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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १८.-उद्देशक ७.
८. [प्र.] बादरपरिणए गं भंते! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सिय एगधने, जाव-सिय पंचवने, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, जाव-सिय पंचरसे, सिय चउफासे, जाव-सिय मट्टफांसे पाते। 'सेवं भंते ! सेवं भंते चि।
अद्वारसमे सए छट्ठओ उद्देसो समत्तो। ८. [प्र०]-हे भगवन् ! बादर-स्थूलपरिणामवाळो अनंतप्रदेशिकस्कंध, केटला वर्णवाळो होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते कदाच एक वर्णवाळो, यावत्-कदाच पांच वर्णवाळो, कदाच एक गंधवाळो, कदाच वे गंधवाळो, कदाच एक रसवाळो, यावत्कदाच पांच रसवाळो अने कदाच चार स्पर्शवाळो, कदाच पांच स्पर्शवाळो, यावत्-कदा च आठ स्पर्शवाळो पण होय. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'.
अढारमा शतकमां षष्ठ उद्देशक समाप्त.
सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाघ-एवं वयासी-अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, जाप-परूवेंति-'एवं खलु केवली जफ्ताएसेणं आतिट्टे समाणे आहश्च दो भासाओ भासति, तं जहा-मोसं वा, सच्चामोसं वा, से कहमेयं भंते ! एवं [उ.] गोयमा! जणं ते अन्नउत्थिया जाव-जे ते पवमासु मिच्छं ते एवमाहंसुः अहं पुण गोयमा! एषमाइक्वामि ४-नो खलु केवली जपखाएसेणं आइस्सति, नो खलु केवली जक्खाएसेणं आतिढे समाणे आहष्य दो भासाओ भासति, तं जहा-मोसं वा सच्चामोसं वा, केवली णं असावजाओ अपरोवघाइयाओ आहच्च दो भासाओ भासति, तं जहा-सचं वा असञ्चामोसं था।
२. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! उवही पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा-कम्मोवही, सरीरोवही, बाहिरभंडमत्तोवगरणोवही।
३. [प्र०] नेरदयाणं भंते !-पुच्छा। [उ०] गोयमा! दुविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा-कम्मोवही य सरीरोषही य, सेसाणं तिविहे उवही एगिदियवजाणं जाव-वेमाणियाणं। एगिदियाणं दुविहे उवही पक्षते, तं जहा-कम्मोवही य सरीरोवही य ।
४. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! उवही पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! तिविहे उवही पनत्ते, तंजहा-सञ्चित्ते, अचित्ते, मीसए, एवं नेरायाण वि, एवं निरवसेसं नाव-वेमाणियाणं ।
सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! अन्यतीथिको आ प्रमाणे कहे छे, यावत्प्ररूपे छे के, ए प्रमाणे खरेखर केवली यक्षना आवेशथी आविष्ट थईने कदाच बे भाषा बोले छे, ते आ प्रमाणे-मृषाभाषा अने सत्यमृषा-मिश्र भाषा.' तो हे भगवन् ! ए प्रमाणे केम होइ शके ! [उ०] हे गौतम ! जे अन्यतीर्थिकोए यावत्-एम जे कयुं छे, तेओए ते असत्य कयुं छे. हे गौतम ! हुं एम कहुं छु, यावत्-प्ररूपे छु के, ए प्रमाणे खरेखर केवलज्ञानी यक्षना आवेशथी आविष्ट थता नथी, अने यक्षना आवेशथी आविष्ट थईने केवळी बे भाषा-असत्य अने सत्यासत्य-मिश्रभाषा बोलता पण नथी. केवली तो पापव्यापार विनानी अने बीजानो उपघात न करे तेवी बे भाषा कदाच बोले छे. ते बे भाषाओ आ प्रमाणे, सत्य अने असल्यामृषा-सत्य पण नहि अने असत्य पण नहि एवी भाषा.
२. [प्र०] हे भगवन् ! उपधि केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! *उपधि त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ कर्मोपधि, २ शरीरोपधि, ३ बाह्यभांडमात्रोपकरणोपधि.
३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो उपधि कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम! तेओने बे प्रकारनो उपधि कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-कर्मरूप उपधि अने शरीररूप उपधि. एकेंद्रिय जीवो सिवाय बधा जीवोने यावत्-वैमानिको सुधी त्रणे प्रकारनो उपधि होय छे. एकेंद्रिय जीवोने कर्मरूप अने शरीररूप एम बे प्रकारनो उपधि होय छे.
.. [प्र०] हे भगवन् ! उपधि केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] हे गौतम ! उपधि त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ सचित्त, २ अचित्त अने ३ मिश्र-सचित्ताचित्त. ए प्रमाणे निरयिकोथी मांडी यावत्-वैमानिको सुची (चोवीस दंडकने आश्रयी) त्रणे प्रकारनो उपधि जाणवो.
यक्षाविष्ट केवली सस्य के असत्य बोले ते संबन्धे अन्यतीथिंकन
उपधिना प्रण प्रकार.
उपथिना धीजा श्रण प्रकार
२. जीवननिर्वाहमा उपयोगी शरीर वस्त्रादिने उपधि कहे छे, तेना बे प्रकार छ-आन्तर अने बाह्य. कर्म अने शरीर आन्तर उपधि छे अने वनपात्रादि वस्तुओ बाह्य उपधि छे.
४ + नैरयिकोथी मांडी वैमानिक सुधी चोवीसे दंडके त्रणे प्रकारनो उपधि जाणवो. तेमा नारकोने सचित्त उपधि शरीर, अचित्त उपधि उत्पत्तिस्थान अने श्वासोच्छासादि युक्त सचेतनाचेतनरूप मिश्र उपधि कहेवाय ठे-टीका.
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