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शतक १६.-उद्देशक ९.
श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
नवमो उद्देसो.
११.. [प्र०] कहिनं भंते ! बलिस्स वहरोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पवयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेजे जहेव चमरस्स जाव-यायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स वइ. रोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो रुयर्गिदे नाम उप्पायपधए पन्नत्ते । सत्तरस एकवीसे जोयणसए-एवं पमाणं जहेव तिगिच्छिकूडस्स । पासायव.सगस्स वि तं चेव पमाणं, सीहासणं सपरिवार बलिस्स परियारेणं, अट्ठो तहेव, नवरं रुयगिदप्पभाई ३, सेसं तं चेव, जाव-बलिचंचाए रायहाणीए अनसिं च जाव-रुयगिंदस्स णं उप्पायपवयस्स उत्तरेणं छक्कोडिसए तहेव, जाव-चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता पत्थ णं बलिस्स वइरोयणिदस्स वहरोयणरन्नो बलिचंचा नाम रायहाणी पन्नत्ता। एग जोयणसयसहस्सं पमाणं, तहेव जाव-बलिपेढस्स उववाओ, जाव-आयरक्खा सम्वं तहेव निरवसेसं, नवरं सातिरेगे सागरोअमं ठिती पन्नत्ता, सेसं तं चेव जाव-बली वररोयर्णिदे बली० २ । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! जाव-विहरति ।
सोलसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो ।
नवम उद्देशक, .१ [प्र०] हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र अने वैरोचन राजा एवा बलिनी सुधर्मा सभा क्या कहेली (आवेली) छे ! [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मंदर पर्वतनी उत्तरे तिरछं असंखेय [द्वीप-समुद्रो ओळंगीने]-इत्यादि जेम *चमरनी हकीकतमा कयुं छे तेम अरुणवर द्वीपनी बाह्यवेदिकाथी अरुणवर समुद्रमां बेंतालीश हजार योजन अवगाह्या पछी वैरोचनेन्द्र अने वैरोचनराजा एवा बलिनो रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत कह्यो छे. ते उत्पात पर्वत १७२१ योजनन उंचो छे. बाकीनुं बधुं तेनुं प्रमाण तिगिच्छिकूट पर्वतनी पेठे जाणवू
| प्रासादावतंसकनु पण प्रमाण तेज प्रमाणे जाणवू, तथा बलिना परिवार साथे सपरिवार सिंहासन पण ते प्रमाणे कहेg. रुचकेन्द्र नामनो अर्थ पण ते प्रमाणे कहेवो. विशेष ए के अहिं रुचकेन्द्र रत्नविशेष] नी प्रभावाळी उत्पलादि जाणवां. बाकी बधं तेज प्रमाणे यावस्-ते बलिचंचा राजधानी तथा अन्योन [आधिपत्य करतो विहरे छे. त्यां सुधी कहे. ते रुचकेन्द्र उत्पात पर्वतनी उत्तरे छ सो [पंचावन क्रोड, पांत्रीश लाख, पचास हजार योजन अरुणोदय समुद्रमा तिरछु जइने नीचे रत्नप्रभा पृथिवीमा ] इत्यादि पूर्ववत् यावत्-चालीस हजार योजन गया पछी त्यां वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजा एवा बलिनी 'बलिचंचा' नामनी राजधानी कही (आवेली) छे. ते राजधानीनो विष्कंभ-- विस्तार एक लाख योजन छे. बाकी- बधुं प्रमाण पूर्व प्रमाणे जाणवं, अने ते बावत्-बलिपीठ सुधी समजवू. तथा उपपात, यावत्-आत्म रक्षको-ए बधु पूर्ववत् समजवं. विशेष ए के वैरोचनेन्द्र वैरोचन राजा एवा बलिनी स्थिति सागरोपम करतां कंइंक अधिक कही छे. अने बाकी बधं ते संबंधे पूर्व प्रमाणेज जाणवू. यावत्-'वैरोचनेन्द्र बलि छे, वैरोचनेन्द्र बलि छे' त्या सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.
सोळमा शतकमां नवम उद्देशक समाप्त.
१* भगा खं० १ ० २ उ०८० २९७-२९८.
जिम बीजा शतकचा आटा उद्देशका चमरेन्द्रनी सुधर्मा सभासंबंधे हकीकत कही छे तेम पलि संबंधे पण कहेवी. त्या जेम तिगिच्छिकूटनामे उत्पात पर्वतर्नु प्रमाण कयुं छे ते प्रमाणे अहिं रुचकेन्द्र उत्पात पर्वतर्नु प्रमाण जाणवं. तिगिच्छिकूटना उपर रहेला प्रासादावतंसकर्नु जे प्रमाण कयुं छे ते प्रमाणे इचकेन्द्रनामे उत्पात पर्वत उपर रहेला प्रासादचं प्रमाण पण जाणवू. हवे ते. प्रासादावतंसकना मध्यभागे रहेलं बलिर्नु सिंहासन तेना परिवारना सिंहासनो सहित चमरेन्द्रनी पेठे जाणवू. तेमा मात्र विशेष ए छे के बलिना सामानिक देवोना आसनो साठ हजार छ भने भात्मरक्षक देवोना आसनो तेथी चार गुणा छे. जेम तिगिच्छिकूट नामनो अन्वर्थ कहेलो छे, तेम अहिं रुचकेन्द्रनो पण जाणवो. त्यां विनिच्छिकूटमां तिगिच्छिरमनी प्रभावाळो उत्पलादि होय छे माटे ते तिगिच्छिकूट कहेवाय छे, तेम अहिं रुचकेन्द्ररत्ननी प्रभावाळा उत्सलादि होय छे माटे रुचकेन्द्रकूट कहेवाय छे. नगरीनुं प्रमाण कह्या पछी प्राकार, तेना द्वार, उपकारिकालयन, द्वारना उपरतुं गृह, प्रासादावतंसक, सुधर्मसभा, चैत्यभवन, उपपातसभा, हृद, अभिषेकसभा, आलंकारिकसभा अने व्यवसायसभा वगेरेनुं खरूप अने प्रमाण पलिपीठना वर्णन सुधी कहे.-टीका.
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