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३२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १७.-उद्देशक २. ध्वियं, एवं जाव-कम्मगसरीरं, एवं सोइंदियं, जाव-फासिदियं; एवं मणयोग, वयजोगं, कायजोग, जस्स जं अस्थि तं भाणियचं; एए एगत्त-पुहुत्तेणं छच्चीसं दंडगा।
. १६. [प्र०] कतिविहे गं भंते ! भावे पण्णत्ते ? [30] गोयमा! छविहे भावे पन्नत्ते, तं जहा-१ उदइए, २ उपसमिए, जाव-६ सन्निवाइए।
१७. [प्र०] से किं तं उदइए ? [उ०] उदइए भावे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-उदइए, उदयनिप्पन्ने य, एवं एएणं अभिलावणं जहा अणुओगदारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियवं, जाव-सेत्तं सन्निवाइए भावे । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ।
सत्तरसमसए पढमो उद्देसो समत्तो। जाणवू. तथा ए क्रमथी यावत्-मनुष्यो सुधी जाणवू. ए प्रमाणे वैक्रिय शरीर संबन्धे पण एक वचन अने बहुवचनने आश्रयी बे दंडको कहेवा. परन्तु जे जीवोने वैक्रिय शरीर होय ते जीवोने आश्रयी कहेवू. ए प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीर सुधी समजवू. श्रोत्रेन्द्रियथी आरंभी यावत्-स्पर्शेन्द्रिय सुधी पण एज क्रमथी जाणवू. वळी मनयोग, वचनयोग अने काययोग विषे पण ५ प्रमाणे कहे, परन्तु जेने जे योग
होय तेने ते योगसंबन्धे कहे. एम बधा मळीने एकवचन अने बहुवचनने आश्रयी छब्बीश दंडको कहेवा. आदयिकादि भावो, १६. [प्र०] हे भगवन्! भाव केटला *प्रकारना कह्या छे? [उ०] हे गौतम! भाव छ प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ औदन
यिक, २ औपशमिक, यावत्-६ सांनिपातिक.
१७. [प्र०] हे भगवन् ! औदयिक भाव केटला प्रकारे कह्यो छे. [उ०] हे गौतम ! औदयिक भाव बे प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-औदयिक अने उदयनिष्पन्न. ए प्रमाणे आ अभिलाप वडे अिनुयोगद्वारमा जेम छि नामनी वक्तव्यता कही छे ते बधी अहिं कहेवी. यावत्-ए प्रमाणे सांनिपातिक भाव सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.
सत्तरमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त.
बीओ उद्देसो। १. [प्र०] से णं भंते ! संयत-विरत-पडिहय-पञ्चक्खायपापकम्मे धम्मे ठिए, अस्संजय-अविरय-अपडिहयपश्चक्खायपावकम्मे अधम्मे ठिते, संजयासंजए धम्माधम्मे ठिते ? [उ०] हंता गोयमा! संजय-विरय० जाव-धम्माधम्मे ठिए । [] एएसि णं भंते! धम्मंसि वा, अहम्मंसि वा, धम्माधम्मंसि वा चक्किया केइ आसइत्तए वा, जाव-तुयट्टित्तए वा ? [उ.] गोयमा! णो तिण? समढे। [प्र०] से केणं खाति अट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ-जाव-धम्माधम्मे ठिते'। [उ.] गोयमा! संजय
द्वितीय उद्देशक. संयतादि धर्म, १. [प्र०] हे भगवन् ! संयत, प्राणातिपातादिथी विरतिवाळो अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कर्यु छे एवो जीव अधर्म के धर्माधर्ममा हो चारित्र धर्ममां स्थित होय, असंयत, अविरत अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कर्यु नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित होय,
तथा संयतासंयत जीव धर्माधर्ममां स्थित होय ? [उ०] हे गौतम ! हा, संयत अने विरत जीव धर्ममां स्थित होय, संयतासंयत जीव यावत्कोइ नीव धर्म, म. धर्माधर्मां स्थित होय. [प्र०] हे भगवन् | ए धर्ममा, अधर्ममां अने धर्माधर्ममा कोइ जीव बेसवाने यावत्-आळोटवाने समर्थ छे ! [उ०] धर्म के धर्माधर्ममा बेसी शक हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी [अर्थात्-ते जीवनो स्वभाव होवाथी धर्ममां, अधर्ममां के धर्माधर्ममां कोइ जीव बेसी शकतो नथी.] [प्र०] हे धर्म, अधर्म के धर्मा भगवन् ! शा कारणथी आप एम कहो छो के–'यावत्-धर्माधर्ममां स्थित होय' ! [उ०] हे गौतम ! संयत, विरत अने जेणे पापकर्मर्नु धर्ममां स्थित होय एटले | प्रत्याख्यान क्युं छे एवो जीप धर्ममां स्थित होय एटले धर्मनो आश्रय करी-स्वीकार करीने विहरे. ए प्रमाणे असंयत, अविरत अने जेणे
१६* पांच शरीर, पांच इन्द्रिय अने त्रण योगना एकत्व अने बहुत्वने आश्रयी २६ दंडको थाय छे..
१७ औदयिक भावना औदयिक अने उदयनिष्पन्न-ए बे मेद छे. आठ कर्मप्रकृतिओनो उदय ते औदयिक. उदयनिष्पनना बे प्रकार छे. जीबोदयनिष्पन्न अने अजीवोदयनिष्पन्न. कर्मना उदयथी जीवमां निष्पन्न थयेला नारक, तिर्यच इत्यादि पर्यायो जीवोदयनिष्पन्न कहेवाय छे. कर्मना उदयथी. अजीवने विषे थयेला पर्यायो, जेमके औदारिकादिशरीर तथा औदारिकादि शरीरने विषे रहेला वर्णादि ते औदारिकशरीरनाम कर्मना उदयथी पुद्गलद्रव्यरूप अजीवने विषे निष्पन्न होवाथी अजीवोदयनिष्पन्न कहेवाय छे. जुओ-अनुयोग. प० २१४.
अनुयोगद्वार सूत्रमा एक नामथी मांडी छ नाम दगेरे संबंधे कथन छे, तेमा छ नामनी वक्तव्यतामा छ भावना खरूपनुं वर्णन छे. जुओ-प. ११३-१२७.
११ अहिं धर्म, अधर्म अने धर्माधर्मपदथी अनुक्रमे चारित्र धर्म, अविरति अने देशविरति विवक्षित छे.
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