्मि य ततिओ भंगो, अलेस्स-केवलनाण-अजोगी य न पुच्छिजंति सेस अचरम मनुष्यने बन्ध वैश्यासहित अचरम मनुष्यने बन्ध २. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अचरम मनुष्ये पापकर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! १ कोइए पापकर्म बांध्यु हतुं, बांधे छ भने बांधशे; २ कोइए बाध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे नहि, ३ कोइए बाध्यु हतुं, नथी बांधतो अने बांधशे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा अचरम मनुष्ये पापकर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! उपर कह्या प्रमाणे छेल्ला सिवायना बाकीना त्रण भांगा कहेवा. बाकी बधुं प्रथम उद्देशकमां कह्यु छे तेम जाणवू. परन्तु विशेष ए के, जे वीश पदोमां चार भांगा कह्या छे तेमांथी अहीं छेल्ला भांगा सिवायना प्रथमना त्रण भांगा कहेवा. लेश्यारहित, केवलज्ञानी अने अयोगी मनुष्य-एत्रण संबंधे न पूछवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकोने नैरयिकोनी पेठे जाणवू. अचरम नैरयिकने शानावरणीयनो बन्ध... १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अचरम नैरयिके ज्ञानावरणीय कर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | जेम पाप कर्म संबन्धे का छे तेम अहीं पण जाणवं, परन्तु विशेष ए के कपायी अने लोभकषायी मनुष्योमा पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो, तथा बाकीना अढार पदमां छेल्ला भांगा सिवायना बाकीना बधा (त्रणे) भांगा कहेवा. बाकी बधुं ए प्रमाणे जाणवू. ए रीते यावत्-वैमानिको सुधी समजवु. दर्शनावरणीय कर्म संबंधे पण ए रीते बधु जाणवू. वेदनीय कर्म संबंधे बधे स्थळे पहेलो अने बीजो भांगो-एम बे भांगा यावत्-वैमानिको सुधी जाणवा. विशेष ए के, मनुष्यपदमा लेश्यारहित, केवळी अने अयोगी अचरम मनुष्य नथी. भचरम नैरयिकने मोहनीय बन्द अचरम नैपिरकने भायुषबन्ध. ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अचरम नैरयिके मोहनीय कर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जेम पापकर्म संबंधे कडं तेम बधुं यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं अचरम नैरपिके आयुष कर्म बांध्यु हतुं-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! पहेलो अने बीजो भांगो जाणवो. ए रीते बां पदोमां पण जाणवू. नैरयिको विषे पहेलो भने त्रीजो भांगो कहेवो. विशेष ए के, सम्यक्त्वमिथ्यात्वमा त्रीजो भांगो जाणवो. ए रीते यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिक, अप्कायिक अने वनस्पतिकायिकोने तेजोलेश्यामां श्रीजो भांगो कहेवो. बाकी बधां पदोमा बधे स्थळे पहेलो अने त्रीजो भांगो जाणवो. अग्निकायिक अने वायुकायिकोने बधे स्थळे प्रथम अने तृतीय भांगो कहेवो. बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिन्द्रियने विषे पण एमज जाणी. पण विशेष ए के सम्यक्त्व, औधिकज्ञान, आभिनिवोधिक ज्ञान अने श्रुतज्ञान-ए चारे स्थानोमा त्रीजो भांगो समजवो. पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकोने सम्यग्मिध्यात्वमां त्रीजो भांगो अने बाकीनां स्थानोमा सर्वत्र प्रथम अने तृतीय भांगो जाणवो. मनुष्योने सम्यग्मिथ्यात्व. अवेदक अने अकषायी-ए त्रण पदोमां श्रीजो भागो जाणवो. लेश्यारहित, केवलज्ञान अने अयोगी संबंधे प्रश्न न करवो. बाकी बधां पदोमा सर्वत्र प्रथम अने तृतीय भांगो कहेवो. जेम नैरयिको संबंधे का तेम Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २९५ पदेसु सवत्थ पढम-ततिया भंगा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । नाम गोयं अंतराइयं च जहेव नानावरणिजं तहेव निरवसेसं । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेति जाव-विहरद । छवीसतिमे बंधिसए एक्कारसमो उद्देसो समत्तो । . छवीसतिमं सयं समत्तं । वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिको संबंधे पण जाणवू.. जेम ज्ञानावरणीय कर्मसंबंधे जणाव्युं तेम नाम, गोत्र अने अंतराय संबंधे बधुं समजवू. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. छवीशमा शतकमां अगियारमो उद्देशक समाप्त. छवीशमुं शतक समाप्त. Jain Education international Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तवीसतिमं सयं। १. [प्र०] जीवे णं भंते! पापं कम्मं किं करिसु करेन्ति करिस्संति १, करिसु करेंति न करिस्संति २, करिसुन करेंति करिस्संति ३, करिंसु न करेंति न करेस्संति ४१ [उ०] गोयमा! अत्यंगतिए करिसु करेंति करिस्संति १, प्रत्येगतिए करिसु करेंति न करिस्संति २, अत्यंगतिए करिसु न करेंति करेस्संति ३, अत्यंगतिए करिसु न करेंति न करेस्संति। २. [प्र०] सलेस्से गं भंते ! जीवे पावं कम्म-एवं एएणं अभिलावेणं जच्चेव बंधिसए बत्तखया संमेव निरवसेसा भाणियचा, तहेव नवदंडगसंगहिया एकारस उद्देसगा भाणियथा । सत्तविसतिमं करिसुसयं समत्तं । सत्यावीशमुं शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! १ जीवे *पापकर्म कर्ये हतुं, करे छे अने करशे ? २ कर्यु हतुं; करे छे अने करशे नहि ! ३ कर्यु हतुं, करतो नथी अने करशे? ४ कयें हतुं, करतो नथी अने करशे नहि ? उन हे गौतम! १ कोइक जीवे कर्य हतं, करे के भने करशे. २ कोइक जीवे कयु हतुं, करे छे अने करशे नहि. ३ कोइक जीवे कयै हतुं, करतो नथी अने करशे. अने कोइक जीवे कर्य हतं, करतो नथी अने करशे नहि. २. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा जीवे पाप कर्म कयु हतुं-इत्यादि पूर्वोक्त पाठ वडे बंधिशतकमा जे वक्तव्यता कही छे ते बधी वक्तव्यता अहीं कहेवी. तेमज नव दंडक सहित अगियार उद्देशको पण अहीं कहेवा. सत्यावीशमुं *करिंसु शतक समाप्त. १ * प्रश्नमा बन्धिपद होवाथी छवीशमुंबन्धिशतक कहेवाय छे तेम अहीं प्रश्नमा 'करिंसु' पद होवाथी सत्यावीशमुं करिंसुशतक कहेवामां आवे छे. यद्यपि कर्मना बन्ध अने करणमा काइ पण मेद नथी तो पण बन्ध एटले सामान्यरूपे कर्मनुं बांध अने करण एटले संक्रमादि खरूपे कर-ए विशेषता . जणाववा बन्ध अने करणनो जुदो निर्देश कयों छे. Jain Education international Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टवीसतिमं सयं । । पढमो उद्देसो । १. [ प्र० ] जीवा णं भंते! पावं कम्मं कहिं समजिर्णिसु, कहिं समायरिंसु ? [अ०] गोयमा ! सधे वि ताव तिरिजो दोजा १ अहवा तिरिक्खजोणिपसु व नेरइएस व होना २, अहया तिरिक्खजोणियसु य मनुस्सेसु य होजा ३, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होजा ४, अहवा तिरिक्खजोणिपसु य नेरइपसु य मणुस्सेसु य होजा ५ अहवा तिरिषखजोणि वनेर व देवेसु य होला ६ अहवा तिरिक्सजोणिय व मणुस्से व देवेसु य होजा ७, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएस य मणुस्सेसु य देवेसु य होजा ८ । २. [प्र० ] सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्मं कहिं समजिर्णिसु, कहिं समायरिंसु १ [उ०] एवं चेव । एवं कण्हलेस्सा, जाव - अलेस्सा | कण्हपक्खिया, सुकपक्खिया । एवं जाव - अणागारोवउत्ता । ३. [प्र० ] नेरइया णं भंते 1 पावं कम्म कहिं समजिणि कहिं समायर ? [०] गोयमा ! सधे वि ताव तिरिक्सजोगिएसु होज ति एवं चेप अभंगा भाणियचा एवं सत्य अट्ठ भंगा, एवं जाव-भणागारोवत्ता वि अय्यावीश शतक. प्रथम उदेशक. ! १. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोए कइ गतिमां पाप कर्मनुं समर्जन - ग्रहण कयुं हतुं अने कइ गतिमां पाप कर्मनुं आचरण कर्तुं हतुं [उ०] हे गौतम ! १ बधा जीवो #तिर्यंचयोनिमां हता, २ अथवा बधा जीवो तियंचयोनिमां अने नैरयिकोमां हता, ३ अथवा बधा जीवो ! तिचयोनिमा भने मनुष्योमां हता ४ अथवा बधा जीवो तिर्यंचयोनिमां अने देवोमां हता, ५ अथवा बधा जीवो तिर्यंचयोनिमां, नैरयिकोमा अने मनुष्योगां इता, ६ अपया बचा जीवो निचयोनिमां, नैरविकोमां अने देवोमां हता, ७ अथवा यथा जीवो चियोनिमां, मनुयोमां अने देवोमा हता, ८ अथवा बधा तियंचयोनिमां, नैरयिकोमां, मनुष्योमां अने देवोमां हता. (अने से गतिमां सेभोर पापकर्मनुं समर्जन अने समाचरण कर्यु हतुं . ] २. [प्र० ] हे भगवन् ! लेश्यावाळा जीवोए कइ गतिमां पाप कर्मनुं पेठे जाग. कृष्णलेश्यावाळा यावत् अलेक्ष्या लेयारहित, कृष्णपाक्षिक, प्रमाणे समजवु. - समर्जन अने समाचरण कयुं हतुं ? [ उ०] हे गौतम! पूर्वनी शुपाक्षिक, यावत् अनाकार उपयोगवाला संबंधे पण एज ३. [ प्र० ] हे भगवन् ! नैरयिकोए कइ गतिमां पापकर्म उपार्जन कयुं हतुं अने कइ गतिमां पाप कर्मनुं आचरण कयुं हतुं ! [अ०] हे गौतम । बधाय जीवो चियोनिको मां ताइस्यादि पूर्वनी पेठे आठे मांगा कहेगा, एम सर्वत्र आठे भांगा कहेवा. ए प्रमाणे 'अहीं तिर्यंचयोनि घणा जीवोनो आश्रय होवाथी सर्व जीवोनी माताना स्थाने छे. तेथी अन्य नारकादि बधा जीवो कदाचिद् तिर्यचोथी आयी उत्पन्न दा होय, माटे ते चाचियोनिमा हता एम कप के अने भए दिन. २ + पाप कर्मनुं समर्जन -उपार्जन अने समाचरण - पापकर्मना हेतुभूत पापक्रियानुं आचरण, अर्थात् पापक्रियाना समाचरणद्वारा जीवे पाप कर्म कइ गतिमां उपार्जन कर्यु हतुं ? अथवा समर्जन अने समाचरण बन्ने पर्यायशब्दो छ एटले बन्ने एकज अर्थना बोधक छे. सूत्रनी विचित्र शैली होवाथी समर्जन अने समाचरण बन्ने कहेवामां आव्या छे. ३८ भ० सू० कर गतिमां पापकमैनुं समर्जन थाय ! लेश्या. नैरयिकोने पापकर्मनुं समर्जन. / Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २८. - उद्देशक ३-११. एवं जाव - वेमाणियाणं । एवं नाणावरणिज्ञेण वि दंडओ, एवं जाव- अंतराइएणं । एवं एए जीवादीया बेमाणियपजवसाणा नव दंडगा भवंति | 'सेवं भंते । सेवं भंते' । ति जाव- विहरइ । अवसति स पढमो उदेसो समत्तो । यावत्–अनाकारोपयोगवाळा संबंधे समजवुं. अने [ दंडकना क्रमथी ] यावत् - वैमानिको सुधी एज रीते जाणवुं. एम ज्ञानावरणीय, यावत्-अंतराय कर्मवडे पण दंडक कहेवो. 'एम जीवथी मांडीने वैमानिक पर्यन्त नव दंडक थाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते मज छे' - एम कही यावत् - विहरे छे. अयावीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. बीओ उद्देसो. १. [ प्र० ] अनंत रोववन्नगा णं भंते! नेरइया पावं कम्मं कहिं समजिर्णिसु, कहिं समायरिंसु ? [अ०] गोयमा ! सधे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होजा, एवं एत्थ वि अट्ठ भंगा । एवं अणंतरोववन्नगाणं नेरइयाईणं जस्स जं अत्थि लेसादीयं भणागारोवओगपज्जवसाणं तं सच्वं पयाए भयणाए भाणियां जाव-वेमाणियाणं । नवरं अणंतरेसु जे परिहरियधा ते जहा बंधि - सप्तहा इदं पि । एवं नाणावरणिजेण वि दंडओ, एवं जाव-अंतराइएणं निरवसेसं । एसो वि नवदंडगसंगहिओ उद्देसभ भाणियो । 'लेवं भंते! सेवं भंते' ! ति । अट्ठावीसति स बीओ उद्देसो समत्तो । द्वितीय उद्देश ... अनन्तरोपपन्न नैर समर्जन. १. [प्र० ] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्न ( तुरत उत्पन्न थयेला) नैरयिकोए कइ गतिमां पाप कर्मनुं समर्जन कर्यु अने कइ गतिमां पाप यिकोने पापकर्मनुं कर्मनुं समाचरण कर्यु ? [30] हे गौतम ! ते बधा य तिर्यग्योनिकोमां हता. एम अहीं पण आठ भांगा जाणवा. अनंतरोपपन्नक नैरयिकोने अपेक्षी जेने जे लेश्यादिक अनाकार उपयोग सुधी होय ते बधुं विकल्पथी यावत्-वैमानिको सुधी कहेतुं. पण विशेष ए के, जे अनंतरोपपन्न जीवोमां जे जे बाबत ( मिश्रदृष्टि, मनोयोग, वचनयोगादि ) परिहार करवा योग्य होय ते ते बाबत बंधिशतकमां का प्रमाणे परिहरवी. ए रीते ज्ञानावरणीय अने यावत्- अंतराय कर्म वडे पण नव दंडकसहित आ उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. अय्यावीशमा शतकमां बीजो उद्देशक समाप्त. ३ - ११ उद्देसगा । १. एवं पपणं कमेणं जहेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इहं पि अट्ठसु भंगेसु नेयष्ठा । नवरं जाणियवं जं जस्स अत्थितं तस्स भाणियां जाव - अचरिमुद्देसो । सधे वि एए एक्कारस उद्देसगा | 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति जाव - विहरद्द | अट्ठावीसतिमे सए ३ - ११ उद्देसगा समत्ता अट्ठावीसतिमं कम्म समजणसयं समत्तं । ३ - ११ उद्देशको. १. एम एज क्रमथी जेम बंधिशतकमां उद्देशकोनी परिपाटी कही छे तेम अहीं पण आठे भांगामां जाणवी. परन्तु विशेष एके, जेने जे होय तेने ते छेल्ला उद्देशक सुधी कहेवुं. एम बधा मळीने अगियार उदेशको थाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमजछे, भगवन् ! ते एमज छे.' अठ्यावीशमा शतकमा ३-११ उद्देशको समाप्त. अठ्यावीशमं कर्मसमर्जन शतक समाप्त. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणतीसतिमं सयं पढमो उद्देसो। १. [प्र०] जीवा णं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्ठर्विसु समायं निट्ठविसु १, समायं पट्टविसु विसमायं निट्ठविंसु २, विसमायं पट्टर्विसु समायं निविंसु ३, विसमायं पट्टविंसु विसमायं निट्ठविंसु ? [उ०] गोयमा ! अत्थेगइया समायं पटुविसु समायं निविसु १, जाव-अत्थेगइया विसमायं पट्टविसु विसमायं निट्ठविसु । २. [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'अत्थेगइया समायं पटुर्विसु समायं निट्ठर्विसु'-तं चेव ! [उ०] गोयमा! जीवा चउधिहा पन्नत्ता, तंजहा-अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा १, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा २, अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा ३, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा ४ । १ तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते गं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं निविंसु । २ तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविसु विसमायं निविसु । तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते गं पावं कम्मं विसमायं पट्टविसु समायं निविसु । तत्थ पंजे ते विसमाउया विसमोववनगा ते ण पावं कम्मं विसमायं पट्टाविसु विसमायं णिविसु । से तेणट्रेणं गोयमा! तं चेव । ओगणत्रीशमुं शतक प्रथम उद्देशक. १.प्र० हे भगवन् । १ शुं घणा जीवो पाप कर्मने भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे पापकर्मना वेदननो करे छे ? २ भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे अने तेनो अंत भिन्न काळे करे छे ? ३ भोगववानी शरुआत भिन्न काळे करे छे अने भार अंत एक काळे करे छे के तेने भोगववानी शरुआत भिन्न काळे करे छे अने तेनो अंत पण भिन्न काळे करे छे ? [उ०] हे गौतम! केटलाक जीवो पाप कर्मने भोगववानी शरुआत एक कादे करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे करे छे. ए रीते यावत्कोइ जीवो तो पाप कर्मने भोगववानी शरुआत भिन्न काळे करे छे अने तेनो अंत पण भिन्न काळे करे छे. २. प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'केटलाक जीवो पाप कर्मने भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे अने तेम कहेवार्नु कारण. तेनो अंत पण एक काळे करे छे'-इत्यादि पूर्वमा कह्यु छे ते प्रमाणे कहेQ. [उ०] हे गौतम! जीवो चार प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ केटलाक जीवो समान काळे आयुषना उदयवाळा अने समकाळे भवान्तरमा उत्पन्न थयेला, २ केटलाक जीवो समान काळे आयुषना उदयवाळा अने जुदा जुदा समये परभवमा उत्पन्न थएला, ३ केटलाक जुदा जुदा काळे आयुषना उदयवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला तथा ४ केटलाक जुदा जुदा काळे आयुषना उदयवाळा अने जुदा जुदा समये परभवमा उत्पन्न थयेला होय छे. १ तेमां समानकाळे आयुषना उदयवाळा अने परभवमा साथे उत्पन्न 'थयेला होय छे तेओ एकज काळे पाप कर्मने भोगववानी शरुआत करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे करे छे. २ जे जीवो समान काळे आयुपना उदयवाळा अने जुदा जुदा समये परभवमा उत्पन्न थयेला होय छे तेओ पाप कर्मने भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे अने तेनो अंत पण जुदा जुदा समये करे छे. ३ जे जीवो जुदा जुदा काळे आयुषना उदयवाळा अने साथे परभवमा उत्पन्न थयेला होय छे तेओ पाप कर्मने भोगवयानी शरुआत जुदा जुदा काळे करे छे अने तेनो अंत एक काळे करे छे ४ अने जे जीवो जुदा जुदा काळे आयुष्यना उदयवाळा अने जुदा जुदा समये परभवमा उत्पन्न थयेला छे तेओ पाप कर्मने भोगववानी शरुआत जुदा जुदा काळे करे छे अने तेनो अंत पण जुदा जुदा काळे करे छे..ए कारणथी हे गौतम !-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहेवू. . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याने आश्रयी प्रस्थापन अने निष्ठापन. नैरयिकोने आश्रयी प्रस्थापन अने निष्ठापन. अनन्तरोपपन्न नैरबिकने आश्रयी सम क प्रस्थापनादि. तेनो हेतु. सलेश्य नैरयिकने आश्रयी समक प्र स्थापनादि. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक २९. - उद्देशक २. ३. [प्र० ] सलेस्सा णं भंते! जीवा पावं कम्मं - [ उ०] एवं चेव, एवं सधट्ठाणेसु वि जाव- अणागारोवउत्ता । एए स व पया या वत्तवयाए भाणियष्वा । ३०० ४. [ro] नेरयाणं भंते! पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु समायं निट्टर्विसु- पुच्छा। [30] गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु एवं जहेव जीवाणं तदेव भाणियचं जाव - अणागारोवउत्ता । एवं जाव-वेमाणियाणं जस्स जं अत्थि तं एएणं वेव कमेणं भाणियवं । जहा पावेण दंडओ, एएणं कमेणं अट्ठसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ठ दंडगा भाणियष्ठा जीवादीया बेमाणियपजवसाणा । एसो नवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियो । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । तीसति स पढो उद्देसो समत्तो । २. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं [उ०] हे गौतम ! उत्तर पूर्व प्रमाणे एज वक्तव्यताथी कहेवां. लेश्यावाळा जीवो पाप कर्मने भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे पूछ समजवो. बधां स्थानोमां पण यावत् - अनाकार उपयोगवाळा सुधी समजवुं. ए बधां पदो पण ३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको पाप कर्मने भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे करे छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! जेम जीवो संबंधे आगळ जणान्युं तेम नैरयिको संबंधे पण जाणवु. एम यावत् - अनाकार उपयोगवाळा नैरथिको संबंधे समजवं. एज प्रकारे यावत् - वैमानिको सुधी जेने जे होय ते तेने आज क्रमथी कहेवुं. जेम पाप कर्म संबंधे दंडक कह्यो तेम ए क्रमवडे जीवधी मांडीने वैमानिको सुधी आठे कर्मप्रकृतिओ संबंधे आठ दंडक कहेवा. ए रीते नवदंडकसहित आ प्रथम उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे'. ओगणत्रीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. बीओ उद्देसो । १. [प्र०] अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया पावं कम्मं किं समायं पटुर्विसु समायं निट्ठर्विसु-पुच्छा । [३०] गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु समायं निट्ठर्विसु, अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु विसमायं निट्ठर्विसु । २. [ प्र० ] सेकेट्टे भंते ! एवं बुच्चइ - 'अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु-तं चेव' १ [उ०] गोयमा ! अनंतरोववन्नगा नेरइया दुविहा पत्ता, तंजा - अत्थेगइया समाज्या समोववन्नगा, अत्थेगइया समाज्या विसमोववन्नगा । तत्थ णं जे ते समाज्या समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टर्विसु समायं निट्टर्विसु । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम्म समायं पट्टर्विसु विसमायं निट्ठर्विसु । से तेणद्वेणं-तं चेव ।, ३. [प्र० ] सलेस्सा णं भंते! अणंतरोववन्ना नेरद्दआ पावं ? [30] एवं चैव, एवं जाव- अणागारोवउत्ता । एवं असुद्वितीय उद्देश. १. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं अनंतरोपपन्न ( तुरतमां उत्पन्न थयेला ) नैरयिको एक काळे पाप कर्मने भोगववानी शरुआत करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे करे छे- इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! तेओमां केटलाक एक काळे पाप कर्मने भोगववानी शरुआत करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे ज करे छे अने केटलाक एक काळे पाप कर्मने भोगववानी शरुआत करे छे अने तेनो अंत जुदा जुदा समये करे छे. २. [प्र० ] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'केटलाक एक काळे पाप कर्मने भोगववानी शरुआत करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे करे छे' इत्यादि. [ उ०] हे गौतम! अनंतरोपपन्न नैरयिको बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे१ केटलाक समकाळे आयुषना उदयवाळा अने समकाळे परभवमां उत्पन्न थयेला, २ अने केटलाक समकाळे आयुषना उदयवाळा अने जुदा जुदा काळे परभवमां उत्पन्न थयेला होय छे. तेमां जेओ समकाळे आयुषना उदयवाळा अने परभवमा साथै उत्पन्न थयेला छे तेओ एक काळे पापकर्मने भोगववानी शरुआत करे छे अने तेनो अंत पण एक काळे करे छे. तथा जेओ समकाळे आयुषना उदयवाला अने जुदा जुदा समये परभवमां उत्पन्न थएला छे तेओ पाप कर्मने भोगववानी शरुआत तो एक काळे करे छे अने तेनो अंत जुदा जुदा काळे करे छे. ए कारणथी ए प्रमाणे धुं छे. २. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा अनंतरोपपन्न नैरयिको पापकर्मने भोगववानी शरुआत एक काळे करे छे- इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे जाणवुं. ए रीते यावत् - अनाकार उपयोगवाळा सुधी समजवुं. एम असुरकुमारो अने यावत् . Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २९.-उद्देशक ३-११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. रकुमाराणं । एवं जाव-वेमाणियाणं, नवरं जं जस्स अत्थितं तस्स भाणियो । एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं निरष. सेसं जाव-अंतराइएणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति जाव-विहरति । एगूणतीसतिमे सए वीओ उद्देसो समत्तो । वैमानिको संबंधे पण जाणवू. पण विशेष ए के, जेने जे होय तेने ते कहेवू. ए प्रमाणे ज्ञानावरणीय कर्म संबधे पण दंडक कहेवो, अने एम यावत्-अंतराय कर्म सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन्! ते एमज छे.' एम कही यावत्-विहरे छे. ओगणत्रीशमा शतकमां बीजो उद्देशक समाप्त. ३-११ उद्देसगा। एवं एएणं गमएणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगपरिवाडी सञ्चेव इह वि भाणियवा जाव-अचरिमो ति । अणंतरउद्देसगाणं चउण्ड वि एका बत्तवया, सेसाणं सत्तण्हं पक्का । एगूणतीसतिमे सए ३-११ उद्देसगा समत्ता एगूणतीसतिमं कम्मपट्ठवणसयं समत्तं । ३-११ उद्देशको. एम ए पाठवडे जेम बंधिशतकमा उद्देशकनी परिपाटि कही छे ते बधी उद्देशकनी परिपाटी अहीं पण यावत्-अचरम उदेशक सघी कहेवी. अनन्तरसंबंधी चारे उद्देशकोनी एक वक्तव्यता कहेवी अने बाकीना (सात) उद्देशकोनी एक वक्तव्यता समजवी. ओगणत्रीशमा शतकमां ३-११ उद्देशको समाप्त । ओगणत्रीशमुं कर्मप्रस्थापनशतक समाप्स. JOOOOOOODAMANASANE Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं सयं पढमो उद्देसो । १. [प्र०] कइ णं भंते ! समोसरणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि समोसरणा पन्नत्ता, तंजहा-किरियावादी, अकिरियावादी, अन्नाणियवाई, वेणइयवाई। २. [प्र०] जीवा णं भंते ! किं किरियावादी, अकिरियावादी, अन्नाणियवादी, वेणइयवादी ? [उ०] गोयमा ! जीवा किरियावादी वि, अकिरियावादी वि, अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि।। ३. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! जीवा किं किरियावादी-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! किरियावादी वि, अकिरियावादी वि, अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । एवं जाव-सुक्कलेस्सा। त्रीशमुं शतक प्रथम उद्देशक. समवसरण. १. [प्र०] हे भगवन् ! केटला *समवसरणो-मतो-कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! चार समवसरणो कह्या छे. ते आ प्रमाणे १ क्रियावादी, २ अक्रियावादी, ३ अज्ञानवादी अने ४ विनयवादी. जीवो भने क्रियावा- २. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो क्रियावादी छे, अक्रियावादी छे, अज्ञानवादी छे के विनयवादी छे! [उ० हे गौतम ! जीवो क्रियावादी छे, अक्रियावादी छे, अज्ञानवादी छे अने विनयवादी पण छे. सलेश्य जीवो अने ३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा जीवो क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ क्रियावादी छे, अक्रियावादी क्रियावादित्वादि. छे, अज्ञानवादी छे अने विनयवादी पण छे. ए प्रमाणे यावत्-शुक्ललेश्यावाळा जीवो संबंधे समजबुं. * अनेकप्रकारना परिणामवाळा जीवो जेने विषे रहे ते समवसरण-मत अथवा दर्शन कहेवाय छे. तेना चार प्रकार छे-१ क्रियावादी, २ अक्रियावादी, ३ अज्ञानवादी भने ४ विनयवावी. आ मतोना संबंधमा सविस्तर हकीकत मळी शकती नथी. सूत्रकृतांगना प्रथम श्रुतस्कन्धना पारमा समवसरण अध्ययनमा आ मतोनुं संक्षिप्त वर्णन छे. तेम ज आचारांगनी टीकामां तेना मेदप्रमेदोनुं वर्णन छे. (जुओ अध्य० १ उ. १५० १६) परन्तु ते उपरथी तेनी चोकस शी मान्यता हती ते स्पष्ट जाणी शकातुं नथी. तो पण एटलं तो जाणी शकाय छे के क्रियावादी वगेरे खतन्त्र मतो नहि होय, पण भगवान् महावीरना समयमा जे मतो प्रचलित हता ते बधानो पूर्वोक्त चार प्रकारमा समावेश कयों होय एम लागे छे. जेमके आत्माना अस्तित्वने माननारा बधा दर्शनो क्रियावादिमां गणी शकाय. तेवी रीते आत्माने क्षणिक माननारा बौद्धादि दर्शन अक्रियावादी कहेवाय. १क्रियावादी-आ मतोनी भिन्न भिन्न व्याख्या छे. प्रथम व्याख्या प्रमाणे क्रिया कर्ता सिवाय संभवती नथी, माटे क्रियाना कर्ता तरीके आत्माना अस्तित्वने माननार क्रियावादी कहेवाय छे. बीजी व्याख्या प्रमाणे क्रिया प्रधान छे अने ज्ञान- कंइपण प्रयोजन नथी एवी क्रियाप्राधान्यनी मान्यतावाळा होय ते क्रियावादी. त्रीजी व्याख्या प्रमाणे जीवादिपदार्थना अस्तित्वने माननारा कियावादी कहेवाय छे. तेना एकसो एंशी प्रकार छे. तेओनो मत पण अभेदोपचारथी क्रियावादी कहेवाय छे. २ अक्रियावादी-तेओर्नु एवं मन्तव्य छे के कोइ पण अनवस्थित पदार्थमा क्रिया होती नथी, जो तेमा क्रिया होय तो तेनी अनवस्थिति न होय माटे क्रियाना अभावने माननार अक्रियावादी छे. अथवा क्रियान शुं प्रयोजन छे? मात्र चित्तशुद्धि ज आवश्यक छे-एवी मान्यतावाळा अक्रियावादी कहेवाय छे.. अथवा जीवादिना नास्तित्वने माननारा अक्रियावादी कहेवाय छे. तेना चोराशी प्रकार छे. ३ अज्ञानवादी-अज्ञान श्रेयरूप छे, कारण के ज्ञानथी कर्मनो तीव्र बन्ध थाय छे अने अज्ञानपूर्वक कर्मबन्ध निष्फळ थाय छ-एवी मान्यतावाळा अज्ञानवादी कहेवाय छे. तेना सडसठ प्रकार छे. ४ विनयवादी-खर्गापवर्गादि श्रेयर्नु कारण विनय छ, विनयने ज प्रधानपणे माननारा अने जेने कोइ पण प्रकारचं निश्चित लिंग, आचार के शास्त्र नथी ते विनयवादी कहेवाय छे, तेना बत्रीश प्रकार छे. आ बधा मिथ्यादृष्टि छ, तो पण अहीं क्रियावादी जीवादिना अस्तित्वने मानता होवाथी सम्यग्दृष्टि जाणवा. विशेष माटे जुओ-(आचारांग अध्य. १०१ टीका प०१६). Jain Education international Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकक ३०.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४. [प्र०] अलेस्सा णं भंते ! जीवा-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! किरियावादी, नो अकिरियावादी, नो अन्नाणियवादी, नो वेणइयवादी। ५. [प्र०] कण्हपक्खिया णं भंते ! जीवा किं किरियावादी-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो किरियावादी, अकिरियावादी, अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा । सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा। मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। ६. [प्र०] सम्मामिच्छादिट्ठीणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो किरियावादी, नो अकिरियावादी, अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । णाणी जाव-केवलनाणी जहा अलेस्से। अन्नाणी जाव-विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । आहारसन्नोवउत्ता जाव-परिग्गहसन्नोवउत्ता जहा सलेस्सा । नोसन्नोवउत्ता जहा अलेस्सा । सवेद्गा जाव-नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा । अवेदगा जहा अलेस्सा । सकसायी जाव-लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकसायी जहा अलेस्सा । सजोगी जाव-काययोगी जहा सलेस्सा । अजोगी जहा अलेस्सा । सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। .. ७. [प्र०] नेरहया णं भंते ! किं किरियावादी-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! किरियावादी वि, जाव-वेणइयवादी वि । ८.[प्र०] सलेस्सा णं भंते ! नेरइया किं किरियावादी-१ [उ०] एवं चेव । एवं जाव-काउलेस्सा । कण्हपक्खिया किरियाविवजिया । एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वत्तवया सञ्चेव नेरइयाणं वत्तवया वि जाव-अणागारोवउत्ता । नवरं जं अस्थि तं भाणियचं, सेसं न भण्णति । जहा नेरइया एवं जाव-थणियकुमारा। ९. [३०] पुढविकाइया णं भंते ! किं किरियावादी-पुच्छा । [उ.] गोयमा ! नो किरियावादी, अकिरियावादी वि, अन्नाणियवादी वि, नो वेणइयवादी । एवं पुढविकाइयाणं जं अत्थि तत्थ सवत्थ वि एयाई दो मज्झिलाई समोसरणाई १. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यारहित जीवो क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ क्रियावादी छे, पण लेश्यारहित जीवो अक्रियावादी नथी, अज्ञानवादी नथी तेमज विनयवादी पण नथी. भने क्रियावादि त्वादि. ५. प्र०] हे भगवन् ! शुं कृष्णपाक्षिक जीवो क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | तेओ क्रियावादी नथी, पण कृष्णपाक्षिक अने अक्रियावादी छे, अज्ञानवादी छे अने विनयवादी छे. शुक्लपाक्षिको लेश्यावाळा जीवोनी पेठे जाणवा अने *सम्यग्दृष्टि जीवो लेश्यारहित कियात्रा जीवोनी पेठे जाणवा. मिथ्यादृष्टिने कृष्णपाक्षिक जीवोनी पेठे जाणवू. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवो क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ क्रियावादी नथी, मिश्रदृष्टिने क्रियावा दित्वादि. अक्रियावादी नथी, पण अज्ञानवादी अने विनयवादी छे. लेश्यारहित जीवोनी पेठे ज्ञानी अने यावत्-केवलज्ञानी जीवो जाणवा. तथा अज्ञानी अने यावत्-विभंगज्ञानी जीवो कृष्णपाक्षिक जीवोनी पेठे जाणवा. आहारसंज्ञामां उपयोगवाळा अने यावत्-परिग्रहसंज्ञामां उपयोगवाळा जीवो लेश्यावाळा जीवोनी जेम जाणवा. नोसंज्ञामा उपयोगवाळा जीवो लेश्यारहित जीवोनी पेठे जाणवा. वेदवाळा अने यावत्-नपुंसकवेदवाळा लेश्यावाळा जीवोनी पेठे समजवा. वेदरहित जीवो लेश्यारहित जीवोनी जेम जाणवा. सकषायी अने यावत्लोभकषायी लेश्यासहित जीवोनी जेम समजवा. अकषायी जीवो लेश्यारहित जीवोनी पेठे जाणवा. यावत्-काययोगी लेश्याबाळा जीवोनी जेम जाणवा. अयोगी जीवो लेझ्यारहित जीवोनी पेठे समजवा. साकार अने अनाकार उपयोगवाळा जीवो सलेक्ष्य जीवोनी जेम जाणवा. ७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ क्रियावादी छे, भने यावत्- नैरयिको भने क्रिया वादित्वादि. विनयवादी पण छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लेश्यावाळा नैरयिको क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | पूर्व प्रमाणे जाणवं. ए रीते यावत्-कापोतलेश्यावाळा नैरयिको सुधी जाणवू. कृष्णपाक्षिक नैरयिको क्रियावादी नथी. ए क्रम प्रमाणे जीवो विषे जे वक्तव्यता कही छे तेज वक्तव्यता नैरयिको संबंधे पण समजवी. तथा ए रीते यावत्-अनाकार उपयोगवाळा नैरयिको सुधी समजवू. विशेष ए के, जेने जे होय तेने ते कहेवं, बाकीनुं न कहे. जेम नैरयिको संबंधे जणाव्युं तेम यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ९. [प्र०] हे भगवन् । शुं पृथिवीकायिको क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम । तेओ क्रियावादी नथी, तेम विनय- पृथियीकायिको अने क्रियावादित्वादि. ५* लेश्यारहित अयोगी अने सिद्धो होय छे, अने तेओ क्रियावादना कारणरूप द्रव्य-पर्यायना यथार्थ ज्ञानयुक्त होवाथी क्रियावादी छे. अहीं जे सम्यग्दृष्टिने योग्य अलेश्यत्व, सम्यग्दर्शन, ज्ञानी, नोसंज्ञोपयुक्त अने अवेदकत्वादि स्थानो छे ते बधानो क्रियावादमां अने मिथ्यादृष्टिने योग्य मिथ्यात्व अज्ञानादि स्थानो छे तेनो बाकीना त्रण समवसरणमा समावेश थाय छे. मिश्रदृष्टि साधारण परिणामवाळो होवाथी तेनी गणना आस्तिक के नास्तिकमा करी नथी, तेथी ते अज्ञानवादी अने विनयवादी ज होय छे.-टीका. Jain Education Internate . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३०.-उद्देशक १. जाव-अणागारोवउत्ता वि । एवं जाव-चरिदियाणं । सचट्ठाणेसु एयाइं चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई। सम्मत्तनाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा जीवा । नवरं जं अत्थितं माणियचं । मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। १०. [प्र०] किरियावादी णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पकरेंति ?[उ०] गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति । ११. [प्र०] जइ देवाउयं पकरेंति किं भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, जाव-वेमाणियदेवाउयं पकरेंति ? [उ०] गोयमा ! नो भवणवासीदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतरदेवाउयं पकरेंति, नो जोइसियदेवाउयं पकरेंति, वेमाणियदेवाउयं पकरेंति । १२. [प्र०] अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खा -पुच्छा। [उ.] गोयमा! नेरइयाउयं पि पकरेंति, जाव-देवाउयं पि पकरेंति । एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि।। १३. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयंएवं जहेव जीवा तहेव सलेस्सा वि चउहि वि समोसरणेहि भाणियवा । १४. [प्र०] कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । अकिरियवादी अन्नाणियवादी वेणइयवादी य चत्तारि वि आउयाई पकरेंति । एवं नीललेस्सा वि। वादी नथी, किंतु *अक्रियावादी छे अने अज्ञानवादी छे. ए प्रमाणे पृथिवीकायिकोने लेश्यादिक जे जे पदो संभवतां होय ते ते बधां पदोमा (अक्रियावादित्व अने अज्ञानवादित्व-) ए बे वचलां समवसरणो जाणवा. ए रीते यावत्-अनाकार उपयोगवाळा पृथिवीकायिको सुधी जाणवु. एम यावत्-चरिंद्रिय जीवो संबंधे कहेवू. सर्व स्थानकोमा ए बे बच्चेना ज समवसरणो जाणवां. एओनां सम्यक्त्व अने ज्ञानमां पण ए बे ज वचलां समसरणो समजवा. पंचेंद्रिय तियंचयोनिको संबंधे जीवोनी जेम जाणवू. विशेष ए के, जेने जे होय तेने ते कहे. जीवो संबंधे जे हकीकत कही छे ते बघी ते ज रीते मनुष्यो संबंधे पण समजवी. वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने । वैमानिकोने असुरकुमारोनी जेम जाणवू. क्रियावादीने भायु- १०. [प्र०न हे भगवन् ! क्रियावादी जीवो शुं नैरयिकर्नु आयुष बांधे, तियंचयोनिकनुं आयुष बांधे, मनुष्यनुं आयुष बांधे के षनो बन्ध. देवनुं आयुष बांधे ! [उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिक अने तिर्यंचयोनिकनुं आयुष न बांधे पण मनुष्य अने देवतुं आयुष बांधे. ११. [३०] हे भगवन् ! जो तेओ देवर्नु आयुष बांधे तो शुं भवनवासी देवतुं आयुष बांधे के यावत्-वैमानिक देवनुं आयुष बांधे ? [उ०] हे गौतम! तेओ भवनवासी देवन आयुष बांधता नथी, तेम वानव्यंतर देवर्नु अने ज्योतिषिक देवनुं पण आयुष बांधता नथी, किंतु वैमानिक देवनुं आयुष बांधे छे. भक्रियावादीने आयु- १२. [प्र०] हे भगवन् ! अक्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे, तिथंचनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे पनो बन्ध. गौतम ! तेओ नैरयिकनुं आयुष यावत्-देवतुं आयुष पण बांधे. ए प्रमाणे अज्ञानवादी अने विनयवादी संबंधे पण समजवू. सलेश्य क्रियावादीने आयुषनो बन्ध. १३. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा क्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे- इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिकनुं आयुष नथी बांधता-इत्यादि जेम जीवो संबन्धे उपर जणाव्युं छे तेम ज अहीं पण (लेश्यावाळा जीवोने पण) चारे समवसरणोने आश्रयी कहे. १४. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा क्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिक, तिर्यच अने देवनुं आयुष बांधता नथी, पण मनुष्यनुं आयुष बांधे छे. कृष्णलेश्यावाळा अक्रियावादी, अज्ञानवादी अने विनयवादी जीवो चारे प्रकारना आयुषनो बन्ध करे छे. एज रीते नीललेश्यावाळा अने कापोतलेश्यावाळा संबंधे पण जाणवू. कृष्णलेश्यावाला क्रियावादीने आयुषमो बन्ध * पृथिवीकायिकादि मिथ्यादृष्टि होवाथी तेओ अक्रियावादी अने अज्ञानवादी होय छे. यद्यपि तेओमां वचनना अभावथी वाद नथी, तोपण ते ते वाद योग्य परिणाम होवाथी तेओ अक्रियावादी भने अज्ञानवादी बाह्या छ, भने तेओमां विनयवादने योग्य परिणाम नथी तेथी तेओ विनयवादी नथी पृथिवीकायिकोने सलेइयत्व, कृष्ण, नील, कापोत अने तेजोलेश्या तथा कृष्णपाक्षिकत्वादि जे होय छे, ते बधामा अक्रियावादी अने अज्ञानवादी ए बे समवसरण होय छे. ए प्रमाणे चउरिन्द्रिय सुधी जाणवू. अहीं एटलं समजवु आवश्यक छ के क्रियावाद अने विनयवाद विशिष्ट सम्यक्त्वादि परिणामना सद्भावमा होय छे तेथी बेइन्द्रियादिने साखादननी प्राप्तिमां सम्यक्त्व अने ज्ञाननो अंश होवा छतां पण तेओ क्रियावादी अने विनयवादी कहेवाता नथी. Jain Education international Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३०.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३०५ १५. [प्र०] तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि नेरइयाउयं पकरेइ ?-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, देवाउयं पि पकरेद । जइ देवाउयं पकरेइ-तहेव । १६. [प्र० तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावादी कि नेरइयाउयं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पि पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ । एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि नायवा।। १७. [प्र०] अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं णेरइयाउयं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ, नो तिरिक्ख०, नो मणु०, नो देवाउयं पकरेइ। १८. [प्र०] कण्हपक्खिया णं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं नेरइआउयं-पुच्छा। [उ०] गोयमा! नेरइयाउयं पि पकरेइ-एवं चउविहं पि । एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। १९. [प्र० सम्मदिट्टी णं भंते जीवा किरियावादी किं नेरइयाउयं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। २०. [प्र०] सम्मामिच्छादिट्ठी णं भंते ! जीवा अन्नाणियवादी किं नेरइयाउयं-१ [उ०] जहा अलेस्सा । एवं वेणइयवादी वि। णाणी आभिणियोहियनाणी य सुयनाणी य ओहिनाणी य जहा सम्महिट्ठी। २१. [प्र०] मणपजवणाणी णं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ, नो तिरिक्ख०, नो मणुस्स०, देवाउयं पकरेइ । २२. [३०] जइ देवाउयं पकरेद किं भवणवासि०-पुच्छा । [उ.] गोयमा! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेइ. नो वाणमंतर०, नो जोइसिय०, वेमाणियदेवाउयं पकरेइ । केवलनाणी जहा अलेस्सा । अन्नाणी जाव-विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया। सन्नासु चउसु वि जहा सलेस्सा। नोसन्नोवउत्ता जहा मणपजवनाणी । सवेदगा जाव-नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा । अवे १५. प्र०] हे भगवन् । तेजोलेश्यावाळा क्रियावादी जीवो शुं नैरयिकर्नु आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | तेओ तेजोलेश्यावाळा नरयिकनुं अने तिर्यंचनुं आयुष बांधता नथी, पण मनुष्य अने देवर्नु आयुष बांधे छे. जो तेओ देवोनुं आयुष बांधे तो ते पूर्ववत् आयु न क्रियावादीने आयु. पनो बन्ध. पनो बन्ध करे छे. १६. [प्र०] हे भगवन् ! तेजोलेश्यावाळा अक्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिक- आयुष बांधता नथी, पण तिर्यच, मनुष्य अने देव- आयुष बांधे छे. ए ज रीते अज्ञानवादी अने विनयवादी जीवो संबंधे पण समजबु. जेम तेजोलेश्यावाळा संबंधे जणाव्युं तेम पद्मलेश्यावाळा अने शुक्ललेश्यावाळा जीवो संबंधे पण समजq. १७. [प्र०] हे भगवन् | लेश्यारहित क्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ० हे गौतम! तेओ लेश्यारहित क्रियानैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य के देवतुं पण आयुष बांधता नथी. वादीने आयुषनो बन्ध. १८. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णपाक्षिक अक्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ कृष्णपाक्षिक प्रक्रिनैरयिक अने तिथंच वगेरे-चारे प्रकारनां आयुषो बांधे छे. ए रीते कृष्णपाक्षिक अज्ञानवादी अने विनयवादी विषे पण जाणवं. जेम यावादीन आयुषनो बन्ध. लेश्यावाळा जीवो संबंधे कयुं छे तेम शुक्लपाक्षिक संबंधे पण जाणवू. १९. [प्र०] हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि क्रियावादी जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष्य बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ सम्यग्दृष्टि क्रियावानैरयिक अने तिर्यंचनुं आयुष बांधता नथी, पण मनुष्य अने देव- आयुष बांधे छे. मिथ्यादृष्टिने कृष्णपाक्षिकोनी जेम जाणवू. दीने आयुषनो बन्ध. २०. [प्र०] हे भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि अज्ञानवादी जीवो शु नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! लेश्यारहित सम्यग्मिथ्याजीवोनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे विनयवादी संबंधे पण समजवू. ज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी अने अवधिज्ञानीने सम्यग्दृष्टिनी पेठे समजवू. पृष्ट दृष्टि अशानवादीने आयुषनो बन्ध. २१. [प्र०] हे भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी (क्रियावादी) जीवो शुं नैरयिकर्नु आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! मनःपर्यवशानीने तेओ नैरयिक, तिर्यंच के मनुष्यनुं आयुष बांधता नथी, पण देवनुं आयुष बांधे छे. आयुषनो बन्ध. २२. [प्र०] हे भगवन् । जो तेओ देवनुं आयुष बांधे तो शुं भवनवासी देवतुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ भवनवासी देवन, वानव्यंतर देवर्नु के ज्योतिषिक देवनुं आयुष वांधता नथी, पण वैमानिक देवनुं आयुष बांधे छे. केवलज्ञानीने लेझ्यारहित जीवोनी पेठे जाणवू. अज्ञानी, यावत्-विभंगज्ञानीने कृष्णपाक्षिकोनी जेम समजवू. चारे संज्ञामां उपयोगवाळा जीवोने लेश्यावाळा जीवोनी जेम समजवू. नोसंज्ञामां उपयोगवाळा जीवोने मनःपर्यवज्ञानीनी जेम जाणवू. वेदवाळा अने यावत्-नपुंसकवेदवाळाने लेश्यावाळानी जेम अने वेद विनाना जीवोने लेश्यारहित जीवोनी पेठे समजबु, कषायवाळा अने यावत्-लोभकषायवाळा जीवोने लेश्याJain Education international ३९ भ. सू. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३०.-उद्देशक १० दगा जहा अलेस्सा । सकसायी जाव-लोभकसायी जहा सलेस्सा । अकसायी जहा अलेस्सा । सयोगी जाव-काययोगी जहा सलेस्सा । अजोगी जहा अलेस्सा। सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्चा य जहा सलेस्सा। २३. प्रि० किरियावादी भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं-पुच्छा।[10] गोयमा! नो नेरदयाउयं०, नो तिरिक्त, मणुस्साउयं पकरेह, नो देवाउयं पकर। २४. [प्र०] अकिरियावादी णं भंते नेरइया-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो नेरड्याउयं०, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेए, मणुस्साउयं पि पफरेइ, नो देवाउयं पकरेइ । एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । २५. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! नेरइया किरियावादी कि नेरइयाउयं० १ [१०] एवं सधे वि नेरया जे किरियावादी ते मणुस्साउयं एगं पकरेइ, जे अकिरियावादी, अन्नाणियवादी, वेणइयवादी ते सचट्ठाणेसु वि नो नेरइयाउयं पकरेइ, तिरि खजोणियाउयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पि पकरेइ, नो देवाउयं पकरेइ । नवरं सम्मामिच्छत्ते उवरिलेहिं दोहि वि समोसरणेहिं न किंचि वि पकरेइ जहेव जीवपदे । एवं जाव-थणियकुमारा जहेव नेरदया। ' २६. [प्र०] अकिरियावादी णं भंते ! पुढविक्काइया-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ, तिरिफ्नजोणियाउयं०, मणुस्साउयं०, नो देवाउयं पकरेइ । एवं अन्नाणियवादी वि। २७. