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शतक २५.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२०३ खेजपएसोगाढाई-एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए, जाव-निधाधारणं छदिसि, वाघायं पडुश्च सिय तिदिसि सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसि ।
११. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाई वेउधियसरीरत्ताए गेहह ताई किं ठियाई गेण्हा, अठियाएं गेहा ! [०] एवं चेव, नवरं नियम छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरत्ताए वि ।
१२. प्र. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं तेयगसरीरत्ताए गिण्हा-पुच्छा। उ०] गोयमा! ठियाई गेण्डर, नो अठियाई गेण्डइ, सेसं जहा ओरालियसरीरस्स । कम्मगसरीरे एवं चेव । एवं जाव-भावो वि गिहा।
१३. [प्र०] जाई दवाई दघओ गेण्हा ताई कि एगपएसियाई गेण्हर, दुपएसियाई गेहराउ.] पर्व जहा भासापदे, जाव-'आणुपुष्विं गेण्हर, नो अणाणुपुधिं गेण्हह ।।
१४. [प्र०] ताई भंते ! कतिदिसि गेण्हइ ? [उ०] गोयमा ! निवाघाएणं०, जहा ओरालियस्स ।
१५. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाइं सोइंदियत्ताए गेण्हइ०१ [उ०] जहा वेडषियसरीरं, एवं जाव-जिभिदियत्ताए, फासिदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं, मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं । नवरं नियम छहिसिं, एवं वाजोगत्ताए वि, कायजोगत्ताए वि जहा ओरालियसरीरस्स ।
१६. [प्र०] जीवे णं भंते ! जाई दवाइं आणापाणुत्ताए गेहह जहेव ओरालियसरीरत्ताए, जाव-सिय पंचदिसि । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'! [त्ति] केइ चउबीसदंडएणं एयाणि पदाणि भन्नंति-'जस्स जं अत्थि'
पणवीसइमे सए वीओ उद्देसो समत्तो। ए प्रमाणे *प्रज्ञापनासूत्रना प्रथम आहारोद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'प्रतिबंध सिवाय छए दिशाओमांथी- अने प्रतिबंध होय तो कदाच त्रण दिशामाथी, कदाच चार दिशामाथी अने कदाच पांच दिशामांथी आवेला पुद्गलोने ग्रहण करें'-त्या सुधी कहे.
११. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे पुद्गल द्रव्योने वैक्रियशरीरपणे ग्रहण करे ते स्थित द्रव्यो होय छे के अस्थित द्रव्यो होय छे! [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के वैक्रियशरीरपणे जे द्रव्योने ग्रहण करे छे ते अवश्य छिए दिशामांथी आवेला होय छे. ए प्रमाणे आहारकशरीर संबंधे पण जाणवू.
१२. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे द्रव्योने तैजसशरीरपणे ग्रहण करे छे, ते स्थित द्रव्यो होय तो ग्रहण करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | ते द्रव्यो स्थित होय तो ग्रहण करे छे, पण अस्थित होय तो ग्रहण करतो नथी. बाकी बधुं औदारिक शरीरनी पेठे जाणवु. तथा कार्मण शरीर संबंधे पण एमज समजवू, ए प्रमाणे यावत्-'भावथी पण ग्रहण करे छे' त्यां सुधी कहे.
१३. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यथी जे द्रव्योने ग्रहण करे छे, ते द्रव्यो शुं (द्रव्यथी ) एक प्रदेशवाळा ग्रहण करे, बे प्रदेशवाळा ग्रहण करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] ए प्रमाणे भाषापदमां कह्या प्रमाणे यावत्-क्रमपूर्वक ग्रहण करे छे, पण क्रम सिवाय ग्रहण करतो नथी' त्यां सुधी जाणवू.
____१४. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटली दिशामांथी आवेला पुद्गलोने ग्रहण करे छे ! [उ०] हे गौतम ! प्रतिबंध सिवाय-[ छए दिशाथी आवेला स्कन्धो ग्रहण करे-इत्यादि ] औदारिक शरीरनी पेठे (स०८) जाणवं.
१५. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव जे द्रव्योने श्रोत्रंद्रियपणे ग्रहण करे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! वैक्रिय शरीरनी पेठे [सू०९] यावत्-जिहेंद्रिय सुधी जाणवू, अने स्पर्शेद्रिय संबंधे औदारिक शरीरनी पेठे समजवू. मनोयोग संबंधे कार्मण शरीरनी पेठे जाणवू. पण विशेष एके अवश्य छए दिशामांथी आवेलां पुद्गलो ग्रहण करे छे. ए प्रमाणे वचनयोग संबंधे पण जाणवू. काययोग संबंधे औदारिक शरीरनी पेठे समजवू.
१६. [प्र०] हे भगवन् ! जीव जे द्रव्योने श्वासोच्छासपणे ग्रहण करे छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] औदारिक शरीरनी पेठे जाणवू, यावत्-कदाच त्रण दिशा, चार दिशा, के पांच दिशामाथी आवेलां पुद्गलो ग्रहण करे छे. कोई आचार्यो 'जेने जे होय तेने ते कहेवू'ए पदोने चोवीस दंडके कहे छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.
पचीशमा शतकमा द्वितीय उद्देशक समाप्त.
१.* प्रज्ञा. पद [ ]
११+ 'वैक्रियशरीरप्रायोग्य द्रव्यो छए दिशामाथी आवेला ग्रहण करे छे'-ते कहेवानो एवो अमिप्राय छे के उपयोगपूर्वक वैक्रिय शरीर करनार पंचेन्द्रिय ज होय छे भने ते त्रसनादीना मध्यभागमा होवाथी तेने अवश्य छ दिशाना आहारमो संभव छ. यद्यपि वायुकायिकने वैक्रिय शरीर होवाथी तेनी अपेक्षाए वैक्रिय शरीरने आश्रयी लोकान्त निष्कुटने विषे पांच दिशादिना आहारनो संभव छे, परन्तु तेओ उपयोगपूर्वक वैक्रिय शरीर करता नथी, तेमज तेने सातिशय वैक्रिय शरीर नथी, तेथी तेनी विवक्षा कर्या सिवाय कधुं छे.
१३ यावत्-अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध प्रहण करे ! हे गौतम ! एक प्रदेशिक, यावत्-असंख्य प्रदेशिक स्कन्धो न प्रहण करे, पण अनन्त प्रदेशिक स्कन्धो ग्रहण करे.-जुओ प्रज्ञा पद १५० २६१-१.
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