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शतक २५.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२३५ जगुणा १६, संखेजपएसिया खंधा निरेया दधट्टयाए संखेजगुणा १७, ते चेव पएसट्टयाए संखेजगुणा १८, असंखेजपएसिया निरेया घट्टयाए असंखेजगुणा १९, ते चेव पएसट्टयाए असंख्नेजगुणा २०। '
__१२९. [प्र०] कति णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता ! [उ०] गोयमा ! अट्ठ धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता।
१३०. [प्र०] कति णं भंते ! अधम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता ? [उ०] एवं चेव । १३१. [प्र०] कति गं भंते ! आगासस्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता? [उ०] एवं चेव ।
१३२. [प्र०] कति णं भंते ! जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पनत्ता ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता।
१३३. [प्र०] एए णं भंते ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा कतिसु आगासपएसेसु ओगाहंति ? [उ०] गोयमा ! जहनेणं एकसि वा दोहि वा तीहि वा चउहि वा पंचहिं वा छहिं वा उक्कोसेणं असु, नो चेव णं सत्तसु । 'सेवं भंते सेवं मंते! ति।
पणवीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो। छे. १८ अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे संख्यातगुणा छे. १९ असंख्यात प्रदेशिक निष्कंप स्कंधो द्रव्यार्थपणे असंख्यातगुणा छे. २० अने तेज स्कंधो प्रदेशार्थपणे असंख्यातगुणा छे.
१२९. [प्र०] *हे भगवन् ! धर्मास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे! [उ० हे गौतम ! धर्मास्तिकायना *आठ मध्य प्रदेशो धर्मास्तिकायना कह्या छे.
मध्य प्रदेशो. १३०. [प्र०] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू.
अधर्मास्तिकायना
मध्य प्रदेशो. १३१. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! एज प्रमाणे जाणवू.
प्रदेशो. १३२. [प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायना मध्य प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवास्तिकायना आठ मध्य जीवना मध्य प्रदेशो. प्रदेशो कह्या छे. १३३. [प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायना ए आठ मध्य प्रदेशो आकाशास्तिकायना केटला प्रदेशोमा समाइ शके: उ०] हे जीवना मध्य प्रदे
शोनी भवगाना. गौतम! ते जघन्य एक, बे, त्रण, चार, पांच, अने छ प्रदेशमा समाय तथा उत्कृष्ट आठ प्रदेशमा समाय, पण सात प्रदेशमा न समाय...' 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे.
पचीशमां शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त.
माकाशना मध्य
पंचमो उद्देसो। १. [प्र०] कतिविहा गं भंते ! पजवा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पजवा पनत्ता, तंजहा-जीवपजवा य अजीवपजवा य । पजवपदं निरवसेसं भाणियचं जहा पन्नवणाए ।
पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! पर्यवो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उन हे गौतम ! पर्यवो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणेजीवपर्यवो अने अजीवपर्यवो. अहिं प्रज्ञापनासूत्रनुं समन पर्यवपद कहे.
१ ओगाढा होति छ।
१२९. * 'धर्मास्तिकायना आठ मध्य प्रदेशो आठ रुचकप्रदेशवर्ती होय छे, 'एम चूर्णिकार कहे छ, भने ते रुचकप्रदेशो मेरुना मूळभागना मध्यवर्ती छ. यद्यपि धर्मास्तिकायादि लोकप्रमाण होवाथी तेनो मध्य भाग रुचकथी असंख्य योजन दूर रत्नप्रभाना आकाशनी अंदर आवेलो छ, रुचकवर्ती नथी, तो पण दिशा अने विदिशानी उत्पत्तिस्थान रुचक होवाथी धर्मास्तिकायादिना मध्य तरीके तेनी विवक्षा करी होय एम संभवे छे.-टीका.
१३३ + जीवप्रदेशोनो संकोच अने विकास धर्म होवाथी तेना मध्यवर्ती आठ प्रदेशो जघन्यथी एक आकाशप्रदेशथी मांडी छ आकाशप्रदेशमा रही . शके छे अने उत्कृष्ट आठ आकाश प्रदेशमा रहे छे, पण वस्तुखभावथी सात आकाशप्रदेशने आश्रयी रहेता नथीं.-टीका. . १ पर्यव-गुण, धर्म, विशेष. जीवपर्यव-जीवधर्म, अजीवपर्यव-अजीवधर्म. ते धर्मो अनन्त होय छे. जुओ प्रज्ञा० पद ५५० १७९-२०॥
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