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! ? [उ०] एवं जं जं पदं अत्थि पुढविकाइयाणं तहिं तहिं मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चेव दुविहं आउयं पकरेह । नवरं तेउलेस्साए न कि पि पकरेइ । एवं आउक्काइयाण वि, एवं वणस्सइकाइयाण वि। तेउकाइआ वाउकाइआ सवट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु नो नेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेग, नो भणुस्सा. उयं०, नो देवाउयं पकरेइ । बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाणं जहा पुढविकाइयाणं। नवरं सम्मत्त-नाणेसुन एक पि आउयं पकरेइ। वाळा जीवोनी जेम जाणवू. कषायरहित जीवोने लेश्यारहित जीवोनी जेम जाणवू. योगवाळा अने यावत्-काययोगवाळा जीवो लेश्यावाळा जीवोनी जेम जाणवा. योगरहित जीवोने लेश्यारहित जीवोनी पेठे समज. साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळाने लेश्यावाळा जीवोनी जेम जाणवू. क्रियावादी नैरयिको २३. [प्र०] हे भगवन् ! क्रियावादी नैरयिको शुं नैरयिकनुं आयुष बधेि-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम । तेओ *नैरयिक ___ आयुष, तिथंचनुं आयुष अने देवोनुं आयुष बांधता नथी, पण मनुष्यनु आयुष बांधे छे. भक्रियावादी नैरयि- २४. [प्र०] हे भगवन् । अक्रियावादी नैरयिको शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | तेओ नैरयिक कोने आयुषबन्ध. अने देवतुं आयुष बांधता नथी, पण तिथंच अने मनुष्यनुं आयुष बांधे छे. ए प्रमाणे अज्ञानवादी अने विनयवादी संबंधे पण जाणवं. सळेश्य क्रियावादी २५. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा क्रियावादी नैरयिको शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! जे नैरयिकोने आयुष नैरयिको क्रियावादी छे तेओ बधा एक मनुष्यनुं ज आयुष बधि छ; अने जेओ अक्रियावादी, अज्ञानवादी अने विनयवादी छे तेओ बर्धा बन्ध स्थानोमां पण नैरयिक अने देव- आयुष बांधता नथी, पण तिथंच अने मनुष्य- आयुष बांधे छे. पण विशेष ए के, सम्यग्मिध्यादृष्टि उपरनां अज्ञानवादी अने विनयवादी-ए बे समवसरणमां जेम जीवपदमा कयुं छे तेम कोइ पण आयुषनो बन्ध करतो नथी. जेम नैरयिकोने कंह्यं तेम यावत्-स्तनितकुमारोने पण समजवू. अक्रियावादी पृथिवी- २६. [प्र०] हे भगवन् ! अक्रियावादी पृथिवीकायिको शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिकनुं अने देव- आयुष नथी बांधता, पण तिथंच अने मनुष्य- आयुष बांधे छे. ए प्रमाणे अज्ञानवादी संबंधे पण समजq. बन्ध. २७. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा पृथिवीकायिको संबन्धे पृच्छा. [उ०] ए प्रमाणे जे जे पद पृथिवीकायिक संबंधे होय ते ते पद संबंधी वच्चेना ( अक्रियावादी अने अज्ञानवादीना) बे समवसरणोमां पूर्व कह्या प्रमाणे बे प्रकारचें मनुष्यायुष अने तिथंचायुष बांधे छे. परन्तु +तेजोलेश्यामां कोइ पण आयुषनो बन्ध करतो नथी. ए रीते अप्कायिक अने वनस्पतिकायिक संबंधे पण समजवू. अग्निकाय अने वायुकाय बधां स्थानोमां वचला बे समवसरणोने आश्रयी नैरयिक, मनुष्य अने देवर्नु आयुष बांधता नथी, पण मात्र तिर्यचनुं आयुष बांधे छे. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय जीवोने पृथिवीकायिकोनी पेठे जाणवं, पण सिम्यक्त्व अने ज्ञानमा तेओ एक पण आयुषनो बन्ध करता नथी. २३* क्रियावादी नारको नारकभवस्वभावथी नेरयिकायुष अने देवायुष बांधता नथी. अने तिर्यंचायुष बांधता नथी ते क्रियावादना खभावधी जाणवू. बाकीना अक्रियावादादि त्रण समवसरणमा नारकोने सर्वत्र तिर्यंचायुष अने मनुष्यायुषनो ज बन्ध होय छे. सम्यग्मिभ्यादृष्टि नारकोने छेला बे समवसरणो होय छे, पण गुणस्थानकना खभावथी तेओने कोई पण आयुषनो बन्ध थतो नथी.-टीका. २७ ॥ पृथिवीकायिकोनें अपर्याप्तावस्थामा ज इन्द्रियपर्याप्ति पूरी थया पहेला तेजोलेश्या होय छे भने इन्द्रियपर्याप्ति पूरी थया पछी ज परभवर्नु भायुष बंधाय छे माटे तेजोलेश्याना अभावमाज आयुषनो बन्ध थाय छे.-टीका. बेइन्द्रियादिने साखादन होवाथी सम्यक्त्व भने ज्ञान होय छे, परन्तु तेनो अल्प काळ होवाथी ते समये आयुषनो बन्ध थतो नथी, माटे सम्यक्त्व भने ज्ञानना अभावमा आयुषनो बन्ध थाय छे.-टीका. Jain Education international Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३०.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०७ २८. 14.1 किरियावादीण भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं नेइयाउयं पकर-पुच्छा। उ०] गोयमा। जहा मणपज्जवनाणी । अकिरियावादी अन्नाणियवादी वेणइयवादी य चउधिह पि पकरेह । जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि। २९. [4] कण्हलेस्सा णं भंते! किरियावादी पंचिंदियतिरक्खजोणिया किं नेरइयाउयं-पुच्छा। उ० गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेइ, णो तिरिक्ख०, नो मणुस्साउयं०, नो देवाउयं पकरेइ । अकिरियावादी अन्नाणियवादी वेणइयवाई चउचिहं पिपकरेइ । जहा कण्हलेस्सा एवं नीललेस्सा वि, काउलेस्सा वि, तेउलेस्सा जहा सलेस्सा। नवरं अकिरियावादी, अन्नाणियवादी, वेणइयवादी य णो नेरइयाउयं पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरेइ, मणुस्साउयं पि. पडलेसा वि.एवं सकलेस्सा विभाणियचा । कण्हपक्खिया तिहिं समोसरणेहिं चउविहं पि आउयं पकते। सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा । सम्मदिट्टी जहा मणपजवनाणी तहेव वेमाणियाउयं पकरदे । मिच्छदिट्टी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्टी ण य एकं पि पकरेइ जहेव नेरदया। णाणी जाव-ओहिनाणी जहा सम्महिट्ठी । अन्नाणी जाव-विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । सेसा जाव-अणागारोवउत्ता सधे जहा सलेस्सा तहा चेव भाणियधा । जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तवया भणिया एवं मणुस्साण वि माणियचा, नवरं मणपजवनाणी नोसन्नोवउत्ता य जहा सम्मद्दिट्ठी तिरिक्खजोणिया तहेव भाणियवा । अलेस्सा केवलनाणी अवेदगा अकसायी अयोगी य पए न एग पि आउयं पकरेइ । जहा ओहिया जीवा सेसं तहेव । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। ३०. [प्र०] किरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धीया अभवसिद्धीया ? [उ०] गोयमा! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया। ३१. [प्र०] अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धीया-पुच्छा। [30] गोयमा! भवसिद्धीया वि, अमवसिद्धीया वि। एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि । २९.प्र. २८. [प्र०] हे भगवन् ! क्रियावादी पचेंद्रिय तिर्यंचयोनिक जीवो शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! क्रियावादी पं० ति ये मनःपर्यवज्ञानीनी पेठे जाणq. अक्रियावादी, अज्ञानवादी अने विनयवादी पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिक जीवो चारे प्रकारना आयुषनो बन्ध करे चन छे. लेश्यावाळा जीवो औधिक पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकनी पेठे कहेवा. २. [प्र०] हे भगवन् । कृष्णलेश्यावाळा क्रियावादी पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिक जीवो शं नैरयिकतुं आयुष बाँधे-इत्यादि पृच्छा. कृष्णलेश्यावाळा कि याषादी पं० तिर्यंच[उ०] हे गौतम ! तेओ *नैरयिक, तिथंच, मनुष्य के देव- आयुष बांधता नथी. अक्रियावादी, अज्ञानवादी अने विनयवादी चारे नानो प्रकारना आयुषने बांधे छे. जेम कृष्णलेश्यावाळाने कडं तेम नीललेश्यावाळा अने कापोतलेश्यावाळाने समजवु. लेिश्यावाळानी जेम तेजोलेश्यावाळा जाणवा. परन्तु अक्रियावादी, अज्ञानवादी, अने विनयवादी नैरयिकतुं आयुष बांधता नथी, पण देवनु, तियेचनुं अने मनुष्यनु आयुष बांधे छे. ए रीते पद्मलेश्यावाळा तथा शुक्ललेश्यावाळाने पण कहे. कृष्णपाक्षिक प्रण (क्रियावादी सिवाय बाकीनां) समवसरणो वडे चारे प्रकारचें आयुष बांधे छे. शुक्लपाक्षिकने लेश्यावाळानी पेठे जाणवु. सम्यग्दृष्टि मनःपर्यवज्ञानीनी जेम वैमानिकनुं आयुष बांधे छे. कृष्णपाक्षिकोनी जेम मिथ्यादृष्टि जाणवा. सम्यग्मिथ्यादृष्टि एक पण आयुष बांधता नथी, अने तेओने नैरयिकोनी जेम छेल्ला बे समवसरणो जाणवा. ज्ञानी अने यावत्-अवधिज्ञानी सम्यग्दृष्टिनी जेम जाणवा. अज्ञानी अने यावत्-विभंगज्ञानी कृष्णपाक्षिकोनी जेम जाणवा. बाकीना यावत्-अनाकार उपयोगवाळा सुधी बधाने लेश्यावाळानी जेम जाणवं. जेम पंचेंद्रिय तिर्यचयोनिकोनी यक्तव्यता कही छे एम मनुष्योनी पण वक्तव्यता कहेवी. परन्तु मनःपर्यवज्ञानी अने नोसंज्ञामा उपयुक्त जीवोने सम्यग्दृष्टि तिर्यंचयोनिकनी जेम जाणवं. लेश्यारहित, केवळज्ञानी, वेदरहित, कषायरहित अने योगरहित जीवो औधिक जीवोनी जेम आयुष बांधता नथी. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकोने असुरकुमारोनी जेम समजq. ३०. [प्र० हे भगवन् ! शुक्रियावादी जीवो भवसिद्धिक छे के अभवसिद्धिक छे! [उ०] हे गौतम | तेओ भवसिद्धिक के क्रियावादी भव्य के पण अभवसिद्धिक नथी. मभव्य ३१. प्रि०ा हे भगवन् । शुं अक्रियावादी जीवो भवसिद्धिक छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम! तेओ भवसिद्धिक पण छे पक्रियावादी भव्य अने अभवसिद्धिक पण छे. ए ज रीते अज्ञानवादी अने विनयवादी संबंधे पण समजq. देवमव्य। उहिं पि ग-ध। २९ * ज्यारे सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यच कृष्णादि अशुभ लेश्याना परिणामवाळा होय छे त्यारे तेश्रो कोइ पण आयुषनो बन्ध करता नथी अने तेजोलेश्यादि शुभ परिणामवाळा होय छे त्यारेज केवळ वैमानिकायुषनो बन्ध करे छे.-टीका. +तेजोळेश्यावाळाने लेश्यावाळानी पेठे आयुषनो बन्ध जाणवो एटले क्रियावादी वैमानिकायुष ज बांधे अने वीजा त्रण समवसरणवाळा चारे प्रकारचें आयुष बांधे, कारणके लेश्यावाळाने ए प्रमाणे आयुषनो बन्ध कहेलो छे. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३०.-उद्देशक १. ___३२. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं भव-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया। ३३. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं भव-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि । एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि जहा सलेस्सा । एवं जाव-सुक्कलेस्सा। ३४. प्र०] अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं भव-पुच्छा । [उ०] गोयमा! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । एवं एएणं अभिलावणं कण्हपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए । सुक्कपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्ठी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा । नाणी जाव-केवलनाणी भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । अन्नाणी, जाव-विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । सन्नासु चउसु वि जहा सलेस्सा । नोसन्नोवउत्ता जहा सम्मदिट्ठी । सवेदगा जाव-नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा। अवेद्गा जहा सम्मदिट्ठी। सकसायी, जाव-लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकसायी जहा सम्मदिट्ठी। सयोगी जाव-कायजोगी जहा सलेस्सा । अयोगी जहा सम्मदिट्ठी । सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा । एवं नेरइया वि भाणियचा, नवरं नायच्वं जं अत्थि । एवं असुरकुमारा वि जाव-थणियकुमारा । पुढविक्काइया सचट्ठाणेसु वि मज्झिलेसु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि । एवं जाव-वणस्सइकाइया। वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिया एवं चेव । नवरं संमत्ते ओहिनाणे आभिणियोहियनाणे सुयनाणे एएसु चेव दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया, सेसं तं चेव । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया । नवरं नायचं जं अत्थि । मणुस्सा जहा ओहिया जीवा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । 'सेवं भंते सेवं भंते ति। तीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो। सलेश्य क्रियावादी भन्य के अभव्य? ३२. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा क्रियावादी जीवो शुं भवसिद्धिक छे के अभवसिद्धिक छे! [उ०] हे गौतम | तेओ भवसिद्विक छे, पण अभवसिद्धिक नथी. सलेश्य प्रक्रियावादी भव्य के अभव्य लेश्यारहित क्रियावादी भव्य के मभव्य। ३३. [प्र०] हे भगवन् । लेश्यावाळा अक्रियावादी जीवो शुं भवसिद्धिक छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | तेओ भवसिद्धिक पण छे अने अभवसिद्धिक पण छे. एम अज्ञानवादी अने विनयवादी संबंधे पण जाणवू. जेम लेश्यावाळा कह्या तेम [कृष्णलेश्यावाळा ] यावत्-शुक्ललेश्यावाळा पण समजवा. ३४. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यारहित क्रियावादी जीवो शु भवसिद्धिक छे के अभवसिद्धिक छे! [उ०] हे गौतम ! तेो भवसिद्धिक छे, पण अभवसिद्धिक नथी. ए प्रमाणे ए अमिलापवडे कृष्णपाक्षिक जीवो [ क्रियावादी सिवायना ] त्रणे समवसरणोमां विकल्पे (भवसिद्धिक) जाणवा. शुक्लपाक्षिक जीवो चारे समवसरणोमा भवसिद्धिक छे, पण अभवसिद्धिक नथी. सम्यग्दृष्टि लेश्या विनाना जीवोनी जेम जाणवा, मिथ्यादृष्टि कृष्णपाक्षिकोनी जेम जाणवा अने सम्यग्मिध्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ), अज्ञानवादी अने विनयवादी-ए बन्ने समवसरणोमा लेश्यारहित जीवोनी जेम (भवसिद्धिक) जाणवा. ज्ञानी अने यावत्-केवलज्ञानी जीवो भवसिद्धिक जाणवा, पण अभवसिद्धिक न जाणवा. अज्ञानी अने यावत्-विभंगज्ञानी जीवो कृष्णपाक्षिकनी जेम बन्ने प्रकारना समजवा. आहारसंज्ञामा, यावत् परिप्रहसंज्ञामा उपयोगवाळा 'लेश्यावाळा जीवोनी जेम जाणवा. नोसंज्ञामा उपयुक्त जीवो सम्यग्दृष्टिनी जेम जाणवा. वेदवाळा अने यावत्नपुंसकवेदवाळा लेश्यावाळानी जेम बन्ने प्रकारना जाणवा. वेदरहित जीवो सम्यग्दृष्टिनी पेठे समजवा. कषायवाळा अने यावत्-लोभकषायवाळाने लेश्यावाळानी जेम जाणवू. कषायरहित जीवोने सम्यग्दृष्टि जीवोनी जेम जाणवू. योगवाळा, यावत्-काययोगवाळा जीवोने सम्यग्दृष्टि जीवोनी जेम समजवा. साकार-ज्ञानपयोगवाळा अने अनाकार-दर्शनोपयोगवाळा जीवो लेश्यायुक्त जीवोनी जेम जाणवा. ए प्रमाणे नैरयिको पण कहेवा. विशेष ए के, जेने जे होय तेने ते जाणवू. ए रीते असुरकुमारो अने यावत्-स्तनितकुमारो संबंधे पण जाणवू. पृथिवीकायिको बधा स्थानकोमा वचला बन्ने समवसरणोमां भवसिद्धिको अने अभवसिद्धिको होय छे. ए रीते यावत्-वनस्पतिकायिको सुधी समजq. बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिन्द्रिय संबंधे पण एज रीते जाणQ. विशेष ए के, तेओने सम्यक्त्व, अवधिज्ञान, मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानमा बन्ने वचलां समवसरणोने आश्रयी भवसिद्धिको कहेवा, पण अभवसिद्धिको न कहेवा. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवु. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकोने नैरयिकोनी जेम समजवं. विशेष ए के, जेने जे होय तेने ते जाणवु. मनुष्योने औधिक जीवोनी जेम समजवू.' वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकोने असरकुमारोनी जेम समजq. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. त्रीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ शतक ३०.-उदेशक १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र बीओ उद्देसो। १. [प्र०] अणंतरोषवनगा गं भंते ! नेराया कि किरियावादी-पुच्छा [उ०] गोयमा! किरियावादी वि, जाव-वेण. 'इयवादी वि। २. [३०] सलेस्सा णं मंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया किं किरियावादी ? [उ०] एवं चेव, एवं जहेव पढमुद्देसे नेपयाणं वत्तचया तहेव इह वि भाणियथा । नवरं जं जस्स अस्थि अणंतरोववनगाणं नेरायाणं तं तस्स भाणियवं । एवं सञ्चजीवाणं जाव-वेमाणियाणं । नवरं अणंतरोषवनगाणं जं जाहिं अत्थि तं तर्हि भाणियछ । ३.प्र० किरियावाई णं मंते ! अणंतरोववनगा नेदया किं नेरइयाउयं पकरेइ-पुच्छा। [उ०] गोयमा! नो नेण्याउयं पकरेंति, नो तिरि०, नो मणु०, नो देवाउयं पकए । एवं अकिरियावादी वि अन्नाणियवादी वि वेणइयवादी वि । ४. [प्र०] सलेस्सा णं भंते ! किरियावादी अणंतरोववनगा नेरइया कि नेरइयाउयं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेइ, जाव-नो देवाउयं पकरे । एवं जाव-वेमाणिया । एवं सघटाणेसु वि अणंतरोववनगा नेराया न किंचि वि आउयं पकरेति जाव-अणागारोवउत्तत्ति । एवं जाव-वेमाणिया, नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियवं । ५. [प्र०] किरियावादी णं भंते ! अणंतरोववनगा नेराया किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया ? [उ०] गोयमा ! भवसिखिया, नो अभवसिद्धिया। ६. [H०] अकिरियावादी णं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! भवसिद्धिया वि, अभयसिद्धिया वि । एवं अन्नाणियवादी वि घेणइयवादी वि। ७. [म.] सलेस्सा णं भंते ! किरियावादी अणंतरोववनगा नेल्या किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया? [उ.] गोयमा! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया। एवं एएणं अभिलावणं जहेष ओहिए उहेसए नेरायाणं वत्तधया भणिया तहेव इह वि माणियहा जाव-अणागारोवउत्तत्ति । एवं जाव-वेमाणियाणं । नवरं जं जस्स अत्थितं तस्स माणियचं । इमं से लक्षणं-जे किरि द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्नक (तुरत उत्पन्न ययेला) नैरयिको शुं क्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! अनन्तरोपपन्न नैर विकोने क्रियावातेओ क्रियावादी पण छे अने यावत्-विनयवादी पण छे. दित्वादि. २. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा अनंतरोपपन्नक नैरयिको शुक्रियावादी छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | जेम प्रथम उद्देशकमां वक्तव्यता कही छे तेम अहीं पण कहेवी. विशेष ए के, अनंतरोपपन्नक नैरयिकोमा जेने जे संभवे तेने ते कहे. ए प्रमाणे सर्व जीवो यावत्-वैमानिकोने पण समजवू. विशेष ए के, अनन्तरोपपन्न जीवोने जे संभवे ते तेने कहे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिको शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! क्रियावादी अनन्त रोपपन्न नैरपिकोने तेओ नैरयिक, तिथंच, मनुष्य के देवनुं आयुष बांधता नथी. एज रीते अक्रियावादी, अज्ञानघादी अने विनयवादी संबन्धे पण जाणq. भायुषबन्ध ४. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी नैरयिको शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिकनुं यावत्-देवतुं आयुष बांधता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी समजवु. ए रीते सर्व स्थानोमा अनन्तरोपपन्नक नैरयिको कोइ पण आयुषनो बन्ध करता नथी. ए प्रमाणे यावत्-अनाकार उपयोगवाळा जीवो सुधी जाणवू. एम यावत्वैमानिको सुधी जाणवं. विशेष ए के जेने जे होय ते तेने कहे. ___५. [प्र०] हे भगवन् ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरयिको शुं भवसिद्धिक छे के अभवसिद्धिक छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ अनन्तरोपपत्र क्रियाभवसिद्धिक छे, पण अभवसिद्धिक नथी. वादी नैरयिको भव्य छे के अभव्य छ। ६. [प्र०] अक्रियावादी संबंधे पृच्छा. उ०] हे गौतम | तेओ भवसिद्धिक पण छे अने अभवसिद्धिक पण छे. ए प्रमाणे अज्ञानवादी अने विनयवादी संबंधे पण समजबू. ७. [प्र०] हे भगवन् । लेश्यावाळा अनन्तरोपपन्न क्रियावादी नैरयिको शुं भवसिद्धिक छे के अभवसिद्धिक छे! [उ०] हे गौतम! तेओ भवसिद्धिक छे, पण अभवसिद्धिक नथी. ए प्रमाणे ए अभिलापथी जेम औधिक उदेशकमा नैरयिकोनी वक्तव्यता कही तेम नहीं Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे शतक. ३०. - उदेशक ४-११. यावादी सुकपक्खिया सम्मामिच्छदिट्ठीया एए सच्चे भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धीया, सेसा स भवसिद्धीया वि अभवसि - दीया वि । 'सेवं मंते । सेवं भंते' ! ति । तीसहमे सए बीओ उद्देसो समतो । . पण कहेवी अने ते यावत्-अनाकारोपयोगवाळा सुधी समजवी. ए प्रमाणे यावत् - वैमानिको सुघी जाणवुं. पण जेने जे होय तेने ते कहे . आ तेनुं लक्षण छे-जे क्रियावादी, शुकपाक्षिक, अने सम्यग्मिथ्यादृष्टि तेओ बधा भवसिद्धिक होय "के पण अभवसिद्धिक होता मथी, अने बाकी बधा भवसिद्धिक पण होय छे अने अभवसिद्धिक पण होय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ' श्रीशमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. ईओ उद्देो । १. [प्र० ] परंपरोषवनगाणं भंते! नेरइया किरियावादी० १ [30] एवं जद्देव ओहिओ उद्देसओ तद्देव परंपरोधवअपसु वि नेरइयादीओ तद्देव निरवसेसं भाणियां, तद्देव तियदंडगसंगहिओ । 'सेवं भंते । संवे भंते' । चि जाव- विहरह । तीस मे सए तईओ उद्देसो समत्तो । तृतीय उद्देशक. १. [ प्र० ] हे भगवन् । परंपरोपपन्नक नैरयिको शुं क्रियावादी छे – इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम 1 जैम औधिक उदेशकमां क छे तेम परंपरोपपन्नक नैरयिको संबंधे पण नैरयिकथी मांडी ( वैमानिक पर्यन्त ) समग्र उदेशक ( क्रियावादित्वादि, आयुषबन्ध अने भव्या भव्यत्वादिप्ररूपक) तेज प्रकारे त्रण दंडक सहित कहेवो. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही यावत्-विहरे छे. श्रीशमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. ४- ११ उद्देसगा। १. एवं एएणं कमेणं जयेव बंधिसर उद्देसगाणं परिवाढी सच्चेव इदं पि जाव-अवरिमो उद्देसो । नवरं अनंतरा चारि वि एकगमगा, परंपरा चचारि वि एकगमपणं । एवं चरिमा वि अचरिमा वि एवं चेव । नवरं अलेस्सो केवली अजोगी नमन, सेसं तद्देव । 'सेवं मंते । सेवं भंते । ति । एए एक्कारस वि उद्देगा । ४-११. तीसइमं समवसरणसयं समत्तं । ४ - ११ उद्देशको. १. [ प्र० ] ए प्रमाणे ए क्रमवडे बंधिशतकमां उद्देशकोनी जे परिपाटी छे ते ज परिपाटी अहीं पण यावत् - अचरम उद्देशक सुधी जाणवी. विशेष ए के, 'अनंतर' शब्दघटित चारे उद्देशको एक गमवाळा छे अने 'परंपर' शब्दघटित चारे उद्देशको एक गमवाळा छे. ए रीते 'चरम' अने 'अचरम' शब्दघटित उद्देशको संबंधे पण समजवुं. विशेष ए के लेश्यारहित, केवळज्ञानी अने अयोगी संबंधे अहीं कांइ पण न कहेतुं अने बाकी बधुं पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एं रीते अगियार उद्देशको कहेवा. श्रीशमा शतकमा ४ - ११ उद्देशको समाप्त. श्रीशमं समवसरण शतक समाप्त । ७ * सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी. अवेदी. अकषायी भने अयोगी ए पण भव्य ज होय छे, पण ते प्रसिद्ध होवाथी तेनी अहीं परिगणना करी नथी. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसइमं सयं। पढमो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-कति णं भंते ! खुड्डा जुम्मा पन्नता ? [उ०] गोयमा। चत्तारि खुट्टा जुम्मा पन्नत्ता । तंजहा-१ कडजुम्मे, २ तेयोए, ३ दावरजुम्मे, ४ कलिओए। [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'चत्तारि खुट्टा जुम्मा पनत्ता, तंजहा-कडजुम्मे, जाव-कलियोगे ? [उ०] गोयमा! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए सेत्तं खुड्डागकडजुम्मे । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं. अवहीरमाणे तिपजवसिए सेत्तं खुड्डागतेयोगे । जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागदावरजुम्मे । जे णं रासी चउक्कपणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपजवसिए सेत्तं खुड्डागकलियोगे । से तेणटेणं जाव-कलियोगे। २. [प्र०] खुडागकडजुम्मनेरइया णं भंते.! कओ उववजंति ? किं नेरहपहिंतो उववजंति ? तिरिक्ख-पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नेरइपहिंतो उववजंति । एवं नेरइयाणं उपवाओ जहा वकंतीए तहा भाणियो। ३. प्र० ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया-उववजंति ? [उ.1 गोयमा! चत्तारि वा अटूचा वारस वा सोलस या संखेजा वा असंखेजा वा उघवजंति । एकत्रीशमुं शतक. प्रथम उद्देशक.. १. [प्र०] राजगृह नगरमा यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! क्षुद्र (नानां) युग्मो केटला कह्यां छे! [उ०] हे गौतम ! क्षुद्रयुग्म. चार क्षुद्र युग्मो *चार क्षुद्रयुग्मो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-१ कृतयुग्म, २ योज, ३ द्वापरयुग्म अने ४ कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवानो हेतु. कहो छो के कृतयुग्म यावत्-कल्योजरूप चार क्षुद्र युग्मो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम! जे संख्यामाथी चार चारनो अपहार करतां छेवटे चार बाकी रहे ते संख्याने क्षुद्र कृतयुग्म कहेवाय छे. जे संख्यामांथी चार चारनो अपहार करतां छेवटे त्रण बाकी रहे ते संख्याने क्षुद्र त्र्योज कहेवामां आवे छे. जे संख्यामांथी चार चारनो अपहार करतां छेवटे बे बाकी रहे ते संख्याने क्षुद्र द्वापरयुग्म कहेवामां आवे छे. अने जे संख्यामाथी चार चारनो अपहार करता छेवटे एक बाकी रहे ते संख्या क्षुद्र कल्योज कहेवाय छे. ते कारणथी यावत्-कल्योज कहेवाय छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! क्षुद्र कृतयुग्म राशि प्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? शुं नैरयिकोथी. आवी उत्पन्न याय नैरयिकोनो उपपात. छे ! तियचयोनिकोथी आवी उत्पन्न याय छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम | तेओ नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थता नथी, [पण पंचेन्द्रिय तिर्यच अने गर्भज मनुष्यथी आवी उत्पन्न थाय छे]-इत्यादि नैरयिकोनो उपपात जेम व्युत्क्रान्ति पदमां कह्यो छे तेम अहीं जाणवो. ____३. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! चार, आठ, बार, सोळ अथवा संख्याता उपमतसंख्या. के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. * लघु संख्यावाळा राशिविशेषने क्षुद्र युग्म कहे छे. तेमा चार, आठ, बार वगेरे संख्यावाळा राशिने क्षुद्र कृतयुग्म, ऋण, सात, अगियार वगेरे राशिने क्षुद्र त्र्योज, बे, छ वगेरे राशिने क्षुद्र द्वापरयुग्म अने एक, पांच वगेरे संख्यावाळा राशिने क्षुद्र कल्योज कहेवामा 'आवे छे. २१ जुओ प्रज्ञा० पद ६०२०४-२१८.. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३१.-उदेशक १. ४.[प्र०] ते णं मंत। जीवा कहं उववजंति [उ०] गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे अज्जवसाण-एवं जहा पंचविसतिमे सप अट्टमुद्देसए नेपयाणं वत्तवया तहेव इह वि माणियचा जाव-आयप्पओगेणं उववजंति नो परप्पयोगेणं उववजंति । ५. [प्र०] रयणप्पभापुढविखुडागकडजुम्मनेरइया णं मंते ! को उघवजंति ? [उ०] एवं जहा ओहियनेरायाणं पत्तवया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियवा जाव-नो परप्पयोगेणं उववजंति । एवं सकरप्पमाए वि जाव-अहेसत्तमाए-एवं उववाओ जहा वकंतीए । "अस्सन्नी खलु पढमं दोच्चं व सरीसवा तश्य पक्खी"।-गाहाए उववाएयता, सेसं तहेव । ६. [प्र०] खुडागतेयोगनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? किं नेरहपहितो-१ [उ०] उववाओ जहा वकंतीए । ७. प्रि० ते णं भंते ! जीवा एगसमपणं केवइया उववजंति? [उ०] गोयमा। तिन्नि वा सत्त वा एकारस वा पनरस वा संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । सेसं जहा कडजुम्मस्स, एवं जाव-अहेसत्तमाए । ८. [प्र०] खुड्डागदावरजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववजंति ? [उ०] एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे । नवरं परिमाणं दो वा छ वा दस वा चोइस वा संखेजा वा असंखेजा वा, सेसं तं चेव जाव-अहेसत्तमाए । ९. [प्र०] खुडागकलिओगनेरहया णं भंते ! कओ उववजंति [उ०] पवं जद्देव खंडागकडजुम्मे । नवरं परिमाणं पको चा पंच वा नव वा तेरस वा संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति-सेसं तं चेव । एवं जाव-अहेसत्तमाए। 'सेवं भंते! से भंतेत्ति २ जाव-विहरति । इकतीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो। सपपातनो प्रकार. ४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो केवी रीते उपजे ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोई कूदनार कूदतो [पोताना पूर्वना स्थानने छोडी आगळना स्थानने प्राप्त करे तेम नारको पण पूर्ववर्ती भवने छोडी अध्यवसायरूप कारण वडे आगळना भवने प्राप्त करे छे]-. इत्यादि पचीशमा शतकना थाठमा उद्देशकमा नैरयिको संबंधे जे वक्तव्यता कही छे ते अहीं पण कहेवी. यावत्-ते आत्मप्रयोगथी उत्पन्न थाय छे, पण परप्रयोगथी उत्पन्न थता नथी. रसप्रभा नैरयिकोनो ५. [प्र०] हे भगवन् । क्षुद्र कृतयुग्मराशि प्रमाण रत्नप्रभाना नैरपिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! उपपात. जेम सामान्य नैरयिकोनी वक्तव्यता कही छे तेम रत्नप्रभाना नैरयिकोनी पण कहेवी. यावत्-ते परप्रयोगथी उपजता नथी. एम शर्कराप्रभा अने यावत्-अधःसप्तम पृथिवी संबंधे पण जाणवू. ए रीते व्युत्क्रान्ति पदमां कह्या प्रमाणे अहीं उपपात कहेवो. 'असंज्ञी जीवो पहेली नरक सुघी, सों बीजी नरक सुधी अने पक्षीओ त्रीजी नरक सुधी जाय छे'-इत्यादि गाथा वडे उपपात कहेवो. वाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे कहे. क्षुद्र योजराशि- ६. [प्र०] हे भगवन् । क्षुद्र त्र्योजराशि प्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्याप्रमाण नैरयिकोनो उपपात. "" दि पृच्छा. [उ०] हे गौतम *व्युत्क्रान्तिपदमां कह्या प्रमाणे उपपात कहेवो. उपपातसंख्या. ७. [प्र०] हे भगवन् । ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! त्रण, सात, अगियार, पंदर, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न याय छे. बाकी बधुं कृतयुग्म नैरयिकोनी पेठे जाणवु. ए प्रमाणे यावत्- सप्तम नरकपृथिवी सुधी जाणवू. सद दापरयुग्म नै ८. [प्र०] हे भगवन् । क्षुद्र द्वापरयुग्म प्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] जेम क्षुद्र रयिकोनो उपपात. कृतयुग्म संबंधे कयुं छे तेम आ संबंधे पण समजवू. परन्तु परिमाण-बे, छ, दश, चौद, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. बाकी बधु पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-अधःसप्तम नरकपृथिवी सुधी जाणवू. शुकल्योज नैरयि- ९. प्रि०] हे भगवन् । क्षुद्र कल्योज राशि प्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] जेम क्षुद्र कृतयुग्म कोनो उपपात. संबंधे कयुं छे तेम आ संबंधे पण समजवं. परन्तु परिमाणमा एक, पांच, नव, तेर, संख्याता अथवा असंख्याता उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-सातमी नरकपृथिवी सुधी समजवं. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एम जछे-एम कही यावत्-विहरे छे. एकत्रीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. ५-६ * प्रज्ञा• पद ६५० २०४-२१८. Jain Education international Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३१.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. बीओ उद्देसो। १. [प्र०] कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववजंति ? [उ०] एवं चेव जहा ओहियगमो जाव-नो परप्पयोगेणं उववजंति । नवरं उववाओ जहा वकंतीए धूमप्पभापुढविनेरहयाणं, सेसं तं चेव । २. [प्र०] धूमप्पभापुढविकण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववजंति ? [उ०] एवं चेव निरवसेसं । एवं तमाए वि, अहेसत्तमाए वि । नवरं उववाभो सवत्थ जहा वकंतीए । ३. [प्र.] कण्हलेस्सखुड्डागतेओगनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] एवं चेव, नवरं तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरस वा संखेजा वा असंखेजा वा, सेसं तं चेव । एवं जाव-अहेसत्तमाए वि। ४. प्र०] कण्हलेस्सखुडागदावरजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] एवं चेव । नवरं दो वा छ वा दस वा चोद्दस वा, सेसं तं चेव, धूमप्पभाए वि जाव-अहेसत्तमाए । ५. [प्र०] कण्हलेस्सखुड्डागकलियोगनेरइया गं भंते! कओ उववजंति ? [उ०] एवं चेव । नवरं एक्को वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेजा वा असंखेजा वा, सेसं तं चेव । एवं धूमप्पभाए वि, तमाए वि, अहे सत्तमाए वि। 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । इक्कतीसइमे सए वीओ उद्देसो समत्तो। द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे-इत्यादि पृच्छा. क्षुद्रकृतयुग्म कृष्ण[उ०] औधिक-सामान्य गममा कह्या प्रमाणे अहीं पण जाणवू, यावत्-परप्रयोगथी उपजता नथी. पण विशेष ए के, *व्युत्क्रांतिपदमा लेश्यावाला नैरयिकह्या प्रमाणे उपपात कहेवो अने धूमप्रभापृथिवीना नैरयिको संबन्धे प्रश्न उत्तर वगेरे बाकी बधुं पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवू. २. [प्र०] हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा धूमप्रभापृथिवीना नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थायइत्यादि पृच्छा. [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवू. ए रीते तमःप्रभा अने अधःसप्तम नरकपृथिवी संबंधे पण समजवू. पण विशेष ए के, बधे स्थळे. उपपात संबंधे *व्युत्क्रांतिपदमा कह्या प्रमाणे जाणवू. ____३. [प्र०] हे भगवन् ! क्षुद्रत्र्योजराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] उपर कृष्ण० क्षुद्रच्योज कह्या प्रमाणे जाणवू. पण विशेष ए के, त्रण, सात, अगियार, पंदर, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवं. नैरयिकोनो उपपात एम यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी जाणवू. ४.[प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा क्षुद्रद्वापरयुग्मराशिप्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न याय-इत्यादि पृच्छा. उ०] कृष्णः क्षुद्रद्वापर एज प्रमाणे जाणवू. पण विशेष ए के, बे, छ, दश के चौद (संख्याता के असंख्याता) आवी उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. युग्म नैरयिकोनो उपपात. ए प्रमाणे धूमप्रभा यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी पण जाणवू. ५. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा क्षुद्रकल्योजराशिप्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे कृष्ण क्षुदकल्योज नैरयिकोनो उपपात. गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू. पण विशेष ए के, एक, पांच, नव, तेर, संख्याता अथवा असंख्याता उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू, ए प्रमाणे धूमप्रभा, तमःप्रभा अने अधःसप्तम नरकपृथिवी संबंधे पण समजq. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' एकत्रीशमा शतकमां वीजो उद्देशक समाप्त तईओ उद्देसो। १. [प्र०] नीललेस्सखुडागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ.] एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मा । नवरं उववाओ जो वालुयप्पभाए, सेसं तं चेव । वालुयप्पभापुढविनीललेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया एवं चेव, एवं पंकप्पभाए तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! नीललेश्यावाळा क्षुद्रककृतयुग्मप्रमित नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] कृष्णलेश्यावाळा क्षद- नील० क्षुद्रकृतयुग्म नैरपिकोनो उपपात. कृतयुग्म नैरयिको संबंधे कयुं छे ते ज प्रमाणे अहीं पण जाणवं. परन्तु विशेष ए के वालुकाप्रभामां जे उपपात कह्यो छे ते प्रमाणे अहीं कहे. बालुकाप्रभा. बाकी बधुं तेज रीते समज. नीललेश्यावाळा क्षुद्रककृतयुग्मप्रमित नैरयिकोने पण एज रीते जाणवू. ए प्रमाणे पंकप्रभा अने धूमप्रभा संबंधे १-२ *प्रज्ञा० पद ६५० २०४-२१८. Jain Education internatx. भ. सू० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापोत० क्षुद्रकृतयु ग्म नैरयिको क्यांथी भावी उपजे १ भव्य क्षुद्रकृतयुग्म नैरयिकोनो उपपात. कृष्ण भव्य कृतयुग्म नैरविकोनो उपपात ३१४ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे— शतक ३१. – उद्देशक ५. वि, एवं धूमप्पमाप वि । एवं चउसु वि जुम्मेसु । नवरं परिमाणं जाणियवं । परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए । सेसं तदेव | 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । इकतीस मे स तईओ उद्देसो समत्तो । पण जाणवु. एम चारे युग्मोमां समजवुं. पण विशेष ए के, जेम कृष्णलेश्याना उद्देशकमां कहुं छे तेम परिमाण जाणवुं. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' एकत्रीशमां शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. उत्थो उद्देसो । २. [प्र० ] काउलेस खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [अ०] एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्म०, नवरं ववाओ जो रयणप्पभाए, सेसं तं चैव । २. [ प्र० ] रयणपभापुढविकाउलेस्स खुड्डागकडजुम्मने रइया णं भंते ! कओ उववजंति १ [उ०] एवं चेव । एवं सक्करभावि, एवं वालुयप्पभाए वि । एवं चउसु वि जुम्मेसु । नवरं परिमाणं जाणियां, परिमाणं जहा कण्हलेस्सउदेसर, सं तं चैवं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । इकतीस मे स चत्थो उद्देसो समत्तो । चतुर्थ उद्देश. १. [प्र० ] हे भगवन् । कापोतलेश्यावाळा क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमित नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? [ उ०] जेम कृष्णलेश्यावाळा क्षुद्रकृतयुग्म नैरयिको संबंधे कह्युं छे तेम आ संबंधे पण कहेतुं. पण विशेष ए के, रत्नप्रभामां जे उपपात कह्यो छे ते अहीं वो अने बाकी बधुं तेज प्रमाणे समज. २. [प्र०] हे भगवन् ! कापोतलेश्यावाळा क्षुद्रकुतयुग्मराशिप्रमाण रत्नप्रभाना नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? [30] पूर्वे ह्या प्रमाणे जाणवु. ए रीते शर्कराप्रभामां, वालुकाप्रभामां पण चारे युग्मो विषे समजवुं. पण विशेष ए के, कृष्णलेश्या उद्देशकमा जे परिमाण कह्युं छे ते अहीं जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन् ! ते एमज छे.' एकत्रीशमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो । १. [प्र०] भवसिद्धीयखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? किं नेरहय० १ [अ०] एवं जहेव ओहिओ गमओ तदेव निरवसेसं जाव-नो परप्पयोगेणं उववज्जति । २. [०] यणप्पभापुढविभवसिद्धीय खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ० १ [अ०] एवं चेव निरवसेसं, एवं जाव- अहेसत्तमा । एवं भवसिद्धियखुड्डागतेयोगनेरइया वि । एवं जाव - कलियोग त्ति । नवरं परिमाणं जाणियां, परिमाणं पुचभणियं जहा पढमुद्देस | 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । इकतीसइमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो । पंचम उद्देशक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण भवसिद्धिक नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय- इत्यादि पृच्छा. [उ०] जेम औधिक - सामान्य गम कह्यो तेम अहीं पण निरवशेष जाणवुं यावत्-ते परप्रयोगथी उत्पन्न थता नथी. २. [ प्र० ] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथिवीना क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण भवसिद्धिक नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे - इत्यादि पृच्छा. [३०] हे गौतम ! पूर्वे कला प्रमाणे बधुं जाणवुं. ए प्रमाणे यावत् - अधः सप्तम पृथिवी सुधी समज. एम भवसिद्धिक क्षुद्रत्र्योजराशिप्रमित नैरयिकोने पण जाणवुं. ए प्रमाणे यावत् - कल्योज सुधी समजवुं. पण परिमाण भिन्न जाणवुं, अने ते आगळ प्रथम उद्देशकमां जाणान्युं छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. एकत्रीशमा शतकमां पंचम उद्देशक समाप्त. छो उद्देसो । १. [प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धियखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववनंति ? [उ०] एवं जद्देव ओहिओ कण्डले - छट्ठो उद्देशक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्मप्रमाण नैरयिको क्यांची आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३१. - उद्देशक २८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१५ उसओ तदेव निरवसेसं चउसु वि जुम्मेसु भाणियचो, जाव - [प्र०] असत्तमपुढ विकण्हलेस्सखुड्डागकलियोगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्रंति ? [अ०] तद्देव | 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । इकतीस मे सए छट्ठो उद्देसो समत्तो । आवी उत्पन्न थाय–इत्यादि पृच्छा. [उ०] औधिक कृष्ण लेश्याना उद्देशकमां जे प्रमाणे कह्युं छे ते प्रमाणे बधुं चारे युग्मोमां जाणवुं. यावत् — [प्र०] हे भगवन् ! अधः सप्तम पृथिवीना कृष्णलेश्यावाळा क्षुद्र कल्योजराशिप्रमाण नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? [30] पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. एकत्रीशमा शतकमां छट्ठो उद्देशक समाप्त. ७-२८ उद्देसगा । १. नीललेस्सभवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियचा जहा ओहिए नीललेस्सउद्देसए । ' सेवं भंते । सेवं भंते' ! त्ति जाव विहरह । ३१. ७. २. काउलेस्सा भवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु तहेव उववापयच्चा जहेव ओहिए काउलेस्स उद्देसए । 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! ति जाव- विहरइ । ३१.८. ३. जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसया भणिया एवं अभवसिद्धीपहि वि चत्तारि उद्देगा भाणियचा जांवकाउलेस्साउसभ त्ति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' । ति । ३१.९-१२. ४. एवं सम्मदिट्ठीहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायचा, नवरं सम्मदिट्ठी पढमबितिपसु वि दोसु वि उद्देसपसु आहेसत्तमापुढवीए न उववापयचो, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति । ३१. १३-१६. ५. मिच्छादिट्ठीहि विचत्तारि उद्देसगा कायचा जहा भवसिद्धियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । ३१.१७-२०. ६. एवं कण्हपक्खिहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायवा जद्देव भवसिद्धिएहिं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । ३१. २१-२४. ७. सुक्कपक्खिहिं एवं चैव चत्तारि उद्देसगा भाणियष्ठा । जाव-वालुयप्पभापुढ विकाउलेस्स सुक्कपक्खियखुडागकलिओगनेरया णं भंते! कओ उववजंति १ तहेव जाव-नो परप्पयोगेणं उववज्जंति । 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! प्ति । सर्व्वे वि एए अट्ठावीसं उद्देगा । ३१. २५-२८. इकतीस मे ए ७-२८ उद्देसगा समता । इकतीसइमं उववायसयं समत्तं । ७-२८ उद्देशको. १. नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक नैरयिको चारे युग्मोमां औधिक नीललेश्या उद्देशकमा कह्या प्रमाणे कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'- एम कही यावत् विहरे छे. ३१. ७. २. कापोतलेश्यावाळा भवसिद्धिक नैरयिकोनो चारे युग्ममां औधिक कापोत लेश्याउद्देशकमां कह्या प्रमाणे उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते मज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही विहरे छे. ३१. ८. | ३. जेम भवसिद्धिकना चार उद्देशको कह्यां तेम अभवसिद्धिकना पण चार उदेशको कापोतलेश्याउद्देशक पर्यन्त कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'- एम कही यावद् - विहरे छे. ३१.९-१२. ४. एम सम्यग्दृष्टिना पण लेश्या साथे चार उद्देशको कहेवा. परंतु पहेला अने बीजा बन्ने उद्देशकमां सम्यग्दृष्टिनो अधः सप्तम नरकपृथिवीमां उपपात न कहेवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३१.१३-१६ ५. मिथ्यादृष्टिना पण चारे उद्देशको भवसिद्धिकनी पेठे कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ते एमज छे'. ३१.१७-२०. ६. एम कृष्णपाक्षिकना लेश्यासंयुक्त चार उद्देशको भवसिद्धिकनी जेम कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - ३१.२१-२४. ७. शुक्लपाक्षिकना पण एम चार उद्देशको कहेवा. यावत्-हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथिवीना कापोतलेश्यावाळा शुक्रूपाक्ष क्षुद्रकल्योजराशिप्रमित नैरयिको क्यांथी आवीने उत्पन्न थाय ? [उ०] पूर्ववत् उत्तर जाणवुं यावत् - परप्रयोगथी उत्पन्न थता नथी. 