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________________ शतक १८.-उद्देशक. ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५५ अजो! मागंदियपुत्ते अणगारे तुज्झे एवं आइवखति, जाव परुवेति-एवं खलु अजो! काउलेस्से पुढविकाइए जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउलेस्से आउकाइए जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! काउल्लेस्से वणस्सइकाइए वि जावअंतं करेति, संञ्चे णं एसमटे, अहं पिणं अजो! एवमाइक्खामि ४-एवं खलु अजो! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेहितो पुढविकाइएहिंतो जाव-अंतं करेति, एवं खलु अजो! नीललेस्से पुढविकाइए जाव-अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि, जह पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि, सच्चे णं एसमटे । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति समणा निग्गंधा समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव मागदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता मागंदियपुत्तं अणगारं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो २ खामेति । ..तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उढाए उटेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते०२ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-प्र०] अणगारस्स ण भंते ! भावियप्पणो सवं कम्मं वेदेमाणस्स, सच्चं कम्मं निजरेमाणस्स सवं मारं मरमाणस्स, सवं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं कम्म वेदेमाणस्स, चरिमं कम्मं निजरेमाणस्स, चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स मारणंतियं कम्मं वेदे. 'माणस्स, मारणंतियं कम्मं निजरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निजरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पन्नत्ता समणाउसो! सचं लोगं पिणं ते ओगाहित्ता णं चिटुंति ? [उ. मागंदियपुत्ता ! अणगारस्त णं भंते ! भावियप्पणो जाव-ओगाहित्ता गं चिट्ठति । ५. [प्र. छउमत्थे गं भंते! मणुस्से तेसि निजरापोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा.[उ एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव-वेमाणिया, जाव-तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति, पासंति, आहारेंति, से तेण?णं निक्खेवो भाणियचो तिन पासंति, आहारंति । ६. [प्र०] नेरइया णं भंते ! निजरापुग्गला न जाणंति न पासंति, आहारंति, एवं जाव-पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । कृष्णलेश्यावाळो पृथिवीकायिक कृष्णलेश्यावाळा पृथिवीकायिकोथी नीकळी तुरत यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे; ए प्रमाणे हे आर्यो ! नीललेग्यावाळो तथा कापोतलेश्यावाळो पृथिवीकायिक पण यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे.' ए प्रमाणे पृथिवीकायिकनी पेठे अप्कायिक तथा वनस्पतिकायिक पण यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. ए वात सत्य छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही ते श्रमण निर्गथो श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी, ज्यां माकं दिकपुत्र अनगार छे त्या आव्या, त्यां आवीने तेओए माकंदिकपुत्र अनगारने वांदी नमी ए बाबत सम्यग् रीते विनयपूर्वक वारंवार खमाव्या. ४. त्यार पछी माकंदिकपुत्र अनगार उठीने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर विराजमान छे त्यां आव्या. आवीने भगवंतने वांदी नमी निर्जरा पुनलो सर्वआ प्रमाणे कर्ष.-[प्र०]-हे भगवन् ! बधा कर्मने वेदता, बधा कर्मने निर्जरता, सर्व मरणे मरता अने सर्व शरीरने छोडता, तथा लोक व्यापी छे। चरम छेल्ला कर्मने वेदता, चरम कर्मने निर्जरता, चरम शरीरने छोडता, चरम मरणे मरता त्या मारणान्तिक कर्मने वेदता, मारणान्तिक कर्मने निर्जरता, मारणान्तिक मरणे मरता अने मारणान्तिक शरीरने छोडता भावितात्मा अन् गारना जे चरम छेल्ला निर्जराना पुद्गलो छे हे आयुष्मन् श्रमण! ते पुद्गलोने सूक्ष्म कहेवामां आव्या छे, अने हे आयुष्मन् श्रमण! ते पुद्गलो समग्र लोकने अवगाहीने रहे छे! [उ०] हा, माकंदिकपुत्र ! भावितात्मा अनगारना ते चरम निर्जरापुद्गलो यावत्-समप्र लोकने व्यापीने रहे छे.. ५. [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य ते निर्जरा पुद्गलो परस्पर जुदापणुं यावत्-नानापणुं जाणे अने जुए ! [उ०] 'जेम प्रथम छमस्य निर्जरापुद्ग*इन्द्रियोद्देशकमां कहेवामां आव्युं छे ते प्रमाणे यावत्-[ केटलाक देवो पण जाणता नर्थः अने जोता नधी ] एम वैमानिको सुधी कहेवू. लोनुं भिन्नपणु जुर १ तेमा जेओ उिपयोगयुक्त छे तेओ ते पुद्गलोने जाणे छे, जुए छे अने ग्रहण करे छे. ते कारण माटे ए समग्र निक्षेप-पाठ कहेवो. यावत्जेओ उपयोगरहित छे तेओ जाणता नथी, अने देखता नथी, पण ते पुद्गलोनो आहार-ग्रहण करे छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको संबंधे प्रश्न. [उ०] तेओ निर्जरापुद्गलोने जाणता नथी, जोता नथी, पण तेनो आहार करे छे. एम यावत्-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक सुधी जाणवू. ५ * प्रज्ञा० पद १५ उ० १५० २९२. . + जेओ विशिष्ट अवधिज्ञानादिना उपयोगयुक्त होय छे ते सूक्ष्म कार्मण पुद्गलोने जाणे छे अने जुए छे पण जेओ विशिष्ट अवधिज्ञानादिना उपयोगरहित छे ते सूक्ष्म कार्मण पुद्गलोने काइ पण जाणता के जोता नथी. ____ ओज आहार, लोमाहार अने प्रक्षेपाहार-ए त्रिविध आहारमाथी अहिं ओज आहार लेवो, कारण के कार्मण शरीरद्वारा पुद्गलोर्नु ग्रहण करवू ते ओज आहार कहेवाय छे अने ते आहार अहिं संभवे छे. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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