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२१२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २५.-उद्देशक ३. . ४६. [प्र०] अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय संखेजाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ।
४७: [प्र०] पाईणपडीणाययाओ गं भंते ! अलोया०-पुच्छा। [३०] गोयमा ! नो संखेजाओ, नो असंखेजाओ, अणंताओ । एवं दाहिणुत्तरायताओ वि।
४८. [प्र०] उडमहायताओ-पुच्छा । [२०] गोयमा ! सिय संखेजाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ।
४९. [प्र०] सेढीओ भंते ! किं साइयाओ सपजवसियाओ १, साईयाओ अपजवसियाओ २, अणादीयाओ सपजवसियाओ ३, अणादीयाओ अपजवसियाओ ४१ [उ.] गोयमा! नो सादीयाओ सपजवसियाओ, नो सादीयाओ अपजवसियाओ, णो अणादीयाओ सपजवसियाओ, अणादीयाओ अपजवसियाओ । एवं जाव-उड्डमहायताओ।
५०. [प्र०] लोयागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ सपजवसियाओ-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सादीयाओ सपजवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ, नो अणादीयाओ सपन्जवसियाओ, नो अणादीयाओ अपजवसियाओ । एवं जाव-उडमहायताओ।
५१. [प्र०] अलोयागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ०-पुच्छा। [उ.] गोयमा ! सिय साइयाओ सपजवसियाओ १, सिय साईयाओ अपजवसियाओ २, सिय अणादीयाओ सपजवसियाओ ३, सिय अणाइयाओ अपजवसियाओ ४। पाईणपडीणाययाओ दाहिणुत्तरायताओ य एवं चेव । नवरं नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय साईयाओ अपजवसियाओ, सेसं तं चेव । उहुमहायताओ जहा ओहियाओ तहेव चउभंगो।
मोकनी मेणि.
४६. [प्र०] हे भगवन् ! अलोकाकाशनी श्रेणिओ शुं संख्यातप्रदेशरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कोईक *संख्यात प्रदेशरूप होय, कोई असंख्यात प्रदेशरूप होय अने कोई अनंतप्रदेशात्मक पण होय.
४७. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्व अने पश्चिम लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ शुं संख्यात प्रदेशनी होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! संख्यात प्रदेशनी नथी, पण अनंत प्रदेशनी होय छे. ए प्रमाणे दक्षिण अने उत्तर लांबी श्रेणिओ संबंधे पण जाणवु.
४८. [प्र०] हे भगवन् ! उंचे अने नीचे लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कदाच ते संख्यात प्रदेशनी होय, कदाच असंख्यात प्रदेशनी होय, अने कदाच अनंत प्रदेशनी होय.
४९. [प्र०] हे भगवन् ! श्रेणिओ शु १ सादि-आदिवाळी अने सपर्यवसित-सान्त छे, २ सादि अने अन्तरहित छे, ३ अनादि
त छे के ४ अनादि अने अनन्त (अन्तरहित) छे ? [उ०] हे गौतम ! १ सादि अने सान्त नथी, २ सादि अने अनंत नथी, ३ अनादि अने सान्त नथी, पण ४ अनादि अने अनन्त छे. ए प्रमाणे यावत्-ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओ संबंधे समजवू.
नोकाकासणिको ५०. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाशनी श्रेणिओ शुं सादि अने सान्त छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम | ते सादि अने सान्त भने सादि सप- छे, पण सादि अने अनन्त नथी, अनादि अने सान्त नथी, तेम अनादि अने अनन्त पण नथी. ए प्रमाणे यावत्-ऊर्ध्व अने अधो यवसित भंग.
लांबी श्रेणिओ संबंधे पण जाणवू.
५१. प्र०] हे भगवन् ! अलोकाकाशनी श्रेणिओ शुं सादि अने सान्त छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! कोइक सादि अने णिओ संबंधे सादि सान्त होय, कोइक सादि अने अनन्त होय, कोइक अनादि अने सान्त होय, तथा कोइक अनादि अने अनन्त होय. ए प्रमाणे पूर्वसपर्यवसितादि भांगा.
पश्चिम लांबी अने दक्षिण-उत्तर लांबी श्रेणिओ संबंधे जाणवू. परन्तु ते सादि अने सांत नथी, पण कोइक सादि अने अनन्त छे-इत्यादि बाकी बधुं पूर्वोक्त कहेवू. तथा सामान्य श्रेणिओनी पेठे ऊर्ध्व-अधो लांबी श्रेणिओ संबंधे पण पूर्व प्रमाणे चार भांगा करवा.
४६ * अलोकाकाशनी संख्यात अने असंख्यात प्रदेशनी श्रेणिओ कही छे ते लोकमध्यवर्ती क्षुल्लक प्रतरनी नजीकमां आवेली ऊर्ध्व-अधो लोधी अधो लोकनी श्रेणिओने आश्रयी समजवू. तेमां जे प्रारंभमा आवेली श्रेणिओ छे ते संख्यात प्रदेशनी छे, अने त्यार पछी आवेली श्रेणिओ असंख्यात प्रदेशनी छे. तिरछी लांबी अलोकाकाशनी श्रेणिओ तो अवश्य अनंत प्रदेशरूप होय छे.
५१ + मध्यलोकवर्ती क्षुल्लक प्रतरनी नजीक आवेली ऊर्ध्व अने अधो लांबी श्रेणिओने आश्रयी प्रथम सादि सान्त भोगो जाणवो. लोकान्तथी आरंभी चोतरफ जती श्रेणिओने आश्रयी बीजो सादि अनन्त भंग जाणवो. लोकान्तनी पासे बधी श्रेणिओनो अन्त थतो होवाथी तेने आश्रयी त्रीजो अनादि सान्त भांगो जाणवो. लोकने छोडीने जे श्रेणिओ आवेली छे ते आश्रयी चोथो अनादि अनन्त भागो थाय छे. __ अलोकने विषे पूर्व-पश्चिम अने उत्तर-दक्षिण श्रेणिओनी आदि छे, पण तेनो अन्त नथी तेथी प्रथम सादि सान्त भांगो घटी शकतो नथी. ते सिवायना बाकीना त्रण भांगाओ संभवे छे..
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