________________
शतक १८.-उद्देशक ३.
भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११.६० वीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नते। [30] मागंदियपुत्ता! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-साइयवीससाबंधे य अणाद्रीयवीससावंधे य।
१५. [प्र०] पयोगधंधे णं मंते! कतिविहे पनते ? [] मार्गदियपुत्ता ! दुविहे पनवे, सं जहा-सिढिलपंधणपन्धे धणियबंधणषन्धे य।
१३. [४०] भावबंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] मागंदियपुत्ता ! दुबिहे पन्नत्ते, तं जहा-मूलपगउिषधे य उत्तरपगडिबंधे य।
- १४. [प्र०] नेरईयाणं भंते ! कतिविहे भावबंधे पनते ? [ज०] मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पनवे, तं जहा-मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य । एवं जाव-वेमाणियाणं ।
१५. [प्र०] नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे भावबंधे पन्नते? [उ०] मागंदियपुत्ला दुविहे भावबंधे पाते, तं जहा-मुलपगडिबंधे य उत्तरपयडिबंधे य।
१६. [प्र०] नेरतियाणं भंते ! नाणावरणिजस्स कम्मस्स कतिविहे भावबंधे पन्नत्ते १ [उ०] मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते, तं जहा-मूलपगडिबंधे य उत्तरपयडि०, पचं जाव-धेमाणियाणं, जहा नाणावरणिज्जेणं दंडओ मणिो एवं जाव-अंतराइएणं भाणियो।
१७. [प्र०] जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जाव-जे य कजिस्सइ, अत्थि यार तस्स र णाणते ? [उ०] इंता अस्थि । [३०] से केणटेणं भंते! एवं घुषह-जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे, जाप-जे य कजिस्सति, अस्थि यार तस्स णाणते। [उ०] मागंदियपुत्ता! से जहानामए-केर पुरिसे धणुं परामुसइ, धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसा, उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठाणं ठाएत्ता आययकन्नाययं उसुं करेति, आ० २ करेता उहं वेहासं उविहर से नूणं मागंदियपुत्ता तस्स उसुस्स उई
११. [प्र०] हे भगवन् ! *विस्रसाबंध केटला प्रकारनो कयो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र! ते वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ विवसामन्ध. प्रमाणे-"सादि विस्त्रसाबन्ध भने अनादि विस्रसाबन्ध,
१२. [प्र०] हे भगवन् ! प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ! [उ०] हे मार्कदिकपुत्र! ते वे प्रकारनो कयो छे, ते आ प्रयोगाच. प्रमाणे-शिथिलबन्धनवाळो बन्ध अने गाढबन्धनवाळो बन्ध,
१३. [प्र०] हे भगवन् ! भावबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- मावन्यमूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध.
१४. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो भावबन्ध कह्यो छे ! [उ०] हे माकंदिकपुत्र! तेओने ये प्रकारनो भावबन्ध कयो छे, ते आ प्रमाणे-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुघी जाणवू.
१५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनो भावबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ? [उ०] हे मार्कदिकपुत्र ! ते बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध.
१६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने ज्ञानावरणीय कर्मनो भावबन्ध केटला प्रकारनो कयो छे ! [उ०] हे मार्कदिकपुत्र ! ते वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-मूलप्रकृतिबन्ध अने उत्तरप्रकृतिबन्ध. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु, जेम ज्ञानावरणीय संबंधे दंडक कह्यो तेम यावत्-अंतरायकर्म सुधी दंडक कहेवो.
१७. [प्र०] हे भगवन् ! जीवे जे पाप कर्म कर्यु छे अने यावत्-हवे पछी करशे, तेमां परस्पर कांइ भेद छे ! [उ०] हे मार्कदिकपुत्र ! हा, तेमां परस्पर भेद छे. प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के, 'जीवे जे पाप कर्म कयं छे अने यावत्-जे पाप कर्म करशे, तेमां परस्पर भेद छे! [उ०] हे माकंदिकपुत्र ! जेम कोइ एक पुरुष धनुषने ग्रहण करी, बाण लेइ अमुक आकारे उभो रही धनुषने कान सुधी खेंची छेवटे ते बाणने आकाशमा उंचे फेंके, तो हे माकंदिकपुत्र ! आकाशमा उंचे फेंकेला ते बाणना कंपनर्मा
११ * विस्रसाबन्ध-वादळा वगेरेनो खाभाविकबन्ध, तेना सादि विनसाबन्ध अने अनादि विनसाबन्ध एबे मेद छे. तेा वादळा वगेरेनो सादि विनसाबन्ध, अने धर्मास्तिकायादिनो परस्पर अनादि विनसाबन्ध,
१७ 1 पुरुषे करेला भूत, वर्तमान अने भविष्यकाळना कर्मा तीव्र भन्दादि परिणामना भेदथी भिन्नता होय छे.. जेम कोई पुरुषे आकाशमा उंचे फेंकेला वाणना कंपनमा तेना प्रयत्ननी विशेषताथी मेद होय छ, तेवी रीते कर्ममा पण तीव्र मन्द इत्यादि परिणामनी विशेषताथी विशेषता होय .
८ म. .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org