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________________ शतक ३४.-एकेन्द्रिय शतक १.-उ० १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२७ ११. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए.? [उ.] एवं जहेव रयणप्यभाए जाव-से तेणटेणं० । एवं एएणं कमेणं जाव-पजत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु । १२.० अपजत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपजत्तबायरतेउक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमएणं०-पुच्छा । [उ०] गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववजिजा। १३. [प्र०] से केणटेणं० १ [उ०] एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ उजुयायता, जाव-अद्धचक्कवाला । एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमहएणं विग्गहेणं उववजेजा, से तेणटेणं० । एवं पजत्तपसु वि बायरतेउक्काइएसु । सेसं जहा रयणप्पभाए । जे वि बायरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पजत्तगा य समयखेत्ते समोहणित्ता दोच्चाए पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइपसु चउधिहेसु, आउकाइएसु चउबिहेसु, तेउकाइएसु दुविहेसु, वाउकाइएसु चउविहेसु, वणस्सकाइएसु चउविहेसु उववजंति ते वि एवं चेव दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववाएयचा । बायरतेउकाइया अपजत्तगा य पजत्तगा य जाहे तेसु चेव उववजंति ताहे जहेव रयणप्पभाए तहेव एगसमइय-दुसमइय-तिसमइयविग्गहा भाणियवा सेसं जहेव रयणप्पभाए तहेव निरवसेसं । जहा सकरप्पभाए वत्तवया भणिया एवं जाव-अहे सत्तमाए वि भाणियवा। १४. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए • उड्डलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा? [उ०] गोयमा! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुञ्चइ-'तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा' ? [उ.] गोयमा! अपजत्तमुहुमपुढविकाइए णं अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए एगपयरंमि अणुसे ११. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, शर्कराप्रभापृथिवीना पूर्व चरमांतमां मरणसमुद्घात करीने शर्कराप्रभाना अपर्याप्त सूक्ष्म एकेपश्चिम चरमांतमां अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] जेम । और न्द्रियनो शर्कराम " माना पूर्वचरमतिथी रत्नप्रभापृथिवी संबंधे का तेम आ संबंधे यावत्-'ते कारणथी एम कहेवाय छे त्यां सुधी समजवु. ए रीते अनुक्रमे यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म पश्चिमचरमाता तेजस्कायिक सुधी जाणवू. उपपात. १२. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक, शर्कराप्रभाना पूर्व चरमान्तमां मरणसमुद्घात करी पश्चिम चरमांतमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. १३. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो? [उ०] हे गौतम ! में सात श्रेणीओ कही छे, ते आ रीते-१ ऋज्वायत भने यावत्-७ अर्धचक्रवाल. जो एकवक्र श्रेणिरूप गतिथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय अने जो द्विधावक्रश्रेणीरूप गतिथी उत्पन्न थाय तो ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ते कारणथी हे गौतम ! एम कर्दा छे. ए रीते पर्याप्त बादर तेजस्कायिक संबंधे पण जाणवू. बाकी बधु रत्नप्रभानी जेम समजबु. जे पर्याप्त अने अपर्याप्त बादर तेजस्कायिको समयक्षेत्रमा समुद्घात करी बीजी पृथिवीना पश्चिम चरमांतमां चारे प्रकारना पृथिवीकायिकोने विषे, चारे प्रकारना अप्कायिकोने विषे, बे प्रकारना तेजस्कायिकोने विषे, चारे प्रकारना वायुकायिकोने विषे अने चारे प्रकारना वनस्पतिकायिकोने विषे उत्पन्न थाय छे तेओने पण बे समयनी के त्रण . समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न कराववा. ज्यारे पर्याप्त अने अपर्याप्त बादर तेजस्कायिको तेओमाज उत्पन्न थाय त्यारे तेने जेम रत्नप्रभा संबंधे कयुं तेम एक समयनी, बे समयनी अने त्रण समयनी विग्रहगति समजवी, बाकी बधु रत्नप्रभानी पेठे जाणवू. जेम शर्कराप्रभा संबंधे वक्तव्यता कही छे तेम यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी जाणवी. १४. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी सनाडीनी बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी वीकायिकनी विग्रह गति. विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम | तेओ त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी प्रण समयनी के चार एम कहेवाय छे के तेओ त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक समयनी विग्रह गतिर्नु कारण. अधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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