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________________ २१५ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६६.०] पएसिणं भंते जीवाणं, पोग्गलाणं, जाव-सवपजवाण य कयरे कयरे जाव-बहुवत्तचयाए । ६७. [प्र०] एएसिणं भंते ! जीवाणं, आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं-१ [10] जहा बहुबत्तखयाए जावमाउयस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया । 'सेवं भंते ! सेवं मंते ति।। . पणवीसइमे सए तईओ उद्देसो समचो। ६६. [प्र०] है भगवन् ! ए जीव अने पुद्गल यावत्-सर्व पर्यायोमा कया कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे-इत्यादि-उ०] यावत् जीव, पुद्गलोना सर्व पर्यायोतुं *बहुवक्तव्यतामां कह्या प्रमाणे अल्पबहुत्व कहे. मरुपबहुत्व. ६७. [प्र०] हे भगवन् ! ए आयुष कर्मना बंधक अने अबंधक इत्यादि जीवोमा कया जीवो कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे! आयुषकर्मवन्धत [उ०] बहुवक्तव्यतामा कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत्--आयुष कर्मना अबंधक जीवो विशेषाधिक छे. 'हे भगवन् । ते एमज के, भवन्धक इत्यादि हे भगवन् ! ते एमज छे.' पचवीशमा शतकमां तृतीय उद्देशक समाप्त. चउत्थो उद्देसो। १.म०] कति णं भंते। जुम्मा पनता? [उ०] गोयमा! चत्तारि जुम्मा पन्नता, तं जहा-काजुम्मे, जावकलिओगे। [H०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'चत्तारि जुम्मा, पन्नत्ता-कडजुम्मे जाव-कलिओगे? [उ०] एवं जहा अट्ठारसमसते चउत्थे उद्देसप तहेव जाव-से तेणटेणं गोयमा! एवं वुखह । २. [प्र.] नेरइयाणं भंते ! कति जुम्मा पन्नत्ता ! [उ०] गोयमा! चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा-कङजुम्मे, जावकलिओए । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चइ-'नेरहयाणं चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा-कडजुम्मे ? [७०] भट्ठो तहेष । एवं जाव-वाउकाइयाणं। ३. [प्र०] वणस्सइकाइयाणं भंते !-पुच्छा । [उ०] गोयमा! वणस्सइकाइया सिय कडजुम्मा, सिय तेयोया, सिप चतुर्थ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् । केटला युग्मो-राशिओ कह्यां छे! [उ०] हे गौतम ! चार युग्मो का छे, ते आ प्रमाणे-कृतयुग्म युग्गना प्रकार. अने यावत्-कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छे के 'चार युग्मो कयां छे-कृतयुग्म, यावत्-कल्योज'! [30] अढारमा शतकना चोथा उद्देशकमा कह्या प्रमाणे अहिं जाणवू, यावत्-'ते कारणथी हे गौतम | ए प्रमाणे कयुं छे.' २. [प्र०] हे भगवन् । नैरयिकोने विषे केटला युग्मो कह्यां छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने विषे चार युग्मो कह्या छे, ते आ रीते- नैरथिकोमा केटला कृतयुग्म, अने यावत्-कल्योज. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के 'नैरयिकोने विषे चार युग्मो छे, ते आ प्रमाणे-कृतयुग्म'-इत्यादि पूर्वोक्त अर्थ कहेवो, ए प्रमाणे यावत्-वायुकायिक सुधी जाणवू. ३. [प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिकोमा केटला युग्मो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम! वनस्पतिकायिको कदाचित् कृतयुग्म होय, वनस्पतिकायिका कृतयुग्मादिनुं कदाचित् त्र्योज होय, कदाचित् द्वापरयुग्म होय, अने कदाचित् कल्योज होय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'वनस्पतिकायिको यावत्-कल्योजरूप होय ! [उ०] हे गौतम ! उपपातनी अपेक्षाए ए प्रमाणे कर्तुं छे, ते हेतुथी यावत्-पूर्वोक्त रूपे वनस्पति अवतरण. ६६ *जीव, पुल, अद्धासमय, सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेशो भने सर्व पर्यायोना अल्पबहुत्व संबन्धे प्रश्न छ, तेनो उत्तर आ प्रमाणे छे-सर्व करता थोडा जीवो छ, तेथी पुद्गल अनन्तगुण छे, तेथी अद्धासमय अनन्तगुण छे, तेथी सर्व द्रव्यो विशेषाधिक छ, तेथी सर्व प्रदेशो अनन्तगुण छे, तेथी सर्व पर्यायो अनन्त गुण छे. जुओ प्रज्ञा० पद ३ प० १४३-२. ६७ + अहिं आयुष कर्मना बन्धक, अबन्धक, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुतेला, जागृत, समुद्धातने प्राप्त थयेला, समुद्धातने नहि पामेला, साता वेदक, असातावेदक, इन्द्रियना उपयोगवाळा, नोइन्द्रियना उपयोगवाळा, साकार उपयोगवाळा भने अनाकार उपयोगवाळाओगें अल्पयहुत्व कहेलं छे. जुओ प्रज्ञा पद ३ प० १५२. १ जे राशिमाथी चार चार नो अपहार करतां छेवटे चार बाकी रहे ते राशिने कृतयुग्म कहे छे, त्रण बाकी रहे तेने त्र्योज कहे छे, बे बाकी रहे तेने द्वापरयुग्म अने एक बाकी रहे तेने कल्योज कहे छे. जुओ-भग० खं०३ श० १८ उ०४ पृ०५९. ३३ यद्यपि वनस्पतिकायिको अनन्त होवाथी स्वाभाविक रीते कृतयुग्म रूप ज होय छे, तो पण तेमां बीजी गतिथी आवीने एक बे इत्यादि जीवोनो उपपात थतो होवाथी ते जीवो चारे राशिरूप होय छे. जेम उपपातने आश्रयी कल्यं तेम उद्वर्तना-मरणने आश्रयीने पण वनस्पतिकायिको चारे राशिरूप होई शके, परन्तु अहिं तेनी विवक्षा नथी. टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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