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________________ शतक १६. - उद्देशक. १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३ ६. [प्र०] नेरइप णं भंते! किं अधिकरणी अधिकरणं ? [30] गोयमा ! अधिकरणी वि अधिकरणं पि । एवं जहेव जीवे सहेव ने वि एवं निरंतरं जाव वैमाणिए । 1 ७. [प्र० ] जीचे णं भंते! किं साहिकरणी, निरहिकरणी ? [30] गोयमा ! साहिकरणी, नो निरद्दिकरणी [50] से hi - पुच्छा [अ०] गोयमा ! अविरति पडुञ्च, से तेणट्टेणं जाव-नो निरहिकरणी । एवं जाव - वेमाणिए । ८. [प्र० ] जीवे णं भंते! किं आयाहिकरणी, पराहिकरणी, तदुभयाहिकरणी १ [उ०] गोयमा ! आयाहिकरणी वि पराहिकरणी वि, तदुभयाद्दिकरणी वि। [50] से केणट्टेणं भंते! एवं दुध-च-तदुभयाहिकरणी बि' [४०] गोवमा ! अविरति पहुच से तेणद्वेणं जाव- तदुभवाहिकरणी वि एवं जाव-वेमाणिए । ९. [०] जीवाणं भंते! अधिकरणे किं आयप्पओगनिवत्तिए, परप्पयोगनिष्वत्तिए, तदुभयप्पयोगनिष्वत्तिए १ [30] गोयमा ! आयप्ययोगनिष्ठत्तिय वि, परप्ययोगनिष्ठत्तिए वि, तदुभयप्ययोगनिवत्तिय वि [प्र०] से केणद्वेषणं भंते! एवं बुवाई [४०] गोयमा ! अविरति पहुच से तेण जाय तदुभयप्पयोगनिष्ठत्तिए वि एवं जाय बेमाणियाणं । i 2 १०. [प्र० ] ते सरीरगा पण्णत्ता ? [४०] गोषमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, संजदा-१ ओरालिए, आप ५ कम्मर ११. [प्र०] कति णं भंते! [दिया पण्णता ? [४०] गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, संजहार सोदिप, जाव ५ फार्सिदिए । - १२. [अ०] कतिविद्दे णं भंते जोए पष्णते ? [४०] गोयमा ! तिविहे जोए पष्णते, तंजा-१ मणजोष, २ ३ कायजोए । जोप ए ६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिक अधिकरणी छे के अधिकरण छे ! [उ०] हे गौतम! नैरयिक अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे, जैम जीव संबंचे कहां रोग गैरविक संबंचे पण जाणवु, अने ए प्रमाणे यावत्- निरंतर वैमानिक सुभीना जीव संबन्धे पण जाई. ७. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीव साधिकरणी छे के निरधिकरणी छे ! [उ०] हे गौतम! जीव #साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी [0] हे भगवन् ! प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव साधिकरणी छे अने निरधिकरणी नथी' ! [उ०] हे गौतम! अविर - तिने आश्रयी, अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी जीवो साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु. ८. [ प्र० ] है भगवन्! शुं जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छे के तदुभयाधिकरणी छे। [30] हे गौतम जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छे अने तदुभयाधिकरणी छे. [प्र० ] हे भगवन् । ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव आत्माधिकरणी, पराधिकरणी अने तदुभवाधिकरणी पण छे' [४०] हे गौतम! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी जीव यावत्निरधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत् - वैमानिको सुधी जाणवुं. ९. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगथी थाय छे, परप्रयोगथी थाय छे के तदुभयप्रयोगधी थाय छे ! [उ०] हे गौतम! जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगथी, परप्रयोगथी अने तदुभयप्रयोगथी पण थाय छे. [प्र० ] हे भगवन् । ते ए प्रमाणे आप शा संधी कहो छो के जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगयी, परप्रयोगथी अने तदुभयप्रयोगथी थाय छे [30] हे गौतम! अविरतिने पांत्र्यी, अर्थात् जीवोनुं अधिकरण अविरतिरूप हेतुथी यावत्-तदुभयप्रयोगथी थाय छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवुं. १०. [प्र०] हे भगवन् ! शरीरो केटला कलां छे ? [उ०] हे गौतम ! शरीरो पांच कह्यां छे, ते आ प्रमाणे- १ औदारिक, यावत् ५ कार्मण. १२. [प्र०] हे भगवन् ! योगना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! योगना त्रण प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणे१ मनयोग, २ वचनयोग अने ३ काययोग.. शरीरादि अधिकरण सहित जीव ते साधिकरणी, (अहिं समासार्थे इन् प्रत्यय छे) केमके संसारी जीवने शरीर इन्द्रियादिक रूप अन्तर अधिकरण सो हमेशां साथेज होय छे. शस्त्रादिक बाह्य अधिकरण नियतपणे साधे होता नथी, पण तेनो अविरतिरूप ममत्वभाव नियत सहचारी होवाथी शस्त्रादि बाह्य अधिकरणमी अपेक्षा साधकर कवास, अने तेज रात मी विनाअभावी सारिणी नवी.टी. जे कृष्यादि आरंभमांस करे ते आत्माधिकरणी अन्यनी पासे करावे ते परारी अने सयं करे ने अग्यानी पासे पण करावे ते उमवाकिरणी. टीका. 'आत्मप्रयोगनिर्वर्तित एटले हिंसादि पाप कार्यमां प्रवृत्त मन आदिना व्यापारथी उत्पन्न थएलं अधिकरण, अन्यने हिंसादि पाप कार्य मां प्रवर्तयया बडे उत्पन्न थल वचनादि अधिकरण ते परप्रयोग निर्वर्तित अने आत्मद्वारा तथा अन्यने प्रवर्तन कराववा द्वारा उत्पन्न थएल ते तदुभयप्रयोग निर्वर्तित अधिकरण कामराजे जीने वचनादि व्यापार नची मने जे परोपादि अधिकरण देतं ते अविरतिभावने आयी जाणुं, टीका, ११. [प्र० ] हे भगवन् ! इंद्रियो केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! इंद्रियो पांच कही छे, ते आ प्रमाणे- १ श्रोत्रेंद्रिय, यावत् - इन्द्रियोना प्रकार. ५ स्पर्शेन्द्रिय Jain Education International आश्रयी अधिकरणी नैरविकादि जीवो ने अधिक जीव साधिकरणी के निरधिकरणी ? For Private & Personal Use Only धर जीव णी, पराधिकरणी के तदुभयाधिकरणी १ शामी थाय छे ? जीवोनुं अधिकरण अधिकरणनो हेतु. शरीरना प्रकार. योगना प्रकार. www.jainelibrary.org/
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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