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________________ शतक २०.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२१ प.प्रा नेरइया णं भंते ! किं आओवक्कमेणं उच्चदंति, परोवक्कमेणं उच्चटुंति, निरुवक्कमेणं उच्चद॒ति ? [उ०] गोयमा! नो आओवक्कमेणं उच्वइंति, नो परोवक्कमेणं उच्चटुंति, निरुवक्कमेणं उच्चसृति, एवं जाव-थणियकुमारा। पुढविकाइया जावमणुस्सा तिसु उच्चटुंति, सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति । ५. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आइवीए उववजंति, परिड्डीए उववजंति ? [उ०] गोयमा ! आइडीए उववजंति, नो परिडीए उववजंति, एवं जाव-वेमाणिया। ६. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आइवीए उच्चट्ठति, परिड्डीए उवटंति ? [उ०] गोयमा ! आइडीए उच्घटुंति, नो परिड्डीए उच्चटुंति, एवं जाव-वेमाणिया, नवरं जोइसिया वेमाणिया य चयंतीति अभिलावो। ७. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आयकम्मुणा उववजंति, परकम्मुणा उववजंति ? [उ०] गोयमा! आयकम्मुणा उववजंति, नो परकम्मुणा उववजंति । एवं जाव-वेमाणिया । एवं उच्चट्टणादंडओ वि । ८. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं आयप्पओगेणं उववजंति, परप्पओगेणं उववजंति ? [उ०] गोयमा ! आयप्पओगेणं उववजंति, नो परप्पयोगेणं उववजंति, एवं जाव-वेमाणिया, एवं उच्चट्टणादंडओ वि । ९. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं कतिसंचिया, अकतिसंचिया, अवत्तधगसंचिया ? [उ०] गोयमा ! नेरइया कतिसंचिया वि, अकतिसंचिया वि, अवत्तवगसंचिया वि।[प्र०] से केणेट्टणं जाव-अवत्तवगसंचिया वि? [उ०] गोयमा ! जेणं नेरड्या संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया कतिसंचिया, जेणं नेरइया असंखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेररया १.[प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको आत्मोपक्रमवडे उद्वर्ते-मरे छे, परोपक्रमवडे उद्वर्ते छे के निरुपक्रमवडे उद्वर्ते छे ? [उ०] नैरयिकोनी उतना आत्मोपक्रमथी परोहे गौतम ! तेओ आत्मोपक्रमवडे के परोपक्रमवडे उद्वर्तता नथी, पण निरुपक्रमवडे उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पक्रमथी के निरुपपृथिवीकायिको अने यावत्-मनुष्यो त्रणे-आत्मोपक्रम, परोपक्रम अने निरुपक्रम-बडे उद्वर्ते छे. बाकी बधा नैरयिकोनी पेठे जाणवा. क्रमथी थाय छे ? विशेष ए के ज्योतिषिको अने वैमानिको 'च्यवे छे' एम कहेवू. ५. प्र०) हे भगवन् ! नैरयिको आत्मद्धि-पोताना सामर्थ्य-वडे उपजे छे के परद्धि-बीजाना सामर्थ्य-वडे उपजे छे ! [उ०] हे गौतम! · नैरयिकोनो उत्पाद तेओ पोताना सामर्थ्यवडे उपजे छे, पण बीजाना सामर्थ्यवडे उपजता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी कहे. आत्मशक्तिपी के परनी शक्तिथीं? ६.प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको आत्मद्धि पोताना सामर्थ्य-वडे उद्धर्ते छे के अन्यना सामर्थ्यवडे उद्धर्ते छे? [उ० हे गौतम ! तेओ आत्मशक्तिवडे उद्वर्ते छे पण परनी शक्तिवडे उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. विशेष ए के ज्योतिषिक अने वैमानिको 'च्यवे छे' एवो अभिलाप-पाठ कहेवो.. ७.प्र. हे भगवन् ! शुं नैरयिको पोताना कर्म बडे उत्पन्न थाय छे के वीजाना कर्मवडे उत्पन्न थाय छे ? [उ.] हे गौतम | नैरयिकोना उत्पत्ति तेओ पोताना कर्मवडे उत्पन्न थाय छे, पण बीजाना कर्मवडे उत्पन्न थता नथी. ए रीते यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. अने ए प्रमाणे : कर्मयी? उद्वर्तनानो दंडक पण कहेवो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको आत्मप्रयोग-आत्मप्रयत्न-वडे उत्पन्न थाय छे, के परप्रयोगवडे उत्पन्न थाय छे ? (उ०] हे नैरयियोनी उत्पत्ति गौतम | तेओ आत्मप्रयोगवडे उत्पन्न थाय छे पण परप्रयोगबडे उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. तथा उद आत्मप्रयोगथी के तना दंडक पण एज प्रमाणे कहेवो. ९.प्र०] हे भगवन् ! शु नैरयिको कतिसंचित-एकसमये संख्याता उत्पन्न थएला, अकतिसंचित-एक समये असंख्याता नैरयिको कतिसंचित, उत्पन्न थएला के अवक्तव्यसंचित-एकसमये एक ज उत्पन्न थएला होय छे ? [उ०] हे गौतम! नैरयिको कतिसंचित पण छे, अकति सो अकतिसंचित के अवक्तव्यसंचित संचित पण छे अने अवक्तव्यसंचित पण छे. प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी तेओ यावत्-अवक्तव्यसंचित पण होय छे ! होय छे ? उ०] हे गौतम! जे नैरयिको नरकगतिमा एक साथे संख्याता प्रवेश करे छे ते कितिसंचित छे, वळी जे नैरयिको असंख्या-. नैरयिको कतिसचिचत छ, वळा ज नरायका असल्या.. तादि होय छे तेनुं कारण. ९-१०-११ जेओ बीजी जातिमांथी आवी एक साथे संख्याता उत्पन्न थाय छे ते कतिसंचित, असंख्याता उत्पन्न थाय छे ते अकतिसंचित अने एकज उत्पन्न थाय छे ते अवक्तव्यसंचित कहेवाय छे. तेमां बेथी मांडी शीर्षप्रहेलिका सुधी संख्यात व्यवहार थाय छे अने त्यार पछी असंख्यात व्यवहार थाय छे. तेमा नारको त्रणे प्रकारना छे, कारण के एक समये एकथी मांडी असंख्याता सुधी उत्पन्न थाय छे. पृथिवीकायिकादि पांचे दंडको अकतिसंचित छे, केमके एक समये असंख्याता उत्पन्न थाय छे. यद्यपि वनस्पतिकायिको अनन्ता उत्पन्न थाय छे, परन्तु विजातीय जीवोथी आवीने उत्पन्न थाय तेनी ज अहिं विवक्षा होवाथी तेओ पण असंख्याता ज उपजे छे. सिद्धो अकतिसंचित नथी, कारण के एक साथे एकथी मांडी संख्याता ज सिद्धत्व पामे छे. १६ भ. सू. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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