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शतक १९.-उद्देशक ३.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी, तं जद्दामइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य ४ ।
५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? [उ०] गोयमा ! नो मणजोगी, नो घयजोगी, कायजोगी ५।
६.० ते भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? [उ०] गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि ६।
७. [प्र० ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? [उ०] गोयमा! दपओ णं अणंतपदेसियाई दवाई-एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव-सवप्पणयाए आहारमाहारेंति ७ ।
८.प्र.गते भन्ते ! जीवा जमाहारेंति तं चिजंति, जनो आहारेति तं नो चिजंति, चिन्ने वा से उहाह पलिसप्पति वा ? [उ०] हंता गोयमा! ते णं जीवा जमाहारेंति तं चिजंति, जं नो जाव-पलिसप्पति था।
९. प्र० तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा पन्नाति वा मणोति वा वईइ वा 'अम्हे णं आहारमाहारेभो' ? [उ.] णो तिणटे समढे, आहारेंति पुण ते।
१०. [प्र.] तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाइ वा जाव-वईति वा 'अम्हे णं इट्टाणिट्टे फासे य पडिसंवेदेमो? [उ. णो तिणढे समढे, पडिसंवेदेति पुण ते ।
११. [प्र.] ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइजंति, मुसावाए, अदिना०, जाव-मिच्छादसणसल्ले उवक्खा
शानदार.
५ गोगदार.
६ उपयोग.
४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते (पृथिवीकायिक) जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी नथी, पण अज्ञानी छे, अने तेओने अवश्य बे अज्ञान होय छे. ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान.
५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते पृथिवीकायिक जीवो मनोयोगी, वचनयोगी के काययोगी छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ मनयोगी नथी, वचनयोगी नथी, पण काययोगवाळा छे.
६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवोने साकार-ज्ञानोपयोग होय छे के निराकार-दर्शनोपयोग उपयोग होय छे ! [उ०] हे गौतम! तेओने साकार उपयोग पण होय छे अने निराकार पण होय छे.'
७. [प्र०] हे भगवन्! ते (पृथिवीकायिक) जीवो केवो आहार करे छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ द्रव्यथी अनंत प्रदेशवाळां पुद्ग- लोनो आहार करे छे-इत्यादि बधुं प्रिज्ञापनासूत्रना प्रथम आहारोदेशका कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत्-'सर्व आत्मप्रदेश वडे आहार ग्रहण करे छे.
८. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो जे आहार करे छे तेनो चय थाय छे अने जेनो आहार नथी करता तेनो चय नथीं थतो, तथा जे आहारनो चय थएलो होय छे ते आहार [असार भागरूपे] बहार नीकळे छे अने [साररूपे] शरीर-इन्द्रियपणे परिणमे छे ! [उ०] हे गौतम! ते जीवो जेनो आहार करे छे तेनो तेने चय-संग्रह थाय छे अने जेनो आहार नथी करता तेनो चय थतो नथी. यावत्ते आहार शरीर-इन्द्रियपणे परिणत थाय छे.
किमाहार.
९. [प्र०] हे भगवन्! ते जीवोने 'अमे आहार करीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अने वचन छे? [उ०] ए अर्थ यथार्थ नथी. अर्थात् ते जीवोने 'अमे आहार करीए छीए' एवी संज्ञा वगेरे होता नथी, तो पण तेओ आहार तो करे छे.
१०. [प्र०] हे भगवन्! ते जीवोने 'अमे इष्ट के अनिष्ट स्पर्शने अनुभवीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अने वचन छे? [उ०] ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी, तो पण एओ तेनो अनुभव तो करे छे.
११. [प्र०] हे भगवन् ! ते पृथिवीकायिक जीवो प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद, अदत्तादान, यावत्-मिथ्यादर्शन शल्यमां ८ प्राणातियताररहेला एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ प्राणातिपातमा रहेला छे, यावत्-मिध्यादर्शनशल्यमां पण रहेला छे एम कहेबाय छे, ते मास्थिति.
७+क्षेत्रथी असंख्यात प्रदेशमा रहेला, काळथी जघन्य मध्यम के उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा अने भावथी वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळा पुद्गलस्कधोनो आहार करे छे. जुओ प्रज्ञा० पद २८ उ०१५० ४९८-५११ ११ पृथिवीकायिकादि जीवोने वचनादिनो अभाव छतां तेओ मृषावादादिमा रहेला कहेवाय छे, ते मृपावादादिनी अविरतिने आश्रयी जाणवू.-टीका.
११ भ० सू०
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