'है भगवन् ! ते मज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. बधा मळीने अठ्यावीश उद्देशको थाय छे. ३१.२५ - २८. एकत्रीशमा शतकमां ७-२८ उद्देशको समाप्त. एकत्रीशमं उपपातशतक समाप्त. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं सयं १-२८ उद्देसा। १. [३०] खुडागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववजंति ? किं नेराएमु उपवर्जति ? तिरिक्खजोणिएसु उववजंति ? [उ०] उधट्टणा जहा वकंतीए। . ___२. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उच्चदंति ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि वा भट्ट वा बारस वा सोलस षा संस्खेजा वा असंखेजा वा उच्चद॒ति ।। ३. [प्र०] ते गं भंते ! जीवा कहं उबटुंति ? [उ०] गोयमा! से जहा नामए पवए-एवं तहेव । पर्व सो चेव गमओ जाव-आयप्पयोगेणं उच्चटुंति, नो परप्पयोगेणं उष्चटुंति । ४. [प्र०] रयणप्पभापुढविखुड्डागकड.? [उ०] एवं रयणप्पभाए वि, एवं जाव-अहेसत्तमाए । एवं खुहागतेयोगखुदागदावरजुम्म-खुडागकलियोगा। नवरं परिमाणं जाणियचं, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते पति । ३२-१. ५. कण्हलेस्सकसजुम्मनेरया-पवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उच्चवणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियवा निरवसेसा। नवरं 'उच्चदृतित्ति अभिलावो भाणियचो. सेसं तं चेव । 'सेवं भंते! सेवं भंते !त्ति जाव-विहरद । बत्तीसइमं उबट्टणासयं सम्मत्तं । बत्रीशमुंशतक. १-२८ उद्देशको. क्षुद्रकृतयुग्म राशि- १. [प्र०] हे भगवन् । क्षुद्रकृतयुग्म राशिरूप नैरयिको मरण पामीने तुरत क्यों जाय, अने क्या उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोमा रूप नैरयिकोनी उत्पन्न थाय छे ? तियंचयोनिकोमा उत्पन्न थाय छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] "व्युत्क्रान्तिपदमां कह्या प्रमाणे समजवू. उदना. एकसमये उदतनानी २. [प्र०] हे भगवन् । ते जीवो एक समये केटला उद्वर्ते-मरण पामे ? [उ०] हे गौतम ! चार, आठ, बार, सोळ, संख्या. संख्याता के असंख्याता जीवो उद्वर्ते छे. केवी रीते उद्धते. ३. प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो केवी रीते उद्वर्ते ! [उ०] हे गौतम | जेम कोइ एक कूदनार-इत्यादि पूर्वे कहेल गमक जाणवो. यावत्-ते पोताना प्रयोगथी उद्वर्ते छे, पण परप्रयोगथी उद्वर्तता नथी. कृतयुग्मरूप रन- ४.प्र०] रत्नप्रभा पृथिवीना क्षुद्र कृतयुग्म राशिरूप नैरयिको नीकळीने क्यां जाय ! [उ०] रत्नप्रभापृथिवीना नैरयिकोनी उद्वर्तना प्रभा नैरयिकोनी उद्वर्तना. - कहेवी. ए प्रकारे यावत्-अधःसप्तम पृथ्वी सुधी पण उद्वर्तना कहेवी. एम क्षुद्र त्र्योजयुग्म, क्षुद्रक द्वापरयुग्म अने क्षुद्रक कल्योज संबंधे पण समजवं. पण विशेष ए के, परिमाण पूर्वे कह्या प्रमाणे (त्रण, सात, बे, छ, एक, पांच वगेरे) जुईं जुदुं जाणवू अने बाकी बधुं तेमज कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३२.-१. ५. [प्र०] कृष्णलेश्यावाळा क्षुद्रकृतयुग्मराशिरूप नैरयिको नीकळी क्या जाय ? [उ०] ए रीते ए क्रमवडे जेम उपपात शतकमां अठ्याश उद्देशको कह्या छे तेमज उद्वर्तना शतकमां पण बधा मळीने अठ्यावीश उद्देशको कहेवा, पण । 'उत्पन्न थाय छे तेने बदले 'उद्वर्ते छे' एवो पाठ कहेवो, अने बाकी बधुं तेमज जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. बत्रीशमु उद्वर्तनाशतक समाप्त. १* तेओ नरकथी नीकळी पर्याप्त संख्याता वर्धना आयुषवाळा मनुष्य अने तिर्यचयोनिमा उत्पन थाय छे-जुओ प्रशा• पद .५.२०४-२१८. Jain Education international Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं सयं पढमं एगिदियं सयं। १. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पगिदिया पनत्ता, तंजहा-पुढविकाइया, जाव-वणस्सइकाइया। २. [प्र०] पुढविकाइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दविहा पनत्ता, तंजहा-सुहुमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया य । ३. [प्र०] सुहुमपुढधिक्कांइया ण भंते ! कतिविहा पनत्ता? [उ०] गोयमा ! दुविहा पत्नत्ता, तंजहा-पजत्ता सुहुमपुढविकाइया य अपाता सहमपदविकाडया य । प्र०] बायरपुढविकाइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! एवं चेव, एवं आउकाइया वि चउकएणं भेदेणं भाणियचा, एवं जाव-वणस्सइकाइया । ५. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? [३०] गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिजं, जाव-अंतराइयं । ६. [प्र०] पजत्तसुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओं, तंजहा-नाणावरणिजं, जाव-अंतराइयं । तेत्रीशमुं शतक प्रथम एकेन्द्रिय शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे- एकेन्द्रियना प्रकार. पृथिवीकायिक अने यावत्-वनस्पतिकायिक. २. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे.. ते पृथिवीकायना आ प्रमाणे-सूक्ष्म पृथिवीकायिक अने बादर पृथिवीकायिक. ३.. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे. ते सूक्ष्म पृथिवीकायना आ.प्रमाणे-पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक अने अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक. ___४. [प्र०] हे भगवन् ! बादर पृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! उपर कह्या प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे चादर पृथिवीकायिअप्कायिकोना पण चार भेद कहेवा. ए रीते यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी समजवु. ५. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय ! उ०] हे गौतम ! तेओने आठ कर्मप्रकृतिओ कर्मप्रकृतिओ. होय. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय अने यावत्-अंतराय. ____६. [प्र०) हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय ! [उ०] हे गौतम ! तेओने आठ कर्मप्रकृतिओ होय छे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय अने यावत- अंतराय. प्रकार. प्रकार. कना प्रकार. Jain Education international Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक ३३.-एकान्द्रय शतक १. ७. [प्र०] अपजत्तबायरपुढविक्काइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! एवं चेव । ८. [प्र०] पजत्ताबायरपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ-१ [उ०] एवं चेव ८ । एवं एएणं कमेणं जावबायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ति। ९. [प्र०] अपजत्तहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधति ? [उ०] गोयमा! सत्तविहबंधगा वि, अट्टविहबंधगा वि । सत्त बंधमाणा आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधंति, अट्ठ बंधमाणा पडिपुन्नाओ अट्ठ कम्मप्पगडीमो बंधति । १०. [प्र०] पजत्तसुहुमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्म०१ [उ०] एवं चेव, एवं सो; जाप११. [प्र०] पजत्तबायरवणस्सइकाइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधंति ? [उ०] एवं चेव । १२. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइया णं भंते! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति [उ.] गोयमा! चोद्दस कम्मपगडीयो वेदेति, तंजहा-नाणावरणिजं, जाव-अंतराइयं, सोइंदियवझं, चक्खिदियवझं, घाणिदियवझं, जिभिदियवसं, इत्यिवेदवज्झ, पुरिसवेदवझं । एवं चउकएणं भेदेणं जाव १३. [प्र०] पजत्तवायरवणस्सइकाइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? [उ०] गोयमा! एवं चेव चोइस कम्मप्पगडीओ वेदेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! ति । ३३-१। १४. [प्र०] कइविहा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववागा एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविक्काइया, जाव-वणस्सइकाइया । १५. [प्र०] अणंतरोववन्नगा णं भंते ! पुढविक्काइया कतिविहा पश्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा पनत्ता, तंजहासुहुमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया य, एवं दुपएणं भेदेणं जाव-वणस्सइकाइया। १६. [प्र०] अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ कम्म. प्पगडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिजं, जाव-अंतराइयं । ७. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय ! [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. ८. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकोने केटली कर्म प्रकृतिओ होय ! [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी प्रमाणे ज जाणवू.ए रीते ए क्रमथी यावत्-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिको सुधी समजq. कर्मप्रकृतिओनो ९. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओ बांधे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ सात कर्मप्रकृतिओ बन्ध, भने आठ कर्मप्रकृतिओ बांधे छे. ज्यारे सात कर्मप्रकृतिओ बांधे त्यारे आयुष सिवायनी सात कर्मप्रकृतिओ बांधे अने ज्यारे आठ कर्मप्रकृतिओने बांधे त्यारे परिपूर्ण आठे कर्म प्रकृतिओ बांधे.. १०. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओ बांधे ? [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. तथा ए रीते सर्व एकेन्द्रिय संबंधे दंडको कहेवा. यावत्- . ___११. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिको केटली कर्मप्रकृतिओ बांधे ! [उ०] हे गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू. कर्मप्रकृतिओर्नु १२. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ चौद कर्मप्रकृतिओ वेदन वेदे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय अने यावत्-८ अंतराय, तथा ९ श्रोत्रेन्द्रियवध्य (श्रोत्रेन्द्रियावरण), १० चक्षुरिंद्रियावरण, ११ घ्राणेंद्रियावरण, १२ जिह्वेन्द्रियावरण, १३ स्त्रीवेदावरण अने १४ पुरुषवेदावरण. ए रीते, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त अने अपर्याप्सना चार मेदपूर्वक यावत्-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक सुधी समजवू. यावत् १३. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिको केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ! [उ०] हे गौतम ! उपर प्रमाणे चौद कर्म प्रकृतिओने वेदे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३३-१. अनन्तरोपपन्न एक १४. प्र०] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्न (तुरत उत्पन्न थयेला) एकेंद्रिय जीवो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! न्द्रियना प्रकार. अनंतरोपपन्न एकेंद्रियो पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ पृथिवीकायिक, यावत्-५ वनस्पतिकायिक. १५. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्न पृथ्वीकायिको केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-सूक्ष्म पृथ्वीकायिको अने बादर पृथ्वीकायिको. ए प्रमाणे वे भेद वडे यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी समजवु. . अनन्तरोपपन्न एके १६. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न सूक्ष्मपृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे! उ०] हे गौतम! तेओने आठ न्द्रियने कर्म कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय अने यावत्-८ अंतराय. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३३.-एकेन्द्रिय शतक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१९ १७. प्रि०ा अणंतरोववनगबादरपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा ! अट्ट कम्मप्पयडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिजं, जाव-अंतराइयं । एवं जाव-अणंतरोवपन्नगबादरवणस्सइकाइयाणं ति। १८. प्र०] अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधति ? [उ.] गोयमा! आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधंति । एवं जाव-अणंतरोववनगबादरवणस्सइकाइय त्ति । १९. [प्र०] अणंतरोवपन्नगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ वेदेति ? [उ०] गोयमा ! चउद्दस कम्मप्पगडीओ वेदेति, तंजहा-नाणावरणिजं, तहेव जाव-पुरिसवेदवज्झं । एवं जाव-अणंतरोववन्नगबादरवणस्सइकाइय ति । 'सेव भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । ३३-२। २०. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा पंचविहा परंपरोववनगा पगिदिया पञ्चत्ता, तंजहा-पुढविकाइया-एवं चउक्कओ भेदो जहा ओहिउद्देसए । २१. [प्र.] परंपरोववन्नगअपजत्तसुहुमपुदविक्काइयाणं भंते! कह कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ.] एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसए तहेव निरवसेसं भाणियन्त्रं जाव-'चउइस वेदेति' । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । ३३-३ । २२. अणंतरोगाढा जहा अणंतरोववनगा ३३-४ । २३. परंपरोगाढा जहा परंपरोववन्नगा ३२-५॥ २४. अणंतराहारगा जहा अणंतरोववन्नगा ३३-६ । २५. परंपराहारगा जहा परंपरोववन्नगा ३३-७। २६. अणंतरपज्जत्तगा जहा अणंतरोववन्नगा ३३-८ । २७. परंपरपज्जत्तगा जहा परंपरोववन्नगा ३३-९ । २८. चरिमा वि जहा परंपरोववन्नगा तहेव ३३-१०। २९. एवं अचरिमा वि ११ । एवं एए एक्कारस उद्देसगा। 'सेवं भंते ! सेवं भंते' त्ति । जाव-विहरइ । पढमं एगिदियसयं समत्तं । १७. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न बादर पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आप्रमाणे-१ज्ञानावरणीय अने यावत्-अंतराय. ए प्रमाणे यावत्-८ अनंतरोपपन्न बादर वनस्पतिकायिक संबंधे जाणवू. १८. प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न सूक्ष्म पृथिवीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओ बांधे ! [उ०] हे गौतम! तेओ आयुष सिवाय अनन्तरोपपत्र एके न्द्रियने कर्मप्रकसात कर्मप्रकृतिओ बांधे छे. ए प्रमाणे यावत्-अनंतरोपपन्न बादरवनस्पतिकायिक सुधी जाणवं. तिओनो बन्ध. १९. प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न सूक्ष्म पृथ्वीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओ वेदे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ चौद कर्म- अनन्तरोपपन्न एकेप्रकृतिओने वेदे छे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय अने यावत्-१४ पुरुषवेदावरण. ए प्रमाणे यावत्-अनंतरोपपन्न बादर वनस्पतिका न्द्रियने कर्मप्रकृति ओर्नु वेदन. यिको सुधी समजवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ते एमज छे'. ३३-२. २०. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न (जेनी उत्पत्तिने बेत्रण वगेरे समयो थयेला छे एवा) एकेन्द्रियो केटला प्रकारना कह्या छे ! (उ०] परंपरोपपन्न एकेन्द्रि योना प्रकार. हे गौतम! पांच प्रकारना कह्या छे, ते आप्रमाणे-पृथिवीकायिक-ए प्रमाणे औधिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे प्रत्येकना चार चार भेद जाणवा. २१. (प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय ! उ०] हे गौतम ! एप्रमाणे- परंपरोपपन्न एकेन्द्रि पने कर्मप्रकृतिओ. ए अभिलापवडे औधिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे निरवशेष कहेवू. यावत्-चौद कर्मप्रकृतिओने वेदे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३३-३. २२. अनन्तरोपपन्ननी पेठे अनन्तरावगाढ संबंधे समजवु. ३३-४. २३. परंपरोपपन्ननी पेठे परंपरावगाढ संबंधे समजवु. ३३-५. २४. अनन्तरोपपन्ननी पेठे अनन्तराहारक संबंधे समजवू. ३३-६. २५. परंपरोपपन्ननी पेठे परंपराहारक संबंधे समजवू. ३३-७. २६. अनंतरोपपन्ननी पेठे अनन्तर पर्याप्त विषे पण जाणवु. ३३-८. २७. परंपरोपपन्ननी पेठे परंपर पर्याप्त संबंधे समजबु. ३३-९.' २८. परंपरोपपत्ननी पेठे चरम संबंधे पण समजवू. ३३-१०. २९. ए रीते अचरमो संबंधे पण समजवू. ए प्रमाणे ए अगियार उद्देशको कह्या. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'. ३३-११. तेत्रीशमा शतकमा प्रथम एकेन्द्रिय शतक समाप्त. . Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३३.-एकेन्द्रिय शतक २. बीअं सयं । १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा पगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया, जाप-वणस्सइकाइया। ___२. [प्र०] कण्हलेस्सा णं भंते ! पुढविकाइया कइविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-मुहुमपुढविकाइया य बादरपुढविकाइया य। ____३. [प्र०] कण्हलेस्सा णं भंते ! सुहुमपुढविकाइया कइविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! एवं पएणं अमिलावेणं चउक्कभेदो जहेव ओहिउद्देसए, जाव-वणस्सइकाइय त्ति । ४. [सं०] कण्हलेस्सअपजत्तसुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] एवं चेव एएणं अभिलावणं जहब ओहिउद्देसए तहेव पन्नत्ताओ, तहेव बंधंति, तहेव वेदेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। ५.प्र० काविहा णं भंते ! अणंतरोववधगकण्हलेस्सएगिदिया पन्नत्ता? [उ० गोयमा! पंचविहा अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा पगिदिया-एवं एएणं अभिलावेणं तहेव दुयओ भेदो जाव-वणस्सइकाइय त्ति। ६. [प्र०] अणंतरोववन्नगकण्हलेस्ससुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] एवं एएणं अमिलावणं जहा ओहिओ अणंतरोववनगाणं उद्देसओ तहेव जाव-वेदेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति । ७. [प्र०] कइविहा णं भंते ! परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! पंचविहा परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया-एवं एएणं अभिलावेणं तहेव चउकओ भेदो जाव-वणस्सइकाइय ति। ८. [प्र०] परंपरोववन्नगकण्हलेस्सअपजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिओ परंपरोववन्नगउद्देसओ तहेव जाव-वेदेति । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिएगिदियसए पकारस उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेस्ससते वि भाणियचा जाव-अचरिमचरिमकण्हलेस्सा एगिदिया। बितियं एगिदियसयं समत्तं । द्वितीय एकेन्द्रिय शतक. कृष्णलेश्यावाळा १. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रिय जीवो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियो एकेन्द्रियोना प्रकार. का पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ पृथिवीकायिक अने यावत्-५ वनस्पतिकायिक. पृथिवीकायिकोना २. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा पृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छे! [उ.] हे गौतम ! बे प्रकारना छे, ते आ प्रकार. प्रमाणे-१ सूक्ष्म पृथिवीकायिक अने २ बादर पृथिवीकायिक. कृष्णलेश्यावाळा ३. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा सूक्ष्म पृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! जेम औधिक सूक्ष्म पृथिवीकायिकोना प्रकार. उद्देशकमां कयुं छे तेम ए अभिलाप वडे चार भेदो यावत्-वनस्पतिकायिको सुधी जाणवा. ४. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय ! [उ०] *उपर प्रमाणे जेम औधिक उद्देशकमां कहुं छे तेम ए अभिलाप वडे ते रीते ते कर्मप्रकृतिओ कहेवी. ते कर्मप्रकृतिओ तेवी रीते बांधे छे अने तेवी रीते तेनुं वेदन पण करे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ३३. २. अनन्तन्तरोपपन्न ५. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियो केटला प्रकारना छे ? (उ०] हे गौतम ! अनन्तरोपपन्न कृष्णकृष्णलेश्यावाव्य एकेन्द्रियोना लेश्यावाळा एकेन्द्रियो पांच प्रकारना कह्या छे. ए रीते ए अभिलापवडे पूर्वनी प्रमाणे तेना बे मेद यावत्-वनस्पतिकाय सुधी जाणवा. प्रकार. ६. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ? [उ०] ए प्रमाणे पूर्वे कहेला अमिलाप वडे औधिक अनन्तरोपपन्नना उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'वेदे छे' त्यासुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३३. ३. परंपरोपपन्न कृष्ण- ७. [प्र०] हे भगवन्! परंपरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियो केटला प्रकारना कह्या छ ? उ०] हे गौतम! परंपरोपपन्न एकेन्द्रियो केश्यावाग एके न्द्रियना प्रकार पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिको वगेरे. एम ए अमिलापवडे तेज प्रकारे चार मेद यावत्-वनस्पतिकाय सुघी कहेवा. ८. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय छे ! [उ०] ए प्रमाणे ए अभिलापवडे औधिक उद्देशकमां कहेल परंपरोपपन्न संबंधी बधी हकीकत अहीं जाणवी. तेज प्रमाणे यावत्-वेदे छेए प्रकारे ए अभिलापवडे जेम औधिक एकेन्द्रियशतकमा अगियार उदेशको कह्या छे तेम कृष्णलेश्या शतकमां पण कहेवा, यावत्-अचरम अने चरम कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियो सुधी कहे. तेत्रीशमा शतकमां बीजु एकैद्रिय शतक समाप्त. Jain Education international Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३३.-एकेन्द्रिय शतक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२१ तईयं सयं. १. जहा कण्हलेस्सहिं भणियं एवं नीललेस्सेहि वि सयं भाणियचं । 'सेवं भंते! सेवं भंते ति। ततियं एगिंदियसयं समत्तं । त्रीजुं एकेन्द्रिय शतक. १. [प्र०] जेम कृष्णलेश्यावाळा संबंधे कयुं तेम नीललेश्यावाळा संबन्धे पण शतक कहेवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. तेत्रीशमा शतकमां त्री एकेन्द्रिय शतक समाप्त. चउत्थं सयं. १. एवं काउलेस्सेहि वि सयं भाणियचं, नवरं 'काउलेस्से'ति अभिलावो भाणियो । चउत्थं एगिदियसयं समत्तं । चोथु एकेन्द्रिय शतक. १. ए रीते कापोतलेश्यावाळा संबंधे पण शतक कहे. पण विशेष ए के, 'कापोतलेश्यावाळा' एवो अभिलाप-पाठ कहेवो. तेत्रीशमा शतकमां चोथु एकेन्द्रिय शतक समाप्त. पंचमं सयं. १. [H०] कइविहा णं भंते ! भवसिद्धीया एगिंदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविक्काइया, जाव-वणस्सइकाइया, भेदो चउकओ जाव-वणस्सइकाइय ति। २. [प्र०] भवसिद्धियअपजत्तसुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ.] एवं एएणं अमिलावेणं जहेव पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धियसयं पि भाणियचं । उहेसगपरिवाडी तहेव जाव-अचरिमो ति। 'सेवं भंते! सेवं भंते ति । पंचम एगिदियसयं समत्तं । पांचमुं एकेन्द्रिय शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक एकेदियो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! भवसिद्धिक एकेन्द्रियो पांच प्रकारना भवसिद्धिक एकेन्द्रि कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ पृथिवीकायिक अने यावत्-५ वनस्पतिकायिक. एओना चारे भेद वगेरे हकीकत वनस्पतिकायिक सुधी पना प्रकार जाणवी. ___२. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिनिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय छे ? [उ०] ए रीते ए अभिलापवडे जेम पहेलं एकेंद्रिय शतक कर्तुं छे तेम आ भवसिद्धिक शतक पण कहे. उद्देशकोनी परिपाटी पण तेज रीते यावत्-अचरम उद्देशक सुधी कहेवी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पांचमु एकेन्द्रिय शतक समाप्त. छठं सयं. १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया पगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविक्काइया जाव-वणस्सइकाइया। __ छ8 एकेन्द्रिय शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! कृष्णलेश्यावाळा कृष्णलेश्य भवसि शिक एकेन्द्रियोना भवसिद्धिक एकेन्द्रियो पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ पृथ्वीकायिक अने यावत्-५ वनस्पतिकायिक. प्रकार. ४१ भ• सू० . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ रायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३३.-एकेन्द्रिय शतक ७. - २. [प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविकाइया णं भते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा पनत्ता, तंजहासुहुमपुढविक्काइया य बायरपुढविक्काइया य । . ३. [प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहुमपुढविक्काइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! दुविहा पनत्ता, तंजहा-पजत्तंगा य अपजत्तगा य । एवं बायरा वि । एएणं अभिलावेणं तहेव चउक्कओ भेदो भाणियो। ४.प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धीयअपजत्तसुहमपुढविक्काइयाणं भंते | कइ कम्मप्पगडीओ पनत्ताओ? उ. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए तहेव जाव-वेदेति । ५. [प्र०] कइविहा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववनगा. जाव-वणस्सइकाइया । ६. [प्र०] अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविक्काइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुहुमपुढविक्काइया-एवं दुयओ भेदो। ७.[प्र०] अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिओ अणंतरोववन्नउद्देसओ तहेव जाव वेदेति । एवं एएणं अभिलावणं एकारस वि उद्देसगा तहेव भाणियवा जहा ओहियसए जाव-'अचरिमो'त्ति। ___ छठें एगिदियसयं समत्तं । २. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक पृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! तेओ बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-सूक्ष्मपृथिवीकायिको अने बादरपृथिवीकायिको. ३. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-पर्याप्तको अने अपर्याप्तको. ए रीते बादर पृथिवीकायिको संबंधे पण समजवु. ए अमिलापवडे तेज प्रकारे चार मेदो कहेवा. .. ४. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय छे ! [उ०] एम ए अभिलाप वडे जेम औधिक उद्देशकमां कह्यं छे तेम आ संबंधे यावत्-'वेदे छे' त्या सुधी समजवु. निन्तरोपपन्न कृष्ण ५. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! भन्य एकेन्द्रियना' तेओ पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-अनन्तरोपपन्न पृथिवीकायिक अने यावत्-वनस्पतिकायिक. प्रकार. ६. प्रि० हे भगवन् । अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक प्रथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छ। उनहे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-सूक्ष्म पृथिवीकायिको अने बादर पृथिवीकायिको-ए रीते बे भेद कहेवा. ७. [प्र. हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय छे! उ०] ए प्रमाणे ए अमिलापथी जेम अनन्तरोपपन्न संबंधे औधिक उद्देशकमां कडं छे तेमज आ संबंधे पण यावत्-'वेदे छे' त्या सुधी जाणवू. ए रीते ए अभिलापवडे औधिक शतकमां कह्या प्रमाणे अगियार उद्देशको यावत्-छेला 'अचरम' नामना उद्देशक सुधी कहेवा. तेत्रीशमा शतकमां छटुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. सत्तमं सयं. १. जहा कण्हलेस्सभवसिद्धिपहिं सयं भणियं एवं नीललेस्सभवसिद्धिपहि वि सयं भाणियचं। . सत्तमं एगिदियसयं समत्तं। सातमुं एकेन्द्रिय शतक. १. जे रीते कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे शतक कर्तुं छे ते ज रीते नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो विषे पण शतक कहेवू. तेत्रीशमा शतकमा सातमुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ शतक ३३.-एकेन्द्रिय शतक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. . अट्ठमं सयं. १. एवं काउलेस्सभवसिद्धीएहि वि सयं । अट्ठमं एगिदियसयं समत्तं । आठमुं एकेन्द्रिय शतक. १. ए ज रीते कापोतलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो विषे पण शतक कहेQ. तेत्रीशमा शतकमां आठमुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. नवमं सयं. १. [प्र०] काविहा गं भंते! अभवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता [उ०] गोयमा! पंचविहा अभवसिद्धिया एगिदिया पनत्ता, तंजहा-पुढविक्काइया, जाव-वणस्सइकाइया । एवं जहेव भवसिद्धीयसयं भणियं, [एवं अभवसिद्धियसयं । ] नवरं नव उद्देसगा चरमअचरमउद्देसगवजा, सेसं तहेव ।। नवमं एगिदियसयं समत्तं । नवमुं एकेन्द्रिय शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! अभवसिद्धिक एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! अभवसिद्धिक एकेन्द्रियो पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ पृथिवीकायिक अने यावत्-५ वनस्पतिकायिक. ए प्रमाणे जे रीते भवसिद्धिक संबंधे शतक कह्यु छे ते ज रीते अभवसिद्धिको संबंधे पण शतक कहे. पण विशेष ए के, 'चरम' अने 'अचरम' सिवायना नव उद्देशको कहेवा. अने बाकी बधुं तेमज समज. तेत्रीशमा शतकमां नवमुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. दसमं सयं. १. एवं कण्हलेस्सअभवसिद्धीयएगिदियसयं पि। दसमं एगिदियसयं समत्तं । दसमुं एकेन्द्रिय शतक. १. ए ज रीते कृष्णलेश्यावाळा अभवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण शतक समजवु. तेत्रीशमा शतकमां दशमुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. इक्कारसमं सयं. १. नीललेस्सअभवसिद्धीयएगिदिएहि वि सयं । इक्कारसमं एगिदियसयं समत्तं । अगियारमुं एकेन्द्रिय शतक. १. ए ज प्रकारे नीललेश्यावाळा अभवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण शतक कहे. तेत्रीशमा शतकमा अगियारमुं एकेंद्रिय शतक स __ बारसमं सयं. १, काउलेस्सअभवसिद्धीयसयं, एवं चत्तारि वि अभवसिद्धीयसयाणि, णव णव उद्देसगा भवंति, एवं एयाणि पारस एगिदियसयाणि भवंति। बारसमं एगिदियसयं समत्तं । तेत्तीसइमं सयं समत्तं । बारमुं एकेन्द्रिय शतक. १. ए ज रीते कापोतलेश्यावाळा अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय संबंधे पण शतक कहे. ए प्रमाणे अभवसिद्धिक संबंधे चार शतको अने तेना नव नव उद्देशको छे. ए रीते ए बार एकेंद्रिय शतको छे. तेत्रीशमा शतकमां बारसु एकेंद्रिय शतक समाप्त. तेत्रीशमुं शतक समाप्त. Jain Education international Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोत्तीसमं सयं पढमं एगिदियसयं पढमो उद्देसो। १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! पंचविहा पगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविक्काइया, जाव-वणस्सइकाइया । एवं पतेणं चेव चउक्कएणं भेदेणं भाणियधा जाव-वणस्सइकाइया । २.प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए, से गं भंते ! कइसमएणं विग्गहेणं उववजेजा [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। ३. [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव-उववजेजा' [उ.] एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ पन्नचाओ, तंजहा-१ उजुयायता सेढी, २ एगयओवंका, ३ दुहओवंका, ४ एगयओखहा, ५ दुहओखहा, ६ चकवाला, ७ अद्धचक्कवाला। १ उजायताए सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। २ एगोवंकाए. एकेन्द्रियना प्रकार. चोत्रीशमुं शतक प्रथम एकेन्द्रिय शतक प्रथम उद्देशक. [आ शतकमां एकेन्द्रियो संबंधे कहेवार्नु छे. तेना अवान्तर बार शतक छे. तेमा प्रथम शतकना प्रथम उद्देशकमां एकेन्द्रियोनी गति संबंधे कथन छे-] १. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! एकेन्द्रियो पाँच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिको, यावत्-वनस्पतिकायिको. एम पूर्वोक्त (बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अने अपर्याप्त) ए चार भेद यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी कहेवा. २. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव, जे आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमान्ता -पूर्व दिशाने छेडे मरणसमुदूधात करीने आ रत्नप्रभा पृथिवीना पश्चिम चरमान्तमां-पश्चिम दिशाने अन्ते अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! एक समय, बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ३. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के तेओ एक समय, बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ए प्रमाणे में सात श्रेणिओ कही छे, ते आ प्रमाणे-१ ऋज्वायत (सीधी लांबी), २ एक तरफ वक्र, ३ द्विधा वक्र, . ४ एकतः खा (एक तरफ त्रसनाडी सिवायना आकाशवाळी), ५ द्विधाखा (बन्ने तरफ त्रसनाडी सिवायना आकाशवाळी), ६ चक्रवाल (मंडलाकार ) अने ७ अर्धचक्रवाल (अर्धमंडलाकार ). *जो पृथिवीकायिक ऋज्वायत श्रेणिथी उत्पन्न थाय तो ते एक समयनी अपर्याप्त सूक्ष्म पृथि. वीकायिकनी गति. ऐक, वे अने त्रण समय थवानुं कारण. ३* सात श्रेणिओना खरूपवर्णन माटे जुओ-भग० श०२५ उ०३ पृ. २१३ नुं टिप्पन. Jain Education international Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-एकेन्द्रिय शतक १.-उ० १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२५ सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा । ३ दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। से तेणटेणं गोयमा ! जाव-उववजेजा। ४. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोह. णित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते पजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते। कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा-सेसं तं चेव, जाव-से तेणट्टेणं जाव-विग्गहेणं उववजेजा । एवं अपजत्तसुहुमपुढविकाइओ पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते बादरपुढविकाइएम अपजत्तपसु उववाएयचो, ताहे तेसु चेव पज्जत्तएसु ४। एवं आउक्काइएसु चत्तारि आलावगा-१ सुहुमेहि अपजत्तपहिं, २ ताहे पज्जत्तपहिं, ३ बायरेहिं अपजत्तपहिं, ४ ताहे पजत्तरहिं उववाएयचो । एवं चेव सुहुमतेउकाइएहि वि अपज्जत्तपहिं १, ताहे पजत्तपहिं उववाएयधो २।। ५. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपजत्तबादरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा? [उ०] सेसं एवं पजत्राबायरतेउकाइयत्ताए उववाएयचो ४ । वाउकाइएसु सुहुमवायरेसु जहा आउकाइपसु उववाहो तहा उववाएयवो ४ । एवं वणस्सइकाइएसु वि २० । ____६. [प्र०] पजत्तसुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० ? [उ०] एवं पजत्तसुहुमपुढविकाइओ वि पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयंवो जाव-बादरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु वि ४० । एवं अपजत्तवादरपुढविकाइओ वि ६० । एवं पजत्तबादरपुढविकाइओ वि ८० । एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, एयाए चेव वत्तच्चयाए एएसु चेव वीसइठाणेसु उववाएयचो १६० । सुहुमतेउकाइओ वि अपजत्तओ पजत्तओ य एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयच्यो। विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. जो एकवक्र श्रेणिथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. जो ते द्विधावक श्रेणिथी उत्पन्न थाय तो त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ते कारणथी हे गौतम ! 'एक समय, बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय छे' एम कर्दा छे. ४. प्र०] हे भगवन्! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जे आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमान्तमां मरणसमुद्घात करीने आ अपर्याप्त सूक्ष्म पृयि-. रत्नप्रभा पृथिवीना पश्चिम चरमान्तमा पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रह . बीकायिकनी पर्याप्त । समपना वह सूक्ष्म पृथिवीकायिकगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! एक समयनी [बे समयनी, के त्रण समयनी ] विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय-इत्यादि बधुं पूर्वनी पणे विग्रहगति. पेठे यावत्-ते कारणथी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय छे-त्यां सुधी जाणवू. एम अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनो पूर्वचरमान्तमा मरणसमुद्घात करावी पश्चिम चरमान्तमा बादर अपर्याप्त पृथिवीकायिकपणे उपपात कहेवो अने पुनः त्यां ज पर्याप्तपणे उपपात कहेवो. ए प्रमाणे अप्कायिकने विषे पूर्वोक्त चार आलापक कहेवा. १ सूक्ष्म अपर्याप्त, २ सूक्ष्म पर्याप्त, ३ बादर अपर्याप्त अने ४ बादर पर्याप्त अप्कायिका उपपात कहेवो ४. एम सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त अने पर्याप्तमा उपपात *कहेवो ६२. ५. [१०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जे आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमान्तमा मरणसमुद्घात करीने मनुष्यक्षेत्रमा अप० सू० पृथिवी अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रह गतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] बाकी बधुं कायिकनी बादर तेजस्कायिकपणे पूर्वनी पेठे समज. एम पर्याप्त बादरतेजस्कायिकपणे पण उपपात कहेवो ४. जेम सूक्ष्म अने बादर अप्कायिकमा उपपात कह्यो तेम विग्रहगति. सूक्ष्म अने बादर वायुकायिकमां पण उपपात कहेवो. वनस्पतिकायिकमां पण ए प्रमाणे जाणवू. ४. (२०). ____६. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना-इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न. [उ०] पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी- पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवी कायिक. कायिकने पण रत्नप्रभाना पूर्व चरमांतमां मरणसमुद्घात करावी अनुक्रमे ए वीशे स्थानोमां यावत्-बादरपर्याप्त वनस्पतिकायिक सुधी उत्पन्न कराववो. (४०). ए प्रमाणे अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिक (६०) अने पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकने पण पूर्ववत् जाणQ (८०). एम प्रमाणे अप्कायिकने पण चारे गमकने आश्रयी पूर्वचरमांतमा समुद्घातपूर्वक ए पूर्वोक्त वक्तव्यतावडे उपरना वीश स्थानकोमा उत्पन्न कराववो (१६०). अपर्याप्त अने पर्याप्त बन्ने प्रकारना सूक्ष्म तेजस्कायने पण ए ज वीश स्थानकोमा उपर कह्या प्रमाणे उत्पन्न कराववो (२००). ४ * रत्नप्रभाना पश्चिम चरमान्तमा बादर तेजस्कायिकनो असंभव होवाथी सूक्ष्म पर्याप्त अने अपर्याप्तना बे भांगा कया अने बादरपर्याप्त अने अपर्याप्तना बे भांगा मनुष्यक्षेत्रने आश्रयी पछीना.सूत्रद्वारा कहे छे. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे- शतक ३४.-एकेन्द्रिय शतक १.-उ०१. ७. [प्र.] अपजंत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएं पचच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविक्काइयत्ताए उववजित्तर से गं भंते! कासमहएणं विग्गहेणं उववजेजा [उ.] सेसं तहेव जाव-से तेण?णं । एवं पुढविक्काइएसु चउविहेसु वि उववाएयचो, एवं आउकाइएसु चउविहेसु वि, तेउकाइएसु सुहुमेसु अपजत्तपसु पजत्तपसु य एवं चेव उववाएयष्यो। ८.[प्र०] अपजत्तबायरतेउक्काइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपजत्तबायरतेउक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमएणं०१ [उ०] सेसं तं चेव । एवं पजत्तयायरतेउक्काइयत्ताए वि उववाएयवो। वाउकाइयत्ताए य वणस्सइकाइयत्ताए य जहा पुढविकाइएसु तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववाएयो । एवं पजत्तवायरतेउकाइ वि समयखेत्ते समोहणावेत्ता एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयच्चो। जहेव अपजत्तओ उववाइओ, एवं सम्वत्थ वि बायरतेउकाइया अपजत्तगा य पजत्तगा य समयखेत्ते उववाएयच्चा समोहणावेयवा वि २४०। वाउकाइया वणस्सकाइया य जहा पुढविकाइया तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववाएयवा । जाव ९. [प्र०] पजत्ताबायरवणस्सइकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते पजत्तबायरवणस्सइकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं० [उ०] सेसं तहेव जाव-से तेण?णं० । १०. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं० १ [उ०] सेसं तहेव निरवसेसं । एवं जहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते सच्चपदेसु वि समोहया पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाइया, जे य समयखेत्ते समोहया पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाइया, एवं एएणं चेव कमेणं पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयचा तेणेव गमएणं । एवं एएणं गमएणं दाहिणिल्ले चरिमंते समोहयाणं उत्तरिले चरिमंते समयखेत्ते य उववाओ, एवं चेव उत्तरिले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयवा तेणेव गमएणं । अपर्याप्त बादरतेज ७. प्र हे भगवन! अपर्याप्त बादर तेजस्काय, जे मनुष्यक्षेत्रमा मरणसमदघात करी रत्नप्रभा पृथ्वीना पश्चिम चरमांतमां स्कायनो उत्पाद. अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] बाकीर्नु पूर्वनी पेठे यावत्-ते कारणथी एम कहेवाय छे-त्यां सुधी जाणवू. ए रीते (अपर्याप्त बादर तेजस्कायने) चारे प्रकारना पृथिवीकायिकोमां, चारे प्रकारना अप्कयिकोमां तथा अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकोमां पण उपजाववो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक, जे मनुष्यक्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी मनुष्य क्षेत्रमा अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य होय ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय! (उ०] बाकी बधु पूर्वनी पेठे जाणवु. अने ए जरीते तेने पर्याप्त बादर तेजस्कायपणे पण उत्पन्न कराववो. जेम पृथिवीकायिकोमा कयुं छे तेम चारे भेदथी वायुकायिकपणे अने वनस्पतिकायिकपणे पण उपजाववो. ए रीते पर्याप्त बादर तेजस्कायिकने पण समयक्षेत्रमा समुद्घात करावी ए ज वीशस्थानकोमा उत्पन्न कराववो. जेम अपर्याप्तनो उपपात कह्यो तेम सर्वत्र पण पर्याप्त अने अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकोने समयक्षेत्रमा उत्पन्न कराववा अने समुद्घात कराववी. (२४०) जेम पृथिवीकायिकोनो उपपात कह्यो तेम चार भेदथी वायुकायिको (३२०) अने वनस्पतिकायिकोने पण उपजाववा. (४००) यावत्पर्याप्त बादर वनस्प ९. [प्र०] हे भगवन् ! जे पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमांतमा मरणसमुद्घात करी आ रत्नप्रभा तिकायिकनो उत्पादः पृथिवीना पश्चिम चरमांतमा बादर वनस्पतिकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते, हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] बाकी बधुं तेमज जाणवू. यावत्-ते कारणथी एम कहेवाय छे-त्यांसुधी समजq. अपर्याप्त सूक्ष्म पृथि- १०. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना पश्चिम चरमांतमां समुद्घात करी आ रन प्रभा पृथिवीना पूर्व चरमांतमां अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पाद. उत्पन्न थाय ? [उ०] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे जेम पूर्व चरमांतमा सर्वपदोमां समुद्घात करी पश्चिम चरमांतमा अने समय क्षेत्रमा उपपात कह्यो तथा जेनो समयक्षेत्रमा समुद्घातपूर्वक पश्चिम चरमांतमां अने समयक्षेत्रमा उपपात कह्यो तेम एज क्रमवडे पश्चिम चरमांतमा अने समयक्षेत्रमा समुद्घातपूर्वक पूर्व चरमांतमां अने समयक्षेत्रमा तेज गमवडे उपपात कहेवो अने बधुं ते ज गमवडे कहेवू. ए प्रमाणे ए गमवडे दक्षिणना चरमांतमा समुद्घातपूर्वक उत्तरना चरमांतमा अने समयक्षेत्रमा उपपात कहेवो, अने ए ज रीते उत्तर चरमांतमा अने समयक्षेत्रमा समुद्घात करावी दक्षिण चरातमा अने समयक्षेत्रमा तेज गमवडे उपपात कहेवो. Jain Education international Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-एकेन्द्रिय शतक १.-उ० १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२७ ११. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए.? [उ.] एवं जहेव रयणप्यभाए जाव-से तेणटेणं० । एवं एएणं कमेणं जाव-पजत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु । १२.० अपजत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपजत्तबायरतेउक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमएणं०-पुच्छा । [उ०] गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववजिजा। १३. [प्र०] से केणटेणं० १ [उ०] एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ उजुयायता, जाव-अद्धचक्कवाला । एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमहएणं विग्गहेणं उववजेजा, से तेणटेणं० । एवं पजत्तपसु वि बायरतेउक्काइएसु । सेसं जहा रयणप्पभाए । जे वि बायरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पजत्तगा य समयखेत्ते समोहणित्ता दोच्चाए पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइपसु चउधिहेसु, आउकाइएसु चउबिहेसु, तेउकाइएसु दुविहेसु, वाउकाइएसु चउविहेसु, वणस्सकाइएसु चउविहेसु उववजंति ते वि एवं चेव दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववाएयचा । बायरतेउकाइया अपजत्तगा य पजत्तगा य जाहे तेसु चेव उववजंति ताहे जहेव रयणप्पभाए तहेव एगसमइय-दुसमइय-तिसमइयविग्गहा भाणियवा सेसं जहेव रयणप्पभाए तहेव निरवसेसं । जहा सकरप्पभाए वत्तवया भणिया एवं जाव-अहे सत्तमाए वि भाणियवा। १४. