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बुद्ध भगवान जैने पूजन कहे छे ते आ एकांत बाळकोटिना छे अने जेने आर्यजन कहे छे ते एकांत पंडितकोटिना छे.
लोकोमां कहेवाती ऊंची जातिनो, ऊंची प्रतिष्ठा के एवा बीजा कोई ऐश्वर्यवाळो, आत्मभान विनानो होय तो भगवानने मन ते एकांत बाल छे अने जातिथी हलको गणातो पण जो आत्मभानवाळो होय तो भगवानने मन एकांत पंडित छे.
भगवान कहे छे के हिंसा, असम, चीर्य, मैथुन, परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया, सोम, राग, द्वेष, कलह, अम्याख्यान, पैशुन, निंदा, कपटपूर्वक व्यवहार अने अज्ञान ए बधा दोषोयी जीवो संसारमां फर्या ज करे छे. जे प्राणिओ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, सरलता, संतोष, अरवृत्ति, स्वभावनी स्मृति वगेरे गुणोने केळवे छे तेओ संसार ओछो करे के अने निर्वाणने पामे छे. ( भा० १ पा० १९९ )
भगवान कहे छे के गृहवास छोडीने श्रमण निर्मंथ थया पछी पण मनुष्यो विवेकनी खामीने लीघे नकामा नकामा कलहो करी मिथ्या मोहना पाशमां फसाय छे. परस्परना जुदा मेशने ठीचे, जुदा जुदा नियमोने सीधे, हुदा हुदा मार्गेने सीधे, शुदा जुदा बाद्याचार ने लीघे, पोतपोताना आचार्योंना जुदा जुदा मतने लीघे, शास्त्रना जुदा जुदा पाठने लीघे एम अनेक प्रकारनां बाह्यकारणोने लीघे लडता शघडता श्रमण निम्रयो पोताना संयमने दूषित करे छे. ( भा० १ पा० १२५ )
भगवाने कहेली आ हफीकत तेमना पोताना जमानामां पण हती अने आ जमानामा पण ते आपणने प्रत्यक्ष ज छे. आ जातना खोटा कलहो मिथ्यामोह ने वधारनार छे एवं भगवान वारंवार कहे छे.
एक स्थळे भगवानने तेमना मुख्य शिष्य इन्द्रभूति गौतमे पूच्यं के, गुणवंत श्रमण या माझणनी सेबाची झुं लाभ थाय छे ! भगवाने जणान्युं के हे गौतम! तेमनी सेवा करवाथी आर्य पुरुषोए कहेलां वचनो सांभळवानो लाभ थाय छे अने तेथी ने - सांभळनार ने पोतानी स्थितिनुं भान थाय छे, भान थवाथी विवेक प्राप्त थाय छे, विवेकी थवाथी स्वार्थीपणुं ओछु थई त्यागभावना केळवाय के अने ते द्धारा संयम खीले छे अने संयमनी खीलवणीथी आत्मा दिवसे दिवसे शुद्ध तथा तपश्चर्यापरायण थतो जाय छे, तपश्चर्याथी मोहमळ या छे अने मोहमळ दूर थवाथी अजन्मा दशाने पामे छे.
दूर
भगवानना उपर्युक्त कपनमां गुणवंत भ्रमण अने ब्राह्मण तरफनी तेमनी दृष्टिनो मर्म समजा आपणे प्रयत्नशील प जोइए,
एक स्थले मंडितपुत्रना प्रथना उत्तरमां भगवान को के के अनात्मभावमां वर्ततो आत्मा हंमेशा कंप्या करे छे, फडफडपा करे छे, क्षोभ पाम्या करे के अने तेम करतो ते हिंसा वगेरे अनेक जालना आरंभमां पढे छे, तेना ते आरंभो जीवमात्रने त्रास ऊपनाबनारा पाय छे. माटे हे मंडितपुत्र ! आत्माए आत्मभावमा स्थिर रहेवुं जोईए अने अनात्मभाव तरफ कदी पण न जनुं जोईए ( भा० २ पा० ७६ )
सातमा शतक ना बीजा उदेशकमा भगवान, इंद्रभूति गौतमने कहे छे के जे प्राणी सबै प्राण, भूत, जीव अने सयोनी हिंसानो क्ष्याग करवानी बात करे छे छतां ते, प्राण भूत जीव अने सत्त्वने ओळखवा प्रयत्न करतो नथी-ते ते प्राणभूतोनी परिस्थिति समजी मनी साधे मित्रवत् वर्तवानो प्रयास करतो नथी तेथी तेनो, ते ते प्राणीनी हिंसानो त्याग ए अहिंसा नयी पण हिंसा छे, असत्य के अने आस्रवरूप छे. अने जे, जेवो पोते प्राणी छे एवा ज आ बीजा प्राणीओ छे, जेवी लागणी पोताने छे एवी ज लागणी बीजाने पण छेएम समजीने हिंसानो त्याग करे छे ते ज खरो अहिंसक छे, सत्यवादी छे अने आस्रवरहित छे. ( भा० ३ पा० ७ )
आज प्रमाणे आठमा शतकमा दशमा उदेशकमां भगवान कहे छे के कोई मनुष्य, मात्र श्रुतसंपन्न होय पण शीलसंपन न होप ते देशी अंशधी विराधक छे. जे मात्र शीखसंपन्न होय पण श्रुतसंपन्न न होय ते देशची आराधक छे, जे श्रुत अने शील बजेपी संपन होय ते सर्वधी आराधक छे भने जे बजे विनानो छे ते सर्वधा विराधक छे. ( मा० ३ पा० ११८)
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आ बजे कपनमा प्रज्ञा अने आचार बजे जीवनशुद्धिमा एक सरला उपयोगी छे एम भगवान बतावे छे. प्रज्ञा बिनानो आचार बंधनरूप पाय के अने आचार विनानी प्रज्ञा उछृंखलता पोवे छे. आज कारणथी बुद्ध भगवाने पण बुद्धपद पामता पहेला प्रज्ञापारमिता, सत्पपारमिता अने शीलपारमिता
हती.
कहेवानुं ए छे के भगवान महावीर अने भगवान बुद्ध ए बन्नेए पोतानां प्रवचनोमां ज्ञान अने क्रियाने एक सरखुं स्थान आपेलुं छे.
.१ पुधुज्जनो (मूळ पाली)
२ "तहारुवं णं भंते । समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा" - प्रस्तुत ग्रंथ भाग १ पृ० २८३ ।
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