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________________ शतक १८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४९ २१. [प्र०] नेरइए णं भंते ! नेरइयभावेणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे । एवं जाव-माणिए । सिद्धे जहा जीवे । २२. [प्र०] जीवा णं-पुच्छा । [उ.] गोयमा! नो चरिमा, अचरिमा । नेरइया चरिमा वि अचरिमा वि, एवं जाववेमाणिया । सिद्धा जहा जीवा १। २३. आहारए सम्वत्थ पगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुहुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि। अणाहारओ जीवो सिद्धो य एगत्तेण वि पुहुत्तेण वि नो चरिमे, अचरिमे । सेसटाणेसु एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारो २। २४. भवसिद्धीओ जीवपदे एगत्तपुहुत्तेणं चरिमे, नो अचरिमे, सेसटाणेसु जहा आहारओ। अमवसिद्धीओ सवत्थ एगत्तपुडुत्तेणं नो चरिमे, अचरिमे । नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीय जीवा सिद्धा य एगत्तपुहुत्तेणं जहा अभवसिद्धीभो ३ । २५. सन्नी जहा आहारओ, एवं असन्नी वि। नोसनी-नोअसन्त्री जीवपदे सिद्धपदे य अचरिमे, मणुस्सपदे चरिमे एगत्तपुहुत्तेणं ४। २६. सलेस्सो जाव-सुक्कलेस्सो जहा आहारओ, नवरं जस्स जा अस्थि । अलेस्सो जहा नोसन्नी-नोअसन्नी ५। २७. सम्मदिट्टी जहा अणाहारओं, मिच्छादिट्टी जहा आहारओ, सम्मामिच्छादिट्ठी पगिदिय-विगलिंदियवजं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुहुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि ६ । - २१. [प्र०] हे भगवन् । नैरयिक नैरयिकभाववडे *चरम छे के अचरम छे ! [उ०] हे गौतम! ते कदाच चरम पण छे भने कदाच अचरम पण छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवं. सिद्धने जीवनी पेठे (सू० २०) जाणवू. २२. [प्र०] जीवो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जीवो चरम नथी पण अचरम छे. नैरयिको नैरयिकभाववडे चरम पण छे अने अचरम पण छे, ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. सिद्धो जीवोनी पेठे अचरम जाणवा. २३. आहारक सर्वत्र एकवचनवडे कदाच चरम पण होय अने कदाच अचरम पण होय, तथा बहुवचन वडे आहारक चरम पण आहारक द्वार. होय अने अचरम पण होय. अनाहारक जीव अने सिद्ध बने स्थाने एकवचन अने बहुवचन बडे चरम न होय पण अचरम होय. बाकीना नैरयिकादि स्थानोमा अनाहारक आहारक जीवनी पेठे एकवचन अने बहुवचनवडे कदाच चरम होय भने कदाच अचरम होय २. २१. भवसिद्धिक जीवपदमा एकवचन अने बहुवचनवडे चरम छे पण अचरम नथी. अने बाकीना स्थानोमा आहारकनी पेठे ३ भवसिद्धिकदार. कदाच चरम होय अने कदाच अचरम होय. अभवसिद्धिक जीव सर्वत्र एकवचन अने बहुवचनवडे चरम नथी पण अचरम छे. तथा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव अने सिद्ध ए बन्ने पदे एकवचन तथा बहुवचन वडे अभवसिद्धिकनी पेठे अचरम जाणवा. ३ २५. संज्ञी अने असंज्ञी बन्ने आहारकनी पेठे (सू०२३) कदाचित् चरम अने कदाचित् अचरम समजवा. तथा नोसंज्ञीनोअसंज्ञी ४ संशीद्वार. जीव भने सिद्ध ए बन्ने अचरम छे, अने मनुष्य पदे [ केवलीनी अपेक्षाए ] एकवचन तथा बहुवचनवडे चरम छे. ४ २६. लेश्यासहित यावत्-शुक्ललेश्यावाळो आहारकनी पेठे (सू० २३) जाणवो. विशेष ए के, जेने जे लेश्या होय ते तेने कहेवी. ५ लेश्णवार.. लेश्यारहित जीव नोसंज्ञीनोअसंज्ञीनी पेठे जाणवो. ५.. २७. "सम्यग्दृष्टि अनाहारक पेठे अने मिथ्यादृष्टि आहारकनी पेठे (सू० २३) जाणवो. वळी एकेंद्रिय तथा विकलेन्द्रिय सिवायनो दृष्टिदार. २१ * 'जे नैरयिक नरकगतिमाथी नीकळी फरी नरकमा न जा मोक्ष जशे ते नैरयिकभावनो सर्वदा अन्त फरे छ माटे चरम कहेवाय छे अने तेथी भिन्न अचरम कहेवाय छे. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक सुधी जाणवू. सिद्धत्वनो सर्वदा अन्त थतो नथी माटे ते अचरम जाणवा- टीका. २३ + आहारक बधा जीवादि पदमा चरम के अचरम जाणवा. जे पछीना समये निर्वाण पामशे ते चरम अने तेथी भिक्ष ते अचरम आहारक जाणवा. २४ 1 सिद्धिगमन बडे भव्यत्वनो अन्त थतो होवाथी भवसिद्धिक चरम होय छे. अभवसिद्धिकनो अन्त नहि थतो होवाथी ते अचरम होय छे. नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सिद्धो होय छे अने ते अभवसिद्धिकनी पेठे अचरम जाणवा. २७१ सम्यग्दृष्टि अनाहारकनी पेठे चरम तथा अचरम जाणवा. अनाहारक जीव अने सिद्ध ए बस स्थानके होय छे, तेमा जीप अचरम छ, कारण के ते सम्यग्दर्शनथी पडी अवश्य तेने प्राप्त करे छे, अने सिद्ध चरम छे, कारण के ते सम्यग्दर्शनथी पडताज नधी. सम्यग्दृष्टि नरयिकादि जे सम्यग्दर्शन फरीथी सिद्ध चरम B. कारण के ते सम्यग्दशनी पडताज नधी, सम्यग्दृष्टि नायिका दिजे सम्यग्दर्शन फरीची पामशे नहि ते चरम अने ते सिवायना बीजा अचरम कहेवाय छे. मिथ्यादृष्टि जीव आहारकनी पेठे कदाचित् चरम अने कदाचित् अचरम जाणवा. जे निर्वाण पामशे ते मिथ्यादृष्टिपणे चरम अने ते सिवायना वीजा अचरम. मिथ्यादृष्टि नारकादि जे मिथ्यात्वसहित नारकादिपणुं फरीवार पामशे नहि ते चरम अने तेथी भिन्न अचरम कहेवाय छे. मिश्रदृष्टि एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रियने होती नथी माटे मिश्रदृष्टि संवन्धे नारकादि दंडकमा एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रिय न कहेवा. तथा सम्यग्दृष्टि संबन्धे एकेन्द्रिय पण न कहेवा, कारण तेओने सिद्धान्तने मते साखादन सम्यग्दर्शन होतुं नथी. ७ भ. सू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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