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शतक १९.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
८३ १९. [प्र०] सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच वणस्सइकाइया०-पुच्छा । [उ०] गोयमा! णो तिणद्वे समढे । अणंता चणस्सइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, एग० २ बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परि० २। सेसं जहा तेउकाइयाणं जाव-उच्चटुंति, नवरं आहारो नियम छद्दिसि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव ।
२०. प्र०] एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयाणं सुहुमाणं बादराणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं जाव-जहन्नुक्कोसियाए ओगाहणाए कयरे २ जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा सुहमनिओयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा १, सुहुमवाउक्काइयस्स अपजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा २, सुहुमतेउकाइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३, सुहुमआउकाइयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा असंख्नेजगुणा ४, सुहमपुढविकाइयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा ५, वादवाउकाइयस्स अपजत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा ६, बादरतेउक्काइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ७, बादआउकाइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ८, बादरपुढविकाइयस्स अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ९, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बादरनिओयस्स एएसिणं पजत्तगाणं एएसि णं अपज्जत्तगाणं जहनिया ओगाहणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेजगुणा १०-११, सुहुमनिगोयस्स पजत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा १२, तस्सेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १३, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १४, सुहुमवाउकाइयस्स पजत्तगस्स जहनिया
ओगाहणा असंखेजगुणा १५, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १६, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्को. सिया ओगाहणा विसेसाहिया १७, एवं सुहुमतेउक्काइयस्स वि १८-१९-२०, एवं सहुमाउकाइयस्स वि २१-२२-२३, एवं सुहुमपुढविकाइयस्स वि २४-२५-२६, एवं बादवाउकाइयस्स वि २७-२८-२९, एवं वायरतेउकाइयस्स वि ३०३१-३२, एवं बादरआउकाइयस्स वि ३३-३४-३५, एवं बादपुढविकाइयस्स वि ३६-३७-३८, सधेसि तिविहेणं गमेणं भाणियवं, बादरनिगोयस्स पजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३९, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया
१९. [प्र०) हे भगवन् ! कदाच यावत्-चार के पांच वनस्पतिकायिको भेगा थईने एक साधारण शरीर बांधे ?-इत्यादि प्रश्न. वनस्पतिकाविक. [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. पण अनंतवनस्पतिकायिक जीवो भेगा थईने एक साधारण शरीर बांधे छे, पछी आहार करे छे अने परिणमावे छे-इत्यादि बधुं अग्निकायिकोनी पेठे यावत्-'उद्वर्ते छे त्यांसुधी' कहे. विशेष ए के तेओने आहार अवश्य *छ दिशानो होय छे, वळी तेओनी जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी होय छे. बाकीनुं बधुं पूर्वनी पेठे ज जाणवू. २०. [प्र०] हे भगवन् ! सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा पृथिवीकायिको, अकायिको, अग्निकायिको, वायुकायिको अने पृथिवीकायिवादिनी
अवगाइनार्नु अपवनस्पतिकायिकोनी जे जघन्य अने उत्कृष्ट अवगाहनामां कोनी अवगाहना कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदनी जघन्य अवगाहना साथी थोडी छे १, अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिकनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे २, अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ३, अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ४, अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ५, अपर्याप्त बादर वायुकायिकनी जघन्य अवगाहना तेथी असंख्यगुण छे ६, तेथी अपर्याप्त बादर अग्निकायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यगुण छे ७, तेथी अपर्याप्त बादर अप्कायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यगुण छे ८, तेथी अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकनी जघन्य अवगाहना असंख्यगुण छे ९, तेथी पर्याप्त अने अपर्याप्त प्रत्येक शरीरवाळा बादर वनस्पतिकायिकनी अने बादर निगोदनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण अने परस्पर सरखी छे १०-११, तेथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोदनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे १२, तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १३, तेनाथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १४, तेथी पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे १५, तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १६, तेनाथी पर्याप्त सूक्ष्म वायुकायनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे १७, ए प्रमाणे वायुकायनी पेठे सूक्ष्म अग्निकाय पर्याप्तनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण, अने तेथी अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायनी उत्कृष्ट अवगाहना अने पर्याप्तनी उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरोत्तर विशेषाधिक जाणवी. १८-१९-२०, एम सूक्ष्म अप्काय २१, २२, २३, अने सूक्ष्म पृथिवीकाय संबंधे पण जाणवू. २४-२५-२६. ए प्रमाणे बादर वायुकायिक २७-२८-२९, बादर अग्निकायिक ३०-३१-३२, बादर अप्कायिक ३३-३४-३५, अने बादर पृथिवीकायिक संबंधे पण समजवु. ३६-३७-३८, ए बधाने एम त्रिविधपाठबडे कहेवू. तेथी पर्याप्त बादर निगोदनी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुण छे ३९, तेथी अपर्याप्त बादर निगोदनी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक छे ४०,
१९ * वनस्पतिकायिकोने अवश्य छ दिशाओनो आहार होय छे एम जे कहेवामां आव्यु छे तेनुं शुं तात्पर्य छे ते समजा नथी, कारणके लोकान्त निष्कुष्टमां रहेला सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोने त्रण चार के पांच दिशाओना पण आहारनो संभव छे. पण जो वादर निगोद-साधारण वनस्पतिकायिक-ने माश्रयी आ सूत्र होय तो तेने अवश्य छ दिशानोज आहार घटी शके छे, कारण के ते लोकना मध्य भागमा रहेला होवाथी तेने अवश्य छ दिशानो आहार 'होय छे. टीका.
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