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए • उड्डलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा? [उ०] गोयमा! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुञ्चइ-'तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा' ? [उ.] गोयमा! अपजत्तमुहुमपुढविकाइए णं अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए एगपयरंमि अणुसे ११. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, शर्कराप्रभापृथिवीना पूर्व चरमांतमां मरणसमुद्घात करीने शर्कराप्रभाना अपर्याप्त सूक्ष्म एकेपश्चिम चरमांतमां अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] जेम । और न्द्रियनो शर्कराम " माना पूर्वचरमतिथी रत्नप्रभापृथिवी संबंधे का तेम आ संबंधे यावत्-'ते कारणथी एम कहेवाय छे त्यां सुधी समजवु. ए रीते अनुक्रमे यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म पश्चिमचरमाता तेजस्कायिक सुधी जाणवू. उपपात. १२. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक, शर्कराप्रभाना पूर्व चरमान्तमां मरणसमुद्घात करी पश्चिम चरमांतमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. १३. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो? [उ०] हे गौतम ! में सात श्रेणीओ कही छे, ते आ रीते-१ ऋज्वायत भने यावत्-७ अर्धचक्रवाल. जो एकवक्र श्रेणिरूप गतिथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय अने जो द्विधावक्रश्रेणीरूप गतिथी उत्पन्न थाय तो ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ते कारणथी हे गौतम ! एम कर्दा छे. ए रीते पर्याप्त बादर तेजस्कायिक संबंधे पण जाणवू. बाकी बधु रत्नप्रभानी जेम समजबु. जे पर्याप्त अने अपर्याप्त बादर तेजस्कायिको समयक्षेत्रमा समुद्घात करी बीजी पृथिवीना पश्चिम चरमांतमां चारे प्रकारना पृथिवीकायिकोने विषे, चारे प्रकारना अप्कायिकोने विषे, बे प्रकारना तेजस्कायिकोने विषे, चारे प्रकारना वायुकायिकोने विषे अने चारे प्रकारना वनस्पतिकायिकोने विषे उत्पन्न थाय छे तेओने पण बे समयनी के त्रण . समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न कराववा. ज्यारे पर्याप्त अने अपर्याप्त बादर तेजस्कायिको तेओमाज उत्पन्न थाय त्यारे तेने जेम रत्नप्रभा संबंधे कयुं तेम एक समयनी, बे समयनी अने त्रण समयनी विग्रहगति समजवी, बाकी बधु रत्नप्रभानी पेठे जाणवू. जेम शर्कराप्रभा संबंधे वक्तव्यता कही छे तेम यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी जाणवी. १४. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी सनाडीनी बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी वीकायिकनी विग्रह गति. विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम | तेओ त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी प्रण समयनी के चार एम कहेवाय छे के तेओ त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक समयनी विग्रह गतिर्नु कारण. अधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे अप० सू० पृथिवी कायिकनी बा० तेज कायिका केटा समयनी गति होय ! अपर्याप्त बादर तेज गति. ३२८ श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंमद्दे शतक ३४ - एकेन्द्रिय शतक १.३० १. दीप उववजित्तए से णं तिसमइपणं विग्गहेणं उववजेजा, जे भविष विसेढीप उववजित्तर से णं चउसमइरणं विग्गणं उपयजेज्ञा से तेपणं जाय-उपवखेखा । एवं पञ्जतसुमपुडविकाइयत्ताय वि एवं आय पक्षसमतेडकाइयतार । 19 1 १५. [०] अपपुढचिकाइए णं भंते! अहेलोग जाय समोहणित्ता जे भविष्य समयमेते अपक्षत्तवावरतेउकाइयत्ताए उववजित्तप से णं भंते ! कइसमइरणं विग्गहेणं उववजेजा ? [30] गोयमा ! दुसमइरण वा तिसमइपण वा पिग्गणं उचचलेखा [०] से केणद्वेगं० १ [४०] एवं खलु गोपमा ! मए सत्त सेडीयो पन्नताओ, संजदा-१ उखुभाषता, जाव-७ अद्धचक्कवाला । एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइरणं विग्गहेणं उववज्जेजा, दुहओवंकाए सेढी उववजमाणे तिसमइणं विग्गणं उववजेजा, से तेणट्टेणं० । एवं पजत्तपसु वि बायर उकाइपसु वि उववारयो । वाउक्कादयचणस्सइकाइयचाप चढकरणं भेदेणं जहा भाउफाहयत्तार तहेव उववापयचो २० एवं जदा अपनतम विकाइपरस गमओ भणिओ एवं पत्तमपुचिकायरस वि भागियो, तदेव बीसाए ठाणेसु उपपायो ४० । 1 १६. [प्र०]० अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहर, समोहणित्ता ० १ [उ०] एवं बायरपुढविकाइयस्स वि अपजत्तगस्स पजत्तगस्स य भाणियनं ८० । एवं आउक्काइयस्स चउविहस्स वि भाणियवं १६० । सुदुमतेडक्काइस दुबिस्स वि एवं चैव २०० । १७. [प्र०] अपात्तवावरतेडकाइए नं भंते! समयसेत्ते समोहर, समोहणित्ता जे भविष उडलोगलेत्तनालीए वाहिरिले अपक्षान्तमदविकाइयत्तार उपवजित्तर से णं भंते! कइसमइरणं विग्गणं उपयजेला १ [30] गोयमा ! दुसमहपण या तिसमइण वा चउसमहरण या विग्गणं उपयखेखा [प्र०] से केणद्वेणं १ [४०] भट्ठो जब रयणप्पभाए सहेब सत्त सेडीओ एवं जाव 1 1 १८. [२०] अपजतचायतेडकाइए णं भंते । समयसेत्ते समोहर, समोहणित्ता जे भविए उद्धलोग लेत्तनाली बाहि रिले खेत्ते पञ्चत्तमते काहयत्ताय उपपत्ति से नं भंते [of [४०] सेसं तं चैव । यिकपणे एक प्रतरमां अनुश्रेणी - समश्रेणिमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय, जे विश्रेणीमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते चार समयनी निमगतिषी उत्पन्न थाय. माटे ते कारणयी यावत् [त्रण समय के चार समपनी विग्रहगतिथी ] उत्पन्न थाप छे. ए रीते पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे अने यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकपणे जे उपजे ते माटे पण एमज जाग. १५. [प्र० ] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमां मरणसमुदूघात करी समय क्षेत्रमां अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपणे उत्पन्न धवाने योग्य हे ते, हे भगवन्! केटला समवनी विग्रहगतिथी उत्पन्न चाय [४०] है गौतम ! ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न याय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र० ] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो ? [उ०] हे गौतम! में सात श्रेणिओ कही छे, ते आ प्रमाणे- १ ऋजु आयत- सीधी लांबी श्रेणि अने यावत्-७ अर्धचक्रवाल जो ते जीब एक तरफ वक्र श्रेणीथी उत्पन्न धाय तो वे समपनी विग्रहगतिथी उत्पन्न घाय अने जो उभयतः वक्र श्रेणीची उत्पन्न थाय तो त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय, ते कारणथी एम कयुं छे. एम पर्याप्त बादर तेजस्कायिकोमां पण उपपात कराववो. अकायिकनी पेठे वायुफायिक अने वनस्पतिकाविकपणे चारे मेदवडे उपपात कराववो (२०) ९ प्रमाणे जेम अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक संबंचे गमक कह्यो ते पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक संबंधे पण गमक कहेवो अने तेज प्रकारे तेने वीशे स्थानकमां उपजाववो (४०). १६. अधोलोकक्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमां मरणसमुद्घात करी - इत्यादि पर्याप्त अने अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक संबंधे पण एमज कहेवुं. अने ए रीते चारे प्रकारना अष्कायिक संबंधे पण कहेतुं १६० बन्ने प्रकारना सूक्ष्म तेजस्कायने पण एमज जानुं २००. १७. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक समयक्षेत्रमां मरणसमुद्घात करी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहाना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपणे उत्पन्न दयाने योग्य छे ते, हे भगवन् । केटला समपनी विग्रहगतिथी उत्पन्न याय [अ०] हे गौतम ! बे समयनी, त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [ प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! खाप्रभा संबंधे पूर्वीक सात श्रेणीओना कयनरूप जे हेतु कह्यो के बाद से हेतु जाणो. अप०या० तेजस्का १८. [प्र०] हे भगवन् ! जे पर्यास बादर तेजस्कायिक समयक्षेत्रमां मरणसमुद्घात करीने उठोक क्षेत्रनी प्रसनादीनी बहारना विकनी प०सु० तेज- क्षेत्रमां पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयना विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! स्कायिकरूपे विग्रह मृति. बाकी वधुं तेमज जाण Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२९ १९. प्रि०ा अपजत्तबायरतेउक्काइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपजत्तपायरतेअसायचाए उववजित्तए से णं मंते ! कासमइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमहरण वा विग्गहेणं उववजेजा। [प्र०] से केणटेणं? [उ०] अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीयो । एवं पजत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि । वाउकाइएसु वणस्सइकाइपसु य जहा पुढविकाइएसु उववाहओ तहेव चउकएणं भेदेणं उववाएययो । एवं पजत्तबायरतेउकाइओ वि एएसु चेव ठाणेसु उववाएयधो । वाउकाइय-वणस्सइकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववाओ तहेव भाणियो। २०. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए गं भंते ! उद्दलोगखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए अहेलोगनेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमएणं०१ उ.] एवं । २१. उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहयाणं अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते उववजयाणं सो चेव गमओ निरवसेसो भाणियधो, जाव-बायरवणस्सइकाइओ पजत्तओ बायरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु उववाइओ। २२. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुदुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजति ? [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजति । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एगसमइएण वा जाव-उववजेजा' ? [उ०] एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ उजुआयता, जाव-७ अद्धचक्कवाला । उजुआययाए सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुसेढी उववजित्तए से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, जे भविए विसेदि उववजित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, से तेणटेणं जाव-उववजेजा । एवं अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइओ लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तएसु पजत्तएसु य सुहुमपुढविकाइएसु, सुहुमआउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तएसु य सुहुमवाउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तपसु बायरवाउकाइएसु, अपजत्तएसु पज्जत्तरसु १९. [प्र०] हे भगवन् । जे अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्रमा समुद्घात करी समयक्षेत्रमा अपर्याप्त बादर अपर्याप्त पावर तेजस्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते, हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! ते एक समयनी, बे तेजस्कायिकनी बाणा. समयनी के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] एम शा हेतुथी कहेवाय छे ? [उ०] रत्नप्रभा संबंधे जे हेतु कह्यो हतो तेज सात श्रेणिरूप हेतु जाणवो. एम पर्याप्त बादर तेजस्कायिकपणे पण जाणवू. जेम पृथिवीकायिकने विषे उपपात कह्यो तेम वायुकायिकोमा अने वनस्पतिकायिकोमा चारे भेदे उपपात कहेवो. ए रीते पर्याप्त बादर तेजस्कायिकनो पण एज स्थानकोमा उपपात कहेवो. जेम वायुकायिक अने वनस्पतिकायिकनो पृथिवीकायिकपणे उपपात कह्यो छे तेम आ विषे पण उपपात कहेवो. २०. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करीने अपर्याप्त सू० पृथिवी कायिकनी कोअधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते, हे भगवन् ! केटला समयनी कमाची पोलोकमा विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. विग्रहगति. २१. ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी अधोलोक क्षेत्रनी सनाडीनी बहारना क्षेत्रमा उत्पन्न थता [पृथिवीकायिकादि ] संबंधे पण तेज संपूर्ण गम कहेवो यावत्-पर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकनो पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकोमा उपपात कहेवो. २२. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना पूर्व चरमांतमा मरणसमुद्घात करी लोकना पूर्व चरमातमा लोकना पूर्व चरमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तमा पृथिवीकायिका एक समयनी, बे समयनी, त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के एक -चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ए प्रमाणे खरेखर में सात श्रेणिओ कही छे, ते आ प्रमाणे१ ऋज्वायत, यावत्-७ अर्धचक्रवाल, जो ऋज्वायत-सीधी लांबी श्रेणीथी उत्पन्न थाय तो एक समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय, एकतरफ वक्र श्रेणीथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. उभयतः वक्रश्रेणीथी उत्पन्न थाय तो जे एक प्रतरमा अनुश्रेणी-समश्रेणिथी उत्पन्न थवानो छे ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न याय, अने जे विश्रेणिमा उत्पन्न थवानो छे ते चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ते कारणथी हे गौतम ! एम कयुं छे. ए प्रमाणे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना पूर्व चरमांतमा समुद्घात कना पूर्व चरमांतमांज २ अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोमा, ४ अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिकोमा, ६ अपर्याप्त ४२ भ. सू० मा लगा . .यिनी विद्यापति. . Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे- शतक ३४. एकेन्द्रियशतक १.-उदेशक १. सुहुमवणस्सहकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तपसु य बारससु वि ठाणेसु एएणं चेव कमेणं भाणियथो। सुदुमपुढविकाइमओ पजतमो-एवं चेव निरवसेसो बारससु वि ठाणेसु उववाएयचो. २४ । एवं पएणं गमएणं जाव-सुएमवणस्सइकाइयो पजसो सुठुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव भाणियचो । २३. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइएसु उववजित्तए से णं भंते ! कासमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। [उ.] गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजह । [प्र०] से केण?णं भंते ! एवं वुवा [30] एवं खा गोयमा! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ता, तंजहा-१ उजुआयता, जाव-७ अद्धचकवाला। एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजा, दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे जे भविए एगपयरंमि अणुसेढीओ उववजित्तए से णं तिसमइपणं विग्गहेणं उववजेजा, जे भविए विसेदि उववजित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा से तेणटेणं गोयमा । एवं एएणं गमएणं पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए दाहिणिल्ले चरिमंते उववाएयचो, जाव-सुहुमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु चेव । सधेसि दुसमइओ तिसमइओ चउसमइओ विग्गहो भाणियो। २४. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा! [उ.] गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। [प्र०] से केणटेणं०१ [उ०] एवं । जहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते उववाइया तहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहया पचच्छिमिल्ले चरिमंते उववाएयचा सके। २५. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स उत्तरिले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते. १ [उ०] एवं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहओ दाहिणिल्ले चरिमंते उववाइओ तहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ उत्तरिले चरिमंते उववाएयधो। .. तेम थवाचं कारण. भने पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकोमां, ८ अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिकोमां, १० अपर्याप्त अने पर्याप्त बादर वायुकायिकोमां, तथा १२ अपर्याप्त भने पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमां, एम अपर्याप्त अने पर्याप्त मळी ए बारे स्थानकोमां क्रमपूर्वक कहेवो. सूक्ष्म पृथिवीकायिकपर्याप्तानो एज प्रमाणे बारे स्थानकोमा समग्र उपपात कहेवो. ए रीते ए गमवडे यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनो पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमाज उपपात कहेवो. अप० सू० पृथिवीकायिकनो उपपात. २३. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक, लोकना पूर्व चरमांतमा समुद्घात करी लोकना दक्षिण चरमांतर्मा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [उ०] हे गौतम । ते बे समयनी, त्रण समयनी के चार समयनी विप्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहेवाय छे । उ०] हे गौतम ! मे खरेखर सात श्रेणीओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ ऋज्वायता अने यावत्-७ अर्धचक्रवाला. जो ते जीव एक तरफनी वक्र श्रेणीथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय, उभयतः वक्र श्रेणीथी उत्पन्न थाय तो जे एक प्रतरमां अनुश्रेणि-समश्रेणिए उत्पन्न थवानो छे ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उपजे अने जे विश्रेणीमा उत्पन्न थवानो छे ते चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. हे गौतम | ते कारणथी ए प्रमाणे कयुं छे. ए रीते ए गमवडे पूर्व चरातमा समुद्घातपूर्वक दक्षिण चरमांतमा उपजाववो. यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनो पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमा उपपात कहेवो अने बधाने बे समयनी, त्रण समयनी अने चार समयनी विग्रह गति कहेवी. २४. [प्र०] हे भगवन् । जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना पूर्व चरमांतमा समुद्घात करी लोकना पश्चिम चरमतिमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ते एक समयनी, बे समयनी, प्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो! [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. जेम पूर्व चरमांतमा समुद्घात करी पूर्व चरमांतमांज उपपात कह्यो तेमज पूर्व चरमांतमा समुद्घात करवा पूर्वक पश्चिम चरमतिमा बधाना उपपात कहेवा. कोकना पूर्वचरमा- २५. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना पूर्व चरमांतमां मरणसमुद्घात करी लोकना उत्तर चरमतिमा न्तमा विग्रहगति. - अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] जेम पूर्व चरमांतमा समुद् घातपूर्वक दक्षिण चरमतिमा उपपात कह्यो तेम पूर्व चरमातमा समुद्घातपूर्वक उत्तर चरमांतमा उपपात कहेवो. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३१ २६. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविष, लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए० १ [उ०] एवं जहा पुरच्छिमिले समोहओ पुरच्छिमिले चेव उववाहओ तहेव दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाएयचो, तहेव निरवसेसं जाव-सुहुमवणस्सहकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइपसु चेव पजत्तएसु दाहिणिल्ले चरिमंते उववाइओ, एवं दाहिणिल्ले समोहओ पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते उववाए । नवरं दुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो, सेसं तहेव । दाहिणिले समोहओ उत्तरिले चरिमंते उववाएयचो जहेव सटाणे तहेव । एगसमइय-दुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो। पुरच्छिमिल्ले जहा पञ्चच्छिमिल्ले, तहेव दुसमइय-तिसमइय-चउसमइअविग्गहो । पञ्चच्छिमिल्ले य चरिमंते समोहयाणं पञ्चच्छिमिल्ले चेव उववजमाणाणं जहा सटाणे । उत्तरिले उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव । पुरच्छिमिल्ले जहा सट्ठाणे, दाहिणिल्ले एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तं चेव । उत्तरिले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववजमाणाणं जहेव सटाणे । उत्तरिले समोहयाणं पुरच्छिमिल्ल उववजमाणाणं एवं चेव । नवरं एगसमइओ विग्गहो नत्थि । उत्तरिले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववजमाणाणं जहा सट्टाणे, उत्तरिले समोहयाणं पञ्चच्छिमिल्ले उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव । जाव-सुहमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु चेव । ___ २७. [प्र०] कहिं णं भंते ! वायरपुढविक्काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसुजहा ठाणपदे, जाव-सुहुमवणस्सइकाइया जे य पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सवलोगपरियावन्ना पन्नत्ता समणाउसो!। २८. [प्र०] अपजत्तसुदुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ नाणावरणिजं जाव-८ अंतराइयं । एवं चउकएणं भेदेणं जहेव पगिदियसपसु जाव-बायरवणस्सहकाइयाणं पजत्तगाणं । . J २६. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना दक्षिण चरमांतमा मरणसमुद्घात करी लोकना दक्षिण चरमातमांज अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जेम पूर्व चरमांतमा समुद्घात करी पूर्व चरमांतमांज उपपात कह्यो तेमज दक्षिण चरमांतमा समुद्घात अने दक्षिण चरमांतमांज उपपात कहेवोइत्यादि बधुं पूर्व प्रमाणेज कहेवं, यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनो पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमा दक्षिण चरमांतमा उपपात कह्यो एम दक्षिण चरमांतमा समुद्घात अने पश्चिम चरमांतमा उपपात कहेवो. विशेष ए के, बे समय, त्रण समय के चार समयनी विग्रहगति जाणवी अने बाकी बधुं तेमज जाणवू. जेम स्वस्थानमा कडं तेम दक्षिण चरमांतमां समुद्घात अने उत्तर चरमांतमा उपपात कहेवो, अने एक समय, बे समय, त्रण समय के चार समयनी विग्रहगति जाणवी. पश्चिम चरमान्तनी पेठे पूर्व चरमांतने विषे जाणवू. तेमज बे समय, त्रण समय के चार समयनी विग्रहगति जाणवी. पश्चिम चरमांतमा समुद्घात करी अने पश्चिम चरमांतमा उत्पन्न थता पृथिवीकायिकादि संबंधे जेम स्वस्थानमा कडं तेम जाणवू. उत्तर चरमांतमा उत्पन्न थता जीवोने आश्रयी एक समयनी विग्रहगति नथी. बाकी बधुं तेमज जाणवू. पूर्व चरमांत संबंधे स्वस्थाननी पेठे समजवू. दक्षिण चरमांतमा एक समयनी विग्रहगति नथी अने बाकी बधुं तेमज समजवू. उत्तरमा समुद्धातने प्राप्त थएला अने उत्तरमा उपजता जीवो संबंधे स्वस्थाननी पेठे जाणवू. उत्तरमा समुद्घातने प्राप्त-थएला अने पूर्वमा उत्पन्न थता पृथिवीकायिकादि संबंधे पण एज रीते समज. विशेष ए के, एक समयनी विग्रहगति नथी. उत्तरमा समुद्घातने प्राप्त थएला अने दक्षिणमा उत्पन्न थता जीवो संबंधे खस्थाननी पेठे जाणवू. उत्तरमा समुद्घातने प्राप्त थयेला अने पश्चिममा उत्पन्न थता जीवोने आश्रयी एक समयनी विग्रहगति नथी, बाकी बधुं तेमज जाणवं. यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनो पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमा उपपात कहेवो. २७. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकोनां स्थानो क्या कह्या छे! [उ०] हे गौतम । तेओनां स्थान खस्थानने अपेक्षी वादर पृथिवीकायिआठ पृथ्वीओमां छे-इत्यादि स्थानपदमां कह्या प्रमाणे जाणवं, यावत्-पर्याप्त अने अपर्याप्त ते बधा सूक्ष्म वनस्पतिकायिको एक प्रकारना कोना स्थान. छे, तेओमां कांइ पण विशेष या भिन्नता नथी. हे आयुष्मन् श्रमण | तेओ सर्वलोकमां व्याप्त छे. २८. [प्र०] हे भगवन् । अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ! [उ०] हे गौतम | तेओने आठ कर्म अपर्याप्त सूक्ष्म पृथि वीकायने कर्म प्रकृतिओ कही छे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानावरणीय अने यावत्-अंतराय. ए प्रमाणे चारे भेदो वडे जेम एकेंद्रिय शतकमां कडं छे, तेम यावत् प्रकृतिमो. पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. jan Education interm २७. * प्रज्ञा० पद २ प०७१. . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ , श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे- शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक १. २९. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविक्काइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधति ? [उ०] गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्टविहबंधगा वि, जहा पगिदियसएसु जाव-पजत्ता यायरवणस्सइकाइया। ३०. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइया णं भंते! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति? [उ०] गोयमा! चोइस कम्मप्पगडीओ वेदेति, तंजहा-नाणावरणिज, जहा एगिदियसएसु जाव-पुरिसवेदवझं, एवं जाव-बादरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं । __३१. [प्र०] एगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? किं नेरइएहितो उववजंति १ . [उ०] जहा वकंतीए पुढविक्काइयाणं उववाओ। . ३२. [प्र०] एगिदियाणं भंते ! कइ समुग्घाया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्घाए, जाव-वेउचियसमुग्घाए। ३३. [प्र०] एगिदिया णं भंते ! किं तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? तुल्लट्ठितीया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? [उ.] गोयमा! अत्थेगइया तुल्लट्टितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया तुल्लद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया मायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'अत्थेगइया तुल्लद्वितीया जाव-वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति' ? [उ०] गोयमा ! एगिदिया चउधिहा पन्नत्ता, तंजहा-अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा १, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा २, अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा ३, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा ४ । तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते णं तुलद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति १, तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं तुल्लद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति २, तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववनगा ते णं वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ३, तत्थ णं जे ते विसमाउया वेदन. अपर्याप्त सूक्ष्म पृथि- ___२९. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओ बांधे छे ! [उ०] हे गौतम ! सात कर्मप्रकृतिओ वीकायिकने कर्म - बांधे छे अथवा आठ कर्मप्रकृतिओ बांधे छे-इत्यादि जेम एकेंद्रियशतकमां कयुं छे तेम यावत्-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. बन्ध. एकेन्द्रियने कमैनुं ३०. [प्र०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिको केटली कर्मप्रकृतिओने वेदे ? [उ० हे गौतम ! तेओ चौद कर्मप्रकृतिओने वेदे छे. ते आ प्रमाणे-ज्ञानावरणीय ( वगेरे आठ प्रकृतिओ, बेइन्द्रियादि चार आवरण, स्त्रीवेद अने पुरुषवेदप्रतिबन्धक कर्म )-इत्यादि जेम एकेंद्रिय शंतकमां कर्तुं छे तेम यावत्-पुरुषवेदप्रतिबन्धक कर्मप्रकृति सुधी यावत्-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. एकेन्द्रियोनो ३१. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि. [उ०] जेम •प्रपात. "व्युत्क्रांतिपदमां पृथिवीकायिकोनो उपपात कह्यो छे तेम अहीं जाणवो. एकेद्रियने ३२. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवोने केटला समुद्घातो कह्या छे ! उ०] हे गौतम ! तेओने चार समुद्घातो कह्या छे, समुदात. ते आ प्रमाणे-१ वेदनासमुद्घात, (२ कषाय, ३ मरण) अने यावत्-४ वैक्रियसमुद्घात. एकेन्द्रियो शं तुल्य ३३. [प्र०] हे भगवन् ! शुतुल्य स्थितिवाळा-समान आयुषवाळा एकेंद्रिय जीवो तुल्य अने विशेषाधिक कर्मनो बन्ध करे छे! तुल्य स्थितिवाळा एकेंद्रिय जीवो परस्पर भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करे छे ? भिन्न भिन्न स्थितिवाळा परस्पर तुल्य विशेषाधिक - करे। कर्मबन्ध करे छे के भिन्न भिन्न स्थितिवाळा परस्पर भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करे छे ! [उ०] हे गौतम ! १ केटलाक तुल्य स्थितिवाळा एकेंद्रियो परस्पर तुल्य विशेषाधिक कर्मबन्ध करे छे, २ केटलाक तुल्य स्थितिवाळा भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करे छे, ३ केटलाक भिन्न भिन्न स्थितिवाळा तुल्य विशेषाधिक कर्मबन्ध करे छे अने ४ केटलाक भिन्न भिन्न स्थितिवाळा भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्मबंध करे छे. [प्र. हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के केटलाक एकेन्द्रियो तुल्यस्थितिवाळा यावत्-भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्म करे छे ? [उ०] हे गौतम ! एकेंद्रिय जीवो चार प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ केटलाक समान आयुषवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला, २ केटलाक समान आयुषवाळा अने जुदा जुदा समये उत्पन्न थयेला, केटलाक जुदा जुदा आयुषवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला, अने केटलाक जुदा जुदा आयुषवाळा अने जुदा जुदा समये उत्पन्न थयेला. तेमा जे समान आयुषवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला होय छे तेओ तुल्यस्थितिवाळा छे अने तेओ तुल्य विशेषाधिक कर्मबंध करे छे. जेओ समान आयुषवाळा अने जुदा जुदा समये उत्पन्न थयेला छे तेओ तुल्यस्थितिवाळा छे अने जुदं जुदं विशेषाधिक कर्म बांधे छे. जेओ जुदा जुदा आयुषवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला छे तेओ जुदी जुदी स्थितिवाळा छे अने तुल्य विशेषाधिक कर्मबंध करे छे. तथा जेओ जुदा जुदा आयुषवाळा ३१ प्रज्ञा० पद ६ प० २१२-१. Jain Education international Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सिमोववनगा ते णं वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ४ा से तेणटेणं गोयमा! जाव-वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति । 'सेवं मंते ! सेवं भंते' 1 त्ति २ जाव-विहरति । ___चोत्तीसइमे सए पढमे एगिदियसए पढमो उद्देसो समत्तो। अने जुदा जुदा समये उत्पन्न थयेला छे तेओ भिन्न भिन्न स्थितिवाळा छे अने जुदं जुएं विशेषाधिक कर्म करे छे. हे गौतम! ते कारणथी यावत्-भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्म करे छे 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही यावत्-विहरे छे. __चोत्रीशमा शतकमां प्रथम एकेन्द्रियशतकनो प्रथम उद्देशक समाप्त. .. बीओ उद्देसो। १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! अणंतरोववनगा एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-१ पुढविक्काइया-दुयाभेदो जहा एगिदियसएसु जाव-बायरवणस्सइकाइया य । २. प्र०] कहिं णं भंते ! अणंतरोववन्नगाणं वायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु, तंजहा-रयणप्पभाए जहा ठाणपदे, जाव-दीवेसु समुद्देसु । एत्थ णं अणंतरोववनगाणं बायरपदविकाइयाणं ठाणा पन्नता. उववाएंणं सवलोए, समुग्घाएणं सवलोए, सटाणेणं लोगस्स असंखेजइभागे। अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविक्काइया एगविहा अविसेसमणाणत्ता सवलोए परियावन्ना पन्नत्ता समणाउसो! । एवं एएणं कमेणं सवे पगिदिया भाणियचा, सटाणाई सधेसि जहा ठाणपदे । तेसि पज्जत्तगाणं बायराण उववाय-समुग्धाय-सट्ठाणाणि जहा तेसि चेव अपजत्तगाणं बायराणं । सुहुमाणं सन्वेसि जहा पुढविकाइयाणं भणिया तहेव भाणियवा जाव-वणस्सइकाइय त्ति ।। ३. [प्र०] अणंतरोववन्नगाणं सुहुमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ-एवं जहा एगिदियसएसु अणंतरोववन्नगउद्देसए तहेव पन्नत्ताओ, तहेव बंधंति, तहेव वेदेति, जाव-अणंतरोववन्नगा बायरवणस्सइकाइया । ४. [प्र०] अणंतरोषवनगगिदिया णं भंते ! को उववजंति ? [उ०] जहेव ओहिए उद्देसो भणिो तहेव। ५. [प्र०] अणंतरोववन्नगएगिदियाणं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दोन्नि समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्धाए य कसायसमुग्घाए य । द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न (तुरत उत्पन्न थयेला) एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! अनन्त- अनन्तरोपपन्न एकेरोपपन्न एकेंद्रियो पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिक वगेरे. तेना बे भेद जेम एकेंद्रिय शतकोमा कह्या छे " तेम यावत्-बादर वनस्पतिकायिक सुधी कहेवा. २. प्र०] हे भगवन्! अनन्तरोपपन्न बादर पृथिवीकायिकोनां स्थानो क्या कह्यां छे? [उ०] हे गौतम! स्वस्थाननी अपेक्षाएं अनन्तरोपपन्न बावर आठे पृथिवीओमा, ते आ प्रमाणे-रत्नप्रभामां-इत्यादि जेम *स्थानपदमां कां छे तेम यावत्-द्वीपोमां अने समुद्रोमा अनन्तरोपपन्न। स्थानो. पृथिवीकायिकोनां स्थानो कह्यां छे. उपपातनी अपेक्षाए सर्व लोकमां अने समुद्घातने आश्रयी सर्व लोकमां छे. स्वस्थानने अपेक्षी तेओ लोकना असंख्यातमा भागमा रहे छे. अनंतरोपपन्न सूक्ष्म पृथिवीकायिको बधा एक प्रकारना विशेषता या भिन्नता रहित छे. तथा हे आयुष्मन् श्रमण! तेओ सर्वलोकमां व्याप्त छे. ए रीते ए क्रमवडे बधा एकेंद्रियो संबंधे कहे. ते बधानां स्वस्थानो *स्थानपदमा कह्या प्रमाणे जाणवा. जेम पर्याप्त बादर एकेन्द्रियोना उपपात, समुद्घात अने स्वस्थानो कह्या छे तेम अपर्याप्त बादर एकेंद्रियोनां जाणवां. जेम सूक्ष्म पृथिवीकायिकोनां उपपात, समुद्घात अने स्वस्थानो कह्या छे तेम बधा सूक्ष्म एकेन्द्रियोना यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी जाणवा. ३. [प्र०] हे भगवन् । अनन्तरोपपन्न सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ! [उ०] हे गौतम | तेओने आठ अनन्तरोपपन्न एके न्द्रियने कर्मप्रकर्मप्रकृतिओ कही छे-इत्यादि जेम एकेंद्रिय शतकोमा अनन्तरोपपन्न उद्देशकने विषे कह्या प्रमाणे कर्मप्रकृतिओ कहेवी. यावत्-तेज " कृतिओ. रीते बांधे छे, ते ज रीते वेदे छे, यावत्-अनन्तरोपपन्न बादर वनस्पतिकायिक सुधी समजवु. ४. प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गौतम | जेम औधिक-सामान्य उपपात. उद्देशकमां कयुं छे तेम अहीं जाणवू. ५. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्न एकेंद्रियोने केटला समुद्घातो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम 1 तेओने बे समुद्धातो कह्या छे. अनन न्द्रियने समुदातो. ते आ प्रमाणे-वेदनासमुद्घात अने कषायसमुद्घात. २* प्रज्ञा० पद २०७१ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे- शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक ३. ५. [प्र०] अणंतरोववनगपगिदिया णं भंते ! किं तुलद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति-पुच्छा तहेव। [२०] गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया तुल्लट्ठितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । [प्र०] से केणटेणं जाव-वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? [उ०] गोयमा! अणंतरोववनगा पगिदिया दुविहा पत्ता, तंजहा-अत्थेगइया समाउया समोववनगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववनगा। तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते गं तलद्वितीया तल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते गं तुल्लद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति । से तेणट्रेणं जाव-वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ।त्ति। चोत्तीसइमे सए पढमे एगिदियसए वीओ उद्देसो समत्तो। कर्मबंधनी विशेषता ५. प्र०] हे भगवन् ! तुल्य स्थितिवाळा-समान आयुषवाळा अनंतरोपपन्न एकेंद्रियो शुं परस्पर तुल्य विशेषाधिक कर्म बघि छे-इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! केटलाक तुल्यस्थितिवाळा एकेंद्रियो तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधे छे, केटलाक तुल्यस्थितिवाळा एकेंद्रियो जुदं जुदं विशेषाधिक कर्म बांधे छे. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, यावत्-जुहूं जुएं विशेषाधिक कर्म बांधे छे ? [उ०] हे गौतम! अनंतरोपपन्न एकेदियो बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-केटलाक समान आयुषवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला अने केटलाक समान आयुषवाळा अने जुदा जुदा समये उत्पन्न थयेला. तेमा जे समान आयुषवाळा अने साथे उत्पन्न थयेला छे तेओ तुल्य स्थितिवाळा होइ तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधे छे अने जेओ तुल्य स्थितिवाळा अने विषमोपपन्न-जुदा जुदा समये उत्पन्न थयेला छे तेओ तुल्यस्थितिवाळा अने जु, जुदं विशेषाधिक कर्म बांधे छे. माटे ते कारणथी यावत्-भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्म बांधे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' चोत्रीशमा शतकमां प्रथम एकेन्द्रियशतकनो द्वितीय उद्देशक समाप्त. तईओ उद्देसो। १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! परंपरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा परंपरोववनगा एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया-भेदो चउक्कओ जाव-वणस्सइकाइय त्ति । २. [प्र०] परंपरोववन्नगअपजत्तसुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव-पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए०१ [उ०] एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमो उद्देसओ जाव-लोगचरिमंतो ति । ३. [प्र.] कहिं णं भंते ! परंपरोववन्नगवायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! सट्टाणेणं अटुसु पुढवीसुएवं पपणं अभिलावेणं जहा पदमे उद्देसए जाव-तुल्लट्रितीय त्ति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ।त्ति । चोत्तीसइमे सए पढमे एगिदियसए तईओ उद्देसो समत्तो । त्रीजो उद्देशक. परंपरोपपन्न एके - १. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न (उत्पत्तिना द्वितीयादिसमये वर्तमान ) एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! न्द्रियाना प्रकारः तेओ पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिक बगेरे तेना चार भेद यावत्-बनस्पतिकायिक सुधी जाणवा. परेपरोपपन्न एकेन्द्रि- २. [प्र०] हे भगवन् ! जे परंपरोपपन्न अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमातमा मरण समुद्घात करी यनी विग्रहगति. आ रत्नप्रभा पृथिवीना यावत्-पश्चिम चरमांतमां अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उपजे ? [उ०] ए रीते ए अभिलापथी जेम प्रथम उद्देशक कह्यो तेम यावत्-लोकचरमांत सुधी जाणवू. ३. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न बादर पृथिवीकायिकोनां स्थानो क्या कह्यां छे! [उ०] हे गौतम | खस्थानने अपेक्षी आठे पृथिवीमां छे. ए रीते ए अभिलापथी जेम प्रथम उद्देशकमां कडं छे तेम यावत्-तुल्यस्थितिवाळा सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ३४-३. चोत्रीशमा शतकमा प्रथम एकेन्द्रिय शतकनो त्रीजो उद्देशक समाप्त. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४-११ उद्देसगा। एवं सेसा वि अट्ठ उद्देसगा जाव-'अचरमो'त्ति । नवरं अणंतरा अणंतरसरिसा, परंपरा परंपरसरिसा, घरमा य अचरमा य एवं चेव । एवं पते एकारस उद्देसगा। चोत्तीसइमे सए पढमे एगिदियसए ४-११ उद्देसा समत्ता । पढमं एगिदियसेढीसयं समत्तं । ४-११ उद्देशको. ए रीते बाकीना पण आठ उद्देशको यावत्-'अचरम' सुधी कहेवा. परंतु विशेष ए के, अनंतर उद्देशको अनंतर जेवा अने परंपर उद्देशको परंपर समान जाणवा. चरम अने अचरम विषे पण एज रीते जाणवू. ए रीते ए अगियार उद्देशको कहेवा. ३४-११. चोत्रीशमा शतकमा प्रथम एकेन्द्रियशतकना ४-११ उद्देशको समाप्त चोत्रीशमा शतकमा प्रथम एकेंद्रियश्रेणीशतक समाप्त. बितीयं सयं. १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! पंचविहा कण्हलेस्सा पगिदिया पत्नत्ता, भेदो चउको जहा कण्हलेस्सएगिदियसए, जाव-वणस्सइकाइय त्ति। २. [प्र०] कण्हलेस्सअपजत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले०१ [0] एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिउद्देसओ जाव-'लोगचरिमंते'त्ति । सवत्थ कण्हलेस्सेसु चेव उववाएयवो। ३. [प्र०] कहिणं भंते ! कण्हलेस्सअपजत्तबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? [उ०] एवं एएणं अभिलावेणं जहा मोहिउद्देसओ जाव-तुल्लटिइय त्ति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढम सेढिसयं तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियधा ३४-११ । वितियं एगिदियसेढिसयं समत्तं । द्वितीय शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ कृष्णलेश्यावाळा एकेंद्रियो कृष्णलेश्यावाळा पांच प्रकारना कह्या छे. तेना चार भेद कृष्णलेष्यावाळा एकेंद्रिय शतकमां कह्या प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी जाणवा. एकेन्द्रियोना प्रकार. २. [प्र०] हे भगवन् ! जे कृष्णलेश्यावाळो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमांतमा समुद्घात करी कृष्णलेश्यावाळा पश्चिम चरमांतमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय! [उ०] इत्यादि पाठवडे जेम औधिक उद्देशकमा कर्दा . एकेन्द्रियोनो विपर छे तेम यावत्-लोकना चरमांत सुधी समजq. सर्वत्र कृष्णलेझ्यावाळामा उपपात कहेवो. ३. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकोनां स्थानो क्या कह्या छे ! [उ०] ए अभिलापथी औषिक कृष्णलेश्यावाला उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'तुल्यस्थितिवाळा' सुधी समजवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ए अभिलापथी । र एकेन्द्रियना सानो जेम प्रथम श्रेणीशतक कह्यु तेमज बीजा श्रेणिशतकना अगियार उद्देशको कहेवा. बीजें केंद्रियश्रेणीशतक समाप्त. Jain Education international Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक ६. ३-५ सयाई एवं नीललेस्सेहि वितइयं सयं । काउलेस्सेहि वि सयं । एवं चेव चउत्थं सयं । भविसिद्धियएहि वि सयं पंचमं समत्तं। चोत्तीसइमे सए ३-५ सयाई समत्ताई । ३-५ शतको. ए प्रमाणे नीललेश्यावाळाओ संबंधे त्रीचं शतक कहे. कापोतलेश्यावाळाओ संबंधे पण एज, रीते चोथु शतक कहे, अने भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण एज प्रकारे पांचमुं शतक कहे. चोत्रीशमा शतकमा ३-५ शतको समाप्त. छट्टे सयं. १. [प्र०] कइविहा णं भंते कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] एवं जहेव ओहियउद्देसओ । २. [प्र०] कइविहा णं भंते ! अणंतरोववन्ना कण्हलेस्सा भवसिद्धिया पगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] जहेव अणंतरोववमउद्देसओ ओहिओ तहेव । ३. [प्र०] कइविहा गं भंते ! परंपरोववन्ना कण्हलेस्सा भवसिद्धियएनिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा परंपरोववना कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिया पन्नत्ता-ओहिओ भेदो चउक्कओ जाव-वणस्सहकाइयत्ति । ४. परंपरोववन्नकण्हलेस्सभवसिद्धियअपजत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए-एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव लोयचरमंते त्ति । सम्वत्थ कण्हलेस्सेसु भवसिद्धिपसु उववाएयधो। ५.प्र०] कहिणं भंते ! परंपरोववन्नकण्हलेस्सभवसिद्धियपजत्तवायरपुढविकाइयार्ण ठाणा पनत्ता [उ०] एवं परणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव-'तुल्लट्ठिश्य'त्ति । एवं एएणं अभिलावणं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेष एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं छटुं सतं । चोत्तीसइमे सए छड़े सयं समत्तं । मुटुं शतक. कृष्णलेश्यावाला १. