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________________ शतक २४. - उद्देशक २०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १८३ ३५. [अ०] जद्द सनिमणुस्सेर्दितो० किं संखेजवासाउयसनिमणुस्खेहिंतो०, असंखेखपासाउयसन्निमस्सेर्हितो ० १ [अ०] गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाज्य० । ३६. [०] संवासाठय० किं पात०, अपक्षत० १ [४०] गोयमा ! पत्तसंसेजवासाठय०, अपजत्तसंखे जवासाउय० । ३७. [प्र०] सन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिपसु उववजित्तर से णं भंते ! केवति ० १ [30] गोयमा ! जहणं अंतोमुडुत्त०, उझोसेणं तिपलिओयमद्धितिरसु उपयज्जति । ३८. [प्र० ] ते णं भंते 1० [30] लद्धी से जहा एयस्सेव सन्निमणुस्सस्स पुढविक्काइएसु उववजमाणस्स पढमगमए जाय 'भवासो 'ति । कालादेसेणं जहणं दो अंतोमुडुत्ता, उद्योसेनं तिनि पलिओचमाई पुञ्चकोडिपुहत्तमम्भहियाई १ । ३९. सोचे जाट्ठतिरसु उवचनो एस चैव वत्तष्ठया नवरं कालादेसेणं जहणं दो अंतोमुत्ता, उद्योसेणं चारि पुष्कोडीओ चढाई अंतोहि अम्महियाओ २ । ४०. सो चैव उक्कोसकालट्ठितिरसु उबवन्नो जहणं तिपलिओोषमपिसु, उझोसेण वि तिपलिओवमट्ठिएसु-सचेव बसइया नवरं ओगाहणा जहस्रेणं अंगुलपुहतं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई । डिती जहन्त्रेणं मासपुहतं, उक्कोसेगं पुषकोडी । एवं अणुबंधो वि । मवादेसेणं दो भयम्महणारं, कालादेसेणं जहनेणं तिनि पलिभोयमाई मासपुदत्तमम्भदियाई, उकोलेणं तिनि पलिओ माई पुचकोडी अब्भहियाई - एवतियं ० ३ । पं० तिर्यचर्मा ३५. [प्र०] हे भगवन् ! जो ( संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं संख्याता वर्षना आयुषवाळा संधी मनुष्योनी संजी संज्ञी मनुष्योथी के असंख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ संख्याता वर्षना आयुषवाळा संज्ञी मनुष्योथी आवी उत्पन्न घाय, पण असंख्याता वर्षना आयुषवाळा मनुष्योथी आवी उत्पन्न न थाय. उत्पत्ति. ३६. [प्र० ] जो तेओ (संज्ञी पं० तिर्यचो) संख्याता वर्षना आगुपवाळा मनुष्योधी आची उत्पन्न याय तो शुं पर्याप्ता मनुष्योथी के अपर्याप्ता मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ पर्याप्ता अने अपर्याप्ता बन्ने प्रकारना मनुष्योथी आवी उत्पन्न थाय. ३७. [प्र०] संख्याता वर्षना आयुषवाळो संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य, जे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते केला काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! ते जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी सितियाळा [सं० पं० तिर्यचमां उत्पन्न पाय ३८. [प्र०] हे भगवन् ! ते संज्ञी मनुष्यो एक समये केटला उत्पन्न थाय - इत्यादि पृथिवीकायिकोमां उत्पन्न थता ए ज संज्ञी मनुष्यनी प्रथम गमकमां कहेली "वक्तव्यता यावत्-मवादेश सुची अहीं कहेवी. काळादेशथी जघन्य वे अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक त्रण पल्योपम-एटलो काळ यावत्- गतिआगति करे (१). ३९. जो ते संज्ञी मनुष्य जघन्य काळनी स्थितिवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्येचयोनिकमां उत्पन्न थाय तो तेने ए ज पूर्वोक्त वक्त-संक्षी मनुष्यनी ज सं० पं० तिर्यंचमां व्यता कवी. परन्तु काळादेशथी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटी वर्ष-एटलो काळ यावत्उत्पत्ति. गमनागमन करे (२). सं० पं० तिर्यचम उत्पत्ति. ४०. जो तेज मनुष्य उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा तिचमां उत्पन्न धाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पत्योपमनी स्थितिवाळा ही मनुष्वनी ७० संज्ञी पं० तिर्यधमां उत्पन्न याय. (अहीं पण ) एज पूर्योक वक्तव्यता कहेगी. पण विशेष ए के शरीरप्रमाण जघन्य अंगुलपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पांचसो धनुष होय छे. आयुष जघन्य मासपृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वकोटी होय छे. ए प्रमाणे अनुबंध पण जाणवो. भवादे - शधी वे भव तथा काव्यदेशची जघन्य मासपृथक्त्व अधिक जण पत्योपम अने उत्कृष्ट पूर्यकोटी अधिक त्रण पल्पोएम-एटलो फाळ यावत् गमनागमन करे (३). ३८-३९ * पृथिवीकायिकमां उत्पन्न यता संज्ञी मनुष्यनी प्रथम गममां कहेली वक्तव्यता आ प्रमाणे छे. परिमाण -- एक समये जघन्य एक, बे अने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. कारण के संज्ञी मनुष्यो हमेशां संख्याता ज होय छे. तेने छ संघयण होय छे. उत्कृष्ट पांचसो धनुषनी अवगाहना, छ संस्थान, त्रण दृष्टि, विकल्पे चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान, त्रण योग, बे प्रकारनो उपयोग, चार संज्ञा, चार कषाय, पांच इन्द्रिय, छ समुद्घात, साता अने असाता, त्रण वेद, ज० अन्तर्मुहूर्तनुं आयुष, उ० पूर्वकोटिनुं आयुष, प्रशस्त अने अप्रशस्त अध्यवसाय, स्थितिना समान अनुबन्ध अने संवेध. जघन्य बे भव अने उत्कृष्ट आठ भव होय छे. बीजा गममां प्रथम गममां कहेली वक्तव्यता कहेवी. परन्तु काळनी अपेक्षाए ज० बे अन्तर्मुहूर्त अने उ० चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि संवेध जागो. टीका. परिमाणादि. ४० + श्रीजा गममां पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. परन्तु अवगाहना अंगुलपृथक्त्व — बे अंगुलथी नव अंगुल प्रमाण अने आयुष मासपृथक्त्व जाणवु. आ कथनथी एटलं जाणी शकाय छे के अंगुलपृथक्त्वथी न्यून शरीरवाळो तथा मासपृथक्त्वथी हीन आयुषवाळो मनुष्य उत्कृष्ट आयुषवाळा तिर्यचमां उत्पन्न थतो नथी. टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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