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________________ शतक १६.-उद्देशक ७-८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सत्तमो उद्देसो. १. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! उवओगे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! दुविहे उवओगे पन्नत्ते, एवं जहा उवयोगपदं पनवणार तहेव निरवसेसं भाणियचं, पासणयापदं च निरवसेसं नेयध्वं । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति। सोलसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो। सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारनो उपयोग कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! उपयोग बे प्रकारनो कह्यो छे. जेम प्रज्ञापना सूत्र- मांना "उपयोग पदमां कहेवामां आव्यु छे तेम अहीं बधुं कहे. तेमज अहीं त्रिीसमुं 'पश्यत्तापद' पण समग्र कहे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' सोळमा शतकमां सप्तम उद्देशक समाप्त. उपयोग अट्ठमो उद्देसो. १. [प्र०] किंमहालए णं भंते ! लोप पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! महतिमहालए-जहा बारसमसए तहेव जाव-असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं । २. [प्र०] लोयस्स णं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा ? [उ०] गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपएसा घि। जे जीव अष्टम उद्देशक लोकनो पूर्व चरमात. १. [प्र०] हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! लोक अत्यन्त मोटो कह्यो छे. जेम "बारमा शतकमां कई छे तेम अहीं पण लोक संबंधी बधी हकीकत कहेवी, यावत्-ते लोकनो परिक्षेप-परिधि असंख्येय कोटाकोटी योजन छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना पूर्व चरमांतमी (पूर्व बाजुना छेडाना अंते) १ जीवो छे, २ जीवदेशो छे, ३ जीवप्रदेशो छे, ४ अजीवो छे, ५ अजीवदेशो छ, ६ के अजीवप्रदेशो छे! [उ०] हे गौतम! त्यां जीवो नथी, पण जीवदेशो छे, जीवप्रदेशो छ, अजीवो १* उपयोग-चेतना शक्तिनो व्यापार, तेना बे भेद छ- साकार उपयोग अने अनाकार उपयोग. साकार उपयोगना पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञानना भेदथी आठ प्रकार छ; अनाकार उपयोगना चक्षुदर्शनादिना मेदथी चार प्रकार छे. जुओ-प्रज्ञा• पद २९ प०५२५-५२७.. प्रिज्ञा० पद ३०प० ५२८-५३२. * पश्यत्ता-प्रकृष्ट बोधनो परिणाम, तेना साकार अने अनाकार बे भेद छ. साकारपश्यत्ताना मतिज्ञान सिवाय बाकीना चार ज्ञान भने मतिअज्ञान सिवाय बे अज्ञान-एम छ प्रकार छे. अनाकार पश्यत्ताना अचक्षुदर्शन सिवाय बाकीना त्रण प्रकार छे. जो के पश्यत्ता अने उपयोग बन्ने साकार भने अनाकार भेद वडे तुल्य छ, तो पण ज्या त्रैकालिक बोध होय ते पश्यत्ता भने ज्यां त्रैकालिक अने वर्तमान कालिक बोध होय ते उपयोग एटली विशेषता छे. अहिं अनाकार पश्यत्तामा चक्षुदर्शन प्रहण कयु अने अचक्षुदर्शन न प्रहण कर्यु तेनुं कारण एवं छे के प्रकृष्ट इक्षणने पश्यत्ता कहेछे भने ते चक्षुदर्शनने विषेज घटी शके छे, अचक्षुदर्शनमां घटी शकतुं नथी, केमके चक्षुदर्शनना उपयोगनो बीजी इन्द्रियना उपयोगथी अल्प काळ छे भने तेथी प्रकृष्ट ईक्षण चक्षुर्नुज होय छे, माटे पश्यत्तामा चक्षुदर्शनने ग्रहण कयु छे, बीजी इन्द्रियोना दर्शनने ग्रहण कर्यु नथी.-टीका. - १ भग० ख० ३ श• १२ उ०७ पृ० २८२. २ पूर्व दिशानो चरमान्त-लोकनो छेल्लो भाग विषम एक प्रदेशना प्रतररूप होवाथी तेमा असंख्य प्रदेशावगाही जीवनो सद्भाव होतो नथी, माटे या जीवो नथी, परन्तु जीवदेशो अने जीवप्रदेशोनो एक प्रदेशने विषे पण अवगाह संभवे छे, माटे 'जीवदेशो अने जीवप्रदेशो होय छे' एम कयुं छे. ए प्रमाणे त्यां पुगलस्कंधो, धर्मास्तिकायादिना देशो अने तेना प्रदेशो होवाथी अजीवो, अजीवदेशो अने अजीवप्रदेशो पण होय छे. हवे जे जीवदेशो छ तेमां पृथिव्यादि एकेन्द्रिय जीवोना देशो लोकान्ते अवश्य होय छे. आ प्रथम विकल्प थयो. हवे द्विकसंयोगी विकल्प ा प्रमाणे छे. १ अथवा एकेन्द्रियोना घणा देशो भने बेइन्द्रिय कदाचित् होवाथी तेनो एक देश होय छे. जो के लोकान्ते बेइन्द्रिय जीव होतो नथी, तो पण एकेन्द्रियोमा उत्पन्न थनार बेइन्द्रिय जीव मरणसमुदूधातवटे उत्पत्तिदेशने प्राप्त थाय ते अपेक्षाए आ विकल्प थाय छे. ए प्रमाणे दशमा शतकना प्रथम उद्देशकने विषे आनयी दिशा संबन्धे जे भांगा कहेला छे ते अहिं जाणवा, ते आ प्रमाणे-१ एकेन्द्रियोना देशो भने एक बेइन्द्रियनो देश; २ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने एक बेइन्द्रियना देशो ३ अथवा एकेन्द्रियोना देशो अने बेइन्द्रियोना देशो; ४ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने एक तेइन्द्रियनो देश; ५ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने एक तेइन्द्रियना देशो; ६ अथवा एकेन्द्रियोना देशो भने तेइन्द्रियोना देशो, ए प्रमाणे च उरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रियना प्रण त्रण भौगा जाणवा. अनिन्द्रियना भांगा पण ए प्रमाणे समजवा, परन्तु भामेयी दिशाने विषे तेना प्रण भांगाओ कह्या छे, तेमांनो 'एकेन्द्रियोना देशो भने अनिन्द्रियनो देश'-ए प्रथम भांगो अहिं न कहेवो; केमके केवलिसमुद्धातावस्थामा आत्मप्रदेशो कपाटाकार थाय त्यारे पूर्व दिशाना चरमान्ते प्रदेशनी वृद्धि-हानि वडे विषमता यती होवाथी लोकना दांताओमा अनिन्द्रिय जीवना-इन्द्रियना उपयोग रहित केवल ज्ञानीना घणा देशोनो संभव छे, पण एक देशनो संभव नधी. माटे अनिन्द्रियने उपर कहेलो भागो लागु पडतो नथी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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