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] जेम औधिक उद्देशकमां कह्यु भवसिद्धिक एकेदियोना प्रकार. छे तेमज.जाणवू. अनन्तरोपपन्न कर ____२. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! भव० एकेन्द्रियना अनंतरोपपन्नक संबंधी औधिक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवू. प्रकार. परंपरोपपन्न कृष्ण ३. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न कृष्णलेल्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! परंपरोभव एकेन्द्रियना पपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो पांच प्रकारना कह्या छे. एम औधिक चारे भेद यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी कहेवा. प्रकार. विग्रहगति. ४. हे भगवन् ! जे परंपरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळो भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना [पूर्व चरमान्तमा मरणसमुद्घात करी पश्चिम चरमान्तमा उत्पन्न थाय तो केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! 1-इत्यादि पूर्वोक्त पाठवडे औधिक उद्देशक लोकचरमांत सुधी कहेवो. सर्वत्र कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिकोमा उपपात कहेवो.. विवीकायिकना ५. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकोनां स्थानो क्या कह्यां छे! [उ०] स्थानो. एम ए अभिलापथी तुल्यस्थितिवाळा सुधी औधिक उद्देशक कहेवो. ए रीते ए अभिलापथी कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण ते प्रमाणे अगियार उद्देशक सहित मुटुं शतक कहेवू. ३४-६. चोत्रीशमा शतकमा छटुं शतक समाप्त. . Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४.-शतको ७-१२. • भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३७ ७-१२ सयाई। नीललेस्सभवसिद्धियएगिदिपसु सयं सत्तम। एवं काउलेस्समवसिद्धियएगिदिएहि वि अट्टमं सयं । जहा मवासादगाह चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धिपहि वि चत्तारि सयाणि भाणियवाणि । नवरं चरमअचरमवजा नव उद्देसगा भाणियचा, सेसं तं चेव । एवं एयाई पारस एगिदियसेढीसयाई । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहए। एगिदियसेढीसयाई समचाई। । नवरं चरमञ्चरमयजा गय उदसण माणिया, सच चउतीसइमं एगिदियसेढिसयं समत्तं । ७-१२ शतको. नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे सातमुं शतक कहेवू. ३४-७. ए रीते कापोतलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण आठमुं शतक कहे. ३४-८. जेम भवसिद्धिको संबंधे चार शतको कह्या छे तेम अभवसिद्धिको संबंधे पण चार शतक कहेवा. पण विशेष ए के, चरम अने अचरम सिवायना नव उद्देशको कहेवा. बाकी बधुं तेमज जाणवू. एम ए बार एकेंद्रियश्रेणीशतको कह्या. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. ३४-१२. एकेन्द्रियश्रेणिशतको समाप्त. चोत्रीशमुं एकेंद्रियश्रेणीशतक समाप्त ESS Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणतीसइमं सयं पढमो उद्देसो । १. प्र०] कह णं भंते ! महाजुम्मा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मकडजुम्मे १, कडजुम्मतेओगे २, कडजुम्मदावरजुम्मे ३, कडजुम्मकलियोगे ४, तेओगकडजुम्मे ५, तेओगतेओगे ६, तेओगदावरजुम्मे ७, तेभोगकलिओए ८, दावरजुम्मकडजुम्मे ९, दावरजुम्मतेओए १०, दावरजुम्मदावरजुम्मे ११, दावरजुम्मकलियोगे १२, कलिओगकडजुम्मे १३, कलियोगतेओगे १४, कलियोगदावरजुम्मे १५, कलियोगकलिओगे १६।। २. [प्र०] से कणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मकडजुम्मे, जाव-कलियोगकलियोगे' ? [उ०] गोयमा ! जे णं रासी चउक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया ते वि कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मकडजुम्मे १ । जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मतेयोए २ । जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपजवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मदावरजुम्मे ३ । जे गं रासी चउकएणं अवहारेणं पांत्रीशमुं शतक प्रथम उद्देशक. महायुग्मना प्रकार. १. [प्र०] हे भगवन् ! केटलां महायुग्मो-महाराशिओ कयां छे ! [उ०] हे गौतम | सोळ महायुग्मो कहाँ छे. ते आ प्रमाणे १ कृतयुग्मकृतयुग्म, २ कृतयुग्मत्र्योज, ३ कृतयुग्मद्वापरयुग्म, ४ कृतयुग्मकल्योज, ५ त्र्योजकृतयुग्म, ६ योजत्र्योज, ७ योजद्वापरयुग्म, ८ व्योजकल्योज, ९ द्वापरयुग्मकृतयुग्म, १० द्वापरयुग्मत्र्योज, ११ द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म, १२ द्वापरयुग्मकल्योज, १३ कल्योजकृतयुग्म, १४ कल्योजत्र्योज, १५ कल्योजद्वापरयुग्म, १६ कल्योजकल्योज. सोळ महायुग्म २. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी आप एम कहो छो के कृतयुग्मकृतयुग्मथी मांडी कल्योजकल्योज सुधी सोळ महायुग्मो कहेवार्नु कारण. कयां छे ? [उ०] हे गौतम ! जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां चार बाकी रहे, अने ते राशिना अपहारसमयो पण कृतयुग्म होय तो ते (राशि) कृतयुग्मकृतयुग्म कहेवाय १. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारता त्रण बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो पण कृतयुग्म होय तो ते राशि कृतयुग्मत्र्योज कहेवाय २. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां बे बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो कृतयुग्म होय तो ते कृतयुग्मद्वापरयुग्म कहेवाय ३. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां एक बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो कृतयुग्म होय तो ते कृतयुग्मकल्योज कहेवाय ४. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां चार बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो त्र्योज होय तो ते त्र्योजकृतयुग्म कहेवाय ५. जे राशिने चार . १ युग्म-राशिविशेष, ते राशिओ क्षुल्लक-क्षुद्र पण होय अने मोटा पण होय, तेमां पूर्व क्षुल्लक राशिनी प्ररूपणा करी, हवे अहीं महायुग्म-मोटा राशिओनी प्ररूपणा करवानी छे. जे राशिने प्रतिसमय चार चारना अपहारथी अपहरता छेवटे चार बाकी रहे अने अपहारसमयोने पण चार चारना अप- हारथी अपहरतां चार समयो बाकी रहे ते 'कृतयुग्मकृतयुग्म' कहेवाय छे. कारण के अपहरण कराता द्रव्य भने समयनी अपेक्षाए बने रीते ते कृतयुग्मरूप छे. ए प्रमाणे अन्य राशिसंबंधे पण जाणवू. जेमके सोळ संख्या जघन्य कृतयुग्मकृतयुग्मराशि रूप छे, तेने चारनी संख्याथी अपहरता छेवटे चार वघे छे भने अपहार समयो पण चार छे. जेमके जघन्यथी ओगणीशनी संख्याने प्रतिसमय चारथी अपहरता छेवटे त्रण बाकी रहे अने अपहारसमयो चार होय तो ते अपहराता द्रव्यनी अपेक्षाए श्योज अने अपहारसमयनी अपेक्षाए कृतयुग्म एटले ते राशि कृतयुग्मत्र्योज कहेवाय छे. अहीं बधे अपहारक समयनी अपेक्षाए आद्य पद छे अने अपहराता द्रव्यनी अपेक्षाए पीजुं पद छे..ते राशिनी जघन्य संख्या अनुक्रमे नीचे प्रमाणे छे--(१) १६, (२) १९, (१) १८, (४) १५, (५) १२, (6) १५, (७) १४, (८) १३, (१)(१०)११, (११) १०, (१२), (१३)४, (१४) ७, (१५), (१६) ५. Jain Education international Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३५.-उद्देशक १: भगवत्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३९ अवहीरमाणे एगपजवसिए, ज ण तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मकलियोगें। जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोगा, सेत्तं तेओगकडजुम्मे ५। जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा, सेत्तं तेओगतेओगे ६ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दोपजवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोया, सेत्तं तेओयदावरजुम्मे ७ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओया, सेत्तं तेयोयकलियोगे ८ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, सेत्तं दावरजुम्मकडजुम्मे ९ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा सेत्तं दावरजुम्मतेयोए १०, जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, सेत्तं दावरजुम्मदावरजुम्मे ११ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपजवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, सेत्तं दावरजुम्मकलियोए १२ । जे णं रासी चउकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए 'जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा सेत्तं कलिओगकडजुम्मे १३ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा सेत्तं कलियोगतेयोए १४ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा, सेत्तं कलियोगदावरजुम्मे १५ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा, सेतं कलियोगकलिओगे १६ । से तेणट्रेणं जाव-कलिओगकलिओगे'। ३.०] कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते! कओ उववजंति ? किं नेरहिएहितो? [उ०] जहा उप्पलुद्देसए तहा उववाओ। ४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? [उ०] गोयमा ! सोलस वा, संखेजा वा, असंखेजा वा, अणंता वा उववजंति । ५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा समए समए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! ते णं अणंता समए समए अवहीरमाणा २ अणंताहि उस्सप्पिणी-अवसप्पिणीहि अवहीरंति, णो चेव णं अवहरिया सिया । उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए। संख्याना अपहारथी अपहारतां त्रण बाकी रहे अने ते राशिना अपहार समयो त्र्योज होय तो ते त्र्योजत्र्योज कहेवाय ६. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां बे बाकी रहे अने ते राशिना अपहार समयो त्र्योज होय तो ते त्र्योजद्वापरयुग्म कहेवाय ७. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां एक बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो त्र्योज होय तो त्र्योजकल्योज कहेवाय ८. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां चार बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो द्वापरयुग्म होय तो ते द्वापरकृतयुग्म कहेवाय ९. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारता त्रण बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो द्वापरयुग्म होय तो ते द्वापरयुग्मत्र्योज कहेवाय १०. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां बे बाकी रहे भने ते राशिना अपहारसमयो द्वापरयुग्म होय तो ते द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म कहेवाय ११. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां एक बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो द्वापरयुग्म होय तो ते द्वापरयुग्मकल्योज कहेवाय १२. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारतां चार बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो कल्योज होय तो ते कल्योजकृतयुग्म कहेवाय १३. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारता त्रण बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो कल्योज होय तो ते कल्योजयोज कहेवाय १४. जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारता बे बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो कल्योज होय तो ते कल्योजद्वापरयुग्म कहेवाय १५. अने जे राशिने चार संख्याना अपहारथी अपहारता एक बाकी रहे अने ते राशिना अपहारसमयो कल्योज होय तो ते कल्योजकल्योज कहेवाय. माटे ते हेतुथी यावत्-कल्योजकल्योज सुधी सोळ महायुग्मो कह्या छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! शुं नैरयिकोथी उत्पन्न थाय छे-इत्यादि कृतयुग्म २ राशिरूप प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेम उत्पलोद्देशकमा उपपात कह्यो छे ते प्रमाणे अहीं उपपात कहेवो. एकेन्द्रियोनो उपपात. ४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गौतम! सोळ, संख्याता, असंख्याता के अनंत एक समयमा उपजीवो एक समये उत्पन्न थाय छे. पातसंख्या. ____५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो समये समये-[अनन्ता अपहराय तो केटला काळे खाली थाय] ! [उ०] हे गौतम ! ते जीवो जीवोनी संख्या समये समये अनन्ता अपहराय अने अनंत उत्सर्पिणी अने अनंत अवसर्पिणी सधी अपहरीए तो पण तेओ खाली थाय नहीं. तेओनी उंचाई "उत्पलोद्देशकमा कह्या प्रमाणे जाणवी. . 'उना कसा. ५* भग• खं०४ श०११ उ०१० २०८. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३५.-उद्देशक १. . ६. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा, अबंधगा? [उ०] गोयमा ! बंधगा, नो अबंधगा। एवं सधेसि आउयवजाणं । आउयस्स बंधगा वा अबंधगा वा। ७. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स-पुच्छा [उ०] गोयमा ! वेदगा, नो अवेदगा । एवं सवेसि । ८. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं सातावेदगा, असातावेदगा-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सातावेदगा वा असातावेदगा वा। एवं उप्पलुद्देसगपरिवाडी। सन्वेसि कम्माणं उदई, नो अणुदई । छण्डं कम्माणं उदीरगा, नो अणुदीरगा।। वेदणिज्जा-उयाणं उदीरगा वा अणुदीरगा वा। ९. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं कण्ह-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! कण्हलेस्सा वा, नीललेस्सा वा, काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा । नो सम्मदिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी । नो नाणी, अन्नाणी-नियमं दुअन्नाणी, तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअनाणी य । नो मणजोगी, नो वइजोगी, काययोगी । सागारोवउत्ता वा, अणागारोवउत्ता वा। . १०. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा कतिवन्ना-जहा उप्पलुद्देसए सवत्थ पुच्छा। [उ०] गोयमा ! जहा उप्पलुईसए ऊसासगा वा, नीसासगा वा, नो उस्सासनीसासगा वा । आहारगा वा अणाहारगा वा । नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया । सकिरिया, नो अकरिया । सत्तविहबंधगा वा अट्टविहबंधगा वा । आहारसन्नोवउत्ता वा जाव-परिग्ग: हसन्नोवउत्ता वा । कोहकसायी वा, माणकसायी, जाव-लोभकसायी वा । नो इत्थिवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा। इथिवेयबंधगा वा पुरिसवेवंधगा वा नपुंसगवेदबन्धगा वा । नो सन्नी, असन्नी । सइंदिया, नो अणिदिया। ११. [प्र०] ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया कालओ केवचिरं होति ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंता उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ, वणस्सइकाइयकालो । संवेहो न भन्नइ, आहारो जहा उप्पलुद्देसए, . नवरं निवाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पहुच सिय तिदिसि, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं, सेसं तहेव । ठिती जहन्ने] बन्ध - वेदफ. सातावेदक भने असातावेदक . या. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं तेओ (एकेन्द्रियो ) ज्ञानावरणीय कर्मना बंधक छे के अबंधक छे ! [उ०] हे गौतम | तेओ बंधक छे, पण अबंधक नथी. ए रीते आयुष सिवाय बधां कर्मो विषे जाणवू, तेओ आयुषना बंधक पण छे अने अबंधक पण छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो ज्ञानावरणीयना वेदक छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओ वेदक छे, पण अवेदक नयीए प्रमाणे बधा कर्म संबंधे समजवू. ८. [प्र०] हे भगवन् । शुं ते जीवो साता-सुखना वेदक छे के असाता-दुःखना वेदक छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ साताना वेदक छे अने असाताना वेदक पण छे. जेम *उत्पल उद्देशकमां कर्म संबंधे जे परिपाटी कही छे ते अहीं जाणवी. तेओ बधाय कर्मोना उदयी छे पण अनुदयी नथी. छ कर्मोना उदीरक छे, पण अनुदीरक नथी. वेदनीय अने आयुष कर्मना उदीरक पण छे अने अनुदीरक पण छे. ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो कृष्णलेश्यावाळा छे-इत्यादि प्रश्नः [उ०] हे गौतम ! तेओ कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्याबाळा, कापोतलेश्यावाळा तथा तेजोलेश्यावाळा छे. तेओ सम्यग्दृष्टिओ नथी, सम्यग्मिथ्यादृष्टिओ नथी, पण मिथ्यादृष्टिओ छे. ज्ञानी नथी, अज्ञानी नथी, पण अवश्य बे अज्ञानवाळा छे. ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञानवाळा अने श्रुतअज्ञानवाळा. तेओ मनोयोगवाळा नथी, वचनयोगवाळा नथी, मात्र काययोगवाळा छे. साकार उपयोगवाळा छे अने अनाकार उपयोगवाळा पण छे. १०. [प्र०] हे भगवन् । ते एकेन्द्रिय जीवोनां शरीरो केटला वर्णवाळा होय छे-इत्यादि उत्पलोदेशकमा कह्या प्रमाणे सर्व अर्थना प्रश्नो करवा. [उ०] हे गौतम !- इत्यादि उत्पलोदेशकमां कह्या प्रमाणे [तेओना शरीरो पांच वर्ण, पांच रस, बे गंध अने आठ स्पर्शवाळा ] जाणवा तेओ उच्छासवाळा, निःश्वासवाळा अने उच्छासनिःश्वास विनाना पण छे. आहारक अने अनाहारक छे. सर्वविरतिवाळा अने देशविरतिवाळा नथी, पण अविरतिवाळा छे. क्रियावाळा छे, पण क्रिया विनाना नथी. सात प्रकारना कर्मना बंधक छे अने आठ प्रकारना कर्मना बंधक छे. आहार संज्ञाना उपयोगवाळा छे, यावत्-परिग्रहसंज्ञाना उपयोगवाळा छे. क्रोधकषायवाळा, मानकषायवाळा . अने यावत्-लोभकषायवाळा छे. स्त्रीवेदवाळा नथी, पुरुषवेदवाळा नथी, पण नपुंसकवेदवाळा छे. स्त्रीवेदबंधक छे, पुरुषवेदबंधक छे. अने नपुंसकवेदबंधक छे. संज्ञी (मनसंज्ञावाळा) नथी, पण असंज्ञी छे. इंद्रियवाळा छे अने इंद्रियविनाना छे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! ते कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेंद्रियो काळथी क्या सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्य एक शरीरोना वर्णादि. भनुकवकाळ. ८* भग० ख० ३ श०११ उ०१पृ० २०९. १. भग• ख• ३ श० ११ उ०१पृ. २१०-२१३. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३५.-उदेशक १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. अंतोमुहु, उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई । समुग्घाया आदिल्ला चत्तारि । मारणंतियसमुग्धातेणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । उधट्टणा जहा उप्पलुईसए । १२. [प्र०] अह भंते ! सधपाणा, जाव-सधसत्ता कडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उववभपुधा ? [उ०] हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो।। १३. [प्र. कडजुम्मतेओयएगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ.] उववाओ तहेष । १४. प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमए-पुच्छा। [उ०] गोयमा! एकूणवीसा वा, संखेजा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववजंति, सेसं जहा कडजुम्मकडजुम्माणं जाव-अणंतखुत्तो। - १५. [प्र०] कडजुम्मदावरजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] उववाओ तहेव । १६. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अट्ठारस वा संखेजा वा असंख्नेजा वा अणंता वा उपवजंति, सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो। १७. [प्र०] कडजुम्मकलियोगएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] उववाओ तहेव । परिमाणं सत्तरस वा, संखेजा वा, असंखेजा वा, अणंता वा, सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो। १८. [प्र०] तेयोगकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? (उ०] उववाओ तहेव, परिमाणं बारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो। समय सुधी अने उत्कृष्ट अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीसुधी वनस्पतिकायिकना काळ पर्यन्त होय. *संवेध कहेवानो नथी. उत्पल संवेधादि. उद्देशकमां कह्या प्रमाणे (खं० ३ पृ० २१३ ) आहार कहेवो. पण विशेष ए के, तेओ दिशानो प्रतिबंध न होय तो छए दिशामाथी आवेलो आहार ग्रहण करे छे, अने जो प्रतिबंध होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, चार दिशामाथी के पांच दिशामांथी भावेला आहारने ग्रहण करे छे. बाकी बधुं तेमज जाणवू. तेओनी स्थिति जघन्य एक समयनी अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्षनी छे. तेओने आदिना चार समुद्घातो होय छे. ते बधाय मारणांतिकसमुद्घातथी मरे छे अने ते सिवाय पण मरे छे. उत्पलोदेशकमा कह्या प्रमाणे उद्वर्तना कहेवी.. ' १२. [प्र०] हे भगवन् ! बधा प्राणो यावत्-बधा सत्त्वो कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेंद्रियपणे पूर्व उत्पन्न थया छे? [उ. हे सर्व जीवोनो कृतगौतम ! हा, अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थया छे. युग्म कृतयुग्मराशि रूप एकेन्द्रियपणे १३. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मत्र्योज राशिरूप एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे? [उ.] हे गौतम | पूर्वनी पेठे उत्पाद. कृतयुग्मत्र्योजराशिउपपात कहेवो. रूप एकेन्द्रियोनो . उत्पाद. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! ओगणीश, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पाद संख्या. उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमाण एकेंद्रियो संबंधे जेम का तेम यावत्-पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्या सुधी जाणवू. १५. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मद्वापरयुग्मप्रमाण एकेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०हे गौतम! तेओनो उपपात कृतयुग्मदापर प्रमाण तेमज जाणवो. एकेन्द्रियोनो उत्पाद. १६. प्रि०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय छे ? प्रि० हे गौतम ! तेओ एक समये अढार, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्यां सुधी तेमज जाणवू. १७. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकल्योजराशिप्रमाण एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [प्र०] हे गौतम ! तेओनो उपपात कृतयुग्म कल्योजरूप तेमज जाणवो. तेओनं परिमाण-सत्तर, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया । एकेन्द्रियोनो उत्पाद. छे' या सुधी तेमज जाणवू. १८. [प्र०] हे भगवन् ! योजकृतयुग्मराशिप्रमाण एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! उपपात तेमज व्योज कृतयुग्म जाणवो. तेओर्नु परिमाण-एक समये बार, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं तेमज जाणवू. यावत्-पूर्वे उत्पाद. अनंतवार उत्पन्न थया छे'. ११* उत्पलोद्देशकमा उत्पलना जीवनो उत्पाद विवक्षित छे अने ते पृथ्विकायिकादि अन्य कायमा जई पुनः उत्पलमा आवी उपजे त्यारे तेनो संवेध थाय छे, पण अहीं कृतयुग्मकृतयुग्मराग्रिरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद अधिकृत छे अने एकेन्द्रियो तो अनन्त उत्पन थाय छे, अने तओ त्यांथी नीकळी सजातीय के विजातीय कायमा उत्पन्न थइ पुनः एकेन्द्रियपणे उपजे त्यारे संवेध.थाय छे. पण तेओनुं त्यांथी नीकळवू असंभवित होवाथी संवेध थतो नथी. जे कृतयुग्मकृतयुग्मादि राशिरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद कह्यो छे ते त्रसकायिकथी आवीने उत्पन्न थाय तेनी अपेक्षाए छे, पण ते वास्तविक उत्पाद नथी, कारण के एकेन्द्रियोमा प्रतिसमय अनन्त जीवोनो उत्पाद थाय छे. तेथी अहीं एकेन्द्रियोनी अपेक्षाए संवेधनो असंभव होवाथी कह्यो नथी.-टीका. ___भग० खं० ३ श० ११ उ०१पृ० २१३. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजयोज प्रमाण एकेन्द्रियनो उपपात. कल्योजकस्योजराशिरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद. प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रियो नो उत्पाद. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ३५. – उद्देशक २० 1 १९. [प्र० ] तेयोय तेयोयएगिंदिया णं भंते! कअहिंतो उववजंति ? [30] उववाओ तदेव । परिमाणं पनरस वां, संखेजा था, असंखेजा वा, अनंता वा सेसं तहेव जाव- अनंतखुत्तो । एवं पपसु सोलससु महाजुम्मेसु एको गमओ । नवरं परिमाणे नाणत्तं - तेयोयदावरजुम्मेसु परिमाणं चोइस वा, संखेज्जा वा, असंखेजा वा, अनंता वा उववज्रंति । तेयोगकलियोगेसु तेरस वा संखेजा वा, असंखेजा वा अणंता वा उववजंति । दावरजुम्मकडजुम्मेसु अट्ठ वा, संखेज्जा वा, असंखेजावा, अनंता वा उववज्रंति । दावरजुम्मतेयोगेसु एक्कारस वा संखेजा वा, असंखेजा वा, अनंता वा उववज्जंति । दावरजुम्मेदावरजुम्मेसु दस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, दावरजुम्मकलियोगेसु नव वा, संखेज्जा वा, असं खेज्जा वा, अनंता वा उववजंति । कलियोगकडजुम्मे चत्तारि वा, संखेज्जा वा, असंखेजा वा, अनंता वा उववजंति । कलियोगतेयोगेसु सत्त वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा अणंता वा उववजंति । कलियोगदावरजुम्मेसु छ वा संखेजा वा, असंखेजा बा, अनंता वा उववजंति । ३४२ २०. [०] कलियोगकलियोगएगिंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? [अ०] उववाओ तहेव । परिमाणं पंच वा, संखेजावा, असंखेजा वा, अनंता वा उचवजंति ! सेसं तहेव जाव- अनंतखुत्तो 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! ति । पणतीस मे सए पढमो उद्देसो समत्तो । १९. [प्र० ] हे भगवन् ! त्र्योन्योजराशिरूप एकेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] उपपात पूर्वनी पेठे जाणवो. परिमाण --- प्रतिसमय पंदर, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं तेमज जाणवुं यावत् - ' पूर्वे अनंतवार उत्पन्न या छे'. ए प्रमाणे ए सोळे महायुग्मोमां एकज प्रकारनो गम जाणवो. मात्र परिमाणमां विशेषता छे - योजद्वापरयुग्ममां परिमाण चौद संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. त्र्योजकल्योजमां तेर, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. द्वापरयुग्मकृतयुग्मम आठ, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. द्वापरयुग्मत्रयोजमां अगियार, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. द्वापरयुग्म - द्वापरयुग्ममां दस, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. द्वापरयुग्मकल्योजमां नव, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न याय छे. कल्योजकृतयुग्ममां चार, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. कल्योजत्रयोजमां सात, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. कल्योजद्वापरयुग्ममां छ, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. २०. [प्र०] हे भगवन् ! कल्योजकल्योजराशिप्रमाण एकेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] उपपात पूर्वनी पेठे जाणवो. परिमाण - पांच, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं यावत् - ' पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थयां छे' त्यां सुधी तेमज जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते 'एमज छे'. पांत्रीशमा शतकमां प्रथम उद्देशक समाप्त. बीओ उद्देो । १. [प्र०] पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते! कओ उववजंति ? [ उ०] गोयमा ! तदेव एवं जद्देव पढमो उद्देसभ तद्देव सोलसखुत्तो बितिओ वि भाणियचो, तहेव सवं । नवरं इमाणि य दस नाणत्ताणि - १ ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं; उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । २ आउयकम्मस्स नो बंधगा, अबंधगा । ३ आउयस्स नो उदीरगा, अणुदीरगा । ४ नो उस्सासगा, नो निस्सासगा, जो उस्सासनिस्सासगा । ५ सत्तविहबंधगा, नो अट्ठविबंधगा । द्वितीय उद्देश. १. [प्र० ] हे भगवन् ! जेने उत्पन्न थयाने पहेलो समय थयो छे एवा कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियो क्यांची आवी उत्पन्न' थाय छे ? [उ०] हे गौतम! तेमज जाणवुं. जेम प्रथम उद्देशक कह्यो तेमज [ सोळ राशिने आश्रयी ] सोळ वार पाठना कथनपूर्वक बीजो उद्देशक कहेवो. बाकी बधुं तेमज कहेवुं. परन्तु दस बाबत विशेषता छे - ( १ ) तेओनी अवगाहना - शरीरनुं प्रमाण जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उत्कृष्ट अंगुलना असंख्यातमा भागनी होय छे. (२) आयुषं कर्मना बंधक नथी, पण अबंधक होय. छे. (३) आयुष कर्मना उदीरक नथी, पण अनुदीरक होय छे. (४) उच्छ्रासवाळा नथी, निःश्वासवाळा नथी अने उच्छ्वासनिःश्वासवाळापण नथी. (५) सात प्रकारना कर्म बंधक होय छे, पण आठ प्रकारना बंधक नथी होता. . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३५.-उदेशक ३-११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २.प्र०] ते गं भंते ! 'पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय'त्ति कालओ केवचिरं होइ ? [उ०] गोयमा! एकं समयं । एवं ठितीए वि । समुग्धाया आदिल्ला दोन्नि । समोहया न पुच्छिजंति । उच्चट्टणा न पुच्छिज्जा । सेसं तहेव सवं निरवसेसं । सोलससु वि गमएसु जाव-अणंतखुत्तो । 'सेवं भंते ! 'सेवं भंते'! ३५-२ । २.प्र०] हे भगवन् ! प्रथम समये उत्पन्न थएला कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेंद्रियो काळथी क्यां सुधी होय छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ एक समय सुधी होय. ए रीते स्थिति संबंधे पण समजवू. तेओने आदिना बे समुद्घातो होय छे. समुद्घातवाळा संबंधे भने उद्वर्तना संबंधे असंभव होवाथी पूछवानुं नथी अने बाकी बधुं सोळे महायुग्मोमां तेज प्रमाणे जाणवू, यावत्-पूर्वे अनंतवार उत्पन्न यया छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पांत्रीशमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. मनुबन्ध ३-११ उद्देसा। १. [प्र०] अपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मदगिदिया णं भंते ! को उववजंति ? [उ०] एसो जहा पढमुद्देसो सोलसहि वि जुम्मेसु तहेव नेयचो, जाव-कलियोगकलियोगत्ताए जाव-अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।३५।३।। २.प्र. चरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कोहिंतो उववजंति ? [उ.1 एवं जहेव पढमसमयउद्देसओ । नवरं देवा न उववजंति, तेउलेस्सा न पुच्छिजति, सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'। ति ।३५४। ३. [प्र०] अचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] जहा अपढमसमयउद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियो। 'सेवं भंते ! सेवं भंते' त्ति ।३५-५। ४. [प्र०] पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते ! कओहितो उववजंति ? [उ०] जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव निरवसेसं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव-विहरइ ।३५-६। ५.प्र०] पढमअपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मपगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति? [10] जहा पढमसमयउद्देसो तहेव भाणियो। 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ।३५-७। ३-११ उद्देशको. १. [प्र०] हे भगवन् ! अप्रथम समयना-(जेने उत्पन्न थयाने द्वितीयादि समयो थया छे एवा) कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेंद्रियो अप्रथम समयोत्पा क्यांची आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] जेम प्रथम उद्देशक कह्यो छे तेमज आ उद्देशक पण सोळे महायुग्मोमां समजवो. यावत्-कल्योज . कृतयुग्मकृतयुग्मरूप जि. एकेन्द्रियोनो कल्योजपणे पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे. हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-३. उत्पाद. २. [प्र०] हे भगवन् ! *चरम समयना कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ए संबंधे जेम चरमसमयकृतप्रथम समय संबंधे उद्देशक कह्यो तेम अहीं कहे. पण देवो अहीं उत्पन्न थता नथी. तेजोलेश्या संबंधे पूछवानु नथी. बाकी बधुं तेमज न्द्रियोनो उत्पाद. युग्मकृतयुग्म एके जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-४. ३.प्र०] हे भगवन् ! अचरमसमय (चरमसमय सिवायना समयोमा वर्तमान ) कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रियो क्याथी आवी अचरमसमय कृत उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जेम अप्रथम समय संबंधे उद्देशक कह्यो छे तेमज बधुं कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! युग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियोनी ते एमज छे. ३५-५. ४. [प्र०] हे भगवन् ! प्रिथम समयना कृतयुग्मकृतयुग्मप्रमाण एकेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम प्रथम समय संबंधी उद्देशक कह्यो छे तेमज बधुं जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्विहरे छे. ३५-६. ५. [प्र०] हे भगवन् । प्रथम-अप्रथम समयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम प्रथम समय संबंधी उद्देशक कह्यो तेमज अहीं पण कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-७. * अहिं चरमसमयशब्दथी एकेन्द्रियोनो मरणसमय विवक्षित छे, अने ते तेना परभवायुषनो प्रथम समय जाणवो. तेमा वर्तमान कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियोने प्रथमसमयना एकेन्द्रियोद्देशकनी पेठे जाणवू. तेमां जे दश बाबतनी विशेषताओ छे ते अहीं जाणवी. पण प्रथम समय अने चरम समयमा आ विशेषता छे के अहीं देवो उत्पन्न थता नथी अने तेथीज तेओने तेजोलेश्या होती नथी. एकेन्द्रियोमा ज्यारे देवो उत्पन थाय छे सारे तेओ तेजोलेश्यासहित उत्पन्न थाय छे. अहिं देवोत्पादनो संभव नथी, माटे तेजोलेश्यावाळा एकेन्द्रियो संबन्धे प्रश्न करता नथी. ३५. ४.. . . ४ प्रथमसमयोत्पन्न अने कृतयुग्मकृतयुग्मत्वना अनुभवने प्रथम समये वर्तमान एवा एकेन्द्रियो ते प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मएकेन्द्रियो कहेवाय छे. ५ सप्तम उद्देशकमा प्रथमसमयोत्पन छतां कृतयुग्मकृतयुग्मराशिनो पूर्व भवमा अनुभव करेलो होवाथी अप्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियो कहेवाय छे. अहीं एकेन्द्रियपणानी उत्पत्तिने प्रथम समये वर्तमान अने पूर्व भवमा विवक्षितराशिरूप संख्यानो अनुभव करेलो होवाथी अप्रथम समयवर्ती एकेन्द्रियो जाणवा. उत्पाद Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ३५. उद्देश २ ६. [ प्र० ] पढमचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मगंदिया णं भंते! को उचचजंति [४०] जहा चरमुद्देसमो तब निरवसेसं 'सेवं भंते । सेवं मंते' । ति । ३५-८ । 1 ३४४ ७. [०] पढमअचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएर्गिदिया णं भंते! कओ उवषजंति ? [उ०] जहा बीमो उद्देसमो तव निरवसेसं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति जाव- विहरइ । ३५-९ । ८. [प्र०] चरमचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएर्गिदिया णं भंते ! कओ उबवजंति ? [30] जहा त्यो उद्दे तद्वेष 'सेयं भंते । सेयं भंते' ति । ३५-१० । ' ९. [ प्र० ] चरम अचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगि दिया णं भंते! कओ उववजंति ? [ ७०] जहा पढमसमयउद्देसओ तदेव निरवसेसं । 'सेयं मंते सेवं मंते' ! त्ति जाव विहरति । ३५-११ । I एवं एए एक्कारस उद्देसगा । पढमो ततिओ पंचमओ य सरिसगमा, सेसा अट्ठ सरिसगमगा । नवरं चउत्थे छ अट्टमे दसमे य देवा न उववज्रंति । तेउलेस्सा नत्थि । पणतीसइमे सए पढमं एगिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं । ६. [अ०] हे भगवन् ! प्रथम- चरमसमयप कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियो स्यांची आयी उत्पन्न चाय छे ! [उ०] हे गौतम | म चरमउद्देशक को तेमज बाकी वधुं जाण. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-८. ७. [प्र०] हे भगवन् ! प्रथम- अचरमसमयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियो क्यांची आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! फ्रेम बीजो उदेशक को तेमज बधुं समज. 'हे भगवन् ! से एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'- एम कहीं यावत् विहरे छे. ३५-९ [उ०] जेम चोपो ८. [प्र० ] हे भगवन् ! चरम - चरमसमयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियो क्यांची आवी उत्पन थाय छे ! उद्देशक कह्यो तेमज बधुं जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ३५-१०. ९. [प्र०] हे भगवन् ! चरम - अचरमसमयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! जैम प्रथम समय संबंधे उद्देशक को तेमज वधुं जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमन छे, हे भगवन् से एमज छे'-एम कही यावत्हिरे. ३५-११ 1 ए रीते ए अगियार उदेशको कहेना. पहेलो, श्रीजो अने पांचमो सरला पाठवाळा छे, अने माकीना आठ उद्देशको सरखा पाठवाव्य छे, परन्तु चोथा, छट्ठा, आठमा भने दसमा उदेशकमा देयो उपजता नयी अने तेओने तेजोलेश्या नथी. पांत्रीशमा शतकर्मा प्रथम एकेन्द्रिय महायुग्मशतक समाप्त. वितियं एगिदियं महाजुम्मसयं १. [०] कण्लेसकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते! कभी उपजंति [30] गोयमा उपचाओ तहेब, एवं जहा ओहिउद्देसर | नवरं इमं नाणत्तं ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? [उ०] हंता कण्हलेस्सा । द्वितीय एकेन्द्रिय महायुग्म शतक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियो क्यांची आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम! औधिक उद्देशकमां का प्रमाणे उपपात जाणवो. पण तेमां आ विशेषता छे * ६ आठमा उद्देशकमा विवक्षित संख्याना अनुभवना प्रथम समयवर्ती होवाथी प्रथम अने चरम समय - मरणसमयवर्ती एवा कृतयुग्म कृतयुग्मराशि रूप एकेन्द्रियो ते प्रथमचरमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेन्द्रियो कहेवाय छे. उद्देशकमा प्रथम विवक्षिताना अनुभवना प्रथम समये वर्तमान तथा अचरम समय- (एकेन्द्रियोत्पादन अपेक्षाए) प्रथम समवर्ती विपक्षित से डेमके तेलोमा विषेय है जो एम न होय तो गीगा उद्देशांक वाहनादिनी माटे तेज प्रथमअचरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रियो कहेवाय. छे. + दशमा उद्देशकमा चरम विवक्षित संख्यानी राशिना अनुभवना छल्ला समये वर्तमान, अने चरमसमय-मरणसमयवर्ती एवा कृतयुग्म २ एकेन्द्रियो से चरम परमसमयकृतयुग्म १ एकेन्द्रियो का . अगियारमा उद्देशकमा चरम विवक्षित संख्यामी राशिना अनुभवने - समये वर्तमान अचरमसमय एकेोत्पादन अपेक्षा प्रथमसमययत एवा कृतयुग्म २ एकेन्द्रियो ते चरम - अचरम कृतयुग्म २ एकेन्द्रियो कहेवाय छे. " : Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३५.-एकेन्द्रिय शतक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३४५ २. [प्र०] ते गं भंते ! 'कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय'त्ति कालओ केवश्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा ! जहाणं पसमयं उक्कोसेणं अंतोमहत्तं । एवं ठितीए वि । सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो । एवं सोलस वि जम्मा भाणियक्षा। 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । ३५-२-१। . ३.प्र.पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते! कओ उववजंति [उ०] जहा पढमसमयउद्देसओ। नवरं प्र० ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ?[उ०] हंता कण्हलेस्सा, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति ।३५-२-२ । ४. एवं जहा ओहियसए एकारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियवा । पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अट्ट वि सरिसगमा । नवरं चउत्थ-छट्ट-अट्ठम-दसमेसु उववाओ नत्थि देवस्स । 'सेवं मंते ! सेवं भंते' ! ति। ३५-२-११ । पणतीसइमे सए वितियं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं । प्रि०] हे भगवन् ! ते जीवो कृष्णलेश्यावाळा छे ? [उ.] हा गौतम ! तेओ कृष्णलेश्यावाळा छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! ते कृष्णलेश्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्म रूप एकेन्द्रियो काळथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सुधी होय. एम स्थिति संबंधे पण जाणवू. बाकी बधुं यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्या सुधी तेमज जाणवं. ए रीते सोळे युग्मो कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-२-१. ३. [प्र०] हे भगवन् ! प्रथम समयना कृष्णलेश्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [30] हे गौतम ! जेम प्रथम समयना उद्देशक संबंधे कयुं तेम जाणवू. परन्तु आ विशेषता छे-[प्र.] हे भगवन् ! ते जीवो कृष्णलेश्यावाळा छे ! [उ०] हे गौतम ! हा, ते जीवो कृष्णलेश्यावाळा छे. बाकी बधुं तेमज जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-२-२. ४. जेम औधिक शतकमां अगियार उद्देशको कह्या तेम कृष्णलेश्यावाळा शतकमां पण अगियार उद्देशको कहेवा. पहेलो, त्रीजो अने सरखा पाठवाळा छे अने बाकीना आठ सरखा पाठवाळा छे. विशेष ए के चोथा, छट्ठा, आठमा अने दसमा उद्देशकमा देवनो उपपात थतो नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ३५-२-११ । पांत्रीशमा शतकमां द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. ततियं एगिदियमहाजुम्मसयं एवं नीललेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं, एक्कारस उद्देसगा तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । ___पणतीसइमे सए ततियं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं ।। तृतीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक. ___ए रीते नीललेश्यावाळा संबन्धे पण कृष्णलेश्याशतकनी जेम कहे, अने अगियार उद्देशको पण एमज कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पांत्रीशमा शतकमां तृतीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. चउत्थं एगिदियमहाजुम्मसयं एवं काउलेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। पणतीसइमे सए चउत्थं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं । चतुर्थ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक. ए रीते कापोतलेश्यावाळा संबंधे पण कृष्णलेश्याशतकनी पेठे कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पांत्रीशमा शतकमां चतुर्थ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. पंचमं एगिदियमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] जहा ओहियसयं तहेव । नवरं ___पांचमुं एकेन्द्रियमहायुग्मशतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म रूप एकेन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम औधिक JainEducation international ४ भ. सू. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३५.-एकेन्द्रिय शतक १२. पक्कारससु वि उद्देसएसु-प्र०] अह भंते ! सवे पाणा जाव-सवे सत्ता भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उववनपुषा ? [उ०] गोयमा ! णो इणढे समढे, सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । पणतीसइमे सए पंचमं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं । कडं तेमज जाणवु. परन्तु अगियारे उद्देशकोमां-[प्र०] हे भगवन् ! सर्व प्राणो, यावत्-सर्व सत्त्वो भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मरूप एकेंद्रियपणे पूर्वे उत्पन्न थया छे ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ यथार्थ नथी. बाकी बधुं तेमज जाणवू. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' पांत्रीशमा शतकमां पांचमुं एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. छठें एगिदियमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं मते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि सयं वितियसयकण्हलेस्ससरिसं भाणियचं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते पत्ति। पणतीसइमे सए छठें एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं । छ8 एकेन्द्रियमहायुग्मशतक. १. प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मप्रमाण एकेन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न याय छे! [उ० हे गौतम! