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प्रक
शतक १७.-उद्देशक ९.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र,
सत्तमो उद्देसो. १.प्र. पुढविक्काइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं पुष्धि-सेसं तं चेव । [३०] जहा रयणप्पभाए पुढविकाइए सधकप्पेसु जाव-ईसिप्पभाराए ताव उववाइओ, एवं सोहम्मपुढविकाइओ वि सत्तसु वि पुढवीसु उववाएयवो जाव-अहेसत्तमाए; एवं जहा सोहम्मपदविकाइओ सधपुढवीसु उववाइओ, एवं जाव-ईसिपब्भारापुढविकाइओ सधपुढवीसु उववाएयचो जाव-अहेसत्तमाए । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ।
सत्तरसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो ।
सप्तम उद्देशक. १.प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव सौधर्मकल्पमां मरणसमुद्घात करी आ रत्नप्रभा पृथिवीमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न प्रपिवीकाविकसनन्थे थवाने योग्य छे ते हे भगवन् । प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम रत्नप्रभापृथिवीना पृथिवीकायिक जीवनो बधा कल्पोमां, यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उपपात कहेवामां आव्यो छे तेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो पण साते नरकपृथिवीमा यावत्-सप्तम नरक सुधी उपपात कहेवो. तथा जेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो सर्व पृथिवीओमा उपपात कह्यो छे तेम बधा खर्गो, यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीना पृथिवीकायिक जीवनो पण सर्व पृथिवीओमां यावत्-सातमी नरकपृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.'
सत्तरमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त.
अट्ठमो उद्देसो। १.[प्र०] आरकाइए गंभंते । इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्सए१ [उ.] एवं जहा पुढविकाइओ तहा आउकाइओ वि सकप्पेसु, जाव-ईसिपभाराए तहेव उववाएयचो, एवं जहा-रयणप्पभआउकाइओ उववाइओ तहा जाव-अहेसत्तमपुढविआउकाइओ उववाएयचो, एवं जाव-ईसिप्पभाराए। 'सेवं भंते । सेवं भंते पति।
सत्तरसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो ।
अष्टम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगधन् । जे अप्कायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमा मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा अप्कायिकपणे उत्पन्न थवाने बाविक योग्य छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पृथिवीकायिकसंबन्धे का छे तेम अप्कायिकसैबन्धे पण बधा कल्पोमां कहे, याव पृथिवीमा पण ते प्रमाणे उपपात कहेवो. तथा जेम रत्नप्रभांना अप्कायिक जीवनो उपपात कह्यो छे तेम यावत्-सातमी पृथिवीना अप्कायिक जीवनो पण यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.'
सत्तरमा शतकमां अष्टम उद्देशक समाप्त.
नवमो उद्देसो। १. [प्र०] आउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिबलएसु आउकाइत्ताए उववजित्तए से गं भंते ? [10] सेसं तं चेव, एवं जाव-अहेसत्तमाए । जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव-ईसिपम्भाराभाउकाइओ जाव-अहेसत्तमाए उववाएयचो! 'सेवं भंते! सेवं भंते ति ।
सत्तरसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो ।
नवम उद्देशक. २..[प्र०] हे भगवन् ! जे अप्कायिक जीव सौधर्मकल्पमा मरणसमुद्घातने प्राप्त थईने आ रनप्रभाना घनोदधिवलयोर्मा अप्कायिक- सायिक पणे उत्पन्न थबाने योग्य छे, ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. एम यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी जाणवू. जेम सौधर्मकल्पना अप्कायिकनो निरक पृथिवीमां] उपपात कह्यो तेम यावत्-ईषत्प्राग्भारापृथिवीना अप्कायिक जीवनो यावत्अधःसप्तम पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.
सत्चरमा शतकमां नवम उद्देशक समाप्त. ६ भ० सू०
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