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शतक १६.-उद्देशक ८.
भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ७.[H०] परमाणुपोग्गले णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, च्छमिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिलं जाव-गच्छद. उत्तरिल्लाओ दाहिणिलं जाव-गच्छति, उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेटिलं चरिमंतं एवं जाव-गच्छति, हेछिल्लाओ चरिमंताओ उवरिलं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? [30] हंता गोयमा! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरच्छिमिल्लं तं चेव जाव-उवरिलं चरिमंतं गच्छति।
८. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वा बाहुं वा उरुं वा आउट्टावेमाणे वा पसारेमाणे वा कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे वासं वासति वासं नो वासतीति, हत्थं वा जाव-उरुं वा आउट्ठावेति वा पसारेति वा, तावं च णं पुरिसे काइयाए जाव-पंचहिं किरियाहिं पुढे । .
९. [प्र०] देवे णं भंते ! महिदिए जाव-महेसक्खे लोगंते ठिच्या पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव-उरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा ? [उ०] णो तिणढे समढे [प्र०] । से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चइ-'देवे णं महिड्डीए जाव-लोगते ठिच्चा णो पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव-पसारेत्तए वा'? [उ०] जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिजइ, अलोए णं नेवत्थि जीवा, नेवत्थि पोग्गला से तेणट्टेणं जाव-पसारेत्तए वा । 'सेवं भंते! सेवं भंते'1 त्ति ।
सोलसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो। ७. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल एक समयमा लोकना पूर्व चरमांतथी-छेडाथी पश्चिम चरमांतमा, पश्चिम चरमांतथी पूर्व परमाणुनी गति. चरमांतमा दक्षिण चरमांतथी उत्तर चरमांतमा, उत्तर चरमांतथी दक्षिण चरमांतमां; उपरना चरमांतथी नीचेना चरमांतमां, अने नीचेना चरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय ? [उ०] हे गौतम! हा, परमाणु पुद्गल एक समये लोकना पूर्व चरमान्तथी पश्चिम चरमांतमा, यावत्नीचेना चरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय. ८. [प्र०] हे भगवन् ! 'वरसाद वरसे छे के नथी वरसतो' ए [जाणवाने ] माटे कोई पुरुष पोतानो हाथ, पग, बाहु, के उरु ।
कायिकी आदि संकोचे के पसारे तो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! 'वरसाद वरसे छे के नथी वरसतो' ए जाणवाने माटे जे पुरुष क्रिया. पोतानो हाथ, यावत्-उरु संकोचे के पसारे ते पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे.
९. प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव लोकांतमां रहीने अलोकमा पोताना हाथने, यावत्-उरुने देव भलोकमा संकोचवा के पसारवा समर्थ छ। [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के ।
समर्थ है। मोटी ऋद्धिवाळो देव लोकान्तमा रहीने अलोकमां पोताना हाथने, यावत्-उरुने पसारवा समर्थ नथी' [उ०] हे गौतम ! *जीवोने [ अनुगत एवा ] आहारोपचित, शरीरोपचित अने कलेवरोपचित पुद्गलो होय छे, तथा पुद्गलोने आश्रयीनेज जीवोनो अने अजीवोनो [ पुद्गलोनो] गतिपर्याय कहेवाय छे. अलोकमां तो जीवो नथी, तेम पुद्गलो पण नथी माटे ते हेतुथी पूर्वोक्त देव यावत्-पसारवा समर्थ नथी. ह भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'.
सोळमा शतकमां अष्टम उद्देशक समाप्त.
१-२
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भांगा जाणवा अने द्वीन्द्रियना बब्बे भांगा जाणवा. अवेयक तथा अनुत्तर विमानमां देवोनु गमनागमन नहि होवाथी पंचेन्द्रियमां पण बब्बे भांगा थाय छे. यद्यपि त्रीजी नरकपृथिवी सुधी देवोर्नु गमनागमन होवाथी वालुकाप्रभाना उपरना चरमान्त सुधी देशने आश्रयी पंचेन्द्रियना त्रण त्रण भांगानो संभव छ, भने त्यांथी आगळनी नरकपृथिवीने विषे देवोनुं गमनागमन नहि होवाथी पंचेन्द्रियना बब्बे भांगा थाय छे, पण अहिं शर्कराप्रभानी पेठे साते नरकपृथिवी सुधी पंचेन्द्रियना त्रण भांगा कह्या छे ते विचारणीय छे.-टीका. ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला)ना पूर्वादि चारे दिशाओना चरमान्तने आश्रयी जीवदेश अने जीवप्रदेशोना भांगाओर्नु यन्त्र.
एक के अनेक जीवोना एक के भनेक देशादि. एकेन्द्रिय. बेइन्द्रिय.. तेइन्द्रिय. चउरिन्द्रिय. पञ्चेन्द्रिय. अनिन्द्रिय. कुल भांगा २-२
१-१ १-१
१-१ देश. १-२
१-२ १-२ २-२ २-२ २-२
२-२
२-२ १-२
. १-२ २-२
२-२ महिं पूर्ववत् देशने आश्रयी असंयोगी एक अने तेनी साथे बे इन्द्रियादिनो योग करता द्विकसंयोगी चौद भांगा तथा प्रदेशने आश्रयी असंयोगी एक भने द्विकसंयोगी दश भांगा जाणवा.
* जीवोनी साथे रहेला पुद्गलो आहाररूपे, शरीररूपे, कलेवररूपे तथा श्वासोच्छ्रासादिरूपे उपचित थयेला होय छे. अर्थात्-पुरलो हमेशां जीवानुगामी खभाववाळा होय छे, जे क्षेत्रमा जीवो छे त्यांज पुद्गलोनी गति होय छे, तेमज पुद्गलोने आश्रयी जीबोनो अने पुदलोनो गतिधर्म होय छे. तात्पर्य ए छे के जे क्षेत्रमा पुगलो छे तेज क्षेत्रमा जीवोनी भने दलोनी गति थाय छे, धर्मास्तिकायना अभावथी अलोकर्मा जीव भने पुद्गलो होता नथी माटे त्यां जीव भने पुदलोनी गति पण नथी.-टीका.
४ भ० सू०
प्रदेश. १
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२- २
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२
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