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शतक २०.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
११३ पच्छा उववजेजा ? [उ.] गोयमा ! पुर्वि वा उववजित्ता० एवं जहा सत्तरसमसए छठु से जाव-से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-पुष्टि वा जाव-उववजेजा' । नवरं तेहिं संपाउणणा, इमेहिं आहारो भन्नति, सेसं तं चेव।
२.प्र. पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-ईसीप-भाराए उववाएयचो।।
३. [40] पुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए वालुयप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहते, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे जाव-ईसीपब्भाराए, एवं एतेण कमेणं जाव-तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जावईसिपब्भाराए उववाएयचो।
४.प्रि०] पुढविक्काइए णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! पुर्वि उववजित्ता पच्छा आहारेजा, सेसं तं चेव जाव-से तेणट्टेणं जाव-णिक्खेवओ।
५. [प्र०] पुढविकाइए णं भंते! सोहम्मी-साणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए० ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-अहेसत्तमाए उववाएयच्यो । एवं सणंकुमारमाहिंदाणं बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समोहणित्ता पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए उववाएयवो, एवं बंभलोगस्स लंतगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं लंतगस्स महासुक्कस्स कप्पस्स य अंतरा समोहए, पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य कप्पस्स अंतरा पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाण य अंतरा पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं आणय-पाणयाणं आरण-अञ्चुयाण य कप्पाणं अंतरा पुणरवि जावअहेसत्तमाए, एवं आरण-चुयाणं गेवेजविमाणाण य अंतरा जाव-अहेसत्तमाए, एवं गेवेजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य अंतरा पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए, एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसीपम्भाराए य पुणरवि जाव-अहेसत्तमाए उववाएयत्रो ।
६.०] आउकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए. सेसं जहा पुढविकाइयस्स, जाव-से तेणटेणं । एवं पढम-दोच्चाणं अंतरा समोहए
शतकना छट्ठा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवी. यावत्-ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के-'ते पहेला उत्पन्न थईने पछी आहार करे, अथवा पहेला आहार करीने पंछी उत्पन्न थाय.' पण विशेष ए के, त्यां पृथिवीकायिको 'संप्राप्त करे-पुद्गलग्रहण करे' ए कथन छे अने अहिं 'आहार करे' एम कहेवार्नु छे. बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवू.
. २. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभापृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने ईशानकल्पमां पृथिवी कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते शुं पहेला उत्पन्न, थाय अने पछी आहार करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो.
३. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमां यावत्ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उत्पन्न थवाने योग्य होय-इत्यादि प्रश्न अने उत्तर पूर्ववत् जाणवो. ए प्रमाणे ए क्रमवडे यावत्-तमा अने अधःसप्तम (तमतमा ) पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घातपूर्वक पृथिवीकायिकनो सौधर्मकल्पमा यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उपपात कहेवो.
४. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक सौधर्म-ईशान अने सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने आ रत्नप्रभा. पृथिवीमा पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य होय ते शुं पहेलां उत्पन्न थईने पछी आहार करे के पहेला आहार करीने पछी उत्पन्न थाय ! [उ०] बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. यावत्-ते हेतुथी यावत्-एम कहेवाय छे-इत्यादि उपसंहार कहेवो.
५. प्रि०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक सौधर्म-ईशान अने सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पनी बच्चे मरणसमदघात करीने शर्कराप्रभा प्रथिवीमा पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ते प्रमाणे यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. एम सनत्कुमार-माहेन्द्र अने ब्रह्मलोक कल्पनी वच्चे मरणसमुद्घात पूर्वक फरीथी रत्नप्रभाथी मांडी यावत्-अधःसप्तम पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. एज रीते ब्रह्मलोक अने लांतककल्पनी बच्चे मरणसमुद्घात करी पुनः यावत्-अधःसप्तम नरक सुधी, एम लांतक अने महाशुक्र कल्पनी बच्चे, महाशुक्र अने सहस्रार कल्पनी वच्चे, सहस्रार अने आनत-प्राणतकल्पनी बच्चे, आनत-प्राणत अने आरणअच्युतकल्पनी वच्चे, आरण-अच्युत अने प्रैवेयकविमाननी वच्चे, अवेयकविमान अने अनुत्तरविमाननी वच्चे तथा अनुत्तरविमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करवा पूर्वक रत्नप्रभाथी आरंभी अधःसप्तम पृथिवी सुधी पृथिवीकायिकनो उपपात कहेवो.
६.प्र०] हे भगवन् ! जे अप्कायिक आ रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभा पृथिवीनी वच्चे मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा अप्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि बधु पृथिवीकायिकनी पेठे यावत्-ते हेतुथी यावत्-[ पूर्वे आहार करे अने] पछी पण उपजे त्यां सुधी कहे. ए
१५ भ० सू०
भकायिक.
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