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शतक २५.-उद्देशक २. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२०१ खिस्स वयजोगस्स-एएसिणं सत्तण्ह वि तुल्ले जहन्नए जोए असंखेजगुणे १३-१९, आहारगसरीरस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे २०, ओरालियसरीरस्स, वेउधियसरीरस्स, चउस्विहस्स य मणजोगस्स, चउधिहस्स य वइजोगस्स-एएसि गं दसह वि तुल्ले उकोसए जोए असंखेजगुणे २१-३० । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ।
पणवीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो। १२, तेथी त्रण प्रकारना मनोयोग अने चार प्रकारना वचनयोग-ए सातनो जघन्य योग असंख्यातगुण अने परस्पर तुल्य होय छे १३-१९, तेथी आहारक शरीरनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण होय छे २०, तेथी औदारिक शरीर, वैक्रियशरीर, चार प्रकारना मनोयोग अने चार प्रकारना वचनयोग-ए दसनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण अने परस्पर तुल्य होय छे २१-३०. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ.।
पचीशमा शतकमा प्रथम उद्देशक समाप्त.
बीओ उद्देसो। १. [प्र०] कतिविहा गं भंते ! दधा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा दधा पन्नता, तंजहा-जीवदधा य अजीवदवा य।
___२. [प्र०] अजीवदया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूविअजीवदधा य अरूविमजीवदधा य । एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपजवा, जाव-से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुञ्चइ-'ते णं नो संस्त्रेजा, नो असंखेजा, अणंता'।
३. [प्र०] जीवदया णं भंते ! किं संखेजा, असंखेजा, अणंता ? [उ०] गोयमा ! नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता । [प्र०] केणटेणं भंते । एवं वुच्चइ-'जीवदया णं नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता'? [उ०] गोयमा! असंखेजा नेरइया, जाप-असंखेजा वाउकाइया, अणंता वणस्सइकाइया, असंखेज्जा बेदिया, एवं जाव-वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से तेणटेणं नाव-'अणंता'।
४.प्र०] जीवदघाणं भंते ! अजीवदवा परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, अजीवदधाणं जीवदधा परिभोगत्ताए हवमागछंति ? [उ०] गोयमा! जीवदधाणं अजीवचा परिभोगत्ताए हन्धमागच्छंति, नो अजीवदवाणं जीवदया परिभोगत्ताए हवमागच्छंति । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव-'हत्वमागच्छंति' ? [उ०] गोयमा! जीवदया णं अजीवदचे परियादि
द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यो केटलां प्रकारनां कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! द्रव्यो बे प्रकारनां कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-जीवद्रव्य द्रव्यना प्रकार. अने अजीवद्रव्य. २. प्रि०] हे भगवन् ! अजीवद्रव्यो केटलां प्रकारना कह्यां छे! [उ०] हे गौतम | ते बे प्रकारना कह्यां छे. ते आ प्रमाणे- अजीव द्रव्योना
प्रकार. रूपी अजीवद्रव्यो अने अरूपी अजीवद्रव्यो, ए प्रमाणे ए सूत्रपाठवडे जेम [*प्रज्ञापना सूत्रना विशेष नामना पांचमा] पदमां अजीवपर्यवो संबन्धे का छे तेम अहिं अजीव द्रव्यसंबंधे यावत्- हे गौतम! ते कारणथी एम का छे के, ते [अजीव द्रव्य ] संख्याता नथी, असंख्याता नथी, पण अनंत छे' त्यां सुधी कहे. ३. प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवद्रव्यो संख्याता छे, असंख्याता छे के अनंत छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवो संख्याता नथी, जीवद्रव्यनी संख्या.
जीवद्रव्यो अनंत असंख्याता नथी, पण अनंत छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के 'जीवद्रव्यो संख्याता नथी, असंख्याता नथी, पण या अनंत छे' ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिको असंख्य छे, यावत्-वायुकायिक असंख्य छे, वनस्पतिकायिको अनंत छे, बेइंद्रियो अने र प्रमाणे यावत्-वैमानिको असंख्याता छे, तथा सिद्धो अनंत छे. माटे ते हेतुथी जीवो यावत्-अनंत छे. १. [प्र०] हे भगवन् ! अजीवद्रव्यो जीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवे के जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवे! अजीवद्रव्योनो
परिभोग. [उ०] हे गौतम ! अजीवद्रव्यो जीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवे पण जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमा तुरत आवतां नथी [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के यावत्-'जीवद्रव्यो अजीवद्रव्योना परिभोगमां यावत्-तुरत आवता नथी' ! [उ०] हे गौतम !
३* जुओ-प्रज्ञा० पद ५५० १९६.
+ जीवद्रव्यो सचेतन होवाथी अजीवद्रव्योने ग्रहण करी तेनो शरीरादिरूपे परिभोग करे छे, माटे ते परिभोक्का छे, अने अजीवद्रव्यो अचेतन होवाथी प्रण योग्य छे माटे ते भोग्य छे.
२६ म. सू.
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