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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १८.-उद्देशक .. ६.प्र०ा बेइंदिया णं पुच्छा।[उ०] गोयमा। जहन्नपदे कडजुम्मा, उकोसपदे दावरजुम्मा, अजहन्नमणुकोसपदे रियं फडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा । एवं जाव-चतुरिंदिया । सेसा एगिदिया जहा बेंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव-वेमाणिया जहा नेरइया । सिद्धा जहा वणस्सइकाइया।
७.प्र०] इत्थीओ णं भंते ! किं कडजुम्मा० [उ०] गोयमा! जहन्नपदे कडजुम्माओ, उक्कोसपदे कडजुम्माभो, अजहन्नमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्माओ, जाव-सिय कलियोगाओ, एवं असुरकुमारित्थीओ वि जाव-थणियकुमारइत्थीयो। एवं तिरिक्खजोणियइत्थीओ, एवं मणुसित्थीओ, एवं जाव-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियदेवित्थीओ।
८. प्रा जावतिया णं भंते ! वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीवा ? [उ०] हंता गोयमा ! जावतिया वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीवा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।।
अट्ठारसमे सए चउत्थो उद्देसो समतो। ६. [प्र०] हे भगवन् ! बेइंद्रियो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओ जघन्यपदनी अपेक्षाए कृतयुग्म अने उत्कृष्टपदे द्वापरयुग्म, मध्यमपदे कदाच कृतयुग्म अने उत्कृष्टपदे द्वापरयुग्म तथा मध्यमपदे कदाच कृतयुग्म अने यावत्-कदाच कल्योजरूप होय. ए प्रमाणे यावत्-चरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवु. बाकीना एकेंद्रियो, बेइंदियोनी पेठे जाणवा. पंचेंद्रियतियंचो अने यावत्-वैमानिको नैरयिकोनी पेठे समजवा. अने *सिद्धो वनस्पतिकायिकोनी पेठे जाणवा.
७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं स्त्रीओ कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ जघन्यपदे कृतयुग्म छे, उत्कृष्टपदे पण कृतयुग्म छे, अने मध्यम पदे कदाच कृतयुग्म अने कदाच कल्योजरूप होय छे. ए प्रमाणे असुरकुमारनी यावत्-स्तनितकुमारनी स्त्रीओ होय छे. तियंचयोनिकस्त्रीओ, मनुष्यस्त्रीओ यावत्-वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकदेवनी स्त्रीओ पण एमज जाणवी.
८. [प्र०] हे भगवन् ! जेटला अल्प आयुषवाळा अिंधक वह्निजीवो छे तेटला उत्कृष्ट आयुषवाला अंधक वहि जीवो छ । [उ०] हे गौतम ! हा, जेटला अल्प आयुषवाळा अंधक वहि जीवो छे तेटला उत्कृष्ट आयुषवाळा अंधक वह्नि जीवो छे. हे 'भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'.
अढारमा शतकमां चतुर्थ उद्देशक समाप्त.
पंचमो उद्देसो. १. [प्र०] दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना, तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिरूवे, एगे असुरकुमारे देवे से गं नो पासादीए-नो दरिसणिज्जे, नो अभिरुवे नो पडिरूवे, से कहमेयं भंते ! एवं ? [उ०] गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-घेउधियसरीरा य अपेडबियसरीरा य; तत्थ गंजे से वेउवियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए, नाव-पडिरूवे, तत्थ णं जे से अवेउधियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए जाव-नो पडिरूवे [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-तत्थ गंजे से उचियसरीरे तं चेव जाव-पडिरूवे ? [उ०] गोयमा ! से जहानामए-इह मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे अलंकिय-विभू
भयूषित असुरकु- मार नगेरे देवो.
पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! एक असुरकुमारावासमां वे असुरकुमारो असुरकुमारदेवपणे उत्पन्न थया. तेमांनो एक असुरकुमार देव प्रसलता उत्पन्न करनार, दर्शनीय, सुंदर अने मनोहर छे, अने बीजो असुरकुमार देव प्रसन्नता उत्पन्न करनार, दर्शनीय, सुंदर अने मनोहर नथी, तो हे भगवन् ! एम होवानुं शुं कारण ! [उ०] हे गौतम ! असुरकुमार देवो वे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-वैक्रिय-विभूषित शरीरवाळा अने अवैक्रिय-अविभूषितशरीरवाळा. तेमां जे असुरकुमार देव विभूषित शरीरवाळो छे ते प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने मनोहर छे, अने जे असुरकुमार देव अविभूषित शरीरवाळो छे ते प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने मनोहर. नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शा
* सिद्धोमां वनस्पतिकायिकोनी पेठे जघन्य अने उत्कृष्ट पद नथी, कारण के तेभोनी संख्या वधती जती होवाथी तेओ अनियत परिमाण रूपे होय छे.
41 टीकाकार 'अंधक-अंहिप, वृक्ष; तेने आश्रयी रहेलो वहि-बादर अग्निकायिक जीयो' आवो अर्थ करें छे, वीजा आचार्यो 'अन्धक-सूक्ष्मनामकर्मना उदयथी अप्रकाशक-प्रकाश नहि करनार अग्नि, अर्थात् सूक्ष्मअग्निकायिक जीवो' आवो अर्थ करे छे.
११ देवशय्यामा प्रथम, देव खाभाविक-अरंकार वगेरे विभूषा रहित उपजे छ, त्यार पछी अनुक्रमे अलंकार पहेरी विभूषित थाय छे.
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