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेन्द्रियो संबंधे पण बीजा कृष्णलेश्याशतकनी पेठे शतक कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज . पांत्रीशमा शतकमा छटुं एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. सत्तमं एगिदियमहाजुम्मसयं । एवं नीललेस्समवसिद्धियएगिदियएहि वि सयं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' त्ति। पणतीइसमे सए सत्तमं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं । - सातमुं एकेन्द्रियमहायुग्मशतक. ए रीते नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण शतक कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पांत्रीशमा शतकमां सातमु एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. ___ अट्ठमं एगिदियमहाजुम्मसयं । एवं काउलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेव एकारसउद्देसगसंजुत्तं सयं । एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि । चउसु वि सपसु सचे पाणा जाव-उववन्नपुषा ? नो इणढे समढे । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ति । पणतीसइमे सए अट्ठमं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं । आठमुं एकेन्द्रियमहायुग्मशतक. ए रीते कापोतलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण अगियार उद्देशको सहित एमज शतक कहे. ए रीते ए चार भवसिद्धिक शतको जाणवा. ए चारे शतकोमा-'सर्व प्राणो, यावत्-पूर्वे उत्पन्न थया छे-ए प्रश्नना उत्तरमा ए अर्थ समर्थ नथी-एम कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पत्रिीशमा शतकमां आठमुं एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. ९-१२ एगिदिययमहाजुम्मसयाई। जहा भवसिद्धिपहिं चत्तारि सयाई भणियाई एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणिय"पाणि । सो पाणा तहेव नो इणट्टे समढे । एवं एयाइंबारस एगिदियमहाजुम्मसयाई मवंति। सेवं भंते । सेवं भंते ति। पणतीसइमं सयं समत्तं। ९-१२ एकेन्द्रियमहायुग्मशतको. ए रीते जेम भवसिद्धिको संबंधे चार शतको कयां छे तेम अभवसिद्धिको संबंधे पण चार शतको लेश्यासहित कहेवा. 'बधा प्राणो यावत्-सत्त्वो पूर्वे उत्पन्न थया छे ! ए प्रश्नना उत्तरमा 'ए अर्थ समर्थ नथी'-एम कहे. ए रीते ए बार एकेंद्रिय महायुग्मशतको छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पांत्रीशमुं शतक समाप्त. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं सयं पढम बेंदियमहाजुम्मसयं पढमो उद्देसो। १. [प्र०] कडजुम्मकडजुम्मबंदिया णं भंते ! को उववजंति ? [उ०] उववाओ जहा वकंतीए । परिमाणं सोलस या संखेज्जा वा उववज्जति असंखेजा वा उववजंति । अवहारो जहा उप्पलुद्देसए । ओगाहणा जहभेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई । एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमुद्देसए तहेव । नवरं तिन्नि लेस्साओ, देवा न उववज्जति । सम्मदिट्टी वा मिच्छदिट्टी वा; नो सम्मामिच्छादिट्ठी । नाणी वा अन्नाणी वा । नो मणयोगी, वययोगी वा कायजोगी वा। २. [प्र०] ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मवेंदिया कालओ केवचिरं होइ ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं, उकोसेणं संजं कालं । ठिती जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई। आहारो नियम छहिसि । तिन्नि समुग्घाया। सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । छत्तीसइमे सए पढमे बेदियमहाजुम्मसए पढमो उद्देसओ सम्मत्तो । छत्रीशमुं शतक प्रथम बेइन्द्रियमहायुग्मशतक प्रथम उद्देशक १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण बेइन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! *व्युत्क्रांतिपदमां कृतयुग्म र रूप बेइ न्द्रियोनो उत्पाद. कह्या प्रमाणे तेओनो उत्पाद जाणवो. परिमाण-तेओ [एक समये ] सोळ, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. तेओनो उत्पाद जेम उत्पलोद्देशकमां कह्यो छे तेम जाणवो. तेओनुं शरीर जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटलं होय छे अने उत्कृष्टथी बार योजन प्रमाण रीते जेम एकेंद्रियमहायुग्मराशि संबंधे प्रथम उद्देशक कह्यो तेम बधुं समजबुं. विशेष ए के अहीं त्रण लेझ्याओ होय छे अने देवोथी आवी उपजता नथी. तेओ सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि होय छे, पण सम्यग्मिथ्यादृष्टि-मिश्रदृष्टि होता नथी. तेओ ज्ञानी अथवा अज्ञानी होय छे. मनोयोगी नथी होता, पण वचनयोगी अने काययोगी होय छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण बेइन्द्रियो कालथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय सुधी बेइन्द्रियोनो अनुअने उत्कृष्ट संख्याता काळ सुधी होय छे, तेओनी जघन्य स्थिति एक समयनी अने उत्कृष्ट स्थिति बार वरसनी होय छे. तेओनो आहार अवश्य छ दिशानो होय छे. तेओने त्रण समुद्घातो होय छे. अने बाकी बधुं यावत्-'अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थया छे' त्या सुधी तेमज जाणवू. ए रीते सोळे युग्मोमा समजवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. छत्रीशमा शतकमां प्रथम बेइन्द्रियमहायुग्मशतकनो प्रथम उद्देशक समाप्त. २-११ उद्देसा। १. [प्र०] पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मबंदिया भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] एवं जहा पगिदियमहाजुम्माण २-११ उद्देशको. . .१. [प्र०] हे भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण बेइन्द्रियो क्याथी भावी उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गौतम ! बेइन्द्रियोनो १* प्रज्ञा० पद प० २१३-१. 1 भग० खं.३ श० ११ उ०१पृ. २०८. उत्पाद. पन्ध काळ. साप्र बमसमयकृतयुग्म Jain Education international Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे— शतक ३६. - बेइन्द्रिय शतक ४. पढमसमयउद्देसए । दस नाणत्ताई ताई चैव दस इह वि । एक्कारसमं इमं नाणतं नो मणयोगी, नो वहयोगी, काययोगी । सेसं जहा बेंदियाणं चैव पढमुद्देसप | 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! ति । एवं एए वि जहा एर्गिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तब भाणिया | नवरं चउत्थ-छट्ट-अट्ठम-दसमेसु सम्मत्त-नाणाणि न भवंति । जद्देव एर्गिदिपसु पढमो तहओ पंचमो य एक्कगमा सेसा अट्ठ एक्कगमा । ३४८ छत्तीस मे स पढमं बेईदियमहाजुम्मसयं समत्तं । जे एकेंद्रियमहायुग्मोना प्रथम समय सबन्धी उद्देशक कह्यो छे तेम अहीं जाणवुं. जे दस बाबतनी विशेषता छे ते अहीं पण जाणवी. अनेअगियारमी आ विशेषता छे - तेओ मनयोगी तथा वचनयोगी नथी होता, पण मात्र काययोगी होय छे. बाकी बधुं बेइन्द्रियना प्रथम उद्दे शकमां कह्युं छे तेम समजवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. जेम एकेंद्रिय महायुग्मोमां अगियार उदेशको कह्या तेम अहीं पण कहेवा. पण विशेष ए के, चोथा, छट्ठा, आठमा अने दसमा उद्देशकमां सम्यक्त्व अने ज्ञान होता नथी. एकेंद्रियोनी पेठे पहेलो, त्रीजो अने पांचमो उद्देशक सरखा पाठवाळा छे अने बाकीना आठ उद्देशको सरखा पाठवाळा छे. . छत्रीशमा शतकमां प्रथम बेइन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. . २-८ बेंदियमहाजुम्मसयाई । १. [ प्र० ] कण्हलेस डजुम्मकडजुम्मबेइंदिया णं भंते! कओ उववजंति ? [ उ०] एवं चेव । कण्डलेस्सेसु वि एकारसउद्देसगसंजुत्तं सयं । नवरं लेस्सा, संचिट्ठणा, ठिती जहा एर्गिदियकण्हलेस्साणं । छत्तीस मे सए बितियं वैदियमहाजुम्मसयं समत्तं । २-८ बेइन्द्रियमहायुग्मशतको. १. [प्र० ] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्मप्रमाण बेइन्द्रिय जीत्रो क्यांयी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! एमज जाणवुं. कृष्णलेश्यावाळा संबंधे अगियार उद्देशकसहित शतक कहेवुं. पण विशेष ए के, कृष्णलेश्यावाळा एकेन्द्रियोनी पेठे लेश्याओ संचिट्ठणा-स्थितिकाळ अने आयुषस्थिति जाणवी. छत्रीशमा शतकमां द्वितीय बेइन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. तई बेंदियमहाजुम्मसयं । एवं नीललेस्सेहि वि सयं । एप्रमाणे नीलेश्यावाळा. संबंधे पण शतक कहेवु. एवं काउलेस्सेहि वि । छत्तीसइमे स ततियं बेइन्दियमहाजुम्मसयं समयं । श्रीजुं बेइन्द्रियमहायुग्मशतक. छत्रीशमा शतकमा श्रीजुं बेइन्द्रिय महायुग्मशतक समाप्त. चउत्थं बेंदियं महाजुम्मसयं । चउत्थं बेइन्दिय महाजुम्मसयं समत्तं । चतुर्थ बेइन्द्रियमहायुग्मशतक. प्रमाणे कापोतश्यावाळा संबंधे पण शतक कहेवुं. छत्रीशमा शतकमां चतुर्थ बेइन्द्रिय महायुग्मशतक समाप्त. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पंचमं बेंदियमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मबेईदिया णं भंते !० ? [उ०] एवं भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेष पुञ्जगमएणं नेयष्वा । नवरं सधे पाणा० ? णो तिणट्ठे समट्ठे । सेसं तहेव ओहियसयाणि चत्तारि । 'सेत्रं भंते ! सेवं भंते' । न्ति । ५-८ छत्तीस अमं इदियमहाजुम्मसयं समत्तं । शतक ३६. - बेइन्द्रिय शतक १२. ५-८ बेइन्द्रियमहायुग्मशतको. १. [प्र०] भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप बेइन्द्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] एम भवसिद्धिक संबंधे चार शतको पूर्वना पाठवडे जाणवा. विशेष ए के सर्व प्राणो अहीं पूर्वे अनन्तवार उत्पन्न थया छे ? तेना उत्तरमां निषेध करवो. बाकी बधुं तेमज जाणवु. चार औधिक शतको पण तेमज जाणवां. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन्! 1 ते एमज 'छे'. छत्रीशमा शतकमां ५-८ बेइन्द्रियमहायुग्मशतको समाप्त. ९ - १२ बेइंदियमहाजुम्मसयाई । जहा भवसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणियष्वाणि । नवरं सम्मत्त नाणाणि नत्थि, सेस तं चैव । एवं एयाणि बारस बेइंदियमहाजुम्मसयाणि भवंति | 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । दियमहाजुम्मसयाई समत्ताई छत्तीसतिमं सयं समत्तं । ३४९ ९ - १२ बेइन्द्रियमहायुग्मशतको. जेम भवसिद्धिक संबंधे चार शतको कह्यां तेम अभवसिद्धिक संबंधे पण चार शतको कहेवां विशेष ए के, तेओमां सम्यक्त्व अने -ज्ञान नथी. बाकी बधुं तेमज जाणवुं. ए रीते ए बार बेइन्द्रियमहायुग्मशतको छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ९ - १२ बेइन्द्रिय महायुग्मशतको समाप्त. छत्रीभुं शतक समाप्त. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीसइमं सयं - १. [प्र०] कडजुम्मकडजुम्मतेंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] एवं तेइंदिएसु वि वारस सया कायद्या बेइंदियसयसरिसा । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उकोसेणं तिनि गाउयाई। ठिती जहणं एवं समयं, उकोसेणं एकूणवनं राईदियाई, सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। तेंदियमहाजुम्मसया समत्ता सत्ततीसइमं सयं समत्तं । कृतयुग्म २ रूप तेह- न्द्रियोनो उत्पाद साडनीशमुं शतक १. [प्र०] हे भगवन् | कृतयुग्मकृतयुग्मप्रमाण तेइन्द्रिय जीवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ.] एम बेइन्द्रियशतकोनी पेठे तेइंद्रियसंबंधे पण बार शतको करवा. परन्तु अवगाहना-शरीरनुं प्रमाण जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने होय छे. स्थिति जघन्य एक समयनी अने उत्कृष्ट ओगणपचास रात्री-दिवसनी जाणवी. बाकी बधुं तेमज जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. तेइन्द्रियमहायुग्मशतको समाप्त. साडत्रीशमुं शतक समाप्त. . Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठतीसइमं सयं। चउरिदिएहि वि एवं चेव यारस सया कायवा । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजईभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । ठिती जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा । सेसं जहा बेंदियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति। चउरिंदियमहाजुम्मसया समत्ता। अट्ठतीसइमं सयं समत्तं । आडत्रीशमुं शतक. एज प्रमाणे चउरिदियो संबंधे पण बार शतको कहेवा. परन्तु अवगाहना-शरीरप्रमाण जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग बने तयुग्म २ रूप चत Rन्दियोनो उत्पाद उत्कृष्ट चार गाउनी जाणवी. स्थिति जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट छ मास. बाकी बधुं बेइन्द्रियोनी पेठे जाणवं. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चउरिन्द्रियमहायुग्मशतको समाप्त. आडत्रीशमुं शतक समाप्त. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणयालीसइमं सयं। १. [प्र०] कडजुम्मकडजुम्मअसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजन्ति ? [उ०] जहा बन्दियाणं तहेव असंनिसुवि बारस सया कायचा । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं. अंगुलस्स · असखेजहभाग, उक्कोसेणं. जोयणसहस्सं । संचिटणा जहण एक समय, उक्कोसेणं पुष्चकोडीपुहुत्तं । ठिती जहन्नेणं एकं समय, उक्कोसेण पुषकोडी, सेसं जहा बेंदियाणं । सेवं भंते सेवं भंते' ! ति। असन्निपंचिंदियमहाजुम्मसया समत्ता एगूणयालीसइमं सयं समत्त। कृतयुग्म २ रूप असंशी पंचेन्द्रियनो उत्पाद. ओगणचालीशमुं शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मप्रमाण असंज्ञी पंचेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे । [उ०] एम.बेइन्द्रियोनी पेठे असंज्ञीना पण बार शतको करवा. परन्तु विशेष ए के, अवगाहना-शरीरप्रमाण जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट एक हजार योजन होय छे. संचिट्ठणा-स्थितिकाळ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट बे पूर्वक्रोडथी नव पूर्वक्रोड सुधीनी-होय छे, स्थिति जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट पूर्वकोटि. बाकी बधुं बेइन्द्रियोनी जेम जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. असंज्ञीपंचेंद्रियमहायुग्मशतको समाप्त. ओगणचालीशम शतक समाप्त. RRIA . Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तालीसतिमं सयं पढमं सन्निपंचिदियमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] कडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजन्ति ? [उ०] उववाओ चउसु वि गईसु । संखेजवासाउयअसंखेजवासाउयपजत्तअपजत्तएसु य न कओ वि पडिसेहो जाव-'अणुत्तरविमाण' त्ति । परिमाणं. अवहारो भोगाहणा य जहा असन्निपंचिदियाणं । २. वेयणिजवजाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा वा, बेयणिजस्स बंधगा, नो अबंधगा । मोहणिजस्स वेदगा वा अवेदगा वा, सेसाणं सत्तण्ह वि वेदगा, नो अवेयगा । सायावेयगा वा असायावेयगा वा । मोहणिजस्स उई वा अणुदई वा, सेसाणं सत्तण्ह वि उदयी, नो अणुदई । नामस्स गोयस्स य उदीरगा, नो अणुदीरगा, सेसाणं छह वि चालीशमुं शतक प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मराशिरूप संज्ञी पंचेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! चारे गतिमाथी कृतयुग्म २ रूप संशी र पंचेन्द्रिवोनो आवी उत्पन्न थाय छे. संख्याता वर्षना आयुषवाळा, असंख्याता वर्षना आयुषवाळा पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोथी आवी उत्पन्न थाय छे, १ उत्पादक्यांइथी पण निषेध नथी, यावत्-अनुत्तर विमान सुधी जाणवू. परिमाण, अपहार अने अवगाहना संबन्धे जेम असंज्ञिपंचेंद्रियो संबंधे कह्यु छे तेम जाणवू. २. वेदनीय सिवाय सात कर्मप्रकृतिना तेओ बंधक छे अने अबंधक पण छे. अने *वेदनीयना तो बंधक ज छे पण अबंधक नथी. कर्मना बन्धक मोहनीयना वेदक छे अने अवेदक पण छे. अने बाकीनी साते कर्मप्रकृतिना वेदक छे पण अवेदक नथी. साताना वेदक छे अने असाताना वेदक छे. मिोहनीयना उदयवाळा छे अने अवेदक-अनुदयवाळा पण छे, अने ते सिवाय बाकीनी साते कर्मप्रकृतिना उदयवाळा छे, पण अनुदयी नथी. 'नाम अने गोत्रना उदीरक छे पण अनुदीरक नथी. बाकीनी छए कर्मप्रकृतिओना उदीरक पण छे अने अनुदीरक पण छे. तेओ २ * अहीं वेदनीय कर्मनो विशेषतः बन्ध कहे छे-उपशान्तमोहादि वेदनीय सिवाय सात कर्मना अबन्धक छे, वाकीना यथासंभव बन्धक छे. केवलीपणा सुधी बधा संज्ञी पंचेन्द्रिय कहेवाय छे, अने त्या सुधी तेओ अवश्य वेदनीय कर्मना बन्धक ज होय छे, अबन्धक होता नथी. तेमा सूक्ष्मसंपराय सुधीना संज्ञी पंचेन्द्रिय मोहनीयना वेदक होय छे, अने उपशान्तमोहादि अवेदक होय छै. उपशान्तमोहादि जे संज्ञी पंचेन्द्रिय होय छे ते मोहनीय सिवाय साते प्रकृतिओना वेदक छे, पण अवेदक नथी. यद्यपि केवलज्ञानी चार अघाती कर्म प्रकृतिओना वेदक छे, पण ते इन्द्रियना उपयोगरहित होवाथी पंचेन्द्रिय नथी. ___ + सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक सुधी मोहनीय कर्मना उदयवाळा होय छे अने उपशान्तमोहादि अनुदयवाळा होय छे. घेदकपणुं अने उदय ए बेमां एटली विशेषता छे के अनुक्रमे अने उदीरणाकरणथी उदय आवेला-फलोन्मुख थयेला कर्मनो अनुभव करवो ते वेदकत्व, अने अनुक्रमे उदय आवेला कर्मनी अनुभव करवो ते उदय. नाम अने गोत्र कर्मना अकषाय (क्षीणमोह गुणस्थान ) पर्यन्त बधा संज्ञी पंचेन्द्रिय उदीरक छे. बाकीनी छ प्रकृतिओना यथासंभव उदीरक पण छे अने अनुदीरक पण छे. उदीरणानो क्रम आ प्रमाणे छे-प्रमत्त पर्यन्त सामान्य रीते बधा आठ कर्मना उदीरक छे, अने ज्यारे आयुष आवलिका मात्र बाकी रहे सारे तेओ आयुष सिवाय सात कर्मना उदीरक छे. अप्रमत्तादि चार वेदनीय अने आयुष सिवाय छ कर्मना उदीरक छे, अने सूक्ष्मसंपराय आवलिका मात्र बाकी होय त्यारे मोहनीय, वेदनीय अने आयुष सिवाय पांच कर्मना उदीरक छे. उपशान्तमोह एज पांच कर्मना उदीरक छे. क्षीणकषाय पोतानो काळ आवलिका बाकी होय त्यारे नाम अने गोत्रकर्मना उदीरक छे. सयोगी पण तेवी जरीते उदीरक छे अने अयोगी अनुदीरक छे. . ४ ५ भ० सू० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४०.-संक्षीपंचेन्द्रिय शतक १. उदीरगा वा अणुदीरगा वा । कण्हलेस्सा वा जाव-सुक्कलेस्सा वा । सम्मदिट्ठी वा, मिच्छादिट्ठी वा, सम्मामिच्छादिट्ठी वा। णाणी वा अन्नाणी वा, मणजोगी वइजोगी कायजोगी। उवयोगो, वन्नमादी, उस्सासगा वा नीसासगा वा, आहारगा य जहा एगिदियाणं; विरया य अविरया य विरयाविरया य । सकिरिया, नो अकिरिया। ३.०] ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा वा अट्टविहबंधगा वा छबिहबंधगा वा एगविहबंधगा वा ? [उ०] गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा, जाव-एगविहबंधगा वा। ४.प्र.] ते णं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता, जाव-परिग्गहसन्नोनउत्ता वा, नोसन्नोवउत्ता वा ? सवत्थ पुच्छा भाणियचा। [30] गोयमा! आहारसन्नोवउत्ता जाव-नोसन्नोवउत्ता वा। कोहकसायी वा जाव-लोभकसायी वा, अकसायी वा । इत्थीवेदगा वा पुरिसवेदगा वा नपुंसगवेदगा वा अवेद्गा वा। इत्थिवेदबंधगा वा पुरिसवेदबंधगा वा नपुंसगवेदबंधगा वा अबंधगा वा । सन्नी, नो असन्नी। सइंदिया, नो अणिदिया। संचिट्ठणा जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहुत्तं सातिरेगं । आहारों तहेव जाव-नियम छहिसि । ठिती जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो, वमाई। छ समुग्धाया आदिल्लगा। मारणंतियसमुग्धारणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । उपट्टणा जहेव उववाओ, न कत्थइ पडिसेहो, जाव-अणुत्तरविमाण त्ति । ५. अह भंते ! सबपाणा जाव-अणंतखुत्तो । एवं सोलसु वि जुम्मेसु भाणियचं जाव-अणंतखुत्तो । नवरं परिमाणं जहा बेइंदियाणं, सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । ४०-१। ६. [प्र०] पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते! कओ उववजन्ति ? [उ०] उववाओ, परिमाणं. आहारो जहा एएसिं चेव पढमोद्देसए । ओगाहणा बंधो वेदो वेदणा उदयी उदीरगा य जहा बेन्दियाणं पढमसमयाणं, तहेव कण्हलेस्सा वा जाव-सुकलेस्सा वा । सेसं जहा बेन्दियाणं पढमसमइयाणं जाव-अणंतखुत्तो । नवरं इत्थिवेदगा वा कृष्णलेश्यावाळा यावत्-शुक्ललेश्यावाळा होय छे, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिध्यादृष्टि पण होय छे. अज्ञानी अथवा ज्ञानी होय छे. अने मनोयोगवाळा वचनयोगवाळा, अने काययोगवाळा पण होय छे. तथा तेओनो उपयोग, वर्णादि, उच्छासक, निःश्वासक तथा आहारकइत्यादि एकेंद्रियोनी पेठे जाणQ. तेओ विरतिवाळा, अविरतिवाळा अने विरताविरत-देशविरतिवाळा होय छे. तथा सक्रिय होय छे, पण अक्रिय नथी होता. ३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो सप्तविध कर्मना बंधक छे, अष्टविध कर्मना बंधक छे, छ प्रकारना कर्मना बंधक छे के एकविध कर्मना बंधक छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सप्तविध कर्मना बंधक छे, यावत्-एकविध कर्मना बंधक छे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा, यावत्-परिग्रहसंज्ञाना उपयोगवाळा के नोसंज्ञाना उपयोगवाळा छे !-एम बधी पृच्छा करवी. [उ०] हे गौतम! तेओ आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा छे अने यावत्-नोसंज्ञाना उपयोगवाळा छे. तेओ क्रोधकषायी यावत्-लोभकषायी के अकषायी होय छे. तेओ स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा, नपुंसकवेदवाळा अने यावत्-वेदरहित होय छे. स्त्रीवेदबंधक, पुरुषवेदबंधक, नपुंसकवेदबंधक अने अबंधक पण होय छे. संज्ञी होय छे पण असंज्ञी नथी होता. तेम इन्द्रियवाळा होय छे पण अनिद्रिय होता नथी. *संस्थितिकाळ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट काइक अधिक बसोथी नवसो सागरोपम जाणवो. आहार संबंधे तेमज जाणवं, यावत्-अवश्य छए दिशानो आहार होय छे. स्थिति जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी छे. आदिना छए समुद्घातो होय छे. मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थइने मरे छे अने समवहत थया सिवाय पण मरे छे. उपपातनी पेठे उद्वर्तना पण जाणवी. अने तेनो क्याइ पण निषेध नथी. एम यावत्-अनुत्तरविमान सुधी जाणवू. ५. [प्र०] हे भगवन् ! बधाय प्राणो यावत्-पूर्वे अहीं अनंतवार उत्पन्न थया छे ! [उ०] यावत्-पूर्वे अनन्तवार उत्पन्न थया छे. ए प्रमाणे सोळो युग्मोमां यावत्-अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थया छे त्यां सुघी कहे. विशेष ए के, परिमाण बेइन्द्रियोनी पेठे जाणवं अने बाकी बधुं तेमज समजq. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ४०-१. कृतयुग्म २ रूप संधी ६. [प्र०] हे भगवन् ! प्रथम समयना कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण संज्ञी पंचेन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] तेओनो पंचेन्द्रियोनो उत्पाद. उपपात, परिमाण अने आहार प्रथम उद्देशकमां कर्तुं छे तेम जाणवो. तथा जेम प्रथम समयना बेइन्द्रियोने कयुं तेम अवगाहना, बंध, वेद, वेदना, उदयी अने उदीरको संबंधे जाणवू. तेमज कृष्णलेश्यावाळा अने यावत्-शुक्ललेश्यावाळा संबंधे जाणवू. बाकी बधुं प्रथम समयना बेइन्द्रियोनी पेठे समजq. यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे'. परन्तु स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा अने नपुंसकवेदवाळा होय ४* कृतयुग्म २ रूप संज्ञी पंचेन्द्रियोनो अवस्थितिकाळ जघन्य एक समय छे, कारण के समय पछी संख्यान्तर थवानो संभव छे भने उत्कृष्ट सागरोपमशतपृथक्त्व छे, कारणके ए पछी संज्ञी पंचेन्द्रियरूपे थतो नथी.-टीका. . Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४०.-संक्षीपंचेन्द्रिय शतक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्रपुरिसवेदगा वा नपुंसगवेदगा था, सन्निणो असन्नीणो, सेसं तहेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सर्छ । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ४०-२। एवं पत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेवं, पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अट्ट वि सरिसगमा । चउत्थछष्टु-भट्ठम-दसमेसु नत्थि विसेसो कायधो । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति। चत्तालीसतिमे सते पढमं सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं । छे, संज्ञीओ अने असंज्ञी-इत्यादि बाकी बधुं तेमज जाणवू. ए रीते सोळे युग्मोमां तेमज समजवू. तथा तेओनी परिमाण वगेरे बधी हकीकत पूर्वनी पेठे जाणवी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ४०-२. ए प्रमाणे अहीं पण अगियार उद्देशको तेमज कहेवा. प्रथम, तृतीय अने पंचम उद्देशक सरखा पाठवाळा छे, अने बाकीना आठे उद्देशको सरखा पाठवाळा छे. तथा चोथा, छठा, आठमा भने दशमा उद्देशकोमा कोइ पण प्रकारनी विशेषता न करवी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चाळीशमा शतकमां प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त. बितीयं सन्निपंचिदियमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसनिपंचिंदिया णं भंते ! को उववजंति ? [उ०] तहेव जहा पढमुद्देसओ सन्नीणं । नवरं बन्धो वेओ उदयी उदीरणा लेस्सा बन्धग-सन्ना कसाय-वेदबंधगा य एयाणि जहा बेंदियाणं । कण्हलेस्साणं वेदो तिविहो, अवेद्गा नत्थि । संचिट्ठणा जहन्नेणं एक समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई । एवं ठितीए वि । नवरं ठितीए अंतोमुहुत्तमभहियाई न भन्नंति । सेसं जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए जाव-अणंतखुत्तो । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति। २. [प्र०] पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजन्ति ? [उ०] जहा सन्निपं. चिदियपढमसमयउद्देसए तहेव निरवसेसं । नवरंगप्र० ते णं भंते! जीवा कण्हलेस्सा ? [उ०] हंता कण्हलेस्सा, सेसं तं चेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । एवं एए वि एकारस वि उद्देसगा कण्हलेस्ससए । पढसततिय-पंचमा सरिसगमा, सेसा अट्ट वि एक्कगमा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। चत्तालीसइमे सए वितियं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । द्वितीय संज्ञीमहायुग्मशतक. १. प्रि०हे भगवन् | कृष्णलेझ्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण संज्ञी पंचेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! उ०] हे गौतम! कृष्ण लेश्यावाळा जेम संज्ञी संबंधे प्रथम उद्देशक कह्यो छे तेम आ पण समजवो. विशेष ए के बंध, वेद, उदयी, उदीरणा, लेश्या, बंधक, संज्ञा, कषाय भने NS. वेदबंधक-ए बधा जेम बेइन्द्रियोने कह्या छे तेम अहीं कहेवा. कृष्णलेश्यावाळा संज्ञीने त्रणे प्रकारनो वेद होय छे, अवेदक होता नथी. तेओनो पण स्थिति काळ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेत्रीश सागरोपम होय छे. एम स्थिति संबंधे पण समजवु. विशेष ए के, स्थितिमां अंतर्मुहूर्त अधिक न कहेवू. बाकी बधुं जेम एओना प्रथम उद्देशकमां कहुं छे तेम यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्यां सुधी जाणवू. एम सोळे युग्मोमां कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. २-१. २. [प्र०] हे भगवन् ! प्रथम समयना कृष्णलेश्यावाळा कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण संज्ञी पंचेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! कृतयुग्म २ संधी [उ०] जेम प्रथम समयना संज्ञी पंचेंद्रियोना उद्देशकमां कडं छे तेमज बधुं जाणवू. विशेष ए के-[प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो। पंचेन्द्रियोनो कृष्णलेश्यावाळा छे ! [उ०] हे गौतम ! हा, ते जीवो कृष्णलेश्यावाळा छे. बाकी बधुं तेमज समजवू. ए रीते सोळे युग्मोमा कहे. उत्पाद. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. एरीते कृष्णलेश्याशतकमां आ अगियारे उद्देशको कहेवा. पहेलो, त्रीजो अने पांचमो सरखा पाठवाळा छे अने बाकीना आठे एक पाठवाळा छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'. ___ चाळीशमा शतकमां द्वितीय संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. १* अहीं कृष्णलझ्याना अवास्थातकाळ सातमा नरकटावीना नारकनी उत्कृष्ट स्थिति अने पूर्वभवना पर्यन्तवी परिणामने आश्रयी अन्तर्मुहूर्त मळी अन्तर्मुहूर्त अधिक तेत्रीश सागरोपम होय छे. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४०.-संज्ञीपंचेन्द्रिय शतक ६. तइयं सन्निमहाजुम्मसयं । एवं नीललेस्सेसु वि सयं । नवरं संचिट्ठणा जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिओषमस्स असंखेजरभागमभहियाई । एवं ठितीए । एवं तिसु उद्देसएसु, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति। चत्तालीसइमे सए तइयं सनिमहाजुम्मसयं समत्तं । तृतीय संज्ञीमहायुग्मशतक. नीललेश्यावाळा ए प्रमाणे नीललेश्यावाळा संबंधे पण शतक कहे. विशेष ए के, स्थितिकाल जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट पल्योपमना असंख्यातमा कृतयुग्म २ संशीनो उत्पाद. भाग अधिक *दस सागरोपम जाणवो. ए प्रमाणे स्थितिसंबंधे पण समजबु, तथा ए रीते (पहेला, त्रीजा अने पांचमा-) ए त्रणे उद्देशकोमा जाणवू अने बाकी बधुं तेमज जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'.. चाळीशमा शतकमां तृतीय संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. चउत्थं सन्निमहाजुम्मसयं । एवं काउलेस्ससयं पि । नवरं संचिट्ठणा जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं तिन्नि. सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजइभागमभहियाई । एवं ठितीए वि, एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! ति। चत्तालीसइमे सए चउत्थं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । चतुर्थ संज्ञीमहायुग्मशतक. कापातलेश्यावाला ए रीते कापोतलेश्या संबंधे पण शतक कहे. पण विशेष ए के, स्थितिकाळ जघन्य एक समय अने उत्कष्ट पिल्योपमना असंकृतयुग्म २ राशिरूप ख्यातमा भाग अधिक त्रण सागरोपम. ए प्रमाणे स्थिति संबंधे पण समजवू, तथा एम त्रणे उद्देशकोमा जाणवू अने बाकी बधुं तेमज जाणवू. उत्पाद. . 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चाळीशमा शतकमां चतुर्थ संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. पंचमं सन्निमहाजुम्मसयं । एवं तेउलेस्सेस वि सयं । नवरं संचिटणा जहन्नण एवं समयं. उनोसे दो सागरोखमा पलिओवमम्स असंखेजाभा. गमभहियाई । एवं ठितीए वि। नवरं नोसन्नोवउत्ता वा । एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते । सेवं भंते'त्ति । चत्तालीसहमे सए पंचमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । __पांचमुं संज्ञीमहायुग्मशतक. तेजोलेश्यावाळा सं० १. एम तेजोलेश्या संबंधे पण शतक कहे. विशेष ए के, स्थितिकाळ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट पिल्योपमना असंख्यातमा पं० नो उत्पाद. भाग अधिक बे सागरोपम होय छे. ए रीते स्थितिसंबंधे पण समजवं. विशेष ए के नोसंज्ञाना उपयोगवाळा पण होय छे. एम त्रणे उद्देशकोमा समजवू. बाकी बधुं तेमज जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. चाळीशमा शतकमां पांचमुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. छठें सन्निमहाजुम्मसयं । १. [प्र०]'जहा तेउलेस्सासतं तहा पम्हलेस्सासयं पि । नवरं संचिट्ठणा जहन्नेणं एक समयं, उकोसेणं दस सागरो छटुं संज्ञीमहायुग्मशतक. पडलेश्यावाळा संशी १. जेम तेजोलेश्या संबंधे शतक का छे तेम पद्मलेल्या संबंधे पण आ शतक समजबुं. विशेष ए के संस्थितिकाल जघन्य एक पं० नो उत्पाद समय अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त अधिक दस सागरोपम छे. एम "स्थिति संबंधे पण समजवं. विशेष ए के, अहीं अधिक अंतर्मुहर्त न कहे. १* पांचमी नरकपृथिवीना उपरना प्रतरमा पल्योपमना असंख्यातमा भाग अधिक दश सागरोपमनुं उत्कृष्ट आयुष छे अने त्यां नीललेश्या छे. अहीं पूर्वना अन्तिम अन्तर्मुहूर्तनी गणना न करी तेनु कारण पल्योपमना असंख्यातमा भागमां तेनो समावेश कयों छे. २॥ त्रीजी नरकपृथिवीना उपरना प्रतरनी स्थिति पल्योपमना असंख्यातमा भाग अधिक त्रण सागरोपमनी छ, भने त्यो कापोतलेश्या छ तेथी उपर कहेली स्थिति घटी शके छे. ११ तेजोलेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति ईशानदेवलोकना देवोना परमायुषने आश्रयी जाणवी. ११ पद्मलेल्यानी उत्कृष्ट स्थिति ब्रह्मदेवलोकना देवोने आश्रयी पूर्वभवना अन्तिम अन्तर्मुहूर्तसहित दस सागरोपम जाणवी.-टीका. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४० - संज्ञीपंचेन्द्रिय शतक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५७ वमाइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाइँ । एवं ठितीए वि । नवरं अंतोमुहुत्तं न भन्नति, सेसं तं चैव । एवं पपसु पंचसु ससु जहा कण्हलेस्सास गमओ तहा नेयचो, जाव- अनंतखुत्तो । 'सेवं भंते । सेवं भंते' ! ति । चालीसतिमे सए छटुं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । बाकी बधुं तेमज जाणवुं. एम पांचे शतकोमा जेम कृष्णलेश्याना शतकमां जे पाठ कह्यो छे ते पाठ कहेवो. यावत्- ' पूर्वे अनंत वार उत्पन्न था छे'. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चाळीशमा शतकमां छटुं शतक समाप्त. सत्तमं सन्निमहाजुम्मसयं । १. सुकलेस्ससयं जहा ओहियसयं । नवरं संचिट्ठणा ठिती य जहा कण्हलेस्ससए, सेसं तदेव जाव - अनंतखुत्तो । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । चत्तालीस मे सए सत्तमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । सात संज्ञीमहायुग्म शतक. १. जेम औधिक शतक कह्युं छे तेम शुक्ललेश्या संबंधे पण शतक कहेवुं. विशेष ए स्थितिकाळं अने स्थिति संबंधे * कृष्णलेश्याशतकनी जेम जाणवुं. तथा बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवुं यावत् - ' पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे'. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चाळीशमा शतकमां सात मुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. अट्ठमं सन्निमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जन्ति ? [30] जहा पढमं सन्निसतं तहा णेयष्वं भवसिद्धियाभिलावेणं । नवरं - [प्र०] सवपाणा० १ [30] णो तिणट्टे समट्ठे । सेसं तहेव, 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! ति । चालीस मे सए अट्टमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । आठमुं संज्ञीमहायुग्म शतक. भवसिद्धिकोनो उत्पाद. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण भवसिद्धिक संज्ञी पंचेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] जेम पहेलुं कृत०२ सं० पं० संज्ञीशतक कह्युं छे ते प्रमाणे भवसिद्धिकना आलापथी कहेवुं. विशेष ए के, बधा जीवो अहीं पूर्वे उत्पन्न थया छे ? ए उपपातना प्रश्ननो ए अर्थ समर्थ नथी-ए निषेधात्मक उत्तर आपवो. बाकी बधुं तेमज जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. | चाळीशमा शतकमी आठमुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. नवमं सन्निमहाजुम्मसयं । १. कण्हलेस्सभवसिद्धीयकडजुम्मकडजुम्मसन्निपचिदिया णं भंते! कओ उववज्जन्ति १ [30] एवं एएणं अभिलावेणंजहा ओहियकण्हलेस्ससयं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । चालीस मे सए नवमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । नवमं संज्ञीमहायुग्मशतक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्म कृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक संज्ञी पंचेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] ए रीते ए अभिलापथी जेम कृष्णलेश्यावाळा संबंधे औधिकशतक कह्युं छे तेम अहीं पण जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! एम छे'. चाळीशमा शतकमां नवभुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. दशमं सन्निमहाजुम्मसयं । एवं नीलले स्सभवसिद्धीप वि सयं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' त्ति । चालीस मे सए दसमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । दशमं संज्ञीमहायुग्मशतक. १. ए रीते नीललेश्याबाळा भवसिद्धिको संबंधे पण शतक कहेवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चाळीशमा शतकमां दशमुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. । * शुक्ललेश्यानी स्थिति पूर्वभवना अन्तिम अन्तर्मुहूर्त सहित अनुत्तर देवना उत्कृष्ट तेन्रीश सागरोपमना आयुषने आश्रयी जाणवी. - टीका. शुकुलेश्या वाळा कृत० २ सं० पं० नो उत्पाद. कृष्ण० भव० सं० पं० नो उत्पाद नीललेश्या बाळा कृत० २ भवसिद्धिक सं० पं० नो उत्पाद. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे- शतक ४०.-संज्ञीपंचेन्द्रिय शतक १५. ११-१४ सन्निमहाजुम्मसयं ।। एवं जहा मोहियाणि सग्निपंचिंदियाणं सत्त सयाणि भणियाणि, एवं भवसिद्धीएहि वि.सत्त सयाणि कायद्याणि । नवरं सत्तसु वि सपसु सधपाणा जाव-णो तिणढे समढे, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भते' ! ति । भवसिद्धियसया समता । चत्तालीसइमे सए चोद्दसमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । ११-१४ संज्ञीमहायुग्मशतको. १. जेम संज्ञी पंचेंद्रियो संबंधे सात औधिक शतको कह्यां छे ए रीते भवसिद्धिको संबंधे पण सात शतको करवा. विशेष ए के साते शतकोमा सर्व प्राणो पूर्वे अहीं उत्पन्न थया छे-ते प्रश्नना उत्तरमा यावत्-'ए अर्थ समर्थ नथी-एम कहे. बाकी बधुं तेमज जाणवू, 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चाळीशमा शतकमां ११-१४ संज्ञीमहायुग्मशतको समाप्त. पन्नरसमं सन्निमहाजुम्मसयं । १. [प्र०] अभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजन्ति ? [उ०] उववालो तहेव अणुतरविमाणवजो। परिमाणं, अवहारो, उच्चत्तं, बंधो, वेदो, वेदणं, उदओ, उदीरणा य जहा कण्हलेस्ससए । कण्हलेस्सा वा जाव-सुक्कलेस्सा वा । नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी । नो नाणी, अन्नाणी-पवं जहा कण्हलेस्ससए । नवरं नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया । संचिटणा ठिती य जहा ओहिउद्देसए । समुग्धाया आदिल्लगा पंच । उवट्टणा तहेव अणुत्तरविमाणवजं । सधपाणाणो जाव-तिणटे समठे, सेसं जहा कण्हलेस्ससए, जाव-अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । २. [प्र०] पढमसमयअभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजन्ति ? [उ०] जहा सन्नीणं पढमसमयउद्देसए तहेव । नवरं सम्मत्तं, सम्मामिच्छत्तं, नाणं च सम्वत्थ नत्थि; सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति। एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायचा पढम-तइय-पंचमा एक्कगमा, सेसा अट्ट वि एक्कगमा । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! ति । अभवसिद्धियमहाजुम्मसयं समत्तं । चत्तालीसइमे सए पन्नरसमं सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं । कृत०२ अभवसिद्धिक सं०५० नो उत्पाद. पंदरमुं संज्ञीमहायुग्म शतक. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण अभवसिद्धिक संज्ञी पंचेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] अनुत्तर विमान सिवाय बधेथी तेमज उपपात जाणवो. परिमाण, अपहार, उंचाई, बंध, वेद, वेदन, उदय अने उदीरणा-ए बधुं कृष्णलेश्याशतकनी पेठे जाणवं. तेओ कृष्णलेश्यांबाळा अने यावत्-शक्तलेझ्यावाळा होय छे. तेओ सम्यग्दृष्टि नथी अने सम्यग्मिध्यादृष्टि नथी. पण मिथ ज्ञानी नथी अज्ञानी छे, एं रीते जेम कृष्णलेझ्याशतकमां कडं छे तेम समज. विशेष ए के, तेओ विरतिवाळा नथी, तेम विरताविरत नथी. पण विरतिरहित छे. तेओनो स्थितिकाळ अने स्थितिसंबंधे जेम औधिक उद्देशकमा कयुं छे तेम समजवू. तेओने आदिना पांच समुद्घातो होय छे. उद्वर्तना अनुत्तर विमानने वर्जीने पूर्वनी पेठे जाणवी. सर्व प्राणीओ पूर्वे अहीं उत्पन्न थया छे"-ए प्रश्नना उत्तरमा 'ए अर्थसमर्थ नथी' तेम कहे. बाकी बधुं कृष्णलेश्याना शतकने विषे का छे तेम यावत्-पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे'-त्यांसुघी कहे. ए रीते सोळे युग्मोमां जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. २. प्र०] हे भगवन् । प्रथम समयना कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण अभवसिद्धिक संज्ञी पंचेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम प्रथम समयना संज्ञीना उद्देशकमां कडं छे तेमज समजवू. विशेष ए के, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व अने ज्ञान बधे नथी. बाकी बधुं तेमज जाणवू. एम अहीं पण अगियार उद्देशको कहेवा. पहेलो, त्रीजो अने पांचमो उद्देशक सरखा पाठवाळा छे. अने बाकीना आठे उद्देशको सरखा पाठवाला छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. प्रथम अभवसिद्धिकमहायुग्मशतक समाप्त. प्रथम समय कृत०२ अभवसिद्धिक सं० पं० नो उत्पाद. चाळीशमा. शतकमां पन्नरमुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. Jain Education international Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सोलसमं सन्निमहाजुम्मसयं । १. [प्र० ] कण्हलेस अभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कम उववज्जन्ति १ [30] जहा एएस चेव ओहियसयं तहा कण्हलेस्ससयं पि । नवरं [प्र० ] ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा १ [उ०] हंता कण्हलेस्सा । ठिती, संचिट्ठणा य जहा कण्हलेस्सासप सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । वितियं अभवसिद्धियमहाजुम्मसयं । चालीसतिमे सते सोलसमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । सोळमुं संज्ञीमहायुग्मशतक. कृत०२ कृष्णलेश्या - वाळा अभवसिद्धिक १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा अभवसिद्धिक संज्ञी पंचेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम! जेम एओनुं औधिक शतक कयुं छे तेम कृष्णलेश्याशतक पण कहेतुं. विशेष एं के - [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते जीवो कृष्ण- सं० पं० नो उत्पादलेश्यावाळा छे ? [उ०] हा, कृष्णलेश्यावाळा छे. तेओनो स्थितिकाळ अने स्थिति संबंधे जेम कृष्णलेश्याशतकमां कह्युं छे तेम कहेतुं, अने बाकी बधुं तेमज जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. द्वितीय अभवसिद्धिकमहायुग्मशतक समाप्त. चाळीशमा शतकमां सोळमुं संज्ञीमहायुग्मशतक समाप्त. शतक ४०. - संज्ञीपंचेन्द्रिय शतक २१. ३५९ सत्तरसमं सयं । १ एवं छहि वि लेस्साहिं छ सया कायचा जहा कण्हलेस्ससयं । नवरं संचिट्ठणा ठिती य जद्देव ओहियसप तद्देव भाणियचा । नवरं सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुडुत्तमम्भहियाई । ठिती एवं चेव । नवरं अंतोमुडुत्तं 1 नत्थि जहन्नगं तव सवत्थ सम्मत्त नाणाणि नत्थि । विरई विरयाविरई अणुत्तरविमाणोववत्ति-पयाणि नत्थि । सङ्घपाणा ० ( जाव - ) णो तिट्ठे समट्ठे । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धियमहाजुम्मसया भवन्ति । ' सेवं भंते! सेवं भंते' । ति । एवं एयाणि एकवीसं सन्निमहाजुम्मसयाणि । सव्वाणि वि एकासीतिमहाजुम्मसयाई समताई । 1 चत्तालीसतिमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं । १७- २१ संज्ञीमहायुग्म शतको. १. ए प्रमाणे जेम कृष्णलेश्या संबंधे शतक कयुं छे तेम छए लेश्या संबंधे छ शतको कहेवां. विशेष ए के, औधिक शतकम जणाव्या प्रमाणे स्थितिकाळ अने स्थिति जाणवी. तेमां विशेष ए के, शुक्कलेश्यानो उत्कृष्ट स्थितिकाळ अन्तर्मुहूर्त अधिक * एकत्रीश सागरोपम होय छे अने स्थिति पूर्वोक्तज जाणवी. पण जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक न कहेवुं. बधे ठेकाणे सम्यग्ज्ञान नथी, विरति, विरताविरति अने अनुत्तर विमानथी आवीने उपजवुं ते पण नथी. बधा जीवो पूर्वे अहीं उत्पन्न थया के ? ए प्रश्नना उत्तरमां 'ए अर्थ समर्थ नथी' एम कहेवुं. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ए रीते ए सात अभवसिद्धिकमहायुग्मशतको थाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. एम एकवीश संज्ञीपंचेंद्रियमहायुग्म शतको कह्यां बधाय मळीने एकाशी महायुग्मशतको समाप्त थयां. चाळीश शतक समाप्त. १* अभव्य संज्ञी पंचेन्द्रियनी शुक्रलेश्यानी स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक एकत्रीश सागरोपमनी कही ते पूर्व भवना अन्तना अन्तर्मुहूर्तसहित नवमा प्रेवेयकनी एकत्रीश सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थितिने आश्रयी जाणवु. अभव्यो उत्कृष्टथी नवमा मैवेयक सुधी जाय छे अने त्यां शुक्ललेश्या होय छे-टीका. