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शसफ २१.-वर्ग ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
१३१ पीर-भुस-परंड-कुरुकुंद-करकर-सुंठ-विमंगु-महुरयण-थुरग-सिप्पिय-सुंकलितणाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए पकमंति० । [उ०] एवं एत्य वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो।
एगवीसइमे सए छट्ठो वग्गो समत्तो। रोहितक, समु, अ(स)वखीर, भुस, एरंड, कुरुकुंद, करकर, सुंठ, विभंग, मधुरयण (मधुवयण), थुरग, शिल्पिक अने संकलितॄण-ए बधाना मळ तरीके जे जीवो उपजे छे, तेओ क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] ए प्रमाणे समग्र वंशवर्गनी पेठे मूळ्यदिक दश उद्देशको कहेवा.
एकवीशमा शतकमा षष्ठ वर्ग समाप्त.
सत्तमो वग्गो १. [प्र०] मह भंते! अमरुह-वायण-हरितग-तंदुलेजग-तण-वत्थुल-पोरंग-मजारयाई-विल्लि-पालक-गपिप्प लिय-दधि-सोत्थिय-सायमंडुकि-मूलग-सरिसव-अंबिलसाग-जियंतगाणं एएसि णं जे जीवा मूल०१ [उ०] एवं एत्थ घि दस उद्देसगा जहेष पंसपग्गो।
एगवीसइमे सए सत्तमो वग्गो समत्तो।
सप्तम वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! अभ्ररुह, वायण, हरितक, तांदळजो, तृण, वित्थुल, पोरक, मार्जारक, बिल्लि( चिल्लि), पालक्क, दग- अनवशादि. पिप्पली, दन्वि-दी, स्वस्तिक, शाकमंडुकी, मूलक, सरसव, अंबिलशाक, जियंतग, ए बधाना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्यांची आवीने उपजे छे! [उ०] पूर्वोक्त वंशवगनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको कहेवा.
एकवीशमा शतकमां सप्तम वर्ग समाप्त.
___ अट्ठमो वग्गो १. [प्र०] मह मंते ! तुलसी-कण्ह-दराल-फणेजा-अंजा-चूयणा-चोरा-जीरा-दमणा-मुख्या-दीवर-सयपुप्फाणं पएसि णं जे जीवा मूलसाए वशमंति०१ [उ०] पत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा वंसाणं । एवं एएस अट्ठसु बग्गेसु असीति उद्देसगा भवंति।
एगवीसइमे सए अट्टमो वग्गो समत्तो। एकवीसतिमं सयं समत्तं.
अष्टम वर्ग. १. [प्र०] हे भगवन् ! तुलसी, कृष्ण, दराल, फणेज्जा, अज्जा, चूतणा, चोरा, जीरा, दमणा, मरुया, इंदीवर अने शतपुष्प-ए तुलसी वगेरे हरित बधाना मूळपणे जे जीवो उपजे छे ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ! [उ०] वंशवर्गनी पेठे अहिं पण मूळादिक दश उद्देशको . . कहेवा. ए प्रमाणे ए बधा मळीने आठ वर्गना एंशी उद्देशको जाणवा. ( २१-८)
एकवीशमा शतकमां अष्टम वर्ग समाप्त.
एकवीशमुं शतक समाप्त.
१.कुन-क। महुवयण-ग। ३ चायण-क। ४ चोरग-ग-घ। ५ वल्लिपाइ-क, चिल्लियाल-। भूणा-क; भूयणा-ङ ।
मजो(ब्भ )रुह वोडाणे हरितग तह तदुलेज तणे य वत्थल पोरग मजारयाइ बिल्ली य पालका ॥ ३ ॥ दगपिप्पली य दवी सोत्तिय साए तहेव मंडुकी।
मूलग सरिसव अंबिलसाए य जियंतए चेव ॥३८॥ जुओ प्रज्ञा० पद १.३३. 1 वृक्ष उपर अमुक प्रकारनी वनस्पति थाय छे तेने अभ्ररुह कहे छे.
तुलस कण्ह उराले फणिज्जए अजए य भूयणए। वारग दमणग मखस्यग सतपुष्फींदीवरे य तहा ॥३९॥ जे यावने तहष्पगारा । सेत्तं हरिया । जुभो प्रज्ञा. पद १५०३३.
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