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________________ २३ आत्मभाववक्तव्यतानो जे जुदो अर्थ अहीं बताव्यो छे ते करतां पण बीजो सारो अर्थ अहीं बंध बेसे एवो कोई बतावशे तो जरूर तेनुं ग्रहण थशे. 'अहंमानिता' नो जे अर्थ बताव्यो छे ते अहीं भगवान महावीरना मुखमां शोभतो नयी माटे ज ए शब्दनो बीजो कोई भाव शोधको जरूर शोधवो जोईए. भगवान महावीरना मुखमां वाक्य छे ते आ प्रमाणे छेः "अहं पिणं गोयमा ! एवमाइक्खामि, भासामि, पनवेमि, परूवेमि- पुव्वतवेणं देवा देवलोएस उववजन्ति, पुव्वसंजमेणं देवा देवलोपसु उववअंति, कम्मियाए देवा देवलोएसु उववअंति, संगियाए देवा देवलोएसु उववज्रंति, पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चे णं एसमट्ठे, णो चैव णं आयभाववत्तव्ययाए." [ अनुवादः - ( भगवान महावीर कहे छे के ) हे गौतम! हुं पण एम कहुं हुं, भाखुं खुं, जणायुं हुं, अने प्ररूपुं हुं के पूर्वना तपथी देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. पूर्वना संयमथी देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. कर्मीपणाने लीघे देवो देवलोकमां उत्पन्न थाय छे अने संगीपणाने लीघे देवो देवलोकम उत्पन्न थाय छे. [ अर्थात् ] हे आर्य । पूर्वं तप, पूर्व संयम, कमपणुं अने संगीपणुं ए कारणोथी देवो देवलोकमा उत्पन्न थाय छे ए हकीकत साची छे. आत्मभाववतव्यतानी अपेक्षाए एम थतुं नथी. " ] (३) गोशालकना १५ मा शतकमां भगवान महावीर माटे सिंहअनगारने जे आहार लाववानुं कहेवामां आल्युं छे ते प्रसंगना बेण शब्दो घणा विवादास्पद छे, कवोयसरीरा - कपोतशरीर मज्जारकडये - मार्जारकृतक कुक्कुडमंसर - कुक्कुटमांसक - आ त्रण शब्दना अर्थमा विशेष गोटाळो मालूम पडे छे. कोइ टीकाकारो अहिं कपोतनो अर्थ 'कपोत पक्षी' मार्जारनो अर्थ प्रसिद्ध 'मार्जार' अने कुक्कुटनो अर्थ प्रसिद्ध ‘कूकडो' कहे छे. अने बीजा टीकाकार ए शब्दनो लाक्षणिक अर्थ करे छे. आमां कयो अर्थ बराबर छे ते कही शकातुं नथी. शोधकोए ए विषे अवश्य विचार करवो घटे. (४) बीशमां शतकना बीजा उद्देशमां धर्मास्तिकायनां अभिवचनो-पर्याय शब्दो - केटलां छे ? एना उत्तरमां भगवाने प्राणातिपातविरमण-अहिंसा, मृषावादविरमण - सत्य वगेरे सद्गुणवाचक शब्दोने जणावेला छे अने ए ज प्रमाणे अधर्मास्तिकायनां अभिवचनो जणावतां प्राणातिपात-हिंसा, मृषावाद-असत्य वगेरे दुर्गुण वाचक शब्दोने सूचवेला छे. मूळमां आवेली आ हकीकत जे रीते धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायनुं स्वरूप मानवामां आवे छे तेनी साथे जरापण बंध बेसती नथी आवती. टीकाकारे पण आ हकीकतने स्पष्ट करवा कशुं लख् नथी एटले आ मूळनी संगति धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना स्वरूपनी मान्यता साथे केवी रीते करवी ए प्रश्न उभो ज रहे छे. आ उपरांत आ सूत्रमां एवां केटलांए विवादास्पद स्थळो छे जे बधां अहीं लखी न शकाय. अहीं तो मात्र ए बाबतनां थोडा उदा हरणो ज आपलां छे. (६) व्याख्याप्रज्ञप्तिनी टीका आ सूत्रना मूळ श्लोकोनी संख्या लगभग १५८०० जेटली छे अने तेनी आ टीकाना लोकोनी संख्या १८६१६ छे एटले खरी ते आ टीका एक प्रकारना टिप्पणरूप छे. टीकाकार पोते मात्र शब्दनो अर्थ करीने चालता थाय छे. जे स्थळे खूब ऊहापोह करीने समजाववानुं होय छे त्यां पण तेओ भाग्येज कई पण रखे छे. आनुं कारण मात्र एक ज जणाय छे के टीकाकारना जमानामा आगमना स्वाध्यायनी परंपरा लगभग नष्ट थई गया जेवी हती. वळी टीकाकारनी पूर्वे थई गएला टीकाचूर्णी वगेरे आ सूत्रने समजवानां जे साधनो हतां तेमां पण जोइए तेवो अने तेटलो प्रकाश न हतो एम आ टीकाकार पोते जं जणावे छे. आ टीकाकार पोते अनेक ठेकाणे लखे छे के आगमनी परंपरा नष्ट थवाने लीधे अने आगमना एवा सारा जाणकारना अभावने ली आ टीका संशयग्रस्त मनथी करेली छे. वळी वाचनामा केटलाए पाठभेदो होवाने लीधे अर्थ करवामां घणी मुंझवण उभी थाय छे. आ सूत्रमां दरेक शतकने अन्ते आपेला टीकाना लोकोमां टीकाकारे आ प्रकारनी पोतानी मुशीबतो बतावेली छे. छतां तेमणे आ सूत्र उपर करेला प्रयत्नथी आपणे कांईक समजी शकीए छीए अने सूत्रनो मूळ पाठ ठीक सचवाई रहेलो छे तेथी टीकाकारना आपणे घणा ऋणी छीए ए भुलवुन जोइए. १ स्थानांगसूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, अने प्रस्तुत सूत्रनी टीकाना अंतना श्लोको. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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