________________
२२०
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २५.-उद्देशक ४. सुयणाणपजवेहि वि । ओहिणाणपज्जवेहि वि एवं चेव । नवरं विकलिंदियाणं नस्थि ओहिनाणं । मणपजवनाणं पि एवं चेष; नघरं जीवाणं मणुस्साण य, सेसाणं नत्थि ।
३१. [सं०] जीवे णं भंते ! केवलनाणपजवेहिं किं कडजुम्मे-पुच्छा। [उ०] गोयमा! कडजुम्मे, णो तेयोगे, णो दावरजुम्मे, णो कलियोगे । एवं मणुस्से वि; एवं सिद्धे वि।
३२. जीवा णं भंते ! केवलनाण-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणावेसेण वि कडजुम्मा, नो तेोगा, नो दावरजुम्मा, णो कलियोगा। एवं मणुस्सा वि एवं सिद्धा वि ।
३३. [प्र०] जीवे णं भंते ! मइअन्नाणपजवेहिं किं कडजुम्मे० १ [उ०] जहा आभिणियोहियणाणपजवेहिं तहेव दो दंडगा । एवं सुयन्नाणपजवेहि वि; एवं विभंगनाणपजवेहि वि । चक्खुदंसण-अचपखुदंसण-ओहिंदसणपजवेहि वि एवं चेव, नवरं जस्स जं अत्थि तं भाणियवं । केवलदसणपजवेहिं जहा केवलनाणपजवेहि ।
३४. [प्र०] कति णं भंते ! सरीरगा पन्नत्ता! [उ०] गोयमा ! पंच सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए, जापकम्मए । एत्थ सरीरगपदं निरवसेसं भाणियधं जहा पनवणाए ।
३५. [प्र०] जीवा णं भंते ! कि सेया णिरेया ? [उ०] गोयमा ! जीवा सेया वि, निरेया वि । [प्र०] से केणटेणं मंते ! एवं धुञ्चति-'जीवा सेया वि निरेया वि' ? [उ०] गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संसारसमावनगा य असंसारसमावनगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा। सिद्धा णं दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अणंतरसिद्धा य परंपरसिद्धा य । तत्थ णं जे ते परंपरसिद्धा ते णं निरेया; तत्थ णं जे ते अणंतरसिद्धा ते णं सेया।
३६. [प्र०] ते णं भंते ! कि देसेया सोया? [उ०] गोयमा! णो देसेया, सधेया। तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सेलेसिपडिवनगा य असेलेसिपडिवनगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवनगा ते णं निरेया,
विशेष ए के, विकलेंद्रिय जीवोने अवधिज्ञान होतुं नथी. एम मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो संबन्धे पण जाणतुं, पण विशेष ए के, ते सामान्य
जीवो अने मनुष्योने होय छे, पण बाकीना दंडकोमा होत नथी. जीवना केवलज्ञान- ३१. [प्र०] हे भगवन् ! जीवना केवलज्ञानना पर्यायो शुं कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कृतयुग्मरूप
छे, पण त्र्योज, द्वापर के कल्योज रूप नथी. ए प्रमाणे मनुष्य तथा सिद्ध संबंधे पण समजq. जीवोना केबल- ३२. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना केवलज्ञानना पर्यायो शुं कृतयुग्म रूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते सामान्य अने शानना पर्यायो.
विशेषादेशवडे कृतयुग्म रूप छे, परंतु त्र्योज, द्वापर के कल्योजरूप नथी. ए प्रमाणे मनुष्यो अने सिद्धो संबंधे पण जाणवू. जीवना मतिअशा- ३३. प्रि०ा हे भगवन ! जीव मतिअज्ञानना पर्यायोवडे शं कृतयग्म रूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०ी हे गौतम 1 जेम आभिनिबोधिक नना पर्यायो.
ज्ञानना पर्यायो संबन्धे बे दंडको कह्या छे तेमज अहिं पण बे दंडको कहेवा. श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शन भने अवधिदर्शनना पर्यायो संबन्धे पण ए ज प्रमाणे कहे. विशेष ए के, श्रुतअज्ञानादिमांथी जेने जे होय ते तेने कहे. तथा केवलदर्शनना
पर्यायो संबन्धे केवलज्ञानना पर्यायोनी पेठे समजq. शरीरना प्रकार. ३४. [प्र०] हे भगवन् ! केटलां शरीरो कहाँ छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच शरीरो कहाँ छे, ते आ प्रमाणे-औदारिक, यावत्
कार्मण. अहिं *प्रज्ञापनासूत्रनुं बधु शरीरपद कहे. सकंप अने निष्कम्प. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो सकंप होय छे के निष्कंप होय छे ! [उ०] हे गौतम! जीवो सकंप पण छे अने निष्कंप पण
छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के 'जीवो सकंप पण छे अने निष्कंप पण छे' ! [उ०] हे गौतम ! जीवो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-संसारसमापन-संसारी अने असंसारसमापन्नक-मुक्त, तेमा जे असंसारसमापन्न जीवो छे ते सिद्ध जीवो छे. ते सिद्धो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-अनंतर सिद्ध अने परंपर सिद्ध. तेमा जे जीवो परंपर सिद्ध छे ते निष्कंप छे, अने जे जीवो
अनंतर सिद्ध छे ते सिकंप छे. देशथी के सर्वथी
३६. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अनन्तर सिद्धो) शं अमुक अंशे सकंप छे के सर्वाशे सकंप छे! [उ०] हे गौतम! ते अमुक अंशे सकम्प।
सकंप नथी, पण सर्वाशे सकंप छे. तेमा जे संसारने प्राप्त थयेला जीवो छे ते बे प्रकारे करा छे, ते आ प्रमाणे-शैलेशीने प्राप्त थयेला
३४ * जुओ प्रज्ञा० पद १२ प० २६८.
३५ + सिद्धत्वनी प्राप्तिना प्रथम समये अनन्तर सिद्ध कहेवाय छे, कारण के त्यारे एक समयनुं पण अन्तर नथी. जेओ सिद्धत्वने प्रथम समये वर्तमान सिद्ध जीवो छ तेओमा कंपन छे, कारण के सिद्धिगमनसमय अने सिद्धत्वप्राप्तिनो समय एक ज होवाथी अने सिद्धिगमनसमये गमन क्रिया थती होवाथी ते वखते तेओ सकंप होय छे. जेने सिद्धत्व प्राप्ति थया पछी समयादिनु अन्तर पढे छे ते परम्पर सिद्ध कहेवाय छे भने तेश्रो निष्कंप होय छे.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.