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगचत्तालीसतिमं सयं पंढमो उद्देसो। १. [4] काणे भंते ! रासीजुम्मा पनत्ता ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि रासीजुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मे, जा कलियोगे ।प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चह-'चत्तारि रासीज़म्मा पन्नत्ता..तंजहां-जाव-कलियोगे' [उ.] गोयमा! जे णं रासी चंउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे' चउपजवसिए सेत्त रासीजुम्मकडजुम्मे । एवं जाव-जे णं रासी चउकएणं अवहारेणं एगपजबसिए सेत्तं रासीज़म्मकलियोगे, से तेणटेणं जाव-कलियोगे । २.प्र०] रासीजुम्मकडजुम्मनेरहया,ण भंते! कओ उववजन्ति ? [उ.1 उववाओ जहा वकंतीए । ३. प्रि० ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजन्ति ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि वा अट्ठवा. बारस वा सोलस वा संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । ४.प्रा'ते'ण भत जीवा किं संतरं उववजन्ति, निरंतर उर्वजन्ति ? [उ.] गोयमा!.संतरं पिउववजन्ति. निरंतरं पि उववजंनि । संतरं उववज़माणा जहन्नेणं पक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेजा समया अंतरं कट्टु उववजन्ति । निरंतरं उववजमाणा जहन्नेणं. दो समया, उक्कोसेणं असखज्जा समया अणुसमयं अविरहियं निरंतरं उववजन्ति । . ५. [प्र०] ते. णं भंते ! जीवा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोगा, जं समयं तेयोगा तं. समयं कडजम्मा ? [उ०] णो तिणटे समढे। एकताळीशमुं शतक प्रथम उद्देशक. राशियुग्मना प्रकार. १.प्र०] हे भगवन् ! केटलां राशियुग्मो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! चार राशियुग्मो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-यावत्-१ कृतयुग्म अने यावत्-४ कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी कृतयुग्म अने यावत्-कल्योज-ए चार राशियुग्मो कहेला छे ! चार राशियुग्म कहेवार्नु कारण. (उ०].हे गौतम! जे राशिमाथी चार चार संख्यानो अपहार करता छेवटें चार बाकी रहे ते राशियुग्म. कृतयुग्म कहेवाय छे, अने यावत्-जे राशिमाथीं चार चार संख्यानो अपहार करतां छेवटे एक बाकी रहे ते राशियुग्म कल्योज कहेवाय छे. हे गौतम ! ते कारणथी यावत्-कल्योज कहेवाय छे. कृतयुग्मरूप नैर- २. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशिप्रमाण नैरयिको क्याथी आवी. उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम *व्युत्क्रांतिपदमा उपपात कह्यो छे तेम अहीं पण कहेवो. ___३. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! चार, आठ, बार, सोळ, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. मान्तर के निरन्तर ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो. सांतर-अन्तरसहित उत्पन्न थाय छे के निरंतर-अंतरराहेत उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ सांतर उत्पन्न थाय छे अने निरंतर पण उत्पन्न थाय छे. सांतर उत्पन्न थता तेओ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट असंख्य समयनुं अंतर करीने उत्पन्न.थाय छे, अने निरंतर उत्पन्न थता जघन्य बे समय सुधी अने उत्कृष्ट संख्याता समय सधी निरंतर-प्रतिसमय अविरहितपणे उत्पन्न थाय छे. कृतयुग्म अने योज ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो जे समये कृतयुग्मराशिरूप होय ते समये त्र्योजराशिरूप होय अने जे समये त्र्योजराशिरूप होय राशिनो परस्पर "HT ते समये कृतयुग्मराशिरूप होय ! [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. २* प्रज्ञा० पद६५०२०९-१. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४१.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६१ ६. [प्र०] जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा? [उ०] नो तिणढे समढे। ७. प्राजं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा, जं समयं कलियोगा तं समयं कडजुम्मा? [उ०] णो तिणटे समटे । ८. [प्र० ते णं भंते ! जीवा कहिं उववजन्ति ? [उ०] गोयमा ! से जहा नामए पवए पवमाणे-एवं जहा उवषायसप जाव-'नो परप्पयोगेणं उववजन्ति'। ९. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं आयजसेणं उववजन्ति, आयअजसेणं उववजन्ति ? [उ०] गोयमा ! नो आयजसेणं उववजंति, आयअजसेणं उववजन्ति। १०. [प्र०] जइ आयअजसेणं उववजन्ति किं आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति ? [उ०] गोयमा ! नो आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति । ११. [प्र०] जब आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? [उ०] गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा । १२. [३०] जइ सलेस्सा कि सकिरिया अकिरिया ? [उ०] गोयमा ! सकिरिया नो अकिरिया । १३. [प्र०] जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति, जाव-अंतं करेंति ? [उ०] णो तिणद्वे समढे। १४. प्र०] रासीजुम्मकडजुम्मअसुरकुमारा णं भंते ! कओ उववजन्ति ? [उ०] जहेव नेरतिया तहेव निरवसेसं। एवं जाव-पंचिंदियतिरिक्खजोणिया । नवरं वणस्सइकायिया जाव-असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं एवं चेव । मणुस्सा वि एवं चेव, जाव-'नो आयजसेणं उववजन्ति, आयअजसेणं उववजंति' । . १५. [प्र०] जइ आयअजसेणं उववजन्ति, किं आयजसं उवजीवंति आयअजसं उवजीवंति ? [उ०] गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आयअजसं पि उवजीवंति । ६. [प्र०] जे समये कृतयुग्मरूप होय ते समये द्वापरयुग्मरूप होय अने जे समये द्वापरयुग्म होय ते समये कृतयुग्मरूप होय ? कृतयुग्म अने दापर [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. युग्मनो संबंध होय ७. [प्र० जे समये कृतयुग्मराशिरूप होय ते समये कल्योजराशिरूप होय अने जे समये कल्योजरूप होय ते समये कृतयुग्म- कृतयुग्म भने कल्यो. राशिरूप होय ? [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी. ज राशिनो संबन्ध होय। ८. प्र०न हे भगवन् ! ते जीवो केवी रीते उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम! जेम कोइ एक प्लवक (कूदनार ) होय भने ते जीवोनो उपपात जेम कूदतो कूदतो पोताने स्थानके जाय छे-इत्यादि जेम *उपपातशतकमां कां छे तेम बधुं अहीं समजवू. यावत्-पोतानी मेळे उत्पन्न कवा रात थाय। थाय छे, पण परप्रयोगथी उत्पन्न थता नथी. ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो आत्माना यशथी-संयमथी उत्पन्न थाय छे के आत्माना अयशथी-असंयमथी उत्पन्न थाय छे ! उपपातनो हेतु उ०] हे गौतम ! तेओ आत्माना यशथी उत्पन्न थता नथी, पण आत्माना अयशथी उत्पन्न थाय छे. आत्मानो असंयम१०. [अ०] जो तेओ आत्माना असंयमथी उत्पन्न थाय तो शुं आत्मसंयमनो आश्रय करे छे के आत्माना असंयमनो आश्रय करे आत्मसंयम के आछे[उ०] हे गौतम ! तेओ आत्मसंयमनो आश्रय करता नथी पण आत्माना असंयमनो आश्रय करे छे. त्मसंयमनो आ अय करे । ११. [प्र०] जो तेओ आत्माना असंयमनो आश्रय करे छे तो शुं तेओ लेश्यावाला छे के लेश्यारहित छे ? [उ०] हे गौतम ! सलेक्ष्य के अलेश्य ? तेओ लेश्यावाळा छे, पण लेश्यारहित नथी. १२. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ लेश्यावाळा छे तो शुं तेओ क्रियावाळा छे के क्रियारहित छे ! [उ० हे गौतम! तेओ सलेश्य सक्रिय होय क्रियावाळा छे, पण क्रियारहित नथी. के अक्रिय १३. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ क्रियावाळा छे तो शुं तेओ तेज भवमा सिद्ध थाय छे, यावत्-कर्मनो अंत करे छे! [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. १४. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशि प्रमाण असुरकुमारो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम नैरयिको संबंधे कृतयुग्मराशिरूप कडं तेम असुरकुमारो संबंधे पण बधुं जाणवु. ए रीते यावत्-पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिको सुधी समजवं. पण विशेष ए के, वनस्पतिकायिको उत्पत्ति. असंख्याता के अनंता उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं तेमज समजवु. ए रीते मनुष्यो संबंधे पण समजवू. यावत्-आत्माना संयमथी उत्पन्न थता नथी पण आत्माना असंयमथी उत्पन्न थाय छे. १५. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ आत्माना असंयमथी उत्पन्न थाय छे तो शुं तेओ आत्मसंयमनो आश्रय करे छे के आत्माना मनुष्योना उपपातर्नु कारण आत्मानो असंयमनो आश्रय करे छे ! [उ०] हे गौतम | तेओ आत्मसंयमनो पण आश्रय करे छे अने आत्माना असंयमनो पण आश्रय करे छे. असंयम. * भग० ख०४ श० ३१ उ.१पृ० ३१२. म० सू० JainEducation International६ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४१.-उद्देशक २. १६. [प्र०] जई आयजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? [उ.] गोयमा! सलेस्सा वि अलेस्सा वि। १७. [प्र०] जइ अलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? [उ०] गोयमा ! नो सकिरिया, अकिरिया। १८. प्र०] जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति, जाप-अंतं करेंति ? [उ०] हंता सिझति, जाव-अंतं फरेन्ति । १९. [प्र०] जइ सलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? [उ०] गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया। २०. प्र० जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिझंति, जाव-अंतं करेन्ति ? [उ.] गोयमा! अत्येगइया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति, जाव-अंतं करेन्ति, अत्थेगइया नो तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति, जाव-अंतं करेन्ति । २१. [प्र०] जइ आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? [उ०] गोयमा ! सलेस्सा नो अलेस्सा। २२. [प्र०] जह सलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? [उ०] गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया । २३. [प्र०] जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति, जाव-अंतं करेंति ? [उ०] नो इणढे समढे । वाणमंतरजोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। इकचत्तालीसइमे रासीजुम्मसए पढमो उद्देसओ समत्तो । मात्मसंयमी मनुष्यो १६. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ आत्मसंयमनो आश्रय करे छे तो शुं तेओ लेश्यासहित छे के लेश्यारहित छे! उ० हे सलेश्य ले के अलेश्या गौतम! तेओ लेश्यासहित छे अने लेश्यारहित पण छे. श्यारहित मनुष्यो १७. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ लेश्यारहित छे तो शुं तेओ क्रियावाळा छे के क्रियारहित छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ मा क्रियासहित नथी, पण क्रियारहित छे. क्रियारहितनी सिद्धि. १८. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ क्रियारहित छे तो शुं तेओ तेज भवमा सिद्ध थाय छे, यावत्-सर्व दुःखनो अंत करे छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, तेओ सिद्ध थाय छे यावत्-सर्व दुःखनो अंत करे छे. श्यावाळा मनुष्यो- १९. [प्र०] हे भगवन् ! जो तेओ लेश्यावाळा छे तो शुं तेओ सक्रिय छे के अक्रिय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सक्रिय छे नी सक्रियता. पण अक्रिय नथी. . सक्रिय ते भवा २०. [प्र०न हे भगवन् ! जो तेओ सक्रिय छे तो शुं तेज भवमा सिद्ध थाय छे, यावत्-सर्व दुःखनो अंत करे छे ! उ०] हे गौतम ! केटलाक तेज भवमा सिद्ध थाय छे, यावतू-सर्व दुःखनो अंत करे छे भने केटलाक ते भवमा सिद्ध थता नथी अने यावत्-सर्व दुःखनो अंत करता नथी. आत्मसंयमी सके- २१. प्रि०] जो तेओ आत्माना असंयमनो आश्रय करे छे तो शुं तेओ लेश्यासहित छे के लेश्यारहित छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ श्थ छे के अलेश्य छे! लेझ्यासहित छे, पण लेश्यारहित नथी. सृलेश्य मनुष्यनी २२. [प्र०] जो तेओ लेश्यासहित छे तो शुं तेओ सक्रिय छे के अक्रिय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सक्रिय छे, पण अक्रिय नथी. सक्रियता. सक्रिय मनुष्य ते २३. [प्र०] जो तेओ सक्रिय छे तो शुं तेज भवमा सिद्ध थाय छे, यावतू-सर्व दुःखनो अंत करे छे। उ०] हे गौतम 1 ते अर्थ भवमा सिद्ध थाय के १२ समर्थ नथी. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको-ए बधा नैरयिकोनी पेठे जाणवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'. एकताळीशमा राशियुग्मशतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त. नहि । बीओ उद्देसो। १. [प्र०] रासीजुम्मतेओयनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [1०1 एवं चेव उद्देसओ भाणियो । नवरं परिमाणं तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरस वा संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । संतरं तहेव । योजराशिप्रमाण रयिकोनो उत्पाद. द्वितीय उद्देशक. १.प्र०] हे भगवन् ! राशियुग्ममा योजराशिप्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम! पूर्वनी पेठे आ संबंधे उद्देशक कहेवो. विशेष ए के परिमाण-त्रण, सात, अगियार, पंदर, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. सांतर संबंधे तेमज जाणवू. Jain Education international Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४१. - उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६३ २. [प्र० ] ते णं मंते ! जीवा जं समयं तेयोगा तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोगा ? [अ०] णो सम ३. [ प्र० ] जं समयं तेयोया तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेयोया ? मट्ठे । एवं कलियोगेण वि समं, सेसं तं चेव जाव- वेमाणिया । नवरं उववाओ सधेसिं जहा वकंतीए । भंते' ! ति ।४१-२ • बीओ उद्देसो समत्तो । २. [प्र० ] हे भगवन् ! ते जीवो जे समये त्र्योजराशिप्रमाण छे ते समये कृतयुग्मप्रमाण छे के जे समये कृतयुग्म छे ते समये कृतयुग्म भने योज यो प्रमाण छे ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. राशिनो परस्पर संबन्ध यो भने द्वापर युग्मनो परस्पर संबन्ध. [30] जो इणट्टे 'सेवं भंते । सेवं ३. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो जे समये त्र्योजराशिप्रमाण छे ते समये द्वापरयुग्मप्रमाण छे अने जे समये द्वापरयुग्मराशि - [उ०] हे गौतम! ते अर्थ समर्थ नथी. ए रीते कल्योज राशिनी साथै पण समज. अने परन्तु बधाओनो उपपात * व्युत्क्रांतिपदमां कह्या प्रमाणे जाणवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, प्रमाण छे ते समये योजराशिप्रमाण छे बाकी बधुं वैमानिको सुधी तेमज जाणवुं. हे भगवन् ! ते एमज़ छे'. ? एकताळीशमा शतकमां द्वितीय उद्देशक समाप्त. ईओ उद्देो । १. [ प्र० ] रासी जुम्मदावरजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववजन्ति ? [अ०] एवं चेव उद्देसओ । नवरं परिमाणं दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा उववज्जंति संवेहो । २. [ प्र० ] ते णं भंते । जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा १ [30] णो णट्टे समट्ठे । एवं तेयोपण वि समं, एवं कलियोगेण वि समं । सेसं जहा पढमुद्देस जाव - वेमाणिया । ' सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ॥४१-३ | तईओ उद्देस समत्तो । तृतीय उद्देशक. १. [प्र० ] हे भगवन् ! राशियुग्ममां द्वापरयुग्मराशिप्रमाण नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे उद्देशक कहेवो. पण परिमाणबे, छ, दस, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे। अने संवेध पण कहेवो. २. [प्र० ] हे भगवन् ! ते जीवो जे समये द्वापरयुग्म छे ते समये कृतयुग्म छे, के जे समये कृतयुग्म के ते समये द्वापरयुग्म छे ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ए रीते योजराशि अने कल्योजराशि साधे पण समजवुं. बाकी बधुं प्रथमोद्देशकनी पेठे यावत्वैमानिको सुधी समज. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. तृतीय उद्देशक समाप्त. उत्थो उसी । १. [प्र०] रासीजुम्मकलि ओगनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] एवं चेव । नवरं परिमाणं- एक्को वा पंच वा नववा तेरस वा संखेजा वा असंखेजा उववज्जन्ति, संवेहो 1 २. [ प्र० ] ते णं भंते! जीवा जं समयं कलियोगा तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा १ चतुर्थ उद्देश. १. [ प्र० ] हे भगवन् ! राशियुग्ममां कल्योजप्रमाण नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवुं. परन्तु परिमाण - एक, पांच, नव, तेर, संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. संवेध पूर्वनी पेठे जाणवो. द्वापरयुग्मराशि प्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद. द्वापरयुग्म भने कृतयुग्मनो परस्पर संबन्ध. २. [प्र० ] हे भगवन् ! ते जीवो जे समये कल्योजराशिप्रमाण छे ते समये कृतयुग्मराशिप्रमाण छे अने जे समये कृतयुग्मराशि - कल्यो भने कृतयु ग्मनो परस्पर संबन्ध. ३ * प्रज्ञा० पद ६ ५० २०४ - २१८.. कvयोज प्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४१.-उद्देशक ७. [२०] नो णटे समढे । एवं तेयोपण वि समं, एवं दावरजुम्मेण वि समं । सेसं जहा पढमुद्देसए जाव-वेमाणिया। 'सेवं भंते ! सेवं मंते ! ति ४१-४॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो। प्रमाण छे ते समये कल्योजराशिप्रमाण छ ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ए रीते त्र्योज अने द्वापरयुग्म साथे पण कहे. बाकी बधुं प्रथमोद्देशकनी पेठे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. चतुर्थ उद्देशक समाप्त. पंचमो उद्देसो। १. [प्र०] कण्हलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववजन्ति ? [उ०] उववाओ जहा धूमप्पभाए, सेसं जहा पढमुद्देसए । असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव-वाणमंतराणं । मणुस्साण वि जहेव नेरयाणं 'मायमजसं उपजीवति । अलेस्सा, अकिरिया, तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति एवं न भाणियचं । सेसं जहा पढमुद्देसए । 'सेवं मंते ! सेवं भंते ! ति।४१-५॥ पंचमो उद्देसो समत्तो। पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! राशियुग्ममां कृतयुग्मप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] धूमप्रभानी पेठे उपपात जाणवो. बाकी बधुं जेम प्रथमोद्देशकमा कां छे तेम कहेवु. असुरकुमारो संबंधे पण तेमज जाणवु. ए रीते यावत्-वानव्यंतरो सुधी समजवू. जेम नैरयिकोने कडं तेम मनुष्यो संबंधे पण समजवू. तेओ आत्माना असंयमनो आनय करे छे. 'ते लेश्यारहित छे, क्रियारहित छे अने तेज भवमा सिद्ध थाय छे' एटलं न कहेवू. बाकी बधुं प्रथमोदेशकनी पेठे समजवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. पंचम उद्देशक समाप्त. कृष्णलेश्यावाला कृतयुग्म प्रमाण नैरयिकोनो उत्पाद. छटो उद्देसो। १. कण्हलेस्ससेयोपहि वि एवं चेव उद्देसओ । 'सेवं भंते ! सेवं भते ति।४१-६॥ छट्ठो उद्देसो समत्तो। छटो उद्देशक. १. कृष्णलेश्यावाळा राशियुग्ममा. त्र्योजयुग्मप्रमाण (नैरयिको ) संबंधे पण पूर्व प्रमाणे उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ४१-६. षष्ठ उद्देशक समाप्त योजराशि प्रमाण कृष्णलेश्यावाळा नैर'यिकोनो उत्पाद. सत्तमो उद्देसो। १. कण्हलेस्सदावरजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ४१-७। सत्तमो उद्देसो समत्तो। सातमो उद्देशक. १. द्वापरयुग्मप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा (नैरयिको) संबंधे पण एमज उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. सातमो उद्देशक समाप्त Jain Education international Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. अमो उद्देसो । १. कण्डलेस्सकलिमपछि वि एवं चेष उद्देसओ । परिमाणं संवेहो य जहा भहिपसु उद्देसपसु । 'सेवं मंसे 1 सेवं मंते' । ति ।४१-८ शतक ४१. - उद्देशक १७-२०. म उस समतो | आठमो उद्देशक. १. कल्योजराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा (नैरयिको ) संबंधे पण एज रीते उद्देशक कहेवो. परिमाण अने संवेध औधिक उदेशकर्मा कह्या प्रमाणे जाणवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. आठमो उद्देशक समाप्त. ३६५ ९-१२ उद्देसगा । जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियचा निरवसेसा । नवरं नेरहयाणं उबवाओ जदर वालुयष्पभाए, सेसं तं चेव । 'सेषं भंते ! सेवं भंतें' । ति ।४१-१२ ९-१२ उद्देसा समता । ९-१२ उद्देशंको . जेम कृष्णलेश्यावाळाओ संबंधे जणान्युं छे तेम नीललेश्यावाळाओ विषे पण चारे संपूर्ण उद्देशको कहेवा. परन्तु वालुकाप्रभानी पेठे नैरयिकोनो उपपात कहेवो. बाकी बधुं तेमज छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमजं छे'. ४१-१२ . ९-१२ उद्देशको समाप्त. १३–१६ उद्देसगा । काउलेस्सेहि वि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा कायचा । नवरं नेरश्याणं उववाओ जहा रयणप्पभाप, सेसं तं चैव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' । ति ।४१-१६। १३ - १६ उद्देसा समत्ता | १३-१६ उद्देशको. कापोतश्यावाळा संबंधे पण एज रीते चार उद्देशको कहेवा. परन्तु नैरयिकोनो उपपात रत्नप्रभानी जेम जाणवो, अने बाकी बधुं तेमज समज. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'. १३-१६ उद्देशको समाप्त - १७–२० उद्देसगा । १. [प्र०] तेउलेस्सरासीज़ुम्मकडजुम्म असुरकुमारा णं भंते ! कभी उचवज्जन्ति १ [30] एवं चेव । नवरं जेसु तेडलेस्सा अत्थि तेसु भाणियनं । एवं एप वि कण्हलेस्सासरिसा चत्तारि उद्देसगा कायद्या । 'सेवं भंते । सेवं मंते' । खि १४१ - २०१ १७- २० उद्देसा समत्ता । १७- २० उद्देशको. १. [प्र० ] हे भगवन् ! राशियुग्ममां कृतयुग्मराशिप्रमाण तेजोलेश्यावाळा असुरकुमारो क्यांथीं आवी उत्पन्न थाय छे ! [ उ०] पूर्वनी पेठे जाणवुं. परन्तु विशेष ए के जेओने तेजोलेश्या होय तेओ संबंधेज कहेवुं. ए रीते आ पण कृष्णलेश्या सरखा चार उदेशको कहेवा. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज़ छे'. १७- २० उद्देशको समाप्त - For Private Personal Use Only कृष्णलेश्याबाळा कस्योज प्रमाण नैरपिकोनो उत्पाद कृतयुग्मराशिप्रमाण तेजोलेश्यावाळा असुरकुमारोनो उत्पाद. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४१.-उद्देशक २९-५६. २१-२४ उद्देसगा। एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायचा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण भएपसिं पम्हलेस्सा, सेसाणं नत्थि । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ४१-२४॥ २१-२४ उद्देसा समत्ता। २१-२४ उद्देशको. परीते पद्मलेश्या संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. पंचेंद्रिय तियेचो, मनुष्यो अने वैमानिकोने पालेश्या होय छे अने बाकीनाओने होती नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. २१-२४ उद्देशको समाप्त. २५-२८ उद्देसगा। जहा पम्हलेस्साए एवं सुक्कलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायवा । नवरं मणुस्साणं गमओ जहा मोहिउद्देसएसु, सेसं तं चेव । एवं एए छसु लेस्सासु चउवीसं उद्देसगा, ओहिया चत्तारि, सवे ते अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति। 'सेवं भंते ! सेवं भंते पत्ति ४१-२८॥ २५-२८ उद्देसा समत्ता। २५-२८ उद्देशको. . जेम पद्मलेश्या संबंधे कह्यु एम शुक्ललेश्याने विषे पण चार उद्देशको कहेवा. परन्तु मनुष्योने जेम औधिक उद्देशकमां का छे तेम जाणq. अने बाकी बधुं तेमज जाणवू. ए रीते छ लेश्या संबंधे चार चार उद्देशको अने सामान्य चार उद्देशको-ए बधा मळीने २८ उद्देशको थाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. २५-२८ उद्देशको समाप्त. २९-५६ उद्देसगा। १. [प्र०] भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया ण भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव निरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा। 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ४१-३२॥ २. कण्हलेस्सभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजति ? [उ.] जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उहेसगा भवंति तहा इमे वि भवसिद्धियकण्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा कायवा ।४१-३६। ३. एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा कायचा ।४१-४॥ ४. एवं काउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ।४१-४४॥ ५. तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा ।४१-४८। ६. पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ।४१-५२। ___ २९-५६ उद्देशको. १. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक राशियुग्ममां कृतयुग्मराशिप्रमाण नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] जेम पहेला चार औधिक उद्देशको कह्या छे तेमज आ संबंधे पण आ चार उद्देशको संपूर्ण कहेवा. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. २९-३२. २. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक नैरयिको क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गौतम! . जेम कृष्णलेश्या संबंधे चार उद्देशको थाय छे तेम आ भवसिद्धिक कृष्णलेश्यावाळा जीवो संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. ३३-३६. ३. ए प्रमाणे नीललेश्यावाळा भवसिद्धिको संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. ३७-४०. १. ए प्रमाणे कापोतलेश्यावाळा संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. ४१-४४. ५. एम तेजोलेश्यावाळा संबंधे पण औधिक समान चार उद्देशको कहेवा. ४५-४८. ६. ए रीते पालेश्यावाळा संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. ४९-५२. भवसिद्धिक कृतयुग्म प्रमाण नैरपिकोनो उत्पाद. कृष्णलेश्यावाला भवसिद्धिक कृतयुग्म नरमिकोनो उत्पाद Jain Education international Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४१. - उद्देशक ८५- ११२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६७ ७. सुकलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा । एवं एए वि भवसिद्धिपछि वि अट्ठावीस उद्देसगा भवंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' । ति ।४१-५६ ॥ २९-५६ उद्देसा समत्ता । ७. शुक्कलेश्यावाळा संबंधे पण औधिक सरखा चार उद्देशको कहेवा. अने एवी रीते भवसिद्धिको संबंधे अव्यावीश उद्देशको थाय छे. 'हे भगवन् ! ते एम छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ५३-५६. २९-५६ उद्देशको समाप्त. ५७–८४ उद्देसगा । १. [प्र०] अभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरश्या णं भंते ! कभ उववज्जन्ति १ [30] जहा पढमो उद्देसगो । नवरं मणुस्सा नेरइया य सरिसा भाणियचा । सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देगा । २. [प्र० ] कण्हलेस्सम मघसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरहया णं भंते ! कमो उववजंति ? [30] एवं चेव चचारि उद्देगा। ३. एवं नीललेस्सअभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइयाणं चत्तारि उद्देसगा । ४. काउलेले िविचत्तारि उद्देगा । ५. तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा । ६. पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देगा । ७. सुकले सभभवसिद्धिए वि चत्तारि उद्देगा । एवं एएसु अट्ठावीसाप वि अभवसिद्धियउद्देसपसु मणुस्सा नेरहथगमेणं नेयथा । 'सेवं भंते । सेवं भंते' ! ति । एवं एए वि अट्ठावीसं उद्देसगा ।४१-८४ | ५७ -८४ उद्देसा समत्ता । ५७–८४ उद्देशको. १. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशिप्रमाण अभवसिद्धिक नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [30] प्रथम उद्देशकमा कक्षा प्रमाणे जाणवुं. परन्तु विशेष ए के, मनुष्यो अने नैरयिको समान रीते कहेवा, अने बाकी बधुं तेमज जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ! ते एमज छे'. ए रीते चारे युग्मोमां चार उद्देशको कहेवा. २. [ प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यावाळा अभवसिद्धिक नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] एम चार उद्देशको कहेवा. ३. ए रीते नीललेश्यावाळा कृतयुग्मराशिप्रमाण अभवसिद्धिको संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. ४. एम कापोतलेश्यावाळा संबंधे पण चार उद्देशको कहेवा. ५. ए रीते तेजोलेश्यावाळा संबंधे पण चार उद्देशको समजवा. ६. पद्मलेश्यावाळा संबंधे पण एज प्रकारे चार उद्देशको कहेवा. ७. शुक्ललेश्यावाळा अभवसिद्धिको संबंधे कोना समान गमवडे जाणवा. 'हे भगवन् ! ते पण चार उद्देशको कहेवा. ए रीते ए अव्यावीशे अभवसिद्धिक उद्देशकोमां मनुष्यो नैरएमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ए रीते ए अव्यावीश उद्देशको थया. ५७ -८४ उद्देशको समाप्त. ८५–११२ उद्देसगा । १. [प्र०] सम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरहया णं भंते! कओ उववज्रंति ? [ उ०] एवं जहा पढमो उद्देसओ । एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धियसरिसा कायद्या । सेवं भंते ! 'सेवं भंते' । ति । ८५-११२ उद्देशको. ! १. [ प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्मप्रमाण सम्यग्दृष्टि नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०] जेम प्रथम उद्देशक कह्यो छे तेम आ उद्देशक कहेवो. एम चारे युग्मोमां भवसिद्धिक समान चार उद्देशको कहेवा. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! वे एमज छे'. अभवसिद्धिक कृत युग्म प्रमाण नैरचिकोनो उत्पाद कृतयुग्म प्रमाण सम्यग्दृष्टि नैरयि कोनो उत्पाद Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतयुग्म प्रमाण मिथ्यादृष्टि नैरयि कोनो उत्पाद कृतयुग्म प्रमाण कृष्ण पाक्षिक नैरयिकोनो उत्पाद. कृतयुग्म प्रमाण शुक पाक्षिक नैरथिकोनो उत्पाद: श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे— शतक ४१. - उद्देशक २६९-१९६. २. [प्र० ] कण्हलेस्ससम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] पप वि कण्हलेस्ससरिसा चारि वि उद्देगा कायचा । एवं सम्मदिट्ठीसु वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायवा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! ति जाव - विहरह ।८५-११२। ३६८ ८५- ११२ उद्देसा समत्ता । २. [ प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्ण लेश्यावाळा सम्यग्दृष्टि नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [अ०] ए संबंधे पण कृष्णलेश्यावाळानी जेम चारे उद्देशको कहेवा. ए प्रमाणे सम्यग्दृष्टिओने विषे पण भवसिद्धिकनी पेठे अव्यावीश उद्देशको करवा. 'हे भगवन् ! ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे' - एम कहीने यावत्-विहरे छे. ८५-१९२ उद्देशको समाप्त. ११३ - १४० उद्देसगा । १. [ प्र० ] मिच्छादिट्ठीरासी जुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [अ०] एवं एत्थ वि मिच्छादिट्ठिअभिलावेणं अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायद्या । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' । त्ति ।११३-१४०/ ११३ - १४० उद्देसा समत्ता । ११३ - १४० उद्देशको. १. [प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्मराशिप्रमाण मिथ्यादृष्टि नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] अहीं पण मिध्यादृष्टिना अभिलाप-उच्चारणथी अभवसिद्धिकना समान अभ्यावीश उद्देशको कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ११३ - १४० उद्देशको समाप्त. १४१ - १६८ उद्देसगा । १.[प्र.] कण्हपक्खियरा सीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ०] एवं एत्थ वि अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायचा । 'सेषं भंते । सेवं भंते' । ति । १४१-१६८ १४१ - १६८ उद्देसा समत्ता । १४१ - १६८ उद्देशको. १. [ प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्मप्रमाण कृष्णपाक्षिक नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] अहीं पण अभवसिद्धिकना समान अव्यावीश उद्देशको कहेवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. १४१ - १६८ उद्देशको समाप्त. १६९-१९६ उद्देसगा । १. [ प्र० ] सुकपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? [30] एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देगा भवंति । एवं एए सधे वि छन्नउयं उद्देसगसयं भवन्ति रासीजुम्मसयं । जाव- सुकलेस्सा सुकपक्खिय १६९–१९६ उद्देशको. १. [ प्र० ] हे भगवन् ! कृतयुग्मप्रमाण शुक्रुपाक्षिक नैरयिको क्यांथी आवी उत्पन्न याय छे अव्यावीश उदेशको थाय छे. ए प्रमाणे ए बधा मळीने १९६ उद्देशकोनुं राशियुग्मशतक थाय छे. ! [उ०] अहीं पण भवसिद्धिक सरखा यावत् - [ प्र०] शुक्कलेश्यावाळा शुक्र Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४१. - उद्देशक १९६. भगवत्सुधर्म स्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६९ रासम्म कलियोगवेमाणिया जाव - जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्यंति, जाव-अंतं करेंति ? [अ०] जो इणट्टे समट्टे । 'सेवं ते सेवं मंते' सि भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं तिपलुतो आवाहिण-पवाहिणं करे, करेता वंदति नम॑सति, वंदिता नर्मसित्ता एवं क्यासी-'एयमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते । इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! 'इच्छिय-पढिच्छियमेवं भंते! सधे णं एसम, जे पं तुझे पददति कडु अपूतिवयणास अरिहंता मंगवंतो समणं भगवं सच्चे कट्टु महावीरं वंदति नम॑सति, वंदिता नर्मसिता संजमेणं तदसा अप्पाणं भावेमाणे विहरद । रासीतुम्मसयं समतं । साय भगवई अद्भुती सतं १३८ सयाणं उद्देसमार्ण १९२५ । १६९ - १९६ । सीय (ई) सपसहरसा पदान पवरवरणाणसीहि भाषाभाषमता पद्मत्ता पत्थमंगंमि ॥ तवनियमविणयवेलो जयति सदा नाणविमलविपुलजलो हेतुसतविपुलवेगो संघसमुदो गुणविसालो || इगचत्तालीस सयं समचं भगवती समत्ता । * णमो गोयमाईणं गणहराणं, णमो भगवईए विवाहपन्नत्तीए, णमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स । कुम्मसुसंठियचलणा अमलियकोरंटवेंटसंकासा सुपदेवया भगवई मम मतितिमिरं पणासेउ || 1 पन्नत्तीए आइमाणं अट्ठण्हं सयाणं दो दो उद्देसगा उद्दिसिजन्ति । णवरं चउत्थे सए पढमदिवसे अट्ठ, बितियदिवसे दो उद्देगा उद्दिखिति । नवमाओ सताओ भारखं जावश्यं जावइयं पवेद्र तावतियं तावतियं एगदिवसेणं पाक्षिक फल्योक्राप्रमाण वैमानिको यावत् जो क्रियायाव्य के तो झुं तेश्रो रोज भयमां सिद्ध थाय छे, यावत् सर्वं दुःखोनो अंत करे [४०] ए अर्थ समर्थ नयी है भगवन् ! ते एमन छे, हे भगवन्! ते एमज छे. भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने त्रण बार प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करी बांदे छे, बांदी नमे छे, नमीने भगवान् गौतम आ प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन्! ते प्रकारेज छे, हे भगवन् ! ए सलन छे, हे भगवन् ! से असंदिग्ध छे, हे भगवन् ! ते मने इच्छित छे, हे भगवन् । ते मने प्रतीच्छित - स्वीकृत छे, हे भगवन् । ते इच्छित अने प्रतीच्छित छे, हे भगवन् ! ते सत्य छे के तमे जे कहो छो, 'अरिहंत भगवंतोनी बाणी पवित्र होय छे. 'अपुन्ववयणा' एवो पाठ स्वीकारीए तो अरिहंत भगवंतोनी वाणी अपूर्व दोष छे' - एम कही श्रमण भगवंत महावीरने (फरी वार) वांदे छे, विहरे छे. राशियुग्मशतक समाप्त, सर्व भगवतीना मळीने उत्तमोत्तम ज्ञानवडे सर्वदर्शी पुरुषोए आ अंगमां निषेधो कहेला . - तप, नियम अने विनयरूप बेटा भरती वाळा, निर्मळ ज्ञानरूप विपुल पाणीवा, सेंकडों हेतुरूप महान वेगपाळा अने गुणाची विशाल एवा संघसमुदनो जय थाय छे. नमे छे अने वांदी तथा नमी संयम अने तपपूर्वक आत्माने भावित करता १३८ उद्देशको अने १९२५ शतको थाय छे. १६९ - १९६. चोराशी लाख पदो का छे तेमज अनन्त - अपरिमित भाव-विधि अने भगवतीनुं *गौतमादि गणधरोने नमस्कार, भगवती व्याख्याप्रशसिने नमस्कार, द्वादशांग गणिपिटकने नमस्कार. काचवानी पेठे सुंदर चरणकमल्याळी, नहि चोळा कोरंट वृक्षनी कळी समान एवी पूज्य श्रुतदेवी मारा मतिअज्ञाननो नाश करो. एकताळी शतक समाप्त. श्रीभगवतीसूत्र समाप्त. व्याख्याप्रज्ञप्तिना आदिना आठ शतकना बब्बे उद्देश कोनो एक एक दिवसे उपदेश कराय छे. परन्तु प्रथम दिवसे चोथा शतकना आठ उदेशको अने बीजे दिवसे वे उदेशको उपदेशाय छे. नवमा शतकधी आरंभी जेटलुं जेटलुं जाणी शकाय सेट सेट एक एक दिवसे उप १ अपुग्ववयणाहिं ग-ङ | * हींदी आरंभी बागचनो पाठ पुस्तका, ये टीकाकार जावे के 'मो गोवमा गणहराणं इत्यादयः पुस्तका नमस्काराः प्रकाटार्थाश्चेति न व्याख्याताः । + शतकनुं परिमाण आ प्रमाणे छे-प्रथमना वत्रीश शतकोमां अवान्तर पेटा शतको नथी अने तेत्रीशथी ओगणचालीश सुधीना सात शतकोम बार बार अवान्तर शतको छे एटले ८४ शतको थया. चाळीशमां शतकमां एकवीश अवान्तर शतको छे. एकताळीशमां शतकमा अवान्तर शतक . नथी. ३२-०४-२१-१-ए सर्व शतको मळीने एकसो आडनीश शतको थाय छे. + अहीं पदोनी संख्या चोराशी लाख कही छे, पण तेनी गणना शी रीते करी छे तेनो कंइपण ख्याल आवी शकतो नथी. ते संबंधे टीकाकार जणावे छे के पदोनुं खरूपनिदिन् ४७ भ० सू० संघनी Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे ४१. - उद्देशक १९६. उद्दिसिजति, उक्कोसेणं सतं पि एगदिवसेणं, मज्झिमेणं दोहिं दिवसेहिं सतं, जहनेणं तिहिं दिवसेहिं सतं । एवं जाब - वीसतिमं सतं । णवरं गोसालो एगदिवसेणं उद्दिसिजति, जदि ठियो एगेण चेव आयंबिलेणं अणुन्नश्चति । अह ण्णं ठितो आयंबिलेणं छट्टेणं अणुष्णश्यति । एक्कवीस-बावीस-तेवीसतिमाहं सताई एक्केक्कदिवसेणं उद्दिसिज्जन्ति । चउवीसतिमं सयं. दोहिं दिवसेहिं छ छ उद्देसगा। पंचवीसतिमं दोहिं दिवसेहिं छ छ उद्देसगा । बंधिसयाइं अट्ठसयाइं एगेणं दिवसेणं, सेडिसयाइं बारस एगेणं, एर्गिदियमहाजुम्मसयाई बारस एगेणं; एवं बेंदियाणं बारस, तेइंदियाणं बारस, चउरिंदियाणं बारस एगेण, असन्निपंचिदियाणं बारस, सन्निपंचिदियमहाजुम्मसयाई एकवीसं एगदिवसेणं उद्दिसिजन्ति, रासीजुम्मसतं एगदिवसेणं उद्दिसिजति ॥ वियसियअरविंदकरा नासियतिमिरा सुयाहिया देवी । मज्झं पि देउ मेहं बुहविबुद्दणमंसिया णियं ॥ सुयदेवयाप पणमिमो जीप पसापण सिक्खियं नाणं । अण्णं पवयणदेवी संतिकरी तं नम॑सामि ॥ सुयदेवया य जक्खो कुंभधरो बंभसंति वेरोट्टा । विजा य अंतहुंडी देउ अविग्धं लिहंतस्स ॥ देशाय छे, उत्कृष्टपणे शतकनो पण एक दिवसे उपदेश कराय छे. मध्यमपणे बे दिवसे शतकनो अने जघन्यपणे त्रण दिवसे शतकनो उपदेश कराय छे. एम वीशमा शतक सुधी जाणवुं. परन्तु पंदरमा गोशालक शतकनो एक दिवसे उपदेश कराय छे. जो बाकी रहे तो तेनो एक आयंबिल करीने उपदेश कराय छे, छतां बाकी रहे तो बे आयंबिल करीने उपदेश कराय छे. एकवीशमा, बावीशमा अने तेवीशमा शतको एक एक दिवसे उपदेश कराय छे. चोवीशमुं शतक एक एक दिवसे छ छ उद्देशको वडे एम बे दिवसे उपदेशाय छे. पचीशमं शतक छ छ उद्देशको वडे बे दिवसे उपदेशाय छे. बन्धिशतकादि आठ शतको एक दिवसे, श्रेणिशतादि बार शतको एक दिवसे, एकेन्द्रियना बार महायुग्मशतको एक दिवसे, एम बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय अने असंज्ञी पंचेन्द्रियना बार बार शतको तथा संज्ञी पंचेन्द्रियना एकवीरा महायुग्मशतको अने राशियुग्मशतको एक एक दिवसे उपदेशाय छे. जेना हाथमा विकसित कमळ छे, जेणे अज्ञाननो नाश कर्यो छे अने बुध-पंडितो अने विबुध - देवोए जेने हमेशां नमस्कार कर्यो छे एवी श्रुताधिष्ठित देवी मने पण बुद्धि आपो. अमे श्रुतदेवताने प्रणाम करीए छीए, जेनी कृपाथी ज्ञाननी शिक्षा मळी छे. अने ते सिवाय शान्ति करनार प्रवचनदेवीने पण नमस्कार करूं छं. श्रुतदेवता, कुंभघर यक्ष, ब्रह्मशान्ति वैरोट्या, विद्या अने अंतहुंडी लेखकने अविघ्न आपो. श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिनाम पंचम अंगनो अनुवाद समाप्त. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. च०२२०. श० | श. अणच्चासायणाविणय च० २७९. अणंतरबंध च०११४. अइकाय द्वि० १२३. अणण्य प्र. २८३. अणंतरसिद्ध अउभ द्वि० १५३. अणण्यफल प्र०२७९. अणंतरागम द्वि. १८३. उअंग अणत्ता तृ. ३६३. अणंतराहार अकतिसंचिय च. १२१, १२२. अणवज अणंतराहारय च० २९२. अकम्म अणवठप्पारिह च० २७५. अणंतरोगाढ प्र. ५९, च० २९२. अकम्मभूमि तृ. ११५, च० २३. अणसण च० २७६. अणंतरोवगाढ अकसाइ तृ. १३६, च० २८७. अणाउत्त अर्णतरोववन्नग तृ.३०३,३४०, च०२९८. अकामनिकरण तृ. २५. अणागयद्धा च. २३८. अणंतरोववनय च० ३३८. अकिरिय अणागारोबउत्त द्वि. २८२, तृ. ७१, अणंतसंसार भकिरिया प्र. १८४. ३०२, च० २६५. अतित्थ च० २६३. भकिरियावादि च० ३०२. अणागारोवओग अतिवाय अकोस तृ. ९८. अणागारोवओगनिम्नत्ति च. ९३. अतिहिसंविभाग अगुरुलहुआ प्र०२००,३१०. अणादीयवीससाबंध च०५७. अत्तकड च० ३९. भगुरुयलहुयगुण प्र. ३१०. अणाभियोगि द्वि. ९८. अत्तत्तासंवुड प्र. २३५. अगुरुअलहुअपजव द्वि. ७८. अणाभोग च०२७४. अत्तागम अग्गिकुमार द्वि१८३. . द्वि० ११०,११३, च०४४. अणाभोगनिव्वत्तियाउय अत्थणिउर द्वि० १५३. अग्गिकुमारी दि.११.. अणारंभ द्वि० २२६. अत्थणिउरंग अग्गिमाणव द्वि० १२३. अणालोइयपडिक्वंत दि. २०९. अत्थपडिणीय अग्गिसीह द्वि० १२३. अणाहारय तृ. २, च०४६, अस्थि भग्गेयी तृ. १८९,३१४. च० २७०. प्र० १६८. अस्थिकाथ प्र. २२३. अचक्खुदंसण अणित्य च. २०४. अत्थोग्गह तृ०५९. अचक्खुदंसणी द्वि० २८०,तृ. ३०२. | अणिदाय प्र. ९८. अद्धचकवाला च० २१३, ३२५. अचरिम द्वि० ३४,२८२,तृ.३०३. अणियाण प्र०२३९. अद्धमागहा द्वि०१८.. च०४८,५१, २९३. अणुत्तरोववाइय द्वि. १८७,२६०,४०३५७. अद्धा प्र. १६८. अचित्त प्र० २७९, च०६४. अणुत्तरविमाण द्वि. ३१५. अद्धाकाल तृ. १३४. अचित्ताहार तृ. ३२४. अणुभाग प्र. १३१. अद्धासमय प्र.३१०,तृ. ३२१, अचेयकडं च०६. अणुभागकम्म प्र० १३२. ३९९, च० २१६. अचेल तृ. ९८. अणुभागनामनिहत्त द्वि. ३३९. अदिण्णादाण प्र.१६६, तृ. २७६. प्र.१०८, द्वि०५१. अणुभागनामनिहत्ताउय द्वि०३३१. अधम्मत्थिकाय प्र.३०५, ३१३, तृ. ३१५, अच्छ तृ.३८७. अणुभाव प्र०८१. अजीवदव्वदेस प्र.३१.. ३२१, च०५८,९८,२१६, २३५. अणुमाणइत्ता च. २७४. अजीवपज्जव च०२३६. अधिकरण च. २. अणुव्वय प्र. १०९. अजोगी च० २६७. अधिकरणी च०२.. असणा प्र. २८२. अज्झवसाण तृ. १३३,च०१४२ अनागारोवओग प्र.२०१. अणेसणिज्ज द्वि० १९९. अज्झवसाणावरणिज तृ.१३०. अनागयद्धा अणंतपएसिय प्र. १६८. तृ. २७०. अट्ट च.२८१. अणंतर प्र०२३७. प्र. १५२. अनिहारिम अज्झाण द्वि. ७.. अणंतरखेत्तोगाढ द्वि० ३४६. अनंतपएसिय द्वि० २१४, २१५, २१६, २१७, अट्ठपएसिअ तृ. २६४ च०१०७ अणंतरखेदोववाग तृ. ३४२. अनंतरोववाग अट्ठमभत्त द्वि० ५६. अणंतरनिग्गय ४.३४१. अनीहारिम च० २७६. अट्ठमभत्तिम च.१०. अणंतरपज्जत्त तृ. ३०३. अन्नउत्थिा प्र० २२३, द्वि. १९३, २०८. अट्ठमंअट्ठम प्र.२४१, द्वि.२१. अर्णतरपज्जत्तय च० २९३. तृ.३६,८१, ११८. भट्ठियकप्प.. च०२६२. अणंतरपरंपरअणुववन्नग तृ. ३४०. अन्नगिलायय अडड द्वि. १५३. अणंतरपरंपरअनिग्गय तृ.३४१. अन्नत्थदंडवेरमण अडडंग द्वि० १५३. अणंतरपरंपरखेदोववनग तृ. ३४२. अपाणलदि Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ भगवतीसुत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. प्र. ९२. श. श. श. अन्नाणलद्धीय तृ०६८. अरिहंत प्र०३०३. असुरकुमारी द्वि० ११५, १२१.. अन्नाणियवाइ. च० ३०२. अरिहंतचेइ द्वि० ५३, ५८. असेलेसिपडिवण्णय प्र. १९६, च० २२०, २२१. अन्नाणि अरुहंत प्र०४. असोगवडेंसय द्वि. १.१. अपएस द्वि० २८६. अरूवि प्र. ३०५. असोचावलि तृ. १२८. अपचक्खाण प्र०२१०, दि. २९८. अरूविदव्व प्र० २०१. असंखेजपएसि द्वि०२७९,तृ.२६९. अपचक्खाणी द्वि. २९८, तृ. ९. अरूवीअजीवदव्व च० २०९. असंग दि. १२०. अपञ्चक्खाणकिरिया द्वि० २०३० अलाभ तृ. ९८. असंजम प्र०२७४. अपञ्चकखाणणिव्वत्तियाउय द्वि० २९९. अल्लियावणबंध तृ. १०२, १०३. असंजय (त) प्र. ७६, १०८, द्वि० १८०, अपच्छिममारणंतियसलेहणा तृ. ९.. अलोय तृ०२३१. २७९,४०१०,च०७०. अपज्जत्त द्वि० १८६,तृ०६३. अवत्तव्वगसंचिय च. १२१. असंजयभवियदव्वदेव अपडिसेवय च०२६३. अवत्तदंसण च०१५. असंवुड प्र.८१, तृ०७,२९, अपढम च०४८. अवव द्वि. १५३. च०१६. अपमत्तसंजम द्वि० ८१. अववंग दि. १५३. असंसारसमावण्णग अपमत्तसंजय द्वि० ८१. अलेस्स असंसारसमावन्नग च० २६८,२८६,३०३. च० २२०. अपमाय प्र० २३६. अलोय तृ० २३१. अस्सायावेयणिज प्र०८१. अपरित्त द्वि० २८१. अवट्ठियपरिणाम च०२६८ अहक्खायसंजय च० २६२. अपरिग्गह दि. २२६. अवसप्पिणी द्वि० ३४. अहव्वणवेद प्र०२३१. अपाणय तृ. ३८८. अवाय तृ०५९, २७७. अहातच च. १५. अप्पकम्मतराय अप्पकिरिया अविग्गह प्र. १५२. च० ८६. अहिगरणि तृ. २. अविग्गहगति अप्पचक्खाणकिरिया अहिगरणिआ प्र० १७८. प्र.