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________________ शकर्नु उत्सुकता पूर्वक वादीने जवानुं कारण. सम्यग्दृष्टि गंगद देवनी उत्पत्ति भने तेनो मिध्यादृष्टि दे बनी साथै संवाद. परिणाम पामतां पुलो परिणत कहेवाय. गंगादत्त देवनुं भग तपासे श्रगमन. Jain Education International श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक १६. - उद्देश क ५ २. [प्र० ] 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी - अन्नदा णं भंते! सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति, नम॑सति, सक्कारेति, जाव-पज्जुवासति, किण्णं भंते । अज सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छर, २- च्छित्ता संभंतियवंदणपणं वंदति णमंसति, २ जाव- पडिग १ [अ०] 'गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समपणं महासुके कप्पे महासमागे विमाणे दो देवा महडिया जाव - महेसक्खा एगविमार्णसि देवत्ताए उववन्ना, तं जहा - मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नए य, अमायिसम्मदिट्टिउववन्नए य । तप णं से मायिमिच्छादिट्टिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मदिट्टिउववन्नगं देवं एवं वयासी - ' परिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया' । तप णं से अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नप देवे तं मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं देवं एवं वयासी- 'परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया' । तं माथिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं एवं पडिहणइ, एवं पडिणित्ता भहिं पउंजर, ओहिं परंजित्ता ममं ओहिणा आभो. er, ममं आभोपता अयमेयारूवे जाव - समुप्पजित्था - ' एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे, जेणेव भार हे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव - विहरति, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदिता जाव-पजुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए'त्ति कट्टु एवं संपेहेर, एवं संपेदित्ता चउर्दि सामाणियसादस्सीहि परियारो जहा सूरियाभस्स, जाव- निग्घोसनाहयरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव मारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुप चेइए, जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तप णं से सक्के देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिशं देवि दिवं देवजुति दिवं देवाणुभागं दिवं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छर, २ संभंतिय० जाव- पडिगए । १२ २. [प्र०] 'भगवन्' | एम कही पूज्य गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! अन्य दिवसे देवेन्द्र देवराज शक्र देवानुप्रिय आपने वंदन, नमन, सत्कार यावत् पर्युपासना करे छे, पण हे भगवन् ! आजे तो ते शक्र देवेन्द्र देवराज देवानुप्रिय एवा आपने संक्षिप्त आठ प्रश्नो पूछी अने उत्सुकतापूर्वक चांदी नमी यावत्-केम चाल्यो गयो ! [उ० ] 'हे गौतम' 1 एम कही, श्रमण भगवंत महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कर्छु - हे गौतम! ए प्रमाणे खरोखर ते काळे ते समये महाशुक्र कल्पना महासामान्य नामना विमानमां मोटी ऋद्धिवाळा, यावत्-मोटा सुखबाळा बे देवो एकज विमानमां देवपणे उत्पन्न थया, तेमां एक मायी मिथ्यादृष्टिरूपे उत्पन्न थयो भने एक अमायी सम्यग्दृष्टिरूपे उत्पन्न थयो. त्यार पछी उत्पन्न थयेला ते मायिमिध्यादृष्टि देवे उत्पन्न थयेला अमायिसम्यग्दृष्टि देवने आ प्रमाणे कछु के- " परिणाम पामता पुद्गलो 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के [हजी] ते परिणमे छे परिणत थी, पण 'अपरिणत' छे. त्यारबाद उत्पन्न थयेला ते अमायी सम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला ते. मायी मिध्यादृष्टि देवने कह्युं के, परिणाम पामता पुद्गलो 'परिणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय, कारण के ते परिणमे छे माटे ते परिणत कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. ए प्रमाणे कही उत्पन्न थयेला ते अमायिसम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला मायिमिध्यादृष्टि देवनो पराभव' कर्यो. त्यार पछी तेणे (सम्यग्दृष्टि देवे ) अवधिज्ञाननो उपयोग कर्यो, अने अवधिद्वारा मने जोईने ते सम्यग्दृष्टि देवने आ प्रकारनो संकल्प उत्पन्न थयो के जंबूद्वीपमां भारतवर्षमां ज्यां उल्लुकतीर नामनुं नगर छे, अने ते नगरमां ज्यां एकजंबूक नामनुं चैत्य छे, त्यो श्रमण भगवंत महावीर यथायोग्य अवग्रह लेइने विहरे छे, तो त्यां जई ते श्रमण भगवंत महावीरने वांदी यावत् पर्युपासी आ प्रकारनो प्रश्न पूछवो ए मारे माटे श्रेयरूप छे, एम विचारी चार हजार सामानिक देवोना परिवार साथे-जेम सूर्याभ देवनो परिवार को छे तेम अहिं पण समज - यावत्-निर्घोष नादित रवपूर्वक जे तरफ जंबूद्वीप छे, जे तरफ भारतवर्ष छे, जे तरफ उल्लुकतीर नामनुं नगर छे, अने जे तरफ एकजंबूक नामनुं चैत्य छे तथा ज्यां आगळ हुं विद्यमान छं ते तरफ आववाने तेणे ( सम्यग्दृष्टि देवे) विचार कर्यो. त्यारबाद ते देवेन्द्र देवराज शक मारी तरफ आवता ते देवनी तेवा प्रकारनी दिव्य देवर्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव अने दिव्य तेजोराशिने न सहन करतो आठ संक्षिप्त प्रश्नो पूछी अने उत्सुकतापूर्वक वांदी यावत्-चाल्यो गयो. २ * 'परिणाम पामतां पुद्गलोने परिणत न कहेवा जोइए, कारण के वर्तमानकाळ अने भूतकाळनो परस्पर विरोध छे, तेथी वे अपरिणत कहेवाय, तेनो परिणाम चालु छे माटे ते परिणत न कहेवाय'- ए मिथ्यादृष्टिदेवनुं कथन छे. सम्यग्दृष्टि देव तेने एवो उत्तर आपे छे के परिणाम पामता पुठूलो परिणत कद्देवा जोइए, पण ते अपरिणत न कहेवाय, केमके परिणाम पामे छे एटले ते अमुक अंशे परिणत थया छे, पण सर्वथा अपरिणत नथी. 'परिणमे छे' एवं कथन ते परिणामना सद्भावमा ज होइ शके, ते सिवाय न होइ शके. जो परिणामनो सद्भाव मानीए तो अमुक अंशे परिणतपणुं अवश्य मानवुं जोइए. जो अमुक अंशे परिणत छतां पण परिणतपणुं न मानवामां आवे तो सर्वदा परिणतपणानो अभाव थाय-टीका. + जुओ रायपसेणीय प० १४- १. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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