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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १६.-उद्देशक १. अपुढे उद्दाइ । [40] से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ, असरीरी निक्खमा ? [उ०] एवं जहा खंदए, जाव-से तेणेद्वेणं नो असरीरी निक्खमइ' ।
२. [प्र० गालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं कालं संचिट्ठति ? [उ०] गोयमा! जहरेणं अंतोमहतं, उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई । अन्ने वि तत्थ वाउयाए वकमति, न विणा वाउयाएणं अगणिकाए उजलति ।।
३.[प्र०] पुरिसे गं भंते ! अयं अयकोटुंसि अयोमएणं संडासएणं उविहमाणे वा पधिहमाणे वा कतिकिरिए।[उ.] गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटुंसि अयोमपणं संडासपणं उविहिति वा पविहिति वा, तावं च णं से पुरिसे कातियाए जाव-पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहितो अए निष्पत्तिए, अयकोढे निष्पत्तिए, संडासए निष्पत्तिए, इंगाला निष्वत्तिया, इंगालकहणी निवत्तिया, भत्था निष्वत्तिया, ते विणं जीवा काइयाए जावपंचहि किरियाहिं पुट्ठा।
४. [प्र०] पुरिसे णं मंते ! अयं अयकोटाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिसि उक्खिधमाणे वा निपिखव-' माणे वा कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटाओ आव-निक्खिवह वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-पाणाइवायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुढे, जोर्स पिणं जीवाणं सरीरोहितो अयो निष्वत्तिए, संडासए निष्पत्तिए, चम्मेढे निवत्तिए, मुट्ठिए निष्पत्तिए, अधिकरणी निवत्तिया, अधिकरणिखोडी णिवत्तिया, उदगदोणी निष्पत्तिया, अधिकरणसाला निष्पत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ।
५. [प्र०] जीवे णं भंते! कि अधिकरणी, अधिकरणं? [उ०] गोयमा! जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि। [प्र०] से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ-'जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि? [उ०] गोयमा! अविरतिं पडुच, से तेण?णं जाव
अहिकरणं पि। बाबुकापर्नु शरीरस- भवान्तरे जाय के शरीररहित जाय ! [उ०] हे गौतम! आ बाबतमा जेम "स्कंदकना उद्देशका कमु छे, ते प्रमाणे यावत्-'शरीर
र विना रहित थईने जतो नथी' त्यां सुधी अहिं जाणवू. भवान्तर गमन. सगढीमा अनिकाय २. [प्र०] हे भगवन् ! सगडीमां अग्निकाय केटला काळ सुधी [सचेतन ] रहे ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहर्त सुधी केटष्ण काळ भी अने उत्कृष्टधी त्रण रात्रि दिवस सुधी रहे. वळी त्या अन्य वायुकायिक जीवो पण उत्पन्न थाय छे, कारण के वायुकाय विना अग्निकाय
प्रज्वलित यतो नथी. भट्टीमा सांडसा बती ३. [प्र०] हे भगवन् ! लोढाने तपाववानी भट्ठीमां लोढाना सांडसा वडे लोढाने ऊंचुं के नीचुं करनार पुरुषने केटली क्रियाओ कोर्दू करनार लागे ! [उ०] हे गौतम ! ज्यां सुधी ते पुरुष लोढाने तपाववानी भट्ठीमां लोढाना सांडसा बडे लोढाने ऊंचु के नीचे करे छे त्यां सुधी पुरुषने क्रियाभो.
ते पुरुषने कायिकीथी मांडीने प्राणातिपात क्रिया सुधीनी पांच क्रियाओ लागे छे. वळी जे जीवोना शरीरथी लो बन्युं छे, लोढानी भट्ठी बनी है, सांडसो बन्यो छे, अंगारा बन्या छे, अंगाराकर्षणी (अंगारा काढवानो सळीयो) बनी छे अने धमण बनी छे ते बधा
जीवोने पण कायिकी यावत्-पांच क्रियाओ लागे छे. लोदाने तपावी . प्र०] हे भगवन् ! लोढानी भट्ठीमांथी लोढाना सांडसा वडे लोढाने लई तेने एरण उपर लेता अने मूकता पुरुषने केट"
मूकनारने क्रियाओ लागे ? [उ०] हे गौतम ! ते पुरुष ज्यां सुधी लोढानी भट्ठीमाथी लोढाने लई यावत्-एरण उपर मूके छे, त्यां सुधी ते पुरुष क्रियाभो.
कायिकी यावत्-प्राणातिपात सुधीनी पांच क्रियाओ लागे छे. वळी जे जीवोना शरीरथी लोदं बन्युं छे, सांडसो बन्यो छे, चर्मेष्टक-धण बन्यो छे, नानो हथोडो बन्यो छे, एरण बनी छे, एरण खोडवानुं लाकडु बन्युं छे, गरम लोढाने ठारवानी पाणीनी द्रोणी (कुंडी) बनी
छे अने अधिकरणशाला (लोहारनी कोड) बनी छे ते जीवोने पण कायिकी यावत्-पांच क्रियाओ लागे छे. अभिकरणी ने
अ ५ . [प्र०] हे भगवन् ! जीव अधिकरणी-अधिकरणवाळो छे के अधिकरण छे ! [उ०] हे गौतम ! जीव अधिकरणी पण छे धिकरण. जीवने अ- अने अधिकरण पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुधी कहो छो के 'जीव अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे ! धिकरणी अने अधिक रण कहेवा कारण. [उ०] हे गौतम ! 'अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अविरति रूप हेतुथी जीव अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे.
१* जीव तैजस अने कार्मण शरीरनी अपेक्षाए शरीरसहित भवान्तरे जाय छे अने अन्य औदारिकादि शरीरनी अपेक्षाए शरीररहित थईने जाय छे. जुओ-भग• खं० १ श० २ उ. १ पृ० २५६.
३ कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी अने प्राणातिपातिकी-ए पांच क्रियाओ शरीरद्वारा लागे छे.
५. अधिकरण एटळे हिंसादि पापकर्मना हेतुभूत वस्तु, तेना भांतरिक अने बाह्य बे भेद छे, तेमां शरीर अने इन्द्रियो भातरिक अधिकरण, भने कुहाडा, कोश, हल भने गाडा आदि परिग्रहात्मक वस्तुओ बाह्य अधिकरण रूपे अहिं विवक्षित छे, ते जेने होय ते जीव अधिकरणी कहेवाय छे, अने ते शरीरादि अधिकरणथी कथंचिद् अभिन्न होवाथी अधिकरण रूप पण छे, अर्थात् जीव अधिकरणी अने अधिकरण बन्नेरूपे कहेवाय छे.-टीका.
जे जीव विरतिवाळो होय तेने शरीरादि आंतर ने बाह्य परिग्रहात्मक वस्तुनो सद्भाव होवा छतां पण ममत्वना अभावथी ते अधिकरणी के अधिकरण कहेवातो नथी, परंतु जे जीव अविरतिवाळो होय छे तेने ममत्व होवाथी ते अधिकरणी भने अधिकरणाप कहेबाय छे. टीका.
सरी कोश, हल भाटले हिंसादि पापा की, पारितापनिकी
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