१९२, तृ. ७९. अप्पडिया अविभागपलिच्छेद द्वि. १२१. अंकवडेंसय द्वि. १३०. अप्पडियवरनाणदसणधर प्र०१८. अविरइस प्र. ८४. अंजण द्वि० १२३. अप्पड्डी अविराहिअसं जम प्र.१०८. अंतकड तृ० १९३, ३४६. प्र०२२९. अप्पनिज्जरा द्वि० २६०. अविराहिअसंजमासंजम प्र.१०८. अंतकिरिया प्र.१०८. अप्पवेदण द्वि० २५६, २६.. अवीरिय प्र. १९४. अंतराइय. द्वि० २७६, च० ९९,३४. अप्पवेयणतराय अविसुद्धलेस्स तृ. ३९. अंतोमुहुत्त तृ. ३४०. प्र. ६९. अप्पसत्थकायविणय च०२८०. अविसुद्धलेस्सतराग प्र. ९२. अंतोसल्लमरण प्र० २३७. अफासु अवीचिदम्ब द्वि० १९९. अंब तृ०३५२. द्वि०११६. अवहिल्लेस्स अवीयीपंथ अंबरिस प्र. २४०. तृ.१९१. द्वि० ११६. अबाहा द्वि० २७६ तृ. १३५. आ अबाहूणिआ दि. २७६. अव्यत्त च.२७४. आइच द्वि० २८०. अबुद्धजागरिआ तृ. २५५. अब्बाबाह तृ०३६०च०७५,७६. आउकाइय प्र० १५५. अबोहिआ प्र० २०७. असतीपोसणया तृ०८३. आउक्खय प्र० २४६. अब्भक्खाण प्र. १६६. असद्दपरिणय द्वि० २२२. आउत्त द्वि० ७८, तृ० २३. अब्भक्खाणदाण प्र० १९६. असन्निपंचिंदियाअप्पजत्तग च० १९८. आउय च० २८९. अभिंतरय च०२७८. असजिपंचिंदियापज्जत्तग च०.१९८. आउयबंधय द्वि० ३३१. अभवसिद्धिय प्र०१६७,द्वि०३४,२७४,द्वि०२८०. असन्नि द्वि०२८०,तृ०३०२. आउयाय प्र. १७०. तृ.६५,३०२, च०६, च०२८४. असायावेयणिज्ज तृ०२०. आउर च० २७४. अभासय द्वि० २८१. असासय तृ. ११, १८१. आओवकम च० १२१. अभिगम प्र०२०७,त. १६४. असि द्वि० ११६. आकंपइत्ता च० २७४. अभिग्गह प्र.१२, दि. २६ असिद्ध प्र० १६७. आगम तृ. ९४. अमरवा असिद्धि प्र० १६७. आगरिस च. २५७. अमाइमिच्छादिट्ठिउववन्नग द्वि० १८६. असिपत्त द्वि०११६. आगारभावपडोयार द्वि० ३२५, तृ.२.. अमायिसम्मदिहिउववनग च० १२. असुन्नकाल प्र० १०५. आगासस्थिकाय तृ. ३२५, च०५८,९८,२३५. •भमिअगइ द्वि० १२३. असुरकुमार प्र०६७, द्वि. २८, २९, ४८, आगासपएस द्वि० १८८. अमिअवाहण द्वि० १२३. ५२, ६५, ११५, १२१, । आजीविय तृ०३८६,३९१. अमोह द्वि० १२०. २४०, २४७, २५९, २२६, आजीवियोवासय तृ.८३. अरति तृ० ९८. ३४४, ३४८, च. ६०, आजीवियोवासिया अरहंत ६९,११५. आजीवियसमय तृ०८३. भरहा प्र०२३४, तृ. २. | असुरकुमारावास प्र. १५३. | आणपाणय अवेद द्वि० १२३. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. ३७३ उदइय आणा इत्थी उयह इंद श० पृ० श० पृ. आणापाणु तृ.२७१, च०२३६. | आहारपज्जत्ति च० १५. च. ३२. . आणय-पाणय-आरण-अचुअच०६९. आहारय प्र० १५८, च० २७०, तृ• ३३२, उदय च. २३१. तृ.८३. २,च०४६. उदयनिप्पन्न च०३२, २३१. आदिंतियमरण तृ. ३३३, ३३२. आहारयमीसय तृ. ३३२. उदहिकुमार द्वि० ११७, १२३, च० २८. आपुच्छणा च० २७५. आहारसना च०३४, ९९. उदहिकुमारी द्वि. ११७. आभिणिबोहियणाण प्र. १५१,४०५९, आहारसनोवउत्त द्वि० ४१२, च० २८६. उदयाणंतरपच्छाकड प्र. १२१. १३०, च०३४, ९९. | आहोहिय प्र०१३७, तृ०२५,तृ. ३६५, च०७२. द्वि० १८७. आभिणिबोहियणाणपजव प्र.३०९. उदीरणाभविय प्र. १२१. आभिणिबोहियणाणलद्धीय तृ० ६५. इच्छा (सामाचारी) च० २७५. उदीरिजमाण प्र०४१. आभिणियोहियणाणी द्वि०२८१,३१२ तृ०७४. इत्तरिम च० २७६. उवसंपया च०२७५. आमिणिबोहियणाणपजव तृ. ७५. इत्थिवेद प्र०२७१ उप्पत्तिया तृ०२७६च० ३४. • आभियोग द्वि० ९८,११५. इथिवेदकरण च. ९४. उप्पल द्वि०१५३. आभोगनिव्वत्तियाउय प्र० २७२, तृ० १८. उप्पलंग द्वि. १५३. आयअजस च०३६१. इत्थीपच्छाकड तृ० ९५. उप्पायपव्वय च० २६. आयकम्म द्वि० ९७. च० १२१, २८३. इरिआवहिआ. प्र०२१९. उम्माद तृ० ३४३. भायजस च०३६१. इरिआसमिक्ष प्र. २३९. उरगजातिआसीविस तृ०५६. आयड्डीय तृ. १९३. इसिपन्भारा द्वि०४८. प्र. ५५. आयत च०२०४. इहभवियाउग प्र० २०४. उवउत्त द्वि. १८६. आयतसंठाणकरण च० ९४. इहलोगपडिणीय तृ. ९३. उवओग प्र. १४३, च० २१. आयप्पयोग द्वि० ८७, च०२८३. इंगालकम्म तृ. ८३. उवओगगुण तृ. १८१,३१४. आयप्पयोगनिव्वत्तिय च.९३. च०३. उवओगनिव्वत्ति इंदिय च०३९. आयय उवओगलक्षण च० २०७. प्र० ३०९. आयरियपडिणीय इंदियलद्धी तृ०६६,७०. उवओगाया तृ. ९३, १८३. तृ. २९४. इंदियजवणिज्ज च०७५. आयरीय-उवज्झाय द्वि० २१०. उपकमिआ प्र.१३२. आयसरीरखेतोगाढ द्वि० ३४६. इंदियपडिसंलीणया च० २७७. उपगरणदव्योमोयरिया च० २७६. उवज्झायपडिणीय भायाणभंडभत्तनिक्खेवणासमिअ प्र. २३९, तृ९३, १८३. उवभोगपरिभोगपरिमाण आयार ईरियावहिया द्वि० ७८, तृ. ३, ५, २३, च०७०. तृ.९. च०२१४. उवमिय आयाहिकरणी ईरियावहियबंधय द्वि. ३२२. च०३. द्वि० २७४. ईरियावहियाबंध उवरिमगेविजय आयाहिणपयाहिण तृ. ९४. प्र० १०८. आयंबिल ईरियासमिअ द्वि० २१. च०२७७. द्वि० ७८. उववाइय उववाय आराह ईसाण प्र. २९६, द्वि० २३, २५, १२९, १३०. प्र.१०७. प्र. ११४. उववायविरहकाल राहणा तृ. १८९, ३५३. प्र. २२२. प्र० ८३, द्वि० ९३,तृ० ११८. आराय | ईसाणकप्प द्वि०२१,२९. द्वि०३४, २८, तृ.८५. उववायसभा प्र०२९९, द्वि. १७,२९, च०५३. आरंभ द्वि० ७६. ईसाणवडे (डिं)सय द्वि० २३, २९, च० ३९. उपसमिअ च० २७३ च० ३२. आरंभिया द्वि० २०३. ईसिप्पन्भारा च० ३४. उवसामग च० २७३. आलसियत्त द्वि० २६०. ईसीपम्भारा प्र. ३१३, द्वि. ३२७. उवसंतकसान प्र. १२७. तृ. ५९, २७७. भालोइयपडिक्कत द्वि० १७, २१,९३, ९८, २०९ उवसंतकसाइ तृ. १३६. ईहा-अवाय च०३४. उवसंतमोह द्वि० १८७. आलावणबंध तृ० १०२. उवसंतवेद तृ० १३६. आलोयणया च०३७. उकिट्ठा आलोयणादोस उवहि द्वि० २८,५८. च० ६४. च०२७४. उकुडयासणिय आलोयणारिह च०२४७. उवहीपचक्खाण च. ३७. च० २७४, २७५, २७८. उग्गह प्र० २४,४०५९,२७७, उव्व आवकहिअ. प्र. १७६. च० २७६. उसिण च०५,९९, ३४. भावत्त तृ० १९९. द्वि० १२३. च. १९८. उसिणपरिसह तृ. ९८. आवति च० २७४. उच्चयबंध उस्सप्पिणी प्र. २२५, द्वि. ५२, ११५, २४४, आवलिया प्र० ३०४, द्वि. ३२१, २२०, उजुआयता च० २१३, ३२५. ३२३, च० ११६. . २४८, च० २३६. उज्जो द्वि० २४६. आवस्सिया च० २७५.. उहाण च० ९९. ऊसास द्वि० ३२१. . आवीचियमरण . द्वि० ३३२. उत्तरगुणपचक्खाण ऊसासनीसास द्वि०.३२१. आसव प्र०२७७. | उत्तरगुणपच्चक्खाणी तृ. ९. आहाकम्म प्र० २१० द्वि० २०९. उत्तरपग(य)डिबंध च०५७. एगओ(यओ)खहा च० २१३. आहारगसमुग्घाय च०२५९. | उत्तरवेउब्विय द्वि० २८. एगओ(यओ)वंका च. २१३. उन्ग Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. श. एयणा ओ किमाहार एगगुणकक्खड प्र०५९. कप्पोववत्तिआ प्र० १९.. कायजोगचलणा एगगुणकालय द्वि० २२०,च० २२३. | कम्म प्र.४, द्वि. २००, २२५, कायजोगनिव्वत्ति च. ९३. एगपएसोगाढ द्वि०, २१९, २२१ च० २२२. कायजोगि प्र. १५१, तृ०३०२,०८१. एगंतदंड कम्मआसीविस तृ०५६, ५७. कायपडिसंलीणया च०२७८. एगंतपंडिअ प्र.१८९ तृ. ७. कम्मकडा प्र.१७४.. कायप्पयोग द्वि० २७३. एगंतबाल तृ.७, ११, च० ३३, ७१. कम्मकरण दि. २५८. काययोगि प्र. १५५. एगिंदिअदेस प्र.३१०. कम्मग प्र. २०२. कायविणय च० २७८. एगिदियपदेस प्र०३१०. कम्मगसरीरकरण च० ९३. कायसमबाहरणया च० ३७. च०३५. कम्मट्ठिति तृ. २७६. कायसमि एसणा प्र०२८२. कम्मण प्र० २०२. कायसुप्पणिहाण च० ६५. एसणासमिक्ष प्र. २३९. कम्मत्ता प्र.५५. काल प्र. १३, द्वि० १२३, १२६. एसणिज प्र. २१.. कम्मदव्ववग्गणा प्र०५४. कालकरण च० ९३. कम्मनिव्वत्ति च० ९१. कालतुल्लया तृ.३५५. कम्मनिसे ओगाहणाठाणाउय कालपरमाणु द्वि. २०६. च०११२. दि. २२२. भोगाणानामनिअत्ताउय द्वि० ३३१. कम्मपगडी कालेयणा प्र.१३१, द्वि. १७३, २७५. काललोय ओग्गह तृ. ९७, च० ७. तृ० २५८. प्र. २७८. प्र. १७९. कम्मप्पइट्ठिय कालवाल द्वि. १२२. ओदइय च० २३९. ओमोदरिया कम्मभूमि कालातिकंतच० २७६. च० १९६,२६३. ओराल कालादेस कम्मय तृ. ३३२. तृ. १९०,३३२, च०३. द्वि० २३३, २८६. किन्नर ओरालिय कम्मसरीरचलणा प्र०२७७, द्वि० १२३. प्र० ११५ तृ. १९०,च० ३. ओरालियपोग्गलपरियह कम्मविउसग्ग किब्बिसिया च०२८२. तृ. २७१. प्र०११०. ओरालियमीसय कम्ममंगहिम तृ. ३५२. तृ. ३३२. प्र. १७०. ओरालियसरीर कम्मापोग्गलपरिय किंपुरिस द्वि. २६० च० ३, ४, ९९. तृ. २७१. प्र.२७७. ओरालियसरीरकरण कम्मिया किरिया प्र० २८०, तृ०२७६. च० ९३. प्र. ९५, द्वि. ७३, ७५, ७६, ओरालियसरीरचलणा कम्मोवचय च.१,३०. च०३६. द्वि० २५३, २७४. अजीवपाओसिआ ओसप्पिणी द्वि. ७४. च. २७७. प्र.२२७, द्वि०१५५, २४८, कायकिलेस अणुवरयकायकिरिया द्वि. ७४. ३२३, तृ. २०, च०११६, २३८. करण प्र. २३९. अहिंगरणिआ ओहारिणी द्वि० ७४. करणसच च० ३७. प्र. २९१. अंतकिरिआ कल्लाणफलविवागसंजुत्त ओहि तृ. ३८. द्वि० ७६. प्र. १५२ द्वि०५७, च० २७. काइआ द्वि० ७४, २७६. ओहिअन्नाणि तृ. ३०२. कलिओग च०५९, २१५,३११. जीवपाओसिआ द्वि०७४. ओहिणाणि द्वि० २८१. कलियोगकडजुम्म च० ३३८. दुप्पउत्तकायकिरिया द्वि. ७४. ओहिदसणपज्जव कलियोगकलिओग निव्वत्तणाहिगरणकिरिया द्वि. ७४. ओहिदंसणि द्वि० २८०,४०३०२. कलियोगतेओगे च० ३३८. सहत्थपाणाइवायकिरिया द्वि०७४. ओहिनाणपज्जव प्र.३०९. कलियोगदावरजुम्म परहत्थपाणाइवायकिरिया द्वि. ७४. ओहिनाणलद्धि च. ९४. द्वि० १०१, १०२. कसायकरण परहत्थपारिआवणिया द्वि. ७४. ओहिमरण । तृ• ३३२, ३३३. कसायकुसील च०२४१. सहत्यपारिआवणिया , कसायनिव्वत्ति च.९१. पाओसिआ कसायपञ्चक्खाण च०३७. ककसवेयणिज्ज पाणाइवाय किरिया तृ. १९,३१२. द्वि०७४, २०६. कसायपडिसंलीणया च० २७७. पारिआवणिआ कडजुम्म च०५९. कसायविउसग्ग च० २८२. संयोजणाहिगरण किरिया द्वि०७४. कडजुम्मकडजुम्म च०३३८. कडजुम्मतेओग कसायसमुग्धाय प्र० २६१,०८२, च० २५९. | किरीयावादि च०३३८. च.३०२. कसायाया कडजुम्मदावरजुम्म च० ३३८. तृ• २९४. किंजोणि तृ०३५२. काइया कडजुम्मकलियोग प्र. १९२, तृ. ७९,च०३०. किंठितिय तृ० ३५२. काउलेस्स कण्हपक्खीय च० २८६, ३०३, ४० ३०१. प्र. १०२, १५१, द्वि. ९०, किंपरिणाम तृ० ३५२. तृ.३०१, च०५४. कण्हराइ किंपुरिस दि. १२३. द्वि० ३०७. काम कीयगड कण्हलेस (स्स) प्र.७८,१०२, २०१, द्वि. द्वि. २०९. कामकंखिय प्र.१८३. कुत्तियावण ९०, तृ०७१,२७७, तृ० १५३. कामपिवासि 'प्र. १८३. फुलगर द्वि. १९५. च०३४,९९, २८६. कामी तृ. २४. कुलपरिणीय "तृ. ९३. कति किरिय च०३१. कायकरण द्वि० २५८. च० २४०. कतिसंचिय च. १२१, १२२. कायगुत्त प्र०२३९. कूडागारदिटुंत च०५१. कप्पातीतगवेमाणिय कायजोय प्र. १५१, च० ३. । केवलणाण प्र.१५९. शिक्षा कुसील Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो ३७५ . द्वि. २८१. प्र.३०९. खंध केवलणाणी केवलणाणपज्जव केवलदसणपज्जव केवलदसणी केवलिपनत्त केवलिसमुग्धाय केवलि दि. २८०. केवलीउवासग केवलीउवासिया केवलीसावय केवलीसाबिया केसरिआ केसवाणिज कोरव्व को(ल)वाल कोसल कोहकसाइ कोहवसट्ट कोहविवेग प्र. २६१, च० २५९. द्वि० १७०,१८८,३४७, तृ० २५,च० ७२. द्वि. १८३,तृ० १२८. द्वि. १८३,तृ. १२८. द्वि० १८३,तृ. १२८. द्वि.१८३,तृ०१२८. प्र. २३२. तृ० ८३. च०११८. द्वि० १२२. तृ. ३८७. तृ. ३०२. तृ. २६०. तृ. १९,३९,२७६. कोहोवउत्त कंखपओस कंखामोहणिज कंतारभत्त. कंदप्प कुंभ प्र. १४४. प्र०८,२३२. प्र. ११३. द्वि० २०९. द्वि० ११५. द्वि० ११६. श. पृ. खेत्तावीचियमरण तृ. ३३२. चरण प्र० २३९. प्र. २१५, तृ. ३४७. चरम तृ० ३३९. खंधदेस प्र.३१०. चरित्तपडिणीय खंधपएस प्र.३१०. चरित्तमोह ग चरित्तमोहणीज दि. १७२ तृ. ९७. चरित्तलद्धी गणपडिणीय - तृ. ९३. चरित्तलद्धीय गणहर प्र. १४. तृ.६८. गतिपरिणाम तृ० ३. चरित्तविणय च० २७८. गतिनामनिहत्ताउय द्वि. ३३१. चरित्तसंपन्न प्र. २७४. गन्भवतिय चरित्तसंपन्नया तृ. ४३. च० ३५. गरुअलहुअपज्जव प्र०२३५. चरित्ताचरित्त प्र. ८०. तृ. २५८. चरित्ताचरित्तलद्धी गरुयत्त तृ०६६. गरुल प्र०२७७. चरित्ताचरित्तलद्धीय तृ. ६९. गिद्धपट्ठ प्र. २३७. चरित्ताया गिलाणपडिणीय चरित्ताहारणा तृ. १९८. गिलाणभत्त द्वि० २०९. चरिम द्वि०३४, २८२ तृ०३०३, च. गीअजस द्वि० १२३. ८८,३९३ च० ४८, ५१. गीअरइ द्वि० १२३. चरिमकम्म द्वि०१८४. गुण तृ.८१. चरिमणिजरा दि. १८४. गुणरयणसंवच्छर प्र०२५८. चलणा गुत्त प्र०२३९. चवला द्वि० २८. गुत्तबंभयारि प्र. २३९ द्वि०७८. चाउजाम प्र० २०७ द्वि० २५० च. गुत्तिदिय प्र. २३९. ११६, २६.. गुरुयलहुअ प्र०२... चारण च०११८. गंधकरण च. ९४. चारित्तपजव प्र. २३६. गंधपजव प्र. २३५. चित्त द्वि० १२३, च. ५१. गंधव्व चित्तपक्ख द्वि० १२२. चिंतासुविण च. १५. घणवाय .प्र. १६८, च. ४२. चुलसीतिसमजिअ च० १२५. घणवायवलय च०४२. चूअवडेंसय द्वि० ११०. घणोदहि प्र.१६८. चूलिअ द्वि. १५३. घाइ प्र० १२४. चूलिअंग द्वि० १५३. घोरतवस्सि प्र० ३३. चेयकड घोरबंभचेरवासि प्र.३३. चोत्तीसइमंचोत्तीसइम प्र०२४१. द्वि१२३. चोदसपुवि प्र०३३, द्वि०११.. चंडा द्वि० २८, १२७.. चंपयवडेंसय द्वि.११.. चउक्किरिय तृ०८७. चउट्ठाणवडिअ प्र. ९८. चउत्थभत्त प्र०६८,च. ९.. | छंउमत्थ प्र०४८, द्वि० १६९, १५२, चउत्थंचउत्थ प्र०२४१. १९३, ४०२७५८,२५, चउनाणोवगन ३६५ च. ७२. चउपएसिअ द्वि० २१४, तृ. २६२, च० ३०२. छउमत्थकालिय द्वि०५६, च०१७. च०२०४,२०७,२०९. छक्कसमजिअ च०१२२. चरिंदिय प्र.२९८. प्र. ७३, च. १९८. छक्कोडी चउवीसइमंचउवीसइम प्र०२४१. छट्ठभत्त प्र.७४, च. .. चक प्र. २४, द्वि. ११९. छटुंछट्ट प्र० २४१, दि.१५, चक्कवाल च० २१३, ३२५. २६,५६, च०९ चक्खिदियवसह तृ. २६.. छप्पएसिम तृ. २६३च०१०५. चक्खुदंसण च० ३४,३९. च०२७४. चक्खुदंसणी द्वि० २८०, तृ.३०२. छाउमथिअसमुग्धाय प्र. २६१. चतुकिरिय .प्र. १११. छुहापरिसह तृ. ९८, चमर दि. ३,५,४७,१०६ १२७,१२२. 'छेओवट्ठावणासंजय च०२६९. च०२७३. प्र० १२४. प्र. १२७ च०२०३. घोस खइभ खओवसम खओवसमि खमा खमापणया खवग खस्सर खयर खित्तेयणा खीणकसाइ खीणमोह खीणवेद खुडाजुम्म खुडागकडजुम्मनेरइय खुट्टागतेओगनेरइय खुट्टागकलिओगनेरइय खुदागदावरजुम्मनेरइय खेत्तट्ठाणाउय खेत्ततुल्लय खेत्तातिवंत खेत्तादेस खेत्तपरमाणु खेत्तलोय च०३७. च० २७३. द्वि० ११६. तृ.४३. च.३५. तृ.१३६. द्वि. १८७. तृ. १३६. च०३११. प्र.३११. प्र.३११. प्र.३११. प्र०३११. द्वि० २२२. चउरंस छन्न दि० २३३. च०११२. तृ. २२८, Jain Education international Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. शं० छेवट्ठ जलं प्र. ५४. तेउकंत जायणा श. पृ० छेदारिह च०२७६. तिकिरिय प्र०१९१,४०८७. प्र० १५८. णउ द्वि०१५३. तित्थ प्र०१४, च० २६३. छंदणा च० २७५. णउअंग द्वि. १५३. तित्थगर प्र० १८. णक्खत्त द्वि० ११०. तिपएसिअ द्वि. २१४, २१६, २१७,२१८, जइणा द्वि० २८. णयंतर प्र० १२५. तृ०२६२च०१.१. जत्ता च०७५. णरअ प्र. ३३. तिरिक्खअसनिआउभ प्र.१११. जम द्वि. १२२, १२४, १३०,१०९,११५. णागकुमार प्र०७५. तिरिक्खजोणियदव्वदेव च० ३६. जमकाइय द्वि० ११५. णाण प्र. ७९,द्वि० १७०,४०५९,७४. तिरिक्खजोणियपवेसण तृ० १५५. तृ. १८९. णाणदंसणधर जमा प्र० १३७. तिरिक्खजोणियाउय प्र.१११. जयणावरणिज च० ९२. तृ. १३०. णाणनिव्वत्ति तिरिक्खसंसारसंचिट्ठणकाल प्र० १०५. जरा च०५. णाणपज्जव प्र. २३६. तिरियभवत्थ तृ. ६४. द्वि० १२३.. णाणलद्धि तृ. ६५. तिरियाउय प्र. ९९,१११. जलकत द्वि० १२३. णाणसंपन्नया च० ३७. तिसइमंतिसइम प्र० २४१. जलप्पभ द्वि० १२३. णाणावरणिज द्वि० २७६, २८.. तीता च०२३८. जलरूम द्वि० १२३. गाणी च०४७. तुरिअगइ द्वि० १२३. जवणिज च० ७५. णिओद च० २३९. तुरिया द्वि.२८. जाइगोयनिहत्त द्वि० ३३१. णिकायण प्र०५४. तेइंदिय प्र०७३ च.१९८. जाहगोयनिहत्ताउय द्वि.३३१. णिकाइंति प्र०७४, द्वि० १२३. जाइनामनिउत्त द्वि० ३३१. णिकार्यिसु प्र० ५४. तेउ प्र. २६२. जाइनामगोयनिउत्त द्वि० ३३१. णिकायेस्सति प्र० ५४. द्वि० १२३. जाइनामगोयनिउत्ताउय णिजरा तेउप्पभ द्वि० ३३१. तृ० १३. द्वि० १२३. णिजरेंति तेउयाअ प्र. ५४. च. १६. प्र. ३०४. जागर जागरियत्ता तृ० २५९. णियंठ च० २४०. तेउलेस(स्स) तृ०३९,च. ४२, जातिआसीविस णिहत्तण प्र०५४. प्र. ७८, द्वि. ९०. णिहत्तिंसु तृ० ९८. प्र०५४. तेउलेस्सा प्र.१०२ च० २९.. णिहत्तेस्संति प्र०५४. | तेउसीह द्वि० १३१. जायरूववडेंसय विं० १२३. णेरइयसंसारसंचिट्ठणकाल प्र.१०५,५३. तेओगकडजुम्म च०३३८. जाया द्वि० १२७. णेरइयाउ प्र. १८९. तेओगकलिओय तृ. ९४. तेओगदावरजुम्म जीव प्र. ४, द्वि० ३४४, च० ३४. 'तणुवाअ प्र. १६०४० २७७, च०४२. तेओगतेओग जीवस्थिकाय प्र०२००,तृ.३१५, तणुवायवलय च०४२. तेयाकम्मत्ता च०१८,२३६. तत्तिव्वज्झवसाण प्र. १८३. प्र. १४९. जीवदव्य च.२०१. तदुभयकड च०३९.. तेयलेस्सा प्र. ३३, तृ. ३६४. जीवनिव्वत्ति च० ९३. तदुभयारिह तेयापोग्गलपरियट्ट - तृ. २७१. जीवपज्जव च०२३५. तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिय च० ३. च०३११. जीवप्पयोगबंध च. १९४. तदुभयाहिकरणी च०३. च० २०७,२०९. जीवाया च०३४. तपक्खियउवासग द्वि० १८३. तहक्कार च० २७५. जुगंतरपलोयणा प्र.२८१. तपक्खिउवासिया द्वि० १८३. जुम्मा । च० २९५. तपक्खियसावग दि. १८३. थणियकुमार प्र० ३०४, द्वि० १४, जोइस द्वि० २२५, २४७. तपक्खियसाविगा द्वि. १८३. १७, १२३, २२१. जोइसिय प्र०५६, द्वि०१४,९०, २५२, तमतमा द्वि० ३१५. थणियकुमारी द्वि. ११७. तृ. ३०७. तमा तृ. १८९,३०५. । थालपाणय तृ. ३८८. जोगनिव्वत्ति च० ९३. तमुकाय द्वि. ३०२ तृ. ३४४. प्र० २०६. जोगपचक्खाण तयापाणय तृ.३८८. थेरपडिणीय जोगपडिसंलीणया च० २७७. तव च०२७४. थोव द्वि० ३२१, च० २३६. जोगसच च०३७. तवस्सिपडिणीय तृ. ९३. जोणी द्वि० ३१८,तृ.१९१. तवारिह च.२७५. . दक्खत्त तृ०२६.. जोय च०३१. तविवरीय च०.१५. दत्ति प्र. २५५. जंघाचारण च० ११९, १२०. तसकाय प्र. २१०. दप्प च०२७४. जंतपीलणकम्म तृ.८३. तसपाणसमारंभ दरिसणावरणिज द्वि० १७३,२७६,२८७. जंबूदीव प्र.३१३. तस्सेवी च० २७४. दवियाया तृ. २९४. जंभय तृ. ३१६.. तायत्तीसय द्वि० ३,३७,तृ० १९६. | दव्य प्र.३, च०२.१. जीय तेअय च० २७५. तेयोय तंस धेर Jain Education international Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श० दव्यकरण दव्वग्गिदावणआ दव्वद्वाणाउय दवडिल दब्वपएस दव्यपरमाणु दव्वबंध दब्वेयणा दशा दव्य सोय दव्वविउसंग्ग दव्वादितियमरण दवास दव्वाभिग्गहृचरय व्यावीचियमरण दिय दोसोरिया दम्बोहिमरण दसप एसिय दसमभत्त दसमंदसम दाणामा दावरजुम्म दावरजुम्मकडजुम्म दावरजन्मठियोग दावर जुम्मओय दविरजुम्मदावरजुम्म दिद्विप्पहाण दिट्ठ रिडीकरण दिसा दिसाकुमार दिसाकुमारी दिसिव्वय बीवकुमार दीवकुमारी दीवसमुद्द दुक्ख दुगुणकालय दुपचक्खाय एसोगाड दुप्पएसिअ दुप्पणिहाण दुभिस्वत मोहि दुसमदुसमा दुसम सुसमा दुसमा दुखहा लोप पृ० च० १३. तृ० ८३. द्वि० २२२. प्र० २०८. प्र० १६८. च० ११२. च० ५६. च० ३५. प्र० २०१. तृ० २२८. च० २८२. तृ० ३३३. द्वि० २३३. च० २७७. तृ० ३३२. प्र० १८१. च० २७५. तृ० ३३३. च० १०८. च० ९०. प्र० २४१. द्वि० ५५. च० ५९. च० ३३८. "2 "3 " " " ४८ भ० सू० " तृ० ४. च० २२३. तृ० ७. च० २२२. दि. ११४, २१६, ११७, २२१, तृ० २६०, च० १०८. प्र. १२२, च० ६५. द्वि० २०९. भगवतीसूत्रमां आवेला पारिभाषिक शब्दो तृ० ९३. श० दुका देवसन्निभउभ देवय देशस देवभवत्थ देवाचिकाल वैवाजय देवाधिदेव देविंदोग्गह देसपचक्खाण देसमूलगुणपच्चक्खाण देसमलगुपच देसावरीय देतरगुणपचखाथ तपश्याणी प्र० ६१. च० २७४. च० ९४. दसणाया तृ० १८८, द्वि० ११९, १२३. दंसणाराहणा सणावर निय द्वि० ११९. द्वि० ११९. तृ० ९. द्वि० ११९, १२३, च० २७. द्वि० ११९. द्वि० ३३४, तृ० ८८. तृ० ४. दोसालोयणा दंतवाणिजकम्म ईम दंसणंतर दंसणपज्जव सणपरिसद् मोड़ सा दंसणमिव दंसणसंपन्न दंसणसंपन्नया तृ० ८३. प्र० ७९, द्वि० १७०, तृ० ९३. प्र० १२५. प्र. २३६. तृ० ९७. प्र. ६५. दंसणमोहणिज्ज प्र० १३३, तृ० ९७, च० ११६. तृ० ६५. डी दंसणलीय तृ० ६८. प्र० १०८. च० २७८. प्र. २७८. च० ३७. तृ० २९४. तृ० ११८. प्र० १३३. धम्मत्विकामप्रदेस धम्मदेव धम्मवरचाउच धरण धारणा धुवराहु धूमप्पभा द्वि० ३४. द्वि० ३२३, तृ० २०. नपुंसक वेदग द्वि० ३२३. द्वि० ३२३. च० ३२५. धणियबंधणबंध च० ५७. धम्म तृ० १२८, च० २०१. धम्मजागरिया प्र० २४२. धम्मत्थिकाय प्र० २००, तृ० ३०५, च० ५८, ९७, ९८, २१६, २३५. ध नपुंगवेदकरण नपुंसगपच्छाकड नय नयप्पहाण पृ० च० २१३, ३२५. प्र० १११. तृ० १८२. तृ० १५६. तृ० ६४. प्र० १०५. प्र० १०९. तृ० २८९. च० ५. प्र०] १९०. तृ० ८. तृ० ९. तृ० ९. तृ० ९. तृ० ९. च० २७४. प्र. ३०६. तृ० २८८. प्र० १८. द्वि० १३, १२२. तृ० ५९, ९४, २७७, च० ३४, ९९. न तृ० २८०. तृ० ३०५. तृ० ३०२. च० ९४. तृ० ९५. प्र० २३१. प्र. २८६. श० नरदेव नलिण नलिणंग नवप एसिय नाग नाणाया नाणलद्धिय प्र० १४२. नागकुंमार प्र०६८, द्वि० ११७, च० ४३, ६१. नागकुमारी द्वि० ११७. नाणपडिणीय नाणविणय नामंतर मायभवंतर नाराय निगोष निम्गंध नाणाराहणा तृ० ६६, ७०. तृ० ११८. नाणावरणिज्ज च० ३४, ९९, ११५, च० २८७. नाणावर गिलोदय नाणि निच्छाइयनय निच्छयप्पहाण निजरा निज्जरापोग्गल निरामय निजरिजमाण विविग्न नित्यारि निष्पचक्खाण-पोसहोववास निमंतणा नियंठ निरम निरयभर निरयवाल निरयावास निरहिकरणी निरुयहस पृ० तृ० २८८. द्वि० १५३. द्वि० १५३. च० १०८. निरुवकमाउय निरंगणया निकम्म निश्चेष निव्विगितिय Ra निस्संगया तृ० ९३. तृ० २९४. नेरइयसमिधाभ रयतेवणा नेरइयदव्वेयणा च० ११५. तृ० ६०, च० ८१. च० २७८. प्र० १२५. प्र. १०७. प्र० ३४. प्र० १०७. प्र० ३३. च० ६२. प्र० २८६. प्र० २७७, तृ० १३, ८४. च० ५६, ५८. तृ० १४. प्र० ४१. प्र० ४१. प्र. २३८. तृ० २२. च० २७५. प्र० २२८, च० २४१. प्र० १४१. तृ० ६४. द्वि० ० ११५. प्र० १४१. च० ३. च० १२१. २७७ च० १२०. तृ० ३. तृ० ८३. च० ३७. च० २७७. प्र. १८४. तृ० ३. निसी दिया तृ० ९८, च० २७५. नि(भी) दारिम प्र० २३७, च० २७६. नीललेस (स्स) प्र० ७८, ११२, द्वि०९०, १३५. नेरइ (ति) य प्र०८, द्वि० १३३, १६७, २३९, तृ० ४०१, ३४८, च० ६१. प्र० १११. च० ३६. च० ३६. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. पमत्त पृ. नेरइयपवेसण तृ. १३८. भासा. द्वि०१७, ३.. परिनिव्वुड प्र.२०८. नेरइयाउय " प्र.१११. मण. परिमंडल च. २०४,२०८,२०९. नोइंदियधारणा तृ० ५९. प्र० १६८, च० २३५. परिमंडलसंठाणकरण नोइंदियोवउत्त तृ. ३०२. पडिकंत प्र. २४६. परिसह प्र० २०, तृ. ९७. नोकामीण तृ० २५. पडिकमणारिह च. २७६. परिसवत्तिय प्र. १७९. नोइंदियजवणिज्ज च० ७५, ७६. पडिपुच्छा च. २७५. परिहारविसुद्धियसंजय च० २६२, २६३. नोचुलसीतिसमज्जिय च. १२४. पडिमापडिवनय द्वि. २६.. परोवकम्म च० १२१. नोछक्कसमज्जिय च० १२२. पडिसेवणा च०२७४. पुरिसवेदकरण च.१४. नोपज्जत्तगा-नोअपज्जत्तग तृ. ६४. पडिसेवणाकुसील च०२४०. पुरिसवेदग तृ. ३०२. नोपज्जत्तय-नोअपज्जत्तय द्वि० २८१. पडिसेवय च० २६३. परंपरखेत्तोगाढ द्वि० ३४६. नोपरित्त-नोअपरित द्वि० २८१. पडिसंलीणया च०२७७. परंपरखेदोववनग तृ.३४१. नोवारससमज्जिय च० १२५. पणिहाण च०६५. परंपरनिग्गय तृ.३४१. नोभवसिद्धिय-नोअभवसिद्धिय द्वि० २८०,४०६५. पणीय द्वि. १८६. परंपरपज्जत्तग तृ. ३०३, च०२९३. नोभोगीण तृ. २५. पणीयरसविवजय च० २७७. परंपरबंध च.११४. नोसन्नी-नोअसन्नि द्वि० २८०. पभ द्वि० १२३. परंपरसिद्ध च० २२०. नोसन्नोवउत्त च०२७०,२८६. पभकंत द्वि. १२३. परंपरागम द्वि. १८३. नोसुहम-नोबादर द्वि० २८२. पभंजण द्वि० १२३. परंपराहार तृ०३०३. नोसंजय-नोअसंजय द्वि.२७९. प्र० १२९. परंपरोगाढय च.२९२. नोसंजया-संजय द्वि. २७९. पमत्तजोग प्र. ७७. परंपरोवगाढ दि. १८६, तृ. ३०३,३४०. नंदिआवत्त द्वि० १२३. पमत्तसंजम द्वि०८१. परंपरोववन्नग(य) तृ. ३०३, च० २९१. पमत्तसंजय प्र. ७६, द्वि०८१. पलिओवम प्र० ७५, द्वि० ११६, १२०, ਰ द्वि० १५३. पमाणकाल तृ. २३४. १५३, ३२२ च० २३७, पउअंग द्वि० १५३. पमाणातिकत तृ.५. पवयण च०११८. पउपरिहार तृ. ३८१, ३८२. पमाद प्र.१२०, च०२७४. पवयणमाइया प्र.१३७. पउम द्वि० १५३. पम्हलेस द्वि... पवेसण(य) तृ. १३८, च.१२१. द्वि० १५३. पयाण च० १५. पव्वराहु तृ. २८.. पएसकम्म प्र. १३२. पयोगबंध द्वि.१.१. पसत्थकायविणय च०२८.. पएसग्ग प्र०८१. पयोगसा दि. २७२. पसत्थनिज्जरा दि. २५६. पएसनामनिहत्ताउय दि. ३३१. परकम्म च. १२१. पसत्थवयविणय च.२८०. पओग प्र. ११७. परप्पयोग च० १२१. पाओवगमण प्र.२३७, द्वि.२८,५५ पओगपरिणय तृ• ४१, ४२, ४८. परप्पयोगनिव्वत्तिय च०३. च० २७६. पओगबंध च०५६, ५७. परभवियाउय च० २८३. पाउसिया प्र.१९२. पभोस च०२७४. परमा च०८८. पाओवगमरण तृ. ३३४. पकामनिकरण तृ. २६. परमाणु च. ११२. पाण प्र. ६९,तृ. ३८७. पगडि प्र. १३१. परमाणुपोग्गल प्र. २१३, दि. २१३, २१६, पाणय प्र. १४३, द्वि. २१, तृ. ३५३. पञ्चक्खाण द्वि. २९८, तृ.८,८१. २१७, २१९, २२१, तृ. पाणाइ(ति)वाय प्र. १६५, तृ. १९, २७५ पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउय द्वि० २९९. ३४८,२६२ च० २५, ५८, च०३४, ३८,५८,९. पच्चक्खाणफल प्र०२८३. ७१,७४, १... पाणाइवायकरण . च०१४. पञ्चक्खाणापच्चक्खाण वि. २९८. परमाहोहिय प्र. १३७, तृ. २५, ३६५, पाणाइवायकिरिया . च०२. पच्चक्खाणापचक्खाणनिव्वत्तियाउय दि. २९९. च०७२. पाणाइ(ति)वायवेरमण प्र. १९९, तृ• १९. पच्चक्खाणापचक्खाणि द्वि० २९८. परलोगपतिणीय ३९, २७६, च.३४,५८,१९. पचक्खाणि द्वि. २९८. पराहिकरणी च. ३. पाणाम प्र.२२४. पञ्चक्खायपावकम्म प्र. ८४. परिग्गह तृ. २७५, च०६५. पाणामा द्वि० २६,२७. पज्जत्त प्र० १५२, द्वि० १८६, २८१, परिग्गहवेरमण तृ.१९,३९, २७६ च० ३४. पाण द्वि. ३२१. तृ० ४४, ६३. परिग्गहसन्नापरिणाम तृ.३४६. पायच्छित्त प्र. २७९ च० २७४,२७८. प्र. १८३, द्वि०१७,५७, परिग्गहसभोवउत्त तृ. ३०२ च० २८६. पारंचियारिह च० २७५, २७८. च० १५, ४८. परिग्गहिआ द्वि० २०३. . पावय प्र० ३३. आहार. द्वि० १७. परिणय च०१२. पावयणी च.११८. सरीर. परिणाम प्र. १२४, दि. १३६, तृ. ३४८. पासायवडिंसय प्र. २९८. इंदिय. परिणामि तृ. २७६, च.३४, ९९. पिवासापरिसह तृ.९८. आणपाण. परित्तसंसार द्वि० ३४. पिसाय तृ. ४३. पउमंग पञ्चत्ति Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. श. श० भीम बोहि भोग तृ. ५९. च०६५. श. पुडविकाय द्वि.३०२०५८. बारससमजिय च० १२४. भिक्खुपडिमा प्र.१४० तृ. १९९. पुण्ण द्वि. १२३. बालपंडिय च०३३. द्वि० १२३. पुण्णभद्द द्वि० ११९. बालमरण तृ० ३३२, ३३३. भुअपरिसप्प तृ. ४३. पुण्णरक्ख द्वि० ११९. बेइंदियाअपजत्तग च० १९८. भूआणंद द्वि. १२२. पुरिसकारपरकम च० ९९. तृ० १२८,च० ५४. च० १९८. पुरिसपच्छाकड . तृ. ९५. बंध तृ०३. पुरिसवेद प्र. २७१. बंधणपचइय तृ. १०२. मइअनाण पुलाय च०२४०. बंभचेरवास तृ. १२९. मइअभाणनिव्वत्ति च० ९२. पुन्यप्पओग बंभलोग-लंतग च०६९. मइअन्नाणपज्जव प्र.३.३. पुव्वप्पओगपञ्चइय तृ.१.४. मइअनाणी द्वि०२८१, तृ ३०२. पुचसंजम प्र०२८०. भत्तपञ्चक्खाण च०३७, २७६, ३३४. मग्गातिकंत तृ.५. पोग्गल प्र.५३, द्वि० ३,६५,९५, | भत्तपञ्चक्खाय तृ०३५६. मण तृ. २७९, ३३०, च० ८१. . २७. तृ० १२४, ३४७. | भत्तपाणदव्योमोयरिया च० २७६. मणकरण द्वि०२५८.२५९. च. ९४.. पोग्गलकरण च० ९४. भयप्पओस च० २७४. मणगुत्त प्र. २३९. पोग्गलत्थिकाय प्र.२००,च० ९९. भवकरण च० ९३. मणजोगचलणा च. ३६. पोग्गलपरिणाम द्वि०२४६, तृ. १२०, ३४६. भवणवइ प्र. २९५. मणजोगनिव्वत्ति च० ९३. पोग्गलपरियट्ट तृ. २७१, च०२३६, भवणवासि प्र०६९, द्वि० २७, २५२, तृ०३०७. मणजोगि तृ. ३०२. च०८१. २३५, २३८. भवतुल्लय मण(णो)जोय पोग्गलि तृ० १२४. भवधारणिज प्र. ९४९. मणदुप्पणिहाण पोसह तृ. २५३, २५४. भवसिद्धि द्वि० २८०. मणनिव्वत्ति च० ११. पोसहोववास तृ.८१. भवसिद्धिय प्र. १६५, द्वि० ३४, २७४. मणपजत्ति द्वि० ५७. पंकप्पभा तृ.३०५. भवसिद्धियनेरइय च०२८४४०६४, २५८, मणपज्जवणाण पंचकिरिय प्र० १९१,४०८७. मणपज्जवनाणि द्वि० २८१च०२८९. पंचत्थिकाय तृ. ३१५. भवसिद्धियविरहिय तृ० २५९. मणपज्जवनाणलद्धिव तृ. ६७. पंचपएसि द्वि० २१४, च० १०४. | भवियदव्वअसुरकुमार च०७३. मणप्पयोग द्वि०२५३. पंचमहब्वइय प्र० २०७० भवियदव्यदेव ८८, २८९. मणविणय च०२७८. पंचमुट्ठिय - तृ. १७८. भवियदवनेरइय च० ७२, ७३. मणसमन्नाहारणया च०३७ पंचयाम च०२६२. भवियदव्यपुढविकाइय मणसुप्पणिहाण पंडिय भवेयणा च. ३५. मणुस्सजातिआसीविस तृ०५६. पंडियमरण प्र०२३५, तृ. ३३२, ३३४. भाडीकम्म तृ.८३. मणुस्सप्पवेसण 'तृ. १५६. पंडियवीरियत्ता प्र. १३१. भायणपच्चइय तृ. १०२. मणुस्सभवत्थ तृ. ६४. भाव च०३९, २६०. मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाल प्र० १०५. भावकरण च० ९३. मगोदव्ववग्गणा द्वि० १८७. फलिहवडेंसय द्वि० १३१. भावट्ठाणाउय द्वि० २२२. मतिअनाण च०.३४. फासकरण च० ९४. भावतुल्लय तृ. ३५५. मणुस्सअसनिआउय प्र. १११. फासिंदिय तृ. २६०,च०३. भावदेव तृ. २८९. मरणकाल तृ०२३४. फासिंदियकरण च. ९४. भावपरमाणु च० ११२. मल्लइ फासिंदियचलणा च०३६. तृ. ३०,३१. भावबंध च० ५६. महड्डीय तृ. ३४६. फासिंदियसंवर च० ३७. भावलेस्सा महन्वय प्र० २०१. फासिंदियोवउत्त प्र. १०९, २४३. तृ. ३०२. भावविउसग्ग च०.२८२. महाकप्पसय तृ. ३८१. . फासु-एसणिज्ज तृ. ३. भावसच महाकम्म द्वि० २७०. फासुयविहार च. ७५,७६. भावादेस फोडीकम्म द्वि०२३३. महाकम्मतराय तृ० ८३. द्वि० २०५, तृ. ३९. भावियप्प च०७४. महाकाय द्वि० १२३. भावेयणा महाकाल द्वि० ११६, १२३. च०२४०. भावोमोयरिया च० २७६. महाकिरिय द्वि० २७०, च०८६. यल भार्विदिय प्र० १८१. महाकिरियतराय द्वि० २०५, तृ.३९. बलि प्र. ११,१२२,०२६. | भासय द्वि० २८१. महाघोस द्वि० ११६, १२३. बहुजण च०२७४. भासा तृ. ३२४. महाजुम्म च० ३३८. बाद(य)र द्वि०२८२, च० २७४. भासाकरण च०९४. महानिज्जर च०८६. बादरअपजत्तग च. १९८. | मासानिव्वत्ति च० ९१. महानिज्जरा द्वि० २५६, २६.. बादरपज्जत्तग च०१९८. | भासामणपजत्ति च० १५. महानंदीआवत्त द्वि० १२३. बादर(य)परिण द्वि० २२०, च०१०८. | भिक्खायरिया च० २७७. | महापज्जवसाण तृ. २५. वउस च०९९. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० श० महापडिमा महापुर महाभीम महावेद (य) महावेदतराव महासव महासवतराय महासिलाकंटय महासुक महासुविण माईच्छा मागह मणिमद माणुसुतरपव्वय माणोवउत्त मायामो मारणंतियअहियासणया मारतिय मुग्धाय मासखमण माहिंद मिच्छत किरिय सिच्छ (च्छा) विडि मिच्छा मिच्छाविडीनेरहव मिच्छाद्विनिव्यति मिच्छाम मिच्छाि मिच्छादंसणलद्धीअ [छ मायावत्तिय प्र० ९२, २३९, द्वि० २०३. रहमुसल भादोन प्र० १४४. रायपिंड रायगढ़ . च० ३७. ०२१६२५९, रासम्म मिच्छादंसणसखयेरमण मिच्छानाण मिच्छायादि मीसपरिणय मीससापरिणय मीसापरिणय भीताद्वार पृ०. प्र० २५५. द्वि० १२३. द्वि० १२३. द्वि० २५६, २७०, २६०, तृ० १८, च० ८६. द्वि० २०५, २७०, तृ० १८, ३९, च० ८६. द्वि० २०५ २०० २००६. तृ० ३९. तृ० ३०, ३१. रइयगं द्वि० १७९, च० ६९. रक्ख मुहपोत्तिभ मुहुत्त मूलगुणपच्चक्खाण मूलगुणपच्चक्खाणि प्र. २३१. द्वि० १२३ (११९). तृ० ११०. प्र० १४४. प्र. १९९. मिच्छादंसणसल प्र० १९९, तृ० ९९, च० ३४, ५८, ८१, ९९. तृ० १९, ३९, २७६, च० ४२, ८२. प्र. २४२. द्वि० २१. तृ० १६. प्र० ९२, १५१, द्वि० ३४ १०१, २८०, च० ८०. च० २७५. च० १६, १७. रतिकरपव्यय द्वि० १८६, च० १२. रयणप्पभा च० २८४. च० ९२. प्र० १५१. प्र० ९२, द्वि० २०३. तृ० ६८. च० ६४. तृ० ४१: -तृ० ४७, ४८. तृ० ३२४. मुसा द्वि० १९९. मुसावाय प्र० १६६ तृ० २७५, च० ३४, ३८, ५५, ८१, ९९. प्र० २८१. द्वि० ३२१. भगवतीसूत्रमां आवेला पारिभाषिक शब्दो च० ३४, ९९. प्र. १९९, च० ५८. प्र० १२२. च० ६. श० तृ० ८. तृ० ९. मूलपगढिबंध मुसारिह मेहुण मोह मोमिज मोहपत्तिअ मंडुफजाइअसीविस मुंद्रभाग स्वस रसकरण रसपरिचाय रुद्द यदि रुवीअजीवदव्व रामग तुम्मदाचरम्म रूक्ष रूअकंत रूअप्पभ मेस रोह बावज लोगपाल लोगंतिगविमाण लोभकसायि च० २८९ प्र० १३१. प्र० २८१. लव लवसत्तम लाढ उच्छद्र लेसणाबंध लेखा (स्था उसाकरण लोकदन्न लोगोचवारविषय लोमाहार लोय र सोयाकास सोयायच्यमाण लंतक पृ० च० ५७. च० २७५. तृ० ३०२. प्र० १२४. तृ० ५६. प्र. २०७. द्वि० २०९. द्वि० १९९. ल तृ० ३०४ द्वि० १३१ च० ९४ च० २७७ तृ० ३ तृ० ३३,३१,३२. द्वि० २९० च० ६ च० ३६० "" ३६३ " द्वि० ११६ च० २६ च० ८१. च० ५. द्वि० १३०. द्वि० १३०, २४०, ३१५, ३२७. वज्जरिसहनारायसंघयण प्र० ३३. तृ० ३०, ३१. च० २०४,२०७,२०९. च० २०१ द्वि० १२३ द्वि० १२३ द्वि० १२३ द्वि० १२३ च० २८१ " तृ० ८३ प्र० ६९, द्वि० ३२१. तृ० ३६७. तृ० ३८७. प्र० २४८, तृ० ३०, ३१. तृ० १०३ द्वि० ७,२१,१०६,१२९. द्वि० ३११. तृ० ३०२. प्र० ७२. प्र० २१५, तृ० २२८ २३१, २८२, च० २१. श० प्र० ३९२. प्र. ३०६. प्र० १०३. वइकरण जोय वइजोगि वइपोग्गलपरियह पपयोग इरोसनारायण बरोरान्नाराय व इसमाहरणया वसुप्पणिहाण वइ वरगु वजि वह वणकम्म वण्णपज्जाव वणस्सइकाइय वद्दलियामत वनकरण वयगुत्त वययोगनिव्यत्ति मनोमि वयविषय वरुण वरुणकाइय वरुणदेवकाइय यवहारपविणीय वाणमंतरी वायुकुमार वायुकुमारी प्र० ७८,९५, ० ७९, च० ४२ वारुणी च० १४ वालु प्र. ३०६. च० २७८, २८०. वसट्टमरण वाउकाय वाउकुमार वाणमंत वाणमंतर वालुयप्पभा याहारियनय विउब्विय विसग्ग विउसमणया मिसगारिह बिगलेंदिय विचित्त पृ० द्वि० २५८. द्वि० ३५१, च० ३. विचित्तपक्ख विच्छुअजाति आसीविस विजय प्र० १५१, पृ० ३०२. तृ० २७१. द्वि० २७३. तृ० १३२. प्र० १५९. च० ३७. च० ६५ तृ० ८३. प्र० २३५. च० ५८. द्वि० २०९. च० १४. प्र० २३९. च० ९३. च० ८१. च० २७८. द्वि० १०९, १२२,१२४, १३०, १९७. तृ०३२,३५. द्वि० ११७. द्वि० ० ११७. तृ० ३४. प्र. २३७. द्वि० ८७. प्र० १४२, द्वि० १२३. प्र. २९५. प्र० ७५, द्वि० १४, ११९, २२७, २४७. २५२. तृ० ३०७, च० ६९. द्वि० ११९. द्वि० ११०. च० ४४. द्वि० ११० तृ० १८९. द्वि० ११६. द्वि० २४०, तृ० ३०५. च० ६२ प्र० १८३,२७१,३३८. प्र० २०६, च० २७८, २८२. च० ३७. च० २७६. प्र० १०७. द्वि० १२३. द्वि० १२३. तृ० ५६० द्वि० ३१५. / Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. समणी वेणइया वेयणा वेयणिज समिआ सम्मत्त श. श० पृ. श. विजय-वेजयंत. च०६९. वेदणा तृ० १३. समइ प्र०७२. विजाचारण च० ११८,१९९. वेदणासमय तृ० १४. समकिरिय प्र.९२. विजुकुमार द्वि० ११०,१२३. च०४३. वेद(य)णासमुग्धाय प्र.२६१, च०४२,२५९. समचउरंससंठाण प्र० ३३. विजुकुमारी द्वि० ११.. वेमाणिय प्र० १२५, द्वि०९०, १३९, समचउरंससंठिय प्र० १५४. विणय च० २७८. २५२, २४७, २२५, समणोवासय प्र०२७६, तृ. २. विणिवट्टणया तृ. ३०७. च. ९९. प्र. २४३. विदेहपुत्त .तृ. ३१. तृ. २७६. समय द्वि०२४८. विभंग प्र. १५२. तृ० १३, १९२. समयक्खेत्त प्र.३०३. विभंगअणाणपलव प्र० ३०९. च०२८७. सम्मदिहिनेरइय च० २८४. विभंगणाणि वेयरणी द्वि. ११६. समारंभ द्वि० ७७. विभंगणाणलद्धी द्वि०१०१,१०२. वेयावच च०२७८. समाहि प्र० २४५. तृ०५९,६०,७४ च० ९९. लंब द्वि० १२३. सम्मामिच्छादिट्टि च० २८९. विभंगनाणपज्जव वेसमण द्वि०१०९, ११८, १२४, १३०. द्वि० २. विभंगनाणनिव्वत्ति च० ९२. वेसमणदेवकाइय द्वि० ११८. समिडि तृ. १९३. विभंगनाणि द्वि०२८१.. वेहाणस प्र०२३७. समुग्धाय च० ९४.. विमला तृ. १८९,३१४. वंजणोग्गह तृ०५९. समुग्घायकरण प्र०२६१. वियहछउम प्र.१८. समुच्चयबंध तृ.१०३. वियावत्त द्वि० १२३. सइंगाल समुदाण प्र०२८१. विराय द्वि० ३४, तृ०८६. सकम्म प्र.३०९. समोसढ प्र०२२४, विराहिअसंजम प्र० १०८. सकसायि तृ. १३३, २८७, च०४७. समोसरण च.३०२प्र.१८. विराहिअसंजमासंजम प्र. १०८. संकिन्न च. २७४, प्र० २९५. विवित्तसयणासणसेवणया च०३७,२७७,२७८. | सकिरिय तृ. ७. सम्मत्तकिरिय तृ० १६. विवेगारिह च०२७५. सक द्वि०१५,६५,५७, ७०, १०९. सम्मदिट्ठि प्र. ९२ द्वि० ३४, २८.. विसकम्म तृ. ३५२, ३५३, च०५, ११. च०३४,८०,९९. विसिट्ठ द्वि० १२३. . सकरप्पमा द्वि० २४०,४०३०४. सम्मादिट्ठिनिवत्ति च० ९२. विसुद्धलेस्स द्वि० ३४०. सकरा प्र. ७०. सम्मदंसंण प्र० १५१. विसुद्धलेस्सतराग प्र. ९२. सकार-पुरकार, तृ. ९८. सम्मामिच्छदिद्वि प्र. ९२. चीतिंगाल सचित्त च०६४. सम्मामिच्छदिट्ठीनिव्वत्ति च० ९२. वीमंस च०२७४.. सचित्ताचित्तमीसिय द्वि० २२५. सम्मामिच्छादिहि द्वि० २८०, च... वीयधूम सचित्ताहार तृ. ३२४. सम्मामिच्छादसण प्र. १५१. वीयरागसंजय सजोगि -प्र० १०० तृ०७१, च०४८,२६७,२८७. सम्मावादी च.६. बीयीदव्व तृ. ३५२. सज्झाम च०२७८. सलेस तृ०७१ च०४७, २६८, २८५. वीयीपंथ तृ० १९१. सर्णकुमार द्वि० २१, तृ. ३५३. सरिसभंडमत्तोवगरण प्र. १९४. वीरिय च० ९९. सणंकुमार-माहिंदग सरीरपञ्चक्खाण च० ३७. वीरियलद्धी प्र.१८३, द्वि०१०१, सत्तपएसिय तृ०२६४,च०१०६. सरीरप्पओगबंध तृ. १०२,१०४. १०२ तृ०६६. सत्तवण्णवडेंसय द्वि० ११०. सरीरबंध द्वि० १०२, १०४. वीरिय-सजोग-सहव्वया द्वि० १८८. सत्थपरिणामय सव्वद्धा च० २३८, २३९. वीरियाया तृ. २९४. सस्थानीय सबल हि० ११६. वीसइमंवीसइम प्र०२४१. सहपरिणअ द्वि० २२०. सवेद तृ. १३५. वीससापरिणत तृ०४१,४८. सधूम सवेदग च०४८, ३८७. वीससाबंध तृ. १०१,च० ६६. सन्ना च०८१. सब्बओभद्द द्वि० १३० वेउब्विय तृ. ३३२. सनाकरण च० ९३. सव्वउत्तरगुणपञ्चक्खाणी तृ.१०. वेउब्वियमीसय तृ. ३३२. सन्नानिव्वत्ति च०९२. सव्वकाम द्वि० ११९. वेव्वियसमुग्याय प्र. १८३.द्वि०३,६, सन्निगम तृ. ३८६. सव्व जस द्वि०११९. ५८,८६, च०४२. सन्निपंचिदियअपजत्तग च. १९८. सव्वट्ठसिद्ध द्वि० ३१५. वेउवियपोग्गलपरियह तृ. २७१. सन्निवाइय च० ३२,२३९. सव्वदव्व द्वि० २१६. वेउब्वियसरीरचलणा च०३७. द्वि० २८० तृ. ६५, च०४१. सव्वदुक्खप्पहीण प्र० २०८. वेणइयवाइ च०३०२. सन्नोवउत्त च०२७०. सन्धपोग्गल द्वि० २३१. वेणुदालि द्वि० १२२. सपएस द्वि० २१६,२८६. सवमूलगुणपञ्चक्खाण वेणुदेव । द्वि० १२२. सपडिक्कमण द्वि० २५० सवमूलगुणपञ्चक्खाणि वेदकरण च०९४. सपरिग्गह द्वि० २२५, २२६. सव्वप्पाहारय वेदणअहियासणया सप्पुरिस द्वि० १२३. सम्वेया च० २२० सन्नि Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ भगवतीसूत्रमा आवेला पारिभाषिक शब्दो. ससल सुद्ध सोग सुप्पभ सामाइयकड श० श. सव्वाण द्वि० ११९. सुत्तपडिणीय तृ. ९३. सोइंदिय च०३. सव्वुत्तरगुणपचक्खाणी तृ.८. च. १६. सोइंदियचलणा च०३६. सुदक्खुजागरिया तृ. २५५. सोइंदियवस? तृ० २६.. सहस्सार प्र. १.९,द्वि० ११. तृ. ३८८. सोइंदियसंवर साइयवीससाबंध च०५७. सुद्धसणिय च० २७७. च.५. सागरोवम द्वि०३२, १५३, २७६, ३२२. द्वि० १२३. सोम दि. १०९, १२२, १२४,१३०, सागारोवउत्त द्वि०२८२,तृ. १३२,३०२, सुप्पभकंत द्वि० ९२३. सोमकाइय द्वि०११०. तृ.७०, ०४८,८१,२६७, २८७. सुप्पणिहाण च०६५. सोमदेवकाइय द्वि० ११०. सागार प्र. १५१. सुभदीहाउयत्ताय द्वि० २०.. सोमा तृ. १८९ सागारोवओग प्र.२०१च०३४, ९९. सुमण द्वि० १३०, १३१. सोयविन्नाणावरण प्र. १३३. सागारियउग्गह च०६. सुमणभद्द द्वि. ११९. सोयावरण प्र.१३३. साढीकम्म सुय प्र.१३२. सोलसमंसोलसम प्र. २४१. सादीयवीससाबंध तृ.१.१. सुयअन्नाण तृ. ५९. सोवकमाउय च.१२.. साम द्वि० ११६. सुयअन्नाणनिव्वत्ति च० १२. सोहम्म द्वि० १५, ५२, तृ. ३०९, सामाइय प्र. १२८, तृ० ९. सुयअन्नाणि द्वि० २८१,४०३०२. च.४१. सुयणाणि प्र. १५७, द्वि० २८१. सोहम्मवडिंसय द्वि०५७,५९, ११०, द्वि०११५.. सामाइयचरित्तलद्विय तृ० ६९. संकम सुयनाण तृ. १३०,३०२. प्र.५५. सामाइयमाइयाइ तृ. १६५. सुयनाणपन्नव तृ० १५. संकामण प्र०५४. सामाइयसंजय च० २६१,२६२. संखवाल द्वि० १२२. सुयसहायता सामाणिअपरिसोववनय द्वि० ७०. संखेजपएसिम सुयसंपन्न तृ० ११८. द्वि० २१६,तृ. २६७. सामाणिय प्र. ३००, द्वि०५,६. संघपडिणीय दि. १२३. सामाणियसाहस्सी द्वि० ३.. संजमफल प्र. २८३. सुलभवोहि द्वि०३४. सामायारी च०२७४. संजमठाण च०.२६३. सुवग्गु द्वि. ९३०. सायावेयणिज तृ० १९. संजम सुवण्णकुमार द्वि. ११९, च०४२. प्र.६, द्वि०११३, तृ.१२९. सारंभ द्वि० ७७, २२५, २२६. संजय प्र. ७६, द्वि०१८०,२७९,०२५, सुवण्णकुमारी द्वि. ११९. सालिभद्द च०२६१. सुविणदसण च०१५. . सावज च०६. संजयासंजय प्र. १९, द्वि० २७९, तृ.१०. सुसमदूसमा द्वि. ३२३. सासय तृ. ९९, १८१. संजलणलोभ साहणणाबंध तृ० १०३. सुसमसुसमा द्वि० ३२३. संजूह तृ. ३८६. साहम्मिउग्गह सुसमा द्वि. ३२३. संजोयणादोस तृ.५. साइम्मियसुस्सूसणया च० ३७. सुस्सूसणाविणय च०२७९. संजोयणादोसविप्पमुक्क साहा(धा)रणसरीर सुहम्म प्र. १४. . च०२०४. साहिकरणि च०३. सुहम्मा द्वि० ४७,५९,७०, संठाणकरण च० ९३. सिणाय च०२४१. च०२६, ३९. संठाणतुल्लय तृ. ३५६. सिढिलबंधणबंध सुहुम द्वि. २९२, च० २७४. संठाणनिव्वत्ति च० ९२. सिद्ध . द्वि०५, च०४५, ४७. सुहुमअपज्जत्तग च० १९८. संपराइय तृ.२, ५,२३,९६० सीयपरीसह तृ.९८. सुहमपज्जत्तग च० १९८. संपराइयबंध तृ. ९४. तृ० १९१. सुहुमपरिणम दि. २२०,च०६३. संभोगपच्चक्खाण च०३७. सीलव्वय तृ. ११८,प्र०२७७, तृ०८१. सुहुमसंपराग च० २६२. संमुच्छिम सीसपहेलिया द्वि० १५३. सूर द्वि. ११०, १२३, तृ० २८०.| संमुच्छिमचउप्पयथलयर तृ.४४. सीहगइ द्वि० १२३. सूरिय द्वि० १४५, तृ• ३६३. संमोहय द्वि. ३४०. सुभ सेजायरपिंड द्वि० २०९. संलेहणा द्वि०१७,२८,५५, ५६. सुअणाणपजव प्र०३०९. सेजासंथारय तृ.१८.. तृ. १६५, च० १५, च०५३० सुक्क च०२८१. च० २११, २१३. तृ. १३१. सुक्कपक्खिय तृ.३०२,च०२८६.] सेया च० २२०. प्र० २०३, तृ७, २३, १९१, सुक्कलेस्स प्र०७८,३४,३९. सेलेसि द्वि० २६०, च० १३५. च०१६. सुक्कलेस्सा प्र० १५९. सेलेसिपडिवण्णय प्र. १९६. संवुडासंवुड च०१६. तृ.४४. सेलेसिपडिवनग द्वि० २२०. संवेग सुत्तजागरा च०१६. सोइंदियउवउत्त तृ. ३०२. संसारविउसग्ग च० २८२. सुत्तत्त तृ. २५९. सोइंदियकरण च०९३.. तृ० ३८८. द्वि०११९. संठाण सीया सेढि संवर संधुड सिंबलि Jain Education international Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृ. ३८७. कार्यदी भगवतीसूत्रमा आवेला साधु अने साध्वी प्रन्थोना नाम. परिशिष्ट २ देश, नगरी, अने पर्वतादिना नाम. श. | श० पृ. | श. भारह द्वि०५४,५८,२४, ११५. वाणारसी द्वि. १.१. कयंगला प्र० २३१. मगह वाणियग्गाम तृ. १३८, १९६, २३४. तृ० १९६. मलय विंझगिरिपाय द्वि० ५४. कासी तृ• ३८३. महातवोवतीरपभव (प्रनवण) प्र. २८९. वीतीभय तृ. ३२६. कुम्मग्गाम तृ. ३७५. माहणकुंडग्गाम तृ. १६२. वेसाली तृ. ३२. कोसंबी तृ० २५६. मिहिला तृ. १२५. वेभारपब्वय कोल्लाक (सनिवेश) द्वि. ९२. मेंढियगाम तृ. ३७१. तृ. ३९२. सरवण (सनिवेश) खत्तियकुंडग्गाम मोया द्वि०२,२३. तृ. ३६८. सावत्थी चंपा द्वि० १४६, २५३, तृ. १७९, ३२६. रायगिह दि. २३, प्र.२३१, तृ.१७९. सिद्धत्थग्गाम तामलित्ती द्वि० २४. लाढ तृ.३८५. तृ. ३७२. तुंगिया प्र०२७६. वच्छ तृ. ३८७. सिंधुसोवीर तृ. २५२, ३६७, ३९२, ३३६. तृ• ३६९. सुसुमारपुर द्वि. ५६, ५८,.. बेमेल (सनिवेश) द्वि०५५. . तृ. ३८७. हत्थिनागपुर तृ. २२१, २३६. नालंदा | गंदण | माणिभद्द परिशिष्ट ३ चैत्य अने उद्यानना नाम.. असोयवणसंग द्वि०५६. द्वि०२-२३. तृ० १२५. कोट्टय तृ.३१२, १७९. दूतिपलासय तृ२३४, १९६, १३८. मियवण तृ. ३२६.. २५९, ३६५, ३९२. पुण्णभद द्वि० १४५, तृ० १७९, तृ. ३२६. गुणसिल प्र०१३, तृ.३८,३६,८९, १९८. संखवण पुप्फवत्तिया तृ• २३४. प्र० २८.. चंदोवतरण तृ०२५४. | बहुसाल तृ. १६२. | सहसंबवण (उद्यान) .तृ. २२१, २३६. परिशिष्ट ४ अन्यतीर्थिक अने तापसो. अग्गिवेसायण (गोशालकषिष्य) तृ. ३८८. | ( कलंद गोशालकशिष्यः) वेसियायण (चालतपस्सी) तृ. ३७३. अच्छिद्द " " फणियार तृ.३८८. साण (गोशालकशिष्य) तृ• ३८८. अजुणगोमायुपुत्र " " | कालोदाइ तृ. ३१,३८,०९६. सेलवालय अन्नवालय तृ.३६ | गहभाल द्वि०५५. सेलोदाई तृ.३६, च०६६. अन्नउत्थिा प्र० २०४, द्वि० १६५, ३४३, ३४५, गोसाल ३९५. च०३३, ३४, ६४. | नम्मुदय सेवालोदाइ अयंपुल (आजीविकोपासक) तृ. ३९८. नामुदय संखवालय तृ.१६. उदय | पूरण (तापस) हालाहला (कुंभकारी गोशालश्राविका ) तृ. ३६५. सुहत्यि तृ• ३६. महावीर अग्गिभूह इंदभूह (गोयम) वायुभूह मंडियपुत्त प्र.१८. द्वि०३, १४. प्र.३३, द्वि १०५, १७१. द्वि०१४, २०. सीह परिशिष्ट ५ साधु अने साध्वी. सव्वाणुभूति तृ. ३८४. सुणक्खत्त तृ. ३८४. तृ. ३९२.. सिव (राजर्षि) तृ. २२१, २३४. उसमदत्त तृ० १६२. जमालि तृ.१६५. प्र०२३१. आणंदरक्खिय प्र. २८०. कालासवेसियपुत्त प्र. २०६. कासव प्र. २८०. रोह महिल कालियपुत्त केसिसामि पिंगलय उदायण (राजर्षि) अजदेवाणंदा अजचंदणा. अइमुत्त प्र. २८.. प्र० २८०. प्र० २५९. प्र० २१. तृ. ३२६. तृ० १६५. तृ• १६५. दि. १७६. प्र०१६.. दि. २१. द्वि० २३१. द्वि० १५. द्वि. २३१. खंदय कुरुदत्तपुत्त णारयपुत्तं तीसय नियंठिपुत्त Jain Education international Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रमा आवेला साक्षीरूपे प्रन्थोना नाम. परिशिष्ट 6 श्रावक अने श्राविका. श. इसिभद्द संख तृ. 3.. तृ.१५५. पोक्खलि. तृ०२४९. तृ० 252, 254, तृ. 253. दृ० 257. तृ. 326. तृ. 367. प्र. 13.. चेडग अमिति (उदायनपुत्र) अम्मड (परिव्राजक) सेणिय (राजा) रेवती तृ० 392. सुदसण तृ. 234. पभावइ (उदायनस्य पट्टराज्ञी) तृ. 236. उप्पला तृ. 253. मिगाव तृ. 257. जयंती तृ. 255. चिल्लणा (श्रेणिकस्य पट्टराज्ञी) तृ. 13. कूणिय सहस्साणीय सयाणीय सिवभद्द बल तृ• 291. तृ० 2360 तृ. 211. धारिणी परिशिष्ट 7 भगवतीसूत्रमा साक्षीरूपे आवेला ग्रन्थोना नाम. अणुओगदार द्वि. 183. जीवाभिगम प्र०२६५, द्वि.२०८, | रायप्पसेणइज द्वि०२३, 4.25,59. अंतकिरियापयय (प्रज्ञापना) प्र० 108. __तृ० 16, 17, 206, 261, वर्कतिपय (प्रज्ञापना) प्र. 221. ठाणपद (प्रज्ञापना) प्र. 295. आहारउद्देसअ (प्रज्ञापना) प्र. 53. , पण्णवणा वकंति च०३३२. प्र.५३, द्वि०६५,१६१, इंीयउद्देसअ (प्रज्ञापना) प्र० 267. 133, 135, 336 वेमाणिउद्देस (जीवाभिगम) प्र. 295. जंबुद्दीवपन्नत्ति तृ० 125. | परियारणापय (पनवणा). प्र० 199, / सिद्धगंडिया (जीवाभिगम) प्र० 295. Jain Education international