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________________ शतक २०.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३. [प्र०] नाणावरणिजस्स र्ण भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे धंधे पन्नत्ते, तंजहाजीवप्पयोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे। ४. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! नाणावरणिजस्स कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं, पषं जाव-अंतराइयस्स। ५. [प्र०] णाणावरणिजोदयस्स णं भंते ! कम्मस्स कहविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे बंधे पन्नत्ते एवं चेष, एवं नेरल्याण वि, एवं जाव-वेमाणियाणं, एवं जाव-अंतराइउदयस्स । ६. [प्र०] इत्थीवेदस्स गं भंते ! कइविहे बंधे पन्नत्ते? [30] गोयमा! तिविहे बंधे पन्नत्त एव चव । ७. [प्र०] असुरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेदस्स कतिविहे बंधे पन्नत्ते? [उ.] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं, नवरं जस्स इत्थिवेदो अत्थि, एवं पुरिसवेदस्स वि, एवं नपुंसगवेदस्स वि, जाव-वेमाणियाणं, नवरं जस्स जो अत्थि वेदो । ८. [प्र०] दंसणमोहणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? [उ०] एवं चेव, निरंतरं जाव-वेमाणियाणं । एवं चरित्तमोहणिजस्स वि जाव-वेमाणियाणं । एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव-कम्मगसरीरस्स, आहारसनाए जाव-परिग्गहसन्नाए, कण्हलेसाए जाव-सुक्कलेसाए, सम्मदिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्ठीए, आभिणियोहियणाणस्स जाव-केवलनाणस्स, मइअन्नाणस्स, सुयअन्नाणस्स, विभंगनाणस्स, एवं आभिणिबोहियणाणविसयस्स भंते ! काविहे बंधे पन्नत्ते, जाव-केवलनाणविसयस्स मइअन्नाणविसयस्स सुयअन्नाणविसयरस विभंगणाणविसयस्स एएसि सधेसि पदाणं तिविहे बंधे पन्नत्ते । सवे एते चंउच्चीसं दंडगा भाणियवा, नवरं जाणियचं जस्स जं अत्थि । जाव-[प्र०] वेमाणियाणं भंते ! विमंगणाण बन्ध. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ शानावरणीय कर्मनो प्रमाणे-१जीवप्रयोगबंध, २ अनंतरबंध अने ३ परंपरबंध. ४. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने ज्ञानावरणीय कर्मनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी ज्ञानावरणीयनो बंध कहेवो. ए रीते यावत्-अंतराय कर्मनो बंध पण जाणवो. ५. [प्र०] हे भगवन् ! *ज्ञानावरणीयोदय (उदयप्राप्त ज्ञानावरणीय) कर्मनो बंध केटला प्रकारनो को छे! [उ०] हे गौतम! पूर्वनी शानावरणीयोदय पेठेत्रण प्रकारनो कह्यो छे. ए प्रमाणे नैरयिको अने यावत्-वैमानिकोने पण बंध कहेवो. एम यावत्-अंतरायोदय कर्मनो बंध पण जाणवो. कर्मनो बन्ध. . ६. [प्र०] हे भगवन् ! (उदय प्राप्त ) स्त्रीवेदनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे त्रण प्रकारनो स्त्रीवेदनो बन्ध. कह्यो छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारोने (उदय प्राप्त ) स्त्रीवेदनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! पूर्वनी पेठे त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. विशेष ए के, जेने स्त्रीवेद होय तेने ते कहेवो. एम पुरुषवेद अने नपुंसकवेद संबंधे पण ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुघी कहे. विशेष ए के जेने जे वेद होय तेने ते कहेवो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! दशेनमोहनीयकर्मनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ. हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे त्रण प्रकारनो कह्यो दर्शनमोहनीय कर्मनो बन्धछे. ए प्रमाणे निरंतर यावत्-वैमानिको सुधी कहेवू. तथा ए रीते चारित्रमोहनीय संबंधे पण यावत्-वैमानिको सुघी कहे. ए क्रम वडे औदारिकशरीर, यावत्-कार्मणशरीरनो, आहार, संज्ञा, यावत्-परिग्रह संज्ञानो, कृष्णलेश्या, यावत्-शुक्ललेश्यानो, सिम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिथ्यादृष्टिनो, मतिज्ञाननो, यावत्-केवलज्ञाननो, मतिअज्ञाननो, श्रुतअज्ञाननो अने विभंगज्ञाननो, तथा ए प्रमाणे मतिज्ञानना विषयनो, यावत्-केवलज्ञानना विषयनो, मतिअज्ञानना विषयनो, श्रुतअज्ञानना विषयनो, अने विभंगज्ञानना विषयनो, ए बधानो बंध हे भगवन् ! केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] ए बधानो बंध त्रण प्रकारनो कह्यो छे, अने ते बधा संबंधे चोवीश चोवीश दंडको कहेवा. विशेष ए के, जेने जे होय ते तेने कहे. यावत्-प्र. हे भगवन् । वैमानिकोने विभंगज्ञानना विषयनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे ५*१ उदय प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्मनो बन्ध पूर्वकाळनी अपेक्षाए जाणवो, २ अथवा ज्ञानावरणीयपणे जेनो उदय छे एवा कर्मनो बन्ध समजवो, केमके कमै विपाक अने प्रदेश ए बने रूपे वेदाय छे, माटे अहिं विपाकोदयरूपे वेदवा लायक कर्मनो बन्ध प्रहण करवो, ३ अथवा शानावरण कर्मना उदयमा जे कर्म बंधाय अथवा वेदाय ते कर्मनो बन्ध जाणवो-आ त्रण विकल्पो टीकाकारे जणाव्या छे. ८पूर्वे कर्मनो आत्मानी साथे संबन्ध ते बन्ध एम कहेलं छे, पण अहिं कर्मपुद्गल के इतर पुद्गलोनो आत्मानी साथे संबन्ध ते पन्ध एम लइए तो औदारिकादि शरीर, आहारादिसंज्ञाजनक कर्म अने कृष्णादि लेश्यानो बन्ध होइ शके, पण दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान अने तेना विषयनो बन्ध केम होइ शके ! कारण के ते.बधा अपौगलिक छे, परन्तु अहिं पन्धनो अर्थ संबन्ध मात्र विवक्षित छे, तेथी सम्यग्दृष्टि इत्यादिनो जीवप्रयोगादि बन्ध घटी शके छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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