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२४. उद्देश २१.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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४. [प्र० ] पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तर से णं भंते ! केवति० १ [अ०] गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुट्ठितिर उकोसेणं पुचकोडीबाउर उपबजिना ।
५. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा ० १ [उ०] एवं जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्ज्रमाणस्स पुढविक्काइयस्स व या सा चैव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियन्वा णवसु वि' गमपसु । नवरं ततिय-छट्ट-णवमेसु गमपसु परिमाणं जहनेणं को वा दो वा तिनि बा, उद्योसेणं संखेजा उववजंति । जाहे अप्पणा जहस्रफालद्वितियो भवति ताहे पढमगमए बजसाणा सत्था व अप्पसत्था वि, वितियगमए अप्पसत्था, ततियगमए पसत्था भवंति, सेसं तं चैव निरवसेसं ९ ।
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६. [ प्र० ] जइ आउक्काइए० १ [उ०] एवं आउकाइयाण वि । एवं वणस्सइकाइयाण वि । एवं जाव - चउरिंदियाण वि । असन्निपचिदियतिरिक्खजोणिय- सन्निपांच दियतिरिक्खजोणिय-असन्निमणुस्स - सन्निमणुस्सा य एते सधे वि जहा पंचिदियतिरिक्सजोणियउद्देसर तहेव माणिवंज्ञा नवरं एवाणि चैव परिमाण अज्झवसाण णाणताणि जाणिला पुढविकायस्स एत्थ चेव उद्देसए भणियाणि । सेसं तहेव निरवससं ।
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७. [अ०] देवेति उपवनंति किं भणवासिदेवेदितो उचदजंति, वाणमंतर०, जोइसिय० वेमाणियदेवेहिंतो उपवनंति [४०] गोषमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि०, जाय वैमाणियदेवेहिंतो वि उचयति ।
८. [प्र० ] जइ भवणवासि० कि असुर०, जाव थणिप० १ [४०] गोषमा ! असुरकुमार०, जाव - थनिय० ।
९. [] असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तर से णं भंते ! केवति० १ [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं मासपुद्दतङ्कितिपसु उकोसेणं पुधकोडिमाउसु उबवजेला एवं जशेव पंचिदियतिरिक्खजोणिउद्देसर बताया सचेव पत्थ षि माणिक्षा नवरं जहा तर्हि जहनगं अंतोमुडुतद्वितिरसु तहा इहं मासपुहतद्विरपसु परिमाणं जहणं एको वा दो वा
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8. [ प्र० ] हे भगवन् | जे पृथिवीकायिक, मनुष्योमां उत्पन्न पचाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितियाळा मनुष्यमां उत्पन्न धाय ? [30] हे गौतम! ते जधन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटीनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न याय
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५. [ प्र० ] हे भगवन् ! ते ( पृथिवीकायिको ) एक समये केटला उत्पन्न धाय - इत्यादि पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकमां उत्पन्ना पृथिवीकायिकनी पेठे अहीं मनुष्यमां उत्पन्न थनार पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता नवे गमकोमां कहेवी. विशेष एके श्रीजा, छट्टा, अने नवमा गमकर्मा परिमाण जघन्य एक, बे के त्रण भने उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय छे. ज्यारे ( पृथिवीकायिक) पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो होय त्यारे [ मध्यमना त्राण गमकमांना ] “प्रथम गमकमा अध्यवसायो प्रशस्त अने अप्रशस्त बन्ने प्रकारना होय छे. बीजा गमकमां अप्रशस्त अने श्रीजा गमकमा प्रशस्त होय छे. बाकी वधुं पूर्वे का प्रमाणे जाग.
ष्यर्मा उपपात.
६. [प्र० ] हे भगवन्! जो तेओ (मनुष्यो ) अकाधिकोषी भावी उत्पन्न थाय तो अकायिकोने तथा वनस्पतिकायिकोने पूर्वोक माविको मनु वक्तव्यता कहेगी. ए प्रमाणे यावत्- चउरिन्द्रियो सुची जाण असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियैचयोनिक, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, असंज्ञी मनुष्य अने संज्ञी मनुष्य ए बधाने पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकउदेशकमां कह्या प्रमाणे कहेवुं. परन्तु विशेष ए के बधाने परिमाण अने अध्यवसायोनी 'भिन्नता पृथिवीकायिक आज उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. बाकी बधुं पूर्वोक्त जाणवुं.
मनुष्यम उपपात.
७. [प्र० ] हे भगवन् ! जो तेओ ( मनुष्यो ) देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं भवनवासी, व्यानव्यन्तर, ज्योतिषिक के वैमानिक देवोनो मनुष्योम देवोथी आवी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ भवनवासी देवोथी, यावत् - वैमानिक देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय.
उपपात.
८. [ प्र० ] हे भगवन् ! जो ते भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं असुरकुमारोधी आवी उत्पन्न थाय के यावत् स्तनित- भवनवासी देवोनो कुमारोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ असुरकुमारोथी, यावत् - स्तनितकुमारोथी पण आवी उत्पन्न था. मनुष्यमां उपपात.
९. [प्र० ] हे भगवन् ! असुरकुमारदेव, जे मनुष्यमां उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला काळनी स्थितिवाळा मनुष्यमां उत्पन्न थाय ! [४०] हे गौतम से जधन्य मापृथक्त्व अने उत्कृष्ट पूर्वफोटीनी स्थितियाला मनुष्यम उत्पन्न धाय. ए प्रमाणे पंचेन्द्रिय तिर्पचयोगिकना उदेशकर्मा से वक्तव्यता कही छे से वक्तव्यता अहिं पण कड़ेगी. पण विशेष ए के जेम को जघन्य अन्तर्मुहुर्तनी स्थितियाच्या तिपंचमां उत्पन्न वानुं क तेम अहीं मासषक्त्वानी स्थितियाळामां उत्पन्न पचानुं करे परिमाणजयन्य एक, वे के त्रण अने अनुष्ट संख्याता उत्पन्न पाप है. बाकी वधुं पूर्वे कथा प्रमाणे जाण. ए प्रमाणे यावत्-ईशानदेवो सुची वक्तव्यता कहेवी. ए ज उपर कया
५ * मध्यमन्त्रिकना प्रथम गमकमां जघन्य • पृथिवीकायिकनो मनुष्यमां औधिक उपपात थाय छे. ज्यारे पृथिवीकायिक उ० मनुष्यमां उत्पन्न थवानो होय त्यारे तेना अध्यवसायो प्रशस्त होय छे, जघन्य मनुष्यमां उत्पन्न थवानो होय त्यारे अप्रशस्त अध्यवसायो होय छे. मध्यत्रिकना बीजा गमकमां जघन्य • पृथिवीकायिक जघन्य मनुष्यम उपजवानो होवाथी तेना अध्यवसायो अप्रशस्त होय छे, कारण के प्रशस्त अध्यवसायोथी जघन्य स्थितिपणे उपपात थतो नथी. श्रीजा गमकमां जघन्य० पृथिवीकायिक उ० मनुष्यमां उपजतो होवाथी तेना प्रशस्त अध्यवसायो होय छे. टीका.
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असुरकुमारादि देवोनो मनुष्यमा उपपात.
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